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आर्य वक्ताओं व लेखकों की सेवा में:- राजेन्द्र जिज्ञासु

कुछ समय से आर्यसमाज के उत्सवों व सम्मेलनों में सब बोलने वालों को एक विषय दिया जाता है, ‘‘आज के युग में ऋषि दयानन्द की प्रासंगिकता’’ इस विषय पर बोलने वाले (अपवाद रूप में एक दो को छोडक़र) प्राय: सब वक्ता ऋषि दयानन्द की देन व महत्ता पर अपने घिसे-पिटे रेडीमेड भाषण उगल देते हैं। जब मैं कॉलेज का विद्यार्थी था तब पूज्य उपाध्याय जी की एक मौलिक पुस्तक सुरुचि से पढ़ी थी। पुस्तक बहुत बड़ी तो नहीं थी, परन्तु बार-बार पढ़ी। आज भी यदा-कदा उसका स्वाध्याय करता हँू। आज के संसार में वैदिक विचारधारा को हम कैसे प्रस्तुत करें, यही उसके लेखन व प्रकाशन का प्रयोजन था।

इसमें दो अध्याय अनादित्त्व पर हैं। सब मूल सिद्धान्तों पर लिखते हुए महान् दर्शनिक की तान यही है कि ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि हैं। ईश्वर का ज्ञान और विद्या भी अनादि है। यह जगत् परिवर्तनशील है, परन्तु इस सृष्टि के नियम जो प्रभु ने बनाये हैं वे सब अपरिवर्तनशील व अनादि हैं, परमेश्वर इन नियमों का नियन्ता है। उसका एक भी नियम ऐसा नहीं जो अनादि व नित्य (अनश्वर) न हो। ऋषि दयानन्द के वैदिक दर्शन की महानता, विलक्षणता, उपयोगिता तथा प्रासंगिकता का बोध इसी से हो जाता है। हमारे अधिकंाश वक्ता इस विषय पर बोलते हुए इसे छूते ही नहीं।

एक बार नागपुर के एक महासम्मेलन में मुझे भी इसी विषय पर बोलना पड़ा। मैंने पहला वाक्य यह कहा, ‘‘क्या कभी किसी ने यह प्रश्र उठाया है कि आज के युग में चाँद की, सूर्य की, पृथिवी की गति की, सूर्य के पूर्व से उदय होने की, दो+दो=चार, दिन के पश्चात् रात और रात के पश्चात् दिन की, कर्मफल सिद्धान्त की, प्रभु की दया, प्रभु के न्याय की, व्यायाम की, दूध-दही के सेवन की, गणित के नियम की, भौतिकी शास्त्र के रुड्ड2ह्य (नियमों) की क्या प्रासंगिकता है?’’

जो इस प्रश्र को उठायेगा, उसका उपहास ही उड़ाया जायेगा। इस प्रकार त्रैतवादी विचारक महर्षि दयानन्द के सन्देश, उपदेश ‘वेद अनादि ईश्वर का अनादि ज्ञान है’ को सुनकर जो उसकी प्रासंगिकता का प्रश्र उठाता है तो उसे कौन बुद्धिमान् कहेगा? एक सेवानिवृत्त प्राध्यापक मुझे बाजार में मिल गया। वार्तालाप में उसने एक बात कही, ‘‘वैज्ञानिक चाँद पर घूम आये। उपग्रह से भ्रमण करते रहते हैं। कहीं उन्हें नरक व स्वर्ग नहीं दिखे। कहीं किसी ने हूरें नहीं देखीं, फरिश्ते नहीं देखे……..।’’

मित्रो! जो चमत्कार मानते थे उनको लिखित रूप से मानना पड़ रहा है कि किसी पैगम्बर ने कोई चमत्कार नहीं किया। धर्म अनादि काल से है। युग-युग में ईश्वर नया ज्ञान नहीं देता। ऐसा साहित्य छप रहा है। ऐसे लोगों से पूछो कि आज के युग में उनके ग्रन्थों व पन्थों की क्या प्राासंगिकता है? विस्तार से कभी फिर कुछ लिखूँगा। आशा है हमारे बड़े-बड़े विद्वान् नये फैशन के इस सम्मेलन से समाज को बचायेंगे।

