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ओ३म् खं ब्रह्म: डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता पुरुष: ( परमात्मा) । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म् यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑ष॒ः सोऽसाव॒हम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥

I

– यजु० ४० । १७ ( हिरण्मयेन पात्रेण ) स्वर्णिम पात्र से, सुनहरी ताले से ( सत्यस्य ) मुझ सत्यस्वरूप परमेश्वर का ( मुखं ) द्वार ( अपिहितं ) बन्द है । ( यः असौ ) जो वह ( आदित्ये ) आदित्य में ( पुरुषः ) पुरुष दीखता है ( सः असौ ) वह ( अहम् ) मैं हूँ । (ओ३म् खं ब्रह्म ) मेरा नाम ‘ओम्’ है, ‘खं’ है, ‘ब्रह्म’ है ।

हे सांसारिक जनो ! क्या तुम मेरा दर्शन करना चाहते हो । मेरे दर्शन के लिए तुम्हें मेरे मन्दिर में आना होगा । किन्तु, मेरे मन्दिर का द्वार तो सुनहरे ताले से बन्द है । वह सुनहरा ताला इतना आकर्षक है कि जो भी मेरे दर्शन के लिए द्वार पर आता है, वह मेरे दर्शन की बात तो भूल जाता है, सुनहरे ताले पर ही रीझ कर उसी के दर्शन से तृप्तिलाभ करने लग जाता है । तुम सोचोगे कि मैं सम्भवतः किसी तीर्थस्थल पर बने अपने मन्दिर की बात कर रहा हूँ । नहीं, मेरा मन्दिर तो सर्वत्र है । प्रकृति की सब जड़-चेतन वस्तुएँ मेरे मन्दिर हैं। बर्फीले और हरियाली – भरे पर्वतं, नदी, सरोवर, जङ्गल, वृक्ष, वनस्पतियाँ, समुद्र, बादल, सूर्य, चाँद, सितारे सब मेरे मन्दिर हैं, सब में मैं बैठा हुआ हूँ । इन सबके द्वार सुनहरे पात्र से बन्द हैं । इन सब पदार्थों का अपना आकर्षण ही वह स्वर्णिम पात्र है, सुनहरा ताला है । मनुष्य प्राकृतिक छटा को जब अपनी आँखों से देखता है, तब इसकी चकाचौंध से उसकी आँखें चुंधिया जाती हैं । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु के अन्दर बैठा हुआ मैं उसे दिखायी नहीं देता हूँ । पहले उस स्वर्णिम पात्र को, सुनहरे ताले को खोलना होगा। तब मेरी दिव्य मूर्ति तुम सर्वत्र देख सकोगे। क्या तुमने कभी सोचा है कि आदित्य में ज्योति, आकर्षण शक्ति और विपुल चुम्बकीय शक्ति किसने भरी है ? आदित्य को ज्योति देनेवाला, ग्रह-उपग्रहों को अपनी आकर्षण की डोर से बाँधने की शक्ति देनेवाला मैं ही हूँ । अतः जब तुम आदित्य को देखोगे, तब उसमें मैं ही उसके सञ्चालक के रूप में बैठा हुआ दिखायी दूँगा । आदित्य में जो वह उसका सञ्चालक ‘पुरुष’ दीखता है, वह मैं ही हूँ । इसी प्रकार अन्तरिक्ष की विद्युत् में, पृथिवी की अग्नि और प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में तुम्हें ‘पुरुष’ बैठा हुआ दीखेगा। मैं ही वह पुरुष हूँ। मेरा नाम ‘पुरुष’ इस कारण है कि मैं प्रत्येक वस्तु की पुरी में बैठा हूँ, प्रत्येक वस्तु की पुरी में शयन कर रहा हूँ और प्रत्येक वस्तु को स्वयं से परिपूर्ण कर रहा हूँ। मेरा नाम ‘ओम्’ है, क्योंकि मैं सबकी रक्षा करता हूँ, मेरा नाम ‘ ख ३

* है- क्योंकि मैं आकाश के समान सर्वव्यापक हूँ, मेरा नाम ‘ब्रह्म’ है, क्योंकि मैं महिमा में सबसे बड़ा हूँ ।

सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश दे रहा है – हे मनुष्यो ! जो मैं यहाँ हूँ, वही अन्यत्र सूर्यादि में भी हूँ, जो अन्यत्र सूर्यादि में हूँ, वही यहाँ हूँ । सर्वत्र परिपूर्ण, ‘ख’ (आकाश) के समान व्यापक और मुझसे अधिक महान् अन्य कोई नहीं है । सुलक्षण पुत्र के समान प्राणप्रिय मेरा निज नाम ओम्’ है। जो प्रेम और सत्याचरण के साथ मेरी शरण में आता है, उसकी अविद्या को अन्तर्यामी रूप से मैं ही विनष्ट करके, उसके आत्मा को प्रकाशित करके, उसे शुभ-गुण- कर्म-स्वभाववाला करके, उसके ऊपर सत्यस्वरूप का आवरण चढ़ाकर और उसे शुद्ध योगजन्य विज्ञान देकर सब दुःखों से पृथक् करके मोक्षसुख प्राप्त कराता हूँ ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरुष: पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा । पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य ।

निरु० २.३, ‘ ( पुरुष: ) पूर्ण: परमात्मा’ – द० ।

२. (ओम् ) योऽवति सकलं जगत् – द० । अव रक्षणादिषु, अवति रक्षतीति

‘ओम्’, ‘अवतेष्टिलोपश्च’ उ० १.१४२ से मन् प्रत्यय और उसकी टि ‘अन्’ का लोप । धातु की उपधा और वकार को ऊठ् = ऊ । ऊ म्=ओम् ।

३. (खम्) आकाशवद् व्यापकम् – द० ।

४. (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत् — द० ।

५. दयानन्दभाष्य में प्रकृत मन्त्र के संस्कृतभावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद |

परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव :डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता परमात्मा । छन्दः स्वराड् आर्षी जगती । स पर्वग॑च्छुक्रम॑का॒यम॑त्र॒णम॑स्नावि॒रः शुद्धमपा॑पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्थान् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः

– यजु० ४०।८

( सः ) वह परमात्मा ( परि – अगात् ) चारों ओर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, ( शुक्रं ) तेजस्वी है, ( अकायम् ) शरीर- रहित है, (अव्रणं ) घावरहित है, ( अस्नाविरं ) नस-नाड़ियों से रहित है, ( शुद्धं ‘ ) पवित्र है, ( अपापविद्धं ) पाप से विद्ध नहीं है । वह ( कवि: ) मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, ( मनीषी ) बुद्धिमान् है, (परिभू: ४) दुष्टों को तिरस्कृत करनेवाला है, ( स्वयम्भूः ) स्वयम्भू है । उसने ( याथातथ्यतः ) यथातथ रूप में, अर्थात् जैसे होने चाहिएँ वैसा ( अर्थान् ) पदार्थों को ( व्यदधात् ) रचा है ( शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ) शाश्वत वर्षों

से सबने परमेश्वर के विषय में विभिन्न नामों से बहुत कुछ श्रवण किया हुआ है । फिर भी आओ, वेद उसके गुण-कर्म- स्वभाव का क्या परिचय दे रहा है, यह जानें । वेद कहता है कि वह चारों ओर गया हुआ है, चारों दिशाओं में विद्यमान है, सर्वव्यापक है । यह एक विचित्र विरोधाभास है कि चारों ओर विद्यमान है, फिर भी आँखों से दिखायी नहीं देता । आँखों से उसका प्रत्यक्ष इस कारण नहीं होता कि वह ‘ अकाय’ है, उसकी भौतिक काया ही नहीं है । आँख तो भौतिक वस्तु को ही देख सकती है । जब भौतिक शरीर ही नहीं है, तो शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग नस – नाड़ी आदि और शरीर के धर्म फोड़ा फुंसी, पीड़ा, ज्वर आदि भी उसके नहीं हैं, वह ‘अव्रण’ और अस्नायु’ है । वह ‘ शुक्र’ है, देदीप्यमान है, तेजोमय है, उसी के तेज से अग्नि, विद्युत्, सूर्य, तारे सब तेजोमय बने हुए हैं, उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं । वह ‘शुद्ध’ है, अविद्यादि दोषों से रहित होने के कारण सदा पवित्र रहता है । वह ‘ अपापविद्ध’ है, तस्करी, डकैती आदि पापों से विद्ध नहीं होता। वह ‘कवि’ है, मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है । वेदरूप काव्य का काव्यकार होने के कारण भी वह ‘कवि’ है । वह ‘ मनीषी’ है, मनस्वी है, पारदर्शी विचारों का अधीश्वर है । वह ‘ परिभू’ है, सबका परिभव या तिरस्कार करके सर्वोपरि विराजमान है । वह बड़े से बड़े दस्युओं को तिरस्कृत करके धूल में मिला देता है । वह ‘स्वयम्भू’ है, स्वयं सर्वशक्तिमान् बना हुआ है । अपनी शक्तिशालिता के लिए वह किसी अन्य पर निर्भर नहीं है । वह सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक यथोचित रूप में पदार्थों की रचना करता चला आया है। उसने सूर्य आदि पदार्थों को जैसा चाहिए था, वैसा ही बनाया है, उनमें कोई त्रुटि नहीं है ।

