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क्या आँखें खुल गईं ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

[भारत-चीन युद्ध के समय देश की परिस्थितियों का वर्णन करता एक लेख]

      पिछले दिनों प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में घोषणा की कि “चीन ने हमारी आँखें खोल दीं।” ऐसे भावगर्भ वाक्य महान पुरुषों के मुख से कभी-कभी अचानक निकला करते हैं। सारे राष्ट्र का अपमान हुआ, हजारों जवान बलिदान हुए, करोड़ों का सामान नष्ट हुआ, पर आपकी आँखें खुल गईं।

      कुर्बान जाइए इस अदा पर, किसी की जान गई आपकी अदा ठहरी। यहाँ तो किसी की नहीं हजारों की जान गई। पर साथ ही हम यह नहीं भूल सकते कि आप हजार झुंझलाइये, पर इस अदा में एक शान, एक भोलापन जरूर है। आखिर जहाँ इस भूल की भयंकरता को नहीं भुलाया जा सकता, वहाँ अपनी भूल को इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करने में जो शानदार सादापन है। उसे भी किसी प्रकार किसी कीमत पर नहीं भुलाया जा सकता ? परन्तु प्रश्न तो कुछ और है ? न तो भूल पर झुंझलाने से हमारी समस्या का समाधान होगा न सादगी के गीत गाने से। 

      प्रश्न तो यह है कि क्या हमारी आँखें सचमुच खुल गईं? जहाँ चारों ओर से देश के तन-मन-धन न्यौछावर करने के समाचार आ रहे हैं, वहाँ यह समाचार भी आ रहे हैं, फिर डाक्टर लोग सेना में भरती होने वालों से रिश्वत मांग रहे हैं, व्यापारी लोग जो इस विषय में सबसे बदनाम थे वह वस्तुओं के मूल्य न बढ़ाकर त्याग की तथा देशभक्ति की भावना का परिचय दे रहे हैं पर यह डाक्टर यह निर्लज्जता के अवतार डाक्टर जो देशभक्त नौजवानों से उनके जीवनदान की कीमत वसूल कर रहे हैं, इनका क्या नाम रखियेगा। यह लोग अनपढ़ तो नहीं, सुशिक्षित हैं। शिक्षित नहीं सुशिक्षित हैं। इन्हें यह कुशिक्षा कहाँ से मिली, धर्म के नाम पर मनुष्य डरता था, आज सम्प्रदाय निरपेक्ष शिक्षा की आड़ में जो चरित्र निरपेक्ष शिक्षा मिल रही है उसीके यह दुष्परिणाम हैं : भर्तृहरि ने कहा है :- आहार निद्राभय मैथुनश्च सामान्यमेतत् पशुभिनराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषः। 

      आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह चार वस्तु तो मनुष्य तथा पशु दोनों में एक समान है। विशेषता है तो धर्म की, धर्म जो मैथुन में भी मर्यादा बांधता है। मैथुन मानव राष्ट्र के कल्याण के लिये होना चाहिये। मां, बहन, बेटी के साथ नहीं होना चाहिये। यह धर्म आज धक्के दे दे कर बाहर निकाला जा रहा है। 

      साथ ही राजा का धर्म है दण्ड देना और आवश्यकतानुसार कठोर से कठोर दण्ड देना। परन्तु यहां तो दण्ड के स्थान में धमकियाँ दी जा रही है। रोज कोई न कोई मंत्री कालणा चेतावनी दे छोड़ते हैं। इस संकट के समय बेईमानी करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायगी। जनता प्रतीक्षा में बैठी है कब! पर वह कड़ी कार्रवाई केवल चेतावनी तक परिमित है तभी तो ऐसे डाक्टर मौजूद हैं जो सेना में भरती होने वालों से भी रिश्वत मांगते हैं। इस अवस्था में कैसे मान लें कि हमारी आँखें खुल गई।

      हमारी आँखें खुल गई यह उस दिन माना जायेगा जिस दिन शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण की शिक्षा को उचित स्थान अर्थात् मुख्य स्थान प्राप्त होगा और साथ ही संकटकाल में अपने अधिकार का दुरुपयोग करने वालों को केवल चेतावनी नहीं सचमुच दण्ड दिया जाएगा पर चलो आँखें खुली नहीं तो खुलनी आरम्भ तो हो गई हैं। किसी दिन खुल भी जाएंगी। आर्यसमाज के एक एक बच्चे का धर्म हैं कि इस नेत्रोयोद्घाटन महायज्ञ में पूरे बल से सहयोग दें और जहां कहीं जिस कोने में कोई दुष्ट अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है , उसका प्रजा में भी भाण्डा फोड़ करें तथा अधिकारियों को ठीक-ठीक सूचना भी पहुँचाते रहें। यही ठीक आँखें खोलने का मार्ग है। परम पिता सचमुच हमारी आँखें खोल दें। [आर्य संसार १९६३ से संकलित]

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती (पूर्व : पं० बुद्धदेवजी विद्यालंकार) 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर

वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.

शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .

उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित  है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.

आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !

हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं  पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.

धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !

धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ?  क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .

जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का  उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने  पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “

जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे  तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “

प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग  के पथिक  का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .

आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .

ऐसी ही घटना का  “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि  एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब  अप्रसान्गिक  हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .

जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द  सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.

धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के  “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग  धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका  प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण  हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि  सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस  धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.

धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .

वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .

धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .

लक्ष्मण जिज्ञासु ( पण्डित लेखराम वैदिक मिशन )

 

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी

साभार :- परोपकारी पत्रिका 1994

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन?

 

कुछ दिन पहले परली बैजनाथ में था, वहाँ यमुनानगर से श्री इन्द्रजित देव का दूरभाष आया, जिसमें सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश द्वारा दिये गये वक्तव्य की चर्चा थी। कल उनके द्वारा भेजी गई समाचार पत्रों की कतरने भी मिलीं, जिनमें अग्निवेश का वक्तव्य तथा पंजाब में उस पर हुई प्रतिक्रिया छपी है। अग्निवेश का यह वक्तव्य भड़काऊ और शान्तिभंग करने वाला है। यह बात उस पर हई प्रतिक्रिया से भली प्रकार जानी जा सकती है।

११ जून के पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ के पृष्ठ १ पर छपे अग्निवेश के वक्तव्य में कहा गया है कि वह आर्यसमाज का मुखिया हैं। और उन्होंने जोर देकर कहा- मुखिया होने के नाते वह वायदा करता है कि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दोबारा छापा जायेगा, इस ग्रन्थ को दोबारा छापने से पूर्व शिरोमणि कमेटी से वांछनीय सझाव मांगे जायेंगे। उसका यह भी कहना है कि सब धर्म महान् और सब ग्रन्थ पवित्र हैं।

इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि कल अग्निवेश पाकिस्तान में मुशर्रफ से मिलने जाये और तोहफे में दिल्ली भेट कर आये तो आप उसे क्या कहेंगे? यह तो उसकी मर्जी है, वह दिल्ली भेंट दे सकता है, परन्तु क्या अग्निवेश के कहने से दिल्ली मुशर्रफ की भेंट हो जायेगी?

सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में दिया गया वक्तव्य इसी कोटि का है।

पहले तो जो व्यक्ति अपने को आर्यसमाज का मुखिया बता रहा है, वह मुखिया है भी? इस व्यक्ति ने अपने जीवन में जो किया, चोर दरवाजे से, उलटे रास्ते किया। दूसरों के द्वारा बुलाये गये सम्मेलनों में जाकर उनका कार्यक्रम बिगाड़ना इस व्यक्ति फितरत रही है।

सभी संस्थाओं में धाँधली करना. चोर दरवाजे से घुसने की कोशिश करना जीवन भर का कार्यक्रम रहा उसी के चलते सार्वदेशिक सभा के भवन में उसने कब्जा कर लिया, ऐसा करके यदि कोई अपने को मुखिया कहे तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। आज समाज और राजनीति में दादा लोग स्वयं ही मुखिया बन जाते हैं, उन्हें कोई मुखिया बनाता नही है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मुखिया को पता नहीं है कि आर्यसमाज के संगठन की वैधानिक स्थिति क्या है, ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में तीन संगठन बनाये और तीन ही संविधान बनाये।

गोकरुणानिधि लिखी तो गोकृष्यादिरक्षणी सभा बनाई, उसके नियम और विधान बनाये, जीवन के अन्तिम दिनों में ऋषि ने परोपकारिणी सभा बनाई और उसका विधान और नियम बनाये।

इस अन्तिम सभा को महाराणा उदयपुर के यहाँ पर पंजीकृत कराया और सभा को अपनी समस्त चल, अचल सम्पत्ति सौंपी तथा अपने ग्रन्थ, यंत्रालय, वस्त्र, रुपये के साथ अपना उत्तराधिकार सौंपा।