हमारे पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तो पण्डित चमूपति जी की यह तान सुनाया करते थे:-

जुग बीत गया दीन की शमशीर ज़नी का।

है वक्त दयानन्द शजाअत के धनी का।।

दीनानगर की जगदंबा: राजेन्द्र जिज्ञासु

सृष्टिकर्ता  एक है। वह कण-कण में है। वह हर मन में है। वह जन-जन में है। वह प्रभु जगत् के भीतर-बाहर व्यापक है। वह अखण्ड एकरस है-यह वेद, उपनिषद् सब शास्त्र बताते हैं। सब मत-पंथ कहने को यही कहते हैं कि परमात्मा एक है और कण-कण में है। ब्रह्माकुमारी जैसे कई मत इसका अपवाद हो सकते हैं। ब्रह्माकुमारी मत परमात्मा को सर्वत्र नहीं मानता।

आश्चर्य है कि फिर भी संसार में विशेष रूप से भारत में भगवानों की संख्या बढ़ रही है। मुर्दों की और मर्दों की पूजा भी बढ़ रही है। परमात्मा भोग देता है। कर्मफल का देने वाला वही तो है, फिर भी अज्ञानी मूर्ख यह मानकर अंधविश्वास फैला रहे हैं कि नदियों में स्नान से, तीर्थ यात्रा से, पाप के फल से हम बच जाते हैं। परमात्मा ने कर्मफल का अपना अधिकार नदी, नालों, समाधियों और तीर्थों को दे दिया है। विचित्र कहानियाँ सुनी-सुनाई जाती हैं। दीनानगर (पंजाब) में एक मन्दिर से हिन्दुओं की जगदम्बा की मूर्ति काजी गुलाम मुहम्मद ने उठा ली। माता ने न तो शोर मचाया और न थाने में जाँच में सहयोग किया। काज़ी उसी मूर्ति से अपनी रसोई में मसाला पीसता रहा। जाँच करते-करते पुलिस ने उसे धर दबोचा। चालान हुआ। काज़ी पर केस चला। मनोविकार (पागल-सा) होने की आड़ में गुलाम मुहम्मद दण्ड से बच गया। यह घटना सन् १८९० के एक पत्र में छपी मिलती है, फिर भी अन्धविश्वासी हिन्दू की आँखें नहीं खुलीं। भगवानों की चोरी कौन रोके?

महाराजा रणवीर सिंह अथवा प्रताप सिंहः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

एक आर्यवीर ने चलभाष पर प्रश्न पूछा है कि पादरी जॉनसन से पं. गणपति शर्मा जी का शास्त्रार्थ महाराज रणवीरसिंह के समय में हुआ अथवा महाराजा प्रतापसिंह के काल में? हमने तड़प-झड़प में कुछ मास पूर्व इस शास्त्रार्थ का प्रामाणिक वृत्तान्त उस समय के सद्धर्म प्रचारक से उद्धृत करते हुए दिया था। प्रश्नकर्त्ता ने श्री कुन्दनलाल जी चूनियाँ वाले की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़कर उसे भ्रामक समझकर यह प्रश्न पूछा है। उन्हें श्री रामविचार जी बहादुरगढ़ से इसका समाधान करवाना चाहिये। वह उक्त पुस्तक के बारे में हमसे उलझ चुके हैं। परोपकारी की फाईल निकालकर सद्धर्म प्रचारक का उद्धरण देखकर यथार्थ इतिहास को जाना जा सकता है। हम इतिहास के विद्यार्थी हैं। इतिहास प्रदूषण कोई भी करे, उसे पाप मानते हैं। यदि फिर भी पाठक चाहेंगे तो दोबारा उस घटना पर प्रकाश डालने में हमें कोई ननूनच नहीं होगा।

