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🔥 छत्रपति शिवाजी महाराज का पत्र आमेर नरेश राजा जयसिंह के नाम

[६ जून विशेष – आज ही के दिन यानी 6 जून, 1674 को छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। इसी दिन शिवाजी ने महाराष्ट्र में हिंदू राज्य की स्थापना की थी ।]

      ऐ सरदारों के सरदार, राजाओं के राजा, (तथा) भारतोद्यान की क्यारियों के व्यवस्थापक! ऐ रामचन्द्र के चैतन्य हृदयांश, तुझसे राजपूतों की ग्रीवा उन्नत है। तुझसे बाबर वंश की राज्यलक्ष्मी अधिक प्रबल हो रही है, (तथा) शुभ भाग्य, से तुझ से सहायता (मिलती) है। ऐ जवान (प्रबल) भाग्य (तथा) वृद्ध (प्रौढ़) बुद्धि वाले जयशाह ! सेवा (शिवा) का प्रणाम तथा आशीष स्वीकार कर। जगत का जनक तेरा रक्षक हो, (तथा) तुझको धर्म एवं न्याय का मार्ग दिखाये। 

      मैंने सुना है कि तू मुझ पर आक्रमण करने (एवं) दक्षिण – प्रान्त को विजय करने आया है। हिन्दुओं के हृदय तथा ऑखों के रक्त से तू संसार में लाल मुंह वाला (यशस्वी) हुआ चाहता है। पर तू यह नहीं जानता कि यह (तेरे मुँह पर) कालिख लग रही है क्योंकि इससे देश तथा धर्म को आपत्ति हो रही है यदि तू क्षणमात्र गिरेबान में सिर डाले (विचार करे) और यदि तू अपने हाथ और दामन पर (विवेक) दृष्टि करे तो तू देखेगा कि यह रंग किसके खून का है और इस रंग का (वास्तविक) रंग दोनों लोक में क्या है (लाल या काला)। यदि तू अपनी ओर से स्वयं दक्षिण – विजय करने आता (तो) मेरे सिर और आँख तेरे रास्ते के बिछौने बन जाते। मैं तेरे हमरकाब (घोड़े के साथ) बड़ी सेना लेकर चलता (और) एक सिरे से दूसरे सिरे तक (भूमि) तुझे सौंप देता (विजयी कर देता) पर तू तो औरंगजेब की ओर से (उस) भद्रजनों के धोखा देने वाले के बहकावे में पड़ कर आया है। अब मैं नहीं जानता कि तेरे साथ कौन खेल खेलूं। (अब) यदि मैं तुझ से मिल जाँऊ तो यह पुरुषत्व नहीं है, क्योंकि पुरुष लोग समय की सेवा नहीं करते, सिंह लोमड़ीपना नहीं करते। और यदि मैं तलवार तथा कुठार से काम लेता हूं तो दोनों ओर हिन्दुओं को ही हानि पहुंचती है। 

      बड़ा खेद तो यह है कि मुसलमानों का खून पीने के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य के निमित्त मेरी तलवार को म्यान से निकलना पड़े। यदि इस लड़ाई के लिये तुर्क आये होते तो (हम) शेर – मद के निमित्त (घर बैठे) शिकार आये होते। पर वह न्याय तथा धर्म से वंचित पापी जोकि मनुष्य के रूप में राक्षस है, जब अफजलखां से कोई श्रेष्ठता न प्रगट हुई, (और) न शाइस्ताखां की कोई योग्यता देखी तो तुझको हमारे युद्ध के निमित्त नियत करता है। क्योंकि वह स्वयं तो हमारे आक्रमण को सहने की योग्यता रखता नहीं। वह चाहता है कि हिन्दुओं के दल में कोई बलशाली संसार में न रह जाए, सिंहगण आपस में ही (लड़ भिड़ कर) घायल तथा शांत हो जाएं जिससे कि गीदड़ जंगल के सिंह बन बैठे। यह गुप्तभेद तेरे सिर में क्यों नहीं बैठता ! 

