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भागवत :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

समीक्षा — यद्यपि वेद में जल स्थल और वासतीवर आदि का वर्णन नहीं तथापि वृहद्देवता ऐसा कहता है । वेदों के एक ही स्थान कुम्भ में दोनों ऋषियों की उत्पत्ति कही गई है। इसका भी भाव यह है कि क्या जल और क्या स्थल दोनों स्थानों में धर्म नियम तुल्य रूप में प्रचलित होते हैं । अब पुराणों की बात पर दृष्टि दीजिये । पुराण सर्वदा एक न एक भूल करते ही रहते हैं । पुराण ब्रह्मा से सारी उत्पत्ति मानते हैं, परन्तु बहुत सी बातें प्राचीन चली आती हैं जहाँ ब्रह्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं, किन्तु पौराणिक समय में वे बातें इतनी प्रचलित थीं कि उनको दूर नहीं कर सकते थे । उर्वशी में मित्रावरुण द्वारा वसिष्ठ की उत्पत्ति और वही सूर्यवंशीय राजाओं का गुरु है, यह बात अति प्रसिद्ध थी । इस कथा को पुराण लोप नहीं कर सकते थे । अतः इनको एक नवीन कथा गढ़नी पड़ी। पुराणों की दृष्टि में असम्भव कोई बात नहीं, अतः ब्रह्मा से लेकर केवल छ : पीढ़ियों में हजारों चौयुगी काल को समाप्त कर देते हैं । कहाँ सृष्टि की आदि में ब्रह्मा का पुत्र वसिष्ठ ! और कहाँ केवल छठी पीढ़ी में शुकाचार्य के कलि युगस्थ परीक्षित् को कथा सुनाना । कितना लम्बा-चौड़ा यह गप्प है ।

यास्क की सम्मति – उर्वशी शब्द का व्याख्यान करते हुए यास्क भी ” तस्या दर्शनान्मित्रावरुणयो रेतश्चस्कन्द ” उसके दर्शन से मित्र और वरुण का रेत स्खलित हो गया, ऐसा लिखते हैं । आश्चर्य की बात है कि वे भाष्यकार निरुक्तकार आदि भी ऐसी-ऐसी जटिल कथा का आशय न बतला गये ।

वसिष्ठ पुरोहित – यही उर्वशी पुत्र मैत्रावरुण वसिष्ठ राजवंशों के पुरोहित थे । यही आशय सर्वकथाओं से सिद्ध होता है । वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में इस प्रकार लिखा है- ” कस्य चित्त्वथ कालस्य मैत्रावरुणसंभवः”। वसिष्ठस्तेजसा युक्तो जज्ञे इक्ष्वाकुदैवतम् ॥ ७ ॥ तमिक्ष्वाकुर्महातेजा जातमात्रमनिन्दितम् । वव्रे पुरोधसं सौम्यं वंशस्यास्य हिताय नः ॥ ८ ॥ रा० । उ० । सर्ग ५७ ॥ सूर्यवंशी के आदि राजा इक्ष्वाकु हैं । इन्होंने इसी उर्वशी सम्भव मैत्रावरुण वसिष्ठ को अपने पुरोहित बनाया । शुकाचार्य बड़े आदर के साथ इनको ही अपना प्रपितामह कहते हैं । अब विचार करने की बात है कि इस सबका यथार्थ तात्पर्य क्या है ? मैं अभी जो पूर्व में लिख आया हूँ, यही इसका वास्तविक तात्पर्य है । वसिष्ठ कोई आदमी नहीं हुआ, न उर्वशी आदि ही कोई देहधारी जीव है। इस प्रकार मित्र और वरुण सामान्य वाचक शब्द हैं किसी खास व्यक्ति वाचक नहीं। अब मैं नामार्थ से भी उस विषय को दृढ़ करता हूँ ।

वसिष्ठादि नामों के अर्थ – ‘ वसु’ शब्द से यह वसिष्ठ बना है । जो सबके हृदय में बसे, वह वसु तथा जो अतिशय वास करनेहारा है, वह वसिष्ठ । मैं लिख आया हूँ कि यहाँ धर्म नियम का नाम वसिष्ठ है । निःसन्देह वे ही धर्म नियम संसार में प्रचलित होते हैं जो सबके रुचिकर हों, जिन्हें सब कोई अपने हृदय में वास दे सकें । अतः धर्म नियम का नाम यहाँ वसिष्ठ रखा है । वसु शब्द, धन सम्पत्ति आदि अर्थ में भी आया है, अतः जो नियम अतिशय सम्पत्तियों को उत्पन्न करने हारा हो, प्रजाओं में जिनसे चारों तरफ अभ्युदय हो, उसी नियम का नाम वसिष्ठ है | अगस्त्य = अग+पर्वत, यहाँ अचल रूप से स्थिर जो प्रजाओं में नाना अज्ञान, उपद्रव विघ्न हैं वे ही अग रूप हैं, उन्हें जो विध्वंस करे वह अगस्त्य ” अगान् विध्रान् अस्यति विध्वंसयति यः

सोऽगस्त्यः ” । वेद में आया है कि अगस्त्यो यत्त्वा विश आजभार । ७ । ३३ । १० ॥ वसिष्ठ को अगस्त्य प्रजाओं के निकट ले जाते हैं अर्थात् ब्रह्मक्षत्रसभा से निश्चित धर्म नियम को साथ ले अगस्त्य (प्रचारकगण ) प्रजाओं के समस्त विघ्नों को विध्वस्त कर देते हैं, अत: प्रचार वा प्रचारक मण्डल का नाम यहाँ अगस्त्य कहा है। उर्वशी जिसको बहुत आदमी चाहें वह उर्वशी “याम् उरवो वहव उशन्ति कामयन्ते सा उर्वशी ” । पाठशाला, न्यायशाला आदि संस्थाओं को जहाँ-जहाँ बहुत आदमी मिलकर स्थापित करना चाहते हैं वहाँ-वहाँ ब्रह्मक्षत्रसभा की ओर से वह वह संस्था स्थापित होती है । अतः यहाँ संस्था का नाम उर्वशी है ।

आवश्यक नियम – वसिष्ठ अगस्त्य और उर्वशी आदि शब्द वेदों में अनेकार्थ प्रयुक्त हुए हैं । किन्तु अपने-अपने प्रकरण में वही एक अर्थ सदा स्थिर रहेगा अर्थात् जहाँ मैत्रावरुण वसिष्ठ कहा जाएगा उस प्रकरण भर में यही अर्थ होगा और ऐसे ही अर्थ को लेकर संगति भी लगती है ।

वसिष्ठ राजपुरोहित कैसे हुए- अब आप इस बात को समझ सकते हैं कि वसिष्ठ राजपुरोहित कैसे बने | यह प्रत्यक्ष बात है कि नियम बनाने वाले का ही प्रथम शासक नियम होता है अर्थात् जो विद्वान् नियम बनाता है वही प्रथम पालन करता है यदि ऐसा न हो तो वह नियम कदापि चल नहीं सकता । मित्र वरुण अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों मिलकर नियम बनाते हैं, अतः प्रथम इनका ही वह शासक होता है । जिस कारण ब्रह्मवर्ग में स्वभावतः नियम पालन करने की शक्ति है । वे उपद्रवी कदापि नहीं हो सकते, क्योंकि परम धर्मात्मा पुरुष का ही नाम ब्रह्म है । क्षत्रवर्ग सदा उद्दंड उच्छृंखल आततायी अविवेकी हुआ करते हैं, अतः इनके लिए धर्म नियमों की बड़ी आवश्यकता है जिनसे वे सुदृढ़ होकर अन्याय न कर सकें । आजकल भी पृथिवी पर देखते हैं कि क्षत्रवर्ग ही परम उद्दण्ड हो रहे हैं, इनको ही वश में लाने के लिए बड़ी-बड़ी सभा कर प्रजाओं से मिल ब्रह्मवर्ग नियम स्थापित कर रहे हैं, अतः वह वसिष्ठ नामी नियम विशेषकर क्षत्रिय कुलों का ही पुरोहित हुआ । पुरोहित शब्द का यही प्राचीन अर्थ है जो सदा आगे में रहे जिससे सम्राट् भी डरे । जिसका

अनिष्ट महासम्राट् भी न कर सकता हो। जिसके पक्ष में सब प्रजाएँ हों, जो प्रजाओं के प्रतिनिधि होकर सदा उनकी हित की बात करे और राजा को कदापि उच्छृङ्खल ने होने दे। जैसे आजकल रक्षित राज्यों को वश में रखने के लिए रेजिडेण्ट हुआ करता है ।

वशिष्ठ की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

जिस ब्रह्म और क्षत्र का विवरण ऊपर दिखलाया है उनको ही वेदों में मित्र और वरुण कहते हैं । ब्रह्म मित्र है और क्षत्र वरुण है । इसमें यद्यपि अनेक प्रमाण मिलते हैं तथापि मैं केवल शतपथ का एक प्रबल प्रमाण यहाँ लिखता हूँ । यजुर्वेद ७ । ९ की व्याख्या करते हुए शतपथ कहता है-