हाँ! यह नोट कर लें कि यह कथन सर्वथा भ्रामक व इतिहास प्रदूषण है कि जम्मू कश्मीर में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोंगापंथी पौराणिक ब्राह्मण तो आर्यसमाज के घोर विरोधी थे, परन्तु राज्य की ओर से कोई वैधानिक प्रतिबन्ध कतई नहीं था। पं. लेखराम जी के साहित्य से तथा हमारे द्वारा प्रकाशित जम्मू शास्त्रार्थ के अवलोकन से इस मिथ्या कथन की पोल खुल जाती है। राज्य का सबसे बड़ा डॉक्टर आर्यसमाजी था। राज्य का प्रतिष्ठित न्यायाधीश जाना पहचाना आर्य-पुरुष था। प्रतिबन्ध की गप प्रचारित करने वालों ने आर्यसमाज का अवमूल्यन ही किया है।

अपने बड़ों का अवमूल्यन न होने दें: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

दुर्भाग्य से जब कोई आर्यसमाज पर, वेद पर, ऋषि पर जानबूझकर या अनजाने से वार करता है तो हमारे उपाधिधारी तथा कथित लेखक, वक्ता और योगनिष्ठ वक्ता-प्रवक्ता मौन धारण किये रहते हैं। ये लोग घर में ही ‘‘शास्त्रार्थ कर लो’’ की चुनौती देना जानते हैं। डॉ. जे. जार्डन्स जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक अपनी पुस्तक में बहुत कुछ अच्छा लिखा, परन्तु एक अनर्थकारी घटना अधूरी देकर विष परोस दिया। स्वामी सम्पूर्णानन्द जी को इसका पता चला तो आप चिन्तित हो गये। कौन उत्तर दे? आपने इन पंक्तियों के लेखक को इसका उत्तर देने को कहा। उन्हें कहा गया कि आप सार्वदेशिक व प्रान्तीय सभाओं को यह कार्य सौंपें। वे उत्तर न दे सकें तो फिर मैं इसका सप्रमाण उत्तर दूँगा। इस घटना की पूरी शव-परीक्षा कर दी जावेगी। किसने उत्तर देना था?

उस पुस्तक में वायसराय के नाम स्वामीजी के द्वारा लिखे गये एक पत्र का उल्लेख है। कहा गया कि अंग्रेज से मिलकर (कुछ लेकर)स्वामी जी ने हिन्दू-मुसलमानों में घृणा पैदा कर लड़ाया।

पूरा प्रसंग तो फिर कभी देंगे। स्वामीजी ने फिर इस सेवक को पुकारा। लेख भी दिया। भाषण भी देकर बताया। दस्तावेज हमारे पास थे। देश के लीडरों की भरी सभा में नेहरू जी के एक लाडले मियाँ जी ने दोष लगाया तो धीर-वीर-गम्भीर श्रद्धानन्द ने वहाँ हुँकार भरकर चुनौती दी कि मेरे उस पत्र का फोटो प्रकाशित किया जावे, ताकि देशवासी सच्चाई को जान सकें। यह चुनौती दी गई तो श्वेत दाढ़ी वाले उस मौलाना के चेहरे का रंग ही उड़ गया। बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन व मालवीय जी भी उस बैठक में इस शूरता की शान श्रद्धानन्द जी के निष्कलङ्क जीवन के साक्षी बने। पाठकवृन्द! आर्यसमाज ने पाखण्ड खण्डन के लिए इसे कभी मुखरित ही नहीं किया।

लम्बे समय के पश्चात् आज दम्भ की, अहंकार की चीरफाड़ कर सत्य के तथ्य का बोल बाला करके महर्षि की महिमा का सप्रमाण बखान करने का निश्चय किया है। सोचा था कि मान्य ज्वलन्त जी से इसकी विस्तृत चर्चा की जाये। फिर वही इस विषय पर लिखें। वह मिले। श्री धर्मवीर जी के शोक में हम सब डूबे थे, सो कोई और चर्चा नहीं की। दयानन्द सन्देश,वैदिक पथ आदि पत्रों में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर लच्छेदार लेख देकर हमारे कथन को झुठलाया गया। आर्य-पत्रों के पास महाशय चिरञ्जीलाल जी ‘प्रेम’, श्री सन्तराम जी (द्वय), पं. शान्तिप्रकाश जी, डॉ. धर्मवीर जी की कोटि के सम्पादक नहीं बचे, इसलिये कुछ कहना सुनाना भैंस के आगे वीणा बजाने जैसी बात है। ज्वलन्त जी विचारशील विद्वान् हैं। उनसे निवेदन करना चाहता था।