      प्रतीत होता है कि उसका जादू तुझे बहकाये रहता है। तूने संसार में बहुत भला बुरा देखा है। उद्यान से तूने फूल और कांटे दोनों ही संचित किये हैं। यह नहीं चाहिये कि त हम लोगों से युद्ध करे (और) हिन्दुओं के सिरों को धूल में मिलावे। ऐसी परिपक्व कर्मण्यता (प्राप्त होने) पर भी जवानी (यौवनोचित कार्य ) मत कर। प्रत्युत सादी के इस कथन को स्मरण कर “सब स्थानों पर घोड़ा नहीं दौड़ाया जाता। कहीं – कहीं ढाल भी फेंक कर भागना उचित होता है।” व्याघ्र मृग आदि पर व्याघ्रता करते हैं सिंहों के साथ गृह – युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते। यदि तेरी काटने वाली तलवार में पानी है, यदि तेरे कूदने वाले घोड़े में दम है तो तुझ को चाहिये कि धर्म के शत्रु पर आक्रमण करे (एवं) इस्लाम की जड़ – मूल खोद डाले। अगर देश का राजा दाराशिकोह होता तो हम लोगों के साथ भी कृपा तथा अनुग्रह के बर्ताव होते। पर तूने जसवन्तसिंह को धोखा दिया (तथा) हृदय में ऊंचनीच नहीं सोचा। तू लोमड़ी का खेल खेलकर अभी अघाया नहीं है, (और) सिंहों से युद्ध के निमित्त ढिठाई करके आया है। तुझको इस दौड़ धूप से क्या मिलता है, तेरी तृष्णा मुझे मृगतृष्णा दिखलाती है। तू उस तुच्छ व्यक्ति के सदृश है जो कि बहुत श्रम करता है और किसी सुन्दरी को अपने हाथ में लाता है, पर उसकी सौंदर्य – वाटिका का फल स्वयं नहीं खाता, प्रत्युत उसको प्रतिद्वन्दियों के हाथ में सौंप देता है। 

      तू उस नीच की कृपा पर क्या अभिमान करता है? तू जुझारसिंह के काम का परिणाम जानता है। तू जानता है कि कमार छत्रसाल पर वह किस प्रकार से आपत्ति पहुचाना चाहता था। तू जानता है कि दूसरे हिन्दुओं पर भी उस दुष्ट के हाथ से क्या – क्या विपत्तियां नहीं आई। मैंने माना कि तूने उससे सम्बन्ध जोड़ लिया है और कुल की मर्यादा उसके सिर तोड़ी है (पर) उस राक्षस के निमित्त इस बन्धन का जाल क्या वस्तु है क्योंकि वह बन्धन तो इजारबन्द से अधिक दृढ़ नहीं है। वह तो अपने इष्ट साधन के लिए भाई के रक्त (तथा) बाप के प्राणों से भी नहीं डरता। यदि तू राजभक्ति की दुहाई दे तो तू यह तो स्मरण कर कि तूने शाहजहां के साथ क्या बर्ताव किया। यदि तुझको विधाता के यहां से बुद्धि का कुछ भाग मिला है, (और) तू पौरुष तथा पुरुषत्व की बड़ाई मारता है तो तू अपनी जन्म – भूमि के संताप से तलवार को तपा (तथा) अत्याचार से दुखियों के आंसू से (उस पर) पानी दे। यह अवसर हम लोगों के आपस में लड़ने का नहीं है क्योंकि हिन्दुओं पर (इस समय) बड़ा कठिन कार्य पड़ा है। हमारे लड़के बाले, देश, धन, देव – देवालय तथा पवित्र देवपूजक इन सब पर उसके काम से आपत्ति पड़ रही है, (तथा) उनका दु:ख सीमा तक पहुंच गया है। यदि कुछ दिन उसका काम ऐसा ही चलता रहा (तो) हम लोगों का कोई चिन्ह (भी) पृथ्वी पर न रह जायेगा। 