इतनी ही नहीं, ऋषि ने अधिकांश ग्रन्थों की रजिस्ट्री भी कराई, जिससे कोई अग्निवेश उनके ग्रन्थों में उलट फेर न कर सके। चूंकि रजिस्ट्री कानूनन पचास साल तक चलता है, अत: अन्य लोग ऋषि ग्रन्थ पचास साल बाद ही छाप सके। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश को किसी तरह का वक्तव्य देने का अधिकार ही नहीं है, परन्तु अग्निवेश को नियम औचित्य की परवाह ही कब है? यह फुंस के ढेर में आग लगाकर तमाशा देखने का आदी है।

यह वक्तव्य गलत है, एक अनधिकृत व्यक्ति के द्वारा दिया गया है, परन्तु लोगों को क्या पता कौन अधिकृत है। और कौन नहीं है? समाज गुटों में बँटा है, मुकदमों में फँसा है, जो चाहे अपने को मुखिया कह सकता है, इसलिए इस गलत वक्तव्य का भी समाज पर गंभीर प्रभाव होना ही था, हो रहा है।

पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ १२ जून के पृष्ठ ३ पर खबर जो बरनाला शहर के हवाले से छपी है, उसमें कहा गया है,

“आर्यसमाज के मुखिया अग्निवेश की ओर से अमृतसर में श्री गुरु अर्जुनदेव की चौथी बलिदान शताब्दी को समर्पित शिरोमणि कमेटी की ओर से कराये गये आर्यसमाज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को दोबारा शोध कर प्रकाशित करने की घोषणा का हार्दिक स्वागत करते हुए गुरु गोविन्द सिंह स्टडी सर्किल युनिट बरनाला के प्रधान प्रि. कर्मसिंह भण्डारी ने कहा कि इस ग्रन्थ का शोधन करते समय केवल गुरु नानक देव जी के बारे में लिखे अपशब्द ही नहीं हटाये जायें अपितु श्री गुरु अर्जुनदेव जी के महावाक्य ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ के अर्थ का बिगाड़ रूप, श्री गोविन्दसिंह जी की ओर सज्जित व खालसा पन्थ के वरदान रूप में दिये ५ ककारों का उड़ाया गया मखौल तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सत्कार प्रति लिखे अपशब्दों के अतिरिक्त भक्त शिरोमणि कबीर जी, दाददयाल, महात्मा बद्ध तथा जैन धर्म की की गई निन्दा के शब्द भी हटाये जायें।”

समाचारों की इन पंक्तियों को पढने के बाद यह समझना इतना कठिन नहीं है कि अग्निवेश ने अपने वक्तव्य से ऋषि दयानन्द को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले ही दिन १२ जून के पंजाबी अखबार दैनिक स्पोक्समेन पृष्ठ ३ पर जालन्धर के हवाले से छपी पंक्तियां गौर करने लायक हैं-

“अमृतसर में अग्निवेश की ओर से सत्यार्थ प्रकाश में संशोधन करने सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए महान् चिन्तक श्री सी.एल. चुम्बर ने इस पुस्तक पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। उन्होंने  कहा कि इस पुस्तक में श्री गुरुनानक देव साहिब के अतिरिक्त भक्त कबीर जी, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों तथा मुसलमानों विरुद्ध काफी कुछ आपत्तिजनक शब्द लिखे गये हैं…। सत्यार्थ प्रकाश सम्बन्धी और विवरण देते हुए श्री चुम्बर ने बताया कि इसमें समाज को जातियों-पॉतियों में बाँटने वाली मनुस्मति के १५० से अधिक सन्दर्भ दर्ज हैं।” |

२६ जून २००६ को आउटलुक पत्रिका ने लिखा- चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील संत कहे जाने वाले स्वामी अग्निवेश ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंचम गुरु अर्जुन देव जी के ४०० वे शहीदो वर्ष को समर्पित एक सेमीनार को संबोधित करते हुए स्वामी अग्निवेश ने यह दावा कर दिया कि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी  के बारे में की गई टिप्पणियों को संशोधित किया जाएगा।

वर्ल्ड कौंसिल ऑफ आर्यसमाज के अध्यक्ष होने के नाते स्वामी अग्निवेश ने पंजाब के राज्यपाल जनरल (सेवा.) एस. एफ. रोड्रिग्स, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एसजीपीसी के मुखिया अवतार सिंह मक्कड बोबी जागीर कौर की मौजूदगी में यह दावा किया कि सत्यार्थ प्रकाश का आगामी संस्करण संशोधित होगा और जिन बातों पर सिख बुद्धिजीवियों को आपत्ति है, उन अंशों को हटा दिया जाएगा।

उसके इस दावे से पंजाब में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, जिसने नई पीढ़ी के सिख युवकों में जिज्ञासा पैदा कर दी है कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी के बार में ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बातें लिखी थी जिन्हें इस वक्त हटाने की जरूरत पड़ गई है? दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के सिखों को शिरोमणि अकाली दल व आर्यसमाज के बीच पुराने विवादों का वह दौर याद आ गया है, जब अकालियों व आर्यसमाजियों के बीच तनातनी के रिश्ते थे |

 

 अग्निवेश को आर्यसमाज के सिद्धान्तों में कोई आस्था नहीं रही। ऋषि में कोई निष्ठा नहीं, उसकी आर्यसमाज को समाप्त करने के लिए विधर्मी और राष्ट्र विरोधी लोगों की ताकत बढ़ाने वाले कार्यकर्ता की छवि है। जो व्यक्ति सब धर्मों को पवित्र और सब धर्म ग्रन्थों को महान् बता रहा है, वही व्यक्ति ऋषि दयानन्द को और सत्यार्थ प्रकाश को गलत साबित कर रहा है। उसकी नजर में वैदिक धर्म महान् नहीं है, सत्यार्थ प्रकाश उसके लिए पवित्र नहीं है।

अग्निवेश का यह कोई आर्यसमाज और दयानन्द को गलत साबित करने का पहला प्रयास नहीं है, व्यक्तिगत रूप से और मंच से ऐसी बातें पहले भी अनेक बार कही गई हैं। परली बैजनाथ में कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श के दौरान दिल्ली सभा के प्रधान श्री राजसिंह ने बताया था कि हवाई जहाज में यात्रा करते हुए सत्यार्थ प्रकाश से १३वें व १४वें समुल्लास को निकालने की चर्चा अग्निवेश ने की थी। आर्यसमाज को सन्ध्या एण्ड हवन कम्पनी कहना इन्हीं लोगों ने शुरू किया था।

पिछले दिनों स्वामी सम्पूर्णानन्द करनाल वालों ने एक प्रसंग सुनाया। जब उड़ीसा में एक पादरी को जिन्दा जलाया गया था, अग्निवेश ने एक यात्रा निकालने की तैयारी की थी। इस व्यक्ति ने स्वामी सम्पूर्णानन्द को यात्रा के लिये निमन्त्रित किया।

उन्होंने कहा- उससे अधिक हिन्दू कश्मीर में मारे गये हैं, उनके लिए यात्रा निकालना पहले आवश्यक है।

अग्निवेश ने कहा ईसाई अल्पसंख्यक हैं, अत: उनका समर्थन जरूरी है।

स्वामी सम्पूर्णानन्द ने कहा- कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका ध्यान रखना अधिक जरूरी है।

इसका उत्तर अग्निवेश के पास नहीं था, क्योंकि समर्थन कमजोर का नहीं ईसाई का करना था। यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि अग्निवेश की सिफारिश पर चर्च ने धर्मबन्धु को २२ लाख रुपये का सहयोग किया था।

इससे अग्निवेश और चर्च के रिश्तों का अनुमान लगाया जा सकता है। अमेरिका वैदिक धर्म का प्रचार करने वालों को राय बहादुर नहीं बनाता, राय बहादुर बनने के लिए उनकी सेवा उनकी शर्तों पर करनी पड़ती है।

इस व्यक्ति की न संगठन में आस्था है, न सिद्धान्त में। इस व्यक्ति ने अपने जीवन में संगठन और सिद्धान्त को जितना तहसनहस किया जा सकता था, उसे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर इस व्यक्ति को जो मिला, उसके पीछे समाज में और संगठन में सिद्धान्तहीन, स्वार्थी, कमजोर लोगों का होना ही मुख्य कारण रहा है। जिस समय इस व्यक्ति ने सार्वदेशिक सभा भवन पर कब्जा किया, उस समय आर्यजनता को दु:ख हुआ, परन्तु जो गये उनको समाज के लोग स्वार्थी और कमजोर मानते थे। समाज के लोग सिद्धान्तहीन होते जाते हैं, तभी दुष्ट लोग नेतृत्व पर काबिज होते हैं।

सार्वदेशिक भवन में बैठकर तथा उससे पहले भी संगठन को विकृत करने के लिए अग्निवेश ने मुसलमान, ईसाइयों को आर्यसमाज का सदस्य बनाने की वकालत की थी। ऐसा करने वालों के बारे में हमें स्पष्ट होना चाहिए जो कि स्वार्थी दष्ट प्रकृति का होता है उसे संस्था, समाज या देश के नुकसान की चिन्ता नहीं होती। यह कहना कि ईसाई मुसलमान रहते हुए वह आर्यसमाजी हो सकता है तो उससे भी आसान है सनातनी रहते हुए आर्यसमाजी रहना। अग्निवेश की नजर में सनातनी, मूर्तिपूजक, पुराणपन्थी का आर्यसमाजी होना रुचिकर नहीं होगा, जबकि वेद विरोधी सिद्धांत