आज सारा आर्यजगत् ध्यान से सुन ले और पढ़ ले कि जो कुछ हमने चाँदापुर शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखा है व कहा है, वह सब प्रामाणिक है। हमारा लिखा एक-एक वाक्य इतिहास का कठोर सत्य है। सब पुराने दस्तावेज हम दिखा सकते हैं। वैदिक-पथ आदि में कुल्लियाते आर्य मुसाफ़ि र में से दिये गये प्रमाण को यह कहकर झुठलाया गया कि पण्डित लेखराम जी ने इसके पश्चात् ऋषि जीवन लिखा। ऋषि जीवन में यह उद्धरण नहीं दिया। इससे स्पष्ट है कि उनका मत बदल गया-यह कथन मिथ्या है। यह निर्णय थोप दिया गया। वकील बनते-बनते जज भी बन गये। आर्य जनता नोट कर ले कि शास्त्रार्थ से पूर्व चाँदापुर में कुछ मौलवी ही ऋषि से मिलकर यह निवेदन करने आये थे कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ करें।

भला और किसी को यह निवेदन करने की आवश्यकता ही क्या थी? ईसाई तो यह बात क्यों कहेंगे? हिन्दुओं में शास्त्रार्थ करने की हिम्मत ही कहाँ थी? उस क्षेत्र के कबीर-पंथियों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये तो इस मेले पर मुसलमानों से टक्कर लेने के लिये महर्षि को बुलाया गया था। यह ऋषि-जीवन के कई बड़े-बड़े लेखकों तथा राधास्वामी मत के तत्कालीन (बाद में तृतीय गुरु बने) अनुयायी श्री शिवव्रतलाल वर्मन ने सविस्तार लिखा है।

पं. लेखराम जी को झुठलाते हुए अपना निर्णय देने वाले को पता होना चाहिये कि पण्डित जी ने अपने लेखों, पुस्तकों तथा व्याख्यानों में दी गई ऋषि-जीवन विषयक सामग्री अपने द्वारा रचित ऋषि-जीवन में नहीं दी। कोई बुद्धिमान् यह नहीं मानेगा कि पण्डित जी का इस सामग्री की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रहा था। आश्चर्य यह है कि कोई विरोधी, कोई मुसलमान तो आज पर्यन्त ऐसा न कह सका। ऐसा अनर्गल प्रलाप करके ये पत्र धन्य-धन्य हो गये! पण्डित लेखराम जी की देन उनके बलिदान, उनके साहित्य की मौलिकता पर ये सज्जन क्या जानते हैं? उन पर किये गये प्रहार का कभी उत्तर दिया क्या?

‘मन्कूल’ शब्द को समझे क्या?ः- पण्डित जी ने अपने ग्रन्थ में इस घटना का वर्णन अपने शब्दों में नहीं किया। वहाँ स्पष्ट शीर्षक दिया गया है मन्कूल अज़ मुबाहिसा चाँदापुर। ‘मन्कूल’ अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है उद्धृत करना। ये शब्द पण्डित जी के नहीं, उसी समय छपी एक पुस्तक से हैं और कॉमा में उद्धृत किये गये हैं। पण्डित जी के साहित्य पर सात बार भिन्न-भिन्न नगरों में मुसलमानों ने केस चलाये। एक बार भी इस कथन को किसी ने नहीं झुठलाया। श्री पं. भगवद्दत्त जी ने महर्षि के आरम्भिक काल के नेताओं व शिष्यों के व्यक्तित्व तथा विद्वत्ता एवं उपलब्धियों की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी को सर्वोपरि माना है। जिस व्यक्ति ने पं. लेखराम जी की ऊहा व तपस्या के प्रसाद ‘ऋषि जीवन की सामग्री’ के लिये प्रयुक्त ‘‘विवरणों का पुलिन्दा’’ जैसे निकृष्ट फ़त्वे को ठीक सिद्ध करने के लिये भरपूर बौद्धिक व्यायाम करने में गौरव अनुभव किया’- वह अब कुछ भी लिखता जावे, उसे खुली छूट है।