      बड़े आश्चर्य की बात है कि मुट्ठी भर मुसलमान हमारे (इतने) बड़े इस देश पर प्रभुता जमावें। यह प्रबलता (कुछ) पुरुषार्थ के कारण नहीं है। यदि तुझको समझ की आंख हैं तो देख (कि) वह हमारे साथ कैसी धोखे की चालें चलता है, और अपने मुँह पर कैसा – कैसा रंग रंगता है। हमारे पाँवों को हमारी ही सांकलों से जकड़ता है (तथा) हमारे सिरों को हमारी ही तलवारों से काटता है। हम लोगों को (इस समय) हिन्दू, हिन्दुस्थान तथा हिन्दू-धर्म (की रक्षा) के निमित्त अत्यधिक प्रयत्न करना चाहिये। हमको चाहिये कि हम यत्न करें और कोई राय स्थिर करें (तथा) अपने देश के लिये खूब हाथ पाँव मारें। तलवार पर और तदबीर पर पानी दें (अर्थात् उन्हें चमकावें) और तुकों का जवाब तुर्की में (जैसे को तैसा) दें। यदि तू जसवन्तसिंह से मिल जाय और हृदय से उस कपट कलेवर के खंड पड़ जाए (तथा) राणा से भी तू एकता का व्यवहार कर ले तो आशा है कि बड़ा काम निकल जाये। चारों तरफ से धावा करके तुम लोग युद्ध करो। उस सांप के सिर को पत्थर के नीचे दबा लो (कुचल डालो) कि कुछ दिनों तक वह अपने ही परिणाम की सोच में पड़ा रहे (और) दक्षिण – प्रांत की ओर अपना जाल न फैलावे (और) मैं इस ओर भाला चलाने वाले वीरों के साथ इन दोनों बादशाहों का भेजा निकाल डालूं। मेघों की भांति गरजने वाली सेना से मुसलमानों पर तलवार का पानी बरसाऊं। दक्षिण देश के पटल पर से एक सिरे से दूसरे तक इस्लाम का नाम तथा चिन्ह धो डालूं। इसके पश्चात् कार्यदक्ष शूरों तथा भाला चलाने वाले वीरों के साथ लहरें लेती हुई तथा कोलाहल मचाती हुई नदी की भांति दक्षिण के पहाड़ों से निकल कर मैदान में आऊं और अत्यन्त शीघ्र तुम लोगों की सेवा में उपस्थित होऊं और फिर तुम लोगों को हिसाब पूछू, फिर हम लोग चारों ओर से घोर युद्ध उपस्थित कर और लड़ाई का मैदान उसके निमित्त संकीर्ण कर दें। हम लोग अपनी सेनाओं की तरंगों को दिल्ली में उस जर्जरीभूत घर में पहुंचा दें। उसके नाम में न तो औरंग (राजसिंहासन) और न जेब (शोभा) न उसकी अत्याचारी तलवार (रह जाय) और न कपट का जाल। हम लोग शुद्ध रक्त से भरी हुई एक नदी बहा दें (और उससे) अपने पितरों की आत्माओं का तर्पण करें। न्यायपरायण प्राणों के उत्पन्न करने वाले (ईश्वर) की सहायता से हम लोग उसका स्थान पृथ्वी के नीचे (कब्र में) बना दें। यह काम (कुछ) बहुत कठिन नहीं है। (केवल यथोचित) हृदय, हाथ तथा आंख की आवश्यकता है। दो हृदय (यदि) एक हो जायें तो पहाड़ को तोड़ सकते हैं। (तथा) समूह के समूह को तितर बितर कर सकते हैं। इस विषय में मुझको तुझ से बहुत कुछ कहना (सुनना) है, जिसको पत्र में लाना (लिखना) (युक्ति) सम्मत नहीं है। मैं चाहता हूं कि हम लोग परस्पर बातचीत कर लें जिससे कि व्यर्थ में दु:ख और श्रम ना मिले। यदि तू चाहे तो मैं तुझ से साक्षात् बातचीत करने आऊं (और) तेरी बातों को श्रवण गोचर करूं। हम लोग बातरूपी सुन्दरी का मुख एकान्त में खोलें (और) मैं उसके बालों के उलझन पर कंघी फेरूं। यत्न के दामन पर हाथ धर उस उन्मत्त राक्षस पर कोई मन्त्र चलावें। अपने कार्य की सिद्धि (की) ओर कोई रास्ता निकालें (और) दोनों, लोकों (इहलोक और परलोक) में अपना नाम ऊंचा करें। 

