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अनवर जमाल को जवाब -१ “आर्यसमाज पर १०८ प्रश्नों का धारदार जवाब”

लेखक- सी.ए.ए CAA (Pt. Chamupati Ki Atma)

अनवर जमाल जी की भूमिका-१ (लेख १)

∆ भूमिका-

मुस्लिम पक्षकारों व प्रचारकों में से के एक लेखक डॉ अनवर जमाल जी ने आर्यसमाज व महर्षि दयानंद पर एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘स्वामी दयानंद ने क्या पाया क्या खोया: आर्यसमाज से १०८ सवाल’। यह पुस्तक पहले संक्षिप्त ब्लॉग व पुस्तक रूप में थी। श्री राजवीर आर्य जी ने उस पुस्तक का जवाब ‘किताबुल्ला वेद या कुरान’ में दिया था। आज तक इस पुस्तक पर जमाल जी की लेखनी चली हो, ऐसा अब तक देखने में नहीं आया। इसी तरह ब्लॉग रूप में तत्कालीन संक्षिप्त पुस्तक के अनुसार इनका खंडन श्री अनुज जी ने किया था। परंतु उसके बाद जमाल साहब ने अपनी पुस्तक का विस्तृत संस्करण लाया। यह ब्लॉग रूप में भी उपलब्ध है। अब तक आर्यसमाज के किसी लेखक ने इस पुस्तक पर लेखनी नहीं उठाई है। दरअसल इनकी पुस्तक में उत्तर देने लायक विशेष कुछ नया न था। वही पौराणिकों और मुसलमान की १५० सालों से चल रहे घिसे-पिटे आक्षेपों का संकलन है। इसलिये आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वानों ने इसकी प्रायः उपेक्षा ही की है। परंतु मुसलमानों को इस पुस्तक पर ऐसा दंभ जाग गया, मानो आर्यसमाजी इनसे पूरी तरह निरुत्तर ही हो गये हैं! अतः हमने इस पुस्तक पर लेखनी उठाने की सोची। लगभग चार माह के लगातार परिश्रम से यह पुस्तक अब पाठकों के समक्ष है।श्री अनुज जी ने कुछ आरंभिक आक्षेपों का जवाब दिया है, उन्हीं के अनुसार हमने विस्तार कर हमने समाधान दिया है।
बाकी कई समाधान हमने अलग से दिये हैं। पुस्तक में स्थान-स्थान पर इस्लाम पर भी आलोचना की गई है ताकि आर्यसमाज पर वार करने वाले मुसलमानों को इस्लाम की असली तस्वीर दिहो।
ऐसी आपत्तियाँ पहले डॉ अली सीना, इब्ने वराक,अली असगर,एम.ए खान,अबुल कासिम,अनवर शेख प्रभृति पूर्व मुस्लिम विद्वानों ने भी उठाई हैं। हम उनके शोध का भी आभार व्यक्त करते हैं। श्री बृजनंदन शर्मा जी के ‘भंडाफोडू’ ब्लॉग की भी सामग्री का प्रयोग किया गया है। ये ऐसी आपत्तियाँ हैं, जिनसे मुसलमान सदा ही दूर भागते हैं। इन सभी लेखकों को हम धन्यवाद देते हैं।

हमने कई जगह अनवर जमाल जी के लेख का पूरा भाग लिया है,तो सहीं केवल उसका सारांश लिखकर उत्तर दिया है,ताकि पाठकों को सुविधा हो।बाकी वे डॉ अनवर जमाल जी के ब्लॉग पर उनकी पुस्तक पीडीएफ व पोस्ट रूप में देख सकते हैं। आलोच्य विषय, जोकि जमाल जी की पुस्तक में हैं, वे रोमन क्रमांकों में हैं और जो क्रमांक देवनागरी में हैं,वे हमने दिये हैं ताकि पुस्तक के विषयों में तारतम्यता हो तथा पाठकों को पढ़ने में सरलता हो।

प्रश्न-१-
सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी-

वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाषः 23958360)
   
उत्तर-
आपने यहां पर ईमानदारी से काम नहीं लिया। महर्षि दयानंद को सच्चे परमात्मा की खोज में कई संप्रदायों व गुरुओं की शरण में जाना पड़ा। इसी तरह एक बार उनको भांग पीने की लत लग गई थी। इस भूल को उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया था। यह एक महापुरुष की निष्पक्षता को ही दर्शाता है। अनवर जी बिना पूरी बात बताये असूया वृत्ति से आक्षेप कर रहे हैं।
आपने यह नहीं बताया कि महर्षि दयानंद ने उसके बाद सदा के लिये नशा करना छोड़ दिया था,देखिये:-
“आगे कोे भांग का सेवन बिलकुल त्याग दिया।”
( पं लेखराम कृत महर्षि जीवनचरित्र पेज नंबर ३८, प्रथम पैराग्राफ अंतिम पंक्ति)

मेरे पास जो महर्षि दयानंद का सम्पूर्ण जीवन चरित्र, पं लक्ष्मण जी कृत रखा है, उसमें यों लिखा है:-

“फिर स्वामी जी ने भांग का प्रयोग सर्वथा त्याग दिया।”

श्री स्वामीजी ने वाणी व लेखनी से सब मादक पदार्थों के सेवन के विरुद्ध प्रबल आंदोलन चलाया ।आप ने सरकार से कहा -“इससे तो यह उचित है कि मध्य अफीम गांजा भांग इनके ऊपर चौगुना कर ( यानी चार गुना टैक्स लगाया जाये) स्थापन किया जाए क्योंकि नशादिकों का कि छूट जाना ही अच्छा है और जो मद्य आदि बिल्कुल ही छूट जाए तो मनुष्य का बड़ा अहोभाग्य ।(सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण समुल्लास 11)

( महर्षि दयानंद सरस्वती:- सम्पूर्ण जीवनचरित्र, भाग-१, पेज ८३, पैराग्राफ २, अंतिम पंक्ति)

यहां साफ है कि महर्षि दयानंद भांग के नशे को गलत मानते थे। इसलिये इसे लत कहा, और कहा कि ये दुर्भाग्य से ऐसा हुआ। फिर संकल्प करके इस लत को छोड़ दिया।
पाठकगण! आर्यसमाज तो स्पष्ट रूप से मानता है कि महर्षि दयानंद को कुछ समय के लिये भांग पीने की लत लगी थी, जो बाद में सदैव के लिये खत्म हो गई। आपने जबरन पाठकों ते सामने यह तथ्य न रखकर उनकी आंखों में धूल झोंकने का काम किया है।

और फिर आप खुद ही लिखते हैं कि सत्य खोजने में कुछ छद्म गुरु भी हमें मिल जाते हैं-

“मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत” शीर्षक से-

“जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।”

अतः बहुत समय तक वे भ्रमित रहे,पर अंततः उनको सत्य का ज्ञान हो ही गया।

प्रश्न-२-
“क्या दयानंद जी ने अधूरे में शिक्षण छोड़ दिया?”

योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने व्याकरण पूरे तीन साल नहीं पढ़ा,बीच में ही छोड़ दिया- ऐसा आपने कोई प्रमाण नहीं दिया। उन्होंने उपदेश मंजरी में अपना स्वकथित जीवनचरित्र सुनाया था,उसमें उन्होंने कहा है-

“….मैं मथुरा में आया। वहाँ मुझे एक धर्मात्मा संन्यासी गुरु
मिले । उनका नाम स्वामी विरजानन्द था, वे पहले अलवर में रहते थे।इस समय उनकी अवस्था ८१ वर्ष की हो चुकी थी। उन्हें अभी तक वेद,शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। ये महात्मा दोनों आँखो से अन्धे थे और इनके पेट में शूल रोग था। ये कौमुदी और शेखर आदि नवीन ग्रन्थों को नहीं अच्छा समझते थे और भागवत आदि पुराणों का भी खण्डन करते थे। सब आर्ष ग्रन्थों के वे बड़े भक्त थे। उनसे भेंट होने पर उन्होंने कहा कि तीन वर्ष में व्याकरण आ जाता है । मैंने उनके पास पढ़ने का पक्का निश्चय कर लिया। …….
विद्या समाप्त होने पर मैं आगरे में दो वर्ष तक रहा, परन्तु पत्रव्यवहार के द्वारा या कभी-कभी स्वयं गुरु की सेवा में उपस्थित होकर अपने सन्देह निवृत्त कर लेता था। आगरे से मैं ग्वालियर को गया, वहाँ कुछ-कुछ वैष्णव मत का खण्डन आरम्भ किया, वहाँ से भी स्वामी जी को पत्रादि भेजा करता था। “
( उपदेश मंजरी, उपदेश १५, पृ.१०९)

यहाँ पर स्वामीजी के लेख से तो इतना समझ में आ रहा है कि,प्रथम तो, उनका शिक्षण पूरा हो चुका था,यानी तीन सालों तक उनका अध्ययन हुआ ही!यदितीन वर्ष न भी मानो, तो महर्षि दयानंद एक प्रतिभावान छात्र थे। वे पहले ही कौमुदी आदि क्रम से व्याकरण पढ़ चुके थे। ऐसे विद्यार्थी को महाभाष्य जल्दी हस्तगत हो ही जाता है। यदि आपको विश्वास नहीं तो आर्यसमाज के गुरुकुलों में पूछ आइये। रोजड़,रेवली और तेलंगाना में ऐसे गुरुकुल बहुत प्रसिद्ध हैं।
कई छात्र कम आयु में आईएएस व आईआईटी जैसी परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेते हैं। ऐसी असाधारण प्रतिभा महर्षि में भी थी।
उपरोक्त प्रमाण से यह भी पता चला कि विद्या पूरी होने के बाद भी वे गुरु के सान्निध्य में ही रहे। तब उनकी विद्या कैसे पूरी न बुई होगी?

दूसरे, वे बराबर पत्राचार व प्रत्यक्ष उपदेश सुन कर शंकासमाधान आदि कर भी लेते थे, अर्थात् उनका अध्ययन तब सतत् चल रहा था।असल में व्यक्ति जीवनभर कुछ न कुछ सीखते ही रहता है। फिर भी, व्याकरण का अध्ययन उन्होंने पूरा कर ही लिया था। व्याकरण के विषय में उनकी टक्कर का कोई विद्वान उनके गुरु के सिवा उस काल में न था।

∆ मुहम्मद साहब की विद्या-

इस्लाम वालों के अनुसार मुहम्मद साहब एक अनपढ़ व्यक्ति थे—

क्यों जी! महर्षि दयानंद तो आपके रसूल से अधिक ही जानते थे,जो वो कई सालों तक व्याकरण,वेद,योग आदि विद्या पढ़ते रहे और जीवनभर स्वाध्यायशील रहे। कम-से-कम आपके उम्मी रसूल से तो बेहतर ही थे।
( वो बात अलग है कि बाद में मुहम्मद साहब कुछ लिख पढ़ लिये थे,ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं।)

प्रश्न-३-
विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?

मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
    विदा होते समय विरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?

उत्तर-

महोदय! महर्षि दयानंद जी पहले शैव,वाममार्ग,योग,अद्वैत आदि कई मत-सम्प्रदायों में रहे और उन्होंने उनको पढ़ा भी। धीरे-धीरे शुद्ध वेदोक्त धर्म की ओर अग्रसर हुये। ऐसे में बचपन में शैव मत के संस्कारों का उनपर कुछ-कुछ प्रभाव रहा होगा। परंतु हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं, विरजानंद जी से उनका संवाद बाद में भी होता था और वे शंकासमाधान भी किया करते थे। इसी प्रकार उन्होंने अपने विचारों में परिष्कार किया और बाद में शैवमत का भी खंडन किया-

“शैवमत के फैलने पर हजारों रुद्राक्ष की मालायें मैंने अपने हाथों से लोगों को पहनाई। वहाँ शैवमत का इतना प्रचार हुआ कि हाथी घोड़ों के गले में भी रुद्राक्ष की माला पहनाई गई।
जयपुर से मैं पुष्कर को गया, वहाँ से अजमेर आया। अजमेर
पहुँचकर शैवमत का भी खण्डन करना आरम्भ किया। इसी बीच में जयपुर के महाराजा साहब लाट साहब से मिलने के लिए आगरे जाने वाले थे। इस आशंका से कि कहीं वृन्दावन निवासी प्रसिद्ध रंगाचार्य से शास्त्रार्थ न हो जावे, राजा रामसिंह ने मुझे बुलाया और मैं भी जयपुर पहुँच गया, परन्तु यह मालूम होने पर कि मैंने शैवमत का खण्डन आरम्भ
कर दिया है, राजा साहब अप्रसन्न हुए। इसलिए मैं भी जयपुर छोड़कर मथुरा में स्वामीजी के पास गया और शंका-समाधान किया। वहाँ से फिर हरद्वार को गया, वहाँ अपने मठ पर पाखण्ड-मर्दन लिखकर झण्डा खड़ा किया। वहाँ वाद-विवाद बहुत-सा हुआ। फिर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सारे जगत् से विरुद्ध होकर भी गृहस्थों से बढ़कर
पुस्तक आदि का जंजाल रखना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने सब कुछ छोडकर केवल एक कौपीन (लंगोट) लगा लिया और मौन धारण किया। इस समय जो शरीर में राख लगाना शुरू किया था, वह गत वर्ष बम्बई मे आकर छोड़ा। वहाँ तक लगाता रहा था।”
( उपदेश मंजरी, प्रवचन १५, स्वामीजी की आत्मकथा, पृ.११०)