 

विरोधी ईसाई और मुसलमानों का आर्यसमाजी होना उसे सही लगता है। वास्तविकता यह है कि ईसाई, की उपासना करने वाले व्यक्ति को आर्यसमाजी कहना बौद्धिक व्यभिचार व सैद्धान्तिक वेश्यावृत्ति है। या वेश्या, स्त्री के नाते तो एक है, परन्तु अन्तर इतना ही हैं कि एक की एक के साथ निष्ठा है, दूसरा निष्ठा नहीं, उसकी निष्ठा पैसों के साथ है।

ऐसे ही अग्निवेश की निष्ठा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लक्ष्य की पूर्ती में है अतः उसका यह कथन कि कोई मुसलमान, ईसाई, जड़ पूजक, साकार उपासना वाला व्यक्ति हो सकता है, यह केवल बौद्धिक वेश्यावृत्ति है और कुछ नहीं।

इस बात की पुष्टि में एक और प्रसंग उद्धृत करना उचित रहेगा। दिसम्बर मास में नागपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रसंग। गोष्ठी की समाप्ति के दिन सायंकाल भोजन के पश्चात् डॉ. रामप्रकाश और अग्निवेश चर्चा कर रहे थे। अग्निवेश को डॉ. साहब से शिकायत थी।

अग्निवेश ने आचार्य बलदेव जी और आचार्य विजयपाल जी को हवालात पहुचाने का षड्यंत्र रच रखा था, जिसे डॉ. राम प्रकाश जी ने अनुचित मानकर असफल करा दिया। उनका कहना था- उनके जानते-बुझते आर्यसमाज की साधु गलत आरोप में हवालात भेजा जाय, यह कभी संभव नहीं। अग्निवेश से कहा गया- आचार्य बलदेव साधु हैं, उनके विरुद्ध ऐसा मिथ्या आरोप उचित नहीं, तो अग्निवेश का उत्तर था- कोई भी गेरवे कपड़े से क्या साधु हो जाता है? अब कोई बताये कौन साधु है या नहीं- यह प्रमाण-पत्र भी ढोंगी साधु से लेना पड़ेगा?

इससे इस व्यक्ति की मानसिकता का पता चलता है।

पाठको को याद होगा, अग्निवेश डॉट काम पर वर्षों तक वैदिक धर्म और ऋषि विरोधी बातों का प्रचार-प्रसार होता रहा। जब आपत्ति हुई तो मासूम कहता है, ये तो हमारे नाम से किसी ने बना दी है। हर बार अपराध करना और लोगों ने मुझे गलत समझा है- कहकर पीछा छुड़ाना, क्या यह लोगों को बेवकूफ बनाने वाली बात नहीं है? अग्निवेश का सिद्धान्तों और स्वामी दयानन्द से कितना प्रेम है.

इसके उदाहरण रूप में जनसत्ता दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ का निम्न सन्दर्भ पढ़ने लायक है- “मुकदमें में स्वामी अग्निवेश ने मनु को देशद्रोही करार देते हुए उसे समाज का प्रबल शत्रु बताया। उन्होने कहा कि न्यायालय में जात-पाँत और छुआछुत के जन्मदाता मनु की प्रतिमा की स्थापना अन्यायपूर्ण है।” क्या ऐसा व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्मान की रक्षा कर सकता है? अग्निवेश के बारे में सत्यार्थ प्रकाश की एक पंक्ति बड़ी सटीक लगती है

“अन्तः शाक्ता बहिश्शैवा: सभा मध्ये त वैष्णवाः’।

जहाँ तक दूसरे लोगों द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप करने का प्रश्न है, उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि दयानन्द का स्थान किसी समाज सुधारक की तुलना में कम आँकने से ऋषि दयानन्द का कुछ बिगड़ने वाला है, परन्तु यह काम आकलन कर्ता के बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक अवश्य है।

ऋषि दयानन्द ने जो लिखा और जो कहा, छिप कर नहीं कहा, समाज में उन वर्गों में जाकर कहा। उनका उद्देश्य देश और समाज के हित में वास्तविकता का बोध कराना मात्र था, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं। उन्होंने किसी बात को अच्छी लगने पर उसकी प्रशंसा में कोई कमी नहीं छोड़ी।।

सत्यार्थ प्रकाश पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है, क्या पहले लोगों की समझ नहीं थी? मालूम होना चाहिए कि पटियाला नरेश के सामने शास्त्रार्थ के समय यही प्रश्न उठा था। उस समय भी यही उचित समझा गया था कि गुरु भी बड़े हैं स्वामी जी भी बड़े। किसी ने किसी को कुछ कहा-सुना तो उसके लिए अनुयायियों को लड़ना उचित नहीं है।

आज तो नेता बनने के चक्कर में लोग ऐसी बात ढूँढने की कोशिश में रहते हैं, जिससे समाज में विघटन और संघर्ष पैदा हो और उनको नेतागिरी करने का मौका मिले। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सिक्खों में बहुत लोग आर्यसमाजी थे, क्या वे गुरुओं का महत्त्व नहीं मानते थे या शहीद भगतसिंह के पिता, चाचा को सत्यार्थ प्रकाश समझ में नहीं आता था? जब तब आपत्ति नहीं हुई तो आज क्यों होनी चाहिए?

जो व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश से आपत्तिजनक वक्तव्य हटाने की बात कर सकता है, क्या वह कुरान की उन आयतों को जिसे न्यायालय ने भी आपत्तिजनक माना है, उन्हें हटाना तो दूर हटाने की सिफारिश भी कर सकता है या नहीं, क्योंकि उसकी नजर में इस्लाम महान् धर्म है और कुरान पवित्र धर्म पुस्तक है। यहाँ वह उनका वकील है। ईसाइयों द्वारा देश में किये जा रहे षड्यन्त्रों की वह वकालत करता है, क्योंकि राजनीति में स्थान चाहिए।

क्या गुरु गोविन्दसिंह के शब्दों को वह पुस्तक से निकलवा सकता है, जिनमें तुर्क को गो-ब्राह्मण घातक कहकर उनके नाश की प्रतिज्ञा की है

जगे धर्म हिन्दू सकल धुन्ध भाजे

 

स्वास्तिक चिह्र (ओम् का प्राचीनतम रुप) :- श्री विरजानन्द देवकरणी जी

ओ३म्

स्वास्तिक चिह्र

(ओम् का प्राचीनतम रुप)

भारत की धार्मिक परम्परा में स्वस्तिक चिह्र का अड़क्न अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है । भारत के प्राचीन सिक्कों, मोहरों, बर्तनों, और भवनों पर यह चिह्र बहुशः और बहुधा पाया जाता है । भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थल मोहनजोदडो, हडप्पा और लोथल की खुदाइयों में वामावर्त swastik  स्वस्तिक चिह्र से युक्त मोहरें मिली हैं, प्रमाण के लिए पुस्तक के अन्त में प्राचीन मोहरों के चित्र देखे जा सकते हैं ।

इनसे अतिरिक्त भारत की प्राचीन कार्षापण मुद्राएं, ढली हुई ताम्र मुद्रा, अयोध्या, अर्जुनायनगण, एरण, काड, यौधेय, कुणिन्दगण, कौशाम्बी, तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी, अहिच्छत्रा तथा अगरोहा की मुद्रा, प्राचीनमूर्ति, बर्तन,  मणके, पूजापात्र (यज्ञकुण्ड), चम्मच, आभूषण और और शस्त्रास्त्र पर भी स्वस्तिक चिह्र बने हुये पाये गये हैं । मौर्य एवं शुंगकालीन प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री पर स्वस्तिक चिह्र बहुलता से देखे गये हैं । जापान से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति के वक्षः स्थल पर स्वस्तिक चिह्र चित्रित है । वर्तमान में भी भारतीय जनजीवन में इस चिह्र का प्रचलन सर्वत्र दिखाई देता है । घर, मन्दिर, मोटरगाडी आदि अनेक प्रकार के वाहनों पर इस चिह्र को आप प्रतिदिन देखते हैं । हिटलर ने भी इसी चिह्र को अपनाया था ।

भारत से बाहर से भी चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत बेबिलोनिया, आस्टिया, चाल्डिया, पर्सिया, फिनीसिया, आर्मीनिया, लिकोनिया, यूनान, मिश्र, साइप्रस, इटली, आयरलैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम, अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको, अफ्रीका, वेनेजुएला, असीरिया, मैसोपोटामिया, रूस स्विटजरलैण्ड, फ्रांस, पेरू, कोलम्बिया, आदि देशों के प्राचीन अवशेषों पर स्वस्तिक चिह्र अनेक रूपों में बना मिला है ।

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि इतने विस्तृत भूभाग में और बहुत अघिक मा़त्रा में पाये जाने वाले इस स्वस्तिक चिह्र का वास्तिवक स्वरूप क्या है