      तलवार की शपथ, घोड़े की शपथ, देश की शपथ, तथा धर्म की शपथ करता हूं कि इससे तुझ पर कदापि (कोई) आपत्ति नहीं आयेगी। अफजलखां के परिणाम से तू शंकित मत हो क्योंकि उसमें सच्चाई नहीं थी। बारह सौ बड़े लड़ाके डबशी सवार वह मेरे लिये घात में लगाये हुए था। यदि मैं पहिले ही उस पर हाथ न फेरता तो इस समय यह पत्र तुझको कौन लिखता? (पर) मुझको तुझसे ऐसे काम की आशा नहीं है (क्योंकि) तुझको भी स्वयं मुझसे कोई शत्रुता नहीं है। यदि मैं तेरा उत्तर यथेष्ट पाऊं तो तेरे समक्ष रात्रि को अकेले आऊं। मैं तुझको वे गुप्त पत्र दिखाऊं जोकि मैंने शाइस्ताखां की जेब से निकाल लिये थे। तेरी आंखों पर मैं संशय का जल छिड़ककूं (और) तेरी सुख निद्रा को दूर करूं। तेरे स्वप्न का सच्चा – सच्चा फलादेश करूं (और) उसके पश्चात् तेरा जवाब लूं। यदि यह पत्र तेरे मन के अनुकूल न पड़े तो (फिर) मैं हूं और मेरी काटने वाली तलवार तथा तेरी सेना। कल, जिस समय सूर्य अपना मुंह सन्ध्या में छिपा लेगा उस समय मेरा अर्द्धचन्द्र (खड्ग) म्यान को फेंक देगा (म्यान से निकल आवेगा) बस तेरा भला हो।  ✍🏻 शिवाजी

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क्या आँखें खुल गईं ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

[भारत-चीन युद्ध के समय देश की परिस्थितियों का वर्णन करता एक लेख]

      पिछले दिनों प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में घोषणा की कि “चीन ने हमारी आँखें खोल दीं।” ऐसे भावगर्भ वाक्य महान पुरुषों के मुख से कभी-कभी अचानक निकला करते हैं। सारे राष्ट्र का अपमान हुआ, हजारों जवान बलिदान हुए, करोड़ों का सामान नष्ट हुआ, पर आपकी आँखें खुल गईं।

      कुर्बान जाइए इस अदा पर, किसी की जान गई आपकी अदा ठहरी। यहाँ तो किसी की नहीं हजारों की जान गई। पर साथ ही हम यह नहीं भूल सकते कि आप हजार झुंझलाइये, पर इस अदा में एक शान, एक भोलापन जरूर है। आखिर जहाँ इस भूल की भयंकरता को नहीं भुलाया जा सकता, वहाँ अपनी भूल को इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करने में जो शानदार सादापन है। उसे भी किसी प्रकार किसी कीमत पर नहीं भुलाया जा सकता ? परन्तु प्रश्न तो कुछ और है ? न तो भूल पर झुंझलाने से हमारी समस्या का समाधान होगा न सादगी के गीत गाने से। 

      प्रश्न तो यह है कि क्या हमारी आँखें सचमुच खुल गईं? जहाँ चारों ओर से देश के तन-मन-धन न्यौछावर करने के समाचार आ रहे हैं, वहाँ यह समाचार भी आ रहे हैं, फिर डाक्टर लोग सेना में भरती होने वालों से रिश्वत मांग रहे हैं, व्यापारी लोग जो इस विषय में सबसे बदनाम थे वह वस्तुओं के मूल्य न बढ़ाकर त्याग की तथा देशभक्ति की भावना का परिचय दे रहे हैं पर यह डाक्टर यह निर्लज्जता के अवतार डाक्टर जो देशभक्त नौजवानों से उनके जीवनदान की कीमत वसूल कर रहे हैं, इनका क्या नाम रखियेगा। यह लोग अनपढ़ तो नहीं, सुशिक्षित हैं। शिक्षित नहीं सुशिक्षित हैं। इन्हें यह कुशिक्षा कहाँ से मिली, धर्म के नाम पर मनुष्य डरता था, आज सम्प्रदाय निरपेक्ष शिक्षा की आड़ में जो चरित्र निरपेक्ष शिक्षा मिल रही है उसीके यह दुष्परिणाम हैं : भर्तृहरि ने कहा है :- आहार निद्राभय मैथुनश्च सामान्यमेतत् पशुभिनराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषः। 

      आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह चार वस्तु तो मनुष्य तथा पशु दोनों में एक समान है। विशेषता है तो धर्म की, धर्म जो मैथुन में भी मर्यादा बांधता है। मैथुन मानव राष्ट्र के कल्याण के लिये होना चाहिये। मां, बहन, बेटी के साथ नहीं होना चाहिये। यह धर्म आज धक्के दे दे कर बाहर निकाला जा रहा है। 

