Category Archives: हिन्दी

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार

अब गृहाश्रम के प्रसग् में विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार किया जाता है कि इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है ? ब्रह्मचर्य आश्रम सेवन के पश्चात् मनुष्य को गृहाश्रम का प्रारम्भ करना चाहिये। उसमें विवाह करना ही गृहाश्रम का मुख्य स्वरूप है। इसी कारण गृह नाम स्त्री के समीप रहने वाला गृहस्थ कहाता है। यदि गृहस्थ शब्द का यह अर्थ माना जावे कि जो गृह नाम घर में रहे वह गृहस्थ है, तो ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ भी किसी प्रकार के घर में ही ठहरते हैं, तो उनकी भी गृहस्थ संज्ञा होनी चाहिये। अथवा यदि संन्यासी भी किसी के घर में ठहरा हो तो उसका भी गृहस्थ नाम पड़ना चाहिये। अथवा जिन-जिन के स्त्री नहीं और वे किसी घर में रहते हैं, तो गृहस्थ कहाने चाहियें। पर ऐसी परिपाटी लोक में नहीं है। इस कारण गृह शब्द स्त्री का पर्यायवाचक रखना चाहिये कि जो गृह नाम स्त्री के समीप ठहरे वह गृहस्थ वही गृहाश्रमी भी है। और स्त्री के साथ सम्बन्ध वा मेल होना ही विवाह है। अर्थात् स्त्री उसको अपना पति चित्त से मान ले और पुरुष उस स्त्री को अपनी पत्नी चित्त से मान ले इस प्रकार उन दोनों का परस्पर मन, वाणी और शरीर से सम्बन्ध होना, विवाह पद का अर्थ है। यदि मण्डप रचना पूर्वक कन्या के घर में जो वेदोक्त क्रिया होती अर्थात् मन्त्र पढ़ते वा होमादि करते हैं, उसका नाम विवाह मान लें, तो गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम विवाह नहीं पड़ेगा क्योंकि उनमें वैदिक मग्लाचरण वा शिष्ट लोगों का स्वीकृत व्यवहार प्रायः नहीं होता। इसीलिये वे निन्दित विवाह माने गये हैं। परन्तु क्षत्रियों में पहले से ही गान्धर्व विवाह की कुछ-कुछ प्रवृत्ति चली आती है। और गान्धर्व विवाह में प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग पहले ही हो जाता है, और पीछे विवाह का कृत्य अर्थात् कुछ शिष्ट व्यवहार भी होता है। इसमें विवाह की प्रसिद्धि करने से पूर्व प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग हो जाता है, इसी कारण श्रेष्ठ लोगों में इसकी निन्दा है। यही चाल आजकल इग्लेण्डदेशवासियों में है, कि कन्या और वर की इच्छा से पहले संयोग भी हो जाता है। विवाह में वैदिकप्रक्रिया मन्त्रपाठ वा होमादि करने और अनेक सज्जन पुरुषों के सामने प्रतिज्ञा पढ़े जाने का यही प्रयोजन है, कि एक तो सर्वसाधारण को प्रकट हो जावे, कि अमुक का पुत्र और अमुक की कन्या का विवाह हो गया और द्वितीय उन कन्या वरों की प्रतिज्ञा के अनेक सज्जन लोग साक्षी हो जावें, कि प्रतिज्ञा से विरुद्ध चलने में उन दोनों को भय रहे कि हमको वे लोग धिक्कार देंगे। और तृतीय ऐसे बड़े आजन्म सम्बन्ध होने के प्रारम्भ में सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करना, कि वह सबका स्वामी सदा हमको धर्म पर चलने की प्रेरणा करे इत्यादि प्रयोजनों के लिये मग्लाचरणरूप वेदी पर कृत्य अवश्य करना चाहिये, पर उस कृत्य का नाम विवाह नहीं है। इसी कारण यदि वेदीमात्र का कृत्य होकर कन्या वर पृथक्-पृथक् हो जावें और फिर उनका मैथुन संयोग होने से पूर्व ही पुरुष का शरीर छूट जावे तो वह कन्या धर्मशास्त्रानुकूल विधवा नहीं मानी जा सकती और ऐसी दशा में उस पुरुष के मर जाने पर उस कन्या का फिर से वेदोक्तरीति का विवाह हो सकता है पर लोक में इससे विरुद्ध चाल पड़ गयी है कि वेदी पर के कृत्य को ही पूरा विवाह समझ लेते हैं, और उस कृत्य के पश्चात् पुरुष के मर जाने से कन्या को विधवा मानकर बैठाल रखते हैं। इसका बड़ा कारण अविद्या है। इस विषय का जिनको विशेष व्याख्यान देखना हो वे “विवाहव्यवस्था” नामक पुस्तक में देखें। इस प्रकरण में तात्पर्य यही है कि वेदी पर जो वेदोक्त मग्लाचरण होता है वह स्वयं विवाह नहीं किन्तु विवाह की प्रसिद्धि प्रार्थना और प्रतिज्ञा होने के लिये है और विवाह का पूर्वरूप है जैसे ज्वर के पूर्वरूप को कोई ज्वर माने वा कहे तो सर्वथा विरुद्ध वा हानिकारक नहीं, वैसे यहां नहीं घटता क्योंकि विवाह शब्द का अर्थ पतिपत्नीभाव से स्त्री-पुरुष का संयोगमात्र न माना जावे तो गान्धर्वादि को विवाह नहीं कह सकते। इसलिये विवाहशब्द का उक्तार्थ ही ठीक है। इसी अर्थ से द्वीपान्तर निवासियों के सम्बन्ध को भी विवाह कह सकते हैं। इस लेख से मेरा यह प्रयोजन नहीं है कि ब्राह्मादि श्रेष्ठ विवाहों में वैदिक मग्लाचरण करना विशेष प्रयोजनीय नहीं, किन्तु आशय यह है कि ब्राह्म आदि शिष्ट विवाह हैं, और जिनमें वेदोक्तक्रिया नहीं होती, वे नीच लोगों के विवाह हैं। इससे ब्राह्मादि उत्तम हैं। और ब्राह्मणादि वर्णों को वैसे ही करना चाहिये। पर वेदी की क्रिया मात्र को विवाह समझ लेने से ही अनेक कन्या निरपराध विधवा मानकर बैठा रखी हैं, यही बड़ी हानि है, यदि विवाह का ठीक अर्थ समझ लें तो जिनका पुरुष से संयोग नहीं हुआ वे कन्या वास्तव में विधवा नहीं। उनका विवाह भी नहीं हुआ तो अब उनका ठीक विवाह निःसन्देह कर देना चाहिये यही मेरा प्रयोजन है।

विवाह के आठ भेद हैं, अर्थात् मनुष्य जाति भर में आठ प्रकार के ही विवाह माने जा सकते हैं। उनके नाम ब्राह्म, दैव आदि हैं। इनका विशेष व्याख्यान वहीं तृतीयाध्याय के भाष्य में होगा। परन्तु इस प्रसग् में इतनी शटा हो सकती है कि स्वयंवर विवाह कौन है ? इसका उत्तर यह है कि स्वयंवर इन आठ से भिन्न कोई विवाह नहीं, किन्तु मुख्यकर प्राजापत्य के अन्तर्गत आ सकता है, क्योंकि उसमें कन्या-वर दोनों परस्पर पहले प्रतिज्ञा कर लें, कि हम दोनों परस्पर प्रसन्न हैं, गृहाश्रम में धर्म करेंगे, ऐसा वाणी से कहकर वेदोक्त विधि से विवाह किया जाय, वह प्राजापत्य है। पद्मावती आदि के स्वयंवर में यही हुआ भी है कि पहले वर-कन्या की परस्पर प्रसन्नता होकर विवाह हुए हैं। इसीलिये इसको चार प्रशस्त विवाहों में रखा है कि जो आर्यों को करना चाहिये।

