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स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

ओ३म्

अथ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिस को सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसीलिये इस को सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिस का विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए उस को अन्यथा जानें वा मानें, उस का स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिस को आप्त अर्थात् सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिस को नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से उसका प्रमाण नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनिमुनि पर्य्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ जिन को कि मैं मानता हूँ सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।

मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन काल में एक सा सब के सामने मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है यदि मैं पक्षपात करता तो आर्य्यावर्त्त में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्य्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्मयुक्त चाल चलन है उस का स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उन का त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्यधर्म से बहिः है।

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं—कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित हों—उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और [अधर्मी] चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। इस में श्रीमान् महाराजे भर्तृहरि, व्यास जी [और] मनु ने श्लोक लिखे हैं, उन का लिखना उपयुक्त समझ कर लिखता हूँ—

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥

—भर्तृहरि [नीतिशतक ८५]

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥२॥

—महाभारत [उद्योगपर्व-प्रजागरपर्व अ॰ ४०। श्लोक ११-१२]

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥३॥      —मनु॰ [८।१७]

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥४॥

—मुण्डकोपनिषद् [३।१।६]

न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यं समाचरेत्॥५॥  —उपनिषदि॥

[तुलना—मनु॰ ८।१२]

इन्हीं महाशयों के श्लोकों के अभिप्राय से अनुकूल निश्चय रखना सबको योग्य है।

अब मैं जिन-जिन पदार्थों को जैसा-जैसा मानता हूँ उन-उन का वर्णन संक्षेप से यहाँ करता हूँ कि जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्रन्थ में अपने-अपने प्रकरण में कर दिया है। इन में से प्रथम—

१. ‘ईश्वर’ कि जिसको ब्रह्म, परमात्मादि नामों से कहते हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त परमेश्वर है उसी को मानता हूँ।

२. चारों ‘वेदों’ को विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त स्वतःप्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, कि जिस के प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो जैसे सूर्य्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और ११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उन का अप्रमाण करता हूँ।

३. जो पक्षपातरहित न्यायाचरण सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभङ्ग वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ मानता हूँ।

४. जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूँ।

५. जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्त्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, [न] है, न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य व्यापक, उपास्य उपासक और पिता पुत्रवत् आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूँ।

६. ‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरी प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म स्वभाव भी नित्य हैं।

७. ‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते, परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है, और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीन [को] प्रवाह से अनादि मानता हूँ।

८. ‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल हो कर नानारूप बनना।

९. ‘सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिस में ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये हैं? उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी।

१०. ‘सृष्टि सकर्तृक’ है। इस का कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर है। क्योंकि सृष्टि की रचना देखने, जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से सृष्टि का ‘कर्त्ता’ अवश्य है।

११. ‘बन्ध’ सनिमित्तक अर्थात् अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पाप कर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि ये सब दुःखफल करने वाले हैं। इसी लिये यह ‘बन्ध’ है कि जिस की इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

१२. ‘मुक्ति’ अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उस की सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।

१३. ‘मुक्ति के साधन’ ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं।

१४. ‘अर्थ’ जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय। और जो अधर्म से सिद्ध होता है उस को ‘अनर्थ’ कहते हैं।

१५. ‘काम’ वह है कि जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।

१६. ‘वर्णाश्रम’ गुण कर्मों के योग से मानता हूँ।

१७. ‘राजा’ उसी को कहते हैं जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से प्रकाशमान, पक्षपातरहित न्यायधर्म का सेवी, प्रजा में पितृवत् वर्त्ते और उन को पुत्रवत् मान के उन की उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।

१८. ‘प्रजा’ उस को कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को धारण कर के पक्षपातरहित न्यायधर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई राजविद्रोहरहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्त्ते।

१९. जो सदा विचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब का सुख चाहे, उस को ‘न्यायकारी’ मानता हूँ।

२०. ‘देव’ विद्वानों को, और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।

२१. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इस से विपरीत अदेवपूजा। इन मूर्त्तियों की पूजा कर्त्तव्य, इन मूर्त्तियों से इतर जड़ पाषाणादि मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।

२२. ‘शिक्षा’ जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और इनसे अविद्यादि दोष छूटें, उस को शिक्षा कहते हैं।

२३. ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाये ऐतरेयादि ब्राह्मण पुस्तक हैं उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।

२४. ‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।

२५. ‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध बनते जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।

२६. ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख, दुःख, हानि, लाभ में वर्त्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वर्त्तना बुरा समझता हूँ।

२७. ‘संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कर्त्तव्य समझता हूँ और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।

२८. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना, उत्तम समझता हूँ।

२९. जैसे ‘आर्य्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ।

३०. ‘आर्य्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात् आर्य्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है उसी को ‘आर्य्यावर्त्त’ कहते और जो इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य्य कहते हैं।

३१. जो साङ्गोपाङ्ग वेदविद्याओं का अध्यापक सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे वह ‘आचार्य’ कहाता है।

३२. शिष्य—उस को कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।

३३. गुरु—माता, पिता। और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे वह भी ‘गुरु’ कहाता है।

३४. पुरोहित—जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष्टा होवे।

३५. उपाध्याय—जो वेदों का एकदेश वा अङ्गों को पढ़ाता हो।

३६. शिष्टाचार—जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।

३७. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।

३८. ‘आप्त’ कि जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।

३९. ‘परीक्षा’ पाँच प्रकारी है। इस में से प्रथम जो ईश्वर उसके गुण कर्म स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टिक्रम, चौथी आप्तों का व्यवहार और पांचवीं अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या, इन पाँच परीक्षाओं से सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिये।

४०. ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार, दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़ें, उसके करने को परोपकार कहता हूँ।

४१, ‘स्वतन्त्र’ ‘परतन्त्र’—जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र, वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार काम करने में स्वतन्त्र है।

४२. स्वर्ग—नाम सुख विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।

४३ नरक—जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है।

४४. जन्म—जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार के मानता हूँ।

४५. शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।

४६. विवाह—जो नियमपूर्वक प्रसिद्धि से अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना ‘विवाह’ कहाता है।

४७. नियोग—विवाह के पश्चात् पति के मर जाने आदि वियोग में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा पुरुष आपत्काल में स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष [वा स्त्री के] साथ नियोग कर सन्तानोत्पत्ति कर लेवें।

४८. स्तुति—गुणकीर्त्तन, श्रवण और ज्ञान होना, इसका फल प्रीति आदि होते हैं।

४९. प्रार्थना—अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करनी और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

५०. ‘उपासना’—जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना। ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के, ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, वैसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना, उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

५१, ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’—जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उनसे युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर प्रशंसा करना सगुणनिर्गुण स्तुति कहाती है और शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुणनिर्गुणप्रार्थना और सब दोषों से रहित, सब गुणों से सहित परमेश्वर को मानकर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना निर्गुणसगुणोपासना कहाती है।

ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी ‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है तथा [ऋग्वेदादिभाष्य]-भूमिका आदि ग्रन्थों में भी लिखी है। अर्थात् जो-जो बात सबके सामने माननीय है, उसको मानता अर्थात् जैसा कि सत्य बोलना सबके सामने अच्छा, और मिथ्या बोलना बुरा है, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूँ। और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं प्रसन्न नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सब को ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़प्रीतियुक्त करा के, सब से सबको सुख लाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा, सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे और जिससे सब लोग सहज से धर्म्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके, सदा उन्नत और आनन्दित होते रहैं, [यही] मेरा मुख्य प्रयोजन है।

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु।

ओ३म्। शन्नो मित्रः शं वरुणः। शन्नो भवत्वर्य्यमा।

शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरुक्रमः॥

नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम्। ऋतमवादिषम्। सत्यमवादिषम्। तन्मामावीत्। तद्वक्तारमावीत्। आवीन्माम्। आवीद्वक्तारम्।

ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

[तैत्तिरीय आरण्यक ७।१२]

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितः स्वमन्तव्यामन्तव्यसिद्धान्तसमन्वितः

सुप्रमाणयुक्तः सुभाषाविभूषितः

सत्यार्थप्रकाशोऽयं ग्रन्थः सम्पूर्तिमगमत्॥

सत्यार्थ प्रकाश – षष्ठसमुल्लास के विषय में फेलाये जा रहे दुष्प्रचार का खण्डन

सत्यार्थ प्रकाशने पौराणिक समाज के पाखण्ड का पर्दाफाश कर दिया था। इसी लिये इतने वर्ष पश्चात् भी पौराणिक समाज सत्यार्थ प्रकाश पर जुठ्ठे आक्षेप करते है क्युं की सत्यार्थ प्रकाश ने उनके पाखण्ड की नींव हिला डाली थी। 

यही परम्परा का पालन करते हुवे पौराणिक समाज आज ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के षष्ठसमुल्लास पर एक जुठा आरोप कर रहां है । यह प्रकरणमें स्वामीजी ने राजधर्म की चर्चा करी है तथा मनुस्मृति के कई श्लोक प्रमाण के तोर पे दिये है।

यहां पर उनहोने मनुस्मृति का श्लोक ७.९६ उद्बोधित किया है तथा उस की व्याख्या करी है।रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः ।सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत् ॥

व्याख्या – इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे।।

यहां पौराणिक समाज स्वामीजी पर यह आक्षेप लगा रहां है की सत्यार्थ प्रकाशमें स्वामीजीने शत्रु की स्त्रियां जीतकर उनके भोग करने का आदेश दिया है। आप स्वयं देख ले। स्वामीजी की व्याख्यामें भोग शब्द कहीं पर है? उनहोने ग्रहण करने की बात करी है। क्युं की जरुरी है की युद्ध के पश्चात् धन, धान्य और स्त्री की योग्य व्यवस्था करी जाय। अन्यथा युद्ध के पश्चात् जो अराजकता उत्पन्न होती है उसमें इन सब का नाश होने का भय है। इसी लिये यह सब पदार्थ तथा स्त्रीयों को जीतने वाला राजपुरुष ग्रहण कर ले तथा मनुस्मृतिमें आगे जो नियम बतायें हुवे है उसके अनुसार इन सब की योग्य व्यवस्था करे।

यह मिथ्याप्रचार करते हुवे दो लेख आप यहँ देख सकते हो। एक लेख कथित ‘सत्यमार्ग’ का है तथा दुसरा लेख कथित ‘हिन्दू मन्तव्य‘ का है। दोनो लेख मौलिक नहीं लग रहे क्युं की दोनो साईट चलानेवाले व्यक्तियों का बौद्धिकस्तर ही नहीं है ईतनी चर्चा करने का।

पौराणिक अपना अर्थ करते हुवे कह रहे है की अर्थात- राजा द्वारा युद्ध मे शत्रुओं के रथ, घोडे, हाथी, छत्र, धन-धान्य, मादा पशु तथा घी-तेल आदि जो कुछ भी जीता गया है, उचित है कि, वह सब राजा उसी प्रजा को वापस कर दे (जिस राज्य को उसने जीता है)।

पौराणिक मतखण्डन

आप स्वयं संस्कृत श्लोक पढे। यहां पर आप को प्रजा शब्द कहीं पर दिख रहां है? तो फिर आपने प्रजा शब्द का अर्थ कहां से लिया? मूल श्लोकमें कोई भी शब्द नहीं है जिससे प्रजा शब्द को ग्रहण किया जा सके। भाषान्तरमें प्रजा शब्द की वृद्धि करना आप का बौद्धिक छल है। यह छल तब चल जाते थे जब लोग संस्कृत नहीं पढते थे।