इस विषय मे पर्याप्त उहापोह, विचारविमर्श, तर्कवितर्क तथा गहन अन्वेषण के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि यह स्वस्तिक चिह्र भारत की ज्ञात और प्राचीन लिपि ब्राह्री लिपि में लिखे दो ‘ओम्’ पदों का समूह है, जिसे कलात्मक ढगं से लिखा गया है । इस चिह्र का वैशिष्टय यह है कि इसे चारों दिशाओं से ‘ओम्’ पढा जा सकता है ।

प्राचीन भारत की चौंसठ लिपियों में से एक ब्राह्री लिपि भी है । इस लिपि में ‘ओम्’ अथवा ‘ओं’ को लिखने का रूप इस प्रकार था-

1= ओ । 2=म् ।  ( • ) अनुस्वार । इनको जोडकर3यह रूप बनता है । इसमें1= ओ और2= म् तथा ( • ) अनुस्वार को मिलाकर दिखाया गया है । इसी ओम् पद को द्धित्व = दोवार करके कलात्मक ढंग से लिखा जाये तो इसका रूप् निम्रलिखित प्रकार से होगा—4

सं०  १ के प्रकारवाला ओम् आर्जुनायनगण और उज्जयिनी की मुद्राओं पर जाता है । देखें पृष्ठ २० । संख्या २ के प्रकारवाला ओं (स्वस्तिक) तथा 5 यह दक्षिणावर्तीरूप आजकल सारे भारतवर्ष में देखने को मिलता है । सहस्ञों वषों के कालान्तर में लिपि की अज्ञानतावश लेखकों ने इसे वामावर्त से दक्षिणावर्त में परिवर्तित कर दिया । इसे कलाकार के १५% स्वस्तिक चिह्र वामावर्ती ही मिलते हैं । दक्षिणावर्ती स्वस्तिक के उदाहरण स्वल्प ही उपलब्घ हुऐ हैं ।

जैसे – जैसे सामान्य लिपि के लिखने में परिवर्तन होता गया, वैसे – वैसे अन्य प्रचलित सर्वसाघारण लेखात्मक रूप बदलते गये, परन्तु जनमानस में गहरे पैठे हुऐ ओम् जैसे पद ज्यों के त्यों बने रहे । इन्हें धार्मिकता की पुट दे दी गई और ये  सहस्ञों वषों से उसी प्राचीन रूप के अनुसार चलते आ रहे हैं । जैसे आजकल ऊँ यह ओम् प्रचलित है, ५ वीं शती ईसवी से १४ वीं शती ईसवी तक इसके निम्र रूप परिवर्तित होते रहे हैं

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आजकल का यह ऊँ (ओम्) भी इन्हीं का परिवर्तित रूप है । इसे कुछ अज्ञानी लोग पौराणिक ओम् कहते हैं तथा ‘ओ३म्’ को आर्यसामाजिक ओम् मानते हैं । यह लिपि का भेद है । सामान्य लोग अभी तक हजार वर्ष पुराने ऊँ (ओम्) को ही लिखते आ रहे हैं, जबकि ओ३म् अथवा ओम् लिखनेवालों ने इसी ऊँ को वर्तमानकालीन प्रचलित लिपि में लिखा हुआ है । जैसे अब विभिन्न लिपियों मे ओम् इस प्रकार लिखते हैं—

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इसी प्रकार ऊँ और ओम् में कालक्रमवशात् लिपिमात्र का भेद है, मतमतान्तर जनित भेद नहीं है । जैसे  9इस वामावर्ती ओम् के रूप को अज्ञानतावश बदलकर    10   यह दक्षिणावर्ती रूप दे दिया तथा कहीं-कहीं इसके अनुस्वार को भी हटा दिया गया, उसी प्रकार आजकल कहीं – कहीं गाडीं, घर द्धार पर दोनों ओर लिखते समय ऊँ 11 इस रूप में भी लिख देते है । यही रूप स्वास्तिक चिह्ररूपी ओम् को भी दोनों प्रकार से लिखने में अपना लिया गया था ।

कुछ लोगों की यह भ्रान्तधारणा है कि स्वास्तिक चिह्र को  13 इस प्रकार दक्षिणावर्ती रूप में ही लिखना चाहिए, क्योकि यह धार्मिक चिह्र है, इसे दाहिने हाथ की ओर मुख किये हुए होना चाहिए, वामावर्ती अशुभ होता है इत्यादि । इस प्रकार के विचारवाले लोगो की सेवा में निवदन है कि यह वाम दक्षिण का भेद कोरौं कल्पना है, इसका सम्बन्ध शुभाशुभ रूप से नहीं है। लिखावट में भी वामावर्ती रूप ही आर्यशैली की लिपियों में अपनाया जाता है । दाहिने हाथ की ओेर से आरम्भ करके तो असुरदेशों की लिपि लिखी जाती है, जैसे खरोष्ठी, उर्दूभाषा की अरबी, फारसी लिपियाँ तथा सिन्धी लिपि आदि।

इस स्वस्तिक ओम् का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि शेरशाह सूरी, इसलामशाहसूरी, इबराहिमशाह सूरी तथा एक मुगल शासक ने भी अपनी मुद्राओं पर इस चिह्र को चिह्रित किया था। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह के समकालीन पाली के शासक हेमराज की मुद्राओं पर भी यह चिह्र पाया जाता है।

प्राचीन भारत के अनेक शिलालेख, ताम्रपत्र तथा पाण्डुलिपियों के आरम्भ में भी “ओम् स्वस्ति” पद लिखा रहता है, तथा भारतीय सस्कारों में यज्ञ के पश्चात् यज्ञमान को तीन वार “ओम् स्वस्ति, ओम् स्वस्ति, ओम् स्वस्ति”, कहकर आर्शीर्वाद देने की परम्परा प्रचलित है। ऐसे स्थलों में ओम् को कल्याणकर्ता के रूप् में मानकर उससे कल्याण की कामना की जाती है। इसमें ओम् और स्वस्ति परस्पर इतने घुलमिल गये हैं कि एकत्व-द्धित्व के भेद का आभास ही नहीं मिल पाता। इसलिए धार्मिक कृत्यों में ‘ओं स्वस्ति’ का अभिप्राय कल्याणकारक ओम् परमात्मा का स्मरण करना है अथवा ओम् परमात्मा हमारा कल्याण (स्वस्ति) करें, यही भाव लिया जाता है।

महर्षि यास्काचार्य निरूत्क में लिखते हैं—

स्वस्ति इत्यविनाशिनाम।

अस्तिरभिपूजितः स्वस्तीति।

— निरूक्त ३.२०

स्वस्ति यह अविनाशी का नाम है । जगत् में तीन पदार्थ अविनाशी होते हैं — प्रकृति, जीव, ईश्वर। प्रकृति जड होने से जीव का कल्याण स्वयं नहीं कर सकती। जीव स्वयं अपने लिये कल्याण की कामना करनेवाला है, वह कल्याणस्वरूप नहीं है ।     अप्राप्यपदार्थ अन्य से ही लिया जाता है। अत: परिशष्ट न्याय से साक्षात् कल्याण करनेवाला और स्वंय कल्याणस्वरूप् ईश्वर ही सिद्ध होता है, इसलिए स्वस्ति नाम र्हश्वर का=ओम् का ही है। इसीलिए प्राचीन आर्य प्रत्येक शुभकार्य के आरम्भ में स्वस्तिद परमेशवर का स्मरण मौखिक तथा लिखित रूप् में किया करते थे । वही लिखित ओम् स्वस्ति शनैः – शनैः धार्मिक चिह्र के रूप में स्मरण रह गया और लिपि के रूप में विस्म्त होता चला गया। ईश्वर हामारा कल्याण करता है, हमें सुखी करता है, स्वस्थ रखता है, इसी प्रकार के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए यह ओम् पद स्वस्तिक चिह्र के रूप में परिवर्तित हो गया । यह ईश्वर के नाम का प्रतीक है। भारतवर्ष में आजकल स्वस्तिक के प्रायः पाँच रूप प्रचलित हैं। यथा—

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भारतीय संस्कृति और सभ्यता ५००० वर्ष पूर्व तक सारे विश्व में फैली हुई थी, इसीलिए अनेक अन्य पुरावशेषों के साथ स्वस्तिक चिह्र भी सारे संसार में अनेक रूपों में पाया गया है तथा अनेक स्थानों पर अघावधि भी इसका प्रचलन दृष्टिगोचर होता है। विश्व में स्वस्तिक चिह्र के विभित्र रूप् इस प्रकार से मिले हैं—

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संख्या १० से १३ में यह ० वृत्त ओम् के अनुस्वार             (•) अथवा मकार (म्) का प्रतीक है।

इस स्वस्तिक चिह्र का सबसे बडा वैशिष्टय यह है कि इसे चारों ओर से देखने पर भी यह प्रचीन ब्राहा्री लिपि मे लिखा ‘ओम्’ ही दिखाई देता है। यह ईश्वर की सर्वव्यापकता को सिद्ध करने का सुन्दर और अनुपम प्रतीक है।