क्रतुदक्षौ ह वा अस्य मित्रावरुणौ । एतन्न्वध्यात्मं स यदेव मनसा कामयत इदं मे स्यादिदं कुर्वीयेति स एव ऋतुरथ यदस्मै तत्समृध्यते स दक्षो मित्र एव क्रतुर्वरुणो दक्षो ब्रह्मैव मित्रः क्षत्रं वरुणोभिगन्तैव ब्रह्म कर्त्ता क्षत्रियः ॥ १ ॥ ते ते अग्रे नानेवासतुः । ब्रह्म च क्षत्रं च । ततः शशाकैव ब्रह्म मित्र ऋते क्षत्राद्वरुणात्स्थातुम् ॥ २ ॥ न क्षत्रं वरुणः । ऋते ब्रह्मणो मित्राद्यद्ध किं च वरुणः कर्म चक्रेऽप्रसूतं ब्रह्मणा मित्रेण न है वास्मै तत्समानृधे ॥ ३ ॥ स क्षत्रं वरुणः । ब्रह्म मित्रमुपमन्त्रयां चक्र उपमा वर्तस्व सं सृजावहै पुरस्त्वा करवै त्वत्प्रसूतः कर्म करवा इति

तथेति तौ समसृजेतां तत एष मैत्रावरुणे ग्रहोऽभवत् ॥ ४ ॥ सो एव पुरोधा । तस्मान्न ब्राह्मणः सर्वस्येव क्षत्रियस्य पुरोधां कामयते । सं ह्येतौ सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च नो एव क्षत्रियः सर्वमिव ब्राह्मणं पुरोदधीत सं ह्ये ल्वेतौ सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च स यत्ततो वरुणः कर्म चक्रे प्रसूतं ब्रह्मण मित्रेण सं है वास्मै तदानृधे । शतपथ । ४ । १ ॥

क्रतु और दक्ष ही इसके मित्र और वरुण हैं । यह अध्यात्म विषय है । सो यह यजमान मन से जो यह कामना करता है कि यह मुझे हो और यह कर्म मैं करूँ, इसी का नाम क्रतु है और जो इस कर्म से उसको समृद्धि प्राप्त होती है, वही दक्ष है । मित्र ही क्रतु है और वरुण ही दक्ष है । ब्रह्म अर्थात् ज्ञानी न्यायी वर्ग ही मित्र है और क्षत्र अर्थात् न्यायी शासक वर्ग ही वरुण है । मन्ता ही ब्रह्म है और कर्त्ता ही क्षत्रिय है ॥ १ ॥ पहले ब्रह्म और क्षत्र ये दोनों पृथक्-पृथक् रहते थे । ब्रह्म जो मित्र है वह तो क्षत्र वरुण के बिना पृथक् रह सका, किन्तु क्षत्र जो वरुण है वह ब्रह्म मित्र के बिना न रह सका ॥ २ ॥ क्योंकि ब्रह्म मित्र की आज्ञा बिना क्षत्र वरुण जो-जो कर्म किया करता था वह वह उसके लिए वृद्धिप्रद नहीं होता था ॥ ३ ॥ सो इस क्षत्र वरुण ने ब्रह्म मित्र को बुलाया और कहा कि मेरे समीप आप रहें। (संसृजाव है ) हम दोनों मिल जाएं। मिलकर सर्व व्यवहार करें। मैं आपको आगे करूँगा और आपकी आज्ञानुसार मैं कर्म करूँगा । ब्राह्मण इसको स्वीकार कर दोनों मिल गये ॥ ४ ॥ तब से ही मैत्रा वरुण नाम का एक ग्रह अर्थात् एक पात्र होता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार पौरोहित्य चला। इस कारण सब ब्राह्मण, सब क्षत्रिय की पौरोहित्य – वृत्ति की कामना नहीं करता, क्योंकि ये दोनों मिलकर सुकृत और दुष्कृत कर्म करते हैं अर्थात् दोनों ही पाप-पुण्य के भागी होते हैं । वैसा ही सब क्षत्रिय सब ब्राह्मण को पुरोहित नहीं बनाता, क्योंकि दोनों मिलकर सुकृत और दुष्कृत करते हैं । तब से क्षत्रिय वरुण जो-जो कर्म ब्राह्मण मित्र से आज्ञा पाकर किया करता था वह वह कर्म उसको वृद्धिप्रद हुआ । इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि ब्रह्म को मित्र तथा क्षत्र को वरुण कहते हैं और इन दोनों को मिलकर ही व्यवस्था करनी चाहिए। इसमें यदि शासक वर्ग, ज्ञानी वर्ग की अधीनता को स्वीकार नहीं करे तो उसका निर्वाह कदापि न हो । अब आप वशिष्ठ और अगस्त्य दोनों मैत्रावरुण क्यों कहलाते

स प्रकेत उभयस्य विद्वान् सहस्रदान उत वा सदानः । यमेन ततं परिधिं वयिष्यन्नप्सरसः परि जज्ञे वसिष्ठः ॥

– ऋ० ७ । ३३ । १२

वेदों में एक यह भी रीति है कि गुण में भी चेतनत्व का आरोप कर गुणिवत् वर्णन करने लगते हैं। राज्य नियम से लोक ज्ञानी विद्वान् महाधनाढ्य होते हैं अतएव वह नियम ही ज्ञानी, विद्वान्, महाधनाढ्य आदि कहा जाता है। (स: + प्रकेतः ) वह परम ज्ञानी (उभयस्य+ विद्वान्) ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों सुखों को जानता हुआ वसिष्ठ (सहस्रदान: ) बहुत दानी होता है । (उत वा + सदान: ) अथवा सर्वदा दान देता ही रहता है। कब ? सो आगे कहते हैं— (यमेन ) ब्रह्म क्षत्रों के प्रबल दण्डधारा से ( ततम् + परिधिम् ) विस्तृत व्यापक परिधि रूप वस्त्र को (वयिष्यन्) बुनता हुआ (वसिष्ठः ) वह सत्य धर्म ( अप्सरसः + परि जज्ञे ) सर्व संस्थाओं को लक्ष्य करके उत्पन्न होता है। अब आगे सार्वजनीन परम हितकारी सिद्धान्त कहते हैं-

सत्रे ह जाता विषिता नमोभिः कुम्भेरेतः सिषिचतुः समानम् । ततोह मान उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥ १३ ॥ उक्थभृतं सामभृतं विभर्ति ग्रावाणं बिभ्रत्प्रवदात्यग्रे उपैनमाध्वं सुमनस्यमाना आ वो गच्छाति प्रतृदो वसिष्ठः ॥

ऋ० ।७।३३ । १४ ॥ सत्र – सतांत्र: सत्रः । सज्जनों की जो रक्षा करे, उस यज्ञ का नाम सत्र है । अथवा जो सत्य यज्ञ है, वही सत्र है । सम्पूर्ण प्रजाओं के हितसाधक उपायों के बनाने के लिए जो अनुष्ठान है, वही महासत्र है । कुम्भ = वासतीवर कलश अर्थात् सुन्दर उत्तम उत्तम जो बसने के ग्राम- नगर हैं वे ही यहाँ कुम्भ हैं। जैसे कुम्भ में जल स्थिर रहता है तद्वत् ग्राम में बसने पर मनुष्य स्थिर हो जाता है । अतः सर्व भाष्यकार, इस कुम्भ का नाम वासतीवर रखा है । मानमाननीय । जिसका सम्मान सब कोई करे । मापनेहारा, परीक्षक इत्यादि । अथ मन्त्रार्थ-

(सत्रे + ह + जातौ ) यह प्रसिद्ध बात है कि जब बहुत सम्मति से सत्र में दीक्षित होते हैं और ( नमोभिः + इषिता) सत्कार से जब अभिलाषित होते हैं अर्थात् जब ब्रह्मसमूह और क्षत्रसमूह को बड़े सत्कार के साथ

सर्व हितसाधक धर्मप्रणेतृ सभारूप महायज्ञ में प्रजाएँ बुलाकर धर्म नियम बनवाती हैं तब ( समानम्+ रेतः + कुम्भे+सिषिचतुः ) वे मित्र और यरुण अर्थात् ब्रह्म और क्षत्र दोनों मिलकर समान रूप से रेत – रमणीय धर्मरूप प्रवाह को प्रत्येक ग्राम रूप कलश में सींचते हैं। (ततः+ह+ मान: + उदियाय) तब सबका मापनेहारा, सर्व को एक दृष्टि से देखनेहारा एक मानने योग्य नियम उत्पन्न होता है । ( ततः + मध्यात्+ वसिष्ठम् + ऋषिम् + जातम् + आहुः ) और उसी के मध्य से वसिष्ठ ऋषि को उत्पन्न कहते है ॥ १३ ॥ इसका आशय विस्पष्ट है अब आगे उपदेश देते हैं कि प्रजामात्र को उचित है इस वसिष्ठ का सत्कार करे । ( प्रतृदः ) हे अत्यन्त हिंसक पुरुषो! हे प्रजाओं में उपद्रवकारी नरो ! (वः + वसिष्ठः + आगच्छति) तुम्हारे निकट राष्ट्र नियम आता है। (सुमनस्यमानाः ) प्रसन्न मन होकर तुम (एनम् ) इस धर्म नियम को ( उप+आध्वम्) अपने में देववत् आदर करो। वह वसिष्ठ कैसा है (उक्थभृतम् + सामभृतम्) उक्थभृत्=ऋग्वेदीय होता । सामभृत = उद्भाता । (विभर्ति ) इन दोनों को धारण किये हुए हैं और (ग्रावाणम्+ बिभ्रत्) उग्र प्रस्तर अर्थात् दण्ड को लिए हुए है। यजुर्वेदी अध्वर्यु को भी साथ में रखे हुए है (अग्रे + प्रवदति) और वह आगे-आगे निज प्रभाव को कह रहा है । १४ ॥ जैसा धर्म शास्त्रों में लिखा है कि ” व्यवराचापि वृत्तस्था” न्यून से न्यून ॠग्वेदी, यजुर्वेदी और सामवेदी तीन मिलकर जिस धर्म को नियत करें उसको कोई भी विचलित न करने पावे । इसी ऋचा से यह नियम बना है । प्रतृद – उतृदिर् हिंसानादरयोः । हिंसा और अनादर अर्थ में तृद् धातु आता है, अर्थात् जो राष्ट्रीय नियमों को हिंसित और अनादर करते हैं, वही यहाँ प्रतृद हैं। अब और भी अर्थ विस्पष्ट हो जाता है । धर्म नियम किसके लिए बनाए जाते हैं । निःसन्देह उन दुष्ट पुरुषों को नियम में लाने के लिए ही धर्म की स्थापना होती है, अतः वेद भगवान् यहाँ कहते हैं कि हे दुष्ट हिंसको और निरादरकारी जीवो! देखो तुम्हारे निकट धर्म आ रहे हैं । इनका प्रतिपालन करो । यह नियम तीनों वेदों की आज्ञानुसार स्थापित हुआ है, यदि इसका निरादर तुमने किया तो तुम्हारे ऊपर महादण्ड पतित होगा। इससे यह भी विस्पष्ट होता है कि वसिष्ठ नाम धर्म नियम का ही है, जो ब्रह्मक्षत्र सभा से सर्वदा सिक्त होता रहता है ।