विवाह प्रसग् में एक पुरुष को एक ही स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये। यह वार्त्ता ‘पुत्र-पौत्रों के साथ आनन्द करते हुए दोनों स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में धर्म का सेवन करें’।१ इस अथर्वमन्त्र में द्विवचन का ग्रहण होने से ही निश्चय होती है कि यही वेद का सिद्धान्त है। और यही सनातन धर्म है कि एक पुरुष एक ही सवर्ण स्त्री के साथ विवाह करे। ऐसा होने पर जो कोई कामी पुरुष अपने वर्ण की वा अन्य वर्णों की अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, वे वेदविरुद्ध हैं। और पूर्वकाल में किन्हीं प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी ऐसा किया तो जानो वेदविरुद्ध किया। अर्थात् कई विवाह कर लेने से किसी की प्रतिष्ठा नहीं होती किन्तु प्रतिष्ठा के हेतु उन लोगों के अन्य श्रेष्ठ काम थे [यद्यपि असवर्ण वा अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करना धर्मानुकूल वा प्रशंसा योग्य सुख का हेतु काम नहीं है, तथापि उससे भी अधिक निकृष्ट कर्म की अपेक्षा वह अच्छा है। अर्थात् अपने से उच्च वर्ण की कन्या से विवाह करना अत्यन्त बुरा है। इसलिये यदि असवर्णों के साथ विवाह किसी कारण करना ही पड़ता हो, वा अपने वर्ण की योग्य अनुकूल कन्या नहीं मिलती हो, तो अपने से नीचे वर्ण की कन्या से विवाह कर लेना चाहिये। इसका प्रयोजन यह है कि पुरुष का अंश उत्तम और स्त्री का कुछ निकृष्ट रहने से सन्तान ठीक धर्मात्मा वा विचारशील उत्पन्न होते हैं। जैसे अन्य पदार्थों के मेल से वस्तु बनते हैं, वहां भी यह नियम रहता है कि अमुक-अमुक इस-इस प्रकार का इतना-इतना पदार्थ मिलने से अमुक वस्तु ठीक बनेगा। इसी कारण वैसा ठीक मेल न मिलने से अनेक वस्तु बिगड़ जाते हैं। इस पर कुछ अधिक समाधान की आवश्यकता नहीं, जो कोई निश्चय करना चाहे वह प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, अर्थात् एक ब्राह्मण से शूद्र की कन्या में उत्पन्न हुए और एक शूद्र से ब्राह्मणी में उत्पन्न हुए सन्तानों के गुण-कर्म-स्वभाव का कितना भेद पड़ता है ?] तो भी जो कामी लोग सामान्य प्रकार से अर्थात् निषिद्ध माता, भगिनी पक्ष की स्त्रियों के साथ भी व्यभिचार करते हैं, अथवा वेष्याओं का सेवन करते हैं, उनकी अपेक्षा अनेक विवाह करने वाले कामी लोग सुखी वा धर्मात्मा होते हैं। इस प्रकार कामी पुरुषों को भ्रूणहत्यादि महापातकों से रोकने के लिये यह उपाय वा किन्हीं का मत अच्छा है, कि जो अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लेना चाहिये अर्थात् निषिद्ध स्त्रियों और वेष्याओं के साथ विवाह करने की अपेक्षा कामासक्त पुरुषों को अनेक विवाह करके निर्वाह करना अच्छा है। किन्तु एकस्त्रीव्रत वाले सनातन धर्मी की अपेक्षा से वे कामी उत्तम नहीं हैं। इसीलिये इस मनुस्मृति के तृतीयाध्याय में लिखा गया है कि जो कामासक्ति के साथ प्रवृत्त हैं, उनके लिये आगे कही गई अन्य वर्णों की स्त्रियों के साथ भी विवाह हो सकता है। इसमें दो पक्ष हैं कि अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करने वाले को अपने वर्ण की अनेक स्त्रियां न हों वा किसी कारण न प्राप्त हो सकें तो अपने से नीचे वर्ण की अन्य स्त्रियों के साथ विवाह करना चाहिये। उनमें ब्राह्मण को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की कन्याओं के साथ विवाह कर लेना चाहिये, यह किन्हीं का मत है, और अन्य मनु आदि के मत में तो ब्राह्मण, क्षत्रियों को शूद्र की कन्या के साथ कदापि विवाह न करना चाहिये। यह अनेक धर्मात्माओं और मानवधर्मशास्त्र का मत है। यद्यपि नीति वालों के कहने वा मानने के अनुसार स्त्री सम्बन्धरूप विवाह के दो फल हैं। जैसे नीति में लिखा है कि ‘रति और पुत्र ये दो फल स्त्री के हैं।’१ परन्तु धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त से सन्तानों की उत्पत्ति ही मुख्य फल है, किन्तु रतिमात्र चाहने वाले पुरुष धर्मात्मा नहीं हो सकते। जैसे कहा है कि ‘जो अर्थ- धनादि और काम भोग में आसक्त नहीं हैं, उनके लिये धर्म का उपदेश किया गया है’२ अर्थात् जो धनादि की प्राप्ति और कामभोग में आसक्त हैं, अर्थात् तृष्णारूप नदी में गोता खा रहे हैं, उनको धर्म का ज्ञान नहीं होता। इससे स्त्री का सम्बन्ध होने पर यदि पुत्रादि उत्पन्न हों, तो गृहाश्रम की सफलता है, अन्यथा निष्फल है। इसी कारण नीति में लिखा है कि- ‘सन्तति न हो तो मैथुन करना शोचनीय है।’३ इसी कारण विवाह करने से पूर्व ही मन में फल का अनुसन्धान करने के लिये और उत्तम सन्तान होने के लिये उपाय दिखाये गये हैं, कि यह कार्य इस प्रकार किया हुआ सफल और अच्छा फलदायक होता है वा होगा। और विरुद्ध अनिष्ट फल को हटाने के लिये कहा है, कि इस-इस प्रकार की कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये।

सम्यक् विचार पूर्वक भी यदि विवाह किया जाय और किसी कारण फल-सिद्धि न हो, और दो में से एक मर जावे। उनमें यदि अक्षतयोनि स्त्री     विधवा हो जावे, अर्थात् पति मर जावे, अथवा विरक्त साधु, पतित, नपुंसक और असाध्यरोगी और सन्तानों के उत्पन्न कर सकने में अशक्त किसी प्रकार हो जावे, तो उस स्त्री को दूसरे पति से विवाह कर लेना चाहिये। और उसके पिता वा भाई को उचित है कि अन्य पुरुष के साथ सम्बन्ध कर दें। ‘वह कन्या यदि अक्षतयोनि हो तो पौनर्भव नामक पुरुष के साथ उसका पुनर्विवाह करना चाहिये।’१ इत्यादि वचनों से मनु जी ने भी अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह कहा है। तथा कात्यायन स्मृति में लिखा है कि ‘मन-वाणी से स्त्री को स्वीकार करके जो कोई पुरुष मर जावे और उस कन्या से संयोग न हुआ हो तो कन्या अन्य वर को तीन मास पीछे स्वीकार कर लेवे। तथा वेदी सम्बन्धी विवाह क्रिया हुए पश्चात् वर अन्य वर्ण का अर्थात् अपने से नीच वर्ण का निकले, वा पतित, नपुंसक, दुष्कर्मी, सगोत्र, शूद्र अथवा दीर्घरोगी निकले तो विवाह हो जाने पर भी उस कन्या का विवाह अन्य अच्छे निर्दोष वर के साथ कर देना चाहिये।’२ इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह वैदिकरीति से ही कर देना चाहिये। युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि जैसे जगत् में जो कार्य जिस प्रयोजन वा फल के लिये आरम्भ किया जाता है, वह यदि किसी प्रकार निष्फल हो जावे, तो उसको फिर भी करते हैं। अर्थात् दो बार, तीन बार आदि भी करते हैं कि जब तक सफल न हो, तब तक बार-बार करते हैं। जैसे क्षुधा की निवृत्ति के लिये अन्न पकाते हैं। यदि वह पाक किसी प्रकार सफल न हो, तो फिर पाक किया जाता है। वैसे ही यहां भी एक वा दो विवाहों से फल सिद्ध न हो, तो बार-बार कई विवाह करने चाहियें। उन्हीं की नियोग संज्ञा पड़ती है, इसी प्रकार अनेक नियोग निकलते हैं। और विवाह का अवान्तर भेद पुनर्विवाह वा नियोग है। उनमें अक्षतयोनि कन्या का पति मर जाने वा किसी प्रकार सन्तानोत्पत्तिरूप फल सिद्ध करने में असमर्थ होने पर पुनर्विवाह करना चाहिये, और उसमें मरणपर्यन्त स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध बना रहता है, इस कारण उसको पुनर्विवाह कहते हैं। क्षतयोनि स्त्री का पुत्रादि के अभाव में सन्तानोत्पत्ति के लिये ही नियोग करना चाहिये। नियोग में उन-उन स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध दो पुत्रों की उत्पत्ति पर्यन्त ही रखा जाता है। ये पुनर्विवाह और नियोग दोनों आपद्धर्म हैं। इसी कारण सबको नियोग वा पुनर्विवाह करने नहीं पड़ते। यदि कोई स्त्री वा पुरुष सनातनधर्मरूप ब्रह्मचर्य के साथ नहीं रह सकता हो, और व्यभिचार के साथ गर्भपातादि पाप करावे वा अनेक विपत्तियां भोगे, उसकी अपेक्षा पुनर्विवाह वा नियोग द्वारा निर्वाह करना उत्तम है। जब विवाह का भी किन्हीं के मत में नियम वा बन्धन नहीं है। यदि कोई पुरुष वा स्त्री विवाह करना ना चाहे, वह विवाह न करके जन्म भर ब्रह्मचर्य आश्रम के साथ रहे, तो जिसकी स्त्री वा जिस स्त्री का पति मर जावे, उस पर शास्त्र का बन्धन क्यों कर हो सकता है ? कि जो उसको विवाह करना ही चाहिये। किन्तु इस अंश में दोनों स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र हैं, चाहें विवाह करें वा न करें। जो लोग नियोग और पुनर्विवाह करते हैं, उनकी अपेक्षा से ब्रह्मचर्य में स्थित स्त्री-पुरुष अतिश्रेष्ठ हैं। परन्तु जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहना भी अति कठिन है। साधारण लोग ऐसा नहीं कर सकते, किन्तु कोई विचारशील ब्रह्मचर्य के तेज को सह सकता है। नियोग का विधान नवमाध्याय में किया है, उसका विशेष व्याख्यान भी वहीं देखना चाहिये। वहां नियोग विधान किये पश्चात् चार श्लोकों से नियोग का खण्डन भी किया है, उसकी समीक्षा नवमाध्याय के प्रक्षिप्त प्रसग् में होगी। सन्तान चाहने वाली क्षतयोनि स्त्री को नियोग करना चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त है। नियोग का आपद्धर्म होना, मनु जी ने नवमाध्याय में स्वयमेव स्वीकार किया है, कि- ‘अब आगे स्त्रियों के आपत्काल का धर्म कहेंगे।’१ अनेक लोग इस विषय में विरुद्ध निश्चय किये हुये हैं कि कलियुग में नियोग नहीं करना चाहिये। और उन लोगों ने ऋषियों के नाम से बनाये धर्मशास्त्राभासों में लिखा भी है कि- ‘घोड़े का मारना-          अश्वमेध, गौ का मारना- गोमेध, संन्यास धारण करना, मांस के पिण्ड देना और नियोग करना, ये पांच कर्म कलियुग में न करे।’२ इत्यादि। यह वेद से विरुद्ध और प्रमादी लोगों का कहा वचन है, क्योंकि वेद जैसे पवित्र पुस्तक में घोड़े का मारना आदि घृणित काम कैसे हो सकता है ? अर्थात् वेद धर्म का मूल है और अहिंसा को सब लोग परम धर्म मानते हैं। यदि वेद में घोड़े आदि की हिंसा हो तो वह धर्म का मूल नहीं हो सकता। इस अंश के विशेष व्याख्यान करने का यहां अवसर नहीं। संन्यास और नियोग अवसर, योग्यता वा अधिकार के अनुसार करने चाहियें। इसीलिये वेद के नियोग प्रकरण में लिखा है कि- ‘वैसे संवत्सर वा समय आगे आवेंगे कि जब कुलस्त्री लोग अनुचित व्यभिचारादि कर्म करेंगी, उन समयों में नियोग करना चाहिये।’१ इससे नियोग वेदानुकूल सिद्ध होता है। तिससे गर्भहत्या न होने के लिये और आपत्काल में विधवाओं का निर्वाह करने के लिये योग्यतानुसार नियोग वा पुनर्विवाह अवश्य करने चाहियें। और जब भूख लगती है, तब उसकी निवृत्ति के लिये बुद्धिमान् को अवश्य यत्न करना चाहिये। जिन पुस्तकों में भूख न लगने पर भी भोजन देने का विधान है, वे धर्मशास्त्र नहीं। जब जैसे कर्म से मनुष्यों के दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति होती है, उस काल में वैसे कर्मों के सेवन के लिये जिन पुस्तकों में आज्ञा लिखी है, वे ही वेदादि श्रेष्ठ पुस्तक धर्मशास्त्र कहाने योग्य हैं। और धर्मशास्त्र बनाने का यही प्रयोजन है कि जो उनमें कहे मार्ग से चलते हुए मनुष्य दुःखों को न प्राप्त हों और यथासमय सुखों को अवश्य प्राप्त हों। जिन पुस्तकों में समयानुसार दुःख से बचने का उपाय नहीं दिखाया गया, वे धर्मशास्त्र नहीं हैं। इस कारण नियोग के निषेध करने वालों का धर्मशास्त्र न होना ही प्रामाणिक न होने में हेतु है। इससे सामयिक दुःखों की निवृत्ति के लिये विचारशील धर्मात्मा लोगों को आपत्काल में नियोग से धर्म की रक्षा करनी चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त वा आशय है।