पाञ्चल प्रदेश के शासक महाराज द्रुपद और गुरू द्रोणाचार्य की राजघानी अहिच्छत्रा (बरेली) से गले का एक ऐसा आभूषण मिला है जिसपर मध्यभाग में वर्तुल के बीच ब्राहा्री लिपि का  1= ओ बना है तथा इसके चारों ओर वृत्त के बाहर    2 = म् बने हैं, यह भी स्वस्तिरूपी ओम् लिखने का एक अ़द्धत उदाहरण है। यह ओम् इस प्रकार लिखा है —

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१                              २                            ३

इसे आजकल की देवनागरी और रोमन लिपि में इस प्रकार लिख सकते हैं

ओम् = OM

उपर्युक्त संक्षिप्त वर्णन से यह सुतरां सिद्ध है कि स्वस्तिकरूपी ओम् का चिह्र विश्व के विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित रहा है, और भारत में तो आज भी सर्वत्र इसका प्रयोग हो रहा है, परन्तु इसे लिखने और प्रयोग करनेवाले इस रहस्य से सर्वथा ही अनभिज्ञ हैं कि यह चिह्र कभी ओम् का प्राचीनतम रूप् रहा है।

स्वस्तिक चिह्र की प्राचीनता दर्शाने के लिए भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से प्राप्त अनेक मुद्राङको (मोहरों) के चित्र आगे दिये जा रहे हैं, जिन्हें देख कर पाठक इसके विविधरूपों को सुगमता से समझ सकते हैं।

—विरजानन्द देवकरणी

इसके अंग्रेजी अनुवाद के लिए यहाँ जाए

The Swastik Symbol : Shri Virjanand Devkarni (translate by :Vinita Arya)

प्रार्थना: – नाथूराम शर्मा ‘शङ्कर’

।।१।।

द्विज वेद पढ़ें, सुविचार बढ़ें, बल पाय चढें़, सब ऊपर को,

अविरुद्ध रहें, ऋजु पन्थ गहें, परिवार कहें, वसुधा-भर को,

धु्रव धर्म धरें, पर दु:ख हरें, तन त्याग तरें, भव-सागर को,

दिन फेर पिता, वरदे सविता, करदे कविता, कवि शंकर को।

।।२।।

विदुषी उपजें, क्षमता न तजें, व्रत धार भजें, सुकृती वर को,

सधवा सुधरें, विधवा उबरें, सकलंक करें, न किसी घर को,

दुहिता न बिकें, कुटनी न टिकें, कुलबोर छिकें, तरसें दर को,

दिन फेर पिता, वरदे सविता, करदे कविता, कवि शंकर को।

।।३।।

नृपनीति जगे, न अनीति ठगे, भ्रम-भूत लगे, न प्रजाधर को,

झगड़े न मचें, खल-खर्ब लचें, मद से न रचें, भट संगर को,

सुरभी न कटें, न अनाज घटें, सुख-भोग डटें, डपटें डर को,

दिन फेर पिता, वरदे सविता, करदे कविता, कवि शंकर को।

।।४।।

महिमा उमड़े, लघुता न लड़े, जड़ता जकड़े, न चराचर को,

शठता सटके, मुदिता मटके, प्रतिभा भटके न समादर को,

विकसे विमला, शुभ कर्म-कला, पकड़े कमला, श्रम के कर को,

दिन फेर पिता, वरदे सविता, करदे कविता, कवि शंकर को।

।।५।।

मत-जाल जलें, छलिया न छलें, कुल फूल फलें, तज मत्सर को,

अघ दम्भ दबें, न प्रपंच फबें, गुरु मान नबें, न निरक्षर को,

सुमरें जप से, निखरें तप से, सुर-पादप से, तुझ अक्षर को,

दिन फेर पिता, वरदे सविता, करदे कविता, कवि शंकर को।

हिन्दू जाति के रोग का वास्तविक कारण क्या है? -भाई परमानन्द

उच्च सिद्धान्त तथा उसके मानने वालों का ‘आचरण’-ये दो विभिन्न बातें हैं। मनुष्य की उन्नति और सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके सिद्धान्त और आचरण में कहाँ तक समता पाई जाती है। जब तक यह समता रहती है, वह उन्नति करता है, जब मनुष्य के सिद्धान्त और आचरण में विषमता की खाई गहरी हो जाती है, तब अवनति आरम्भ हो जाती है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि उसका लक्ष्य सदा ऊँचे सिद्धान्तों पर रहता है, परन्तु जब तक उसके आचरण में दृढ़ता नहीं होती, वह उन (सिद्धान्तों) की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है, परन्तु संसार को वह यही दिखाना चाहता है कि उन सिद्धान्तों का पालन कर रहा है। इस प्रकार मानव समाज में एक बड़ा रोग उत्पन्न हो जाता है। धार्मिक परिभाषा में इसे ही ‘पाखंड’ कहते हैं। जब कोई जाति या राष्ट्र इस रोग से घिर जाता है तो उसकी उन्नति के सब द्वार बन्द हो जाते हैं और उसके पतन को रोकना असाध्य रोग-सा असम्भव हो जाता है।

हमारे देश में एक प्राचीन प्रथा थी कि जब कोई व्यक्ति ‘उपनिषद्’ आदि उच्च विज्ञान का जिज्ञासु होता था, तो पहले उसके ‘अधिकारी’ होने का निश्चय किया जाता था। ‘अधिकारी’ का प्रश्र बड़ा आवश्यक और पवित्र है। कई बार इसे तुच्छ-सी बात समझा जाता है, परन्तु यदि ध्यान से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि ‘अधिकारी’ ‘अनधिकारी’ का प्रश्र प्राकृतिक सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल है। एक बच्चा चार बरस का है। उसको अपने साथी की साधारण-सी चेष्टायें की बड़ी मधुर अनुभव होती हैं। इनकी विचारशक्ति परस्पर समान है, इसलिये वे परस्पर मिलना और बातें करना चाहते हैं। गेंद को एक स्थान से उठाया और दूसरे स्थान पर फैं क दिया। यह काम उन्हें बहुत वीरतापूर्ण प्रतीत होता है। दो-चार बरस पश्चात् इसी गेेंद जैसी तुच्छ बातों से उनकी रुचि हट जाती है। अब वे रेत या पत्थरों के छोटे-छोटे मकान बनाने में रुचि दिखाते हैं, ठीकरों और कंकरों से वे खेलना चाहते हैं। और ऐसे खेलों में वे इतने लीन रहते हैं कि घर और माँ-बाप का ध्यान उन्हें नहीं रहता। फिर कुछ बरस पश्चात् उनकी रुचि शारीरिक खेलों की ओर हो जाती है और पुराने खेलों को अब वे बेहूदा बताने लगते हैं।। युवावस्था में उन्हें गृहस्थ की समझ उत्पन्न हो जाती है और अब सांसारिक कार्यों में उलझ जाते हैं। धीरे-धीरे उनके मन में इस संसार से विराग और धर्म में प्रवृत्ति का आविर्भाव होता है और त्याग व बलिदान के सिद्धान्तों को समझने की शक्ति उत्पन्न होती है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक सिद्धान्त को समझने के लिये ‘अधिकारी’ होना आवश्यक है। आज की किसी भी सभा में-चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक, ९० प्रतिेशत श्रोताओं को वक्ता की बातों में रस नहीं आता। बच्चों या बच्चों के से स्वभाव वाले बड़े-बूढ़ों को भी वही बात पसन्द आती है, जिस पर लोग हँसें या तालियाँ पीट दें, अतएव अनधिकारी के सन्मुख ऊँचे सिद्धान्तों का वर्णन करना भी प्राय: हानिकारक होता है।

जब किसी जाति या राष्ट्र में उन्नति की अभिलाषा उत्पन्न हो तो इसको कार्य रूप में परिणत करने का प्रथम आवश्यक साधन उसके व्यक्तियों के आचरण की दृढ़ता है। चरित्र जितना अधिक उच्च और भला होगा, उतनी ही शीघ्रता से उच्च और भले विचार बद्धमूल होंगे। ‘चरित्र’ के खेत को भली भाँति तैयार किये बिना उच्च विचार रूपी बीज बिखेरना, ऊसर भूमि में बीज फैं कने के समान ही व्यर्थ होगा। उच्च विचारों की शिक्षा देने के साथ-साथ आचरण और चरित्र को ऊँचा रखने का विचार अवश्य होना चाहिये, अन्यथा चरित्र के भ्रष्ट होने के साथ-साथ यदि उच्च विचारों की बातें ही रहीं तो ‘पाखंड’ का भयानक रोग लग जाना स्वाभाविक हो जायेगा।