संस्कृतमें स्पष्ट लिखा हैं की ‘यः यत् जयति तत् तस्य‘| ईतने सरल संस्कृत का अर्थ करना भी नहीं आता? चलो हम अर्थ कर देते है। ‘जो जिसको जीतता है वह उसका होगा।’

जब मनुने स्पष्ट लिखा है की धन, धान्य, रथ, अश्व, हाथी, पशु, स्त्री, सब पदार्थ, कुप आदि जो जीते वह उस का है तब आप उसे प्रजा को वापस देने की बात ही कहां से लाये? निश्चय ही मनु का मत है की यह सब विजेता को प्राप्त होता है। इस का प्रमाण उसके पश्चात् के श्लोक से मिलता है।राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः ।राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम् ॥९७॥यहां पर जीते हुवे पदार्थ का उद्धार भाग (सोलवा भाग) राजा को देने का विधान है। तथा राजा भी उसे कुल जो उद्धारभाग मिलता है उसमें से उद्धारभाग सब योद्धामें बाँटता है। प्रश्न यह है की श्लोक ९६में पौराणिक कह रहे है की सब प्रजा को वापस दे दो। जब सब वापस ही दे दिया था तो अब योद्धा राजा को उद्धारभाग कहाँ से देगा? अपनी जेब से देगा क्यां? श्लोक ९७ का अर्थ भी पौराणिको द्वारा दिये गये श्लोक ९६ की व्याख्या का खण्डन करता है।
कुल्लुल भट्टने भी अपनी टीकामें कही पर उसे प्रजा को वापस देने की बात नहीं लिखी परन्तु अपने राजा को समर्पित करने की बात कही है। मेधातिथि, गङ्गानाथ झा आदि भाष्यकारोने भी यह सब प्रजा को वापस करने की बात नहीं लिखी। 

यह पण्डित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी अनुवाद है। उनहोने भी यह सब विजेता को प्राप्त होने की बात लिखी है।
इस से यह सिद्ध होता है की सारे पुराने तथा आज के टीकाकार यही मानते है की यह सब पदार्थ तथा स्त्रियां विजेता को प्राप्त होती है। प्रजा को वापस देने का कोई विधान मनुस्मृतिमें नहीं है। 
स्वामी दयानन्द सरस्वतीने भी यही अर्थ किया है। तो उनको दोष क्युं दिया जा रहा हैं? उनहोने तो वहीं कहां जो मनुने लिखा था। तथा उनहोने भोग करने की बात ही नहीं करी थी वो भी हम स्पष्ट कर चूके है।
स्त्रियः शब्द का अर्थतो फिर यहां पर स्त्री शब्द से क्यां ग्रहण करना चाहीये? आप स्त्री शब्द सामान्य अर्थ में भी ग्रहण कर सकते है। उसका अर्थ हमने उपर समजा दिया है। फिर से उसे लिखते है – जरुरी है की युद्ध के पश्चात् धन, धान्य और स्त्री की योग्य व्यवस्था करी जाय। अन्यथा युद्ध के पश्चात् जो अराजकता उत्पन्न होती है उसमें इन सब का नाश होने का भय है। इसी लिये यह सब पदार्थ तथा स्त्रीयों को जीतने वाला राजपुरुष ग्रहण कर ले तथा मनुस्मृतिमें आगे जो नियम बतायें हुवे है उसके अनुसार इन सब की योग्य व्यवस्था करे।
उपरोक्त अर्थ मनु के अनुकूल है। कुल्लकभट्टने अपनी टीकामें ‘स्त्रियः‘ शब्द से ‘दास्यादिस्त्रियः’ अर्थात् दासी आदि स्त्रीयां यह अर्थ ग्रहण किया है। डॉ. सुरेन्द्रकुमारने भी अपनी ‘विशुद्ध मनुस्मृति’में नौकर स्त्रियां यही अर्थ लिया है। यह अर्थ भी ले तो भी तात्पर्य यहीं निकलता है की जीते हुवे पदार्थ तथा नौकरस्त्रियां विजेता ग्रहण कर ले तथा उनकी योग्य व्यवस्था करे।
वैदिकधर्म और स्त्रीवैदिकधर्ममें स्त्रियों को उपभोग की वस्तु नहीं माना है। सदा उनका सन्मान किया है। इस लिये यहां स्त्रियों को ग्रहण करने का तात्पर्य केवल उनको अपने अधिकारमें कर के उनकी रक्षाकर योग्य व्यवस्था करने से है। उलटा सत्यमार्ग तथा हिन्दूमन्तव्यने उसका गलत अर्थ कर प्रजा को देने की बात करी है।
उपसंहारस्त्रियों को जीतकर उसको बाँटने की परम्परा पौराणिको की है। यह अश्लील कथाये पढपढ कर उनकी बुद्धि उतनी अश्लील हो चूकी है की मनु जैसे महात्मा के वचन भी उनहे स्त्रियां जीतकर उनहे भोग करने का आदेश लगते है। परन्तु यह तो पौराणिक परम्परा है। एष नः समयो राजन् रत्नस्य सहभोजनम् ।न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम ॥ (महा. गीताप्रेस. आदि.१९४.२५) यह श्लोक बोलकर पौराणिकोने सती द्रौपदीको पाञ्च पुरुष की पत्नी बना ही दिया था ना! वहाँ पर स्त्री को बाँटकर उपभोग करने की बात करी गई है। लेकिन महर्षि दयानन्द सरस्वती यह उपभोग की परम्परा से नहीं थे। इसी लिये उनहोने स्त्रियों की रक्षा और व्यवस्था करने के लिये ग्रहण करने का लिखा, उपभोग करने का नहीं।

अनवर जमाल को जवाब -१ “आर्यसमाज पर १०८ प्रश्नों का धारदार जवाब”

लेखक- सी.ए.ए CAA (Pt. Chamupati Ki Atma)

अनवर जमाल जी की भूमिका-१ (लेख १)

∆ भूमिका-

मुस्लिम पक्षकारों व प्रचारकों में से के एक लेखक डॉ अनवर जमाल जी ने आर्यसमाज व महर्षि दयानंद पर एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘स्वामी दयानंद ने क्या पाया क्या खोया: आर्यसमाज से १०८ सवाल’। यह पुस्तक पहले संक्षिप्त ब्लॉग व पुस्तक रूप में थी। श्री राजवीर आर्य जी ने उस पुस्तक का जवाब ‘किताबुल्ला वेद या कुरान’ में दिया था। आज तक इस पुस्तक पर जमाल जी की लेखनी चली हो, ऐसा अब तक देखने में नहीं आया। इसी तरह ब्लॉग रूप में तत्कालीन संक्षिप्त पुस्तक के अनुसार इनका खंडन श्री अनुज जी ने किया था। परंतु उसके बाद जमाल साहब ने अपनी पुस्तक का विस्तृत संस्करण लाया। यह ब्लॉग रूप में भी उपलब्ध है। अब तक आर्यसमाज के किसी लेखक ने इस पुस्तक पर लेखनी नहीं उठाई है। दरअसल इनकी पुस्तक में उत्तर देने लायक विशेष कुछ नया न था। वही पौराणिकों और मुसलमान की १५० सालों से चल रहे घिसे-पिटे आक्षेपों का संकलन है। इसलिये आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वानों ने इसकी प्रायः उपेक्षा ही की है। परंतु मुसलमानों को इस पुस्तक पर ऐसा दंभ जाग गया, मानो आर्यसमाजी इनसे पूरी तरह निरुत्तर ही हो गये हैं! अतः हमने इस पुस्तक पर लेखनी उठाने की सोची। लगभग चार माह के लगातार परिश्रम से यह पुस्तक अब पाठकों के समक्ष है।श्री अनुज जी ने कुछ आरंभिक आक्षेपों का जवाब दिया है, उन्हीं के अनुसार हमने विस्तार कर हमने समाधान दिया है।
बाकी कई समाधान हमने अलग से दिये हैं। पुस्तक में स्थान-स्थान पर इस्लाम पर भी आलोचना की गई है ताकि आर्यसमाज पर वार करने वाले मुसलमानों को इस्लाम की असली तस्वीर दिहो।
ऐसी आपत्तियाँ पहले डॉ अली सीना, इब्ने वराक,अली असगर,एम.ए खान,अबुल कासिम,अनवर शेख प्रभृति पूर्व मुस्लिम विद्वानों ने भी उठाई हैं। हम उनके शोध का भी आभार व्यक्त करते हैं। श्री बृजनंदन शर्मा जी के ‘भंडाफोडू’ ब्लॉग की भी सामग्री का प्रयोग किया गया है। ये ऐसी आपत्तियाँ हैं, जिनसे मुसलमान सदा ही दूर भागते हैं। इन सभी लेखकों को हम धन्यवाद देते हैं।

हमने कई जगह अनवर जमाल जी के लेख का पूरा भाग लिया है,तो सहीं केवल उसका सारांश लिखकर उत्तर दिया है,ताकि पाठकों को सुविधा हो।बाकी वे डॉ अनवर जमाल जी के ब्लॉग पर उनकी पुस्तक पीडीएफ व पोस्ट रूप में देख सकते हैं। आलोच्य विषय, जोकि जमाल जी की पुस्तक में हैं, वे रोमन क्रमांकों में हैं और जो क्रमांक देवनागरी में हैं,वे हमने दिये हैं ताकि पुस्तक के विषयों में तारतम्यता हो तथा पाठकों को पढ़ने में सरलता हो।

प्रश्न-१-
सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी-

वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाषः 23958360)
   
उत्तर-
आपने यहां पर ईमानदारी से काम नहीं लिया। महर्षि दयानंद को सच्चे परमात्मा की खोज में कई संप्रदायों व गुरुओं की शरण में जाना पड़ा। इसी तरह एक बार उनको भांग पीने की लत लग गई थी। इस भूल को उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया था। यह एक महापुरुष की निष्पक्षता को ही दर्शाता है। अनवर जी बिना पूरी बात बताये असूया वृत्ति से आक्षेप कर रहे हैं।
आपने यह नहीं बताया कि महर्षि दयानंद ने उसके बाद सदा के लिये नशा करना छोड़ दिया था,देखिये:-
“आगे कोे भांग का सेवन बिलकुल त्याग दिया।”
( पं लेखराम कृत महर्षि जीवनचरित्र पेज नंबर ३८, प्रथम पैराग्राफ अंतिम पंक्ति)

मेरे पास जो महर्षि दयानंद का सम्पूर्ण जीवन चरित्र, पं लक्ष्मण जी कृत रखा है, उसमें यों लिखा है:-

“फिर स्वामी जी ने भांग का प्रयोग सर्वथा त्याग दिया।”

श्री स्वामीजी ने वाणी व लेखनी से सब मादक पदार्थों के सेवन के विरुद्ध प्रबल आंदोलन चलाया ।आप ने सरकार से कहा -“इससे तो यह उचित है कि मध्य अफीम गांजा भांग इनके ऊपर चौगुना कर ( यानी चार गुना टैक्स लगाया जाये) स्थापन किया जाए क्योंकि नशादिकों का कि छूट जाना ही अच्छा है और जो मद्य आदि बिल्कुल ही छूट जाए तो मनुष्य का बड़ा अहोभाग्य ।(सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण समुल्लास 11)

( महर्षि दयानंद सरस्वती:- सम्पूर्ण जीवनचरित्र, भाग-१, पेज ८३, पैराग्राफ २, अंतिम पंक्ति)

यहां साफ है कि महर्षि दयानंद भांग के नशे को गलत मानते थे। इसलिये इसे लत कहा, और कहा कि ये दुर्भाग्य से ऐसा हुआ। फिर संकल्प करके इस लत को छोड़ दिया।
पाठकगण! आर्यसमाज तो स्पष्ट रूप से मानता है कि महर्षि दयानंद को कुछ समय के लिये भांग पीने की लत लगी थी, जो बाद में सदैव के लिये खत्म हो गई। आपने जबरन पाठकों ते सामने यह तथ्य न रखकर उनकी आंखों में धूल झोंकने का काम किया है।

और फिर आप खुद ही लिखते हैं कि सत्य खोजने में कुछ छद्म गुरु भी हमें मिल जाते हैं-

“मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत” शीर्षक से-

“जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।”

अतः बहुत समय तक वे भ्रमित रहे,पर अंततः उनको सत्य का ज्ञान हो ही गया।

प्रश्न-२-
“क्या दयानंद जी ने अधूरे में शिक्षण छोड़ दिया?”

योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने व्याकरण पूरे तीन साल नहीं पढ़ा,बीच में ही छोड़ दिया- ऐसा आपने कोई प्रमाण नहीं दिया। उन्होंने उपदेश मंजरी में अपना स्वकथित जीवनचरित्र सुनाया था,उसमें उन्होंने कहा है-

“….मैं मथुरा में आया। वहाँ मुझे एक धर्मात्मा संन्यासी गुरु
मिले । उनका नाम स्वामी विरजानन्द था, वे पहले अलवर में रहते थे।इस समय उनकी अवस्था ८१ वर्ष की हो चुकी थी। उन्हें अभी तक वेद,शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। ये महात्मा दोनों आँखो से अन्धे थे और इनके पेट में शूल रोग था। ये कौमुदी और शेखर आदि नवीन ग्रन्थों को नहीं अच्छा समझते थे और भागवत आदि पुराणों का भी खण्डन करते थे। सब आर्ष ग्रन्थों के वे बड़े भक्त थे। उनसे भेंट होने पर उन्होंने कहा कि तीन वर्ष में व्याकरण आ जाता है । मैंने उनके पास पढ़ने का पक्का निश्चय कर लिया। …….
विद्या समाप्त होने पर मैं आगरे में दो वर्ष तक रहा, परन्तु पत्रव्यवहार के द्वारा या कभी-कभी स्वयं गुरु की सेवा में उपस्थित होकर अपने सन्देह निवृत्त कर लेता था। आगरे से मैं ग्वालियर को गया, वहाँ कुछ-कुछ वैष्णव मत का खण्डन आरम्भ किया, वहाँ से भी स्वामी जी को पत्रादि भेजा करता था। “
( उपदेश मंजरी, उपदेश १५, पृ.१०९)

यहाँ पर स्वामीजी के लेख से तो इतना समझ में आ रहा है कि,प्रथम तो, उनका शिक्षण पूरा हो चुका था,यानी तीन सालों तक उनका अध्ययन हुआ ही!यदितीन वर्ष न भी मानो, तो महर्षि दयानंद एक प्रतिभावान छात्र थे। वे पहले ही कौमुदी आदि क्रम से व्याकरण पढ़ चुके थे। ऐसे विद्यार्थी को महाभाष्य जल्दी हस्तगत हो ही जाता है। यदि आपको विश्वास नहीं तो आर्यसमाज के गुरुकुलों में पूछ आइये। रोजड़,रेवली और तेलंगाना में ऐसे गुरुकुल बहुत प्रसिद्ध हैं।
कई छात्र कम आयु में आईएएस व आईआईटी जैसी परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेते हैं। ऐसी असाधारण प्रतिभा महर्षि में भी थी।
उपरोक्त प्रमाण से यह भी पता चला कि विद्या पूरी होने के बाद भी वे गुरु के सान्निध्य में ही रहे। तब उनकी विद्या कैसे पूरी न बुई होगी?

दूसरे, वे बराबर पत्राचार व प्रत्यक्ष उपदेश सुन कर शंकासमाधान आदि कर भी लेते थे, अर्थात् उनका अध्ययन तब सतत् चल रहा था।असल में व्यक्ति जीवनभर कुछ न कुछ सीखते ही रहता है। फिर भी, व्याकरण का अध्ययन उन्होंने पूरा कर ही लिया था। व्याकरण के विषय में उनकी टक्कर का कोई विद्वान उनके गुरु के सिवा उस काल में न था।

∆ मुहम्मद साहब की विद्या-

इस्लाम वालों के अनुसार मुहम्मद साहब एक अनपढ़ व्यक्ति थे—

क्यों जी! महर्षि दयानंद तो आपके रसूल से अधिक ही जानते थे,जो वो कई सालों तक व्याकरण,वेद,योग आदि विद्या पढ़ते रहे और जीवनभर स्वाध्यायशील रहे। कम-से-कम आपके उम्मी रसूल से तो बेहतर ही थे।
( वो बात अलग है कि बाद में मुहम्मद साहब कुछ लिख पढ़ लिये थे,ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं।)

प्रश्न-३-
विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?

मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
    विदा होते समय विरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?

उत्तर-

महोदय! महर्षि दयानंद जी पहले शैव,वाममार्ग,योग,अद्वैत आदि कई मत-सम्प्रदायों में रहे और उन्होंने उनको पढ़ा भी। धीरे-धीरे शुद्ध वेदोक्त धर्म की ओर अग्रसर हुये। ऐसे में बचपन में शैव मत के संस्कारों का उनपर कुछ-कुछ प्रभाव रहा होगा। परंतु हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं, विरजानंद जी से उनका संवाद बाद में भी होता था और वे शंकासमाधान भी किया करते थे। इसी प्रकार उन्होंने अपने विचारों में परिष्कार किया और बाद में शैवमत का भी खंडन किया-

“शैवमत के फैलने पर हजारों रुद्राक्ष की मालायें मैंने अपने हाथों से लोगों को पहनाई। वहाँ शैवमत का इतना प्रचार हुआ कि हाथी घोड़ों के गले में भी रुद्राक्ष की माला पहनाई गई।
जयपुर से मैं पुष्कर को गया, वहाँ से अजमेर आया। अजमेर
पहुँचकर शैवमत का भी खण्डन करना आरम्भ किया। इसी बीच में जयपुर के महाराजा साहब लाट साहब से मिलने के लिए आगरे जाने वाले थे। इस आशंका से कि कहीं वृन्दावन निवासी प्रसिद्ध रंगाचार्य से शास्त्रार्थ न हो जावे, राजा रामसिंह ने मुझे बुलाया और मैं भी जयपुर पहुँच गया, परन्तु यह मालूम होने पर कि मैंने शैवमत का खण्डन आरम्भ
कर दिया है, राजा साहब अप्रसन्न हुए। इसलिए मैं भी जयपुर छोड़कर मथुरा में स्वामीजी के पास गया और शंका-समाधान किया। वहाँ से फिर हरद्वार को गया, वहाँ अपने मठ पर पाखण्ड-मर्दन लिखकर झण्डा खड़ा किया। वहाँ वाद-विवाद बहुत-सा हुआ। फिर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सारे जगत् से विरुद्ध होकर भी गृहस्थों से बढ़कर
पुस्तक आदि का जंजाल रखना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने सब कुछ छोडकर केवल एक कौपीन (लंगोट) लगा लिया और मौन धारण किया। इस समय जो शरीर में राख लगाना शुरू किया था, वह गत वर्ष बम्बई मे आकर छोड़ा। वहाँ तक लगाता रहा था।”
( उपदेश मंजरी, प्रवचन १५, स्वामीजी की आत्मकथा, पृ.११०)

यह पढ़कर स्पष्ट होता है कि स्वामीजी ने वैष्णवमत की तरह शैवमत का भी खंडन किया। हाँ, उनको कुछ शंका होने के कारण उनको यह शैवमत सही लगा होगा,पर बाद में उन्होंने इसका भी मिथ्यात्व जाना व इसका भी खंडन किया। यदि ऐसा भी मान लें तो महर्षि दयानंद की परिष्कार वृत्ति ती सराहना होनी चाहिये।
यह भी सिद्ध होता है कि वे बीच-बीच में अपने गुरु से शंका समाधान आदि करते रहते थे। इसी से उनकी विचारधारा में परिष्कार आया।

महर्षि दयानंद के जीवनी-ग्रंथ के लेखक पं लक्ष्मण जी के अनुसार, ऋषि ने शैवमत स्थापन वैष्णव मत के पाखंड के खंडन में किया था। यह एक तरह की कूटनीति थी-

“१६. कूटनीति (पालिसी) धर्म विरुद्ध है
थियासोफिकल सोसाइटी वालों को जब स्वामी जी ने नई
पोलिसी पर कार्य करते हुए समझा तो उनसे सम्बंध विच्छेद की घोषणा करने लगे परन्तु सामाजिक सदस्य चाहते थे कि आप नीति से कार्य लेवें। स्वामी जी ने कहा, “मैं अब तुम्हारी बात नहीं मानूँगा। पालिसी से कार्य करना धर्म विरुद्ध है।पहले जयपुर में महाशयों की प्रेरणा पर हमने वैष्णव के सामने शैवमत को अच्छा सिद्ध किया तो वहाँ सब मनुष्यों तथा राजगृह के हाथी घोड़ों तक को रुद्राक्ष पहनाय गए। अब तक पुराना कोई कोई व्यक्ति जब मिलता है तो रुद्राक्ष दिखाकर चिढ़ाता है कि यह वहीं है जिसके गुण आपने गाये थे। अत: धर्म विषय में अब तो हम कदापि पालिसी का हस्तक्षेप न होने देंगे। और शुद्ध सत्य ही कहेंगे।”
( महर्षि दयानंद के प्रेरक प्रसंग, लेखक- पं लक्ष्मण जी आर्योपदेशक,प्रथम खंड,पाँचवाँ सर्ग, पृ.७७)

अतः इसके बाद स्वामीजी ने कूटनीति के अनुसार चलना छोड़ दिया। मेला चांदापुर में भी कुछ लोग उनके साथ मुसलमानों के साथ मिलकर ईसाइयों के खंडन करने का प्रस्ताव रखा था।पर स्वामीजी ने केवल सत्य बोलना ही उचित समझा और यहां पर कूटनीति नहीं अपनाई। यह विवरण उक्त पृष्ठ ७७ की पादटिप्पणी में है।

रही बात आपके आर्ष ग्रंथों के प्रचार की,तो स्वामीजी शैवमत में रुद्राक्ष धारण व भस्मधारण आदि को कदाचित् कालाग्निरुद्रोपनिषद व यजुर्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार सही मान रहे थे। यानी उनको लगता था कि शैवमत की यह परंपरा आर्ष ही है। परंतु बादमें उनको सत्य का ज्ञान हुआ, और उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा-

(प्रश्न) कालाग्निरुद्रोपनिषद् में भस्म लगाने का विधान लिखा है। वह क्या झूठा है? और ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ यजुर्वेदवचन। इत्यादि वेदमन्त्रें से भी भस्म धारण का विधान और पुराणों में रुद्र की आंखों के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है। इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है। एक भी रुद्राक्ष धारण करे तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय। यमराज और नरक का डर न रहै।

(उत्तर) कालाग्निरुद्रोपनिषद् किसी रखोड़िया मनुष्य अर्थात् राख धारण करने वाले ने बनाई है। क्योंकि ‘याऽस्य प्रथमा रेखा सा भूर्लोक ’ इत्यादि वचन उस में अनर्थक हैं। जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है वह भूलोक वा इस का वाचक कैसे हो सकते हैं। और जो ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ इत्यादि मन्त्र हैं वे भस्म वा त्रिपुण्ड्र धारण के वाची नहीं किन्तु ‘चक्षुर्वै जमदग्नि ’ शतपथ। हे परमेश्वर! मेरे नेत्र की ज्योति (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष पर्यन्त रहै और मैं भी ऐसे धर्म के काम करूँ जिससे दृष्टिनाश न हो। भला यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है कि आंख के अश्रुपात से भी वृक्ष उत्पन्न हो सकता है? क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है? जैसा जिस वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है उसी से वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं। इससे जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है वह सब जंगली पशुवत् मनुष्य का काम है। ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी, विरोधी और कर्त्तव्य कर्म के त्यागी होते हैं। उन में जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है वह इन बातों का विश्वास न करके अच्छे कर्म करता है। जो रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे!! जब रुद्राक्ष भस्म धारण करने वालों से कुत्ता, सिह, सर्प्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश के गण क्यों डरेंगे?

( सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास, शैवमतखंडन विषय)

यहाँ पर भी स्वामीजी का परिष्कार सिद्ध है।
ऐसा कभी नहीं होता कि आप गुरु के पास कुछेक साल रहें, और आपके आचरण और ज्ञान में तुरंत परिष्कार आ जाये। यह सैद्धांतिक परिपक्वता धीरे-धीरे, साधना,स्वाध्याय व सत्संग से आती है। एक रात में ऐसा ब्रह्मज्ञान नहीं मिल जाता।

अनवर साहब! आपको महर्षि के सत्याग्रही चरित्र की प्रशंसा करनी चाहिये,कि सत्य जानकर वे तुरंत झूठ को त्याग देते थे।परंतु आप तो आलोचना करने बैठ गये!

∆ मुहम्मद साहब का हलाल-हराम विषयक भ्रांति ∆

रसूलुल्लाह को हराम और हलाल विषयक भ्रांति थी। खैबर के युद्ध में वे कभी गधा खाने से मना करते थे,कभी घोड़ा खाने से।कभी दोनों को ही एक साथ खाते थे।

गधा मार कर खाया-
“अब्दुल्लाह  बिन अबू   कतदा ने  कहा  कि खैबर    के  समय  हम  लोग  इहराम   की  हालत  में ,  और  दुश्मन  छुपे  हुए थे   तभी हमारी   नजर एक   गधे  पर  पड़ी  हमने उसे  भाले  से   मार   दिया  और काट कर  उसका गोश्त  पका  कर रसूल  के साथ  मिल  कर   खा  लिया “
” we saw a  ass. and  attacked It with a spear and we ate its meat.”
सही मुस्लिम – किताब 7 हदीस 2710

गधा नही घोड़ा  खाओ-
“जबीर  बिन  अब्दुल्लाह  ने  कहा  कि  खैबर  की लड़ाई   के समय रसूल  ने कहाथा कि गधे   का  गोश्त खाना  गैर कानूनी   है इसलिए  तुम घोड़े का  गोश्त  खाया  करो। “
“Allah’s Messenger  made donkey’s meat unlawful and allowed the eating of horse flesh “

सही बुखारी – जिल्द 7 किताब 67 हदीस 429

गधे  के साथ  घोड़ा  भी   खाया-
“अबू  जुबैर   और  जबीर  बिन अब्दुल्लाह  ने   बताया  कि  खैबर  में  हमने  गधे  के साथ घोड़े  का गोश्त भी  खाया था। 
“At the time of Khaibar we ate horses and  donkeys.”

 सुन्नन  इब्ने  माजा (अरबी संदर्भ)- किताब 27   हदीस 3312(दारुस्सलाम के अनुसार सही हदीस)
English reference : Vol. 4, Book 27, Hadith 3191
Arabic reference : Book 27, Hadith 3312

प्रतीत होता है कि रसूल साहब खुद पता नहीं लगा पाये कि हलाल और हराम असल में है क्या? ये वही मुहम्मद साहब हैं, जिनके जीवन की सेक्स-लाइफ़ तक पर अल्लाह आयतें उतारता था परंतु उनको हलाल-हराम का भी ठीक-ठीक ज्ञान न दे सका! इससे पता चला कि हजरत विषमस्थबुद्धि थे। आप अपने ‘कयामत तक सर्टिफाइड रसूल’ के चरित्र की मीमांसा कर लीजिये,फिर महर्षि पर कुछ लिखिये। महर्षि जी कोई सृृष्टि बनने से पहले ही सर्टिफाइड एकमात्र गुरु नहीं थे जिनके ‘अगले और पिछले पाप माफ हो गये थे’।

देखिये-
अबू हुरैरा कहते हैं सहाबा ने कहा अल्लाह के रसूल आप नबूवत के मनसब ( नबी के पद में ) से कब नवाज़े गए ( या कब से आसीन हैं ) ? रसूल ने फरमाया जब आदम शरीर और आत्मा के बीच में थे।

यहां पर अबू हुरैरा ने कहा कि आदम के जन्म से पहले मुहम्मद साहब को नबूवत मिल गई थी। मगर किस कर्म के अनुसार उनको यह फल मिला? बिना कर्म के किसी को भी नबी बना दो, कैसा न्याय है?
( मिश्काल अल मसाबीह, हदीस ५७५८)

जबकि इसके विपरीत महर्षि दयानंद एक आम इंसान थे, जिन्होंने मूलशंकर से लेकर महर्षि दयानंद तक का सफर तय किया और निरंतर परिष्कार करते रहे।

प्रश्न-४-

स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में

(आगे सत्यार्थप्रकाश से शैवमतखंडन विषय का उद्धरण देकर कहा है-)

स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। विजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा विरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।

उत्तर-
डॉक्टर साहब! क्या आपको लगता है कि ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान इतनी आसानी से व्यक्ति के आचरण में आ जाता है? जी नहीं। यह एक जटिल प्रक्रिया है। केवल उपनिषद आदि पढ़कर तो यह सिद्धांत पता लग जाता है, पर आत्मसाक्षात्कार योगी स्वयं ही योगसाधना व यथार्थ ज्ञान के द्वारा करता है। इस ज्ञान को निरंतर श्रवण,मनन और निदिध्यासन से साधा जाता है।तब कहीं जाकर यह ज्ञान व्यक्ति के आचरण में आता है। उपनिषद कहते हैं कि विरला ही व्यक्ति उस परमात्मा तक पहुंचने के मार्ग पर चल पाता है और विरला आदमी ही उसका साक्षात्कार कर पाता है।
महर्षि दयानंद ने यह ज्ञान पाया,परंतु एक रात में नहीं। सतत् स्वाध्याय,शंकासमाधान,साधना आदि से इसे प्राप्त किया। इस बीच कुछ गलतियां उनसे हुईं , उन्होंने उनको सुधारा और आगे बढ़े।
हाँ, आपके हजरत मुहम्मद भले ही सृृष्टि बनने के पहले से सर्टिफाइड नबी थे, उसके बाद भी ४० साल की अवस्था तक उन पर नबूवत नाजिल न हुई। इसका क्या कारण हा?

∆ मुहम्मद साहब के अगले और पिछले गुनाह ∆

‘ताकि अल्लाह तुम्हारे अगले और पिछले गुनाहों को क्षमा कर दे और तुमपर अपनी अनुकम्पा पूर्ण कर दे और तुम्हें सीधे मार्ग पर चलाए।’
( कुरान सूरा फतह ४८/२)

Indeed, We have given you, [O Muhammad], a clear conquest.That Allah may forgive for you what preceded of your sin and what will follow and complete His favor upon you and guide you to a straight path.
( Sahih International Quran translation 48:1,2)

आयशा ने कहा कि -“रसूलुल्लाह (स.) जब भी मुसलमानों को कुछ करने का आदेश देते थे,तब वे उनको ऐसे कर्म करने का आदेश देते थे जो उनके लिये आसान थे (उनके शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार) । वे बोले-‘ऐ रसूलुल्लाह! हम आपकी तरह नहीं हैं। अल्लाह ने आपके अगले और पिछले पाप क्षमा कर दिये हैं।’ तो रसूल क्रुद्ध हो गये और यह उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था। उन्होंने कहा-‘मैं अल्लाह से सबसे अधिक डर रखने वाला हूं और तुमसे बेहतर अल्लाह को जानता हूं।”
[( सही बुखारी, जिल्द १ किताब २ हदीस १९)
Reference : Sahih al-Bukhari 20In-book reference : Book 2, Hadith 13USC-MSA web (English) reference : Vol. 1, Book 2, Hadith 20  (deprecated numbering scheme)]

महर्षि दयानंद ऐसा दावा कभी नहीं करते थे कि उनको ईश्वर ने मुहर लगाकर ऋषि-मुनि के रूप में भेजा है। उन्होंने अपनी विद्या और तपःसाधना से ऋषित्व प्राप्त किया। कठोर परिश्रम के बाद ही उनको सच्चे शिव व ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान मिला। महोदय! छांदोग्योपनिषद में श्वेतकेतु भी गुरुकुल से ब्रह्मविद्या सीखकर भी ब्रह्मज्ञानी न बने। उनको अपने पिता से उपदेश लेना पड़ा। महाभारत, मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव जी भी व्यास मुनि से पहले विद्या पढ़ते हैं। जब उनकी संतुष्टि नहीं हुई, तब उनको राजा जनक के पास उपदेश हेतु भेजा गया। इससे पता चला कि मात्र गुरुमख से सुनकर ब्रह्मज्ञान नहीं होता। तदनुकूल आचरण व कठोर परिश्रम भी जरूरी होता है।

∆ इस्लाम की सस्ती मुक्ति-

हाँ, इस्लामी जन्नत बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती है।कोई व्यक्ति चाहे कितना ही पापी हो, रसूलुल्लाह पर ईमान लाकर मुक्ति मिल जाती है। ध्यान से पढ़िये-

अबू ज़र ने कहा कि रसूलुल्लाह ने कहा- मेरे अल्लाह की ओर से कोई आया और उसने मुझे यह खुशखबरी दी कि,” मेरे अनुयायियों में से यदि कोई अल्लाह को छोड़कर किसी की उपासना नहीं करता,वो हर तरह से जन्नत जायेगा।” मैंने पूछा, “तब भी जन्नत जायेगा यदि उसने नियमविरुद्ध संभोग ( व्यभिचार) और चोरी की हो ?” उन्होंने जवाब दिया,” हाँ,तो भी जन्नत जायेगा यदि व्यभिचार और चोरी की हो।”
( सही बुखारी, जिल्द २ किताब २३ हदीस ३२९)

Narrated Abu Dhar:

Allah’s Messenger (ﷺ) said, “Someone came to me from my Lord and gave me the news (or good tidings) that if any of my followers dies worshipping none (in any way) along with Allah, he will enter Paradise.” I asked, “Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft?” He replied, ” Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft.”