यह पढ़कर स्पष्ट होता है कि स्वामीजी ने वैष्णवमत की तरह शैवमत का भी खंडन किया। हाँ, उनको कुछ शंका होने के कारण उनको यह शैवमत सही लगा होगा,पर बाद में उन्होंने इसका भी मिथ्यात्व जाना व इसका भी खंडन किया। यदि ऐसा भी मान लें तो महर्षि दयानंद की परिष्कार वृत्ति ती सराहना होनी चाहिये।
यह भी सिद्ध होता है कि वे बीच-बीच में अपने गुरु से शंका समाधान आदि करते रहते थे। इसी से उनकी विचारधारा में परिष्कार आया।

महर्षि दयानंद के जीवनी-ग्रंथ के लेखक पं लक्ष्मण जी के अनुसार, ऋषि ने शैवमत स्थापन वैष्णव मत के पाखंड के खंडन में किया था। यह एक तरह की कूटनीति थी-

“१६. कूटनीति (पालिसी) धर्म विरुद्ध है
थियासोफिकल सोसाइटी वालों को जब स्वामी जी ने नई
पोलिसी पर कार्य करते हुए समझा तो उनसे सम्बंध विच्छेद की घोषणा करने लगे परन्तु सामाजिक सदस्य चाहते थे कि आप नीति से कार्य लेवें। स्वामी जी ने कहा, “मैं अब तुम्हारी बात नहीं मानूँगा। पालिसी से कार्य करना धर्म विरुद्ध है।पहले जयपुर में महाशयों की प्रेरणा पर हमने वैष्णव के सामने शैवमत को अच्छा सिद्ध किया तो वहाँ सब मनुष्यों तथा राजगृह के हाथी घोड़ों तक को रुद्राक्ष पहनाय गए। अब तक पुराना कोई कोई व्यक्ति जब मिलता है तो रुद्राक्ष दिखाकर चिढ़ाता है कि यह वहीं है जिसके गुण आपने गाये थे। अत: धर्म विषय में अब तो हम कदापि पालिसी का हस्तक्षेप न होने देंगे। और शुद्ध सत्य ही कहेंगे।”
( महर्षि दयानंद के प्रेरक प्रसंग, लेखक- पं लक्ष्मण जी आर्योपदेशक,प्रथम खंड,पाँचवाँ सर्ग, पृ.७७)

अतः इसके बाद स्वामीजी ने कूटनीति के अनुसार चलना छोड़ दिया। मेला चांदापुर में भी कुछ लोग उनके साथ मुसलमानों के साथ मिलकर ईसाइयों के खंडन करने का प्रस्ताव रखा था।पर स्वामीजी ने केवल सत्य बोलना ही उचित समझा और यहां पर कूटनीति नहीं अपनाई। यह विवरण उक्त पृष्ठ ७७ की पादटिप्पणी में है।

रही बात आपके आर्ष ग्रंथों के प्रचार की,तो स्वामीजी शैवमत में रुद्राक्ष धारण व भस्मधारण आदि को कदाचित् कालाग्निरुद्रोपनिषद व यजुर्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार सही मान रहे थे। यानी उनको लगता था कि शैवमत की यह परंपरा आर्ष ही है। परंतु बादमें उनको सत्य का ज्ञान हुआ, और उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा-

(प्रश्न) कालाग्निरुद्रोपनिषद् में भस्म लगाने का विधान लिखा है। वह क्या झूठा है? और ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ यजुर्वेदवचन। इत्यादि वेदमन्त्रें से भी भस्म धारण का विधान और पुराणों में रुद्र की आंखों के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है। इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है। एक भी रुद्राक्ष धारण करे तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय। यमराज और नरक का डर न रहै।

(उत्तर) कालाग्निरुद्रोपनिषद् किसी रखोड़िया मनुष्य अर्थात् राख धारण करने वाले ने बनाई है। क्योंकि ‘याऽस्य प्रथमा रेखा सा भूर्लोक ’ इत्यादि वचन उस में अनर्थक हैं। जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है वह भूलोक वा इस का वाचक कैसे हो सकते हैं। और जो ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ इत्यादि मन्त्र हैं वे भस्म वा त्रिपुण्ड्र धारण के वाची नहीं किन्तु ‘चक्षुर्वै जमदग्नि ’ शतपथ। हे परमेश्वर! मेरे नेत्र की ज्योति (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष पर्यन्त रहै और मैं भी ऐसे धर्म के काम करूँ जिससे दृष्टिनाश न हो। भला यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है कि आंख के अश्रुपात से भी वृक्ष उत्पन्न हो सकता है? क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है? जैसा जिस वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है उसी से वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं। इससे जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है वह सब जंगली पशुवत् मनुष्य का काम है। ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी, विरोधी और कर्त्तव्य कर्म के त्यागी होते हैं। उन में जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है वह इन बातों का विश्वास न करके अच्छे कर्म करता है। जो रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे!! जब रुद्राक्ष भस्म धारण करने वालों से कुत्ता, सिह, सर्प्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश के गण क्यों डरेंगे?

( सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास, शैवमतखंडन विषय)

यहाँ पर भी स्वामीजी का परिष्कार सिद्ध है।
ऐसा कभी नहीं होता कि आप गुरु के पास कुछेक साल रहें, और आपके आचरण और ज्ञान में तुरंत परिष्कार आ जाये। यह सैद्धांतिक परिपक्वता धीरे-धीरे, साधना,स्वाध्याय व सत्संग से आती है। एक रात में ऐसा ब्रह्मज्ञान नहीं मिल जाता।

अनवर साहब! आपको महर्षि के सत्याग्रही चरित्र की प्रशंसा करनी चाहिये,कि सत्य जानकर वे तुरंत झूठ को त्याग देते थे।परंतु आप तो आलोचना करने बैठ गये!

∆ मुहम्मद साहब का हलाल-हराम विषयक भ्रांति ∆

रसूलुल्लाह को हराम और हलाल विषयक भ्रांति थी। खैबर के युद्ध में वे कभी गधा खाने से मना करते थे,कभी घोड़ा खाने से।कभी दोनों को ही एक साथ खाते थे।

गधा मार कर खाया-
“अब्दुल्लाह  बिन अबू   कतदा ने  कहा  कि खैबर    के  समय  हम  लोग  इहराम   की  हालत  में ,  और  दुश्मन  छुपे  हुए थे   तभी हमारी   नजर एक   गधे  पर  पड़ी  हमने उसे  भाले  से   मार   दिया  और काट कर  उसका गोश्त  पका  कर रसूल  के साथ  मिल  कर   खा  लिया “
” we saw a  ass. and  attacked It with a spear and we ate its meat.”
सही मुस्लिम – किताब 7 हदीस 2710

गधा नही घोड़ा  खाओ-
“जबीर  बिन  अब्दुल्लाह  ने  कहा  कि  खैबर  की लड़ाई   के समय रसूल  ने कहाथा कि गधे   का  गोश्त खाना  गैर कानूनी   है इसलिए  तुम घोड़े का  गोश्त  खाया  करो। “
“Allah’s Messenger  made donkey’s meat unlawful and allowed the eating of horse flesh “

सही बुखारी – जिल्द 7 किताब 67 हदीस 429

गधे  के साथ  घोड़ा  भी   खाया-
“अबू  जुबैर   और  जबीर  बिन अब्दुल्लाह  ने   बताया  कि  खैबर  में  हमने  गधे  के साथ घोड़े  का गोश्त भी  खाया था। 
“At the time of Khaibar we ate horses and  donkeys.”

 सुन्नन  इब्ने  माजा (अरबी संदर्भ)- किताब 27   हदीस 3312(दारुस्सलाम के अनुसार सही हदीस)
English reference : Vol. 4, Book 27, Hadith 3191
Arabic reference : Book 27, Hadith 3312

प्रतीत होता है कि रसूल साहब खुद पता नहीं लगा पाये कि हलाल और हराम असल में है क्या? ये वही मुहम्मद साहब हैं, जिनके जीवन की सेक्स-लाइफ़ तक पर अल्लाह आयतें उतारता था परंतु उनको हलाल-हराम का भी ठीक-ठीक ज्ञान न दे सका! इससे पता चला कि हजरत विषमस्थबुद्धि थे। आप अपने ‘कयामत तक सर्टिफाइड रसूल’ के चरित्र की मीमांसा कर लीजिये,फिर महर्षि पर कुछ लिखिये। महर्षि जी कोई सृृष्टि बनने से पहले ही सर्टिफाइड एकमात्र गुरु नहीं थे जिनके ‘अगले और पिछले पाप माफ हो गये थे’।

देखिये-
अबू हुरैरा कहते हैं सहाबा ने कहा अल्लाह के रसूल आप नबूवत के मनसब ( नबी के पद में ) से कब नवाज़े गए ( या कब से आसीन हैं ) ? रसूल ने फरमाया जब आदम शरीर और आत्मा के बीच में थे।

यहां पर अबू हुरैरा ने कहा कि आदम के जन्म से पहले मुहम्मद साहब को नबूवत मिल गई थी। मगर किस कर्म के अनुसार उनको यह फल मिला? बिना कर्म के किसी को भी नबी बना दो, कैसा न्याय है?
( मिश्काल अल मसाबीह, हदीस ५७५८)

जबकि इसके विपरीत महर्षि दयानंद एक आम इंसान थे, जिन्होंने मूलशंकर से लेकर महर्षि दयानंद तक का सफर तय किया और निरंतर परिष्कार करते रहे।

प्रश्न-४-

स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में

(आगे सत्यार्थप्रकाश से शैवमतखंडन विषय का उद्धरण देकर कहा है-)

स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। विजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा विरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।

उत्तर-
डॉक्टर साहब! क्या आपको लगता है कि ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान इतनी आसानी से व्यक्ति के आचरण में आ जाता है? जी नहीं। यह एक जटिल प्रक्रिया है। केवल उपनिषद आदि पढ़कर तो यह सिद्धांत पता लग जाता है, पर आत्मसाक्षात्कार योगी स्वयं ही योगसाधना व यथार्थ ज्ञान के द्वारा करता है। इस ज्ञान को निरंतर श्रवण,मनन और निदिध्यासन से साधा जाता है।तब कहीं जाकर यह ज्ञान व्यक्ति के आचरण में आता है। उपनिषद कहते हैं कि विरला ही व्यक्ति उस परमात्मा तक पहुंचने के मार्ग पर चल पाता है और विरला आदमी ही उसका साक्षात्कार कर पाता है।
महर्षि दयानंद ने यह ज्ञान पाया,परंतु एक रात में नहीं। सतत् स्वाध्याय,शंकासमाधान,साधना आदि से इसे प्राप्त किया। इस बीच कुछ गलतियां उनसे हुईं , उन्होंने उनको सुधारा और आगे बढ़े।
हाँ, आपके हजरत मुहम्मद भले ही सृृष्टि बनने के पहले से सर्टिफाइड नबी थे, उसके बाद भी ४० साल की अवस्था तक उन पर नबूवत नाजिल न हुई। इसका क्या कारण हा?