त इन्निण्यं हृदयस्य प्रकेतैः सहस्रवल्शमभि सं चरन्ति । यमेन ततं परिधिं वयन्तोऽप्सरस उपसेदुर्वसिष्ठा ॥

७।३३।९

वसिष्ठाः = यहाँ वसिष्ठ शब्द बहुवचन है। इस मण्डल में बहुवचनान्त वसिष्ठ शब्द कई एक स्थान में प्रयुक्त हुआ है । (ते वसिष्ठाः ) वे – वे धर्म नियम ( इत्) ही (निण्यम्) अज्ञानों से तिरोहित = ढँके हुए (सहस्रवल्शम्) सहस्र शाखायुक्त उस-उस स्थान में (हृदयस्य+प्रकेतैः ) हृदय के ज्ञान-विज्ञानरूप महाप्रकाश के साथ ( संचरन्ति ) विचरण कर रहे हैं । (यमेन + ततम् + परिधिम् ) दण्ड की सहायता से व्यापक परिधि रूप वस्त्र को ( वयन्तः ) बुनते हुए ( अप्सरसः +उपसेदुः ) उस- उस संस्था के निकट पहुँचते हैं ।।

+

अब मैंने यहाँ कई ऋचाएँ उधृत की हैं। विद्वद्गण विचार करें कि वसिष्ठ शब्द के सत्यार्थ क्या हैं ? इन्हीं ऋचाओं को लेकर सर्वानुक्रमणी वृहद्देवता और निरुक्त आदि में जो-जो आख्यायिकाएँ प्रचलित हुई हैं, उनसे भी यही अर्थ निःसृत होते हैं। तद्यथा वृहद्देवता–

उतासि मैत्रावरुणः । ऋ० । ७ । ३३ । ११

ऋचा की सायण व्याख्या में वृहद्देवता की आख्यायिका उद्धृत है, वह यह है-

तयोरादित्ययोः सत्रे दृष्ट्वाप्सरस मुर्वशीम् । रेतश्चस्कन्द तत्कुम्भे न्यपतद्वासतीवरे । तेनैव तु मुहूर्त्तेन वीर्य्यवन्तो तपस्विनौ । अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च तत्रर्षी संबभूवतुः । बहुधा पतितं रेतः कलशेच जले स्थले । स्थले वसिष्ठस्तु मुनिः संभूत ऋषिसत्तमः । कुम्भे त्वगस्त्यः संभूतो जले मत्स्यो महाद्युतिः । उदियाय ततोऽगस्त्यः शम्यामात्रो महातपः । मानेन संमितोयस्मात् तस्मात् मान इहो च्यते । इत्यादि ॥

अदिति के पुत्र मित्र और वरुण हुए। वे दोनों किसी यज्ञ में गये । वहाँ उर्वशी को देख साथ ही दोनों का रेत गिर गया । वह रेत कुछ घड़े में और कुछ स्थल में जा गिरा। स्थल में जो गिरा उससे वसिष्ठ और कलश में जो गिरा उससे अगस्त्य उत्पन्न हुए । अतएव इन दोनों को मैत्रावरुण कहते हैं, क्योंकि ये दोनों मित्र और वरुण के पुत्र हैं । अगस्त्य जिस कारण घट से उत्पन्न हुए, अतः इनके घटयोनि, कलशज आदि भी नाम हैं ।

सूर्य-चन्द्र की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

मैं अभी कह चुका हूँ कि परमात्मा ने ही इस सूर्य-चन्द्र को बनाया है । परंतु पुराण कुछ और ही कहते हैं । वे इस प्रकार वर्णन करते हैं कि कश्यप ऋषि की अदिति, दिति, दनु, कद्रू, बनिता आदि अनेक स्त्रियाँ थीं । इसी अदिति से आदित्य अर्थात् सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए ।

भागवतादि यह भी कहते हैं कि अत्रि ऋषि के नेत्र से चन्द्र उत्पन्न हुआ है; यथा-

अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः । यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्त्तयः ॥ सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रदसरोरुहात् । जातस्यासीत्सुतो धातुरत्रिः पितृसमो गुणैः ॥

तस्य दृग्भ्योऽभवत्पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।

विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥

कोई कहता है कि समुद्र से चन्द्र की उत्पत्ति हुई । इसी प्रकार मेघ कैसे बनता, वायु क्यों कभी तीक्ष्ण और कभी मन्द होती, पृथिवी से किस प्रकार गरम जल और अग्नि निकलता, ज्वालामुखी क्या वस्तु है, भूकम्प क्यों होता, विद्युत् क्या वस्तु है, मेघ में भयंकर गर्जना क्यों होती, इत्यादि विषय विज्ञान शास्त्र के द्वारा प्रत्येक पुरुष को जानने चाहिएँ” नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।” मनुष्य की उत्पत्ति ही इसी कारण हुई है । जिज्ञासा करना मनुष्य का परम धर्म है । वेदों और शास्त्रों में इसकी बहुधा चर्चा आई है। हम अपने चारों तरफ सहस्रों पदार्थ देखते हैं । उनको विचार दृष्टि से अवश्य जानना चाहिए । आकाशस्थ ताराएँ कितनी बड़ी और कितनी छोटी हैं, वे पंक्तिबद्ध और बन के समान क्यों दीखतीं, पृथिवी से ये कितनी दूरी पर हैं ! एवं नक्षत्रों की अपेक्षा चन्द्र क्यों बड़ा दीखता पुनः इसके इतने रूप कैसे बदलते ! प्रायः सब ही ग्रह पूर्व से पश्चिम की ओर आते हुए क्यों दीख पड़ते। इसी प्रकार पृथिवी पर नाना घटनाएँ होती रहती हैं- कभी वर्षा ऋतु में मेघ भयङ्कर रूप से गर्जता, बिजली लगकर कभी- कभी मकान और बड़े-बड़े ऊँचे वृक्ष जल जाते, मनुष्य मर जाते, बिजली कहाँ से और कैसे उत्पन्न होती, मेघ किस प्रकार बनता, इतने जल आकाश में कहाँ से इकट्ठे हो जाते, पुनः मेघ आकाश में किस आधार पर बड़े वेग से दौड़ते, वहाँ ओले कैसे बनते, फिर थोड़ी ही देर में मेघ का कहीं पता नहीं रहता, इत्यादि बातें अवश्य जाननी चाहिएँ ।

ऐ मनुष्यो ! ये ईश्वरीय विभूतियाँ हैं, इन्हें जो नहीं जानता वह कदापि ईश्वर को नहीं जान सकता। वह अज्ञानी पशु है । स्वयं वेद भगवान् मनुष्य जाति को जिज्ञासा की ओर ले जाते हैं, आगे इसी विषय को देखिये । अतः जिज्ञासा करना मनुष्य का परम धर्म है ।

ऐ मनुष्यो ! इस जगत् में यद्यपि परमात्मा साक्षात् दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि इसकी विभूतियाँ ही दीख पड़तीं और इन्हीं में वह छिपा हुआ है । अतएव बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि कह गये हैं कि “आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ” । इस परमात्मा की वाटिका को ही सब कोई देखते हैं और इसी के द्वारा उसको देखते हैं, साक्षात् उसको कोई नहीं देखता । अतः इस जगत् के वास्तविक तत्वों को जो सदा अध्ययन किया करता है वह, मानो, परम्परा से ईश्वर का ही चिन्तन कर रहा है । व्यास ऋषि इसी कारण ब्रह्म का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि ‘जन्माद्यस्य यतः ” जिससे इस जगत् का जन्म, स्थिति और संहार हुआ करता है, वही ब्रह्म है । इससे ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बतलाया, अतः यदि जगत को जान लेवे तो, मानों, ईश्वर की रचना जान ली, यह कितनी बड़ी बात है । अत: जिज्ञासुओ ! प्रथम ईश्वर की रचना की ओर ध्यान दो ।

वेद और ग्रहण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

चन्द्रमा का घटना – बढ़ना

सूर्य की किरण चन्द्रमा पर सर्वदा पड़ती रहती है। पृथिवी घूमती है अतः पृथिवीस्थ पुरुष चन्द्रमा को सदा प्रकाशित नहीं देखता, क्योंकि पृथिवी की छाया चन्द्र में पड़ जाने से हम लोगों को प्रकाश प्रतीत नहीं होता ।