इतिहास से ऐसी चिढ़ः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

न जाने आर्यसमाज के इतिहास तथा उपलधियों से शासन को तथा आर्यसमाज के पत्रों में लेख लिखने वालों को अकारण चिढ़ है अथवा इन्हें सत्य इतिहास का ज्ञान नहीं अथवा ये लोग जान बूझकर जो मन में आता है लिखते रहते हैं। एक ने यह लिखा है कि महात्मा हंसराज 15 अप्रैल को जन्मे। ऋषि के उपदेश भी उन्हें सुना दिये। दूसरे ने सान्ताक्रुज़ समाज के मासिक में यह नई खोज परोस दी है कि हरिद्वार के कुभ मेले में एक माता के पुत्र को शस्त्रधारी गोरों ने गंगा में फैंक दिया। माता बच्चे को बचाने के लिये नदी में कूद पड़ी। पिता कूदने लगे तो गोरों ने शस्त्र——महर्षि यह देखकर ——-। किसी प्रश्नकर्ता ने इस विषय में प्रकाश डालने को कहा। मैंने तो कभी यह लबी कहानी न सुनी और न पढ़ी। इस पर क्या लिखूँ? श्री धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु ने भी कहा कि मैं यह चटपटी कहानी नहीं जानता। यह कौन से कुभ मेले की है। यह सपादक जी जानते होंगे। लेखक व सपादक जी दोनों ही धन्य हैं। देहलवी जी का हैदराबाद में मुसलमानों से कोई शास्त्रार्थ हुआ, यह नई कहानी गढ़ ली गई है।

स्वराज्य संग्राम में 80% आर्यसमाजी जेलों में गये। यह डॉ. पट्टाभिसीतारमैया के नाम से बार-2 लबे-2 लेखों में लिखा जा रहा है। डॉ. कुशलदेव जी आदि को तो यह प्रमाण मिला नहीं। वह मुझसे पूछते रहे। कोई सुनता नहीं। स्वतन्त्रता दिवस पर सरकारी भाषण व टी. वी. तो आर्यसमाज की उपेक्षा कर ही रहे थे। आर्यसमाजी पत्रों ने भी अनर्थ ही किया। दक्षिण में किसी समाजी ने श्री पं. नरेन्द्र, भाई श्याम जी, श्री नारायण पवार सरीखे परम पराक्रमी क्रान्तिवीरों का, जीवित जलाये गये आर्यवीरों व वीराङ्गनाओं का नाम तक न लिया।

सेवाधन के धनी आर्य नेता वैद्य रविदत्त जीः- राजेन्द्र जिज्ञासु

सेवाधन के धनी आर्य नेता वैद्य रविदत्त जीः-

ब्यावर के आर्य मन्दिर में एक रोगी, वयोवृद्ध महात्मा की दो आर्य पुरुष अत्यन्त भक्तिभाव से सेवा किया करते थे। उसे स्नान आदि सब कुछ ये ही करवाते थे। एक जैनी ने इनको सुधबुध खोकर सेवा करते कई बार देखा। एक दिन उसने आर्य सेवक वैद्य रविदत्त जी से कहा, ‘‘क्या मेरी अन्तिम वेला में भी ऐसी सेवा हो सकती है?’’ वैद्य जी ने कहा, ‘‘भाई, आपने इच्छा व्यक्ति की है तो आपकी भी अवश्य करेंगे।’’

उसने अपनी सपत्ति की वसीयत आर्य समाज के नाम कर दी। समय आया, वह रुग्ण हो गया। सभवतः शरीर में ….. पड़ गये। वैद्यजी अपने सैनिक ओमप्रकाश झँवर को साथ लेकर समाज मन्दिर में उसका औषधि उपचार तो करते ही थे, मल-मूत्र तक सब उठाते। मल-मल कर स्नान करवाते। संक्षेप से यह जो घटना दी है, यही तो स्वर्णिम इतिहास है। कहाँ किसी ने यह इतिहास लिखा है? स्कूलों, संस्थाओं व सपदा के वृत्तान्त का नाम इतिहास नहीं, इतिहास वही है, जो ऊर्जा का स्रोत है।

ठाकुर शिवरत्न जी पातूर: राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर शिवरत्न जी पातूरः-