Sahih al-Bukhari 1237 /In-book : Book 23, Hadith 1 /USC-MSA web (English) : Vol. 2, Book 23, Hadith 329  (deprecated)

इसका अर्थ यह है कि मात्र अल्लाह पर ईमान लाकर जन्नत मिल सकती है। चाहे कोई मोमिन व्यभिचारी और चोर ही क्यों न हो! वाह! इससे सस्ता सौदा क्या होगा!! जमाल साहब! वैदिक धर्म के अनुसार मुक्ति के लिये बहुत परिश्रम करना होता है,कई नियम पालन करने होते हैं; यह नहीं कि रसूल और अल्लाह पर ईमान ले आओ और मुक्ति हो जाये।
ऊपर वाली हदीस के अनुसार ही आतंकवादी चोर,बलात्कारी होकर भी जन्नत जायेंगे। ओसामा बिन लादेन,याकूब मेमन और बगदादी जैसे नरपिशाच भी जन्नती होंगे, क्योंकि वो कुरानी अल्लाह पर ईमान रखते थे।

अनवर जमाल की भूमिका-१ (लेख २)

प्रश्न-५-स्वामी जी ने जिस उद्देश्य के लिए घर छोड़ा उसे पूरा न कर पाए । न उन्हें शिव मिला और न ही मृत्यु से बच पाए ।

जवाब :-
स्वामी जी के घर छोड़ने के दो कारण थे-एक तो सच्चे शिव की खोज ,दूसरा था कि मृत्यु से कैसे तरा जाए ।दयानंद जी ने अपने दोनों लक्ष्य को प्राप्त किया और उसके बाद ही समाज सुधार और पाखंड खंडन में लगे ।
उनका पहला लक्ष्य सच्चे शिव की खोज करना था । वह शिव कैसा है ,क्या-क्या उसके गुण हैं? गुरु विरजानंद जी से वेदादि शास्त्रों की विद्या प्राप्त करके उन्हें सच्चे शिव का बोध हुआ,जिसका वर्णन वेदों में है कि वह शिव तो निराकार,निर्विकार,अजन्मा,अजर,अमर,सर्वव्यापक,न्यायकारी और चेतन सत्ता है।वह ईंट पत्थर की मूर्तियों की पूजा करने से नहीं मिलता,बल्कि योग समाधि से प्राप्त होता है ।स्वामी दयानंद जी ने उस सच्चे शिव को जानकर योग समाधि द्वारा उस सच्चे शिव की उपासना की ।
उनका घर छोड़ने का दूसरा कारण मृत्यु आदि दुखों से बचना था । मृत्यु का दुःख मनुष्य को तब होता है जब वो शरीर को ही सब कुछ मान बैठता है और आत्मा के स्वरूप को नहीं जान पाता । मूलशंकर जी भी उस अबोध आयु में समय शरीर को ही सब कुछ समझते थे इसलिए उन्होंने मृत्यु से बचने का उपाय ढूँढने के लिए घर छोड़ा ,लेकिन जब उन्हें आत्मा के सत्य स्वरूप बोध हुआ ;तब उन्होंने जाना की ये शरीर मैं नहीं हूँ ,मैं तो इस शरीर के अंदर वास करने वाली आत्मा हूँ –जो अजर- अमर है ,मुझे कोई मार नहीं सकता ,मुझे कोई जला नहीं सकता । तब उनको समझो मृत्यु के दुःख से छुटकारा मिल गया । इसीलिये ऐसी मौत के बावजूद भी उनके चेहरे पर दुःख नहीं था कोई पीड़ा नहीं थी और उन्होंने मुस्कुराते हुए प्राण त्याग दिए । अर्थात् जिन दो कारणों से उन्होंने घर छोड़ा उन दोनों को उन्होंने प्राप्त किया । इसलिए डॉ.अनवर साहब का ये दावा बिलकुल मिथ्या है की स्वामी जी ने जिस चीज के लिए घर छोड़ा उसे पा न सके । भला जो व्यक्ति अपने लक्ष्य के लिए अपना सब कुछ त्याग देता है वो बिना लक्ष्य प्राप्त किये आराम से बैठ सकता था ? जिसने हजारों मील की पैदल यात्रायें सत्य की खोज के लिए की हो,वो बिना लक्ष्य प्राप्ति के चैन से बैठ सकता था ?

महर्षि दयानंद ने गृहत्याग करके ईश्वरप्राप्ति का मार्ग चुना।यह मार्ग बहुत जटिल है।यदि वे गृहत्याग व वैराग्य धारण न करते,तो मुक्ति पा न सकते। इस पर उपनिषद भी कहता है-

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात् ।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।।
( मुंडकोपनिषद , मुंडक ३ खंड २)

अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।

अतः ब्रह्म को पाने हेतु उन्हें संन्यास लेना जरूरी था। एक मुमुक्षु को जब वैराग्य हो जाता है, तब मां-बाप,घर-परिवार आदि का मोह उसे छोड़ना पड़ता है।यही काम महर्षि दयानंद ने किया।

∆ मुहम्मद साहब क्या दुःखों से बच पाये?∆

अब एक नजर हजरत पैगम्बर मुहम्मद जी के जीवन पर भी डाल लेते है।
हजरत तो स्वयं को अल्लाह का एजेंट होने का दावा करते थे। यहाँ तक की जन्नत की रिजर्वेशन का जिम्मा भी हजरत के हाथों में था वे भी दुखों से न बच पाए । अपने पुत्र की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोना हजरत के दुखों को साफ़ दर्शाता है।आप तो ऊपर उनके संबंधियों की मृत्यु होने के विषय में लिख ही चुके हैं,दयानंद जी तो बालक होने के बावजूद भी अपने परिवार वालों की मौत पर नहीं रोये । हजरत मुहम्मद साहब ये जानते हुए भी की उनका बेटा जन्नत मे मौज करेगा ,तब भी फूट-फूट कर रोये । इसका क्या कारण हो सकता था ? यही कि हजरत को अंदाजा था ,कि जन्नत एक कोरी कल्पना है । वरना मुहम्मद साहब अल बुराक अर्थात् उड़ने वाले गधे ( या शायद खच्चर!) पर बैठ के जन्नत में अपने बेटे से मिल के आ सकते थे,फिर वो आँसू किस लिए बहाते थे?

यहाँ तक हजरत स्वंय की मृत्यु के समय रो रहे थे ,दर्द से । उन्हें शायद इस बात का दुःख रहा होगा की हजरत आयशा को भरी जवानी में तन्हा छोड़ के जा रहे है थे!यदि हजरत ने भी शरीर को सब कुछ न समझ कर आत्मा के अमरत्व को जाना होता, तो ऐसे पुत्र और मृत्यु दुःख के कारण आँसू न बहाते । इससे पता चला कि मुहम्मद साहब खुद ही न अमरत्व (मोक्ष) पा सके और न ही मृत्यु आदि दुखों से बच पाये।तब भला उन पर ईमान लाना और नमाजों में उनके नाम से प्रार्थना करना– यह मुसलमानों को आखिर क्या देगा?

प्रश्न-६-
स्वामी दयानंद जी का मकसद और तरीका दोनों गलत थे ।

जवाब :-
अनवर साहब पेशे से डॉक्टर हैं,इसलिए हमें उनसे ऐसे आक्षेप की उम्मीद बिलकुल न थी । अनवर साहब!जब मूलशंकर ने गृह त्याग किया उस समय उनकी आयु बहुत कम थी।वो इस गूढ़ रहस्य को नहीं जानते थे।वे उस समय अबोध थे।जिसके समक्ष दो परिचितों को मृत्यु हो चुकी थी । एक अनजान व्यक्ति के समक्ष ये प्रश्न खड़ा होना लाजिमी है कि वो मृत्यु से कैसे बच पाए ? जिसने घर त्यागा था ,वो मूलशंकर थे, न की महाविद्वान दयानंद जी । एक जिज्ञासु वही करता है जो उस समय मूलशंकर ने किया । अर्थात् सत्य की खोज के लिए गृह त्याग । ऐसा केवल मूलशंकर के साथ नहीं हुआ बल्कि इतिहास के बहुत से महापुरुषों के साथ ये घटना घटित हुई जैसे सिद्धार्थ , शंकराचार्य जी इत्यादि ।
यदि आपने वैदिक मान्यताओं और सिद्धांतों को पढ़ा होता तो आपको पता चलता की मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही जन्म- मरण के बंधन से छूटना अर्थात् मोक्ष है।वही मकसद स्वामी जी का था । लेकिन न मालूम आपको क्या सूझी की बिना वैदिक मान्यताओं को जाने लेखनी चला दी और अतिरिक्त समय की बर्बादी के कुछ न किया ।
आप स्वंय लिखते है की ” जिन्दगी का मकसद और उसे पाने का तरीका सच्चा गुरु ही बता सकता है ” तो क्या मूलशंकर ने सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? क्या मूलशंकर ने 10 सालों से ज्यादा तक सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? और अंत में उनकी वो खोज भी पूरी हुई स्वामी विरजानंद जी के आश्रम पहुँच कर । उस सच्चे गुरु ने ही दयानंद जी को वेदों के यथार्थ शिव का बोध कराया उसे वेदों की सत्य विद्याओं से अवगत कराया। जिन्हें मूलशंकर ने केवल बचपन में पढ़ा था,लेकिन समझा नहीं था, उन विद्याओं को उन्होंने जिया!
इससे स्पष्ट है की स्वामी जी का उद्देश्य भी सही था और तरीका भी क्योंकि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है । वैराग्य से बड़ा कोई तप नहीं होता । मूलशंकर ने सब सुख सम्पन्न होते हुये भी वैराग्य का रास्ता अपनाया इससे बढ़कर उनकी श्रेष्ठता ,क्या हो सकती थी?

महर्षि दयानंद ने जो मुक्ति का मार्ग अपनाया,वो बिलकुल सत्य व वेदशास्त्र सिद्ध था-

“अब मुक्ति बन्ध का वर्णन करते हैं-

(प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं?
(उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है।
(प्रश्न) किस से छूट जाना?
(उत्तर) जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटने की इच्छा करते हैं?
(उत्तर) जिस से छूटना चाहते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटना चाहते हैं।
(उत्तर) दुःख से।
(प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?
(उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।
(प्रश्न) मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?

(उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने; पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने; विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने; सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से बन्ध होता है।”

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ्सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
-यजुः० अ० ४०। मं० १४।।

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।

( सत्यार्थप्रकाश, नवम समुल्लास, मुक्ति विषय)

इससे पता चला कि स्वामी को लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का तरीका यथावत् पता था और उसके अनुसार आचरण(जो हम ऊपर लिख चुके हैं) करके सफल भी हुये।

मृत्यु के समय में उन्होंने योगविद्या से ब्रह्मरंध्र से प्राण छोड़ दिये। उपनिषद इसे मुक्ति पाने का लक्षण कहता है।

प्रश्न- ७-
क्या स्वामी जी ने सीधे संन्यास लेकर मुक्ति की सीढ़ियों को तोड़ा?

¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्‍यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य  इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो विरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्‍य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य:  20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)

अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात् अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।

उत्तर-
आपने केवल एक पक्ष को उठा लिया और महर्षि दयानंद पर ‘सीढ़ियाँ तोड़ने’ का कल्पित आरोप लगा दिया। आपने सत्यार्थप्रकाश आदि महर्षि कृत ग्रंथों को भी ढंग से न पढ़ा।यदि पढ़ा भी है तो हठ व दुराग्रह से बस हृदय की अग्नि शाँत करने के लिये आक्षेप किये हैं।

देखिये, महर्षि ने क्या लिखा है-

“….यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है जो विवाह करना ही न चाहैं वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले हीे रहैं परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रखना।”
( सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास, ब्रह्मचर्य प्रकरण)

संन्यास विषय पर भी ऋषि का लेख देखिये-

“यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्।।
-ये ब्राह्मण ग्रन्थ के वचन हैं।
जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो उसी दिन घर वा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे। पहले संन्यास का पक्षक्रम कहा। और इस में विकल्प अर्थात् वानप्रस्थान न करे, गृहस्थाश्रम ही से संन्यास ग्रहण करे और तृतीय पक्ष है कि जो पूर्ण विद्वान् जितेन्द्रिय विषय भोग की कामना से रहित परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष  हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे । “
( सत्यार्थप्रकाश,पंचम समुल्लास, संन्यास प्रकरण)

इससे स्पष्ट होता है कि जितेंद्रिय और वैराग्यवान व्यक्ति बिना विवाह के सीधे संन्यासी बन सकता है। इसलिये पंचमहायज्ञ व पंचदेव पूजा आदि विधान उनके लिये सीढ़ी नहीं थे। इनका पालन आम लोगों को करना होता है, संन्यासी को इनकी बाध्यता नहीं होती।
इसी के अनुसार महर्षि को माता-पिता की सेवा की बाध्यता न थी। न ही उनको विवाह करने की जरूरत थी। रही बात अतिथि सेवन की,तो संन्यासी खुद ही अतिथि होता है और राजा,गृहस्थी आदि को ऐसे वैरागी ,सदुपदेशक, धर्मप्रचारक संन्यासी का पालन खुद करना पड़ता है, नाकि संन्यासी को किसी अतिथि का सेवन करना पड़ता है। रही बात आचार्य की,तो विरजानन्द जी त्रुटि होने, पाठ भूल जाने आदि के कारण अनुशासित करने हेतु दंड तो देंगे ही। ऐसा तो हर विद्यालय में होता है कि गुरु शिष्य को अनुशासित करने हेतु डाँट-मार का प्रयोग करता है।इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं है। विद्यार्थी जीवन में हमने भी दंड पाया है,आपने भी पाया होगा।फिर दयानंद जी पर आपत्ति क्यों?
विरजानन्द जी महर्षि दयानंद को राष्ट्र में फैले पाखंड का खंडन व वैदिक ग्रंथों के मंडन करने का महान् दायित्व सौंपते हैं। उन्होंने स्वामीजी से गुरुदक्षिणा में भी जीवनभर आर्षविद्या के प्रचार करने का वचन मांगा। यदि विरजानन्द जी उन पर इतना ढृढ़ विश्वास न होता,तो फिर उन पर इतना भरोसा ही नहीं करते कि यह व्यक्ति धर्म प्रचार करेगा। इसलिये वे स्वामी जी को तन,मन,विद्या – हर तरह से परिपक्व करने में लगे रहते थे। अतः स्वामी जी ने बखूबी आचार्य की सेवा की और इसलिये वे उनके इतने विश्वासपात्र बने। यह मार-पीटकर दंड देना आदि तो बहुत छोटी बातें हैं।

महर्षि ने तो अपनी व आर्ष ग्रंथों की परिपाटी अपनाई, अपना सीढ़ी नहीं तोड़ी– बल्कि उस पर चढ़कर अपने परमलक्ष्य को प्राप्त किया। परंतु आपने बिना पूरी तरह महर्षि दयानंद के ग्रंथ व आर्ष साहित्य को पढ़े उनको ‘नादान’ व ‘अज्ञानी’ लिख मारा,इसे आपकी नादानी क्यों न माना जाये?

∆ मुहम्मद साहब की मातृभक्ति ∆

मुहम्मद साहब ने अपनी माता की मृत्यु के बाद भी उनके लिये प्रार्थना नहीं की। उनको कभी अपनी माँ की सेवा करने का मौका तो न मिला,मगर प्रतीत होता है कि बचपन में वो उन्हें पर्याप्त माँ का प्रेम न दे सकीं थीं इसलिये मुहम्मद साहब का उनके प्रति ऐसा रवैया था। ऐसा लगता है कि मृत्यु के बाद भी अपनी माँ को वे क्षमा नहीं कर पाये थे न अपनी जननी के प्रति उनमें कुछ कृतज्ञता थी। अतः न तो उन्होंने अपनी माँ से कोई विशेष प्रेम किया , न कभी सेवा की और न ही उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। शायद इसलिये क्यों कि वो बिना मुसलमान रहे मरी थीं। जबकि स्वामीजी ने कभी वेदविरुद्ध या पौराणिक विचारों वाला होने के कारण अपने माता-पिता को कहीं नहीं कोसा।
सच पूछो तो मुहम्मद साहब को यह पता ही नहीं था कि उनका असली पिता कौन है! पाठकों को आश्चर्य हो रहा होगा, परंतु इस पर हम किसी और लेख/पुस्तक में विस्तार से लिखेंगे। फिलहाल तो सही बुखारी में देखिये,कि मुहम्मद साहब अपनी माँ के प्रति कितने भक्त थे—

मुहम्मद साहब अपने सहाबों से कहते हैं,कि मैंने अपनी माँ के लिये दुआ करनी चाहिये,परंतु अल्लाह ने मेरी दुआ कबूल नहीं की।
(Tabaqat Ibn Sa’d p. 21 )

हाँ, वो अलग बात है कि उनकी माँ काफिरा थीं, उसके बाद भी उन्होंने कुरान के विरुद्ध जाकर उनके लिये दुआ पढ़ने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि बचपन में पर्याप्त प्रेम न मिलने के कारण मुहम्मद साहब ने जीवनभर अपनी माँ को माफ नहीं किया था। अपने पूरे बचपन में उनको एक माँ का प्यार पूपी तरह नसीब न हो सका। रही बात पिता की, तो उनके तथाकथित पिता अब्दुल्ला उनके जन्म के चार साल पहले मर चुके थे। वे तो कुल मिलाकर दोनों की सेवा न कर सके। शायद इसलिये उनका कोई वंशधर न हुआ!

प्रश्न-८-

प्रकरण-१
¤ स्वामी जी की असफलता का कारण  –

माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने जिस उपदेशक को झूठा और कपटी कहा है, वो व्यक्ति घर से भागकर ,समाज को धर्म के नाम पर लूटने का कार्य करता था । जबकि महर्षि दयानंद बिना भेदभाव के सत्य धर्म व देशभक्ति का प्रचार करते थे। स्वामी जी ने कन्या शिक्षा,विधवाविवाह,दलितोद्धार आदि कार्य किये।उनका कोई भी कार्य कुत्सित भोगों के लिये न था। इसलिये उनका गृहत्याग करना उचित ही था।

आपने जिस उपदेशक के विरुद्ध महर्षि का वचन लिखा है, उससे उन पर कोई दोष नहीं आता। स्वामीजी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था उस उपदेशक से मिलता-जुलता हो। देखिये, स्वामीजी ने गोकुलिये गोसाइयों के मत का खंडन करते हुये तैलंगी लक्ष्मणभट्ट की कथा लिखी है-

“यह मत ‘तैलंग’ देश से चला है। क्योंकि एक तैलंगी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण विवाह कर किसी कारण से माता पिता और स्त्री को छोड़ काशी में जा के उस ने संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उस के माता, पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया है। उसके माता-पिता और स्त्री काशी में पहुंच कर जिस ने उस को संन्यास दिया था उस से कहा कि इस को संन्यासी क्यों किया?

देखो! इस की यह युवती स्त्री है और स्त्री ने कहा कि यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझ को भी संन्यास दे दीजिये। तब तो उस को बुला के कहा कि-तू बड़ा मिथ्यावादी है। संन्यास छोड़ गृहाश्रम कर क्योंकि तूने झूठ बोल कर संन्यास लिया। उसने पुनः वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उस के साथ हो लिया। देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।”
( सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास, गोकुलिये गोसाइयों के मत के खंडन में)

पूरा प्रकरण पढ़कर स्पष्ट है कि लक्ष्मणभट्ट ने विवाहित होकर भी खुद को अविवाहित बताकर संन्यास दीक्षा ली। वो अपनी युवती पत्नी को गृहस्थाश्रम में छोड़कर संन्यासी बन गया था। परंतु महर्षि ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने झूठ बोलकर किसी संन्यासी दीक्षागुरु से संन्यास नहीं ग्रहण किया। अतः उन पर दोष नहीं आता। आप ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर’ आक्षेप लगा रहे हैं।

(१)- माता-पिता को जीते-जी मारने वाला व्यक्ति मूलशंकर था, नाकि योगिराज महर्षि दयानंद । युवापन में बिना उचित मार्गदर्शन और तीव्र वैराग्य के कारण उन्होंने गृहत्याग कर दिया। भले उन्होंने अपने माता -पिता को दुख दिया हो, परंतु देश के हजारों माता-पिताओं व उनकी संतानों तो धर्म और देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। सोई हुई आर्यजनता को जगाया, स्वतंत्रता हेतु विद्रोह करने की अलख जगाई, समाज में व्याप्त कुरीतियों का खंडन किया इस पर तो आप भी सहमत हैं, कि उनका कार्य बहुत महान् था। एक तरफ उनके कार्य को अच्छा बता रहे हैं, और दूसरी तरफ यह आरोप लगा रहे हैं वह व्यक्ति समाज को राह कैसे दिखा सकता है? क्या आपके लेख में व्याघात दोष नहीं है।

(२)- स्वामीजी तब अबोध थे, अतः धोखा देकर गृहत्याग कर आये। उनको इस कार्य का फल ईश्वर ने यथायोग्य दिया ही होगा। यह भी कोई बात नहीं है,कि महान् कार्य करने हेतु उन्होंने असत्य का सहारा लिया तो जीवनभर सत्य न पा सके। महोदय! उन्होंने पूरा जीवन सत्य जानने हेतु बिता दिया। सत्य की खोजमें वे दर-बदर भटके। अंततः उनको वेद विद्या व ब्रह्मसंबंधी ज्ञान मिल ही गया। तभी वे आर्ष पद्धति से वेदभाष्य, संस्कार विधि, व्याकरण आदि पर प्रामाणिक लेखन कर सके। सत्य के लिये उन्होंने कई बार विष पिया, डंडे-पत्थर खाये और अपमानित हुये। परंतु वे सत्य बोलने व करने से पीछे नहीं हटे। अतः आपका यह हेतु गलत है कि उनको असत्य ही मिला।

रही बात सच्चे शिष्य मिलने की बात,तो यह बात उन्होंने अपने प्रयास व्यर्थ होते देख कही थी। जरूरी नहीं कि यह पितृऋण न चुका पाने का फल हो, किसी और कर्म का भी फल हे सकता है। दरअसल उस समय स्वार्थी लोग छद्मवेष धरकर बाहर से आर्य,पर अंदर से घोर विरोधी लोग उनके शिष्य बन जाते थे। वे उनके लेखन में मिलावट भी कर देते थे। ऐसे धोखेबाज छली-कपटी शिष्य शंकराचार्य जी के भी बन गये थे। परंतु महर्षि को आगे चलकर आर्यसमाज में पं गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानंद, स्वामी श्रद्धानंद, पं लेखराम, पं युधिष्ठिर मीमांसक, पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं चमूपति, पं शिवशंकर शर्मा ‘काव्यतीर्थ’ आदि सुयोग्य शिष्य भी मिले। यही नहीं, १९० वर्षों से भी अधिक समयकाल में कई प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सफल शिष्य आर्यसमाज में ऋषि दयानंद के हुये हैं।
यहाँ पर ऐसा लग रहा है,मानो आप केवल शिष्य बनाना ही उनकी सफलता का पैमाना मान रखा है। जबकि उनकी सफलता सत्यधर्म के ज्ञान व ईश्वरप्राप्ति के साथ-साथ धर्म प्रचार आदि में निहित थी। उन्होंने जिस कार्य हेतु गृहत्याग किया, उसे भली-भाँति निभाया।
आप बस उनकी निराशाजनक टिप्पणी को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।

∆ मुहम्मद साहब के सहाबी ∆

हाँ, मुहम्मद साहब के भी कई सहाबी इस्लाम छोड़ मुर्तद हो गये । उस पर क्या विचार है?