∆ मुहम्मद साहब के अगले और पिछले गुनाह ∆

‘ताकि अल्लाह तुम्हारे अगले और पिछले गुनाहों को क्षमा कर दे और तुमपर अपनी अनुकम्पा पूर्ण कर दे और तुम्हें सीधे मार्ग पर चलाए।’
( कुरान सूरा फतह ४८/२)

Indeed, We have given you, [O Muhammad], a clear conquest.That Allah may forgive for you what preceded of your sin and what will follow and complete His favor upon you and guide you to a straight path.
( Sahih International Quran translation 48:1,2)

आयशा ने कहा कि -“रसूलुल्लाह (स.) जब भी मुसलमानों को कुछ करने का आदेश देते थे,तब वे उनको ऐसे कर्म करने का आदेश देते थे जो उनके लिये आसान थे (उनके शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार) । वे बोले-‘ऐ रसूलुल्लाह! हम आपकी तरह नहीं हैं। अल्लाह ने आपके अगले और पिछले पाप क्षमा कर दिये हैं।’ तो रसूल क्रुद्ध हो गये और यह उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था। उन्होंने कहा-‘मैं अल्लाह से सबसे अधिक डर रखने वाला हूं और तुमसे बेहतर अल्लाह को जानता हूं।”
[( सही बुखारी, जिल्द १ किताब २ हदीस १९)
Reference : Sahih al-Bukhari 20In-book reference : Book 2, Hadith 13USC-MSA web (English) reference : Vol. 1, Book 2, Hadith 20  (deprecated numbering scheme)]

महर्षि दयानंद ऐसा दावा कभी नहीं करते थे कि उनको ईश्वर ने मुहर लगाकर ऋषि-मुनि के रूप में भेजा है। उन्होंने अपनी विद्या और तपःसाधना से ऋषित्व प्राप्त किया। कठोर परिश्रम के बाद ही उनको सच्चे शिव व ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान मिला। महोदय! छांदोग्योपनिषद में श्वेतकेतु भी गुरुकुल से ब्रह्मविद्या सीखकर भी ब्रह्मज्ञानी न बने। उनको अपने पिता से उपदेश लेना पड़ा। महाभारत, मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव जी भी व्यास मुनि से पहले विद्या पढ़ते हैं। जब उनकी संतुष्टि नहीं हुई, तब उनको राजा जनक के पास उपदेश हेतु भेजा गया। इससे पता चला कि मात्र गुरुमख से सुनकर ब्रह्मज्ञान नहीं होता। तदनुकूल आचरण व कठोर परिश्रम भी जरूरी होता है।

∆ इस्लाम की सस्ती मुक्ति-

हाँ, इस्लामी जन्नत बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती है।कोई व्यक्ति चाहे कितना ही पापी हो, रसूलुल्लाह पर ईमान लाकर मुक्ति मिल जाती है। ध्यान से पढ़िये-

अबू ज़र ने कहा कि रसूलुल्लाह ने कहा- मेरे अल्लाह की ओर से कोई आया और उसने मुझे यह खुशखबरी दी कि,” मेरे अनुयायियों में से यदि कोई अल्लाह को छोड़कर किसी की उपासना नहीं करता,वो हर तरह से जन्नत जायेगा।” मैंने पूछा, “तब भी जन्नत जायेगा यदि उसने नियमविरुद्ध संभोग ( व्यभिचार) और चोरी की हो ?” उन्होंने जवाब दिया,” हाँ,तो भी जन्नत जायेगा यदि व्यभिचार और चोरी की हो।”
( सही बुखारी, जिल्द २ किताब २३ हदीस ३२९)

Narrated Abu Dhar:

Allah’s Messenger (ﷺ) said, “Someone came to me from my Lord and gave me the news (or good tidings) that if any of my followers dies worshipping none (in any way) along with Allah, he will enter Paradise.” I asked, “Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft?” He replied, ” Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft.”

Sahih al-Bukhari 1237 /In-book : Book 23, Hadith 1 /USC-MSA web (English) : Vol. 2, Book 23, Hadith 329  (deprecated)

इसका अर्थ यह है कि मात्र अल्लाह पर ईमान लाकर जन्नत मिल सकती है। चाहे कोई मोमिन व्यभिचारी और चोर ही क्यों न हो! वाह! इससे सस्ता सौदा क्या होगा!! जमाल साहब! वैदिक धर्म के अनुसार मुक्ति के लिये बहुत परिश्रम करना होता है,कई नियम पालन करने होते हैं; यह नहीं कि रसूल और अल्लाह पर ईमान ले आओ और मुक्ति हो जाये।
ऊपर वाली हदीस के अनुसार ही आतंकवादी चोर,बलात्कारी होकर भी जन्नत जायेंगे। ओसामा बिन लादेन,याकूब मेमन और बगदादी जैसे नरपिशाच भी जन्नती होंगे, क्योंकि वो कुरानी अल्लाह पर ईमान रखते थे।

अनवर जमाल की भूमिका-१ (लेख २)

प्रश्न-५-स्वामी जी ने जिस उद्देश्य के लिए घर छोड़ा उसे पूरा न कर पाए । न उन्हें शिव मिला और न ही मृत्यु से बच पाए ।

जवाब :-
स्वामी जी के घर छोड़ने के दो कारण थे-एक तो सच्चे शिव की खोज ,दूसरा था कि मृत्यु से कैसे तरा जाए ।दयानंद जी ने अपने दोनों लक्ष्य को प्राप्त किया और उसके बाद ही समाज सुधार और पाखंड खंडन में लगे ।
उनका पहला लक्ष्य सच्चे शिव की खोज करना था । वह शिव कैसा है ,क्या-क्या उसके गुण हैं? गुरु विरजानंद जी से वेदादि शास्त्रों की विद्या प्राप्त करके उन्हें सच्चे शिव का बोध हुआ,जिसका वर्णन वेदों में है कि वह शिव तो निराकार,निर्विकार,अजन्मा,अजर,अमर,सर्वव्यापक,न्यायकारी और चेतन सत्ता है।वह ईंट पत्थर की मूर्तियों की पूजा करने से नहीं मिलता,बल्कि योग समाधि से प्राप्त होता है ।स्वामी दयानंद जी ने उस सच्चे शिव को जानकर योग समाधि द्वारा उस सच्चे शिव की उपासना की ।
उनका घर छोड़ने का दूसरा कारण मृत्यु आदि दुखों से बचना था । मृत्यु का दुःख मनुष्य को तब होता है जब वो शरीर को ही सब कुछ मान बैठता है और आत्मा के स्वरूप को नहीं जान पाता । मूलशंकर जी भी उस अबोध आयु में समय शरीर को ही सब कुछ समझते थे इसलिए उन्होंने मृत्यु से बचने का उपाय ढूँढने के लिए घर छोड़ा ,लेकिन जब उन्हें आत्मा के सत्य स्वरूप बोध हुआ ;तब उन्होंने जाना की ये शरीर मैं नहीं हूँ ,मैं तो इस शरीर के अंदर वास करने वाली आत्मा हूँ –जो अजर- अमर है ,मुझे कोई मार नहीं सकता ,मुझे कोई जला नहीं सकता । तब उनको समझो मृत्यु के दुःख से छुटकारा मिल गया । इसीलिये ऐसी मौत के बावजूद भी उनके चेहरे पर दुःख नहीं था कोई पीड़ा नहीं थी और उन्होंने मुस्कुराते हुए प्राण त्याग दिए । अर्थात् जिन दो कारणों से उन्होंने घर छोड़ा उन दोनों को उन्होंने प्राप्त किया । इसलिए डॉ.अनवर साहब का ये दावा बिलकुल मिथ्या है की स्वामी जी ने जिस चीज के लिए घर छोड़ा उसे पा न सके । भला जो व्यक्ति अपने लक्ष्य के लिए अपना सब कुछ त्याग देता है वो बिना लक्ष्य प्राप्त किये आराम से बैठ सकता था ? जिसने हजारों मील की पैदल यात्रायें सत्य की खोज के लिए की हो,वो बिना लक्ष्य प्राप्ति के चैन से बैठ सकता था ?

महर्षि दयानंद ने गृहत्याग करके ईश्वरप्राप्ति का मार्ग चुना।यह मार्ग बहुत जटिल है।यदि वे गृहत्याग व वैराग्य धारण न करते,तो मुक्ति पा न सकते। इस पर उपनिषद भी कहता है-

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात् ।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।।
( मुंडकोपनिषद , मुंडक ३ खंड २)

अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।

अतः ब्रह्म को पाने हेतु उन्हें संन्यास लेना जरूरी था। एक मुमुक्षु को जब वैराग्य हो जाता है, तब मां-बाप,घर-परिवार आदि का मोह उसे छोड़ना पड़ता है।यही काम महर्षि दयानंद ने किया।

∆ मुहम्मद साहब क्या दुःखों से बच पाये?∆

अब एक नजर हजरत पैगम्बर मुहम्मद जी के जीवन पर भी डाल लेते है।
हजरत तो स्वयं को अल्लाह का एजेंट होने का दावा करते थे। यहाँ तक की जन्नत की रिजर्वेशन का जिम्मा भी हजरत के हाथों में था वे भी दुखों से न बच पाए । अपने पुत्र की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोना हजरत के दुखों को साफ़ दर्शाता है।आप तो ऊपर उनके संबंधियों की मृत्यु होने के विषय में लिख ही चुके हैं,दयानंद जी तो बालक होने के बावजूद भी अपने परिवार वालों की मौत पर नहीं रोये । हजरत मुहम्मद साहब ये जानते हुए भी की उनका बेटा जन्नत मे मौज करेगा ,तब भी फूट-फूट कर रोये । इसका क्या कारण हो सकता था ? यही कि हजरत को अंदाजा था ,कि जन्नत एक कोरी कल्पना है । वरना मुहम्मद साहब अल बुराक अर्थात् उड़ने वाले गधे ( या शायद खच्चर!) पर बैठ के जन्नत में अपने बेटे से मिल के आ सकते थे,फिर वो आँसू किस लिए बहाते थे?

यहाँ तक हजरत स्वंय की मृत्यु के समय रो रहे थे ,दर्द से । उन्हें शायद इस बात का दुःख रहा होगा की हजरत आयशा को भरी जवानी में तन्हा छोड़ के जा रहे है थे!यदि हजरत ने भी शरीर को सब कुछ न समझ कर आत्मा के अमरत्व को जाना होता, तो ऐसे पुत्र और मृत्यु दुःख के कारण आँसू न बहाते । इससे पता चला कि मुहम्मद साहब खुद ही न अमरत्व (मोक्ष) पा सके और न ही मृत्यु आदि दुखों से बच पाये।तब भला उन पर ईमान लाना और नमाजों में उनके नाम से प्रार्थना करना– यह मुसलमानों को आखिर क्या देगा?

प्रश्न-६-
स्वामी दयानंद जी का मकसद और तरीका दोनों गलत थे ।

जवाब :-
अनवर साहब पेशे से डॉक्टर हैं,इसलिए हमें उनसे ऐसे आक्षेप की उम्मीद बिलकुल न थी । अनवर साहब!जब मूलशंकर ने गृह त्याग किया उस समय उनकी आयु बहुत कम थी।वो इस गूढ़ रहस्य को नहीं जानते थे।वे उस समय अबोध थे।जिसके समक्ष दो परिचितों को मृत्यु हो चुकी थी । एक अनजान व्यक्ति के समक्ष ये प्रश्न खड़ा होना लाजिमी है कि वो मृत्यु से कैसे बच पाए ? जिसने घर त्यागा था ,वो मूलशंकर थे, न की महाविद्वान दयानंद जी । एक जिज्ञासु वही करता है जो उस समय मूलशंकर ने किया । अर्थात् सत्य की खोज के लिए गृह त्याग । ऐसा केवल मूलशंकर के साथ नहीं हुआ बल्कि इतिहास के बहुत से महापुरुषों के साथ ये घटना घटित हुई जैसे सिद्धार्थ , शंकराचार्य जी इत्यादि ।
यदि आपने वैदिक मान्यताओं और सिद्धांतों को पढ़ा होता तो आपको पता चलता की मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही जन्म- मरण के बंधन से छूटना अर्थात् मोक्ष है।वही मकसद स्वामी जी का था । लेकिन न मालूम आपको क्या सूझी की बिना वैदिक मान्यताओं को जाने लेखनी चला दी और अतिरिक्त समय की बर्बादी के कुछ न किया ।
आप स्वंय लिखते है की ” जिन्दगी का मकसद और उसे पाने का तरीका सच्चा गुरु ही बता सकता है ” तो क्या मूलशंकर ने सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? क्या मूलशंकर ने 10 सालों से ज्यादा तक सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? और अंत में उनकी वो खोज भी पूरी हुई स्वामी विरजानंद जी के आश्रम पहुँच कर । उस सच्चे गुरु ने ही दयानंद जी को वेदों के यथार्थ शिव का बोध कराया उसे वेदों की सत्य विद्याओं से अवगत कराया। जिन्हें मूलशंकर ने केवल बचपन में पढ़ा था,लेकिन समझा नहीं था, उन विद्याओं को उन्होंने जिया!
इससे स्पष्ट है की स्वामी जी का उद्देश्य भी सही था और तरीका भी क्योंकि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है । वैराग्य से बड़ा कोई तप नहीं होता । मूलशंकर ने सब सुख सम्पन्न होते हुये भी वैराग्य का रास्ता अपनाया इससे बढ़कर उनकी श्रेष्ठता ,क्या हो सकती थी?

महर्षि दयानंद ने जो मुक्ति का मार्ग अपनाया,वो बिलकुल सत्य व वेदशास्त्र सिद्ध था-

“अब मुक्ति बन्ध का वर्णन करते हैं-

(प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं?
(उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है।
(प्रश्न) किस से छूट जाना?
(उत्तर) जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटने की इच्छा करते हैं?
(उत्तर) जिस से छूटना चाहते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटना चाहते हैं।
(उत्तर) दुःख से।
(प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?
(उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।
(प्रश्न) मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?

(उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने; पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने; विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने; सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से बन्ध होता है।”

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ्सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
-यजुः० अ० ४०। मं० १४।।

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।

( सत्यार्थप्रकाश, नवम समुल्लास, मुक्ति विषय)

इससे पता चला कि स्वामी को लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का तरीका यथावत् पता था और उसके अनुसार आचरण(जो हम ऊपर लिख चुके हैं) करके सफल भी हुये।

मृत्यु के समय में उन्होंने योगविद्या से ब्रह्मरंध्र से प्राण छोड़ दिये। उपनिषद इसे मुक्ति पाने का लक्षण कहता है।

प्रश्न- ७-
क्या स्वामी जी ने सीधे संन्यास लेकर मुक्ति की सीढ़ियों को तोड़ा?

¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्‍यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य  इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो विरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्‍य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य:  20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)

अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात् अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।

उत्तर-
आपने केवल एक पक्ष को उठा लिया और महर्षि दयानंद पर ‘सीढ़ियाँ तोड़ने’ का कल्पित आरोप लगा दिया। आपने सत्यार्थप्रकाश आदि महर्षि कृत ग्रंथों को भी ढंग से न पढ़ा।यदि पढ़ा भी है तो हठ व दुराग्रह से बस हृदय की अग्नि शाँत करने के लिये आक्षेप किये हैं।

देखिये, महर्षि ने क्या लिखा है-

“….यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है जो विवाह करना ही न चाहैं वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले हीे रहैं परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रखना।”
( सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास, ब्रह्मचर्य प्रकरण)

संन्यास विषय पर भी ऋषि का लेख देखिये-

“यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्।।
-ये ब्राह्मण ग्रन्थ के वचन हैं।
जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो उसी दिन घर वा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे। पहले संन्यास का पक्षक्रम कहा। और इस में विकल्प अर्थात् वानप्रस्थान न करे, गृहस्थाश्रम ही से संन्यास ग्रहण करे और तृतीय पक्ष है कि जो पूर्ण विद्वान् जितेन्द्रिय विषय भोग की कामना से रहित परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष  हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे । “
( सत्यार्थप्रकाश,पंचम समुल्लास, संन्यास प्रकरण)

इससे स्पष्ट होता है कि जितेंद्रिय और वैराग्यवान व्यक्ति बिना विवाह के सीधे संन्यासी बन सकता है। इसलिये पंचमहायज्ञ व पंचदेव पूजा आदि विधान उनके लिये सीढ़ी नहीं थे। इनका पालन आम लोगों को करना होता है, संन्यासी को इनकी बाध्यता नहीं होती।
इसी के अनुसार महर्षि को माता-पिता की सेवा की बाध्यता न थी। न ही उनको विवाह करने की जरूरत थी। रही बात अतिथि सेवन की,तो संन्यासी खुद ही अतिथि होता है और राजा,गृहस्थी आदि को ऐसे वैरागी ,सदुपदेशक, धर्मप्रचारक संन्यासी का पालन खुद करना पड़ता है, नाकि संन्यासी को किसी अतिथि का सेवन करना पड़ता है। रही बात आचार्य की,तो विरजानन्द जी त्रुटि होने, पाठ भूल जाने आदि के कारण अनुशासित करने हेतु दंड तो देंगे ही। ऐसा तो हर विद्यालय में होता है कि गुरु शिष्य को अनुशासित करने हेतु डाँट-मार का प्रयोग करता है।इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं है। विद्यार्थी जीवन में हमने भी दंड पाया है,आपने भी पाया होगा।फिर दयानंद जी पर आपत्ति क्यों?
विरजानन्द जी महर्षि दयानंद को राष्ट्र में फैले पाखंड का खंडन व वैदिक ग्रंथों के मंडन करने का महान् दायित्व सौंपते हैं। उन्होंने स्वामीजी से गुरुदक्षिणा में भी जीवनभर आर्षविद्या के प्रचार करने का वचन मांगा। यदि विरजानन्द जी उन पर इतना ढृढ़ विश्वास न होता,तो फिर उन पर इतना भरोसा ही नहीं करते कि यह व्यक्ति धर्म प्रचार करेगा। इसलिये वे स्वामी जी को तन,मन,विद्या – हर तरह से परिपक्व करने में लगे रहते थे। अतः स्वामी जी ने बखूबी आचार्य की सेवा की और इसलिये वे उनके इतने विश्वासपात्र बने। यह मार-पीटकर दंड देना आदि तो बहुत छोटी बातें हैं।

महर्षि ने तो अपनी व आर्ष ग्रंथों की परिपाटी अपनाई, अपना सीढ़ी नहीं तोड़ी– बल्कि उस पर चढ़कर अपने परमलक्ष्य को प्राप्त किया। परंतु आपने बिना पूरी तरह महर्षि दयानंद के ग्रंथ व आर्ष साहित्य को पढ़े उनको ‘नादान’ व ‘अज्ञानी’ लिख मारा,इसे आपकी नादानी क्यों न माना जाये?

∆ मुहम्मद साहब की मातृभक्ति ∆

मुहम्मद साहब ने अपनी माता की मृत्यु के बाद भी उनके लिये प्रार्थना नहीं की। उनको कभी अपनी माँ की सेवा करने का मौका तो न मिला,मगर प्रतीत होता है कि बचपन में वो उन्हें पर्याप्त माँ का प्रेम न दे सकीं थीं इसलिये मुहम्मद साहब का उनके प्रति ऐसा रवैया था। ऐसा लगता है कि मृत्यु के बाद भी अपनी माँ को वे क्षमा नहीं कर पाये थे न अपनी जननी के प्रति उनमें कुछ कृतज्ञता थी। अतः न तो उन्होंने अपनी माँ से कोई विशेष प्रेम किया , न कभी सेवा की और न ही उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। शायद इसलिये क्यों कि वो बिना मुसलमान रहे मरी थीं। जबकि स्वामीजी ने कभी वेदविरुद्ध या पौराणिक विचारों वाला होने के कारण अपने माता-पिता को कहीं नहीं कोसा।
सच पूछो तो मुहम्मद साहब को यह पता ही नहीं था कि उनका असली पिता कौन है! पाठकों को आश्चर्य हो रहा होगा, परंतु इस पर हम किसी और लेख/पुस्तक में विस्तार से लिखेंगे। फिलहाल तो सही बुखारी में देखिये,कि मुहम्मद साहब अपनी माँ के प्रति कितने भक्त थे—

मुहम्मद साहब अपने सहाबों से कहते हैं,कि मैंने अपनी माँ के लिये दुआ करनी चाहिये,परंतु अल्लाह ने मेरी दुआ कबूल नहीं की।
(Tabaqat Ibn Sa’d p. 21 )

हाँ, वो अलग बात है कि उनकी माँ काफिरा थीं, उसके बाद भी उन्होंने कुरान के विरुद्ध जाकर उनके लिये दुआ पढ़ने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि बचपन में पर्याप्त प्रेम न मिलने के कारण मुहम्मद साहब ने जीवनभर अपनी माँ को माफ नहीं किया था। अपने पूरे बचपन में उनको एक माँ का प्यार पूपी तरह नसीब न हो सका। रही बात पिता की, तो उनके तथाकथित पिता अब्दुल्ला उनके जन्म के चार साल पहले मर चुके थे। वे तो कुल मिलाकर दोनों की सेवा न कर सके। शायद इसलिये उनका कोई वंशधर न हुआ!

प्रश्न-८-

प्रकरण-१
¤ स्वामी जी की असफलता का कारण  –

माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने जिस उपदेशक को झूठा और कपटी कहा है, वो व्यक्ति घर से भागकर ,समाज को धर्म के नाम पर लूटने का कार्य करता था । जबकि महर्षि दयानंद बिना भेदभाव के सत्य धर्म व देशभक्ति का प्रचार करते थे। स्वामी जी ने कन्या शिक्षा,विधवाविवाह,दलितोद्धार आदि कार्य किये।उनका कोई भी कार्य कुत्सित भोगों के लिये न था। इसलिये उनका गृहत्याग करना उचित ही था।

आपने जिस उपदेशक के विरुद्ध महर्षि का वचन लिखा है, उससे उन पर कोई दोष नहीं आता। स्वामीजी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था उस उपदेशक से मिलता-जुलता हो। देखिये, स्वामीजी ने गोकुलिये गोसाइयों के मत का खंडन करते हुये तैलंगी लक्ष्मणभट्ट की कथा लिखी है-

“यह मत ‘तैलंग’ देश से चला है। क्योंकि एक तैलंगी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण विवाह कर किसी कारण से माता पिता और स्त्री को छोड़ काशी में जा के उस ने संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उस के माता, पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया है। उसके माता-पिता और स्त्री काशी में पहुंच कर जिस ने उस को संन्यास दिया था उस से कहा कि इस को संन्यासी क्यों किया?

देखो! इस की यह युवती स्त्री है और स्त्री ने कहा कि यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझ को भी संन्यास दे दीजिये। तब तो उस को बुला के कहा कि-तू बड़ा मिथ्यावादी है। संन्यास छोड़ गृहाश्रम कर क्योंकि तूने झूठ बोल कर संन्यास लिया। उसने पुनः वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उस के साथ हो लिया। देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।”
( सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास, गोकुलिये गोसाइयों के मत के खंडन में)

पूरा प्रकरण पढ़कर स्पष्ट है कि लक्ष्मणभट्ट ने विवाहित होकर भी खुद को अविवाहित बताकर संन्यास दीक्षा ली। वो अपनी युवती पत्नी को गृहस्थाश्रम में छोड़कर संन्यासी बन गया था। परंतु महर्षि ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने झूठ बोलकर किसी संन्यासी दीक्षागुरु से संन्यास नहीं ग्रहण किया। अतः उन पर दोष नहीं आता। आप ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर’ आक्षेप लगा रहे हैं।

(१)- माता-पिता को जीते-जी मारने वाला व्यक्ति मूलशंकर था, नाकि योगिराज महर्षि दयानंद । युवापन में बिना उचित मार्गदर्शन और तीव्र वैराग्य के कारण उन्होंने गृहत्याग कर दिया। भले उन्होंने अपने माता -पिता को दुख दिया हो, परंतु देश के हजारों माता-पिताओं व उनकी संतानों तो धर्म और देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। सोई हुई आर्यजनता को जगाया, स्वतंत्रता हेतु विद्रोह करने की अलख जगाई, समाज में व्याप्त कुरीतियों का खंडन किया इस पर तो आप भी सहमत हैं, कि उनका कार्य बहुत महान् था। एक तरफ उनके कार्य को अच्छा बता रहे हैं, और दूसरी तरफ यह आरोप लगा रहे हैं वह व्यक्ति समाज को राह कैसे दिखा सकता है? क्या आपके लेख में व्याघात दोष नहीं है।

(२)- स्वामीजी तब अबोध थे, अतः धोखा देकर गृहत्याग कर आये। उनको इस कार्य का फल ईश्वर ने यथायोग्य दिया ही होगा। यह भी कोई बात नहीं है,कि महान् कार्य करने हेतु उन्होंने असत्य का सहारा लिया तो जीवनभर सत्य न पा सके। महोदय! उन्होंने पूरा जीवन सत्य जानने हेतु बिता दिया। सत्य की खोजमें वे दर-बदर भटके। अंततः उनको वेद विद्या व ब्रह्मसंबंधी ज्ञान मिल ही गया। तभी वे आर्ष पद्धति से वेदभाष्य, संस्कार विधि, व्याकरण आदि पर प्रामाणिक लेखन कर सके। सत्य के लिये उन्होंने कई बार विष पिया, डंडे-पत्थर खाये और अपमानित हुये। परंतु वे सत्य बोलने व करने से पीछे नहीं हटे। अतः आपका यह हेतु गलत है कि उनको असत्य ही मिला।

रही बात सच्चे शिष्य मिलने की बात,तो यह बात उन्होंने अपने प्रयास व्यर्थ होते देख कही थी। जरूरी नहीं कि यह पितृऋण न चुका पाने का फल हो, किसी और कर्म का भी फल हे सकता है। दरअसल उस समय स्वार्थी लोग छद्मवेष धरकर बाहर से आर्य,पर अंदर से घोर विरोधी लोग उनके शिष्य बन जाते थे। वे उनके लेखन में मिलावट भी कर देते थे। ऐसे धोखेबाज छली-कपटी शिष्य शंकराचार्य जी के भी बन गये थे। परंतु महर्षि को आगे चलकर आर्यसमाज में पं गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानंद, स्वामी श्रद्धानंद, पं लेखराम, पं युधिष्ठिर मीमांसक, पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं चमूपति, पं शिवशंकर शर्मा ‘काव्यतीर्थ’ आदि सुयोग्य शिष्य भी मिले। यही नहीं, १९० वर्षों से भी अधिक समयकाल में कई प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सफल शिष्य आर्यसमाज में ऋषि दयानंद के हुये हैं।
यहाँ पर ऐसा लग रहा है,मानो आप केवल शिष्य बनाना ही उनकी सफलता का पैमाना मान रखा है। जबकि उनकी सफलता सत्यधर्म के ज्ञान व ईश्वरप्राप्ति के साथ-साथ धर्म प्रचार आदि में निहित थी। उन्होंने जिस कार्य हेतु गृहत्याग किया, उसे भली-भाँति निभाया।
आप बस उनकी निराशाजनक टिप्पणी को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।

∆ मुहम्मद साहब के सहाबी ∆

हाँ, मुहम्मद साहब के भी कई सहाबी इस्लाम छोड़ मुर्तद हो गये । उस पर क्या विचार है?