      साथ ही राजा का धर्म है दण्ड देना और आवश्यकतानुसार कठोर से कठोर दण्ड देना। परन्तु यहां तो दण्ड के स्थान में धमकियाँ दी जा रही है। रोज कोई न कोई मंत्री कालणा चेतावनी दे छोड़ते हैं। इस संकट के समय बेईमानी करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायगी। जनता प्रतीक्षा में बैठी है कब! पर वह कड़ी कार्रवाई केवल चेतावनी तक परिमित है तभी तो ऐसे डाक्टर मौजूद हैं जो सेना में भरती होने वालों से भी रिश्वत मांगते हैं। इस अवस्था में कैसे मान लें कि हमारी आँखें खुल गई।

      हमारी आँखें खुल गई यह उस दिन माना जायेगा जिस दिन शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण की शिक्षा को उचित स्थान अर्थात् मुख्य स्थान प्राप्त होगा और साथ ही संकटकाल में अपने अधिकार का दुरुपयोग करने वालों को केवल चेतावनी नहीं सचमुच दण्ड दिया जाएगा पर चलो आँखें खुली नहीं तो खुलनी आरम्भ तो हो गई हैं। किसी दिन खुल भी जाएंगी। आर्यसमाज के एक एक बच्चे का धर्म हैं कि इस नेत्रोयोद्घाटन महायज्ञ में पूरे बल से सहयोग दें और जहां कहीं जिस कोने में कोई दुष्ट अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है , उसका प्रजा में भी भाण्डा फोड़ करें तथा अधिकारियों को ठीक-ठीक सूचना भी पहुँचाते रहें। यही ठीक आँखें खोलने का मार्ग है। परम पिता सचमुच हमारी आँखें खोल दें। [आर्य संसार १९६३ से संकलित]

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती (पूर्व : पं० बुद्धदेवजी विद्यालंकार) 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

इतिहास से ऐसी चिढ़ः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

न जाने आर्यसमाज के इतिहास तथा उपलधियों से शासन को तथा आर्यसमाज के पत्रों में लेख लिखने वालों को अकारण चिढ़ है अथवा इन्हें सत्य इतिहास का ज्ञान नहीं अथवा ये लोग जान बूझकर जो मन में आता है लिखते रहते हैं। एक ने यह लिखा है कि महात्मा हंसराज 15 अप्रैल को जन्मे। ऋषि के उपदेश भी उन्हें सुना दिये। दूसरे ने सान्ताक्रुज़ समाज के मासिक में यह नई खोज परोस दी है कि हरिद्वार के कुभ मेले में एक माता के पुत्र को शस्त्रधारी गोरों ने गंगा में फैंक दिया। माता बच्चे को बचाने के लिये नदी में कूद पड़ी। पिता कूदने लगे तो गोरों ने शस्त्र——महर्षि यह देखकर ——-। किसी प्रश्नकर्ता ने इस विषय में प्रकाश डालने को कहा। मैंने तो कभी यह लबी कहानी न सुनी और न पढ़ी। इस पर क्या लिखूँ? श्री धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु ने भी कहा कि मैं यह चटपटी कहानी नहीं जानता। यह कौन से कुभ मेले की है। यह सपादक जी जानते होंगे। लेखक व सपादक जी दोनों ही धन्य हैं। देहलवी जी का हैदराबाद में मुसलमानों से कोई शास्त्रार्थ हुआ, यह नई कहानी गढ़ ली गई है।

स्वराज्य संग्राम में 80% आर्यसमाजी जेलों में गये। यह डॉ. पट्टाभिसीतारमैया के नाम से बार-2 लबे-2 लेखों में लिखा जा रहा है। डॉ. कुशलदेव जी आदि को तो यह प्रमाण मिला नहीं। वह मुझसे पूछते रहे। कोई सुनता नहीं। स्वतन्त्रता दिवस पर सरकारी भाषण व टी. वी. तो आर्यसमाज की उपेक्षा कर ही रहे थे। आर्यसमाजी पत्रों ने भी अनर्थ ही किया। दक्षिण में किसी समाजी ने श्री पं. नरेन्द्र, भाई श्याम जी, श्री नारायण पवार सरीखे परम पराक्रमी क्रान्तिवीरों का, जीवित जलाये गये आर्यवीरों व वीराङ्गनाओं का नाम तक न लिया।