वेद और ग्रहण

वेदों में कुछ संदिग्ध सा वर्णन आया है जिससे राहु-केतु की कथा चली है और इसको न समझ कर राहुकृत ग्रहण लोग मानने लगे, मैं उन मन्त्रों को यहाँ उद्धृत करता हूँ ।

यत्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अक्षेत्रविद् यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥

– ऋ०५/४० 1५

(सूर्य) हे सूर्य ! (यद्) जब (त्वा) तुमको (आसुरः ) असुरपुत्र ( स्वर्भानुः ) स्वर्भानु (तमसा ) अन्धकार से (अविध्यत् ) विद्ध अर्थात् आच्छादित कर लेता है तो उस समय (भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन पागल से (अदीधयुः) दीख पड़ने लगते (यथा) जैसे (अक्षेत्रवित्) मार्ग को न जानने हारा पथिक (मुग्धः ) मुग्ध अर्थात् घबरा जाता है तद्वत् सम्पूर्ण जगत घबरा जाता है ।

यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अत्रय स्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥

ऋ०५/४०/९

(आसुरः + स्वर्भानुः ) आसुर स्वर्भानु (यम्+ वै+सूर्यम्) जिस सूर्य को (तमसा + अविध्यत् ) अन्धकार से घेर लेता है (अत्रय: ) अत्रिगण (तम्+अनु+अविन्दन् ) उसको पालते हैं । तम को नष्ट कर अत्रि सूर्य की रक्षा कर प्राप्त करते हैं यहाँ अन्यान्य ऋचाओं में भी इस प्रकार का वर्णन आया है, ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसकी बहुधा चर्चा आती है । केवल एक उदाहरण शतपथ ब्राह्मण से देकर इसका तात्पर्य लिखूँगा-

स्वर्भानुर्ह वा आसुरः सूर्यं तमसा विव्याध स तमसा विद्धो न व्यरोचत तस्य सोमारुद्रावेवैतत्तमोऽपाहतां स एषोऽपहतपाप्मा तपति । -शत० ५। १ । २।१।

तात्पर्य – असुर शब्द

ऋग्वेद में असुर शब्द दुष्ट अर्थ में बहुत ही विरल प्रयुक्त हुआ है । सूर्य, मेघ, वायु, वीर, परमात्मा आदि अनेक अर्थों में यह असुर शब्द विद्यमान है।

वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यरव्यद् गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मि रस्याततान ॥

ऋ० १ । ३५ ।७

यहाँ पर सूर्य के विशेषण में असुर शब्द आया है । जिस कारण सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता रहता है, अतः (असुरस्य सूर्यस्य अयमासुरः ) असुर जो सूर्य उसका सम्बन्धी होने से चन्द्र आसुर कहाता है ।

स्वर्भानु – स्व-स्वर्ग आकाश, अन्तरिक्ष । भानु-प्रकाश । स्वर्ग का प्रकाश करने हारा चन्द्र है, अतः इसको स्वर्भानु कहते हैं ।

अत्रि – सूर्य किरणों का नाम अत्रि है । ” अदन्ति जलानि ये तेऽत्रयः किरणा:

अब वैदिकार्थ पर ध्यान दीजिए । वेद में कहा गया है कि “आसुर स्वर्भानु सूर्य को अन्धकार से ढाँक लेता है।” ठीक है। आसुर स्वर्भानु जो चन्द्र वह अपनी छायारूप अन्धकार से सूर्य को ढाँक लेता है तब पुनः अत्रि अर्थात् सूर्य किरण ही इसको हटाकर सूर्य की, मानो, रक्षा करता है । शतपथ ब्राह्मण कहता है कि सोम और रुद्र इस तम को विनष्ट करता है । यह भी ठीक है, क्योंकि चन्द्र ही अपनी छाया सूर्य पर डालता है और कुछ देर के पश्चात् वहाँ से दूर हट जाता है । रुद्रनाम विद्युत् का है अर्थात् प्रकाश पुनः आ जाता है । यही, मानो, सूर्य का तम से छूटना है, वेद की यह एक बहुत साधारण बात थी । इसे न समझ कैसी-कैसी कल्पनानाएँ होती गईं।

आधुनिक संस्कृत में ” तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः ” अमर । स्वर्भानु राहु को कहते हैं कि असुर एक भिन्न जाति मानी जाती है, अतः इस प्रकार का महाभ्रम उत्पन्न हुआ है । मैं बारम्बार कह चुका हूँ कि वेदों की एक छोटी सी बात लेकर बड़ी-बड़ी गाथाएँ बनाते गये। इसलिए उचित है कि लोग वेदों को पढ़ें- पढ़ावें अन्यथा वे कुसंस्कारों से कदापि न छूट सकेंगे ।

ग्रहण क्या है ?

चन्द्र ग्रहण में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दीख पड़ता है किन्तु मण्डल के ऊपर काली और लाल छाया रहती है । कभी सम्पूर्ण मण्डल के ऊपर और कभी उसके कुछ भाग के ऊपर वह छाया रहती है । सूर्यग्रहण इससे विलक्षण होता है । सूर्यमण्डल अधिक वा स्वल्प भाग उस समय छिपा हुआ रहता

है ग्रहण दो प्रकार के होते हैं । १ – जिनमें सूर्य और चन्द्र के मण्डल का कुछ भाग ही छाया आच्छादित होता है, वह भाग ग्रास वा असम्पूर्ण ग्रास कहाता है। लोग उसको उतना ही अनुभव करते हैं। जितना मेघ से वे दोनों सूर्य और चन्द्र छिप जाएँ । २ – सम्पूर्ण ग्रास में सम्पूर्ण सूर्य और आच्छादित हो जाता है । सूर्य के सम्पूर्ण ग्रास के समय पृथिवी के ऊपर आश्चर्यजनक लीला होती है । पृथिवी के ऊपर उस समय एक विचित्र अन्धकार हो जाता है। न तो रात्रि के समान ही वह अन्धकार है और न ऊषाकाल के समान प्रकाश एवं अन्धकार युक्त ही है । आकाश में ताराएँ दीख पड़ने लगती हैं । पक्षिगण अपने घोसले की ओर दौड़ते हैं। रात्रिञ्चर पशु-पक्षी रात्रि समझ कर बाहर निकलने लगते हैं । अज्ञानी जन डर जाते हैं। बहुत दिनों की बात है कि दो देशों के मध्य घोर संग्राम हो रहा था, उसी समय सूर्यग्रहण लगा। दोनों दलों के सिपाही इतने डर गये कि युद्ध बन्द कर दिया गया और दोनों दलों में सन्धि हो गई। सूर्य के समग्र ग्रास से आजकल भी अज्ञानी जनों में अधिक भय उत्पन्न होता है । वे समझते हैं कि इससे किसी महान् राजा की मृत्यु होगी। महा दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी, भयंकर युद्ध, भूकम्प आदि उपद्रव इस वर्ष होंगे, किन्तु ये सब मिथ्या बातें हैं । ग्रहण से मृत्यु और दुर्भिक्षादि का कोई भी सम्बन्ध नहीं है ।

नाना कल्पनाएँ

जिन देशों में ग्रहण के तत्व नहीं जानते थे वहाँ इसके सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ लोग किया करते थे १ – प्राचीन काल के रोम निवासी चन्द्रमा को एक देवी समझते थे । जब चन्द्र ग्रहण होता था तब वे मानते थे कि इस समय चन्द्र देवी अपने बच्चे के साथ परिश्रम कर रही है । इसकी सहायता के लिए वे चन्द्र देवी के नाम पर बलि दिया करते थे, उनमें से कोई मानते थे कि कोई जादूगर चन्द्र देवी को क्लेश पहुँचा रहा है । इस हेतु यह काली हो गई है इत्यादि ।

२ – अमेरिका के कुछ मनुष्य मानते थे कि जब-जब चन्द्रमा बीमार हो जाता है तब-तब ग्रहण लगता है । उनको इससे अधिक भय होता था कि ऐसा न हो कि वह हम लोगों के ऊपर गिर कर नष्ट कर दे । इस आपत्ति से बचने के लिए और चन्द्रमा को जगाने के लिए बड़े-बड़े ढोल पीटा करते थे । कुत्तों को मार-मार कर भौंकाते थे, स्वयं अपने बड़े जोर से चिल्लाया करते थे । उसके नैरोग्य के लिए देवताओं से प्रार्थनाएँ करते थे ।

३ – अमेरिका के मैक्सिको देश निवासी समझते थे कि चन्द्रमा और सूर्य में कभी-कभी तुमुल संग्राम हो जाता है । चन्द्रमा हार जाता है उसको बड़ी चोट लग जाती है, इसीलिये इसकी ऐसी दशा होती है । वहाँ के लोग ग्रहण के समय उपवास किया करते थे । स्त्रियाँ डर कर अपनी देह को ही पीटने लगती थीं । कुमारिकाएँ अपनी बाहु में से रक्त निकालने लगती थीं। छोटे-छोटे बच्चे रोने लगते थे ।

अफ्रीका देश अभी तक महान्धकार में है। यहाँ के लोग निग्रो ( हबसी ) कहलाते हैं। वे जंगली अतिमूर्ख पशुवत् हैं। बहुत सी जातियाँ अभी तक कपड़ा पहनना भी नहीं जानती हैं । वहाँ कोई एक यांत्रिक चन्द्र ग्रहण के समय उपस्थित था, वह इसका प्रभाव इस प्रकार वर्णन करता है । एक दिन सन्ध्या समय शीतल वायु चल रही थी । लोग बड़े आनन्द से इधर-उधर मैदान में हवा खा रहे थे । चन्द्रमा के पूर्ण एवं स्वच्छ प्रकाश से और भी लोग बहुत प्रमुदित हो रहे थे ।