इस कण्डिका में परमेश्वर की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की स्तुति है । जिन विशेषणों या वाक्यों में उसके अन्दर विद्यमान गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन किया है, उनमें सगुण स्तुति है और ‘अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्, अपापविद्धम्’ विशेषणों द्वारा निर्गुण स्तुति है । आओ, हम भूयोभूयः प्रभु की स्तुति करें और उसके जिन गुण-कर्म-स्वभावों को ग्रहण कर सकते हैं, उन्हें ग्रहण करने का प्रयास करें ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रः = यः शोचति ज्वलति स शुक्रः । शोचति ज्वलतिकर्मा, निघं०

१.१६

२. (शुद्धम् ) अविद्यादिदोषरहितत्वात् सदा पवित्रम् – द० ।

३. कविः – मेधावी, निघं० ३.१५ । मेधावी कविः क्रान्तदर्शनो भवति

कवतेर्वा, निरु० १२.७।

४. (परिभूः ) यो दुष्टान् पापिन: परिभवति तिरस्करोति सः – द० ।

आत्मघाती लोग कहाँ जाते हैं? डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवतां आत्मा । छन्दः अनुष्टुप् । असुर्या, नाम ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः । ताँस्ते प्रेत्यापि॑िगच्छन्ति ये के चा॑त्म॒हना॒ जना॑ः ॥

I

– यजु० ४० । ३

( असुर्या : १ ) असुरों से प्राप्तव्य ( नाम ) निश्चय ही ( ते लोकाः ) वे लोक हैं, जो ( अन्धेन तमसा ) घोर अन्धकार से ( आवृताः ) आच्छादित हैं । ( तान् ) उन लोकों को (ते ) वे लोग (प्रेत्य ) मर कर ( अपि गच्छन्ति ) प्राप्त होते हैं, ( ये के च ) जो कोई भी ( आत्महन: २ जनाः ) आत्मघाती जन होते हैं ।

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सबसे पूर्व ‘आत्महनः का अर्थ समझ लेना चाहिए । आत्मन्’ शब्द परमेश्वर और जीवात्मा दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म-हन्ता दोनों ही

आत्महनः’ कहलाते हैं । हत्या तो परमेश्वर और जीवात्मा किसी की भी नहीं होती है, ये दोनों ही अजर-अमर हैं । परमेश्वर – हन्ता वह है, जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और यह प्रचार करता है कि परमेश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो मनुष्यों को उनके अच्छे-बुरे कर्मों के फल प्रदान करे; अतः जैसा चाहो आचरण रखो, मारो – काटो, लूटो, दूसरों का धन छीनो, चोरी करो, डाके डालो, ईश्वर है ही नहीं तो बुरा फल क्या देगा । इसी प्रकार जो जीवात्मा की सत्ता से इन्कार करते हैं, वे जीवात्म-हन्ता हैं । वे कहते हैं जब तक जियो, सुख से जियो, कर्ज ले-लेकर घी पियो, मेवे खाओ, शरीर के मरने के बाद जीवात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो कर्मफल प्राप्त करे। ये परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म- हन्ता दोनों ही समाज में अनाचार, कदाचार, व्यभिचार फैला कर समाज को दूषित करते हैं, परिणामतः उन लोकों या योनियों में जाते हैं, जिनमें असुर लोग पहुँचते हैं और जो घोर अन्धकार से घिरी होती हैं । ‘सु-र’ का अर्थ होता है शुभ कर्म करनेवाले। उससे विपरीत ‘असुर’ होते हैं, अर्थात् अशुभ कर्म करनेवाले । वे पशु-पक्षी – कीट-पतङ्ग – सरीसृप आदि की योनियों में जन्म लेते हैं । वे योनियाँ अन्धकार से आवृत होती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि उन योनियों मन, बुद्धि आदि कार्य नहीं करते। उन योनियों में जिनका जन्म होता है, वे खाने-पीने आदि की साधारण क्रियाएँ ही करते हैं, जैसे मनुष्य सोच-विचार कर, बुद्धि का प्रयोग करके नवीन नवीन ज्ञान प्राप्त करता है, नये-नये आविष्कार करता है, वैसा वे कुछ नहीं कर सकते ।

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अतः हमें चाहिए कि हम ‘आत्मघाती’ न बनें, परमेश्वर और जीवात्मा दोनों की सत्ता स्वीकार करते हुए शुभ कर्म ही करें, जिससे हमें उन्नति करने के लिए पुनः मनुष्य- योनि प्राप्त हो और उसमें निष्काम कर्म करते हुए हम दुःखों से मुक्ति भी प्राप्त कर सकें ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सुराः शुभकर्मरता:, तद्विपरीता असुराः । असुराणाम् इमे असुर्याः असुरैः

प्राप्तव्या: ।

२. आत्मानं परमेश्वरं जीवात्मानं वा ध्वन्तीति आत्महनः ।

ईश- प्रार्थना:डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः नारायणः । देवताः सविता । छन्दः गायत्री ।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव । य॑ह्म॒द्रन्तन्न॒ऽआ सु॑व ॥

– यजु० ३० । ३ हे ( सवितः ) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र- ऐश्वर्ययुक्त शुभगुणप्रेरक, (देव) तेजस्वी, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे ( विश्वानि ) सम्पूर्ण ( दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिए। (यत्) जो ( भद्रम् ) कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ है, ( तत् ) वह सब, हमको ( आ सुव) प्रदान कीजिए ।

हे जगदीश्वर ! आप सूर्य, चन्द्र, तारावलि, पर्जन्य, पर्वत, निर्झर, सरिता, सागर आदि से परिपूर्ण सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता हो, समग्र ऐश्वर्यों से युक्त हो और हम मानवों के आत्मा में शुभ गुणों की प्रेरणा करनेवाले हो । आप ‘देव’ हो, तेजस्वी हो, तेज प्रदान करनेवाले हो, शुद्धस्वरूप हो और सब सुखों के दाता हो। जो दुर्गुण हमारे अन्दर आ गये हैं, जिन दुर्व्यसनों में हम फँस गये हैं, जिन आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक दुःखों के हम घर हो रहे हैं, उन सबको आप हमारे अन्दर से दूर कर दीजिए । जो भद्र है, कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव है और जो कल्याणकारक पदार्थ हैं, वह हमें प्रदान कीजिए ।

वसिष्ठ और चोरी :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

ऋग्वेद के सम्पूर्ण सप्तम मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ हैं । बहुत थोड़े से मन्त्रों के द्रष्टा वसिष्ठपुत्र भी माने जाते हैं । इसी मण्डल में वसिष्ठ सम्बन्धी बहुत सी प्रचलित वार्त्ताओं का बीज पाया जाता है ।” अमीवहा वास्तोष्पते” इत्यादि ५५ वें सूक्त को प्रस्वापिनी उपनिषद् नाम से अनुक्रमणिका कार लिखते हैं । वृहद्देवता इसके विषय में विलक्षण कथा गढ़ती है, वह यह है – ” एक समय वरुण के गृह पर वसिष्ठ गए, इनको काटने के लिए भौंकता हुआ एक महाबलिष्ठ कुत्ता पहुँचा । तब वशिष्ठ ने ” यदर्जुन ” इत्यादि दो मन्त्रों को

पढ़कर उसको सुलाया और पश्चात् अन्यान्य मन्त्रों से वरुण सम्बन्धी सब मनुष्यों को भगा दिया । ” कोई आचार्य इस सूक्त पर यह आख्यायिका कहते हैं- “एक समय तीन रात्रि तक वसिष्ठ को भोजन न मिला तब चौथी रात्रि चोरी करने को वरुण के गृह पहुँचे । द्वार पर बहुत से आदमी और कुत्ते सोए हुए थे । इनको सुलाने के लिए वसिष्ठ जी ने इस ५५ वें सूक्त को देखा और उसका जप किया इत्यादि बातें सायण ने इस सूक्त के भाष्य के आरम्भ में ही दी हैं, अतः प्रथम सूक्त के शब्दार्थ कर आशय बतलाऊँगा ॥