अबू हुरैरा ने कहा कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया कि जब वे सो रहे थे, तब फरिश्ते ने आकर उन्हें सहाबाओं के विषय में बताया कि वे नरक में हैं। रसूल ने पूछा कि ऐसा क्यों? इस पर फरिश्ते ने कहा कि यह सहाबा इस्लाम से विमुख हो जायेंगे और बिना चरवाहे के ऊंट की तरह हो जायंगे
“They turned apostate as renegades after I left, who were like camels without a shepherd.”

( सही बुखारी, जिल्द ७ ,किताब ७६, हदीस ५८७)

यह बात शिया हदीस रज्जल कशी ( رجال ‏الكشي ) में इस तरह बयान की गयी है ” रसूल की मौत के बाद सहाबा सहित सभी लोग काफिर हो गए थे ,सिवाय सलमान फ़ारसी ,मिक़दाद और अबू जर के , लोगों ने कहा कि हमने सोच रखा था अगर रसूल मर गए या उनकी हत्या हो गयी तो हम इस्लाम से फिर जायेंगे-
“All people (including the Sahaba) became apostates after the Prophet’s death except for three.” Al-Miqdad ibn Aswad, Abu Dharr (Zarr), and Salman (Al-Farsi,When asked they replied, “. ‘If he (Muhammad) dies or is killed, we will turn from Islam ‘

– أبو الحسن و أبو إسحاق حمدويه و إبراهيم ابنا نصير، قالا حدثنا محمد بن عثمان، عن حنان بن سدير، عن أبيه، عن أبي جعفر (عليه السلام) قال : كان الناس أهل الردة بعد النبي (صلى الله عليه وآله وسلم) إلا ثلاثة.

منهم سلمان الفارسي و المقداد و أبو ذر

(Rijal Al-Kashshi – رجال ‏الكشي – p.12-13)

ये सहाबी अल्लाह के आखिरी पैगंबर के अनुयायी थे। वो पैगंबर, जो ‘संसार भर के आदर्श व दया की मूर्ति’ कहे जाते थे।फिर भी,उनके सीथ रहकर वे कभी एक न रह सके।
मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद इस्लाम शिया और सुन्नी में बँट गया और इनमें बहुत मारकाट हुई। प्रथम चार सर्वश्रेष्ठ खलीफा आपस में सत्ता पाने हेतु लड़ते थे। इन सबका विवेचन इस्लामी ग्रंथों के अनुसार पं देवप्रकाश,मौलवी फाजिल जी ने ‘कुरान परिचय-भाग-३'( अमर स्वामी प्रकाशन, गाज़ियाबाद उ.प्र) ने किया है। अधिक जानकारी हेतु श्री Silas की पुस्तक “Islam’s Royal family” पढ़िये।
सोचिये! आखिरी पैगंबर के करीबी लोगों में से कोई भी निःस्वार्थ व निर्लोभी व्यक्ति न हुआ। सब नंबर एक के अय्याश,हत्यारे,लंपट और लुटेरे थे। उसका एक उदाहरण देखिये-

~हजरत उमर दासी से संभोग करते थे-

“उमर एक औरत को सम्भोग के लिए बुलाये ,लेकिन वह इस के लिए अग्रिम पैसा चाहती थी .जब उमर ने उसके साथ सम्भोग करना चाहा तो वह बहाने करने लगी ,की मेरा मासिक चल रहा है .उमर को पता चल गया कि औरत झूठ बोल रही है .तो वह रसूल के पास गए और शिकायत की ,रसूल ने कहा औरत को पचास दीनार अधिक दे दो।”

Umar bin al-Khatab may Allah be pleased with had a slave girl who used to hate men. Whenever Umar wanted to have sexual intercourse with her, she apologized by advancing an excuse that she was having a period, hence Umar thought that she was telling lie, then (when he had sexual intercourse with her) he found that she was telling the truth. He then he went to the prophet (pbuh) and He ordered him to pay fifty dinars as charity.
( Tabaqat Ibn Saad, Volume 6 page 195:
तबकाते इब्ने साद -जिल्द 6 पेज 195)

~ इस्लाम विरोधी-

इतिहास की किताबों में सहबियों की आपसी लड़ाइयों के बारे में जो प्रामाणिक हदीसों में रावियों द्वारा बयान की हैं ,उसके अनुसार अधिकांश सहाबी मुख्य मार्ग से हट गए थे .और जालिम और फासिक बन गए थे .क्योंकि वह इर्ष्या ,नफ़रत ,और लालच से भर गए थे .कई लोगों ने तो रसूल को देखा भी नहीं था .यह सभी पूरी तरह से निष्पाप नहीं थे .
The battles (between the Sahaba) as its recorded in history books & narrated by reliable narrators serve as proof that some companions left the right path and became Zaalim and Fasiq because they became affected by jealousy, hatred, stubbornness, a desire for power and indulgence because the companions were not infallible , nor was every individual that saw Rasulullah (s), good”.
Imam Dhahabi stated in his book Marifat al-Ruwah, page 4:
अल सियूती ने कहा कि वह एकदूसरे को काफ़िर कहते थे .
Al-Suyuti writes:
“Some of the Sahaba issued Takfeer against one another”
(Al-Dur al-Manthur, Volume 2 page 361)

बड़े अचरज की बात है! ये सब उनके निकटतम लोग थे। इनमें अली उनके दामाद व अबू बकर उनके ससुर थे। महर्षि दयानंद से मात्र एकाध बार दर्शन पाने के बाद पं लेखरामजी जैसा व्यक्ति आर्यपथिक बन गया। उनके सान्निध्य में पं गुरुदत्त विद्यार्थी जी महापंडित बन गये। इन आर्यविद्वानों के जीवनचरित्र भी उनकी सच्चरित्रता,त्याग,तप,विद्या अादि से पटे पड़े हैं । पर मुहम्मद साहब का हाल देखकर नहीं लगता कि वे कोई असाधारण योगी या तपस्वी थे,वरना उनके परिवार में ही ऐसा अनाचार न होता।

¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।

उत्तर—उत्तर उपरोक्त समान ही है। यह भी माता-पिता की आज्ञा का भंग करने का फल है या नही्, यह ईश्वर ही सही-सही बता सकता है। बाकी इसका कारण उनका कर्म है, तो यह भी ईश्वर की न्याय व्यवस्था है। चाहे उन्होंने माता-पिता का विश्वास तोड़ा हो, इससे उनका योगदान व्यर्थ नहीं कहा जा सकता।

क्रमशः…

पण्डित चमूपति जी की कुरआन-विषयक एक भविष्यवाणी

      “हम भविष्यवाणी करते हैं कि कुरान की जो नई व्याख्या लिखी जायेगी उसके ठीक (दुरुस्त) होने की कसौटी ऋषि दयानन्द की समीक्षा होगी। कुछ अहले इस्लाम अपनी कम फ़हमी (भूल भ्रान्तियों) के कारण सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास: का विरोध कर तो बैठते हैं, परन्तु उन्हें ज्ञान ही नहीं कि सत्यार्थप्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास: यात्रियों का वह मार्गदर्शक शंखनाद है, जो इस्लाम के काफिले को ठीक मान्यताओं की ओर तेज पग उठाने की प्रेरणा दे रहा है।

      काफ़िले वालो ! शंखनाद की ध्वनि को सुनो तथा ध्येयधाम की ओर पग उठाओ।”

[द्रष्टव्य, चौदहवीं का चाँद (उर्दू पुस्तक) लेखक पण्डित चमूपति, पृष्ठ १८७]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – कवीर्मनीषी पण्डित चमूपति – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मूर्ति सही या गलत : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा  समाधान – ११९

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा:- आदरणीय सम्पादक महोदय सादर नमस्ते। निवेदन यह है कि मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सख्त मनाही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

धन्यवाद, सादर।

– डॉ. पाल

समाधान:- महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन मेंं कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे वेद की मान्यतानुसार अपने जीवन को चला रहे थे और सम्पूर्ण विश्व को भी वेद की मान्यता के प्रति लाना चाहते थे। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वह सदा निभ्र्रान्त ज्ञान रहता है, उसमें किसी भी प्रकार के पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। वेद ही ईश्वर, धर्म, न्याय आदि के विशुद्ध रूप को दर्शाता है। वेद में परमेश्वर को सर्वव्यापक व निराकार कहा है। प्रतिमा पूजन का वेद में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेद को सर्वोपरि रखा है। महर्षि दयानन्द समाज की अवनति का एक बड़ा कारण निराकार ईश्वर की उपासना के स्थापना पर प्रतिमा पूजन को मानते हैं। जब से विशुद्ध ईश्वर को छोड़ प्रतिमा पूजन चला है तभी से मानव समाज कहीं न कहीं अन्धविश्वास और पाखण्ड में फँसता चला गया। जिस मनुष्य समुदाय में पाखण्ड अन्धविश्वास होता है वह समुदाय धर्म भीरु और विवेक शून्य होता चला जाता है। सृष्टि विरुद्ध मान्यताएँ चल पड़ती हैं, स्वार्थी लोग ऐसा होने पर भोली जनता का शोषण करना आरम्भ कर देते हैं।

महर्षि दयानन्द और अन्य मत सम्प्रदाय में एक बहुत बड़ा मौलिक भेद है। महर्षि व्यक्ति पूजा से बहुत दूर हैं और अन्य मत वालों का सम्प्रदाय टिका ही व्यक्ति पूजा पर है। महर्षि ईश्वर की प्रतिमा और मनुष्य आदि की प्रतिमा पूजन का विरोध करते हैं, किन्तु अन्य मत वाले इस काम से ही द्रव्य हरण करते हैं। इस व्यक्ति पूजा के कारण समाज में अनेक प्रकार के अनर्थ हो रहे हैं। इसी कारण बहुत से अयोग्य लोग गुरु बनकर अपनी पूजा करवा रहे हैं। जीते जी तो अपनी पूजा व अपने चित्र की भी पूजा करवाते ही हैं, मरने के बाद भी अपनी पूजा करवाने की बात करते हैं और भोली जनता ऐसा करती भी है। इससे अनेक प्रकार के अनर्थ प्रारम्भ हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने जो अपना चित्र न लगाने की बात कही है, वह इसी अनर्थ को देखते हुए कही है। महर्षि विचारते थे कि इन प्रतिमा पूजकों से प्रभावित हो मेेरे चित्र की भी पूजा आरम्भ न कर दें। इसी आशंका के कारण महर्षि ने अपने चित्र लगाने का निषेध किया था।