केरल के साठ वर्षीय वेद प्रचार का मूल्यांकन

ओउम
केरल के साठ वर्षीय वेद प्रचार का मूल्यांकन
डा.अशोक आर्य
केरल में वेद प्रचार तथा आर्य समाज का जो पौधा प्र. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लगभग साठ वर्ष पूर्व लगाया था तथा जिस के प्रमुख प्रचारक केरल में आचार्य नरेंद्र भूषण जी ने चेनगान्नुर को केंद्र बना कर कार्य किया , उस के परिणाम स्वरूप केरल के लगभग प्रत्येक कोने में आर्य समाजका नाम दिखाई देने लगा था | अनेक प्रचारक तैयार हुए , अनेक पुस्तकें , यहाँ तक चार वेद भी मूल रूप में मलयालम में अनुदित होकर प्रकाशित हुए तथा निरंतर यग्य व शुद्धि का कार्य हुआ तथा लगभग डेढ़ लाख इसाई व् मुसलमान भी शुद्ध किये गए | चाहे अपने जीवन के अंतिम क्षणों में वह स्वेच्छा से कार्य न करा सके क्योंकि पुत्र के इशारे पर चलना उनके लिए आवह्य्स्क होगया था किन्तु उनके प्रयास का परिणाम यह हुआ कि कारल के कालीकट जिसे आजकल कोजिकोड़े कहते हैं में वेद रिसर्च फौन्देशन चला रहा है | एरनाकुलम में विगर दिनाओं मलयालम में यजुर्वेद ऋषि भाष्य का अनुवाद प्रकाशित हो चूका है | बहुत से ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुके हैं , यहाँ तक कि सत्यार्थ प्रकाश का मलयालम अनुवाद भी चेनगान्नुर से प्रकाशित हुआ | विगत अनेक वर्षों से कालीकट के डा. एम् आर राजेश की देख रेख व प्रयास से उनके साथियों के नेतृत्व में लगभग पचास हजार परिवारों में प्रतिदिन यज्ञ हो रहा है , अनेक ग्रथों का प्रकाशन भी किया जा रहा है अनेक शिविर व समारोह भी हो रहे हैं |
केरल के जिला ही पालाकाड के विलेंजी के श्री के आर राजन जी खूब काम कर रहे हैं | इन्होंने भी सत्यार्थ प्रकाश सहित अनेक ग्रंथों का मलयालम में अनुवाद कर ऋषि का ऋण चुकाने का यत्न किया है | यहाँ पर एक गुरुकुल , एक गौशाला तथा एक उपदेशक विद्यालय भी चल रहा है | खूब जोर का काम चल रहा है |
मैं विगत बावन वर्ष से केरल वैदिक मिशन से जुडा हूँ | अनेक वर्ष इसका सदस्य, प्रचार मंत्री तथा लगभग बीस वर्ष इसका महामंत्री रहा | आजकल मैं इस का संरक्षक हूँ तथा इसकी सब जिम्मेवारियां युवकों को सौंप दी है | इस कार्य के लिए पचास से भी अधिक बार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी कई बार स्व. डा, धर्मवीर आर जी और कई बार मैं भी वहां का काम देखने तथा वहां प्रचार के लिए गए हैं | इस सब प्रयासों के कारण ही केरल में वेद तथा आर्य समाज की तूती नोला रही है |
यश के लिए झूठ
लोग इस प्रकार के हैं जो बिअना प्रयास के झूठ का सहारा ले कर सत्य को झुठलाने लगे हैं | एसा ही एक उदाहरण आज महर्षि दयानान्न्द गो संवर्धन केंद्र गाजीपुर दिल्ली में भी देखने को मिला | आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली के मंत्री विनय आर्य ( जो केरल वैदिक मिशन के लम्बे समय के कार्य से भली भाँती परिचित हैं ) ने यहाँ बोअलाते हुए कहा कि केरल में आर्य समाज का दो वर्ष पूर्व कोई काम न था किन्तु महाशय धर्म पाल जी ने सात एकड़ जमीं लेकर कालीकट में वेद रिसर्च फाउंडेशन कि स्थापना की ( जब कि यह पहले से ही कार्य हो रहा है और मैं आठ वर्ष पूर्व इस फाउंडेशन के कार्यक्रम में भाग लेने गया था और मुझे तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के साथ बंगलोर के डा. राधाकृष्ण जी तथा हैदराबाद के डा. हरीश जी को सम्मानित ई किया गया था और इस सब की जानकारी विनय आर्य जी को थी ) तथा अब केरल के कालीकट में प्रथम गौशाला भी स्थापित की जा रही है | नजाने कुन सा यश लेने के लिए यह झूठ परोसने का कार्य विनय आर्य जी कर रहे हैं आर्य समाज के नियमों में कहा गया हाई “ सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने को सर्वथा उद्यत रहना चाहिये “|अर्थात सत्य के प्रकाशन के लिए चाहे कितने भी कष्ट उठाने पड़े घबराना नहीं चाहिए और यह्सभा के मंत्री असत्य का प्रचार कर रहे हैं , यह घृणित व निंदनीय है | आहिये उन्हें अपनी इस भूल के लिए क्षमा माँगते हुए भविष्य में झोत बोलने से बचने का संकल्प लेना चाहिए अथवा आर्य समाज के सब पदों स अलग हो जाना चाहिए |
डा. अशोक आर्य

द्वितीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्वितीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। इस अध्याय पर व्यूलरसाहब ने कहा है कि “यद्यपि द्वितीयाध्याय से लेकर षष्ठाध्यायपर्यन्त सब कथन मनुस्मृति में धर्मसूत्रों के अनुकूल है, तो भी बीच-बीच में कहीं-कहीं पीछे से श्लोक मिलाये जान पड़ते हैं। जैसे- इस द्वितीयाध्याय में प्रारम्भ से ११ ग्यारह श्लोक पीछे किन्हीं ने मिलाये हैं। अर्थात् १-५ तक श्लोक किसी भी धर्मशास्त्र के आशय से नहीं पाये जाते। छठा श्लोक पुनरुक्त है, क्योंकि बारहवें में यही बात कही गयी है, जो छठे में है। सातवें पद्य में आत्मश्लाघा दोष है, अर्थात् अपने आप ही प्रशंसा की है। आठवें और नववें श्लोक में फल दिखाया गया है तथा दशवें, ग्यारहवें श्लोकों में तर्क का निषेधरूप दोष आता है, क्योंकि धर्म विषय की तर्क से अवश्य परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार आदि के ११ श्लोक प्रक्षिप्त हैं” इत्यादि।

इसका उत्तर यह है कि- यह नियम नहीं कर सकते कि जो एक किसी     धर्मशास्त्र में हो और सबमें न हो वह प्रक्षिप्त माना जावे। क्योंकि सब लोग बराबर नहीं कह सकते, अर्थात् आप ही पहले कही बात का प्रत्यक्षर अनुवाद कोई नहीं कर सकता। इस समय भी पुस्तक बनाने वाले विद्वान् लोग एक ही विषय में अपने-अपने अनुभव को लेकर न्यूनाधिक लिखते वा कहते हैं, उनमें किसी का कथन प्रक्षिप्त वा प्रामादिक नहीं समझा जा सकता। किन्तु जो प्रकरण-विरुद्ध,    धर्म-विरुद्ध वा पक्षपात-युक्त हो वही प्रक्षिप्त है। किन्तु किसी अन्य की अपेक्षा से अधिक कथन प्रक्षिप्त नहीं है।