अमीवहा वास्तोष्पते विश्वारूपाण्याविशन् ।

सखा सुखेव एधि नः ॥ १ ॥ – ऋ० ७1५५

अमीवहा= अमीव+हा । अमीव = रोग । हा-नाशक । वास्तोष्पते = वास्तो: +पते । वास्तु-गृह । संसाररूप गृहपति परमात्मा । यहाँ कोई उपासक कहता है कि ( वास्तो: + पते ) हे गृहाधिदेव ! समस्त गृहों में निवास करने हारे परमात्मन्! ( अमीवहा) आप मानसिक, आत्मिक तथा दैहिक सर्व रोग के निवारक हैं । (विश्वा+रूपाणि + आविशन्) आप सर्व रूपों में प्रविष्ट हैं । हे भगवान् ! (सखा) मित्रवत्, परमप्रिय और (सुशेवः) परम सुखकारक (न: + एधि) हमारे लिए हो जाइए। इतनी ईश्वर से प्रार्थना कर अब आगे कहते हैं कि-

यदर्जुन सारमेय दतः पिशङ्ग यच्छसे । वीव भ्राजन्त ऋष्टय उप स्रक्क्रेसु बप्सतो नि षु स्व ॥ २ ॥ स्तेनं राय सारमेय तस्करं वा पुनःसर । स्तोतृनिन्द्रस्य रायसि किमस्मान्दुच्छुनायसे नि षु स्वप ॥ ३ ॥ त्वं सूकरस्य दर्दृहि तवदर्दर्तु सूकरः । स्तोतृनिन्द्रस्य० ॥ ४॥

– ऋ० ७/५५ ॥

अर्जुन- श्वेत, सफेद । सारमेय – सरमा का पुत्र । देवसुनी का नाम सरमा है । दत्-दांत । ऋष्टि- आयुध, अस्त्र । राय – आओ । रायसि गच्छसि = जाते हो । अथ मन्त्रार्थ – (अर्जुन + सारमेय) हे श्वेत सारमेय ! (पिशंग) हे कहीं-कहीं पिंगलवर्ण! कुत्ते ( यद्+दतः + यच्छसे) जब तुम अपने दाँतों को दिखलाते हो तब वे दाँत (स्रक्वेषु + उप) ओष्ठ के कोने में (ऋष्टय: +इव + वि + भ्राजन्ते ) आयुध के समान चमकने लगते हैं और ( बप्सतः ) हमको खाने के लिए दौड़ते हो ॥ २ ॥ ( सारमेय+ पुन: सर) हे सारमेय ! हे पुनः सर ! पुनः – पुनः मेरी ओर आने वाले कुत्ते ! ( स्तेनं + तस्करम् + राय) तू चोर की ओर जा । (इन्द्रस्य + स्तोतृन् + अस्मान् + किम् + रायसि) परमात्मा के स्तुतिपाठक हमारी ओर तू क्यों आता है और (दुच्छुनायसे) क्यों हमको बाधा देता है। (नि+सु + स्वप) हे कुत्ते ! तू अत्यन्त सो जा ॥ ३ ॥ ( त्वम्+ सूकरस्य + दर्दृहि ) तु सूकर को काट खा ( सूकरः+तव + दर्दर्तु ) और सूकर तुझको काट खाय (इन्द्रस्य + स्तोतॄन्० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥

सस्तु माता सस्तु पिता सस्तु श्वा सस्तु विश्पतिः ।

ससन्तु सर्वे ज्ञातयः सस्त्वय मभितोजनः ॥ ५॥

य आस्ते यश्चरति यश्च पश्यति नोजनः । तेषां संहन्मो अक्षाणि यथेदं हर्म्यं तथा ॥ ६ ॥

ऋ०७1५५

(माता+सस्तु+पिता+सस्तु) हे सारमेय ! तेरे माता-पिता सो जाएँ । जो यह बड़ा कुत्ता है वह भी सो जाए। (विश्पतिः ) जो गृहपति है वह भी सो जाए इस प्रकार सब ही ज्ञाति और चारों तरफ के आदमी सो जाएँ। जो बैठा है, जो चल रहा है, जो हमको देखता है, उन सबकी आँखों को हम फोड़ते हैं । वे सब राजगृह के समान अचल होवें ॥ ६ ॥

प्रोष्ठेशयाः वह्येशया नारीर्यास्तल्पशीवरीः ।

स्त्रियोयाः पुण्यगन्धास्ताः सर्वाः स्वापयामसि ॥ ८ ॥

-ऋ० ७/५५ ( याः + नारी: + प्रोष्ठेशयाः ) जो स्त्रियाँ आंगन में सो गई हैं, (वह्येशयाः ) जो किसी बिछौने पर सोई हुई हैं, ( तल्पशीवरी: ) जो पलंग पर सोई हुई हैं, (याः + स्त्रियः + पुण्यगन्धाः ) जो स्त्रियां पुण्य गन्धवाली हैं, (ता:+सर्वा + स्वापयामसि) उन सबको मैं सुलाता हूँ ॥ ८ ॥

आशय-सरतीति सरमा । भोगविलास की ओर दौड़ने वाली जो यह महातृष्णा है यही शुनी अर्थात् कुत्ती है और इसी कुत्ती के ये आँख, कान आदि इन्द्रिय गुलाम हैं, अतः इसका नाम सारमेय है। अर्जुन श्वेत। इन इन्द्रियों में कोई श्वेत- सात्त्विक और कोई पिशंग अर्थात् राजस, तामस नाना वर्ण के हैं। ये दोनों प्रकार के इन्द्रिय परम दुःखदायी हैं और यह भी प्रत्यक्ष है कि इन्द्रियों का व्यवहार कुत्ते के समान है । अतः कोई उपासक प्रार्थना करता है कि हे कुत्ते समान इन्द्रियगण ! मुझे तुम क्यों दुःख देते हो। तुम तो जाओ अर्थात् शिथिल हो जाओ। तुम जानते नहीं कि हम परमात्मा के उपासक हैं, फिर तुम कैसे हमको काट सकते हो, तुम सो ही जाओ। मैं इन सब कुत्तों की आँखें फोड़ डालता हूँ इत्यादि । इससे जो कोई सचमुच कुत्ते को सुलाने का भाव समझते हैं वे बड़े अज्ञानी हैं। क्या मन्त्र पढ़ने से कुत्ते सो जाएँगे ? वेद के गूढ़-गूढ़ आशय को न समझ कैसी अज्ञानता लोगों ने फैलाई है । यहाँ सारमेय आदि शब्द इन्द्रिय वाचक हैं और “मैं स्त्रियों को सुलाता हूँ” इसका आशय यह है कि जब इन्द्रियगण अति

प्रबल होते हैं तब सबसे पहले स्त्रियों की ओर दौड़ते हैं । विषयी पुरुषों के लिए यह एक महाविषवल्ली है । अत: उपासक कहता है कि “मैं सब स्त्रियों को भी सुलाता हूँ” अर्थात् परमात्मा से प्रार्थना है कि स्त्रियों की ओर भी मेरा मन न जाए इत्यादि इसका सुन्दर भाव है । इससे चोरी की कथा गढ़ने वाले कदापि वेद नहीं समझ सकते । इसमें वसिष्ठ की कहीं भी चर्चा नहीं। यदि मान लिया जाए कि इस मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ होने से वसिष्ठ ही ऐसी प्रार्थना करते हैं तो भी कोई क्षति नहीं । मैं वैदिक इतिहासार्थ निर्णय में विस्तार से दिखला चुका हूँ कि वैदिक पदार्थानुसार ऋषियों के नाम दिये जाते हैं। जिस कारण वसिष्ठ अर्थात् सत्यधर्म की व्यवस्था का विषय इस मण्डल में है, अतः इसके द्रष्टा का नाम भी वसिष्ठ हुआ। सबको ऐसी प्रार्थना नित्य ही करनी चाहिए ।

मित्र और वरुण :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

जैसे बहुत स्थलों में ब्रह्म और क्षत्र शब्द साथ आते हैं तद्वत् मित्र और वरुण शब्द भी पचासों मन्त्रों में साथ-साथ प्रयुक्त हुए हैं । कहीं असमस्त और कहीं समस्त । समस्त होने पर मित्रावरुण ऐसा रूप बन जाता है। मित्र और वरुण के दो-एक उदाहरण मात्र से आपको ज्ञात हो जाएगा कि यह ब्रह्मक्षत्र का वर्णन है; यथा-

मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिसादसम् ।

धियं घृताचीं साधन्ता ऋ० । १ । २।६ ॥

पूतदक्ष = पवित्र बल, जिसका बल परम पवित्र है । रिसादस रिस+अदम् । रिस – हिंसक पुरुष । अदम् = भक्षक । हिंसकों का भी भक्षक । धी – कर्म, ज्ञान । घृताचीं घृतवत्, शुद्ध घृतवत् पुष्टिकारक आदि । अथ मन्त्रार्थ – (पूतदक्षं+मित्रम्+ रिसादसम्+ वरुणञ्च + हुवे ) पवित्र बल धारी मित्र और दुष्ट हिंसकों के विनाशक वरुण को बुलाता हूँ जो दोनों (घृताचीं + धियं+साधन्ता) घृतवत् पवित्र ज्ञान को फैला रहे हैं । घृतवत् विचाररूप दूध से उत्पन्न ज्ञान घृताची है |