यह पाख्ंाड हिन्दुओं में कै से उत्पन्न हुआ और किस प्रकार भीतर-ही-भीतर दीमक की भाँति यह हिन्दू समाज को खोखला कर रहा है-यह बात में यहाँ दो-तीन उदाहरणों से स्पष्ट करता हँू। ‘तपस्या’ का अर्थ आजकल की भाषा में नियन्त्रित किया जा सकता है, लेकिन जिस युग में हिन्दू जाति के पुरुषों ने ‘तपस्या’ को जीवन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, वे इसके महत्त्व को जानते हुए यह भी समझते थे कि जिन लोगों को इसका उपदेश दिया जा रहा है, वे भी इसके महत्त्व को समझते हैं और इन्द्रिय दमन व मन के वशीकरण को आचरण में लाना ‘तपस्या’ का लक्ष्य समझते हैं। समय आया कि जब लोग इस तप को कुछ से कुछ समझने लगे और अब तप इसलिये नहीं किया जाता कि अपने मन को वश में करना है, अपितु इसलिये कि संसार को दिखा सकें कि हम ‘बड़े तपस्वी’ हैं। आग की धूनी लगाकर बैठ गये। कभी एक हाथ ऊँचा उठा लिया, कभी दूसरा और लोगों में प्रसिद्ध कर दिया कि हम बड़े तपस्वी हैं। ‘तप’ सिद्धान्त रूप में बहुत ऊँचा सिद्धान्त है, परन्तु यह जिन लोगों के लिये है, उनका आचरण गिर गया। ‘सिद्धान्त’ और ‘आचरण’ में विषमता होने के कारण पाखण्ड आरम्भ हो गया और आज हजारों-लाखों स्त्री-पुरुष इस पाखंड के शिकार हैं। ‘त्याग’ को ही लीजिये। ‘त्याग’ के उच्च सिद्धान्त पर आचरण करने के स्थान पर आज लाखों व्यक्तियों ने इसलिये घर-बार छोड़ रखा है कि वे गृहस्थ-जीवन की कठिनाइयों को सहन नहीं कर सकते। वे त्यागियों का बाना धारण कर दूसरों को ठगने का  काम कर रहे हैं। कितनों ही ने न केवल सांसारिक इच्छाओं का त्याग नहीं किया, अपितु इनकी पूर्ति के लिये प्रत्येक अनुचित उपाय का सहारा किया है। जाति की पतितावस्था में ‘त्याग’ का ऊँचा आदर्श एक भारी पाखंड के रूप में रहता है।

देश के लिये बलिदान का आदर्श भी उच्च आदर्श है, परन्तु यदि देशभक्त कहलाने वाले व्यक्ति इसके सिद्धान्त के आचरण में इतने गिर जायें कि वे अपने से भिन्न व विरुद्ध सम्मति रखने वाले व्यक्ति को सम्मति प्रगट करने की स्वतन्त्रता भी न दें, ऐसी देशभक्ति एक प्रकार से व्यवसाय रूपी देशभक्ति है। कई बार ये लोग रुपया उड़ा लेते हैं और फिर इस बात का प्रचार करते हैं कि संसार में कोई भी व्यक्ति रुपये के लालच से नहीं बच सकता, इसलिये जो व्यक्ति इनसे असहमत रहता हो, उसे भी वे अपने ही समान रुपये के लालच में फँसा हुआ बताते हैं। ऐसी अवस्था में देशभक्ति की भावना एक पाखंड का रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार अनाथालय, विधवा आश्रम आदि सब परोपकार और सर्व साधारण की भलाई के कार्यों के नाम पर आज जो रुपया एकत्र होता है, वह सब चरित्र-बल न होने के कारण धोखे की टट्टी बने हुए हैं। ‘निर्वाण’ या ‘मुक्ति’ प्राप्त करने की भावना भी उच्च आदर्श है, परन्तु आज चरित्र-बल न होने से चरित्रहीन व्यक्तियों ने इसी ‘निर्वाण’ और ‘मुक्ति’ के नाम पर सैकड़ों अड्डे बना रखे हैं और लाखों नर-नारी इनके फंदे में फँस कर भी गर्व करते हैं।

यदि मुझसे कोई पूछे कि हिन्दू जाति की निर्बलता और उसके पतन का वास्तविक कारण क्या है? तो मेरा एक ही उत्तर होगा कि इस रोग का वास्तविक कारण यह ढोंग है। हिन्दुओं में प्रचलित इस ‘ढोंग’ से यह भी प्रमाणित होता है कि किसी युग में हिन्दू जाति का चरित्र और आचरण बहुत ऊँचा था और इसीलिये उन्हें ऊँचे आदर्श की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु पीछे से घटना क्रम के वश हिन्दू जाति का आचरण गिरता गया और ‘सिद्धान्त’ शास्त्रों में सुरक्षित रहने के कारण ऊँचे ही बने रहे। व्यक्ति इन सिद्धान्तों के अनुकूल आचरण न रख सके, फिर भी उनकी यह इच्छा बनी रही कि संसार यह समझे कि उनका जीवन उन्हीं ऊँचे आदर्शों के अनुसार है। इस प्रकार ‘सिद्धान्त और आचरण’ अथवा ‘आदर्श’ और ‘चरित्र’ में विभिन्नता हो जाने के कारण ‘दिखावा’ या ‘ढोंग’ का रोग लग गया। इस समय यह ‘ढोंग’ दीमक के समान जाति की जड़ों में लगा हुआ है। इस जाति के उत्थान का यत्न करने की इच्छा रखने वाले के लिये आवश्यक है कि वह पहले इस ‘पाखंड वृत्ति’ को निकाल फैंके। यदि हम अपने आचरण या चरित्र को ऊँचा नहीं बना सकते तो उच्च आदर्शों का लोभ त्याग कर अपने आचरणों के अनुसार ही आदर्श को अपना लक्ष्य बनायें।

आर्य समाज और राजनीति: – भाई परमानन्द

मैंने पिछले ‘हिन्दू’ साप्ताहिक में यह बताने का प्रयत्न किया था कि यदि आर्यसमाज को एक धार्मिक संस्था मान लिया जाये, तब भी आर्यसमाज के नेताओं को उसके उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए यह निर्णय करना होगा कि उनका सम्बन्ध हिन्दू सभा से रहेगा या कांग्रेस की हिन्दू विरोधी राष्ट्रीयता से? इस कल्पित सिद्धान्त को दूर रखकर इस लेख में यह बताने का प्रयत्न करूँगा कि क्या आर्य समाज कोरी धार्मिक संस्था है या उसका राजनीति के साथ गहरा सम्बन्ध और उसका एक विशेष राजनीति आदर्श है।

इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करने वाली, जैसा मैं कह चुका हूँ, स्वयं सरकार थी। उसके सामने पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा उसकी पुष्टि का दृष्टिकोण हो ही नहीं सकता था। उसके सामने सबसे बड़ा उद्देश्य यही था और उसका सारा आन्दोलन इसी आधार पर किया जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग होने से उसे किस प्रकार के राजनीतिक अधिकार मिल सकते हैं और उनको प्राप्त करने के लिये कौन-से साधन काम में लाये जाने आवश्यक हैं? कांग्रेस के पूर्व भारत में जो राजनीतिक आन्दोलन चलाये गये, वे गुप्त रूप से चलते थे और उनका उद्देश्य देश को इंग्लैण्ड के बन्धन से मुक्त करना था। कांग्रेस स्थापित करने का उद्देश्य इस प्रकार के गुप्त आन्दोलनों को रोकना और देश की राजनीतिक रुझान रखने वाली संस्थाओं को एक नया मार्ग बताना था। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे लिए राजनीति के दो भेद हो गये। एक तो बिल्कुल पुराना था, जिसका उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्त करके हिन्दुस्तान में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करना था। दूसरा वह था, जिसका आरम्भ कांग्रेस से हुआ और जिसकी चलाई हुई राजनीति को वर्तमान राजनीति कहा जाता है।

राजनीति के इन दो भेदों को पृथक्-पृथक् रखकर हमें इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है कि आर्यसमाज का इन दोनों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध था। इस प्रश्न पर विचार करने के लिए मंै उन आर्य समाजियों से अपील करूँगा, जिनका सम्बन्ध आर्यसमाज से पुराना है। दु:ख है इस प्रश्न पर कि वे नवयुवक, जो कांग्रेस के जोर-शोर के जमाने में आर्यसमाज में शामिल हुए हैं, विचार करने की योग्यता नहीं रखते। जहाँ तक मैं जानता हूँ, बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक आर्यसमाजी यह समझते थे कि उनका आन्दोलन केवल धार्मिक सुधार ही नहीं कर सकता, वरन् उसके द्वारा देश को उठाया जा सकता है। उनकी दृष्टि में कांग्रेस का कोई महत्त्व ही न था। कांग्रेस केवल प्रतिवर्ष बड़े दिनों की छुट्टियों में किसी बड़े शहर में अपनी कुछ माँगे लेकर उनके सम्बन्ध में कुछ प्रस्ताव पास कर लिया करती थी। उसके द्वारा जनता में राजनीतिक अधिकारों की चर्चा अवश्य होती थी, परन्तु इससे बढक़र किसी भी कांग्रेसी से देशभक्ति अथवा त्याग की आशा नहीं की जा सकती थी। सन् १९०१ ई. में कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ। उसके प्रधान बम्बई के वकील चन्द्राधरकर थे। उन्हें लाहौर में ही वह तार मिला कि वह बम्बई हाईकोर्ट के जज बना दिये गये हैं। कांग्रेस के मुकाबले में आर्यसमाजी समझते थे कि धर्म और देश के लिए प्रत्येक प्रकार का बलिदान करना उनका कत्र्तव्य है। आर्यसमाज में स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का खुलमखुला प्रचार किया जाता था। सन् १८९२ में राय मूलराज एक मासिक पत्र ‘स्वदेशी वस्तु प्रचारक’ निकाला करते थे। आरम्भ से ही आर्यसमाज में एक गीत गाया जाता था, जिसकी टेक थी-