और जो छठे, बारहवें श्लोकों में पुनरुक्त दोष दिया, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि उन दोनों के अभिप्राय में भेद है। और कदाचित् पुनः वही बात कही भी गयी हो, तो अनुवादार्थ मानने में दोष नहीं। छठे श्लोक में धर्म का मूल दिखाया, और बारहवें में साक्षात् धर्म का स्वरूप कहा है। छठे में मनु जी का मत दिखाया गया है, और बारहवें में अपने मत का अनुवाद करके अपना मत पुष्ट करने के लिये अन्य लोगों की सम्मति “आहुः” क्रिया से दिखायी है। इस प्रकार मानने से पुनरुक्ति दोष नहीं आता। सातवां श्लोक किसी प्रकार आत्मश्लाघा दोष से युक्त हो, तो वहां भी भृगु ने मनु जी की प्रशंसा की है, इससे आत्मश्लाघा नहीं है। मनु जी की प्रशंसा करने से भृगु का अभिप्राय यह है कि- इस मानवधर्मशास्त्र के पढ़ने वाले लोग मन में गौरव रखके इस शास्त्र को पढ़ें, विचारें, किन्तु सहसा वेदविरुद्ध न मान लेवें। आठवें, नववें श्लोकों में जो फलश्रुति है, वह रुचि बढ़ाने के लिये अर्थवाद है। जिस वस्तु की गुण-कीर्त्तन रूप स्तुति की जाती है, उसमें मनुष्य श्रद्धा करते हैं, इसलिये अर्थवाद सफल ही है। दशवें, ग्यारहवें श्लोक तर्क के निषेध करने वाले नहीं हैं, किन्तु आशय यह है कि- वैसा तर्क न करना चाहिये, जिससे वेद और वेदानुकूल स्मृति का भी खण्डन हो जावे, अथवा बौद्ध वा सौगत आदि नाम वाले नास्तिक लोग जैसे तर्क का आश्रय लेते हैं, वैसा तर्क नहीं करना चाहिये। “जो तर्क के साथ अनुसन्धान करता है, वह ठीक धर्म को जान लेता है, अन्य नहीं” इस प्रकार कहे बारहवें अध्याय के वचन से सूचित होता है कि धर्म की रक्षा और धर्म को सिद्ध करने के लिये तर्क करना चाहिये, किन्तु धर्म वा धर्म को कहने वाले शास्त्र के खण्डन के लिये तर्क नहीं करना चाहिये, यह बात इस द्वितीयाध्याय के दसवें, ग्यारहवें श्लोकों से जतायी गयी है। जैसे दुष्ट को मारने के लिये शस्त्र चलाना चाहिये, किन्तु अपना शरीर काटने के लिये नहीं। जैसे शस्त्र से सब उचित-अनुचित का छेदन हो सकता है, वा जैसे गम्या-अगम्या दोनों में मैथुन हो सकता है, पर तो भी उचित का छेदन और गम्या में मैथुन करना चाहिये, यह शास्त्रों में विधान किया गया है। वैसे ही तर्क से उचित का ही खण्डन करना चाहिये तथा रक्षा करने के योग्य धर्म वा धर्मशास्त्र की रक्षा करनी चाहिए, यह तात्पर्य है।

और जो व्यूलरसाहब ने यह कहा कि तेरह आदि अनेक श्लोक द्वितीय अध्याय में अन्य धर्मशास्त्र से अधिक कहे हैं। इसका उत्तर भी मैंने दे दिया है। परन्तु किसी से यह अधिक है, इसलिये दूषित है यह नहीं हो सकता। तथा इस द्वितीयाध्याय में व्यूलरसाहब के कथनानुसार अठासीवें श्लोक से लेकर सौवें श्लोक पर्यन्त प्रकरण विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इन (८८- १००) पद्यों के पूर्व और पर सन्ध्या का प्रकरण है। बीच में जितेन्द्रियता का प्रसग्, इन्द्रियों का परिगणन, अवान्तर भेद और उनको विषयों से रोकने का उपाय इत्यादि कथन विरुद्ध है, उस विषय का मानवधर्मसूत्रों में वर्णन नहीं था और था तो अति संक्षेप से था। उसी को भृगु ने पद्य बनाते समय विस्तार पूर्वक वर्णन किया, ऐसा अनुमान होता है। और सन्ध्या कर्म में जितेन्द्रियता का भी बड़ा उपयोग है, क्योंकि जिसके वश में अपने इन्द्रिय नहीं, वह सन्ध्या के फल का भागी कदापि नहीं हो सकता। इस कारण यद्यपि उक्त तेरह श्लोकों का आशय मनु जी का कहा नहीं था, तथापि उनमें धर्म से वा वेद से विरोध वा पक्षपात नहीं प्रतीत होता, जिससे वे श्लोक किसी प्रकार दूषित कहे जावें। इस प्रकार व्यूलरसाहब ने द्वितीयाध्याय पर जो कुछ कहा है उसका उत्तर जानो।

इस अध्याय में बावनवां श्लोक भी विचारणीय है, अर्थात् इस श्लोक में जो बात कही है कि “अवस्था चाहने वाला पूर्व को मुख कर, यश चाहने वाला दक्षिण को, लक्ष्मी चाहने वाला पश्चिम को और सत्य चाहने वाला उत्तर को मुख कर भोजन करे” यह असम्भव है। क्योंकि जब चार ही दिशाएं हैं, तो कभी किसी और कभी किसी दिशा में मुख कर के भोजन करना ही पड़ेगा। तो प्रत्येक मनुष्य सब दिशाओं में मुख कर के भोजन कर सकते हैं, यदि वैसा फल होना सम्भव हो तो, सभी मनुष्य चारों फल के भागी होवें, पर यह बात प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध है, अर्थात् प्रत्यक्ष में सब मनुष्यों में वैसे फल नहीं दीखते अर्थात् प्रायः पश्चिम को मुख कर भोजन करने वाले सैकड़ों दरिद्री दीख पड़ते हैं। यदि कहो कि यज्ञोपवीत होते समय प्रथम मांगी हुई भिक्षा के भोजन में ब्रह्मचारी को यह फल होता है, ऐसा मानने पर भी वही दोष है। अर्थात् ब्रह्मचारी भी किसी दिशा को मुख कर स्वयमेव भोजन करेगा, तो किसी न किसी प्रकार फल सबको होना चाहिये, सो भी ठीक सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्मचारी वा अन्य मनुष्य वैसे फलभागी नहीं मिलते, किन्तु अल्पायु और दरिद्रादि विपरीत तो दीख पड़ते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है।

इस द्वितीयाध्याय का छासठवां श्लोक भी विचारणीय है। उसमें लिखा है कि कन्याओं के जातकर्मादि संस्कार बिना मन्त्र पढ़े करने चाहियें। इस पर शटा होती है कि ऐसा क्यों करें ? यदि शरीर के संस्कार में मन्त्रपाठ भी हेतु है, तो शरीर का संस्कार वा शुद्धि होने के लिये सब क्रिया ज्यों की त्यों करें, यह कथन विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि शुद्धि के लिये उपाय करना कहा जावे और शुद्धि के हेतु मन्त्र पढ़ने का निषेध किया जाय, यह परस्पर विरुद्ध है। यदि कदाचित् मानते हों कि शूद्र के तुल्य स्त्रियां नीच हैं, इससे उनको वेद के सुनने का अधिकार नहीं, तो विवाह में भी उनका मन्त्रों से संस्कार नहीं करना चाहिये। क्योंकि वहां भी वे मन्त्र सुन लेंगी। विवाह में जब स्वयमेव स्त्रियों को मन्त्र बोलने की आज्ञा देते हैं। तो सुनने की क्या कथा है। इससे अनुमान होता है कि मन्त्र सुनने वा बोलने में स्त्रियों को दोष नहीं है। यह बात अनेक आर्ष पुस्तकों में अर्थात् कहीं-कहीं कर्मकाण्ड सम्बन्धी गृह्यसूत्रादि में भी मिलती है कि स्त्रियों के जातकर्मादि संस्कार मन्त्र बिना पढ़े करने चाहियें। इससे अनुमान होता है कि पूर्वकाल में भी किन्हीं-किन्हीं ऋषि लोगों की ऐसी सम्मति होगी। परन्तु उस सम्मति के एकदेशी होने से सब को ग्राह्य नहीं। अर्थात् सब ऋषियों का ऐसा मत नहीं है। और वेद सम्बन्धी सिद्धान्त भी यह नहीं हो सकता। यदि वेद पढ़ने वा सुनने का स्त्रियों को अधिकार न हो तो वेद में भी निषेध मिलना चाहिये, सो नहीं दीखता। यदि कोई कहे कि वेद में ‘स्त्रियों को वेद पढ़ाना चाहिये’ ऐसा विधान भी नहीं मिलता, तो उत्तर यह है कि जैसा विधान पुरुषों को मिलता है, वैसा ही स्त्रियों के लिये है। अर्थात् जैसा कहा गया कि वेद पढ़ना चाहिये तो जिन-जिन पुरुषों को पढ़ना आवेगा उन-उन की स्त्रियों को भी पढ़ाना अवश्य उपयोगी है। इस प्रसग् में प्रमाणों का संग्रह इसलिये नहीं किया कि यह लेख अधिक न बढ़ जावे। पीछे किसी अवसर पर कुछ प्रमाण भी लिख देंगे। जो-जो कर्म वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों को कर्त्तव्य मानकर कहे गये हैं, वे उन-उन की स्त्रियों को भी वैसे ही कर्त्तव्य हैं। क्योंकि स्त्री पुरुष की अर्द्धाग्ी है। स्त्री-पुरुष दोनों मिल कर पूरे हैं, अकेले-अकेले    अधूरे हैं, तो जो काम पुरुष के लिये कहा गया, उसके अच्छे-बुरे फल में स्त्री स्वयमेव अधिकारिणी हो सकती है। इसलिये जहां पुरुष को अधिकार है, वहां उसकी स्त्री को भी अवश्य होना चाहिये। जब स्त्री के शरीर से बने हुए बालकों को अधिकार है, तो उन बालकों की उपादानकारण स्वरूप स्त्रियों को अधिकार न माना जावे, यह पक्षपात मात्र है। अथवा क्या यह बड़ा प्रमाद नहीं ? कदाचित् कहो कि जो स्त्रियां वेदादिशास्त्र पढ़ने में असमर्थ हैं, उनको अधिकार नहीं है, तो वैसे असमर्थ निर्बुद्धि पुरुषों को भी अधिकार नहीं है। स्त्रियों को अधिकार न देने से पुरुष भी विद्या-बुद्धि रहित बिगड़े संस्कारों वाले स्त्रियों के तुल्य नीच प्रकृति वाले उत्पन्न होते हैं। यही इस देश की दुर्दशा का बड़ा हेतु है। पहले जब विद्या और धर्मनीति की शिक्षादि को प्राप्त करा के स्त्रियों का शारीरिक वा आत्मिक संस्कार किया जाता है, तो उन शुद्ध संस्कार को प्राप्त हुई स्त्रियों में बालक भी शुद्ध, संस्कारी, शुभगुण सम्पन्न उत्पन्न होते हैं। यही बात सुश्रुत के शारीर स्थान में कही भी है कि ‘स्त्री-पुरुष जैसे भोजन, छादन, आचरण और चेष्टा के साथ गर्भाधान समय में संयोग करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे आचरण वा चेष्टा वाला होता है।’१ मनुष्य के आहार, आचरण और चेष्टा विद्या, शिक्षा के अनुसार होते हैं। अर्थात् विद्वान् और मूर्ख दोनों एक से आचार-विचार नहीं रख सकते, किन्तु स्वयमेव चेष्टादि बदल जाते हैं। इसलिये स्त्रियों को वेदादि शास्त्र पढ़ाने और सुनाने चाहियें, जिससे मूल के संस्कार युक्त होने से वृक्षरूप पुत्रादि संस्कारी हों। ‘यह स्त्री प्राणियों के उत्पन्न होने के लिये खेत के तुल्य पृथिवी है।’१ अर्थात् जैसे पृथिवी में सब अन्नादि उत्पन्न होते हैं, वैसे स्त्रीरूप खेत में मनुष्यादि प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्राणियों की उत्पत्ति का खेत स्त्री है, यह आशय ऊपर कहे मनु जी के वाक्य से निकलता है। पुरुष के शरीर में जितना रस, रुधिर आदि धातुओं का समूह है, वह सब बाल्यावस्था में प्रथम माता के शरीर से आया है, वह मातारूप स्त्री यदि किसी प्रकार नीच ठहराई जावे, तो बालक के उत्तम होने में क्या हेतु है ? इस प्रकार पुरुष के तुल्य स्त्रियों का भी पठन-पाठन में अधिकार सिद्ध होने पर छासठवां श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। तथा आगे कहे सरसठवें श्लोक के साथ विरोध भी है। अर्थात् सरसठवें श्लोक में मनु जी ने स्त्रियों के सब कर्म वैदिक कहे हैं। इसमें विशेष होगा सो वहां यथावसर कहेंगे। इस प्रकार इस द्वितीयाध्याय में दो ही श्लोक प्रक्षिप्त ठहरते हैं, तो शेष २४७ श्लोक ठीक समझने चाहियें। अब यहां लिखना समाप्त करते हैं।

उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है

ओउम्
उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है
डा. अशोक आर्य
जो मनुष्य सदा प्रभु की उपासना करता है, वह प्रभु के तेज से अत्यधिक तेजस्वी हो जाता है । प्रभु प्रार्थना से वह वसुमान व पवित्र हो जाता है, वह दीप्त हो जाता है तथा दूसरों को भी पवित्र करता है । इस तथ्य पर ही ऋग्वेद क यह मन्त्र प्रकाश डाल रहा है : –
आयस्तेअग्नइधतेअनीकंवसिष्ठशुक्रदीदिवःपावक।
उतोनएभिस्तवथैरिहस्याः॥ ऋ07.1.8

हे वासिष्ट अर्थात् अतिश्येन वसुओं में उत्तम | वसुओं को उतम माना गया है किन्तु इस मन्त्र में वसुओं से भी उतम के रूप में सम्बोधन करते हुए कहा है कि हे सब वस्तुओं से सम्पन्न ,अत्यन्त पवित्र , दीप्त व सब को पवित्र करने वाले सब के अग्रणी प्रभो ! जो आप का बनता है अथवा जो आप को अपना मानता है अथवा जो आप का भक्त होता है ,वह ही बल व तेज को सदा दीप्त करता है , उसका ही बल व तेज दीप्त होता है , बढता है । वास्तव में तेजस्वी व्यक्ति सदा आप ही के तेज को प्राप्त करता है तथा उस तेज से ही वह स्वयं भी तेजस्वी बनता है ,दीप्त होता है ।
इस से स्पष्ट होता है कि मन्त्र परमपिता को सब प्रकार के वसुओं भी उतम बताया है तथा कहा है कि प्रभु उसे पूरी तरह से अपना बना लेता है , जो उस प्रभु को अपना बनाने का यत्न करता है | प्रभु भक्त को इश्वर सदा अपने पास स्थान है |
परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही प्रभु भक्त सशक्त होता है , उसका बल व तेज निरंतर दीप्त होता चला जाता है , प्रचंड होता चला जाता है | इससे प्रभु भक्त का बल और तेज बढ़ करा अन्यतम दीप्ती को प्राप्त होता है |
२ स्तवन में प्रभु को पुकारें
हम जो आप के लिये स्तोत्रों का प्रयोग करते हैं , आपके स्तवन में जो गाते हैं, उन के माध्यम से , उनके द्वारा आप यहां हमारे जीवन में आइये, प्रवेश करिये । हे प्रभॊ ! हम आप को जितना ही अपने जीवन में धारण कर सकेंगे, उतना ही हम तेजस्वी बनेंगे । इस लिये हम आप को अधिकतम धारण करने के यत्न करते हैं । जब हम आप को अधिकतम धारण कर लेंगे तो हम वसुमान बनेंगे , हम पवित्र बनेंगे तथा हम दीप्त होंगे । इस के साथ ही साथ ओरों को भी हम एसा ही बनाने का प्रयास करेंगे, यत्न करेंगे । इस लिये हमारी यह ही प्रार्थना है कि हम आपका स्तवन करते हुये, आप का गुणगान करते हुये, आपका स्मरण करते हुये आपको अपने मे धारण करें ।
इसा सब से एक बात जो स्पष्ट होती है कि प्रभु स्तवन ही सब शक्तियों का आधार है , प्रभु स्तवन से ही सब शक्तियां प्राप्त होती हैं , सब प्रकार के तेज व सब प्रकार की शक्तियों को हम प्राप्त करते हैं और वसुकों से भी उतम बनाते हैं |

डा. अशोक आर्य

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार

अब द्वितीयाध्याय की समीक्षा की जाती है। द्वितीयाध्याय के प्रारम्भ से लेकर षष्ठाध्याय पर्यन्त गर्भाधानादि वेदोक्त तथा वेदमूलक षोडश संस्कारों का वर्णन है। संस्कार सोलह ही हैं न्यूनाधिक नहीं, इस पर व्यासस्मृति में लिखा है कि-

“गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्त्तन, विवाह, विवाहाग्नि का ग्रहण-[चतुर्थी कर्म वा इसी को गृहाश्रम-संस्कार भी कह सकते हैं।] और त्रेताग्निसंग्रह [इसी का नाम वानप्रस्थ संस्कार भी कह सकते हैं।]” ये सोलह संस्कार शास्त्रकारों ने माने हैं।

इनमें से केशान्त संस्कार अनुमान से एकदेशी प्रतीत होता है, और दशकर्मपद्धति बनाने वाले ने भी केशान्त संस्कार नहीं माना। तथा श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपनी संस्कारविधि में केशान्त संस्कार नहीं लिया। दाढ़ी मूंछ वा बगलों के बनाने का आरम्भ जिस पहले दिन हो उसको केशान्त संस्कार कहते हैं। यदि व्यासस्मृति के “केशान्तः स्नानम्” पदों में विसर्ग को अशुद्ध मानें और यह अर्थ मानें कि जिसमें सब केश मुड़ा दिये जावें, ऐसा स्नान- समावर्त्तन, तो संस्कार सोलह नहीं हो सकते, किन्तु १५ ही रहते हैं, जो कि इष्ट नहीं हैं। तथा मनुस्मृति में केशान्त संस्कार माना है कि- “ब्राह्मण का सोलह वर्ष पर केशान्त हो।” तथा व्याससंहिता की अपेक्षा स्वामी जी ने संन्यास और अन्त्येष्टि दो संस्कार अधिक लिये हैं, इस कारण उनकी संस्कारविधि में सत्रह संस्कार हो जाते हैं। उनमें किसी को किसी के अन्तर्गत करके वा अन्य किसी प्रकार समाधान करना होगा। अर्थात् संस्कार सोलह ही हैं, यह तो सर्वतन्त्र सिद्धान्त से सिद्ध है, इसमें किसी का परस्पर विरोध नहीं है। यद्यपि दशकर्मपद्धति पुस्तक बनाने वाले पण्डितों ने दश ही कर्म कहे हैं, तो भी उन्होंने संस्कारों की सोलह संख्या का खण्डन नहीं किया, किन्तु उपनयन, वेदारम्भ और समावर्त्तनरूप तीन संस्कारों को लौकिक चाल के अनुसार एक ही कर्म माना है, इस कारण दस कहने से बारह तो आ जाते हैं। समय के बिगड़ जाने से वानप्रस्थ और संन्यासधारण तथा अन्त्येष्टिकर्म की प्रवृत्ति नहीं रही, ऐसा मानकर दशकर्मपद्धति में उक्त तीनों संस्कार नहीं रखे। इसलिये उसमें यही न्यूनता है। क्योंकि जिस शुभकर्म की प्रवृत्ति न रही हो वा न्यून हो गयी हो, उसकी विशेष प्रवृत्ति करनी चाहिये। इस प्रकार संस्कार सोलह ही मानने चाहियें, यह सिद्धान्त है।