विदर्भ में परतवाड़ा कस्बा में पंकज शाह नाम का एक सुशिक्षित युवक दूर-दूर तक के ग्रामों में प्रचार करवाता रहता है। इसी धुन का एक धनी युवक ठाकुर शिवरत्न इस क्षेत्र में ओम् पताका लेकर ग्राम-ग्राम घूमकर प्रचार करता व करवाता था। महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों को उसने जीवन में भी उतारा। वाणी से तो वह प्रचार करता ही था। वह एक प्रतिष्ठित सपन्न परिवार का रत्न था।
उसकी पुत्री विवाह योग्य हुई। उसने महात्मा मुंशीराम जी को अपना आदर्श मानकर जाति बंधन, प्रान्त बंधन तोड़कर अपनी पुत्री का विवाह करने की ठान ली। महात्मा मुंशीराम का ही एक चेला, कश्मीरी आर्य युवक पं. विष्णुदत्त विवाह के लिये तैयार हो गया। विष्णुदत्त सुयोग्य वकील, लेखक व देशभक्त स्वतन्त्रता सैनिक था। महाशय कृष्ण जी का सहपाठी था। ठाकुर जी को यह युवक जँच गया। आपने कन्या का विवाह कर दिया। ऐसा गुण सपन्न चरित्रवान् पति प्रत्येक कन्या को थोड़ा मिल सकता है!
हिन्दू समाज हाथ धोकर ठाकुर जी के पीछे पड़ गया। श्री ठाकुर शिवरत्न का ऐसा प्रचण्ड सामाजिक बहिष्कार किया गया कि उन्हें महाराष्ट्र छोड़कर पंजाब आना पड़ा। कई वर्ष पंजाब में बिताये, फिर महाराष्ट्र लौट गये। पातूर का कस्बा नागपुर के समीप है। संघ की राजधानी नागपुर है। हिन्दू समाज के कैंसर के इस महारोग जातिवाद से टक्कर लेने वाले पहले धर्म योद्धा ठाकुर शिवरत्न का इतिहास क्या संघ ने कभी सुनाया है? इतिहास प्रदूषण अभियान वालों ने ठाकुर शिवरत्न के कष्ट सहन व सामाजिक प्रताड़नाओं का प्रेरक इतिहास हटावट की सूली पर चढ़ा दिया है। मैं जीते जी ठाकुर शिवरत्न के नाम की माला फेरता रहूँगा।
– वेद सदन, अबोहर, पंजाब