‘अगर देश-उपदेश, हमें ना जगाता।

तो देश-उन्नति का, किसे ध्यान आता।।’

भजनीक अमीचन्द की ये पंक्तियाँ सन् १८९० के लगभग की है। आर्यसमाजी इस बात को बड़े गर्व से याद करते थे कि किसी समय में आर्यों का ही सारे संसार में राज्य था। स्वामी दयानन्द ने अपनी छोटी-सी पुस्तक ‘आर्याभिविनय’ में वेद-मन्त्रों द्वारा ईश्वर से प्रार्थना की है कि हमें चक्रवर्ती राज्य प्राप्त हो। स्वामी जी का ‘सत्यार्थ प्रकाश’ देखिये, उसमें मनुस्मृति के आधार पर आर्यों के राजनीतिक आदर्श बताते हुए लिखा है कि आर्यों का राज्यप्रबन्ध किस लाईन पर हो और उसके चलाने के लिए कौन-कौन सी सभायें हों? मुझे प्रसन्नता है कि आर्यसमाज में अब भी ऐसे व्यक्ति उपस्थित हैं, जो अपने इस आदर्श को भूले नहीं हैं और यदि मैं गलती नहीं करता तो वे इसे स्थापित रखने के लिए राजार्य सभा के नाम से आर्यों की एक राजनीतिक संस्था स्थापित कर रहे है। मैं समझता हूँ कि कोई भी पुराना आर्यसमाजी इस वास्तविकता से इंकार नहीं करेगा, जबकि कांग्रेस को कोई महत्त्व प्राप्त नहीं था, तब आर्यसमाज में देशभक्ति पर व्याख्यान होते थे और आर्यसमाजियों में जहाँ वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने की भावना पाई जाती थी, वहाँ देश को उन्नत करने का भाव भी उनमें बड़े जोरों से हिलोरे लेता दिखाई देता था। हाँ, इस भाव में यह ध्यान अवश्य रहता था कि देश धर्म-प्रचार द्वारा ही उठाया जा सकता है। दो-चार साल बाद आर्यसमाज के जीवन में विचित्र घटना घटी। पाँच-छ: महीने सरकार के विरुद्ध बड़ा भारी आन्दोलन जारी रहा। इसमें लाला लाजपतराय का बहुत बड़ा भाग था। लाला लाजपतराय आर्यसमाज के एक बड़े प्रसिद्ध नेता माने जाते थे। पंजाब सरकार को यह संदेह हुआ कि जहाँ कहीं आर्यसमाज है, वहाँ सरकार के विरुद्ध विद्रोह का एक केन्द्र बना हुआ है। इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि लाला लाजपतराय गिरफ्तार करके देश से निकाल दिये गये और सरकार ने आर्यसमाज पर दमन किया। इस पर आर्यसमाज के कुछ नेताओं ने पंजाब के गवर्नर से भेंट करके कहा कि आर्यसमाज का न तो राजनीति से सम्बन्ध है और न लाला लाजपतराय के राजनीतिक कार्यों से। इस समय आर्यसमाजी नेताओं की दुर्बलता पर घृणा प्रकट की जाती थी और कहा जाता था कि उन्होंने लाला लाजपतराय के साथ कृतघ्नता की है और वह सरकार से डर गये हैं। मैं इसके सम्बन्ध में कुछ कहना नहीं चाहता। केवल यही कहना है कि यह एक वास्तविकता थी कि आर्यसमाज की नीति बराबर यही थी कि आर्यसमाज सामयिक आन्दोलन से कोई सम्बन्ध न रखे, यद्यपि महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने बड़े जोर से लिखा था कि लाला लाजपतराय आर्यसमाजी हैं और आर्यसमाज के लिये यह उचित नहीं था कि वह इस समय उन्हें छोड़ दे। इस घटना से और इसके पहले और पीछे की दूसरी घटनाओं से यह प्रभाव पड़ा कि आर्यसमाज राजनीति से पृथक् होकर केवल धार्मिक समस्याओं पर ही अधिक जोर देने लगा। इसका कारण यह था कि आर्यसमाज ने आरम्भिक राजनीति और सामयिक आन्दोलन के भेद को उपेक्षित कर दिया था।

गाँधी जी के कांग्रेस में आ जाने से कांग्रेस और भारत की राजनीति में एक बड़ा भारी परिवर्तन हो गया, स्पष्टत: जिन वस्तुओं ने लोगों को कांग्रेस की ओर खींचा, वह उनका स्वराज्य आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन थे। जहाँ-जहाँ जन-साधारण गाँधी जी की ओर आकर्षित हुए, वहाँ-वहाँ आर्य समाजियों पर भी इनके आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। जनता साधारणत: युद्ध की भावना को पसन्द करती है, इसलिये उसने गाँधी जी को इन आन्दोलन का नेता मान लिया। प्रारम्भिक दृष्टि से गाँधी जी के विचार आर्यसमाज से विरुद्ध ही न थे, अपितु बहुत ही विरुद्ध थे। इन आन्दोलनों के हुल्लड़ के नीचे यह विरोध छिपा रहा। गाँधी जी आर्य समाज की नीति विशेषता से अनभिज्ञ ही नहीं थे, वरन वह उसे सहन भी नहीं कर सकते थे। उनकी राजनीति का प्रारम्भिक सिद्धान्त यह था कि हिन्दुस्तान में हिन्दू रहे तो क्या और मुसलमान हुए तो क्या? बस, देश को स्वतन्त्र हो जाना चाहिए। उनको  कई ऐसे श्रद्धालु मिल गये, जिन्हें हिन्दूधर्म और हिन्दू संस्कृति से न सम्बन्ध था, न प्रेम था। कांग्रेस के चलाये हुए नये सिद्धान्त ने हिन्दुओं के पढ़े-लिखे भाग पर अपना असर कर लिया। मुझे दु:ख इतना ही है कि आर्यसमाजी भी इस हुल्लड़ के असर से न बच सके। इस प्रभाव में आकर आर्यसमाजी यह समझने लगे हैं कि उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता की समस्या कांग्रेस के हाथ में है। आर्यसमाज का काम धार्मिक है। वह आर्यसमाज का धर्म पालते हुए कांग्रेसी रह सकते हैं। मैं कहता हूँ कि गाँधी जी अथवा पण्डित जवाहरलाल द्वारा दिलायी हुई स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म के लिए वर्तमान गुलामी से कही अधिक त्रासदायी सिद्ध होगी, क्योंकि आर्यसमाज की स्वतन्त्रता का आदर्श इन कांग्रेसी नेताओं की स्वतन्त्रता के आदर्श से बिलकुल प्रतिकूल है। यह कांग्रेसी वैदिकधर्म को मिटाकर हिन्दू जाति की भस्म पर स्वतन्त्रता का भवन स्थापित करना चाहते हैं। यदि वैदिक धर्म और हिन्दू जाति न रहे, तो मेरी समझ में नहीं आता कि आर्यसमाजी उनकी राजनीति के साथ कैसे सहानुभूति रख सकते हैं?

हैदराबाद की घटना अभी-अभी हमारे सामने हुई है। कांग्रेस ने आर्यसमाज के आन्दोलन का विरोध किया और वह आरम्भ से अन्त तक विरुद्ध ही रहा। हमारे प्रभाव में आकर आर्यसमाजी पत्रों ने अपनी माँगों का विज्ञापन रोज-रोज करना आवश्यक समझा हमारी तीन माँगें धार्मिक थीं, अर्थात् आर्यसमाज को हवन करने, ओ३म् का झण्डा फहराने और आर्यसमाज के प्रचार करने की स्वतन्त्रता हो। उन्होंने अपने-आपको हिन्दुओं के आन्दोलन से इसलिए पृथक् रखा कि जिससे यह कांग्रेस के हाईकमाण्ड को खुश रख सकें और हिन्दुओं के आन्दोलन के साथ मिल जाने से कहीं आर्यसमाज साम्प्रदायिक न बन जाये। इस मुस्लिम परस्त कांग्रेस से उन्हें इतना डर था कि सार्वदेशिक सभा के दो पदाधिकारी दिन-रात दौड़ते फिरे, जिससे गाँधी जी को यह विश्वास दिला सके कि उनका आन्दोलन पूर्णत: धार्मिक है- वह न राजनीतिक है, न साम्प्रदायिक। इन्होंने छ: महीने में एक हजार रुपया खर्च करके गाँधी जी को यह विश्वास दिलाया कि आर्यसमाजियों का यह आन्दोलन धार्मिक है, इसलिए कुछ आर्यसमाजियों ने उन्हें आकाश पर चढ़ा दिया। गाँधी जी को बार-बार धन्यवाद देना आरम्भ कर दिया कि उन्होंने आर्यसमाज का इस सम्बन्ध में विश्वास करके आर्यसमाज की बड़ी भारी सेवा की। मुझे इससे दु:ख होता है। दु:ख केवल इसलिए है कि ये आर्यसमाजी समझते हैं कि गाँधी जी की राजनीति ईश्वर का इल्हाम है, इसलिए इसके सामने अपने पवित्र सिद्धान्त छोड़ देना आर्यसमाजियों का अनिवार्य कत्र्तव्य है।