अबू हुरैरा ने कहा कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया कि जब वे सो रहे थे, तब फरिश्ते ने आकर उन्हें सहाबाओं के विषय में बताया कि वे नरक में हैं। रसूल ने पूछा कि ऐसा क्यों? इस पर फरिश्ते ने कहा कि यह सहाबा इस्लाम से विमुख हो जायेंगे और बिना चरवाहे के ऊंट की तरह हो जायंगे
“They turned apostate as renegades after I left, who were like camels without a shepherd.”

( सही बुखारी, जिल्द ७ ,किताब ७६, हदीस ५८७)

यह बात शिया हदीस रज्जल कशी ( رجال ‏الكشي ) में इस तरह बयान की गयी है ” रसूल की मौत के बाद सहाबा सहित सभी लोग काफिर हो गए थे ,सिवाय सलमान फ़ारसी ,मिक़दाद और अबू जर के , लोगों ने कहा कि हमने सोच रखा था अगर रसूल मर गए या उनकी हत्या हो गयी तो हम इस्लाम से फिर जायेंगे-
“All people (including the Sahaba) became apostates after the Prophet’s death except for three.” Al-Miqdad ibn Aswad, Abu Dharr (Zarr), and Salman (Al-Farsi,When asked they replied, “. ‘If he (Muhammad) dies or is killed, we will turn from Islam ‘

– أبو الحسن و أبو إسحاق حمدويه و إبراهيم ابنا نصير، قالا حدثنا محمد بن عثمان، عن حنان بن سدير، عن أبيه، عن أبي جعفر (عليه السلام) قال : كان الناس أهل الردة بعد النبي (صلى الله عليه وآله وسلم) إلا ثلاثة.

منهم سلمان الفارسي و المقداد و أبو ذر

(Rijal Al-Kashshi – رجال ‏الكشي – p.12-13)

ये सहाबी अल्लाह के आखिरी पैगंबर के अनुयायी थे। वो पैगंबर, जो ‘संसार भर के आदर्श व दया की मूर्ति’ कहे जाते थे।फिर भी,उनके सीथ रहकर वे कभी एक न रह सके।
मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद इस्लाम शिया और सुन्नी में बँट गया और इनमें बहुत मारकाट हुई। प्रथम चार सर्वश्रेष्ठ खलीफा आपस में सत्ता पाने हेतु लड़ते थे। इन सबका विवेचन इस्लामी ग्रंथों के अनुसार पं देवप्रकाश,मौलवी फाजिल जी ने ‘कुरान परिचय-भाग-३'( अमर स्वामी प्रकाशन, गाज़ियाबाद उ.प्र) ने किया है। अधिक जानकारी हेतु श्री Silas की पुस्तक “Islam’s Royal family” पढ़िये।
सोचिये! आखिरी पैगंबर के करीबी लोगों में से कोई भी निःस्वार्थ व निर्लोभी व्यक्ति न हुआ। सब नंबर एक के अय्याश,हत्यारे,लंपट और लुटेरे थे। उसका एक उदाहरण देखिये-

~हजरत उमर दासी से संभोग करते थे-

“उमर एक औरत को सम्भोग के लिए बुलाये ,लेकिन वह इस के लिए अग्रिम पैसा चाहती थी .जब उमर ने उसके साथ सम्भोग करना चाहा तो वह बहाने करने लगी ,की मेरा मासिक चल रहा है .उमर को पता चल गया कि औरत झूठ बोल रही है .तो वह रसूल के पास गए और शिकायत की ,रसूल ने कहा औरत को पचास दीनार अधिक दे दो।”

Umar bin al-Khatab may Allah be pleased with had a slave girl who used to hate men. Whenever Umar wanted to have sexual intercourse with her, she apologized by advancing an excuse that she was having a period, hence Umar thought that she was telling lie, then (when he had sexual intercourse with her) he found that she was telling the truth. He then he went to the prophet (pbuh) and He ordered him to pay fifty dinars as charity.
( Tabaqat Ibn Saad, Volume 6 page 195:
तबकाते इब्ने साद -जिल्द 6 पेज 195)

~ इस्लाम विरोधी-

इतिहास की किताबों में सहबियों की आपसी लड़ाइयों के बारे में जो प्रामाणिक हदीसों में रावियों द्वारा बयान की हैं ,उसके अनुसार अधिकांश सहाबी मुख्य मार्ग से हट गए थे .और जालिम और फासिक बन गए थे .क्योंकि वह इर्ष्या ,नफ़रत ,और लालच से भर गए थे .कई लोगों ने तो रसूल को देखा भी नहीं था .यह सभी पूरी तरह से निष्पाप नहीं थे .
The battles (between the Sahaba) as its recorded in history books & narrated by reliable narrators serve as proof that some companions left the right path and became Zaalim and Fasiq because they became affected by jealousy, hatred, stubbornness, a desire for power and indulgence because the companions were not infallible , nor was every individual that saw Rasulullah (s), good”.
Imam Dhahabi stated in his book Marifat al-Ruwah, page 4:
अल सियूती ने कहा कि वह एकदूसरे को काफ़िर कहते थे .
Al-Suyuti writes:
“Some of the Sahaba issued Takfeer against one another”
(Al-Dur al-Manthur, Volume 2 page 361)

बड़े अचरज की बात है! ये सब उनके निकटतम लोग थे। इनमें अली उनके दामाद व अबू बकर उनके ससुर थे। महर्षि दयानंद से मात्र एकाध बार दर्शन पाने के बाद पं लेखरामजी जैसा व्यक्ति आर्यपथिक बन गया। उनके सान्निध्य में पं गुरुदत्त विद्यार्थी जी महापंडित बन गये। इन आर्यविद्वानों के जीवनचरित्र भी उनकी सच्चरित्रता,त्याग,तप,विद्या अादि से पटे पड़े हैं । पर मुहम्मद साहब का हाल देखकर नहीं लगता कि वे कोई असाधारण योगी या तपस्वी थे,वरना उनके परिवार में ही ऐसा अनाचार न होता।

¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।

उत्तर—उत्तर उपरोक्त समान ही है। यह भी माता-पिता की आज्ञा का भंग करने का फल है या नही्, यह ईश्वर ही सही-सही बता सकता है। बाकी इसका कारण उनका कर्म है, तो यह भी ईश्वर की न्याय व्यवस्था है। चाहे उन्होंने माता-पिता का विश्वास तोड़ा हो, इससे उनका योगदान व्यर्थ नहीं कहा जा सकता।

क्रमशः…

‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

      भारत में फूट के लिए सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था, यद्यपि यह भी एक गोरखधन्धा है कि एकता के लिए भी सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था। 

      हमारी फूट के कारण विदेशी शासन हम पर आ धमका। देश के जागरूक नेताओं की बुद्धिमत्ता से एकता की आग प्रज्ज्वलित हुई। विदेशी शासक आग में ईधन, विदेशी अत्याचार घी का काम देते रहे। अन्त में विदेशी शासकों को भस्म होने से पूर्व ही भागना पड़ा। परन्तु अब विदेशी फूट डालने वालों का स्थान स्वदेशी स्वार्थियों ने ले लिया। 

      हिन्दी के परम समर्थक तथा कम्युनिस्टों के परम शत्रु राज गोपालाचारी, अंग्रेजी के गिरते हुए दासतामय भवन के सबसे बड़े स्तम्भ बन गये। 

      जो प्रोफेसर अंग्रेजी इतिहासकारों के आसनों पर आसीन हुये वही ‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़’ शब्दों के अनर्गल अर्थों के प्रयोग को भारत की छोटी से छोटी पाठशाला तक पहुंचाने में सबसे बड़े सहायक बन गये। 

      मैं दोनों भुजा उठाकर इस अनर्थ के विरुद्ध शंखनाद करना चाहता हूँ। मेरा कहना है कि सारे संस्कृत साहित्य में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं जिससे आर्य नाम की नस्ल (Race) का अर्थ निकलता हों। इस शब्द का सम्बन्ध ▪️(१) या तो चरित्र से है ▪️(२) या भाषा से ▪️(३) या उस भाषा को बोलने वाले लोगों से ▪️(४) या उस देश से जहाँ इस प्रकार के चरित्र और भाषा वाले मनुष्य बसते हैं इसलिए किसी गोरे रंग वाली अथवा लम्बी नाक वाली जाति से इस शब्द का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार द्रविड़ शब्द ब्राह्मणों के दश कुलों में से पांच कुलों में होता है जिनमें शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।

      अथवा मनुस्मृति के उपलभ्यमान संस्करण के अनुसार द्रविड उन क्षत्रिय जातियों में से एक है जो 🔥‘आचारस्य वर्जनात् अथवा ब्राह्मणनामदर्शनात् वृषलत्स्वम् गताः।’  क्षत्रियोचित आचार छोड़ देने तथा ब्राह्मणों के साथ सम्पर्क नष्ट हो जाने के कारण शूद्र कहलाये। किन्तु काले रंग तथा चिपटी नाक का द्रविड़ शब्द से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं । 

◼️आर्य और द्रविड़ शब्द पश्चिम की दृष्टि में –

      मैकडानल की वैदिक रीडर में जो कि आज भारत के सभी विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती है लिखा है :- 

      “The historical data of the hymuns show that the Indo-Aryans were still engaged in war with the aborigines, many victories over these forces being mentioned. that they were still moving forward as conquerors is indicated by references to reverse as obstacles to advances to.”

      “They were conscious of religious and racial unity, contrasting the aborigines with themselves by calling them non-sacrificers, and unbelievers as well as black skin’s and the Das’s colour’ as opposed to the Aryan colours.

      ‘ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री यह दिखाती है कि इण्डो-आर्यन् लोग सिन्धु पार करके फिर भी भारत के आदिवासियों के साथ युद्ध में लगे हुये थे इन शत्रुओं पर उनकी कई विजयों का ऋग्वेद में वर्णन है अभी भी विजेता के दल आगे बढ़ रहे थे। यह इस बात से सूचित होता है कि वे कई स्थानों पर नदियों का अपने अभि प्रयाण के मार्ग में बाधा के रूप में वर्णन करते हैं।’

      “उन्हें यह अनुभव था कि उनमें जातिगत तथा धार्मिक एकता है। वे आदिवासियों को अपनी तुलना में यज्ञ हीन, विश्वास हीन, काली चमड़ी वाले, दास रंग वाले तथा अपने आपको आर्य रंग वाले कहते है” 

      यह सारा का सारा ही आद्योपान्त अनर्गल प्रलाप है। सारे ऋग्वेद में कोई मनुष्य एक शब्द भी ऐसा दिखा सकता है क्या जिससे यह सिद्ध होता है कि काली चमड़ी वाले आदिवासी थे और आर्य रङ्ग वाले किसी और देश के निवासी थे। 

      प्रथम तो वेद में काली चमड़ी वाले (कृष्णत्वचः) यह शब्द ही कहीं उपलब्ध नहीं और ना ही कहीं गौरवचः ऐसा शब्द है। 

      हाँ, ‘दास वर्णम्’ ‘आर्य वर्णम्’ यह दो शब्द हैं जिनकी दुगति करके काले-गोरे दो दल कल्पना किये गए है। हलाँकि चारों वेदों में विशेष कर ऋग्वेद में कोई एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि ‘आर्य वर्णम्’ इस देश में बाहर से आए, और ‘दास वर्णम्’ यहां के मूल निवासी (Aborigines) थे। 

      यदि इनके युद्ध का वर्णन है, तो वह युद्ध क्या एक ही देश के रहने वाले दो दलों में नहीं हो सकता, इन दोनों में से एक दल बाहर से आया था और दूसरा आदिवासी दल था इस कल्पना का एक ही और केवल मात्र एक उद्देश्य था, भारत में पग-पग पर फूट फैलाने वाले तथा भारत के एकता के परम शत्रु अंग्रेजी शासकों की तथा वैदिक धर्म द्रोही पादरियों की दुष्टता है। 

      अब अंग्रेज चले गए। क्या अब भी हमारे देशवासियों की आंखें खुलेंगी। 

◼️आर्य और द्रविड़ का असली अर्थ –

      अब जरा आर्यवर्ण तथा दासवर्ण इन शब्दों की परीक्षा करलें। 

      वर्ण शब्द का अर्थ इस प्रसंग में है ही नहीं। धातु-पाठ में रंग-वांची वर्ण वाची शब्द के लिए वर्ण धातु पृथक ही दी गई है परन्तु निरुक्तकार ने इस वर्ण शब्द की व्यत्युत्ति वृ धातु से बताई है। वर्णो वृणोतेः (निरुक्त)। 

      ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य यह तीन आर्य वर्ण हैं, क्योंकि सत्यद्वारा असत्य नाश, बल द्वारा अन्याय का नाश धन द्वारा दारिद्रय का नाश यह तीन व्रत हैं।

      इनमें से जो एक व्रत का वरण अर्थात् चुनाव कर लेता है उसके ‘वर्णिक’ को जीवन अपने वर्ण की मर्यादानुसार अत्यन्त कठोर नाप तोल में बंध जाता है इसलिये वह व्रत आर्य वर्ण कहलाता है।