मित्र और वरुण के सम्बन्ध में राजा सम्राट् आदि शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं; यथा-

महान्ता मित्रावरुणा सम्राजा देवावसुरा ।

ऋतावाना वृतमा घोषतो बृहत् ॥ ४ ॥ ऋतावाना नि षेदतुः साम्राज्याय सुक्रतू ।

घृतव्रता क्षत्रिया क्षत्रमाशतुः ॥ ८ ॥

ऋ०।८।२५

(मित्रावरुणा + महान्ता) ये मित्र और वरुण महान् हैं, (सम्राजा) सम्राट् हैं, (देवौ + असुरा) देदीप्यमान और असुर – निखिल अज्ञान के निवारक हैं, (ऋतावानौ ) सत्यवान् हैं और (वृहत् + ऋतम् + आघोषतः ) महान् सत्य की ही घोषणा करते हैं ॥ ४ ॥ (ऋतावानौ + सुक्रतू ) स्वयं सत्य नियम में बद्ध और सदा शोभन कर्म में परायण मित्र और वरुण

 ( साम्राज्याय + निषेदतुः ) साम्राज्य सम्बन्धी विचार के लिए बैठते हैं । पुनः वे कैसे हैं (घृतव्रता) सत्यादि व्रतधारी पुनः (क्षत्रिया) परमबलिष्ठ और ( क्षत्रम् + आशतुः ) जो परमबल का अधिष्ठता है ॥ ८ ॥ पुनः केवल वरुण के विषय में वर्णन आता है ।।

नि षसाद घृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः ॥ १० ॥ परिस्पशो निषेदिरे ।। – ऋ० १ । २५ /१३

(पस्त्यासु) पस्त्या प्रजा । प्रजाओं के मध्य ( साम्राज्याय) राज्य नियम स्थापित करने के लिए वह वरुण व्रतधारी हो बैठता है । इसके चारों तरफ दूतगण बैठते हैं ।।

यहाँ देखते हैं कि धर्म के नियमों को बनाने हारे व्यवस्थापकों को जिस-जिस योग्यता की आवश्यकता है उस उस का यहाँ निरूपण है । प्रथम सत्य की बड़ी आवश्यकता है, अतः मित्र और वरुण के विशेषण में जितने ऋत वा सत्यवाचक शब्द प्रयुक्त हुए हैं उतने अन्य इन्द्रादिकों के लिए नहीं । पुनः अपने व्रत में दृढ़ होना चाहिए। अतः घृतव्रत शब्द के प्रयोग भी भूयोभूयः आता है । पुनः व्यवस्थापकों को अध्यात्म बल भी अधिक चाहिए, अतः क्षत्रिय शब्द आता है । इस प्रकार ज्यों-ज्यों विचारते हैं त्यों-त्यों यही प्रतीत होता है कि मित्र और वरुण नाम ब्रह्म क्षेत्र का है। इसी ब्रह्म क्षेत्र का पुत्र वसिष्ठ है । पुनः वेदों को देख मीमांसा कीजिए, भ्रम में मत पड़िये । वसिष्ठ कोई व्याक्ति विशेष नहीं किन्तु सत्यार्थ का ही नाम वसिष्ठ है । सत्य नियम ही क्षत्रियों का भी शासक है ।

एक बात और यहाँ दिखाने के लिए परम आवश्यक है कि धर्म ही क्षत्र का भी क्षत्र है अर्थात् परम उद्दण्ड राजाओं को वश में करने हारा केवल धर्मनियम है । वह यह है-

स नैव व्यभवत्तच्छ्रेयोरूयमत्यसृजत धर्मं तदेतत् क्षत्त्रस्य क्षत्रं यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात्परं नास्त्यथो अबलीयान् बलीयांसमाशसते धर्मेण यथा राज्ञैवं यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात् सत्यं वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तं सत्यं वदतीत्येतद्धैववैतदुभयं भवति ॥

– वृ० उ०११ ४ । १४ ।। आशय-वृहदारण्यकोपनिषद् में यह वर्णन आता है कि जब ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणवर्ग, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को बना चुके तो भी देश

की वृद्धि नहीं हुई है । तब अत्यंत कल्याण स्वरूप जो धर्म है उसको सबसे बढ़िया बनाया । क्षत्र का भी शासक वही धर्म हुआ, अतः धर्म से परे कोई पदार्थ नहीं। जैसे राज्य की सहायता से वैसे ही धर्म की सहायता से एक महादुर्बल पुरुष भी परम बलिष्ठ पुरुष का साम्मुख्य करता है । वह धर्म सत्य ही है । अतः सत्य बोलने वाले को देखकर लोक कहते हैं कि यह धर्म कह रहा है। इसी प्रकार धर्म के व्याख्याता को सत्यवादी कहते हैं ।

यहाँ पर यह वर्णन आता है कि क्षत्रियों के भी शासक धर्म नियम हैं । इन नियमों में बद्ध होकर यदि कोई क्षत्रिय अन्याय करे तो प्रजाएँ उसको तत्काल रोक देती हैं। अब आप समझ सकते हैं कि वसिष्ठ के अधीन समस्त राजवंश कैसे हुए । निःसन्देह ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों से निर्धारित जो धर्म व्यवस्था है, उसका पालन यदि कोई न करे तो कब उसे कल्याण है, अतः सर्वराजाओं ने वसिष्ठ नामधारी धर्मनियम को ही अपना पुरोहित बनाया ||

भागवत :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

समीक्षा — यद्यपि वेद में जल स्थल और वासतीवर आदि का वर्णन नहीं तथापि वृहद्देवता ऐसा कहता है । वेदों के एक ही स्थान कुम्भ में दोनों ऋषियों की उत्पत्ति कही गई है। इसका भी भाव यह है कि क्या जल और क्या स्थल दोनों स्थानों में धर्म नियम तुल्य रूप में प्रचलित होते हैं । अब पुराणों की बात पर दृष्टि दीजिये । पुराण सर्वदा एक न एक भूल करते ही रहते हैं । पुराण ब्रह्मा से सारी उत्पत्ति मानते हैं, परन्तु बहुत सी बातें प्राचीन चली आती हैं जहाँ ब्रह्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं, किन्तु पौराणिक समय में वे बातें इतनी प्रचलित थीं कि उनको दूर नहीं कर सकते थे । उर्वशी में मित्रावरुण द्वारा वसिष्ठ की उत्पत्ति और वही सूर्यवंशीय राजाओं का गुरु है, यह बात अति प्रसिद्ध थी । इस कथा को पुराण लोप नहीं कर सकते थे । अतः इनको एक नवीन कथा गढ़नी पड़ी। पुराणों की दृष्टि में असम्भव कोई बात नहीं, अतः ब्रह्मा से लेकर केवल छ : पीढ़ियों में हजारों चौयुगी काल को समाप्त कर देते हैं । कहाँ सृष्टि की आदि में ब्रह्मा का पुत्र वसिष्ठ ! और कहाँ केवल छठी पीढ़ी में शुकाचार्य के कलि युगस्थ परीक्षित् को कथा सुनाना । कितना लम्बा-चौड़ा यह गप्प है ।

यास्क की सम्मति – उर्वशी शब्द का व्याख्यान करते हुए यास्क भी ” तस्या दर्शनान्मित्रावरुणयो रेतश्चस्कन्द ” उसके दर्शन से मित्र और वरुण का रेत स्खलित हो गया, ऐसा लिखते हैं । आश्चर्य की बात है कि वे भाष्यकार निरुक्तकार आदि भी ऐसी-ऐसी जटिल कथा का आशय न बतला गये ।

वसिष्ठ पुरोहित – यही उर्वशी पुत्र मैत्रावरुण वसिष्ठ राजवंशों के पुरोहित थे । यही आशय सर्वकथाओं से सिद्ध होता है । वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में इस प्रकार लिखा है- ” कस्य चित्त्वथ कालस्य मैत्रावरुणसंभवः”। वसिष्ठस्तेजसा युक्तो जज्ञे इक्ष्वाकुदैवतम् ॥ ७ ॥ तमिक्ष्वाकुर्महातेजा जातमात्रमनिन्दितम् । वव्रे पुरोधसं सौम्यं वंशस्यास्य हिताय नः ॥ ८ ॥ रा० । उ० । सर्ग ५७ ॥ सूर्यवंशी के आदि राजा इक्ष्वाकु हैं । इन्होंने इसी उर्वशी सम्भव मैत्रावरुण वसिष्ठ को अपने पुरोहित बनाया । शुकाचार्य बड़े आदर के साथ इनको ही अपना प्रपितामह कहते हैं । अब विचार करने की बात है कि इस सबका यथार्थ तात्पर्य क्या है ? मैं अभी जो पूर्व में लिख आया हूँ, यही इसका वास्तविक तात्पर्य है । वसिष्ठ कोई आदमी नहीं हुआ, न उर्वशी आदि ही कोई देहधारी जीव है। इस प्रकार मित्र और वरुण सामान्य वाचक शब्द हैं किसी खास व्यक्ति वाचक नहीं। अब मैं नामार्थ से भी उस विषय को दृढ़ करता हूँ ।