कासगंज समाज का ऋणी हूँ :– राजेन्द्र जिज्ञासु

कासगंज समाज का ऋणी हूँ :-
आर्यसमाज के एक ऐतिहासिक व श्रेष्ठ पत्र ‘आर्य समाचार’ उर्दू मासिक मेरठ का कोई एक अंक शोध की चिन्ता में घुलने वाले किसी व्यक्ति ने कभी देखा नहीं। इसके बिना कोई भी आर्यसमाज के साहित्य व इतिहास से क्या न्याय करेगा? श्रीराम शर्मा से टक्कर लेते समय मैं घूम-घूम कर इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अंक कहीं से खोज लाया। कुछ और भी अंक कहीं से मिल गये। तबसे स्वतः प्रेरणा से इसकी फाईलों की खोज में दूरस्थ नगरों, ग्रामों व कस्बों में गया। कुछ-कुछ सफलता मिलती गई। श्री यशपाल जी, श्री सत्येन्द्र सिंह जी व बुढाना द्वार, आर्य समाज मेरठ के समाज के मन्त्री जी की कृपा व सूझ से कई अंक पाकर मैं तृप्त हो गया। इनका भरपूर लाभ आर्यसमाज को मिल रहा है। अब कासगंज के ऐतिहासिक समाज ने श्री यशवन्तजी, अनिल आर्य जी, श्री लक्ष्मण जी और राहुलजी के पं. लेखराम वैदिक मिशन से सहयोग कर आर्य समाचार की एक बहुत महत्त्वपूर्ण फाईल सौंपकर चलभाष पर मुझ से बातचीत भी की है। वहाँ के आर्यों ने कहा है, हम आपके ऋणी हैं। आपने हमारे बड़ों की ज्ञान राशि की सुरक्षा करके इसे चिरजीवी बना दिया। इससे हम धन्य-धन्य हो गये। आर्य समाचार एक मासिक ही नहीं था। यह वीरवर लेखराम का वीर योद्धा था। पं. घासीराम जी की कोटि का आर्य नेता व विचारक इसका सपादक रहा। इसमें महर्षि के अन्तिम एक मास की घटनाओं की प्रामाणिक सामग्री पं. लेखराम जी द्वारा सबको प्राप्त हुई। वह अंक तो फिर प्रभु कृपा से मुझे ही मिला। उसी के दो महत्त्वपूर्ण पृष्ठों को स्कै निंग करवाकर परोपकारिणी सभा को सौंपे हैं।
पं. रामचन्द्र जी देहलवी तथा पं. नरेन्द्र जी के जन्मदिवस पर इन अंकों पर एक विशेष कार्य आरभ हो जायेगा। इसके प्रकाशन की व्यवस्था यही मेधावी युवक करेंगे।

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन : राजेंद्र जिज्ञासु जी

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :- इस बार केवल एक ही प्रेरक प्रसंग दिया जाता है। नरवाना के पुराने समर्पित आर्य समाजी और मेरे विद्यार्थी श्री धर्मपाल तीन-चार वर्ष पहले मुझे गाड़ी पर चढ़ाने स्टेशन पर आये तो वहाँ कहा कि सन् 1960 में कलायत कस्बा में आर्यसमाज के उत्सव में श्री स्वामी भीष्म जी कार्यक्रम में कूदकर गड़बड़ करने वाले साधु से आपने जो टक्कर ली वह प्रसंग पूरा सुनाओ। मैंने कहा, आपको भीष्म जी की उस घटना की जानकारी कहाँ से मिली? उसने कहा, मैं भी तब वहाँ गया था।
संक्षेप से वह घटना ऐसे घटी। कलायत में आर्यसमाज तो था नहीं। आस-पास के ग्रामों से भारी संख्या में लोग आये। स्वामी भीष्म जी को मन्त्र मुग्ध होकर ग्रामीण श्रोता सुनते थे। वक्ता केवल एक ही था युवा राजेन्द्र जिज्ञासु। स्वामी जी के भजनों व दहाड़ को श्रोता सुन रहे थे। एकदम एक गौरवर्ण युवा लंगडा साधु जिसके वस्त्र रेशमी थे वेदी के पास आया। अपने हाथ में माईक लेकर अनाप-शनाप बोलने लगा। ऋषि के बारे में भद्दे वचन कहे। न जाने स्वामी भीष्म जी ने उसे क्यों कुछ नहीं कहा। उनकी शान्ति देखकर सब दंग थे। दयालु तो थे ही। एक झटका देते तो सूखा सड़ा साधु वहीं गिर जाता।

मुझसे रहा न गया। मैं पीछे से भीड़ चीरकर वेदी पर पहुँचा। उस बाबा से माईक छीना। मुझसे अपने लोक कवि संन्यासी भीष्म स्वामी जी का निरादर न सहा गया। उसकी भद्दी बातों व ऋषि-निन्दा का समुचित उत्तर दिया। वह नीचे उतरा। स्वामी भीष्म जी ने उसे एक भी शब्द न कहा। उस दिन उनकी सहनशीलता बस देखे ही बनती थी। श्रोता उनकी मीठी तीन सुनने लगे। वह मीठी तान आज भी कानों में गूञ्ज रही हैं :-

तज करके घरबार को, माता-पिता के प्यार को,
करने परोपकार को, वे भस्म रमा कर चल दिये……

वे बाबा अपने अंधविश्वासी, चेले को लेकर अपने डेरे को चल दिया। मैं भी उसे खरी-खरी सुनाता साथ हो लिया। जोश में यह भी चिन्ता थी कि यह मुझ पर वार-प्रहार करवा सकता था। धर्मपाल जी मेरे पीछे-पीछे वहाँ तक पहुँचे, यह उन्हीं से पता चला। मृतकों में जीवन संचार करने वाले भीष्म जी के दया भाव को तो मैं जानता था, उनकी सहन शक्ति का चमत्कार तो हमने उस दिन कलायत में ही देखा। धर्मपाल जी ने उसकी याद ताजा कर दी।

काशी शास्त्रार्थ में वेदः- राजेन्द्र जिज्ञासु

काशी शास्त्रार्थ में वेदः-

‘परोपकारी’ के एक पिछले अंक में महर्षि दयानन्द जी द्वारा जर्मनी से वेद संहितायें मँगवाने विषयक आचार्य सोमदेव जी को व इस लेखक को प्राप्त प्रश्नों का उत्तर दिया गया था। कहीं इसी प्रश्न की चर्चा फिर छिड़ी तो उन्हें बताया गया कि सन् 1869 के काशी शास्त्रार्थ में ऋषि जी ने महाराजा से माँग की थी कि शास्त्रार्थ में चारों वेद आदि शास्त्र भी लाये जायें ताकि प्रमाणों का निर्णय हो जाये। इससे प्रमाणित होता है कि वेद संहितायें उस समय भारत में उपलध थीं। पाण्डुलिपियाँ भी पुराने ब्राह्मण घरों में मिलती थीं।
परोपकारी में ही हम बता चुके हैं कि आर्यसमाज स्थापना से बहुत पहले पश्चिमी देशों में पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा कि यह संन्यासी दयानन्द ललकार रहा है, कि लाओ वेद से प्रतिमा पूजन का प्रमाण, परन्तु कोई भी वेद से मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं दे सका। ऋषि यात्राओं में वेद रखते ही थे। हरिद्वार के कुभ मेले में ऋषि यात्राओं में वेद रखते ही थे।

हरिद्वार के कुभ मेले में ऋषि विरोधी पण्डित भी कहीं से वेद ले आये। लाहौर में श्रद्धाराम चारों वेद ले आये। वेद कथा भी उसने की। ऐसे अनेक प्रमाणों से सिद्ध है कि जर्मनी से वेद मँगवाने की बात गढ़न्त है या किसी भावुक हृदय की कल्पना मात्र है। देशभर में ऐसे वेद पाठियों की संया तब सहस्रों तक थी जिन्हें एक-एक दो-दो और कुछ को चारों वेद कण्ठाग्र थे। सेठ प्रताप भाई के आग्रह पर कोई 63-64 वर्ष पूर्व एक बड़े यज्ञ में एक ऐसा वेदापाठी भी आया था, जिसे चारों वेद कण्ठाग्र थे। तब पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज भी उस यज्ञ में पधारे थे। आशा है कि पाठक इन तथ्यों का लाभ उठाकर कल्पित कहानियों का निराकरण करेंगे।