      जो अपने आप को सब प्रकार की शक्तियों से क्षीण पाता है। परन्तु स्वेच्छा पूर्वक ईर्षा-रहित होकर लोक कल्याणार्थ किसी व्रत वाले की सेवा का व्रत ले लेता है वह दास वर्ण का कहलाता है इसलिये शूद्रों के दासन्त नाम कहे हैं। जो व्रतहीन हैं वह दास नहीं, दस्यु हैं। 

      उन्हें अव्रताः कहकर व्रत वाले उनसे युद्ध करें यह बिलकुल उचित ही है। यह व्रतधारियों का व्रतहीनों से, हराम खोरों का श्रम शीलों से संग्राम सदा से चला आया है और सदा रहेगा। यह दोनों ही सदा से धरती पर रहे हैं इसलिए दोनों ही धरती के आदिवासी, मध्यवासी, तथा अन्तवासी हैं। 

      अस्तु Aborigines की यह कल्पना बिलकुल निराधार है। इसका वैदिक वाङ्मय तो क्या सारे संस्कृत साहित्य में वर्णन नहीं । 

◼️आर्य शब्द कैसे बना –

      अब देखना है कि आर्य शब्द यदि जाति विशेष का वाचक नहीं तो यह किसका वाचक है। 

इसके लिये इसकी व्युत्पत्ति को देखना चाहिए। 

      यह शब्द ‘ऋ गतौ’ (Ri to move) इस धातु से बना है, परन्तु ऋ धातु का अर्थ गति है इतना तो व्याकरण से ज्ञात हो गया अब निरुक्त प्रक्रिया से देखना चाहिये कि ऋ धातु का अर्थ किस प्रकार की गति है। इसके लिए दो शब्दों को ले लीजिए। एक ऋतु, दूसरा अनऋतु। ऋतु का अर्थ है नपा हुआ समय। ग्रीष्म ऋतु= गरमी के लिये नियत, नपा हुआ समय, वर्षा ऋतु = जिसमें वर्षा होती है वह नपा हुआ समय, शरद ऋतु=जिसमें सरदी पड़े वह नपा हुआ समय, बसन्त ऋतु=जिसमें सरदी से धुन्ध कोहरा आदि आकाश के आच्छादक वृत्तोका अन्त हो और समशीतोष्ण अवस्था हो वह नपा हुआ समय, इस प्रकार ‘ऋगतौ’ का अर्थ हुआ ऋ= मितगतौ अर्थात् न प के साथ चलना।

      इसीलिये जो पदार्थ जैसा है उसके सम्बन्ध में अन्यूना= नातिरिक्त, ठीक नपा तुला ज्ञान कहलाता है= ऋतु इसके विपरीत अन+ ऋतु। इसका बिलकुल संदेह नाशक प्रमाण कीजिये –

      🔥अर्वन्तोमित द्रवः (यजु १,) 

      वे घोड़े जो इतने सधे हों कि दौड़ते समय भी उनके पग नाप तौल के साथ उठे परिमित हों, ठीक नपे तुले हों वे अर्वन्तः कहलाते हैं। इसी ऋधातु से आर्य बना है। इस शब्द के सम्बन्ध में पाणिनि का सूत्र है 🔥अर्यः स्वामि वैश्योंः आर्य शब्द के दो अर्थ हैं एक स्वामी दूसरा वैश्य।

      इस पर योरोपियन विद्वानों की बाल लीला देखिए। 

      उनका कहना है यह शब्द ऋधातु से बना है जिसका अर्थ है। खेती करना यह ‘ऋ कृषौ’ धातु उन्होंने कहाँ से ढूढ़ निकाली, यह अकाण्ड ताण्डव भी देखिये। आर्य का अर्थ है स्वामी अथवा वैश्य। वैश्य के तीन कर्म हैं 

      (१) कृषि (२) गोपालन (३) वाणिज्य। सो क्योकि आर्य का अर्थ है वैश्य और वैश्य का कर्म है कृषि इसलिए ऋधातु का अर्थ है। खेती करना।

◼️बलिहारी है इस सीनाजोरी की,

      क्यों जी, वैश्य के तीन कर्मों में व्यापार और गोपालन को छोड़कर आपने खेती को ही क्यों चुना? इसका कारण उनसे ही सुनिये। 

      अंग्रेजी भाषा में एक शब्द है Arable Land अर्थात् कृषि योग्य भूमि। यह शब्द जिस भाषा से आया है उसका अर्थ खेती करना है इसलिए संस्कृत की ऋधातु का अर्थ खेती करना सिद्ध हुआ, यह तो ऐसी ही बात है कि हिन्दी में लुकना का अर्थ छिप जाना है। इसलिए Look at this room का अर्थ, इस घर में छिप जाओ, क्योंकि हिन्दी भाषा में धी का बेटी है इसलिए वेद में भी धी का अर्थ बेटी हुआ। 

सुनिये लाल बुझक्कड जी। (१) स्वामी (२) कृषि (३) गोपालन (४) व्यापार। इन चारों में समान है, वह है नाप तौल के साथ व्यवहार, स्वामी से भृत्य जो वेतन पाता है वह नाप तोल के बल पर पाता है। 

      ‘खेती के योग्य भूमि को नापना पड़ता है क्योंकि उस पर लगान लगता है, इसीलिए अंग्रेजी में भी कृषि योग्य भूमि Arable Land कहलाती है।

      गोपालन करने वाला दूध नापता है क्योंकि उस पर उसकी आजीविका निर्भर है व्यापारी के नाप-तौल का तो प्रश्न ही नहीं उठता वहां तो सारा काम ही नाप तौल का है। वैश्य हलवाई से कहिये लालाजी लड्डू खाने है तुरन्त आपका स्वागत करके आपको आसन पर बैठाएगा और अति मधुरता पूर्वक पूछेगा कितने तौलू यह कितने वैश्य कर्म का आधार है, इसलिए स्वामी और वैश्य दोनों आर्य कहलाते हैं। स्वामियों का स्वामी परमेश्वर हैं, आर्य का अर्थ है ईश्वर का पुत्र अर्थात् स्वामी का पुत्र अर्थात् परमेश्वर का पुत्र। परमेश्वर का गुण है न्यायपूर्वक नियमानुसार नाप-तौल कर कर्मों का फल देना।

      जो मनुष्य इसी प्रकार सबके साथ प्रीति पूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करता है वही भगवान के गुणों को धारण करने के कारण उसका सच्चा सपूत है। परमात्मा का एकलौता बेटा कोई नहीं। सृष्टि के आदि से आज तक जिन्होंने नाप-तौल युक्त व्यवहार किया वे आर्य कहलाए और जो करेंगे वे कहलाएगे चाहे किसी देश जाति अथवा सम्प्रदाय में उत्पन्न हुये हैं। यह है आर्य शब्द का अर्थ। जिनका जीवन सत्य रक्षा, न्याय-रक्षा अथवा धनहीन रक्षा के व्रतों से नपा-तुला हो वे आर्य वर्ग के लोग कहलायेंगे और उनका चुनाव किया हुआ व्रत आर्य वर्ण कहलाएगा। 

      अब बताइए कि इसमें गोरा रंग लम्बी नाक अथवा भारत के बाहर के किसी देश से आना किस प्रकार आ घुसा, जिन धूर्त शिरोमणि लोगों ने इस राष्ट्र की एकता के विध्वंस के लिये इस पवित्र शब्द की यह दुर्दशा की है उनसे पग-पग पर प्रतिक्षण लड़ना और तब तक, दम न लेना जब तक यह अविद्यान्धकार धरती से विदा न हो हर सत्य-प्रेमी का परम कर्तव्य है और राष्ट्र हितैषियों के लिये तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। क्योंकि इसी पर राष्ट्र की एकता निर्भर है। (आर्य संसार १९६५ से संकलित) 

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

इन्हें आर्यसमाज से क्या लेना-देना:- राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रतिवर्ष आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं आर्य स्कूलों, कॉलेजों, डी.ए.वी. विद्यालयों से बीसियों शिक्षक प्रिंसिपल रिटायर होते हैं। सर्विस में रहते हुए समाजों व सभाओं के पदों से चिपक जाते हैं। रिटायर होने पर कभी साप्ताहिक सत्संग में इनको नहीं देखा जाता। ऐसा क्यों? यह चर्चा कहीं एक सम्मेलन में कुछ भाई कर रहे थे। मुझे देखकर पूछा- ‘ऐसा क्यों होता है?’ मैंने कहा- ऐसे लोग अपने पेट के लिए, प्रतिष्ठा के लिये समाज में घुसते हैं। उनमें मिशन की अग्नि होती ही नहीं। अम्बाला में एक रामचन्द्र नाम के डी.ए.वी. के हैडमास्टर थे। मथुरा जन्म शताब्दी पर ‘आर्य गज़ट’ के विशेषाङ्क में महात्मा हंसराज, पं. भगवद्दत आदि के साथ उनका भी लेख छपा था। रिटायर होते ही मृतक-श्राद्ध पर लेख देकर सनातन धर्म के नेता बन गये। प्रिं. बहल प्रादेशिक सभा के प्रधान रहे। रिटायर होकर किसी ने चण्डीगढ़ में उनको आर्यसमाज मन्दिर के पास फटकते नहीं देखा। अब आर्यजगत् में और कुछ हो न हो, महात्मा आनन्द स्वामी जी पर तो सामग्री होती ही है। अध्यापक लोग महात्मा जी पर वही अपनी घिसी-पिटी सामग्री देते रहते हैं। प्रयोजन धर्म प्रचार नहीं, कुछ और है।

वैदिक धर्म पर विधर्मी वार करते रहते हैं। पुस्तक मेले पर ऐसा साहित्य खूब बंटा व बिका। इन मैडमों व प्रिंसिपलों ने कभी उत्तर दिया? श्रद्धाराम पर सरकार ने पुस्तक छापी। उसमें ऋषि पर जमकर प्रहार किया। परोपकारिणी सभा ने झट से उत्तर छपवा दिया। इन्होंने प्रसार में क्या सहयोग किया। ये तो दर्शनी हुण्डियाँ हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी पर इन्हीं के कहने से मैंने ‘आनन्द रसधारा’ पुस्तक समय से पहले लिखकर दे दी। श्री अजय जी ने छाप दी। महात्मा आनन्द स्वामी जी के इन दर्शनी भक्तों के लेखों में उस पुस्तक के हृदयस्पर्शी प्रसंग यथा ‘चरण स्पर्श प्रतियोगिता’ आदि कभी किसी ने पढ़ा क्या?

आर्यसमाज – समस्या और समाधान:- धर्मवीर

आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाले, आर्यसमाज का हित चाहने वाले लोग समाज की वर्तमान स्थिति से चिन्तित हैं। उन्हें दु:ख है कि एक विचारवान्, प्राणवान् संगठन निष्क्रिय और निस्तेज कैसे हो गया? इसके लिए वे परिस्थितियों को दोषी मानते हैं, आर्यों की अकर्मण्यता को कारण समझते हैं। यह सब कहना ठीक है, परन्तु इसके साथ ही इसके संरचनागत ढांचे पर भी विचार करना आवश्यक है, जिससे समस्या के समाधान का मार्ग खोजने में सहायता मिल सकती है।

स्वामी दयानन्द जी ने अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों को देखकर ऐसा अनुभव किया कि धार्मिक क्षेत्र में गुरुवाद ने एकाधिकार कर रखा है, उसके कारण उनमें स्वेच्छाचार और उच्छृंखलता आ गई है। इनके व्यवहार पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता, इस परिस्थिति का निराकरण करने की दृष्टि से इसके विकल्प के रूप में प्रजातन्त्र को स्वीकार करने पर बल दिया। मनुष्य के द्वारा बनाई और स्वीकार की गई कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं होती, जिस प्रकार अधिनायकवादी प्रवृत्ति दोषयुक्त है, उसी प्रकार प्रजातान्त्रिक पद्धति में दोष या कमी का होना स्वाभाविक है।

शासन में यह पद्धतियों का परिवर्तन चलता रहता है, परन्तु स्वामी दयानन्द की यह विशेषता है कि उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में उसे चलाने का प्रयास किया जबकि धार्मिक क्षेत्र आस्था से संचालित होता है, जिसका बहुमत अल्पमत से निर्धारण सम्भव नहीं होता, परन्तु स्वामी जी का धर्म केवल भावना या मात्र आस्था का विषय नहीं अपितु वह ज्ञान और बुद्धि का भी क्षेत्र है। इसी कारण वे इसे प्रजातन्त्र के योग्य समझते हैं।

इससे पूर्व गुरु परम्परा की सम्भावित कमियों को देखकर गुरु गोविन्द सिंह सिक्ख सम्प्रदाय के दशम गुरु ने अपना स्थान पंचायत को दे दिया था, यह भी धार्मिक क्षेत्र की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के निराकरण का प्रयास था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उसे और अधिक विस्तार दिया और समाज के सदस्यों को बहुमत से फैसला करने का अधिकार दिया।