व्याससंहिता में पढ़े त्रेताग्नि संग्रह शब्द से वानप्रस्थ संस्कार का ग्रहण हो जायेगा। और उसमें संन्यास आश्रम भी आ सकता है, क्योंकि घर से निकल कर विरक्त होना दोनों में तुल्य है। इस प्रकार अन्त्येष्टि नामक एक संस्कार व्याससंहिता से अधिक बचता है, जिसको श्री स्वामी दयानन्दसरस्वती जी ने माना है। उसको संस्कार बुद्धि से मानने में “गर्भाधान से श्मशान पर्यन्त जिसके संस्कार वेद से कहे गये हैं” यह मनुस्मृति का वचन ही प्रमाण है। इस कारण अन्त्येष्टि को संस्कार मानना निर्मूल नहीं है।

इन सोलह संस्कारों में कुछ प्रधान और कुछ गौण हैं। मुख्य संस्कारों का विशेष कर वर्णन है। और गौणों का संक्षेप में। इस प्रकार इस मनुस्मृति के द्वितीयाध्याय के दस श्लोकों में गर्भाधानादि मुण्डन पर्यन्त संस्कारों का वर्णन है। और द्वितीयाध्याय के दो सौ चौदह श्लोकों में केवल यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का वर्णन है। अतः इन दो सौ चौदह श्लोकों में से एक पैंसठवें श्लोक में केशान्त और ६६-६७ में स्त्री के संस्कार विषय में सामान्य कथन है। इस कारण संस्कारों में ये ही दोनों सबसे मुख्य हैं। क्योंकि इन्हीं दोनों संस्कारों के होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज बनते और कहाते हैं। प्राणिमात्र के जगत् में जितने इष्टसिद्धि के प्रयोजन हैं, उन सबमें सुख की प्राप्ति और दुःख के त्याग की इच्छा ही मुख्य प्रयोजन है। इन दोनों की सिद्धि में सर्वोपरि प्रधान साधन विद्या के अभ्यास से अन्तःकरण की शुद्धि करना है। और वह विद्या का अभ्यास ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का यथावत् सेवन करने पूर्वक और गुरु की सेवा-शुश्रूषा पूर्वक आश्रम की समाप्ति पर्यन्त निरन्तर किया हुआ सफल होता है। और वह पुरुष (जिसने पूर्ण विद्याभ्यास कर लिया है) संसार और परमार्थ के सुख भोगने का पात्र बनता है। इस प्रकार सुख का मूल होने से सब आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम प्रधान है। और ब्रह्मचर्य आश्रम के आरम्भसूचक होने से दोनों संस्कारों (यज्ञोपवीत-वेदारम्भ) की प्रधानता है। संस्कार दो प्रकार के हैं- एक- शरीर सम्बन्धी, और द्वितीय- आत्मसम्बन्धी वा अन्तःकरण सम्बन्धी। उनमें यद्यपि अपनी-अपनी अपेक्षा से कहीं-कहीं दोनों प्रधान हैं, तो भी सर्वोत्तम सुख का हेतु होने से आत्मसम्बन्धी संस्कार सर्वोपरि उत्तम है। कारण यह है कि सुख-दुःख का आधार अन्तःकरण है, और दुःख का मूल कारण अज्ञान है, और अन्तःकरण में विद्यारूप छोंक लग जाने से अज्ञान निवृत्त हो जाता है, तभी दुःखों से भी मनुष्य बच सकता है। इस प्रकार आत्मिक संस्कार की सर्वोपरि उत्तमता मानकर द्वितीयाध्याय में साधनों सहित यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का मुख्यकर वर्णन है। इस मानवधर्मशास्त्र के द्वितीयाध्याय में ब्रह्मचर्याश्रम का यथार्थ वर्णन है, सो आगे आवेगा, इस कारण इस विषय में यहां कुछ भी विशेष कथनीय नहीं।

इतिहास से ऐसी चिढ़ः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

न जाने आर्यसमाज के इतिहास तथा उपलधियों से शासन को तथा आर्यसमाज के पत्रों में लेख लिखने वालों को अकारण चिढ़ है अथवा इन्हें सत्य इतिहास का ज्ञान नहीं अथवा ये लोग जान बूझकर जो मन में आता है लिखते रहते हैं। एक ने यह लिखा है कि महात्मा हंसराज 15 अप्रैल को जन्मे। ऋषि के उपदेश भी उन्हें सुना दिये। दूसरे ने सान्ताक्रुज़ समाज के मासिक में यह नई खोज परोस दी है कि हरिद्वार के कुभ मेले में एक माता के पुत्र को शस्त्रधारी गोरों ने गंगा में फैंक दिया। माता बच्चे को बचाने के लिये नदी में कूद पड़ी। पिता कूदने लगे तो गोरों ने शस्त्र——महर्षि यह देखकर ——-। किसी प्रश्नकर्ता ने इस विषय में प्रकाश डालने को कहा। मैंने तो कभी यह लबी कहानी न सुनी और न पढ़ी। इस पर क्या लिखूँ? श्री धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु ने भी कहा कि मैं यह चटपटी कहानी नहीं जानता। यह कौन से कुभ मेले की है। यह सपादक जी जानते होंगे। लेखक व सपादक जी दोनों ही धन्य हैं। देहलवी जी का हैदराबाद में मुसलमानों से कोई शास्त्रार्थ हुआ, यह नई कहानी गढ़ ली गई है।

स्वराज्य संग्राम में 80% आर्यसमाजी जेलों में गये। यह डॉ. पट्टाभिसीतारमैया के नाम से बार-2 लबे-2 लेखों में लिखा जा रहा है। डॉ. कुशलदेव जी आदि को तो यह प्रमाण मिला नहीं। वह मुझसे पूछते रहे। कोई सुनता नहीं। स्वतन्त्रता दिवस पर सरकारी भाषण व टी. वी. तो आर्यसमाज की उपेक्षा कर ही रहे थे। आर्यसमाजी पत्रों ने भी अनर्थ ही किया। दक्षिण में किसी समाजी ने श्री पं. नरेन्द्र, भाई श्याम जी, श्री नारायण पवार सरीखे परम पराक्रमी क्रान्तिवीरों का, जीवित जलाये गये आर्यवीरों व वीराङ्गनाओं का नाम तक न लिया।

मनु स्मृति के प्रथम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब प्रथमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा वा विचार किया जाता है। मैं इस अध्याय वा दूसरे आदि अध्यायों में जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त कहूं वा जताऊंगा वहां सर्वत्र अपनी अनुमति का प्रकाश करना ही प्रयोजन है। किन्तु वहां कुछ आग्रहपूर्वक कहना उचित नहीं। यदि उसमें किसी विद्वान् वा समुदाय को विरोध जान पड़े तो उसको मित्रता पूर्वक कहना चाहिये कि इसको इस प्रकार करना योग्य है। यदि सत्य से विपरीत हो गया दीख वा जान पड़ेगा, तो शीघ्र वैसा अविरुद्ध सुधार दिया जायेगा।

जहां-जहां यह पीछे मिलाया गया वा यह प्रक्षिप्त है ऐसा कहेंगे वहां-वहां मुख्य कर निम्नलिखित कारण जानने चाहियें। जो वाक्य किसी प्रकार वेद के आशय वा वेद के सिद्धान्त से तथा अन्य ब्राह्मण, उपनिषद्, न्याय और मीमांसादि अनेक ग्रन्थों से विरुद्ध हो वह प्रक्षिप्त है अर्थात् किसी विद्वान्, ऋषि, महर्षि का बनाया नहीं है। क्योंकि वेदानुयायी, शुद्ध, आप्त, तपस्वी, बहुदृष्ट, बहुश्रुत, जिन्होंने जानने योग्य को जान लिया और यथार्थ सत्य को प्राप्त कर लिया, ऐसे ऋषियों का कथन कदापि वेद से विरुद्ध नहीं हो सकता। तथा जो असम्बद्ध प्रलाप के तुल्य अयोग्य स्थान में प्रयुक्त, प्रकरण से विरुद्ध दूर से दीखता है। क्योंकि विद्वान् लोग प्रकरणविरुद्ध कथन कहीं नहीं करते। इससे प्रकरणविरुद्ध प्रक्षिप्त है। तीसरे पुनरुक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं, जैसे प्रथमाध्याय में जो कहा वही तीसरे अथवा चौथे में वैसे ही वा उसके पर्यायवाचक वा उस प्रकार के आशय वाले पदों से फिर-फिर कहा जावे, वह पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त समझा जाता है। तथा जो परस्पर विरुद्ध हो कि पूर्व जो कहा उससे विरुद्ध आगे कहा जावे। उन दोनों में एक ही ठीक वा सत्य ठहर सकता है। परन्तु सम्मतिभेद को छोड़कर, अर्थात् जहां कहीं सम्मतिभेद दिखाया गया वहां तो दूसरे की विरुद्ध सम्मति जताने के लिये ही ग्रन्थकर्त्ता ने दो प्रकार के वचन कहे हैं, किन्तु वहां विरोध नहीं है, जिस कारण प्रक्षिप्त हो। इत्यादि कारण प्रक्षिप्त जताने के लिये होते हैं, जिनका यहां उदाहरण मात्र दिखाया है।

प्रथमाध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य कर वर्णन है। उसके पश्चात् सब ग्रन्थ भर के विषयों का सूचीपत्र श्लोकों से ही कहा है। वहां जगत् की उत्पत्ति विषय के पश्चात् गर्भाधानादि संस्कार द्वितीयाध्याय में कहे हैं। इन उक्त दोनों विषयों के बीच ही सत् युगादि की व्यवस्था, पाप-पुण्य का न्यूनाधिक उपयोग, ब्राह्मणादि वर्णों के कर्म और ब्राह्मण वर्ण की विशेष प्रशंसा इत्यादि कथन प्रकरण विरुद्ध हैं। और सूचीपत्र में लिखे विषयों से बाह्य वा पृथक् हैं, इससे प्रक्षिप्त हैं ऐसा अनुमान होता है। इस समय वर्तमान पुस्तकों में ११९ (एक सौ उन्नीस) श्लोक छपे हुए मिलते हैं। और पाठान्तर रूप श्लोक इनसे भिन्न हैं। और वे किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में मिलते हैं, इससे ही उनका नाम पाठान्तर रखा गया। तिससे अनुमान होता है कि वे पाठान्तर रूप श्लोक वा वाक्य शीघ्र थोड़े काल से मिलाये गये हैं। और जो बहुत काल से मिलाये गये वे सब पुस्तकों में मिल जाने से सर्वत्र प्राप्त होते हैं अर्थात् जो वस्तु किसी में मिलाया जाता है, वह काल पाकर उसके सर्वांश से सम्बद्ध हो जाता है।