इतने में ही चन्द्र कुछ-कुछ काला होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे सर्वग्रास हो गया । ज्यों-ज्यों चन्द्र काला पड़ता जाता था त्यों-त्यों आनन्द घटता जाता था, भय और घबराहट बढ़ती जाती थी । सर्वग्रास के समय लोग बहुत घबरा कर इतस्ततः दौड़ने लगे । सैकड़ों पुरुष वहाँ के राजा के निकट दौड़ गये और कहने लगे कि यह आकाश में क्या हो रहा है। इस समय मेघ भी नहीं जिससे चन्द्रमा छिप जाए। वे एक-दूसरे के मुख अचम्भा से देखने लगे कि इस समय क्या आफत हम लोगों के ऊपर आवेंगी। वे ग्रहण के तत्त्व नहीं जानते थे, इसलिये इस प्रकार आकुल-व्याकुल हो रहे थे। बहुत आदमी बहुत जोर से चिल्लाने लगे। कोई डंकाओं को पीटने लगे, कोई तुरही फूंकने लगे। वे मानते थे कि कोई महान् साँप आ के चन्द्रमा को पकड़ लेता है, इसलिये यहाँ से इस असुर को डरा देना चाहिए ताकि वह चन्द्र को छोड़ कर भाग जाए। इसी अभिप्राय से वे डंका बजाना, सब कोई मिलकर हल्ला मचाना, तुरही फूंकना आदि काम जरूरी समझते थे । जब धीरे-धीरे पुनः चन्द्रमा स्वच्छ होने लगा तब वे निग्रो ( हबसी ) बड़ी खुशी मना-मना कर अपने पुरुषार्थ की प्रशंसा करने लगे ।

५ – शोक की बात है कि जिनके पूर्वज अच्छी प्रकार ग्रहण तत्त्व जानते थे वे भी भारतवासी इन्हीं जंगलियों के समान ग्रहण मानने लगे। आश्चर्य यह है कि यहाँ एक ओर ज्योतिषशास्त्र चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि पृथिवी की छाया से चन्द्र ग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । न कोई असुर, न कोई साँप और न कोई अन्य पदार्थ ही चन्द्र-सूर्य को क्लेश पहुँचा सकता है । चन्द्र-सूर्य एक जड़ पदार्थ है । प्रतिदिन छायाकृत ग्रहण रहता ही है इसी कारण चन्द्रमा बढ़ता और घटता है । मेघ के आने से जैसे चन्द्रमा और सूर्य छिपा सा प्रतीत होता है । वैसा ही ग्रहण भी समझो। ग्रहण के कारण कदापि भी महामारी आदि उपद्रव नहीं होते इत्यादि विस्पष्ट और सत्य बात ज्योतिष शास्त्र बतला रहा है । वह शास्त्र पढ़ाया भी जा रहा हैं किन्तु दूसरी ओर मूर्खता की ऐसी धारा चल रही है कि जिसका वर्णन महाकवि भी नहीं कर सकते । ग्रहण के समय हजारों-लाखों आदमी काशी, प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों की ओर दौड़ते हैं। राहु नाम के असुर से चन्द्र सूर्य को बचाने हेतु कोई जप, कोई दान, कोई पूजा करता। इस समय

नाना कल्पनाएँ

को अशुभ समझ कोई स्नान करता, कोई समझता है कि यदि ग्रहण के समय काशी, गंगा वा कुरुक्षेत्र में स्नान हो गया तो मुक्ति साक्षात् हाथ में ही रखी हुई है । डोम और भंगी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि ग्रहण लग गया, दान पुण्य करो इत्यादि विचित्र लीला आज भी भारत में देखते हैं। पुराणों ने यहाँ की सारी विद्याएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं। वे कैसी मूर्खता की कथा गढ़ते हैं – एक समय देव और असुर मिल के समुद्र मंथन कर अमृत ले आए। असुरगण अमृत को ले भागने लगे । देवगण वहाँ ही मुँह देखते रह गये । तब विष्णु भगवान् मोहिनी स्त्री रूप धर असुरों के निकट जा उन्हें मोहित कर उनसे अमृत के घड़े को अपने हाथ में लेके दोनों दलों को बराबर बाँट देने की सन्धि कर उन्हें बिठला मन में छल रख अमृत बाँटने लगे । प्रथम देव लोगों को अमृत देना आरम्भ किया । असुरों में एक राहु विष्णु के कपट – व्यवहार से परिचित था, अतः वह सूर्य और चन्द्र के बीच में आके बैठ गया था । ज्योंही विष्णु उस राहु को अमृत देने लगे त्योंही सूर्य और चन्द्र ने इशारा किया किन्तु कुछ अमृत इसके हाथ पर गिर चुका था और उसको उसने पी भी लिया । विष्णु ने उसे असुर जान चक्र से इसका शिर काट लिया। वह राहु और केतु दो हो गया । तब से ही वे दोनों अपने बैरी सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर पीड़ा दिया करते हैं, इसीलिये ग्रहण होता है । यह पौराणिक गप्प है ।

६ – बौद्ध सम्प्रदायी भी पौराणिक ही एक प्रकार से हैं, अतः वे भी राहुकृत ही ग्रहण मानते हैं । इनमें चन्द्रप्रीति और सूर्यप्रीति नाम के दो स्तोत्र ग्रहण के समय में पड़ते हैं । चन्द्रप्रीति में इस प्रकार वर्णन आता है कि एक समय किसी एक स्थान में बुद्धदेव जी समाधिस्थ थे। उसी समय राहु नाम का असुर चन्द्रमा को अपने पेट में निगलने लगा । चन्द्र बहुत ही दुःखित हुए । बुद्ध को समाधि में देख जोर से पुकार चन्द्र भगवान् कहने लगे कि मैं आपकी शरण में हूँ । आप सबकी रक्षा करते हैं मेरी भी आप रक्षा कीजिए। इस कातर शब्द को सुन दयालु बुद्ध जी ने राहु से कहा कि तू यहाँ से चन्द्र को छोड़ भाग जा, क्योंकि चन्द्र ने मेरी शरण ली है । बुद्ध की इतनी बातें सुन चन्द्र को छोड़ डरता – काँपता साँस लेता हुआ वह राहु असुराधिपति विप्रचिति के निकट भाग कर जा पहुँचा और कहने लगा कि यदि मैं चन्द्रमा को न छोड़ता तो न जाने मेरी क्या दशा होती । बुद्ध ने मेरा अत्याचार देख लिया । सूर्यप्रीति में भी इसी प्रकार की गप्प है।

७- चीन देश निवासी भी निग्रो ( हबसी ) हिन्दू और बौद्ध के समान ही समझते थे कि कोई लाल और कृष्ण साँप ही चन्द्र एवं सूर्य को तंग किया करता है । वे हिन्दू के समान न तो स्नान करते और न बौद्ध के समान चन्द्रप्रीति आदि स्तोत्र ही पढ़ते, किन्तु अफ्रीका के हबसी के समान सब कोई मिलकर बड़े जोर से चिल्लाने, ढोल बजाने, डंका पीटने लगते हैं ताकि इस शोर से डर कर वह सर्प भाग जाए । इत्यादि भिन्न देशवासी, अपनी-अपनी कल्पनाएँ किया करते हैं।

ये सर्व कल्पनाएँ मिथ्या हैं, क्योंकि यद्यपि चन्द्रमा और सूर्य यहाँ से देखने में अतिलघु प्रतीत होता है, किन्तु चन्द्रमा भी एक पृथिवी के समान ही लोक है वहाँ भी जीव निवास करते हैं । पृथिवी से थोड़ा ही छोटा चन्द्र है। सूर्य की कथा ही क्या । १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य पृथिवी से बड़ा है । वह अग्नि का महासमुद्र है । इस सूर्य के चारों तरफ लाख कोश में कोई शरीरधारी जीव इसकी ज्वाला से नहीं बच सकता है । यह सम्पूर्ण पृथिवी भी पर्वतसमुद्रादि सहित यदि सूर्यमंडल में डाल दी जाए तो एक क्षण में जलकर भाप हो जाए। जब ऐसी विस्तृत पृथिवी की वहाँ पर यह दशा हो तो आप विचार सकते हैं कि सर्प और असुर वहाँ कैसे पहुँच सकते। अतः राहु आदि की कथा सर्वथा मिथ्या है, पुनः जब राहुकृत ग्रहण होता तो नियमपूर्वक पूर्णिमा और अमावस्या तिथि को ही चन्द्र-सूर्य ग्रहण किस प्रकार होता । वह चेतन राहु स्वतन्त्र है जब चाहता तब ही सूर्य चन्द्र को धर पकड़ता किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः यह कल्पना मिथ्या है । पुनः विद्वान् गण सैकड़ों वर्ष पहले ही ग्रहणों के मास, तिथि, पल, क्षण बतला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे किस क्षण में ग्रहण और किस क्षण में मोक्ष होना आरम्भ होगा, यह भी कह सकते हैं । तब आप विचार करें कि यदि कोई सर्प वा राहु का यह कार्य होता तो गणित के द्वारा पण्डितगण इस विषय को कैसे कह सकते थे । इस हेतु उपयुक्त समस्त कल्पनाएँ मिथ्या होने से त्याज्य हैं ।