वसिष्ठादि नामों के अर्थ – ‘ वसु’ शब्द से यह वसिष्ठ बना है । जो सबके हृदय में बसे, वह वसु तथा जो अतिशय वास करनेहारा है, वह वसिष्ठ । मैं लिख आया हूँ कि यहाँ धर्म नियम का नाम वसिष्ठ है । निःसन्देह वे ही धर्म नियम संसार में प्रचलित होते हैं जो सबके रुचिकर हों, जिन्हें सब कोई अपने हृदय में वास दे सकें । अतः धर्म नियम का नाम यहाँ वसिष्ठ रखा है । वसु शब्द, धन सम्पत्ति आदि अर्थ में भी आया है, अतः जो नियम अतिशय सम्पत्तियों को उत्पन्न करने हारा हो, प्रजाओं में जिनसे चारों तरफ अभ्युदय हो, उसी नियम का नाम वसिष्ठ है | अगस्त्य = अग+पर्वत, यहाँ अचल रूप से स्थिर जो प्रजाओं में नाना अज्ञान, उपद्रव विघ्न हैं वे ही अग रूप हैं, उन्हें जो विध्वंस करे वह अगस्त्य ” अगान् विध्रान् अस्यति विध्वंसयति यः

सोऽगस्त्यः ” । वेद में आया है कि अगस्त्यो यत्त्वा विश आजभार । ७ । ३३ । १० ॥ वसिष्ठ को अगस्त्य प्रजाओं के निकट ले जाते हैं अर्थात् ब्रह्मक्षत्रसभा से निश्चित धर्म नियम को साथ ले अगस्त्य (प्रचारकगण ) प्रजाओं के समस्त विघ्नों को विध्वस्त कर देते हैं, अत: प्रचार वा प्रचारक मण्डल का नाम यहाँ अगस्त्य कहा है। उर्वशी जिसको बहुत आदमी चाहें वह उर्वशी “याम् उरवो वहव उशन्ति कामयन्ते सा उर्वशी ” । पाठशाला, न्यायशाला आदि संस्थाओं को जहाँ-जहाँ बहुत आदमी मिलकर स्थापित करना चाहते हैं वहाँ-वहाँ ब्रह्मक्षत्रसभा की ओर से वह वह संस्था स्थापित होती है । अतः यहाँ संस्था का नाम उर्वशी है ।

आवश्यक नियम – वसिष्ठ अगस्त्य और उर्वशी आदि शब्द वेदों में अनेकार्थ प्रयुक्त हुए हैं । किन्तु अपने-अपने प्रकरण में वही एक अर्थ सदा स्थिर रहेगा अर्थात् जहाँ मैत्रावरुण वसिष्ठ कहा जाएगा उस प्रकरण भर में यही अर्थ होगा और ऐसे ही अर्थ को लेकर संगति भी लगती है ।

वसिष्ठ राजपुरोहित कैसे हुए- अब आप इस बात को समझ सकते हैं कि वसिष्ठ राजपुरोहित कैसे बने | यह प्रत्यक्ष बात है कि नियम बनाने वाले का ही प्रथम शासक नियम होता है अर्थात् जो विद्वान् नियम बनाता है वही प्रथम पालन करता है यदि ऐसा न हो तो वह नियम कदापि चल नहीं सकता । मित्र वरुण अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों मिलकर नियम बनाते हैं, अतः प्रथम इनका ही वह शासक होता है । जिस कारण ब्रह्मवर्ग में स्वभावतः नियम पालन करने की शक्ति है । वे उपद्रवी कदापि नहीं हो सकते, क्योंकि परम धर्मात्मा पुरुष का ही नाम ब्रह्म है । क्षत्रवर्ग सदा उद्दंड उच्छृंखल आततायी अविवेकी हुआ करते हैं, अतः इनके लिए धर्म नियमों की बड़ी आवश्यकता है जिनसे वे सुदृढ़ होकर अन्याय न कर सकें । आजकल भी पृथिवी पर देखते हैं कि क्षत्रवर्ग ही परम उद्दण्ड हो रहे हैं, इनको ही वश में लाने के लिए बड़ी-बड़ी सभा कर प्रजाओं से मिल ब्रह्मवर्ग नियम स्थापित कर रहे हैं, अतः वह वसिष्ठ नामी नियम विशेषकर क्षत्रिय कुलों का ही पुरोहित हुआ । पुरोहित शब्द का यही प्राचीन अर्थ है जो सदा आगे में रहे जिससे सम्राट् भी डरे । जिसका

अनिष्ट महासम्राट् भी न कर सकता हो। जिसके पक्ष में सब प्रजाएँ हों, जो प्रजाओं के प्रतिनिधि होकर सदा उनकी हित की बात करे और राजा को कदापि उच्छृङ्खल ने होने दे। जैसे आजकल रक्षित राज्यों को वश में रखने के लिए रेजिडेण्ट हुआ करता है ।

वशिष्ठ की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

जिस ब्रह्म और क्षत्र का विवरण ऊपर दिखलाया है उनको ही वेदों में मित्र और वरुण कहते हैं । ब्रह्म मित्र है और क्षत्र वरुण है । इसमें यद्यपि अनेक प्रमाण मिलते हैं तथापि मैं केवल शतपथ का एक प्रबल प्रमाण यहाँ लिखता हूँ । यजुर्वेद ७ । ९ की व्याख्या करते हुए शतपथ कहता है-

क्रतुदक्षौ ह वा अस्य मित्रावरुणौ । एतन्न्वध्यात्मं स यदेव मनसा कामयत इदं मे स्यादिदं कुर्वीयेति स एव ऋतुरथ यदस्मै तत्समृध्यते स दक्षो मित्र एव क्रतुर्वरुणो दक्षो ब्रह्मैव मित्रः क्षत्रं वरुणोभिगन्तैव ब्रह्म कर्त्ता क्षत्रियः ॥ १ ॥ ते ते अग्रे नानेवासतुः । ब्रह्म च क्षत्रं च । ततः शशाकैव ब्रह्म मित्र ऋते क्षत्राद्वरुणात्स्थातुम् ॥ २ ॥ न क्षत्रं वरुणः । ऋते ब्रह्मणो मित्राद्यद्ध किं च वरुणः कर्म चक्रेऽप्रसूतं ब्रह्मणा मित्रेण न है वास्मै तत्समानृधे ॥ ३ ॥ स क्षत्रं वरुणः । ब्रह्म मित्रमुपमन्त्रयां चक्र उपमा वर्तस्व सं सृजावहै पुरस्त्वा करवै त्वत्प्रसूतः कर्म करवा इति

तथेति तौ समसृजेतां तत एष मैत्रावरुणे ग्रहोऽभवत् ॥ ४ ॥ सो एव पुरोधा । तस्मान्न ब्राह्मणः सर्वस्येव क्षत्रियस्य पुरोधां कामयते । सं ह्येतौ सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च नो एव क्षत्रियः सर्वमिव ब्राह्मणं पुरोदधीत सं ह्ये ल्वेतौ सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च स यत्ततो वरुणः कर्म चक्रे प्रसूतं ब्रह्मण मित्रेण सं है वास्मै तदानृधे । शतपथ । ४ । १ ॥