जिगर का खून दे देकर ये पौधे हमने पाले हैंःराजेन्द्र जिज्ञासु

जिगर का खून दे देकर ये पौधे हमने पाले हैंः- एक बार माननीय डॉ. धर्मवीर जी ने आज पर्यन्त आर्यों पर चलाये गये अभियोगों का इतिहास क्रमशः प्रकाशित करने की घोषणा की थी। मैंने कई आर्य विद्वानों पर चलाये गये अभियोगों पर कई अंकों में लिखा था। किसी समाज ने, किसी सज्जन ने परोपकारी को कोई जानकारी न ोजी। मैंने भी लिाना बन्द कर दिया। आर्यों पर सर्वाधिक अभियोग मिर्जाइयों ने चलाये। किस-किस की चर्चा करूँ? मैंने दसवीं की परीक्षा दी थी या कॉलेज में प्रवेश पाया ही था कि रबे कादियाँ जी (इन्द्रजीत जी के कुल के एक निडर अद्भुत वक्ता) ने गुरुद्वारा गोबिन्दगढ़ (मन्दिर के साथ) कादियाँ में मिर्जाइयों का उत्तर देने के लिए एक जलसा किया था। रब जी का और मेरा भाषण हुआ। श्री राम शरण प्रेमी आर्य कवि की पुरजोश कवितायें हुईं। मिर्जाइयों ने धर्म निरपेक्षता की आड़ में हम तीनों को जेल भिजवाना चाहा। रब जी ने सूझबूझ से डी.सी. के सामने हम तीनों का पक्ष रखा। हमारा कुछ न बिगाड़ा जा सका। मेरे पिता जी को पता ही न चला कि मेरे ऊपर केस बनने वाला है।
कादियाँ में ऐसी घटनायें प्रायः घटती रही हैं। सन् 1996 में स्वामी सपूर्णानन्द जी ने पं. लेखराम जी के बलिदान पर मेरा खोजपूर्ण ओजस्वी भाषण करवाया। तब पुलिस सक्रिय हो गई। मुझे कम से कम दो वर्ष तक जेल में भिजवाने पर मिर्जाई तुले बैठे थे। स्वामी सपूर्णानन्द जी मेरे साथ जेल जाने को तैयार बैठे थे। हम फिर बच गये।
पं. निरञ्जनदेव जी पर और रब जी पर इसी विषय का कांग्रेस ने तुष्टीकरण व वोट बैंक के लिये लबा केस चलाकर दोनों को बहुत यातनायें दीं। हमने वे भी हँसते-हँसते सहीं। पं. शान्तिप्रकाश जी पर पं. लेखराम जी के बलिदान विषयक इल्हामों की शव परीक्षा पर ऐतिहासिक केस चला था। श्री महाशय कृष्ण सरीखे नेता पण्डित जी की पेशी पर लाहौर से गुरदासपुर आते रहे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी और दीवान बद्रीदास के कुशल नेतृत्व में आर्य समाज एक बार फिर अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। पं. शान्तिप्रकाश भट्टी से कुन्दन बनकर निकले। हाईकोर्ट से पण्डित जी बड़ी शान से केस जीत गये।
हाथों में हथकड़ियाँ, पाँवों में बेड़ियाँ डाली गईं। टाँगों में घावों के कारण लहू बह रहा था, तब जेल से बाहर आने पर झंग (पश्चिमी पंजाब) में रामचन्द्र जी (स्वामी सर्वानन्द जी) ने आपकी पट्टी की। किस-किस केस व अग्नि-परीक्षा का उल्लेख किया जावे? हमने लहू देकर वाटिका को सींचा है। रक्तरंजित इतिहास रचा है।
अब इतिहास प्रदूषणकार एक उठता है, वह मिर्जाइयों की बोली बोलकर लिखता है कि मिर्जाई मत का खण्डन पं. लेखराम का उद्देश्य था, जबकि पं. लेखराम जी ने सदा आत्म रक्षा में ही लिखा। यह कोर्टों व सरकार ने माना। ईद के दिन पण्डित जी की हत्या कतई नहीं हुई। यह मिर्जाई प्रचार सर्वथा मिथ्या है। एक मिर्जाई चैनल भी सुना है कि विदेश से यही प्रचार करता चला आ रहा है। उ.प्र. के कई युवकों ने उनके दुष्प्रचार का परोपकारी में उत्तर देने के लिए उनकी सामग्री भेजी है। उनके स्वर में स्वर मिलाकर ‘आर्य सन्देश’ के 28 मार्च के अंक में ईद के दिन पण्डित जी की हत्या होना लिखा है।
पं. देवप्रकाश जी, पं. शान्तिप्रकाशजी से लेकर राजेन्द्र जिज्ञासु तक हमारे विद्वानों ने इस विषय पर सहस्र्रों पृष्ठ लिखे हैं। आर्य सन्देश ने तो यह अनर्गल लेख देकर हम सबकी हत्या करके रख दी है। हम अपनी व्यथा किसे सुनावें? हम जानते हैं, ये लोग आर्य समाज पर दया नहीं करेंगे। हम फिर भी यही कहेंगे कि कोई इन्हें समझावे। जिगर का खून दे दे कर ये पौधे हमने पाले हैं।
रही उत्तर देने की बात। इस विषय पर मेरा छः सौ पृष्ठों का ग्रन्थ आर्यवीरों ने छपने को दे दिया है। इसमें उद्धृत पुस्तकों, पत्रिकाओं के सैंकड़ों प्रमाण पढ़कर विरोधी भी दंग रह जायेंगे। इस ग्रन्थ के प्रसार में पं. लेखराम जी विषयक सब मिथ्या विषैले लेखों का उत्तर मिल जायेगा। यह अपने विषय से सबन्धित अब तक का सबसे बड़ा और प्रमाणों से परिपूर्ण ग्रन्थ है।

‘‘मेरे लिये सन्ध्योपासना करिये?: राजेन्द्र जिज्ञासु

‘‘मेरे लिये सन्ध्योपासना करिये?