यह प्रजातन्त्र का नियम आर्यसमाज के संस्थागत ढांचे का निर्माण करता है। समाज के सदस्यों की संख्या बहुमत के आधार पर उसके अधिकारियों का चयन करती है। अत: बहुमत जिसका होगा, वह प्रधान और मन्त्री बनेगा, मन्त्री बनने की कसौटी अच्छा या बुरा होना नहीं अपितु संख्या बल का समर्थन है, इसलिए अच्छे व्यक्ति अधिकारी बनें, यह सोच गलत है। अच्छा या बुरा होना अधिकारी बनने की वैधानिक परिधि में नहीं आता। अच्छे और बुरे का फैसला भी तो अन्तत: कानून के आधीन है। अत: जैसे सदस्यों की संख्या अधिक होगी, वैसे ही अधिकारी बनेंगे।

आर्यसमाज का सदस्य कौन होगा, जो आर्य हो, स्वामी दयानन्द द्वारा बनाये गये नियमों और सिद्धान्तों में विश्वास रखता हो तथा तदनुसार आचरण करता हो। चरित्र नैतिकता का क्षेत्र है, वह अमूर्त है, इसका फैसला कौन करेगा? अन्तिम फैसला सभा के सदस्य करेंगे, जिसका बहुमत होगा वह चरित्रवान् होगा, जिसका समर्थन कम होगा, वह चरित्रवान् नहीं कहलायेगा, जैसा कि आजकल संगठन हो रहा है, हम भली प्रकार जानते हैं।

सामाजिक संगठन की रचना सदस्यों के द्वारा होती है, सदस्यता चन्दे से प्राप्त होती है। जिसने भी चन्दा दिया है, वह आर्यसमाजी है, अन्य नहीं। ऐसी परिस्थिति में आप जब तक चन्दा देते हैं या जब तक संगठन आपका चन्दा स्वीकार करता है, आप आर्यसमाजी है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार आपके परिवार का कोई सदस्य चन्दा देता है, तो आर्यसमाजी हैं, अन्यथा नहीं, ऐसी स्थिति में जिसके स्वयं के आर्यसमाजी होने का भरोसा नहीं, उसके परिवार और समाज के आर्यसमाजी बनने की बात वैधानिक स्तर पर कैसे सम्भव होगी, यह एक संकट की स्थिति है।

मनुस्मृति के सन्दर्भ में डॉ भीमराव अम्बेडकर और आर्यसमाज

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने मनुस्मृति का कटु विरोध क्यों किया ? इस प्रश्न को गहराई से समझने के लिए उन अपमान जनक घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जो अस्पृश्य समाज को स्पृश्य समाज की ओर से समय-समय पर सहन करनी पड़ीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1927 के अन्त में मनुस्मृति जलाई गई, उसी वर्ष के मार्च महीने में महाराष्ट्र के ’महाड़‘ (जिला-रायगढ़) नामक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकरजी के नेतृत्व में एक तालाब पर सामूहिक रूप में पानी पीने का साहसी सत्याग्रह किया गया। परिणामस्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज क्षुब्ध हो उठा। ’ज्ञानप्रकाश‘ समाचार पत्र के 27/3/1927 के अंक में दिये गये समाचार के अनुसार 21 मार्च 1927 को वह तालाब तथाकथित वेदोक्त विधि से शुद्ध किया गया। उसी समय सवर्ण समाज द्वारा अस्पृश्य समाज की प्रतिशोधात्मक भावना से मारपीट भी की गई। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनुभूत इस प्रकार की घटनाओं से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अतिशय दुःखी थे। उन्हें इस बात का दुःख था कि अस्पृश्य समाज को एक सामान्य मनुष्य के नाते जो जीवन जीने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए, वह भी उसे मिला नहीं है।

 

डॉ0 अम्बेडकरजी की यह धारणा बनी कि समाज में प्रचलित विषमतायुक्त धारणाओं की पृष्ठभूमि में ’मनुस्मृति‘ है, अतः उन्होंने 24 दिसम्बर 1927 को महाड़ सत्याग्रह परिषद के अवसर पर रात 9 बजे प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृति जलवाई थी। मनुस्मृति चातुर्वण्र्य के सिद्धान्त का समर्थन करती है और डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार जन्मना चातुर्वण्र्य का सिद्धान्त विषमता की नींव पर आधारित है, इसलिए उन्होंने ’असमानता‘ का समर्थन करनेवाली मनुस्मृति के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए उसे जलवाना आवश्यक समझा।

तत्पश्चात् आठ वर्ष की कालावधि में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं क डॉ0 अम्बेडकरजी ने विवश होकर धर्मान्तर की घोषणा कर दी। नासिक (महाराष्ट्र) के जिस कालाराम मन्दिर में स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिसम्बर 1874 में व्याख्यान हुए थे, उसी कालाराम मन्दिर में प्रवेश पाने के लिए माननीय डॉ0 अम्बेडकर के मार्गदर्शन में 3 मार्च 1930 से अक्टूबर 1934 तक लगभग 6 साल सत्याग्रह किया गया, फिर भी अस्पृश्य समाज को मन्दिर में प्रवेश नहीं मिल पाया। डॉ0 अम्बेडकरजी ने नासिक जिले के ही येवला नगर में जो धर्मान्तर करने की घोषणा की, उसकी पृष्ठभूमि में भी 6 साल तक चली कालाराम मन्दिर की सत्याग्रह की घटना रही है। 13 अक्टूबर 1935 को येवला में दिये अपने भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने घोषणा की कि-’मैं हिन्दू के रूप में जन्मा जरूर हूँ, पर हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।

सामान्य और भक्त कोटि के अनुयायियों को ध्यान में रखकर तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति का विरोध किया, अतः आज उनके अनुयायी भी मनुस्मृति का विरोध कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे स्वामी दयानन्द ने वेदानुकूल मनुस्मृति का समर्थन किया तो उनके आर्यसमाजी अनुयायी भी ˗प्रक्षिप्त श्लोक विरहित विशुद्ध मनुस्मृति का समर्थन करते हुए दिखलाई देते हैं। अनुयायियों का मत अनुयायितव पर आधारित होता है। ज्ञान की गहराई में बैठकर अपने मत को नेता के वैचारिक निष्कर्ष तक या उससे और आगे ले जाना सामान्य सामथ्र्यवाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए आठ प्रमाणों में से एक प्रमाण आप्त प्रमाण की शरण लेनी पड़ती है। दोनों भी समाज सुधारकों के अनुयायी सैद्धान्तिक तौर पर जन्मना वर्ण व्यवस्था, जातिगत भेद-भाव और अस्पृश्यता के विरोधी हैं। दोनों भी पक्षों को अपने-अपने ढंग से कार्य करते हुए क्या-क्या हानि-लाभ हुआ ? इन सब तथ्यों का विश्लेषण तो एक स्वतन्त्र पुस्तक का विषय होगा। आर्यसमाज के मनुस्मृति विषयक दृष्टिकोण को पौराणिक रूढ़िवादी प्रवृत्ति का आम हिन्दू आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

समाज-सुधार के पथ पर चलना वस्तुतः एक तपस्या है। हम अपने नेताओं की जय-जयकार तो करने के लिए तैयार है, पर उनके तपोमय संघर्षशील पथ का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि हम सुख-सुविधा भोगी हैं। जय लगाना तो आसान है, पर सिद्धान्तों को व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतार पाना बड़ा कठिन है। सामान्य समाज तो एकदम नहीं, धीरे-धीरे बदलता है। जो द्विज वेदाध्ययन हेतु परिश्रम के लिए तैयार नहीं है, वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है। मनु के इस वचन (2.1.43) को स्वामी दयानन्द ने भी उद्धृत किया है। स्वामीजी ने संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण में लिखा है –

”सब संस्कारों में मधुर स्वर से वैदिक मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे, न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्यभाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने (‘ईश्वर स्तुति, प्रार्थना, उपासना’, ’स्वस्तिवाचन‘, ’शांतिकरण‘ और ’हवन‘ के) मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकत्र्ता, जड़, मंदमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करे और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावे।“(-सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक-पृ0 37)

स्वामीजी के उपरोक्त कथन का सार यह है कि ’संस्कारविधि‘ के सामान्य प्रकरण में निर्दिष्ट और संग्रहीत चारों वेदों से चुने हुए मन्त्रों का जो सामान्य पाठ नहीं कर सकता, वह शूद्र है। स्वामीजी की इस कसौटी पर आर्यसमाज के सदस्यों को कसा जाए तो अनेक आर्यसमाजियों की गणना तो शूद्र कोटि में ही करनी होगी। आर्यसमाज में चारों वेदों के सस्वर मन्त्रोच्चारण करनेवाले बड़ी मुश्किल से हाथ की उंगली पर गिने जाने योग्य कुछ विरले ही वेदपाठी होंगे।

आर्यसमाज के संस्थापक के उदात्त सपनों को साकार करने के सम्बन्ध में आर्यसमाज के सदस्यों का कद भी बौना साबित हो रहा है। व्यक्तित्व के बौने होने पर भी प्रगति की दिशा में अग्रसर होने के लिए ध्येय का उदात्त होना बहुत जरूरी है, उसे बौना करने की आवश्यकता नहीं है। जब आर्यसमाजी ही वैदिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में असमर्थ साबित हो रहा है, तो आम हिन्दू या सामान्य व्यक्ति द्वारा आर्यसमाज की मान्यताओं को स्वीकार करने की बात तो अभी कोसों दूर है। हाँ, कुछ सीमा तक आर्यसमाज की बात को हिन्दुओं ने ही नहीं, अपितु समाज के अन्य मत मतान्तर के लोगों ने भी निश्चित रूप से स्वीकार किया है।

लगभग एक दशक से राजनीति में ’मनुवाद‘ शब्द बहुत अधिक ˗प्रचलित हुआ है। राजनीति में जिन्होंने इसका ˗प्रचलन किया है। वे मनुवाद को प्रगतिशीलता के अर्थ में नहीं, अपितु ˗प्रतिगामीपन के पक्ष में प्रचलित करने में जुटे हुए हैं। जो यह मानकर चलते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षिप्त हुआ है, वे प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर मनुस्मृति स्वीकार करने योग्य मानते हैं और मनुवाद का अर्थ ˗प्रगतिशीलता के पक्ष में ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार मनु महाराज की दृष्टि में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु गुण कर्म-स्वभाव के अनुसार है। महिलाओं के साथ शूद्रों की भी शिक्षा और मान-सम्मान के मनु पक्षधर हैं। आर्यसमाज के क्षेत्र में मनुवाद का अर्थ प्रगतिशीलता ही है।

मनु समर्थक पक्ष

24 जुलाई, 1875 को महाराष्ट्र की विद्यानगरी पुणे में इतिहास विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था-’अब मनुजी का धर्मशास्त्र कौन-सी स्थिति में है, इसका विचार करना चाहिए। जैसे-ग्वाले लोग दूध में पानी डालकर उस दूध को बढ़ाते हैं और मोल लेनेवाले को फँसाते हैं। उसी प्रकार मानव धर्मशास्त्र की अवस्था हुई है। उसमें बहुत से दुष्ट क्षेपक (˗प्रक्षिप्त) श्लोक हैं, वे वस्तुतः भगवान् मनु के नहीं हैं। मनुस्मृति की पद्धति से मिलाकर देखने से वे श्लोक सर्वथैव अयोग्य दिखते हैं। मनु सदृश श्रेष्ठ पुरुष के ग्रन्थ में अपने स्वार्थ साधन के लिए चाहे जैसे वचनों को डालना बिलकुल नीचता दिखलाना है।˗‘ (उपदेश मंजरी, सम्पादक, राजवीर शास्त्री: पृष्ठ-57)। स्वामीजी के इस वक्तव्य की व्याख्या करते हुए पं0 गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने लिखा है कि ’पानी अगर गंदला है तो उसके छानने का उपाय सोचना चाहिए। गंदलेपन को देखकर पानी से असहयोग करना तो मूर्खता होगी। विद्वानों को चाहिए कि अपने ग्रन्थों को शोधें, क्षेपकों को दूर करें, और जनता को फिर मनुरूपी भेषज (औषधि) से लाभ उठाने का अवसर देवें। (सार्वदेशिक: अगस्त-1948 पृष्ठ 259-60)।

डॉ0 सोमदेव शास्त्री के अनुसार-’श्री मेधातिथि (नौंवी शताब्दी) की टीका से कुल्लूक भट्ट (बारहवीं शताब्दी) की टीमा में 170 श्लोक अधिक हैं। तीन सौ वर्षों के समय में इन श्लोकों की मिलावट हो गई है। श्री मेधातिथि के समय पाँच सौ पाठभेद तथा श्री कुल्लूक भट्ट के समय के 650 पाठभेदों से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति में समय-समय पर प्रक्षेप होता रहा है।‘ (स्मृति सन्देश: पृष्ठ-7)। पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के अनुसार कुछ श्लोक मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट आदि के भाष्यों में नहीं हैं, पर वर्तमान मनुस्मृति में हैं। (मनुस्मृति: भूमिका और अनुवाद-पृष्ठ 24)।