क्रतु और दक्ष ही इसके मित्र और वरुण हैं । यह अध्यात्म विषय है । सो यह यजमान मन से जो यह कामना करता है कि यह मुझे हो और यह कर्म मैं करूँ, इसी का नाम क्रतु है और जो इस कर्म से उसको समृद्धि प्राप्त होती है, वही दक्ष है । मित्र ही क्रतु है और वरुण ही दक्ष है । ब्रह्म अर्थात् ज्ञानी न्यायी वर्ग ही मित्र है और क्षत्र अर्थात् न्यायी शासक वर्ग ही वरुण है । मन्ता ही ब्रह्म है और कर्त्ता ही क्षत्रिय है ॥ १ ॥ पहले ब्रह्म और क्षत्र ये दोनों पृथक्-पृथक् रहते थे । ब्रह्म जो मित्र है वह तो क्षत्र वरुण के बिना पृथक् रह सका, किन्तु क्षत्र जो वरुण है वह ब्रह्म मित्र के बिना न रह सका ॥ २ ॥ क्योंकि ब्रह्म मित्र की आज्ञा बिना क्षत्र वरुण जो-जो कर्म किया करता था वह वह उसके लिए वृद्धिप्रद नहीं होता था ॥ ३ ॥ सो इस क्षत्र वरुण ने ब्रह्म मित्र को बुलाया और कहा कि मेरे समीप आप रहें। (संसृजाव है ) हम दोनों मिल जाएं। मिलकर सर्व व्यवहार करें। मैं आपको आगे करूँगा और आपकी आज्ञानुसार मैं कर्म करूँगा । ब्राह्मण इसको स्वीकार कर दोनों मिल गये ॥ ४ ॥ तब से ही मैत्रा वरुण नाम का एक ग्रह अर्थात् एक पात्र होता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार पौरोहित्य चला। इस कारण सब ब्राह्मण, सब क्षत्रिय की पौरोहित्य – वृत्ति की कामना नहीं करता, क्योंकि ये दोनों मिलकर सुकृत और दुष्कृत कर्म करते हैं अर्थात् दोनों ही पाप-पुण्य के भागी होते हैं । वैसा ही सब क्षत्रिय सब ब्राह्मण को पुरोहित नहीं बनाता, क्योंकि दोनों मिलकर सुकृत और दुष्कृत करते हैं । तब से क्षत्रिय वरुण जो-जो कर्म ब्राह्मण मित्र से आज्ञा पाकर किया करता था वह वह कर्म उसको वृद्धिप्रद हुआ । इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि ब्रह्म को मित्र तथा क्षत्र को वरुण कहते हैं और इन दोनों को मिलकर ही व्यवस्था करनी चाहिए। इसमें यदि शासक वर्ग, ज्ञानी वर्ग की अधीनता को स्वीकार नहीं करे तो उसका निर्वाह कदापि न हो । अब आप वशिष्ठ और अगस्त्य दोनों मैत्रावरुण क्यों कहलाते

स प्रकेत उभयस्य विद्वान् सहस्रदान उत वा सदानः । यमेन ततं परिधिं वयिष्यन्नप्सरसः परि जज्ञे वसिष्ठः ॥

– ऋ० ७ । ३३ । १२

वेदों में एक यह भी रीति है कि गुण में भी चेतनत्व का आरोप कर गुणिवत् वर्णन करने लगते हैं। राज्य नियम से लोक ज्ञानी विद्वान् महाधनाढ्य होते हैं अतएव वह नियम ही ज्ञानी, विद्वान्, महाधनाढ्य आदि कहा जाता है। (स: + प्रकेतः ) वह परम ज्ञानी (उभयस्य+ विद्वान्) ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों सुखों को जानता हुआ वसिष्ठ (सहस्रदान: ) बहुत दानी होता है । (उत वा + सदान: ) अथवा सर्वदा दान देता ही रहता है। कब ? सो आगे कहते हैं— (यमेन ) ब्रह्म क्षत्रों के प्रबल दण्डधारा से ( ततम् + परिधिम् ) विस्तृत व्यापक परिधि रूप वस्त्र को (वयिष्यन्) बुनता हुआ (वसिष्ठः ) वह सत्य धर्म ( अप्सरसः + परि जज्ञे ) सर्व संस्थाओं को लक्ष्य करके उत्पन्न होता है। अब आगे सार्वजनीन परम हितकारी सिद्धान्त कहते हैं-

सत्रे ह जाता विषिता नमोभिः कुम्भेरेतः सिषिचतुः समानम् । ततोह मान उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥ १३ ॥ उक्थभृतं सामभृतं विभर्ति ग्रावाणं बिभ्रत्प्रवदात्यग्रे उपैनमाध्वं सुमनस्यमाना आ वो गच्छाति प्रतृदो वसिष्ठः ॥

ऋ० ।७।३३ । १४ ॥ सत्र – सतांत्र: सत्रः । सज्जनों की जो रक्षा करे, उस यज्ञ का नाम सत्र है । अथवा जो सत्य यज्ञ है, वही सत्र है । सम्पूर्ण प्रजाओं के हितसाधक उपायों के बनाने के लिए जो अनुष्ठान है, वही महासत्र है । कुम्भ = वासतीवर कलश अर्थात् सुन्दर उत्तम उत्तम जो बसने के ग्राम- नगर हैं वे ही यहाँ कुम्भ हैं। जैसे कुम्भ में जल स्थिर रहता है तद्वत् ग्राम में बसने पर मनुष्य स्थिर हो जाता है । अतः सर्व भाष्यकार, इस कुम्भ का नाम वासतीवर रखा है । मानमाननीय । जिसका सम्मान सब कोई करे । मापनेहारा, परीक्षक इत्यादि । अथ मन्त्रार्थ-

(सत्रे + ह + जातौ ) यह प्रसिद्ध बात है कि जब बहुत सम्मति से सत्र में दीक्षित होते हैं और ( नमोभिः + इषिता) सत्कार से जब अभिलाषित होते हैं अर्थात् जब ब्रह्मसमूह और क्षत्रसमूह को बड़े सत्कार के साथ

सर्व हितसाधक धर्मप्रणेतृ सभारूप महायज्ञ में प्रजाएँ बुलाकर धर्म नियम बनवाती हैं तब ( समानम्+ रेतः + कुम्भे+सिषिचतुः ) वे मित्र और यरुण अर्थात् ब्रह्म और क्षत्र दोनों मिलकर समान रूप से रेत – रमणीय धर्मरूप प्रवाह को प्रत्येक ग्राम रूप कलश में सींचते हैं। (ततः+ह+ मान: + उदियाय) तब सबका मापनेहारा, सर्व को एक दृष्टि से देखनेहारा एक मानने योग्य नियम उत्पन्न होता है । ( ततः + मध्यात्+ वसिष्ठम् + ऋषिम् + जातम् + आहुः ) और उसी के मध्य से वसिष्ठ ऋषि को उत्पन्न कहते है ॥ १३ ॥ इसका आशय विस्पष्ट है अब आगे उपदेश देते हैं कि प्रजामात्र को उचित है इस वसिष्ठ का सत्कार करे । ( प्रतृदः ) हे अत्यन्त हिंसक पुरुषो! हे प्रजाओं में उपद्रवकारी नरो ! (वः + वसिष्ठः + आगच्छति) तुम्हारे निकट राष्ट्र नियम आता है। (सुमनस्यमानाः ) प्रसन्न मन होकर तुम (एनम् ) इस धर्म नियम को ( उप+आध्वम्) अपने में देववत् आदर करो। वह वसिष्ठ कैसा है (उक्थभृतम् + सामभृतम्) उक्थभृत्=ऋग्वेदीय होता । सामभृत = उद्भाता । (विभर्ति ) इन दोनों को धारण किये हुए हैं और (ग्रावाणम्+ बिभ्रत्) उग्र प्रस्तर अर्थात् दण्ड को लिए हुए है। यजुर्वेदी अध्वर्यु को भी साथ में रखे हुए है (अग्रे + प्रवदति) और वह आगे-आगे निज प्रभाव को कह रहा है । १४ ॥ जैसा धर्म शास्त्रों में लिखा है कि ” व्यवराचापि वृत्तस्था” न्यून से न्यून ॠग्वेदी, यजुर्वेदी और सामवेदी तीन मिलकर जिस धर्म को नियत करें उसको कोई भी विचलित न करने पावे । इसी ऋचा से यह नियम बना है । प्रतृद – उतृदिर् हिंसानादरयोः । हिंसा और अनादर अर्थ में तृद् धातु आता है, अर्थात् जो राष्ट्रीय नियमों को हिंसित और अनादर करते हैं, वही यहाँ प्रतृद हैं। अब और भी अर्थ विस्पष्ट हो जाता है । धर्म नियम किसके लिए बनाए जाते हैं । निःसन्देह उन दुष्ट पुरुषों को नियम में लाने के लिए ही धर्म की स्थापना होती है, अतः वेद भगवान् यहाँ कहते हैं कि हे दुष्ट हिंसको और निरादरकारी जीवो! देखो तुम्हारे निकट धर्म आ रहे हैं । इनका प्रतिपालन करो । यह नियम तीनों वेदों की आज्ञानुसार स्थापित हुआ है, यदि इसका निरादर तुमने किया तो तुम्हारे ऊपर महादण्ड पतित होगा। इससे यह भी विस्पष्ट होता है कि वसिष्ठ नाम धर्म नियम का ही है, जो ब्रह्मक्षत्र सभा से सर्वदा सिक्त होता रहता है ।

त इन्निण्यं हृदयस्य प्रकेतैः सहस्रवल्शमभि सं चरन्ति । यमेन ततं परिधिं वयन्तोऽप्सरस उपसेदुर्वसिष्ठा ॥