पृथिवी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ती है, अतः चन्द्र ग्रहण होता है । इसी हेतु चन्द्र ग्रहण ईषदुक्त सा प्रतीत होता है । चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । चन्द्रमा सर्वथा काला है । अत: सूर्य ग्रहण काला प्रतीत होता है । इसी कारण लाल और कृष्ण सर्प की भी कथा चल पड़ी है ।

वर्ष में २ से कम और ७ से अधिक ग्रहण नहीं हो सकता । साधारणतया वर्ष में ४ चार ग्रहण होते हैं । इति ।

चन्द्र में कलङ्क पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब इस बात को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं कि लोक चन्द्रमा में कलङ्क क्यों मानते हैं । कारण इसका यह है कि जिस प्रकाशमय रूप को चन्द्रमा जगत में दिखला रहा है वह उसका अपना रूप नहीं है । जैसे कोई महादरिद्र धूर्त नर दूसरे के कपड़े माँग कर और उन्हें पहन लोक में अपने को धनिक कहे तो उसको सब कोई कलङ्क ही देगा और उसको धूर्त ही कहेगा, इसी प्रकार ज्योतिरहित चन्द्रमा में दूसरे की ज्योति देख लोग कहने लग गये कि चन्द्र में कलङ्क है । धीरे-धीरे जब इस विज्ञान को लोग भूलते गये तब इसको अनेक प्रकार से कल्पना करने लगे । किन्होंने कहा कि इसमें मृग रहता है, इस हेतु कालिमा दीखता है । किन्होंने कहा कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ है और समुद्र में विष भी रहा करता था, अतः इन दोनों के संयोग होने में चन्द्रमा का बहुत सा हिस्सा कृष्ण (काला) प्रतीत होता है । कोई पौराणिक यह कहते हैं कि गुरु पत्नी तारा के साथ व्यभिचार करने से चन्द्र लाञ्छित माना गया है। इस तरह चन्द्र के सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ देश में प्रचलित हैं, वे सब ही मिथ्या हैं ।

मृगाङ्क शशी – मृगाङ्क चन्द्र क्यों कहाता है ? इसका भी यथार्थ कारण यह था कि मृग नाम भी सूर्य का है । वह सूर्य अपनी किरण द्वारा चन्द्र की गोद में रहता है, अतः चन्द्र के नाम मृगाङ्क और शशी आदि हुए हैं ।

पृथिवी और बौद्ध सिद्धान्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

भपज्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्या कुरिति प्रतीति: । खस्थं न दृष्टंच गुरु क्षमातः खेऽधः प्रयातीति वदन्ति बौद्धाः ॥ द्वौ द्वौ रवीन्दू भगणौ चतद्व देकान्तरौ तावुदयं व्रजेताम् । यदब्रु वन्नेव मनर्थवादान् ब्रवीम्यतस्तान प्रति युक्तियुक्तम् ॥

बौद्ध कहते हैं कि आकाश में निराधार सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि को भ्रमण करते देखते हैं । इसी प्रकार पृथिवी निराधार ही है और कोई भी भारी पदार्थ आकाश में स्थिर नहीं रहता, अतः पृथिवी को भी स्थिर मानना उचित नहीं । तो यह नीचे को जा रही है जैसा मानना चाहिए। जैन और बौद्ध यह भी मानते हैं कि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि दो-दो हैं, एक अस्त होता है तो दूसरा काम करता है । इस पर भास्कराचार्य कहते हैं कि इनका कथन अनर्थवाद है और इसमें यह युक्ति देते हैं;

यथा-  भूःखेऽधः खलु यातीति बुद्धिर्बोद्ध ? मुधा कथम् । याता- यातञ्च दृष्टवापि खे यत्क्षिप्तं गुरु क्षितिम् ॥

हे बौद्ध ! ऐसी व्यर्थ बुद्धि आपको कहाँ से आई, जिससे आप कहते हैं कि यह भूमि नीचे को जा रही है । यदि भूमि नीचे को गिरती हुई रहती तो आकाश में फेंके हुए पत्थर आदि लघु पदार्थ कभी नहीं पुन: लौटकर पृथिवी को पाते, क्योंकि पृथिवी बहुत भारी होने से नीचे को अधिक वेग से जाती होगी और फेंके हुए पदार्थों का वेग उससे न्यून ही रहेगा, परन्तु क्षिप्त वस्तु पृथिवी पर आ जाती है, अतः पृथिवी आकाश के नीचे जा रही है यह मिथ्या भ्रम है और जो यह कहते हैं कि दो-दो चन्द्र-नक्षत्र आदि हैं सो ठीक नहीं, क्योंकि दिन में ही ये देख पड़ते हैं ।

पृथिवी के ऊपर मनुष्यों का वास – यह भी एक महाभ्रम है कि हम भारतवासी तो पृथिवी के ऊपर बसते हैं और बलि राजा अपने असुर दलों के साथ पृथिवी के नीचे पाताल में राज्य करता है या नाग लोक कहीं पाताल में है । महाशयो ! पाताल कोई देश नहीं जैसे यहाँ से हम नीचे भाग को पाताल समझते हैं। वैसे ही उस भाग के रहने हारे हमको पाताल में समझते हैं। भूमि के वास्तविक स्वरूप का बोध न होने से ऐसे-ऐसे कुसंस्कार उत्पन्न हुए हैं । पृथिवी के चारों तरफ मनुष्य बसते हैं और उन्हें सूर्य का प्रकाश भी यथासम्भव प्राप्त होता रहता है। एक ही समय में पृथिवी के भिन्न-भिन्न भाग में भिन्न समय रहता है । जब अर्ध भाग में दिन रहता है तब अन्य अर्ध भाग में रात्रि होती है । इस विज्ञान को हमारे पूर्वज अच्छी प्रकार जानते थे; यथा-

लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनार्द्धं यमकोटिपुर्याम् । अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव ॥

जिस समय लंका में सूर्य का उदय होता है उस समय यमकोटि नामक नगर में दोपहर, नीचे सिद्धपुरी में अस्तकाल और रोमक में रात्रि रहती है ।

इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी पर के सब मनुष्यों में पहले भी आजकल के समान व्यवहार होता था । ज्योतिष शास्त्र की बड़ी उन्नति थी और पृथिवी के ऊपर चारों तरफ मनुष्य वास करते हैं, हम विज्ञान को भी जानते थे ।

प्रश्न – यज्ञ के प्रारम्भ मे जल को हवन कुंड के किस दिशा मे रखना चाहिए ? आचार्य कपिल

उत्तर – जल (आप:) स्त्रिलिंग का प्रतीक है और अग्नि पुल्लिंग।
जैसे स्त्री पति के बांयी तरफ सोती है ऐसे ही जल को अग्नि के बायीं ओर (उत्तर दिशा) मे रखना चाहिए।
अग्नि और जल के बीच से नही निकलना चाहिए क्योंकि स्त्री और पुरुष के जोड़े के बीच नही पड़ना चाहिए।
यजुर्वेद के मन्त्र 1/6 को पढते हुए जल को लाना और 1/7 को पढते हुए वेदी के पास रखना चाहिए।
इन दोनो मंत्रो को अर्थ सहित आगे भेजेंगे।

विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं
जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं?
उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से खाते हैं। हवन उन्ही पदार्थो से करना चाहिए जो खाने योग्य हों जैसे मेवा जौ चावल खीर आदि।
तो जिन पदार्थो से हवन करे उन्हे नही खा सकते हैं क्योंकि पहले देव खायेंगे।

जिनका हवन मे प्रयोग न हो उनको खा सकते हैं
और उतना खाना चाहिए जिससे न खाने मे गणना हो सके।
व्रत मे वन मे उपजी हुई चीज खानी चाहिए औषधि य वनस्पति।
व्रत रखने के दूसरे दिन यज्ञ की जब तैयारी करते हैं तो पहले जल को लाकर वेदी के पास रखते हैं

प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच

आजकल सनातनी ने यज्ञ करना छोड दिया है ।

अग्निहोत्र के विषयमें एक महत्वपूर्ण संवाद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ था, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है।

राजा जनक याज्ञवल्क्य जी को पूछते है की क्या आप अग्निहोत्र को जानते हो? तब याज्ञवल्क्यजी उत्तर देते है की – हे राजन्, में अग्निहोत्र को जानता हूं। जब दूध से घी बनेगा, तब अग्निहोत्र होगा।

तब जनकने याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नो की शृङ्खला लगा दी।

जनक – अगर दूध ना हो तो किस प्रकार हवन करोगे?

याज्ञ – तो गेहूं और जौं से हवन करेंगे।

जनक – अगर गेहूं और जौं ना हो तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – तो जङ्गल की औषधीओ से यज्ञ करेंगे।

जनक – जङ्गल की जडी-बूटी भी ना हो, तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – समिधा से हवन कर लेंगे।

जनक – अगर समिधा ना हो तो?

याज्ञ – जल से हवन कर लेंगे।

जनक – यदि जल न हो तो कैसे हवन करेंगे?