मनुस्मृति आदि ग्रन्थों की तुलना में वेदों की प्रामाणिकता स्वामी दयानन्द की दृष्टि में सर्वोपरि थी। मनुस्मृति का प्रक्षिप्त भाग छोड़ने के बाद जो विशुद्ध वेदानुकूल भाग शेष रह जाता है, उसे ही उन्होंने प्रमाण योग्य माना है। स्वलिखित ग्रन्थों में उन्होंने मनुस्मृति के 514 श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। महर्षि दयानन्द का अनुसरण करते हुए आर्य विद्वानों ने भी अपनी-अपनी समालोचनाओं के साथ मनुस्मृति के अनेक संस्करण प्रकाशित किये-पं0 भीमसेन शर्मा, पं0 आर्यमुनि, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 हरिश्चन्द्र विद्यालंकार ने क्रमशः ’मानव धर्म शास्त्रम्‘ (1893-99) मानवाय्र्य भाष्य (1914) ’मनुस्मृति‘ (द्वितीय संस्करण-1959) ’मनुस्मृति भाषानुवाद‘ (?) आदि टीकात्मक ग्रन्थों की रचना की। श्री जगन्नाथदास, महात्मा हंसराज, महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), डॉ0 सोमदेव शास्त्री आदि ने छात्रों एवं सामान्य जनता की दृष्टि में ’मानव-धर्म-विचार‘ (1883) ’मानव-धर्म-सार‘ (1890) ’वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति‘ (1911) ’स्मृति सन्देश‘ (1996) आदि मनुस्मृति के संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किये। पं0 बुद्धदेवजी विद्यालंकार, महात्मा मुंशीरामजी, पं0 जगदेव सिंहजी सिद्धान्ती, पं0 भगवद्दत्त रिसर्च स्कासॉलर तथा डॉ0 सुरेन्द कुमार जी ने मनुस्मृति से सम्बन्धित मनु और मांस (1916) ’मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धतियाँ‘ (1917) ’मनु को स्वीकार करना होगा‘ (1951) ’मनुष्य मात्र का परम मित्र स्वायम्भुव मनु‘ (1962) तथा ’मनु का विरोध क्यों‘ (1995) और ’महर्षि मनु तथा डॉ0 अम्बेडकर‘ ( ) नामक रचनाएँ लिखीं।

 

मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने का उल्लेखनीय कार्य पं0 तुलसीराम स्वामी, पं0 चन्द्रमणि विद्यालंकार, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं0 सत्यकाम सिद्धान्त शास्त्री और डॉ0 सुरेन्द्र कुमारजी ने क्रमशः ’मनुस्मृति भाष्य‘ (1908’1922) ’आर्ष मनुस्मृति‘ (1917) ’मनुस्मृतिः भूमिका और भाष्य‘ (1937) वैदिक मनुस्मृति (1948) और ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ (1981) के माध्यम से किया। डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ में प्रक्षिप्त श्लोकों को विशेष चिह्न के साथ प्रकाशित किया है और ’विशुद्ध मनुस्मृति‘ (1981) में प्रक्षिप्त समझे गये श्लोकों को प्रकाशित करना ही आवश्यक समझा है। उनके द्वारा सम्पादित ’मनुस्मृति‘ (संस्करण 1995) के अनुसार मनुस्मृति के कुल श्लोकों की संख्या 2685 है, इनमें मौलिक श्लोक 1214 और ˗प्रक्षिप्त श्लोक 1471 हैं। उन्होंने विषय विरोध, प्रसंग विरोध, अन्तर् (परस्पर) विरोध, पुनरुक्तियाँ, शैली विरोध, अवान्तर विरोध, वेद विरोध नामक सात आधारों पर 1471 श्लोकों को स˗प्रमाण प्रक्षिप्त सिद्ध किया है। डॉ0 भवानीलाल भारतीय के अनुसार मनुस्मृति के विस्तृत भाष्य में डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी ने प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करने के लिए विशिष्ट तार्किक प्रक्रिया को अपनाया है। डॉ0 सोमदेव शास्त्री के शब्दों में ’मनुस्मृति‘ का तलस्पर्शी अध्ययन करनेवाले डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से उसमें विद्यमान प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करके मनुस्मृति का यथार्थ स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का श्लांघनीय कार्य किया है। पं0 राजवीर शास्त्री की दृष्टि में-’यदि मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त निकालने का कार्य महूष के भक्त आर्यों के द्वारा पहले से सम्पन्न हो जाता तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश का संविधान बनानेवाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे व्यक्तियों को भी इस ग्रन्थ के प्रति अपनी मिथ्या धारणा को अवश्य ही बदलना पड़ता। इस उपेक्षावृत्ति के लिए हम आर्यबंधु भी कम दोषी नहीं है।‘ (विशुद्ध मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली: 26 दिसम्बर, 1871: पृष्ठ-3-7)।

 

मनु विरोधी पक्ष

माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले की त्रिमूर्ति का शिष्यत्व स्वीकार कर उन्हें अपना गुरु माना है। फुलेजी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर मनुस्मृति का विरोध किया है। वे अपने ’तृतीय रत्न‘ (लेखनकाल सन् 1855 तथा प्रकाशन काल 1879) नाटक में रूढ़िवादी ब्राह्मणों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-’आपके ही पूर्वज मनु के कानून दिखाकर हमें यह कहते रहे कि आप लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं है, फिर क्या वे लोग मनु का कानून तोड़कर अपने बच्चों को स्कूल भेजते ? तब आप लोगों ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया, अब उन्हीं के वंशजों में ऐसे लोग उत्पन्न हो रहे हैं, जो मनु के कानून की उपेक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं। (महात्मा फुले समग्र वाड्.मय-पृ0 28)। महात्मा फुलेजी का दूसरा ग्रन्थ हैं-’गुलामगिरी‘ (1873) इसमें ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‘ मन्त्र पर फुलेजी ने अपनी ग्राम्य शैली में व्यंग्य किया है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मण को जन्म देनेवाला ब्रह्मा का मुख ऋतु (आर्तव) काल में चार दिन अलग-थलग बैठता था या भस्म लगाकर घर के काम-काज करता था, इस विषय में मनु ने कुछ लिखा है या नहीं। (तत्रैव-पृ0 142)।‘ ’शेतकर्याचा आसूड‘ (अर्थात्-किसान का चाबुक) (1883) नामक ग्रन्थ में महात्मा फुलेजी ने लिखा है-ब्राह्मणों ने मनु संहिता जैसा मतलबी ग्रन्थ लिखकर शूद्र किसानों के विद्याध्ययन पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें लूटा है। (तत्रैव-पृष्ठ 265)। इसी प्रकार अपने ’सत्सार‘ (1885) नामक ग्रन्थ में तो उन्होंने यह प्रतिपादित करने की कोशिश की है कि ’मनुस्मृति‘ ने शूद्रातिशूद्रों का किस प्रकार सर्वनाश किया है ? (तत्रैव-354)। अपने अन्तिम ग्रन्थ ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ (1891) में वे लिखते हैं-”यदि शूद्रातिशूद्रों ने भट्ट ब्राह्मणों के साथ मनुसंहिता के समान उसी प्रकार का नीचतापूर्ण व्यवहार करना शुरु कर दिया, जैसा वे आज तक उनके साथ करते  आये हैं, तो उन्हें कैसा प्रतीत होगा ?“ (तत्रैव-451)।

महात्मा फुलेजी की शैली में ही डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने अपने ’मनु एण्ड द शूद्राज‘ लेख के अन्त में लिखा है कि ’ब्राह्मण को शूद्र के स्थान पर बिठलाया जाएगा, तभी मनुप्रणीत निर्लज्ज तथा विकृत मानवधर्म का निवारण हो सकता है।‘ (राइटिंग्ज एण्ड स्पीचेस ऑफ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर-पृ0 719)। ‘रिडलस इन हिन्दूइज्म‘ के तृतीय खण्ड का ’ मॉडल ऑफ द हाउस‘ नामक प्रकरण मनुस्मृति पर आधारित है। उसमें डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं, ’मनु प्रणीत वर्ण व्यवस्था में विद्रोह करने का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को है, शूद्र को नहीं, किन्तु समझ लो यदि क्षत्रिय शस्त्रों की सहायता से इस व्यवस्था को मिटाने क लिए विद्रोह करने के वास्ते खड़ा हो जाए तो उन्हें दण्डित करने के लिए मनु ने ब्राह्मण को शस्त्र उठाने की अनुमति दी है। वर्ण-व्यवस्था को अबाधित रखने के लिए मनु ने अपनी मूलभूत नीति में परिवर्तन किया है, अर्थात् ब्राह्मण को शस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। मनु प्रणीत वर्ण-व्यवस्था से त्रिवर्ण ही लाभान्वित है। उससे शूद्र को कोई लाभ नहीं। त्रिवर्णों में भी ब्राह्मण सर्वाधिक लाभान्वित है। डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में मनु पक्षपाती हैं, अतः विषमता फैलानेवाली मनुस्मृति का विरोध वे अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी मानते हैं।‘

आर्यसमाज की सैद्धान्तिक विजयः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह ठीक है कि इस समय देश में अंधविश्वासों की अंधी आंधी चल रही है। नित्य नये-नये भगवानों व मुर्दों की पूजा की बाढ़ सी आई हुई है। तान्त्रिकों की संया अंग्रेजों के शासन काल से कहीं अधिक है। राजनेता, अभिनेता व टी. वी. जड़ पूजा तथा अंधविश्वासों को खाद-पानी दे रहे हैं।

आर्यसमाज के दीवाने विद्वानों, संन्यासियों तथा निडर भजनोपदेशकों ने अतीत में अंधेरों को चीरकर वेद का उजाला किया। उसी लगन व उत्साह से आज भी आर्यसमाज अंधविश्वासों के अंधकार का संहार कर सकता है।

स्वर्ग-नर्क, जन्नत-जहन्नुम की कहानियों का सब मत-पंथों में बहुत प्रचार रहा। ऋषियों ने घोष किया कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग है और दुःख विशेष का नाम नर्क है। महान् विचारक डा. राधाकृष्णन् जी ने ऋषि के स्वर में स्वर मिला कर लिखा हैः-

Heaven and hell are not physical areas. A soul tormented with remorse for it deeds is in hell, a soul with satisfaction of a life well lived is in heaven. The reward for virtuous living is the good life. Virtue it is said, is its own reward.

(The Present Crisis of Faith. Page19 )

अर्थात् बहिश्त व दोज़ख कोईाूगोलीय क्षेत्र नहीं हैं। अपने दुष्कर्मों के कारण अनुतप्त आत्मा नर्क में है व अपने द्वारा किये गये सत्कर्मों से तृप्त, सन्तुष्ट आत्मा स्वर्गस्थ है। सदाचरणमय जीवन का पुरस्कार अथवा प्रतिफल श्रेष्ठ जीवन ही तो है। कहा जाता है कि पुण्य-भलाई अपना पुरस्कार आप ही है।

डॉ. राधाकृष्णन् ने अपने सुन्दर मार्मिक शदों में महर्षि दयानन्द के स्वर्ग-नर्क विषयक वेदोक्त दृष्टिकोण की पुष्टि तो की ही है, साथ ही पाठकों को स्मरण करवा दें कि देश के विााजन से पूर्व जब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने एक आर्य-बाला कल्याणी देवी को धर्म विज्ञान की एम. ए. कक्षा में प्रवेश देकर काशी के तिलकधारी पौराणिक पण्डितों के दबाव में वेद पढ़ाने से इनकार कर दिया, तब डॉ. राधाकृष्णन् जी ही उपकुलपति थे। मालवीय जी भी पौराणिक ब्राह्मणों की धांधली का विरोध न कर सके और डॉ. राधाकृष्णन् जी भी सब कुछ जानते हुए चुप रहे।

आर्यसमाज ने डटकर अपना आन्दोलन छेड़ा। आर्यों के सर सेनापति स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी स्वयं काशी में मालवीय जी से जाकर मिले। मालवीय जी स्वामी जी के पुराने प्रेमी, साथी व प्रशंसक थे। आपने आर्यसमाज का पक्ष उनके सामने रखा। डॉ. राधाकृष्णन् जी ने तो स्पष्ट ही लिखा कि विश्वविद्यालय आर्यसमाज का दृष्टिकोण जानता है। मैंने इस आन्दोलन का सारा इतिहास स्वामी जी के श्रीमुख तथा पं. धर्मदेव जी से सुना था। विजय आर्यों की ही हुई।

कुछ समय पश्चात् डॉ. राधाकृष्णन् जी ने अपनी पुस्तक Religion and Society में स्त्रियों के वेदाध्ययन के अधिकार के बारे में खुलकर सप्रमाण लिखा। डॉ. राधाकृष्णन् जी का कर्मफल-सिद्धान्त पर भी वही दृष्टिकोण है जो ऋषि का है। आर्यसमाज को चेतनाशून्य हिन्दू समाज को अपने आचार्य की सैद्धान्तिक दिग्विजय का यदा-कदा बोध करवाते रहना चाहिये। इससे हमारी नई पीढ़ी भी तो अनुप्राणित व उत्साहित होगी।