७।३३।९

वसिष्ठाः = यहाँ वसिष्ठ शब्द बहुवचन है। इस मण्डल में बहुवचनान्त वसिष्ठ शब्द कई एक स्थान में प्रयुक्त हुआ है । (ते वसिष्ठाः ) वे – वे धर्म नियम ( इत्) ही (निण्यम्) अज्ञानों से तिरोहित = ढँके हुए (सहस्रवल्शम्) सहस्र शाखायुक्त उस-उस स्थान में (हृदयस्य+प्रकेतैः ) हृदय के ज्ञान-विज्ञानरूप महाप्रकाश के साथ ( संचरन्ति ) विचरण कर रहे हैं । (यमेन + ततम् + परिधिम् ) दण्ड की सहायता से व्यापक परिधि रूप वस्त्र को ( वयन्तः ) बुनते हुए ( अप्सरसः +उपसेदुः ) उस- उस संस्था के निकट पहुँचते हैं ।।

+

अब मैंने यहाँ कई ऋचाएँ उधृत की हैं। विद्वद्गण विचार करें कि वसिष्ठ शब्द के सत्यार्थ क्या हैं ? इन्हीं ऋचाओं को लेकर सर्वानुक्रमणी वृहद्देवता और निरुक्त आदि में जो-जो आख्यायिकाएँ प्रचलित हुई हैं, उनसे भी यही अर्थ निःसृत होते हैं। तद्यथा वृहद्देवता–

उतासि मैत्रावरुणः । ऋ० । ७ । ३३ । ११

ऋचा की सायण व्याख्या में वृहद्देवता की आख्यायिका उद्धृत है, वह यह है-

तयोरादित्ययोः सत्रे दृष्ट्वाप्सरस मुर्वशीम् । रेतश्चस्कन्द तत्कुम्भे न्यपतद्वासतीवरे । तेनैव तु मुहूर्त्तेन वीर्य्यवन्तो तपस्विनौ । अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च तत्रर्षी संबभूवतुः । बहुधा पतितं रेतः कलशेच जले स्थले । स्थले वसिष्ठस्तु मुनिः संभूत ऋषिसत्तमः । कुम्भे त्वगस्त्यः संभूतो जले मत्स्यो महाद्युतिः । उदियाय ततोऽगस्त्यः शम्यामात्रो महातपः । मानेन संमितोयस्मात् तस्मात् मान इहो च्यते । इत्यादि ॥

अदिति के पुत्र मित्र और वरुण हुए। वे दोनों किसी यज्ञ में गये । वहाँ उर्वशी को देख साथ ही दोनों का रेत गिर गया । वह रेत कुछ घड़े में और कुछ स्थल में जा गिरा। स्थल में जो गिरा उससे वसिष्ठ और कलश में जो गिरा उससे अगस्त्य उत्पन्न हुए । अतएव इन दोनों को मैत्रावरुण कहते हैं, क्योंकि ये दोनों मित्र और वरुण के पुत्र हैं । अगस्त्य जिस कारण घट से उत्पन्न हुए, अतः इनके घटयोनि, कलशज आदि भी नाम हैं ।

वसिष्ठ और अगस्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

देश में अनेक त्रुटियाँ हैं, गवेषणा नहीं कही जाती । शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थों में तथा महाभारत, रामायण, पुराणों में बहुत सी ऐसी आख्यायिकाएँ उक्त हैं जिनसे बड़े-बड़े मानव हितकारी सिद्धांत निकलते हैं, क्योंकि वेदों से वे सब आए हुए हैं, किन्तु कथा के स्वरूप में वे वैदिक सिद्धान्त लिखे गये हैं, अतः उनका आशय आज सर्वथा अस्त-व्यस्त हो गया है । उदाहरण के लिये, मैं वेदों के सुप्रसिद्ध वसिष्ठ और अगस्त दो ऋषियों को प्रस्तुत करता हूँ। क्या यह सम्भव है कि दो पुरुषों के बीज मिलकर बालकों को उत्पन्न करें, वह भी साक्षात मातृगर्भ में नहीं किन्तु स्थल और घट में उत्पत्ति हो ? उर्वशी के दर्शन मात्र से मित्र और वरुण दो देवों का चित्त चञ्चल हो जाए ? उनसे तत्काल ही एक या दो सुभग बालक उत्पन्न हों और तत्काल ही देवगण उन्हें कमल के पत्रों पर बिठला उनकी स्तुति पूजा करें ? उनमें से एक बालक सम्पूर्ण सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहित बन सृष्टि की आदि से प्रलय तक अजर-अमर हो एक रूप में सदा स्थिर रहे ? क्या यह सम्भव है कि वसिष्ठ की एक गौ जो चाहे सो करे ? हजारों प्रकार की सेनाओं को वह स्वयं रच ले, पृथिवी के समस्त पदार्थ उसकी आज्ञा में हाथ जोड़कर खड़े रहें, इस शबला गौ के लिए वसिष्ठ और विश्वामित्र में तुमुल संग्राम हो ? वसिष्ठ के शतपुत्रों को विश्वामित्र मरवा दे, इस शोक में वसिष्ठ सुमेरु पर्वत के सबसे ऊपर के शिखर पर से गिरें तो भी न मरें । अग्नि उन्हें न जलावे, समुद्र इनसे डर जाए । हाथ, पैर और सब अंगों को बाँध नदियों में डूबने को जाएँ, किन्तु

नदियाँ भाग जाएँ इनके बँधन को तोड़ डालें इत्यादि शतशः कथाएँ वशिष्ठ के विषय में जो कही जाती हैं उनका क्या आशय है ? क्या सचमुच ये वसिष्ठ और अगस्त्य दो महान् ऋषि वेश्या पुत्र हैं । उर्वशी कोई वेश्या है ? क्या मित्र और वरुण कोई ऐसे तुच्छ देव हैं, जो झट स्त्री पर मोहित हो जाते ? इत्यादि । क्या इनकी सत्यता के अन्वेषण के लिए कभी हम प्रयत्न करते हैं ? निःसन्देह यह अद्भुत कथा है । इससे अति गूढ़ बातें निकलती हैं। मित्र और वरुण के पुत्र वसिष्ठ एवं अगस्त्य की आख्यायिका से राज्य व्यवस्था सम्बन्धी एक परम उपयोगी वैदिक सिद्धान्त विनिःसृत होता है, अतः मैं इस भाग में इसको प्रथम दर्शा पश्चात् वसिष्ठ सम्बन्धी अन्यान्य कथाओं का आशय प्रकट करूँगा । इसको ध्यान से आप लोग पढ़ें ।

इसके लिए प्रथम यह जानना आवश्यक है कि स्वतन्त्र और अज्ञानी राजा से देश की कितनी हानि हुई है और हो रही है । अतएव पृथिवी पर के सभ्य देशों में आजकल दो प्रकार के राज्य हैं। एक प्रजाधीन, दूसरा सभाधीन अर्थात् जिसमें राजा को सभा की आज्ञा का वशवर्ती होना पड़ता है । सर्व विद्वानों की प्रायः इसमें एक सम्मति है कि प्रजाधीन ही राज्य चाहिए और यही मनुष्यता है। ज्यों-ज्यों मनुष्यता की वृद्धि होगी त्यों-त्यों स्वयं राज्य व्यवस्था शिथिल होती जाएगी, क्योंकि प्रत्येक मानव निज कर्तव्य को अच्छी प्रकार निबाहेगा । इतिहास से विदित होता है कि जब-जब राजा उच्छृंखल हुआ है तब-तब महती आपत्ति प्रजाओं में आई हैं । अतः वेद में ऐसा वर्णन आता है

यत्र ब्रह्म च क्षत्रञ्च सम्यञ्चौ चरतः सह ।

तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना ॥

– यजु० २० । २५

ब्रह्म = ज्ञान, विज्ञान, परमज्ञानी जन, धर्मतत्वज्ञ, धर्माध्यक्ष पुरुषों की महती सभा इत्यादि । क्षत्रबल, प्रजाशासक वर्ग, धार्मिक बली, प्रजा शासकों की महती सभा इत्यादि । प्रज्ञेषम् = प्रजानामि जानता हूँ । देव – प्रजावर्ग, शास्य प्रजाएँ । अग्नि-परमात्मा, ब्राह्मण, अग्निहोत्रादि कर्म यद्यपि वैदिक शब्द लोक में भी प्रयुक्त हुए हैं, परन्तु लोक में उन वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। वेदों के अर्थों के विचार से वे वे अर्थ अच्छी प्रकार भासित होने लगते हैं । अथ मन्त्रार्थ – (तम्+लोकम्+ पुण्यम्+प्रज्ञेषम् ) उस लोक को मैं पुण्य समझता हूँ । (यत्र+ब्रह्म+च+क्षत्रन्+च ) जहाँ ज्ञान और बल अथवा ज्ञानी और बली अथवा धर्मव्यवस्थापक विद्वद्वर्ग और उस व्यवस्था के अनुसार शासन करने वाले राजगण (सम्यञ्चौ) अच्छी प्रकार मिलकर परस्पर सत्कार करते हुए (सह + चरतः ) साथ विचरण करते हैं, साथ ही सर्व व्यवहार करते हैं । (यत्र+देवा:) और जहाँ प्रजावर्ग (अग्निना + सह) ईश्वर, ज्ञानी और अग्निहोत्रादि शुभ कर्म के साथ विचरण करते हैं अर्थात् जहाँ सर्व प्रजाएँ आस्तिक हो शुभ कर्मों को यथा विधि करते हैं और ज्ञानियों के पक्ष में रहते हैं । वही देश-वही लोक पवित्र है ।

इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम् ।

मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमां तस्यैते स्वाहा ॥

यजु० ३२ । १६

यह भी एक प्रार्थना है । (इदम+च+क्षत्रम्+च ) यह ज्ञानी और शासक वर्ग (उभे+मे+श्रियन् + अश्नुताम् ) दोनों ही मिलकर मेरी सम्पत्ति को भोग में लावें। (मयि+देवाः +उत्तमाम्+ श्रियम् + दधतु) मुझमें समस्त शुभाभिलाषी प्रजावर्ग उत्तम श्री सम्पत्ति स्थापित करे । (तस्यै+ते+स्वाहा ) हे सम्पत्ति ! तुम्हारे लिये मेरा सर्वस्व त्याग है । स्वाहा = स्व + आहा । स्व- धन । आहा सब प्रकार से त्याग । अपने स्वत्त्व को सर्व प्रकार से त्याग करने का नाम स्वाहा है। उन पूर्वोक्त दो मन्त्रों में ही नहीं किन्तु यजुर्वेद के बहुत स्थलों में ब्रह्म और क्षत्र दोनों को मिलकर व्यवहार करने का वर्णन आता है। दो-चार उदाहरण ये हैं-

स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु । – यजु० १८ । ३८

वह ब्रह्म और क्षत्र हमको पाले । यही वाक्य इस अध्याय की ३९, ४०, ४१, ४२, ४३ वीं कण्डिकाओं में आया है ।

सोमः पवतेऽस्मै ब्रह्मणेऽस्मै क्षत्राय ॥ ७ ॥ २१ ॥ परमात्मा इस ब्रह्म और क्षत्र को पवित्र करता है | ब्रह्मणे पिन्वस्व क्षत्राय पिन्वस्व । ३८ | १४ ॥

हे भगवान! ब्रह्म और क्षत्र को उन्नत करो । पुनः प्रार्थना आती है, देवा ऋ० प्रजापति दे० भूरिगार्गी पंक्ति पंचम कि-

स नो भुवनस्य पते प्रजापते यस्य त उपरि गृहा यस्य वेह | अस्मै ब्रह्मणेऽस्मै क्षत्राय महि शर्म यच्छ स्वाहा ।

– यजु० १८ । ४४ ( भुवनस्य+पते+प्रजापते) हे सम्पूर्ण विश्वाधिपति प्रजापति परमात्मन्! (यस्य ते उपरि + गृहाः ) जिस आपके गृह ऊपर हैं । (यस्य+ वा + इह ) जिस आपके गृह इस लोक में हैं अर्थात् जो आप सर्वव्यापक हैं। (सः+नः+अस्मै+ब्रह्मणे+अस्मै + क्षत्राय) सो आप मेरे इस परम ज्ञानी वर्ग को और शासक वर्ग को (महि+ शर्म + यच्छ) बहुत कल्याण देवें । (स्वाहा) हे परमात्मन् ! आपके लिए मेरा सर्व त्याग है |

अब अनेक उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं । वेदों को विचारिये मालूम होगा कि जब ज्ञान और बल दोनों मिलकर कार्य करते हैं तब ही परम कल्याण होता है । अतएव मनु जी बहुत जोर देकर कहते हैं कि- दशावरा वा परिषद् यं धर्मं परिकल्पयेत् । त्र्यव्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्” । न्यून से न्यून दश विद्वानों की अथवा बहुत न्यून हो तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उसका उल्लंघन कोई भी न करे |

सूर्य-चन्द्र की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

मैं अभी कह चुका हूँ कि परमात्मा ने ही इस सूर्य-चन्द्र को बनाया है । परंतु पुराण कुछ और ही कहते हैं । वे इस प्रकार वर्णन करते हैं कि कश्यप ऋषि की अदिति, दिति, दनु, कद्रू, बनिता आदि अनेक स्त्रियाँ थीं । इसी अदिति से आदित्य अर्थात् सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए ।

भागवतादि यह भी कहते हैं कि अत्रि ऋषि के नेत्र से चन्द्र उत्पन्न हुआ है; यथा-

अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः । यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्त्तयः ॥ सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रदसरोरुहात् । जातस्यासीत्सुतो धातुरत्रिः पितृसमो गुणैः ॥

तस्य दृग्भ्योऽभवत्पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।

विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥

कोई कहता है कि समुद्र से चन्द्र की उत्पत्ति हुई । इसी प्रकार मेघ कैसे बनता, वायु क्यों कभी तीक्ष्ण और कभी मन्द होती, पृथिवी से किस प्रकार गरम जल और अग्नि निकलता, ज्वालामुखी क्या वस्तु है, भूकम्प क्यों होता, विद्युत् क्या वस्तु है, मेघ में भयंकर गर्जना क्यों होती, इत्यादि विषय विज्ञान शास्त्र के द्वारा प्रत्येक पुरुष को जानने चाहिएँ” नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।” मनुष्य की उत्पत्ति ही इसी कारण हुई है । जिज्ञासा करना मनुष्य का परम धर्म है । वेदों और शास्त्रों में इसकी बहुधा चर्चा आई है। हम अपने चारों तरफ सहस्रों पदार्थ देखते हैं । उनको विचार दृष्टि से अवश्य जानना चाहिए । आकाशस्थ ताराएँ कितनी बड़ी और कितनी छोटी हैं, वे पंक्तिबद्ध और बन के समान क्यों दीखतीं, पृथिवी से ये कितनी दूरी पर हैं ! एवं नक्षत्रों की अपेक्षा चन्द्र क्यों बड़ा दीखता पुनः इसके इतने रूप कैसे बदलते ! प्रायः सब ही ग्रह पूर्व से पश्चिम की ओर आते हुए क्यों दीख पड़ते। इसी प्रकार पृथिवी पर नाना घटनाएँ होती रहती हैं- कभी वर्षा ऋतु में मेघ भयङ्कर रूप से गर्जता, बिजली लगकर कभी- कभी मकान और बड़े-बड़े ऊँचे वृक्ष जल जाते, मनुष्य मर जाते, बिजली कहाँ से और कैसे उत्पन्न होती, मेघ किस प्रकार बनता, इतने जल आकाश में कहाँ से इकट्ठे हो जाते, पुनः मेघ आकाश में किस आधार पर बड़े वेग से दौड़ते, वहाँ ओले कैसे बनते, फिर थोड़ी ही देर में मेघ का कहीं पता नहीं रहता, इत्यादि बातें अवश्य जाननी चाहिएँ ।

ऐ मनुष्यो ! ये ईश्वरीय विभूतियाँ हैं, इन्हें जो नहीं जानता वह कदापि ईश्वर को नहीं जान सकता। वह अज्ञानी पशु है । स्वयं वेद भगवान् मनुष्य जाति को जिज्ञासा की ओर ले जाते हैं, आगे इसी विषय को देखिये । अतः जिज्ञासा करना मनुष्य का परम धर्म है ।

ऐ मनुष्यो ! इस जगत् में यद्यपि परमात्मा साक्षात् दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि इसकी विभूतियाँ ही दीख पड़तीं और इन्हीं में वह छिपा हुआ है । अतएव बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि कह गये हैं कि “आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ” । इस परमात्मा की वाटिका को ही सब कोई देखते हैं और इसी के द्वारा उसको देखते हैं, साक्षात् उसको कोई नहीं देखता । अतः इस जगत् के वास्तविक तत्वों को जो सदा अध्ययन किया करता है वह, मानो, परम्परा से ईश्वर का ही चिन्तन कर रहा है । व्यास ऋषि इसी कारण ब्रह्म का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि ‘जन्माद्यस्य यतः ” जिससे इस जगत् का जन्म, स्थिति और संहार हुआ करता है, वही ब्रह्म है । इससे ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बतलाया, अतः यदि जगत को जान लेवे तो, मानों, ईश्वर की रचना जान ली, यह कितनी बड़ी बात है । अत: जिज्ञासुओ ! प्रथम ईश्वर की रचना की ओर ध्यान दो ।