याज्ञ – तो हम सत्य से श्रद्धामें हवन करेंगे।

याज्ञवल्क्यजी के उत्तर से राजा जनक संतुष्ट हुए। केवल भौतिक पदार्थो का प्रयोग कर यज्ञ करना ही यज्ञ करना नहीं होता। सत्य और श्रद्धा को धारण करना भी अग्निहोत्र ही है।

इस लिए यज्ञ नित्य करे।

#पेरियार के प्रश्नों का श्रृंखलाबद्ध #प्रश्न – उत्तर #संख्या (०१.) क्या तुम कायर हो जो हमेशा छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने नहीं आते? उत्तर – आचार्य योगेश भारद्वाज

#पेरियार के प्रश्नों का श्रृंखलाबद्ध उत्तर।(प्रत्येक उत्तर के बाद मेरे हस्ताक्षर अंकित हैं, अर्थात् मैं अपने उत्तर का उत्तरदायित्व भी घोषणापूर्वक धारण करता हूं।)

#प्रश्न#संख्या (०१.) क्या तुम कायर हो जो हमेशा छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने नहीं आते? –ई वी रामासामी पेरियार#उत्तर:✓क्या कोई यह कह सकता है, कि मैंने ऐसे बालक को गोद में खिलाया, जो कभी पैदा ही नहीं हुआ …?✓क्या कोई यह कह सकता है, कि मैंने ऐसा भोजन किया, जो कभी संसार में था ही नहीं….?✓क्या कोई यह कह सकता है, कि मैं ऐसे वृक्ष पर बैठा रहा, जो कभी उत्पन्न नहीं हुआ…? उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर एक सामान्य से सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी #नहीं में ही देगा। यह पेरियार महोदय जो स्पष्ट तौर पर घोषणा करते हैं, कि मैं नास्तिक हूं। अर्थात ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता; वह आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर को संबोधित कर रहे हैं। आखिर जिस वस्तु की सत्ता ही आप स्वीकार नहीं करते है, उस वस्तु को आप संबोधित कैसे कर सकते हैं …? बंधुओं ..! कभी आप पागल खाने में जाओगे, तो वहां पाओगे, कि वहां पागल लोग हवा में बातें करते रहते हैं। उनके मस्तिष्क विक्षिप्त होते हैं। इसलिए वे अपने सामने किसी के होने की कल्पना कर लेते हैं; और उन्ही कल्पनाओं से भी बात करते रहते हैं। पेरियार महोदय ईश्वर को संबोधित करना, जिसे वह मानते ही नहीं है…. भला मानसिक विक्षिप्तता नहीं तो और क्या है….?आइए…. अब मूल प्रश्न की ओर लौटते हैं। पेरियार महोदय का कहना है, कि ईश्वर अगर है, तो वह दिखाई देना चाहिए अर्थात दिखाई नहीं देता तो ईश्वर नहीं है। बंधु यह बात बालकों के समान है, कि जो वस्तु दिखाई नहीं देती वह नहीं है, या कभी नहीं थी। हमें संसार में ऐसी अनेक वस्तुएं अस्तित्व में दिखाई देती हैं जो कभी दिखाई नहीं देती….. जैसे भूख प्यास, ईर्ष्या, ममता, स्नेह यह सभी भाव हैं, जो दिखाई नहीं देते, किंतु इनकी सत्ता को नकारा नहीं जा सकता। आकाश अर्थात space….संसार में आकाश को कोई नहीं देख सकता लेकिन फिर भी आकाश की सत्ता है। अर्थात ऐसे अस्तित्व संसार में होते हैं, जो दिखाई नहीं देते; उन्हे आंख से नही बुद्धि से देखना पड़ता है। तो पेरियार साहब का यह प्रश्न निरा बालको वाला प्रश्न है। प्रत्युत् मुझे तो लगता है, कि वह कल्पनाओं में रहते थे, जैसे एक विक्षिप्त मनुष्य रहता है। वैसी ही कल्पनाओं में उन्होंने अनेक चिन्हित और अचिन्हित कल्पनाएं कर ली; जिसे उन्होंने भोले भाले लोगों के सिर पर रख दिया। उन्ही भोले लोगों में से कुछ लोग उनके अनुयाई हो गए। इन अनुयायियों को पेरियार से प्रश्न करना चाहिए, कि तुम्हारी 12 साल की नाबालिक बहन को देखकर तुम्हारे मन में जो वासना उठी ….क्या उस वासना को कोई देख सकता है …?तुम्हारी अपनी बेटी को, जो तुमसे 38 साल छोटी थी, उसे देखकर तुम्हारे मन में जो वासना उठी क्या वह दिख सकती थी।अपने अनन्य मित्र “मुदलियार” की विधवा पत्नी को देखकर तुम्हारे मन में जो वासना उठी… क्या उस वासना का कोई स्वरूप था….? किंतु वह मौजूद तो थी ना….इसलिए पहला प्रश्न पूरी तरह निरर्थक है।अब प्रश्न का दूसरा भाग जिसमें वह कहते हैं क्या तुम कायर हो, तो यह केवल गाली गलौच है। इसका उत्तर देने की मैं आवश्यकता नहीं समझता। धन्यवाद नमस्ते।


( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व

|| ओ३म् ॥
( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वैदिक धर्म में सिर पर चोटी (शिखा ) धारण करने का असाधारण महत्व है। प्रत्येक बालक के जन्म के बाद मुण्डन संस्कार के
नवजात बच्चे पश्चात् सिर के उस भाग पर गौ के के खुर के प्रमाण वाले आकार की चोटी रखने का विधान है।
यह वही स्थान सिर पर होता है, जहां से सुषुम्ना नाड़ी पीठ के मध्य भाग में से होती हुई ऊपर की ओर आकर समाप्त होती है
और उसमें से सिर के विभिन्न अंगों के वात संस्थान का संचालन करने के लिए अनेक सूक्ष्म वात नाड़ियों का प्रारम्भ होता है ।
सुषुम्ना नाड़ी सम्पूर्ण शरीर के वात संस्थान का संचालन करती है।
दूसरे शब्दों में उसी से वात संस्थान प्रारम्भ व संचालित होता है। यदि इसमें से निकलने वाली कोई भी नाड़ी किसी भी कारण
से सुस्त पड़ जाती है तो उस अंग को फालिज़ (अधरंग) मारना कहते हैं। आप यह ध्यान रक्खें कि समस्त शरीर को जो भी
शक्ति मिलती है, वह सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा ही मिलती है।
सिर के जिस भाग पर चोटी रखी जाती है, उसी स्थान पर अस्थि के नीचे लघुमस्तिष्क का स्थान होता है, जो गौ के नवजात
बच्चे के खुर के ही आकार का होता है और शिखा भी उतनी ही बड़ी उसके ऊपर रखी जाती हैं।
बाल गर्मी पैदा करते हैं। बालों में विद्युत का संग्रह रहता है जो सुषुम्ना नाड़ी को उतनी ऊष्पा हर समय प्रदान करते रहते हैं,
जितनी कि उसे समस्त शरीर के वात नाड़ी संस्थान को जागृत व उत्तेजित रखने के लिए आवश्यकता होती है। इसका
परिणाम यह होता है कि मानव का वात नाड़ी संस्थान आवश्यकतानुसार जागृत रहता है जो समस्त शरीर को बल देता है।
किसी भी अंग में फालिज गिरने का भय नहीं रहता. है । और साथ ही लघु मस्तिष्क विकसित होता रहता है जिसमें जन्म-
जन्मान्तरों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार संग्रहीत रहते हैं।
यह परीक्षण करके देखा गया है कि बड़ी गुच्छेदार शिखा धारण करने वाले दाक्षिणीय ब्राह्मणों के मस्तिष्क शिखा न रहने
वाले ब्राह्मणों की अपेक्षा विशेष विकसित पाये गये हैं। यह परीक्षण अनेक वैज्ञानिकों ने दक्षिण भारत में किया था।
सुषुम्ना का जो भाग लघुमस्तिष्क को संचालित करता है । वह उसे शिखा द्वारा प्राप्त ऊष्मा (विद्युत) से चैतन्य बनाता है।
इससे स्मरण शक्ति भी विकसित होती है।
वेद में शिखा धारण करने का विधान कई स्थानों पर मिलता है, देखिये-
शिखिभ्यः स्वाहा॥

  • अथर्ववेद १९-२२-१५
    अर्थ- चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो। आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुखे श्मश्रूणि न व्याघ्रलोमा केशा न शीर्षन्यशसे
    श्रियैशिखा सिँहस्य लोमत्विषिरिन्द्रियाणि ॥
  • यजुर्वेद अध्याय १९ मन्त्र ९२ यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।
    याज्ञिकैगोदर्पण माजनि गोक्षुर्वच्च शिखा ।
  • यजुर्वेदीय काठकशाखा । अर्थात् सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त मानव को गौ के खुर के बराबर स्थान में चोटी रखनी चाहिये।
    नोट-गौ के खुर के प्रमाण से तात्पर्य है कि गाय के पैदा होने के समय बछड़े के खुर के बराबर सिर पर चोटी धारण करें।
    • केशानाँ शेष कारणं शिखास्थापनं केश शेष करणम्।

इति मंगल हेतोः ॥
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-पारस्कर गृह्य सूत्र
मुण्डन संस्कार के बाद जब भी बाल सिर के कटावे तो चोटी के बालों को छोड़कर शेष बाल कटावे, मंगलकारक होता है।
सदोपवीतिना भाव्यं सदा वद्धशिखेन च। बिशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ॥
यह