इस प्रथमाध्याय के प्रारम्भ में १३ श्लोक तो निर्विघ्न हैं। अर्थात् बत्तीसवें श्लोक को तेरहवें के आगे चौदहवां रखना चाहिये, ऐसा विचार ठीक जान पड़ता है। इस श्लोक पर मेधातिथि आदि सब भाष्यकारों ने जो अर्थ किया है वह वेदादि शास्त्रविपरीत और तुच्छ है। यह स्पष्ट जान पड़ता है [यह बात मेरे कहने मात्र से नहीं किन्तु जो कोई उस अर्थ को सुनेगा वही ऊटपटांग कहेगा कि ब्रह्मा ने अपने शरीर को बीच से चीर के दो टुकड़े किये उनमें एक से पुरुष और दूसरे से स्त्री हुई। भला किसी पुरुष के शरीर को बीच से चीर देने से स्त्री-पुरुष दो हो जावें यह सम्भव है ? यदि ऐसा हो सकता हो तो जो पुरुष स्त्रियों के बिना दुःखी हैं, जिनको स्त्री नहीं मिलती, वे अपने शरीर को चीर डालें तो उसी शरीर से स्त्री भी निकल आवे। विचार कर देखिये तो चीरने से वह पुरुष भी मर जावेगा। दो होना तो पृथक् रहा वहां एक भी रहना असम्भव है] वेदादि शास्त्रों में सर्वत्र ही एक परमेश्वर से सब सृष्टि उत्पन्न हुई, ऐसा लिखा है। जिससे पुरुष हुए उसी से सब स्त्रियां भी उत्पन्न हुईं, किन्तु स्त्री-पुरुष रूप दो भेद बनाने के लिये किसी देह- धारी मनुष्य के दो खण्ड करना उचित नहीं। कदाचित् पुरुष के दो खण्ड होने से स्त्री-पुरुष का भेद सिद्ध हो जावे। (यद्यपि यह असम्भव है तो भी अभ्युपगम सिद्धान्त से मान लो कि यह ऐसा हो) तो भी पशु-पक्षी आदि में स्त्री भेद कैसे होगा ? क्या वहां भी किसी पशु आदि के दो खण्ड कर स्त्री-पुरुष भेद मानना चाहिये ? देखो ! अथर्ववेद में१ लिखा है कि “देव- विद्वान् पुरुष कर्म- प्रधान, पितर- दीर्घदर्शी, बहुश्रुत, साधारण मनुष्य तथा गानविद्या में प्रवीण पुरुष और स्त्री ये सब उसी नित्य निराकार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” यहां स्पष्ट अप्सरस् शब्दवाच्य स्त्रियों की उत्पत्ति परमेश्वर से हुई लिखी है। किन्तु यहां किसी पुरुषविशेष के दो टुकड़ों से उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार वेदों में सैकड़ों प्रमाण प्राप्त होंगे, जिनके द्वारा साक्षात् परमात्मा से ही भोग्य-भोक्तारूप स्त्री-पुरुष दोनों की निरन्तर उत्पत्ति सिद्ध हो जायेगी। अर्थात् पुरुष के टुकड़ों से वेदों में कहीं भी स्त्री-पुरुष के भेद की उत्पत्ति नहीं है। तथा यह अर्थ असम्भव भी है कि जो एक पुरुषशरीर के दो खण्ड करने से स्त्री-पुरुष हो जावें। क्या सिर की ओर से लम्बाई में दो खण्ड किये वा चौड़ाई में ? यदि लम्बा-लम्बा बीच से शरीर चीर दिया तो एक आंख, एक कान, एक बांह और एक गोड़े वाला पुरुष वा स्त्री होने चाहिये! यदि बीच नाभि वा कटिभाग से दो टुकड़े किये गये हों तो नीचे वा ऊपर के ही अवयवों वाला एक होता सो तो दीखता नहीं, इत्यादि कारणों से उपहासयोग्य होने से यह अर्थ अग्राह्य है। और सत्य अर्थ यह है- किसी प्रकार विकारी हुए तन्मात्र और विषयरूप से वृद्धि को प्राप्त, सब स्थूल वस्तुओं का पूर्वरूप कार्यकारण के मध्य में अवस्थित प्रकृति के कार्यरूप अपने देह को परमेश्वर ने दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री को बनाया और स्त्री में इस सब ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया अर्थात् जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ में स्त्री-पुरुषरूप दो प्रकार का भेद किया। पुरुष में वीर्य छोड़ने की शक्ति तथा कठिनता दृढ़ और प्रबल शक्ति रखी गयी तथा स्त्री में गर्भधारणशक्ति, कोमलता और निर्बलता रखी गयी। इसीलिये स्त्री को अबला भी कहते हैं। यह अर्थ सम्भव वेदानुकूल और गम्भीरता युक्त भी है। ऐसा अर्थ होने पर वह श्लोक स्थान भ्रष्ट अर्थात् जहां रखना चाहिये वहां नहीं है। क्योंकि सब वस्तु की विशेष रचना से पूर्व ही ऐसा श्लोक होना चाहिये, पीछे ब्राह्मणादि चेतन वा जड़ की सृष्टि कहने में ब्राह्मणी आदि उस-उसकी         सम्बन्धिनी स्त्री की रचना भी आ जायेगी। यह बात प्रश्नोपनिषद् में रयि-प्राण और चन्द्र-सूर्य शब्दों से स्पष्ट दिखायी है। यहां भी ऐसा मानने पर ही उसके अनुकूल होगा। और ठीक भी ऐसा ही है, जो विशेष रचना से पूर्व ही स्त्री-पुरुषरूप भोग्यभोक्तृशक्तियों की वस्तुमात्र के सब कारण में ही भेद कल्पना करनी चाहिये ऐसा ही प्रश्नोपनिषद् में भी कहा है।

इस प्रकार यहां सब भाष्यकारों का भ्रम ही प्रतीत होता है। इस गूढ़ और गम्भीर शास्त्र के अर्थ में राघवानन्द भाष्यकार की पूर्णतः नहीं किन्तु कुछ थोड़ी बुद्धि चली है। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि सृष्टिप्रक्रिया में १३ (तेरहवें) श्लोक के आगे इस बत्तीसवें (द्विधा कृत्वा०) श्लोक को रखा जावे तो अनुचित नहीं जान पड़ेगा किन्तु ठीक सग्त जान पड़ेगा यह मेरी सम्मति है।

(द्विधा कृत्वा०) इस बत्तीसवें श्लोक के पश्चात् अर्थात् “तपस्तप्त्वा०” यहां से लेकर “जग्मम्॰” यहां तक पढ़े गए नौ श्लोक (३३-४१) प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। जैसे एक देश में बहुत राजा नहीं हो सकते वैसे सृष्टिकर्त्ता भी अनेक नहीं हो सकते। अर्थात् इन नव श्लोकों में कई सृष्टिकर्त्ता दिखाये हैं सो ठीक नहीं। वेदों में देवादि रचना भी साक्षात् परमात्मा से ही दिखायी गयी है, किन्तु अनेक मनुओं से नहीं, इसमें विशेष विचार वहां ही लिखा जायेगा, जहां वे पद्य पढ़े हैं।

आगे इक्यासीवें श्लोक से लेकर “दानमेकं कलौ युगे०” इस श्लोक पर्यन्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि सृष्टि प्रकरण में सत् युगादि में होने वाले धर्म की न्यूनाधिक व्यवस्था करना प्रकरणानुकूल नहीं हो सकती। इससे एक तो प्रकरण विरुद्ध है। द्वितीय किसी समयविशेष में सर्वथा धर्म वा अधर्म ही नहीं ठहर सकता, क्योंकि वे दोनों प्रकाश और अन्धकार के तुल्य सापेक्ष हैं। यदि प्रकाश कोई वस्तु न हो तो किसको अन्धकार कहें। जैसे शीत के अभाव में उष्ण का और उष्ण के अभाव में शीत का कोई वस्तु ठहरना असम्भव है। इसी प्रकार कृतयुग में भी   अधर्म की स्थिति अवश्य माननी चाहिये। तथा तीसरे वेदों में भी “सौ वर्ष देखें। सौ वर्ष आयु वाला पुरुष होता है” इत्यादि प्रमाण हैं। वे सब कलियुग के लिये ही हों यह नहीं हो सकता। ऐसा हो तो अन्य युगों के आयु की भी वेद में व्यवस्था होनी चाहिये। और यह कलियुग के लिये आयु है ऐसा नहीं लिखा, इससे सामान्य कर यह सब युगों के लिये है, यही सत्य जानो। इस कारण वेद से विरुद्ध होने से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह मेरा विचार है।

आगे सत्तासीवें श्लोक से लेकर एकानवें (८७-९१) श्लोक पर्यन्त पांच श्लोकों में दशमाध्याय के “ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था०” इत्यादि श्लोकों के साथ किसी प्रकार पुनरुक्ति प्रतीत होती है, परन्तु वह समाधान करने योग्य है। क्योंकि यहां प्रथमाध्याय में ब्राह्मणादि के कर्मों का विभाग है अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में अपने-अपने कर्म में सब वर्णों को युक्त करना ही प्रयोजन है। इस ब्राह्मणादि के कर्मविभाग का सृष्टिप्रक्रिया के साथ सम्बन्ध है, ऐसा मानकर प्रथमाध्याय में वर्णन है। तथा ब्राह्मणादि वर्णों को आपत्काल में कैसे जीविका करनी चाहिये, यह आशय दिखाने के लिये कर्मों का अनुवाद करके दसवें अध्याय में वर्णन है। इस प्रकार पुनरुक्ति दोष नहीं जान पड़ता।