एक विचित्र प्रश्न उ.प्र. से किसी ने किया है-‘‘यदि मैं किसी से अपने लिये सन्ध्योपासना गायत्री जप या यज्ञ कराऊँ तो इसका पुण्य लाभ मुझे क्यों न मिलेगा?’’
ऐसे भाई यह बतायें कि आपके लिये व्यायाम कोई करे तो लाभ किसको मिलेगा? रोगी की बजाय उसका कोई भाई बन्धु औषधि का सेवन करे तो क्या रोगी रोगमुक्त होगा? एक पौराणिक ने हैदराबाद सत्याग्रह में जाने वाले एक आर्य को बड़ी श्रद्धा से कहा, ‘‘भाई! आप जेल में मेरे लिए गायत्री जप करते रहना। मैं चाररुपये सैंकड़ा के दर से तेरे घर पर भुगतान करता रहूँगा। मुझे तू यह सूचना पहुँचा देना कि कितना जप मेरे लिये किया है? यह घटना श्री मेहता जैमिनि जी को स्वयं उस आर्य ने अबाला में सुनाई। श्री ओमप्रकाश वर्मा जी को भी इसका ज्ञान होगा। उस आर्य ने सत्याग्रह में भाग लेकर यश पाया और गायत्री जप से कमाई भी कर ली। उसे पता था कि जप से गायत्री क्रय करने वाले को कोई लाभ नहीं होगा। अब उदूसरों के लिए यज्ञ करने वाले संगठन भी मैदान में आ गए हैं और लुभावनी घोषणाएँ कर रहे हैं। पाप पुण्य, धर्म-कर्म के लेन-देन का व्यापार तो याज्ञिकों पाठियों के लिए बहुत अच्छा है, परन्तु है तो वेद विरुद्ध।’’
वेद का आदेश उपदेश हैः-‘‘स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व।’’
स्वयं कर्म कर और स्वयं फल चख। यही कल्याणी शिक्षा है।

बड़ों की सेवा के प्रेरक प्रसंगः- राजेन्द्र जिज्ञासु

बड़ों की सेवा के प्रेरक प्रसंगः-

एक जन्मजात दुःखिया के दुष्प्रचार के प्रतिवाद के लिए हमने पूज्य विद्वान् महात्माओं की आर्यों द्वारा सेवा के कई दृष्टान्त देकर लिखा था कि आर्य समाज ने महात्मा आनन्द स्वामी जी आदि को अन्तिम वेला में फेंक दिया, ये सब घृणित व मिथ्या प्रचार हैं। ऐसे प्रचारकों ने आप तो जीवन भर कभी किसी की सेवा की नहीं, सस्ते उपदेश देते हैं।

महात्मा आनन्द भिक्षु जी के पुत्र जैमिनि जी ने भक्तों से घिरे अपने पिताजी को अन्तिम दिनों में सेवा का अवसर देने का अनुरोध किया। मेरे सामने महात्मा जी पर दबाव बनाया। सेवा उनकी हो ही रही थी। मैंने ऐसे किसी व्यक्ति को पूज्य मीमांसक जी और आचार्य उदयवीर जी के अन्तिम दिनों में उनके पास फटकते नहीं देखा था। कुछ लोग पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक से श्री धर्मवीर जी, विरजानन्द जी आदि विद्वानों के मतभेद को उछालते रहे। मीमांसक जी ने अपनी अमूल्य बौद्धिक सपदा तो धर्मवीर जी को ही सौंपी। क्यों? मीमांसक जी के निधन पर केवल परोपकारिणी सभा से जुड़े विद्वान् ही रेवली पहुँचे। और सभायें भी पहुँचती तो अच्छा होता। मान्य विरजानन्द जी, श्रीमती ज्योत्स्ना ने पहुँचकर आर्य समाज की शोभा बढ़ाई। आचार्य सत्यानन्द जी वेदवागीश तथा यह सेवक भी वहाँ था। पहलेाी पता करने कई बार गये। पूज्यों को छोड़ने व फेंकने का प्रचार कोरी शरारत है।