  • कात्यायन स्मृति ४ अर्थ-यज्ञोपवीत सदा धारण करें तथा सदा चोटी में गांठ लगा कर रखें। बिना शिखा व यज्ञोपवीत के
    कोई यज्ञ सन्ध्योपासनादि कृत्य न करें अन्यथा वह न करने के ही समान है।
    बड़ी शिखा धारण करने से वीर्य की रक्षा करने में भी सहायता मिलती है। शिखा बल-बुद्धि लक्ष्मी व स्मृति को संरक्षण प्रदान
    करती है।
    एक अंग्रेज डॉक्टर विक्टर ई क्रोमर ने अपनी पुस्तक विरलि कल्पक में लिखा है जिसका भावार्थ निम्न प्रकार है-
    ध्यान करते समय ओज शक्ति प्रकट होती है। किसी वस्तु पर चिन्तन शक्ति एकाग्र करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौड़ने
    लगती है।
    यदि ईश्वर पर ध्यान एकाग्र किया जावे तो मस्तिष्क के ऊपर शिखा के चोटी के मार्ग से ओज शक्ति प्रकट होती है या प्रवेश
    करती है। परमात्मा की शक्ति इसी मार्ग से मनुष्य के भीतर आया करती है।
    सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न योगी इन दोनों शक्तियों के असाध रण सुन्दर रंग भी देख लेते हैं। जो शक्ति परमात्मा के द्वारा मस्तिष्क में
    आती है वह वर्णनातीत है।
    प्रोफेसर मैक्समूलर ने भी लिखा था-
    The Concentration of mind upwards sends a rush of this power through the of the head.
    अर्थात् शिखा द्वारा मानव मस्तिष्क सुगमता से इस ओज शक्ति को धारण कर लेता है। श्री हापसन ने भारत भ्रमण के पश्चात्
    एक लेख में गार्ड पत्रिका नं० २५८ में लिखा था।
    For a long time in India I studied on Indian civilization and tradition southern Indians cut their hair up to
    half head only. I was highly effected by their mentality. I assert that the hair tuft on head is very useful in
    Culture of mind. I also believe in Hindu religion now. I am very particular about hair tuft.
    अर्थात् भारत में कई वर्षों तक रहकर मैंने भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का अध्ययन किया। दक्षिण भारत
    में आधे सिर तक बाल रखने की प्रथा है। उन मनुष्यों की बौद्धिक विलक्षणता से मैं प्रभावित हुआ। निश्चित रूप से शिखा
    बौद्धिक उन्नति में बहुत सहायक है । मेरा तो हिन्दू धर्म में अगाध विश्वास है और अब मैं चोटी धारण करने का कायल हो गया
    हूँ।
    इसी प्रकार सरल्यूकस वैज्ञानिक ने लिखा है-
    शिखा का शरीर के अंगों से प्रधान सम्बन्ध है। उसके द्वारा शरीर की वृद्धि तथा उसके तमाम अंगों का संचालन होता है। जब
    से मैंने इस वैज्ञानिक तथ्य का अन्वेषण किया है मैं स्वयं शिखा रखने लगा हूँ।

सिर के जिस स्थान पर शिखा होती है उसे Pinial- Joint कहते हैं। उसके नीचे एक ग्रन्थि होती है जिसे Picuitary कहते हैं।
इससे एक रस बनता है जो सम्पूर्ण शरीर व बुद्धि को तेज सम्पन्न तथा स्वस्थ एवं चिरंजीवी बनाता है। इसकी कार्य शक्ति
चोटी के बड़े बालों व सूर्य की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
मूलाधार से लेकर समस्त मेरु मण्डल में व्याप्त सुषुम्ना नाड़ी का एक मुख ब्रह्मरन्ध ( बुद्धि केन्द्र) में खुलता है।
इसमें से तेज (विद्युत) निर्गमन होता रहता है।
शिखा बन्धन द्वारा यह रुका रहता है। इसी कारण से शास्त्रकारों ने शिखा में गांठ लगाकर रखने का विधान किया है।
डॉक्टर क्लार्क ने लिखा है- के
मुझे विश्वास हो गया है कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से भरा हुआ है। चोटी रखना हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह ही नहीं
बल्कि सुषुम्ना नाड़ी की रक्षा लिए ऋषियों की खोज का एक विलक्षण चमत्कार है।
अर्ल टामस ने सन् १८८१ में अलार्म पत्रिका के विशेषांक में लिखा था-
Hindus keep safety of Medulla oblongle by lock of hair. It is superior than other religious experiments.
Any way the safety of oblongle is essential.
अर्थात् सुषुम्ना की रक्षा हिन्दू शिखा रख कर करते हैं। अन्य धर्म के कई प्रयोगों में चोटी सबसे उत्तम है। किसी भी प्रकार
सुषुम्ना की रक्षा आवश्यक है।
गुच्छेदार चोटी बाहरी उष्णता को अन्दर आने से रोकती है और सुषुम्ना व लघुमस्तिष्क तथा सम्पूर्ण स्नायविक
संस्थान की गर्मी से रक्षा करती है और शारीरिक विशेष उष्णता को बाहर निकाल देती है। हां, यदि अत्यन्त उष्ण प्रदेश हो तो
शिखा न रखना भी हानिकारक नहीं होगा।
संन्यासी ( चतुर्थ आश्रमी ) को शिखा न रखने का आदेश इस आधार पर है कि उसने तीन आश्रमों में उसे रखकर शरीर को पुष्ट
कर लिया होता है और चौथे आश्रम में वह योगाभ्यास द्वारा वात नाड़ी संस्थान को पुष्ट करता रहता है, अतः उसके लिये
शिखा विहित नहीं रह जाती है।

  • इस प्रकार वैदिक धर्म में शिखा वैज्ञानिक- आयुर्वेदिक तथा धार्मिक दृष्टि से मानव मात्र के लिये अत्यन्त उपयोगी है । किन्तु
    उससे लाभ तभी होगा जबकि शास्त्रादेश के अनुसार गौ के पैदाशुदा बच्चे के खुर के बराबर की जगह पर रखकर उसे बड़ा
    किया जायेगा व ग्रन्थि लगाकर रखा जावेगा।
    जापानी पहलवान अपने सिर पर मोटी चोटी गांठ लगाकर धारण करते हैं, यह भारतीय परम्परा जापान में आज भी
    विद्यमान देखी जा सकती है।
    चोटी के बाल वायु मण्डल में से प्राणशक्ति ( आक्सीजन) को आकर्षण करते हैं और उसे शरीर में
    स्नायविक संस्थान के माध्यम से पहुंचाते हैं। इससे ब्रह्मचर्य के संयम में सहायता मिलती है। जबकि शिखाहीन व्यक्ति कामुक व
    उच्छृंखल देखे जाते हैं।
    शिखा मस्तिष्क को शान्त रखती है तथा प्रभु चिन्तन में साधक को सहायक होती है। शिखा गुच्छेदार रखने व उससे गांठ
    बांधने के कारण प्राचीन आर्यो में ब्रह्मचर्य -तेज- मेधा बुद्धि व दीर्घायु तथा बल की विलक्षणता मिलती थी।
    जब से अंग्रेजी कुशिक्षा के प्रभाव में शिखा व सूत्र का परित्याग करना प्रारम्भ कर दिया है उनमें यह शीर्षस्थ गुणों का निरन्तर
    ह्रास होता चला जा रहा है।

पागलपन-अन्धत्व तथा मस्तिष्क के रोग शिखाधारियों को नहीं होते थे, वे अब शिखाहीनों में बहुत देखे जा सकते हैं।
जिस शिखा व सूत्र की रक्षा के लिए लाखों भारतीयों ने विधर्मियों के साथ युद्धों में प्राण देना उचित समझा, अपने बलिदान
दिये। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी गुरु गोविन्दसिंह धर्मवीर हकीकतराय आदि सहस्रों भारतीयों ने चोटी जनेऊ की रक्षार्थ
अन्तिम बलिदान देकर भी इनकी
रक्षा मुस्लिम शासन के कठिन काल में की, उसी चोटी जनेऊ को आज का बाबू टाइप का अंग्रेजीयत का गुलाम सांस्कृतिक
चिन्ह (चोटी जनेऊ) को त्यागता चला जा रहा है यह कितने दुःख की बात है।
आज के इस बाबू को इन परमोपयोगी धार्मिक एवं स्वास्थ्यवर्धक प्रतीकों को धारण करने में ग्लानि व हीनता महसूस होती
है।
परन्तु अंग्रेजी गुलामी की निशानी ईसाईयत की वेषभूषा पतलून पहन कर खड़े होकर मूतने (पेशाब करने) में कोई शर्म
अनुभव नहीं होती है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है तथा भारतीय दृष्टि से घोर असभ्यता की निशानी है।
आजकल का ये सभ्य कहलाने वाला व्यक्ति जहाँ चाहे खड़े होकर स्त्रियों, बच्चों अन्य पुरुषों की उपस्थिति का ध्यान किये बिना
ही मूतने लगता है, जबकि टट्टी और पेशाब छिपकर आड़ में एकान्त स्थान में त्यागने की भारतीय परम्परा है।
प्रश्न- यदि केवल चोटी न रखकर समस्त सिर पर लम्बे बाल रखे जावें तो क्या हानि होगी?
उत्तर-तालु भाग पर लम्बे बालों से स्मृति शक्ति कम हो जावेगी, दाहिने कान के ऊपर सिर पर लम्बे बालों से जिगर को हानि
होगी व बायें कान के ऊपर के भाग पर रखने से प्लीहा को नुकसान पहुंचेगा।
स्त्रियों के सिर पर लम्बे बाल होना उनके शरीर की बनावट तथा उनके शरीरगत विद्युत के अनुकूल रहने से उनको अलग से
चोटी नहीं रखनी चाहिए। उनका फैशन के चक्कर में पड़कर बाल कटाना अति हानिकारक रहता है।
अतः स्त्रियों को बाल कदापि नहीं कटाने चाहिये।
समाप्त।