आगे चौरानवें-पिच्यानवें (९४-९५) दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि इन दोनों की इकत्तीसवें और तिरानवें श्लोक के साथ पुनरुक्ति भी आती है, और चौरानवें का यह “सर्वस्यास्य च गुप्तये” अंश भी सत्तासीवें (८७) श्लोक के साथ पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है। तथा ब्राह्मण के मुख से देवता और पितृलोग हव्य-कव्य खाते हैं यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अन्य के मुख से अन्य नहीं खा सकता। होमने योग्य पदार्थ जो सूर्यादि देवों को प्राप्त होते हैं, वे ब्राह्मण के मुख द्वारा नहीं, किन्तु अग्नि मुख से प्राप्त होते हैं। अर्थात् अग्नि में होमा गया द्रव्य प्रकारान्तर से प्रदेशान्तर को प्राप्त होता है, यह न्याय से सिद्ध है। क्योंकि ब्राह्मण के द्वारा किया गया भोजन किसी प्रकार से मेघमण्डल में जाता हो, यह नहीं कह सकते। इसलिये अनुमान से जान पड़ता है कि अन्य के भोजन की प्रतिक्षण तृष्णा रखने वाले भोजनभट्ट उदरम्भर नाममात्र के ब्राह्मणों ने ही ऐसे श्लोक बनाकर मिलाये हैं। केवल तिरानवें (९३) श्लोक में यथोचित प्रशंसा ब्राह्मण की की गई है।

तथा अठानवें से लेकर एक सौ एक (९८-१०१) पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। उन श्लोकों का एकदेशी होना तो प्रसिद्ध ही है। इन श्लोकों में अनुचित, पुनरुक्त, असम्बद्ध, पक्षपात वा स्वार्थपरक ब्राह्मण वर्ण की प्रशंसा है, जिससे ये भी चारों श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन पर विशेष विचार वहीं भाष्य में होगा। तथा एक सौ दो श्लोक से लेकर एक सौ सात (१०२-१०७) श्लोक पर्यन्त निष्प्रयोजन वा अल्पप्रयोजन परक श्लोक हैं। तथा किसी प्रकार असम्बद्ध, पक्षपातयुक्त और वेद से विरुद्ध तथा आत्मश्लाघा दोष वा अत्यन्त प्रशंसारूप दोष से युक्त हैं, इस कारण तुच्छ होने से पीछे किन्हीं स्वार्थियों ने मिलाये हैं, ऐसा अनुमान होता है।

आगे एक सौ सात से लेकर एक सौ दश (१०७-११०) पर्यन्त चार श्लोक चतुर्थाध्याय के १५५,१५६ श्लोकों के साथ पुनरुक्त जान पड़ते हैं। तो भी चतुर्थाध्याय के उक्त दो श्लोकों पर सबसे पहले भाष्यकर्त्ता मेधातिथि का भाष्य नहीं मिलता, तिससे अनुमान होता है कि मेधातिथि के भाष्य करने के समय में वे दोनों श्लोक चतुर्थाध्याय में नहीं थे। यदि भाष्य किया होता तो क्यों नहीं मिलता। इससे प्रथमाध्याय के आचारप्रतिपादक चारों श्लोक प्रक्षिप्त नहीं, ऐसा जान पड़ता है। आगे एक सौ ग्यारह श्लोक से लेकर सब ग्रन्थ का सूचीपत्र कहा गया है, उसमें कुछ विरोध नहीं है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के मिलाकर एक सौ उन्नीस श्लोक इस प्रथमाध्याय में मिलते हैं। उनमें उक्त प्रकार से मेरी सम्मति से प्रक्षिप्त समझे गये यदि छब्बीस (२६) श्लोक प्रक्षिप्त ठहरें तो शेष तिरानवें श्लोक शुद्ध ऋषिकृत मानने चाहियें।

आर्यसमाज की सैद्धान्तिक विजयः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह ठीक है कि इस समय देश में अंधविश्वासों की अंधी आंधी चल रही है। नित्य नये-नये भगवानों व मुर्दों की पूजा की बाढ़ सी आई हुई है। तान्त्रिकों की संया अंग्रेजों के शासन काल से कहीं अधिक है। राजनेता, अभिनेता व टी. वी. जड़ पूजा तथा अंधविश्वासों को खाद-पानी दे रहे हैं।

आर्यसमाज के दीवाने विद्वानों, संन्यासियों तथा निडर भजनोपदेशकों ने अतीत में अंधेरों को चीरकर वेद का उजाला किया। उसी लगन व उत्साह से आज भी आर्यसमाज अंधविश्वासों के अंधकार का संहार कर सकता है।

स्वर्ग-नर्क, जन्नत-जहन्नुम की कहानियों का सब मत-पंथों में बहुत प्रचार रहा। ऋषियों ने घोष किया कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग है और दुःख विशेष का नाम नर्क है। महान् विचारक डा. राधाकृष्णन् जी ने ऋषि के स्वर में स्वर मिला कर लिखा हैः-

Heaven and hell are not physical areas. A soul tormented with remorse for it deeds is in hell, a soul with satisfaction of a life well lived is in heaven. The reward for virtuous living is the good life. Virtue it is said, is its own reward.

(The Present Crisis of Faith. Page19 )

अर्थात् बहिश्त व दोज़ख कोईाूगोलीय क्षेत्र नहीं हैं। अपने दुष्कर्मों के कारण अनुतप्त आत्मा नर्क में है व अपने द्वारा किये गये सत्कर्मों से तृप्त, सन्तुष्ट आत्मा स्वर्गस्थ है। सदाचरणमय जीवन का पुरस्कार अथवा प्रतिफल श्रेष्ठ जीवन ही तो है। कहा जाता है कि पुण्य-भलाई अपना पुरस्कार आप ही है।

डॉ. राधाकृष्णन् ने अपने सुन्दर मार्मिक शदों में महर्षि दयानन्द के स्वर्ग-नर्क विषयक वेदोक्त दृष्टिकोण की पुष्टि तो की ही है, साथ ही पाठकों को स्मरण करवा दें कि देश के विााजन से पूर्व जब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने एक आर्य-बाला कल्याणी देवी को धर्म विज्ञान की एम. ए. कक्षा में प्रवेश देकर काशी के तिलकधारी पौराणिक पण्डितों के दबाव में वेद पढ़ाने से इनकार कर दिया, तब डॉ. राधाकृष्णन् जी ही उपकुलपति थे। मालवीय जी भी पौराणिक ब्राह्मणों की धांधली का विरोध न कर सके और डॉ. राधाकृष्णन् जी भी सब कुछ जानते हुए चुप रहे।

आर्यसमाज ने डटकर अपना आन्दोलन छेड़ा। आर्यों के सर सेनापति स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी स्वयं काशी में मालवीय जी से जाकर मिले। मालवीय जी स्वामी जी के पुराने प्रेमी, साथी व प्रशंसक थे। आपने आर्यसमाज का पक्ष उनके सामने रखा। डॉ. राधाकृष्णन् जी ने तो स्पष्ट ही लिखा कि विश्वविद्यालय आर्यसमाज का दृष्टिकोण जानता है। मैंने इस आन्दोलन का सारा इतिहास स्वामी जी के श्रीमुख तथा पं. धर्मदेव जी से सुना था। विजय आर्यों की ही हुई।

कुछ समय पश्चात् डॉ. राधाकृष्णन् जी ने अपनी पुस्तक Religion and Society में स्त्रियों के वेदाध्ययन के अधिकार के बारे में खुलकर सप्रमाण लिखा। डॉ. राधाकृष्णन् जी का कर्मफल-सिद्धान्त पर भी वही दृष्टिकोण है जो ऋषि का है। आर्यसमाज को चेतनाशून्य हिन्दू समाज को अपने आचार्य की सैद्धान्तिक दिग्विजय का यदा-कदा बोध करवाते रहना चाहिये। इससे हमारी नई पीढ़ी भी तो अनुप्राणित व उत्साहित होगी।

कुरान समीक्षा : ईसा के बाद अहमद आवेगा

ईसा के बाद अहमद आवेगा

खुदा ने ऐसी गलत बात क्यों कही जो ईसा ने कभी भी इन्जील में नहीं कही थी कि जिसे खुदा ने अपना पैगम्बर बताया था, इससे कुरान में झूठी बात लिखी होने का ऐब भी है। यह आयत कुरान पारा १५ सूरे कहफ रूकू १ आयत १ को गलत साबित कर देती है।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व इज् का- ल अीसब्नु मर्-य……………।।

(कुरान मजीद पारा २८ सूरा सफ्फ रूकू १ आयत ६)

ईसा ने कहा….. एक पैगाम्बर की खुशखबरी देता हूँ जो मेरे बाद आवेगा उसका नाम ‘‘अहमद’’ होगा।

समीक्षा

ईसा ने इन्जील में यह भविष्यवाणी कभी नहीं की थी कि मेरे बाद ‘‘अहमद’’आवेगा, कुरान की यह बात बिल्कुल गलत है।

कुरान समीक्षा : औरतों को चेली बनाने की स्वीकृति

औरतों को चेली बनाने की स्वीकृति

बतावें कि यदि चेलियों से जिना किया गया है तो वह गुनाह तो नहीं माना जावेगा। चेली और प्रेमिका में इस्लाम की निगाह में अन्तर क्या है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहन्नबिय्यु इजा जा-…………।।

(कुरान मजीद पारा २८ सूरा मुम्तहिना रूकू २ आयत १२)

ऐ पैगम्बर! जब तेरे पास मुसलमान औरतें आवें और इस पर तेरी चेली बनाना चाहें…..तो तुम उनको चेली बना लिया करो…………।

समीक्षा

खुदा मुहम्मद साहब के हर शौक को पूरा किया करता था और उनको औरतें भी भेज देता था बांदियां व चेलियाँ रखने की भी इजाजत थी।

बुआओं, मौसियों आदि की बेटियों को भी निकाह में लेने की आज्ञा केवल उन्हीं को दे रखी थी