गर्भाधानादि संस्कारों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार

अब द्वितीयाध्याय की समीक्षा की जाती है। द्वितीयाध्याय के प्रारम्भ से लेकर षष्ठाध्याय पर्यन्त गर्भाधानादि वेदोक्त तथा वेदमूलक षोडश संस्कारों का वर्णन है। संस्कार सोलह ही हैं न्यूनाधिक नहीं, इस पर व्यासस्मृति में लिखा है कि-

“गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्त्तन, विवाह, विवाहाग्नि का ग्रहण-[चतुर्थी कर्म वा इसी को गृहाश्रम-संस्कार भी कह सकते हैं।] और त्रेताग्निसंग्रह [इसी का नाम वानप्रस्थ संस्कार भी कह सकते हैं।]” ये सोलह संस्कार शास्त्रकारों ने माने हैं।

इनमें से केशान्त संस्कार अनुमान से एकदेशी प्रतीत होता है, और दशकर्मपद्धति बनाने वाले ने भी केशान्त संस्कार नहीं माना। तथा श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपनी संस्कारविधि में केशान्त संस्कार नहीं लिया। दाढ़ी मूंछ वा बगलों के बनाने का आरम्भ जिस पहले दिन हो उसको केशान्त संस्कार कहते हैं। यदि व्यासस्मृति के “केशान्तः स्नानम्” पदों में विसर्ग को अशुद्ध मानें और यह अर्थ मानें कि जिसमें सब केश मुड़ा दिये जावें, ऐसा स्नान- समावर्त्तन, तो संस्कार सोलह नहीं हो सकते, किन्तु १५ ही रहते हैं, जो कि इष्ट नहीं हैं। तथा मनुस्मृति में केशान्त संस्कार माना है कि- “ब्राह्मण का सोलह वर्ष पर केशान्त हो।” तथा व्याससंहिता की अपेक्षा स्वामी जी ने संन्यास और अन्त्येष्टि दो संस्कार अधिक लिये हैं, इस कारण उनकी संस्कारविधि में सत्रह संस्कार हो जाते हैं। उनमें किसी को किसी के अन्तर्गत करके वा अन्य किसी प्रकार समाधान करना होगा। अर्थात् संस्कार सोलह ही हैं, यह तो सर्वतन्त्र सिद्धान्त से सिद्ध है, इसमें किसी का परस्पर विरोध नहीं है। यद्यपि दशकर्मपद्धति पुस्तक बनाने वाले पण्डितों ने दश ही कर्म कहे हैं, तो भी उन्होंने संस्कारों की सोलह संख्या का खण्डन नहीं किया, किन्तु उपनयन, वेदारम्भ और समावर्त्तनरूप तीन संस्कारों को लौकिक चाल के अनुसार एक ही कर्म माना है, इस कारण दस कहने से बारह तो आ जाते हैं। समय के बिगड़ जाने से वानप्रस्थ और संन्यासधारण तथा अन्त्येष्टिकर्म की प्रवृत्ति नहीं रही, ऐसा मानकर दशकर्मपद्धति में उक्त तीनों संस्कार नहीं रखे। इसलिये उसमें यही न्यूनता है। क्योंकि जिस शुभकर्म की प्रवृत्ति न रही हो वा न्यून हो गयी हो, उसकी विशेष प्रवृत्ति करनी चाहिये। इस प्रकार संस्कार सोलह ही मानने चाहियें, यह सिद्धान्त है।

व्याससंहिता में पढ़े त्रेताग्नि संग्रह शब्द से वानप्रस्थ संस्कार का ग्रहण हो जायेगा। और उसमें संन्यास आश्रम भी आ सकता है, क्योंकि घर से निकल कर विरक्त होना दोनों में तुल्य है। इस प्रकार अन्त्येष्टि नामक एक संस्कार व्याससंहिता से अधिक बचता है, जिसको श्री स्वामी दयानन्दसरस्वती जी ने माना है। उसको संस्कार बुद्धि से मानने में “गर्भाधान से श्मशान पर्यन्त जिसके संस्कार वेद से कहे गये हैं” यह मनुस्मृति का वचन ही प्रमाण है। इस कारण अन्त्येष्टि को संस्कार मानना निर्मूल नहीं है।

इन सोलह संस्कारों में कुछ प्रधान और कुछ गौण हैं। मुख्य संस्कारों का विशेष कर वर्णन है। और गौणों का संक्षेप में। इस प्रकार इस मनुस्मृति के द्वितीयाध्याय के दस श्लोकों में गर्भाधानादि मुण्डन पर्यन्त संस्कारों का वर्णन है। और द्वितीयाध्याय के दो सौ चौदह श्लोकों में केवल यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का वर्णन है। अतः इन दो सौ चौदह श्लोकों में से एक पैंसठवें श्लोक में केशान्त और ६६-६७ में स्त्री के संस्कार विषय में सामान्य कथन है। इस कारण संस्कारों में ये ही दोनों सबसे मुख्य हैं। क्योंकि इन्हीं दोनों संस्कारों के होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज बनते और कहाते हैं। प्राणिमात्र के जगत् में जितने इष्टसिद्धि के प्रयोजन हैं, उन सबमें सुख की प्राप्ति और दुःख के त्याग की इच्छा ही मुख्य प्रयोजन है। इन दोनों की सिद्धि में सर्वोपरि प्रधान साधन विद्या के अभ्यास से अन्तःकरण की शुद्धि करना है। और वह विद्या का अभ्यास ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का यथावत् सेवन करने पूर्वक और गुरु की सेवा-शुश्रूषा पूर्वक आश्रम की समाप्ति पर्यन्त निरन्तर किया हुआ सफल होता है। और वह पुरुष (जिसने पूर्ण विद्याभ्यास कर लिया है) संसार और परमार्थ के सुख भोगने का पात्र बनता है। इस प्रकार सुख का मूल होने से सब आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम प्रधान है। और ब्रह्मचर्य आश्रम के आरम्भसूचक होने से दोनों संस्कारों (यज्ञोपवीत-वेदारम्भ) की प्रधानता है। संस्कार दो प्रकार के हैं- एक- शरीर सम्बन्धी, और द्वितीय- आत्मसम्बन्धी वा अन्तःकरण सम्बन्धी। उनमें यद्यपि अपनी-अपनी अपेक्षा से कहीं-कहीं दोनों प्रधान हैं, तो भी सर्वोत्तम सुख का हेतु होने से आत्मसम्बन्धी संस्कार सर्वोपरि उत्तम है। कारण यह है कि सुख-दुःख का आधार अन्तःकरण है, और दुःख का मूल कारण अज्ञान है, और अन्तःकरण में विद्यारूप छोंक लग जाने से अज्ञान निवृत्त हो जाता है, तभी दुःखों से भी मनुष्य बच सकता है। इस प्रकार आत्मिक संस्कार की सर्वोपरि उत्तमता मानकर द्वितीयाध्याय में साधनों सहित यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का मुख्यकर वर्णन है। इस मानवधर्मशास्त्र के द्वितीयाध्याय में ब्रह्मचर्याश्रम का यथार्थ वर्णन है, सो आगे आवेगा, इस कारण इस विषय में यहां कुछ भी विशेष कथनीय नहीं।

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