यदि हम आर्य महर्षि के सिद्धान्तों के अनुसार चल रहे हैं, प्रतिमा पूजन आदि नहीं कर रहे हैं तो महर्षि के चित्र आदि लगाए जा सकते हैं रखे जा सकते हैं। चित्र वा मूर्ति रखना अपने आप में कोई दोष नहीं है। दोष तो उनकी पूजा आदि करने में हैं। महर्षि मूर्ति के विरोधी नहीं थे, महर्षि का विरोध तो उसकी पूजा करने से था। यदि महर्षि केवल चित्र वा मूर्ति के विरोधी होते तो अपने जीवन काल में इनको तुड़वा चुके होते, किन्तु महर्षि के जीवन से ऐसा कहीं भी प्रकट नहीं होता कि कहीं महर्षि दयानन्द ने मूर्तियों को तुड़वाया हो। अपितु यह अवश्य वर्णन मिलता है कि जिस समय महर्षि फर्रुखाबाद में थे, उस समय फर्रुखाबाद बाजार की नाप हो रही थी। सडक़ के बीच में एक छोटा-सा मन्दिर था, जिसमें लोग धूप दीप जलाया करते थे। बाबू मदनमोहन लाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि मैजिस्ट्रेट आपके भक्त हैं, उनसे कहकर इस मठिया को सडक़ पर से हटवा दीजिये। स्वामी जी बोले ‘‘मेरा काम लोगों के मनो से मूर्तिपूजा को निकालना है, ईंट पत्थर के मन्दिरों को तोडऩा-तुड़वाना मेरा लक्ष्य नहीं है।’’ यहाँ महर्षि का स्पष्ट मत है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, न कि मूर्ति के।

आर्य समाज का सिद्धान्त निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त परमेश्वर को मानना व उसकी उपासना करना तथा ईश्वर वा किसी मनुष्य की प्रतिमा पूजन न करना है। इस आधार पर महर्षि का स्टेचू भेंट लेना देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विपरीत नहीं, सिद्धान्त विरुद्ध तब होगा जब उस स्टेचू की पूजा आरम्भ हो जायेगी। आर्य समाज का सिद्धान्त चित्र की नहीं चरित्र की पूजा अर्थात् महापुरुषों के आदर्शों को देखना अपनाना है।

कि सी भी महापुरुष के चित्र वा स्टेचू को देखकर हम उनके गुणों, आदर्शों, उनकी योग्यता विशेष का विचार करते हैं तो स्टेचू का लेना-देना कोई सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। जब हम उपहार में पशुओं वा अन्य किन्हीं का स्टेचू भेंट कर सकते हैं तो महर्षि का क्यों नहीं कर सकते?

घर में जिस प्रकार की वस्तुएँ या चित्र आदि होते हैं उनका वैसा प्रभाव घर में रहने वालों पर पड़ता है। जब फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के भोंडे कामुकतापूर्ण चित्र वा प्रतिमाएँ रख लेते हैं, लगा लेते हैं तो घर में रहने वाले बड़े वा बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है आप स्वयं अनुमान लगाकर देख सकते हैं। इसके विपरीत महापुरुषों क्रान्तिकारियों के चित्र घर में होते हैं तो घर वालों पर और बाहर से आने वालों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा। घर में रहने वालों की विचारधारा को घर में लगे हुए चित्र व वस्तुएँ बता देती हैं। अस्तु।

महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने का विरोध किया था, वह क्यों किया इसका कारण ऊपर आ चुका है। स्टेचू, चित्र आदि का भेंट में लेना-देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। यह लिया-दिया जा सकता है, कदाचित् इसकी पूजा वा अन्य दुरुपयोग न किया जाय तो। इसमें इसका भी ध्यान रखें कि पुराण प्रतिपादित कल्पित देवता जो कि चार-आठ हाथ व चार-ेपाँच मुँह वाले वा अन्य किसी जानवर के  रूप में हों उनसे लेने देने से बचें।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)

– ब्र. राजेन्द्रार्य

पिछले अंक का शेष भाग……

निराकार होते हुए कैसे कार्य करता है – प्रश्नः जब परमेश्वर के श्रोत्र-नेत्रादि इन्द्रियां नहीं हैं, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?

उत्तरः स्वामी दयानन्द उपनिषद् का वचन उद्धृत करते हुए लिखते हैं-

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।

स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रथं पुरुषं महान्तम्।।

– श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 3/मं. 19

परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता, पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनता, अन्तःकरण नहीं, परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सब में पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्तःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।17

ईश्वर निष्क्रिय और निर्गुण नहीं – प्रश्नः उसको बहुत से मनुष्य निष्क्रिय और निर्गुण कहते हैं।

उत्तर :

न तस्यकार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चायधिकश्चदृश्यते।

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।।

– श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 6/ मं. 8

परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य और उसको करण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नहीं। न कोई उसके तुल्य और अधिक है। सर्वोत्तम शक्ति अर्थात् उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उसमें सुनी जाती है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभु तथापि चेतन होने से उसमें क्रिया भी है।18

निष्क्रिय हो तो जगत् को कैसे बनावेदेखो, जैसे वर्तमान् समय में जीव पाप-पुण्य करता, सुख-दुःख भोगता है, वैसे ईश्वर कभी नहीं होता। जो ईश्वर क्रियावान न होता, तो जगत् को कैसे बना सकता? जैसा कि कर्मों को प्राग भाववत् अनादि सान्त मानते हो, तो कर्म समवाय सबन्ध से नहीं रहेगा। जो समवाय सबन्ध से नहीं, वह संयोगज हो के अनित्य होता है।

– सत्यार्थप्रकाशः, द्वादश समुल्लासः

सृष्टि का उत्पादक – नास्तिकः जब परमात्मा शाश्वत अनादि चिदानन्द ज्ञानस्वरूप है, तो जगत् के प्रपञ्च और दुःख में क्यों पड़ा? आनन्द छोड़ दुःख का ग्रहण ऐसा काम कोई साधारण मनुष्य भी नहीं करता, (फिर) ईश्वर ने क्यों किया?

आस्तिकः परमात्मा किसी प्रपञ्च और दुःख में नहीं गिरता, न अपने आनन्द को छोड़ता है, क्योंकि प्रपञ्च और दुःख में गिरना, जो एकदेशी हो उसका हो सकता है, सर्वदेशी का नहीं। जो अनादि चिदानन्द ज्ञानस्वरूप परमात्मा जगत को न बनावे, तो अन्य कौन बना सके? जगत् बनाने का सामर्थ्य जीव में नहीं, और जड़ में स्वयं बनने का सामर्थ्य नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा ही जगत् को बनाता और सदा आनन्द में रहता है। जैसे परमात्मा परमाणुओं से सृष्टि करता है, वैसे माता-पिता रूप निमित्त कारण से भी उत्पत्ति का प्रबन्ध नियम उसी ने किया है।20

वेदादि शास्त्रों में अनेकत्र सृष्टि को उत्पन्न करने वाले चेतन तत्त्व ब्रह्म का प्रतिपादन किया है। यह विविध सृष्टि जिससे उत्पन्न होती है जिसके द्वारा धारण की जाती है और अन्त में जब यह नहीं रहती, अपने कारण रूप में लीन हो जाती है, इस सबका जो अध्यक्ष-नियन्ता सर्वव्यापक परमेश्वर वही इसकी वास्तविकता को जानता है।21 यह प्राणी-अप्राणी रूप जगत् जिससे  उत्पन्न होता, उत्पन्न होकर जिसके आश्रय जीता और जिसके द्वारा अन्त में लीन होता, उसको जानने की इच्छा करो वह ब्रह्म है।22

संभवतः वेद और उपनिषद् के इसी अभिप्राय को महर्षि वेद व्यास ने- जन्माद्यस्य यतः। वेदान्त दर्शन 1/1/2 के रूप में सूत्रबद्ध किया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि जिसकी उत्पत्ति होती है, वह जगत् है और जो उससे भिन्न है, वह उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण है।23

आचार्य कपिल ने भी कहा है-

सहि सर्ववित् सर्वकर्त्ता। – सांखय दर्शन 3/56

ईश्वर ही सर्वज्ञ सृष्टिकर्त्ता है, सर्वशक्तिमान् = जो सृष्टि रचना में किसी अन्य की शक्ति उधार नहीं लेता, न इन्द्रियादि साधनों की अधीनता रखता है, अपितु ‘‘सर्वशक्तिमत्ता’’ से आभयन्तरीय (भीतर से) इक्षणशक्ति द्वारा समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड की अद्भुत रचना करता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाशः अष्टम समुल्लास में लिखते हैं-

देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों के जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा, कला  का स्थापन, रुधिर शोधन, प्रचालन, विद्युत का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम नखादि का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभाग करण, कला, कौशल स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है?24

समस्त वैज्ञानिक ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता, सुव्यवस्थापक नहीं मानते, यह कहना भी असत्य है। सर ऑलिवर लाज और आईंस्टीन महोदय का कथन है-

I believe in god – who reveals himself in orderly  harmony of the universe

अर्थात् मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास करता हूँ जो अपने आपको सांसारिक सुव्यवस्था के रूप में प्रकट करता है।25

कर्मफल दाताईश्वरीय व्यवस्था से ही जीव कर्मफलों को भोगते हैं। प्रकरण रत्नाकर के दूसरे भाग आस्तिक-नास्तिक के संवाद के प्रश्नोत्तर के अन्तर्गत इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है, जिसको बड़े-बड़े जैनियों ने अपनी सममति के साथ माना और मुबई में छपवाया है।

नास्तिकः ईश्वर की इच्छा से कुछ नही होता जो कुछ होता है, वह कर्म से।

आस्तिकः जो सब कर्म से होता है तो कर्म किससे होता है? जो कहो जीव आदि से होता है तो जिन श्रोत्रादि साधनों से कर्म जीव करता है, वे किन से हुए? जो कहो कि अनादिकाल और स्वभाव से होते हैं तो अनादि का छूटना असमभव होकर तुमहारे मत में मुक्ति का अभाव होगा। जो कहो कि प्रागभाववत् अनादि सान्त हैं तो बिना यत्न के सब कर्म निवृत्त हो जायेंगे । यदि ईश्वर फलदाता न हो तो पाप के फल दुःख को जीव अपनी इच्छा से कभी नहीं भोगेगा। जैसे चोर आदि चोरी का फल दण्ड अपनी इच्छा से नहीं भोगते, किन्तु राज्य व्यवस्था से भोगते हैं, वैसे ही परमेश्वर के भुगाने से जीव पाप और पुण्य के फलों को भोगते हैं, अन्यथा कर्मसङ्कर हो जायेंगे, अन्य के कर्म अन्य को भोगने पड़ेंगे। – सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृ. 447

ईश्वर पापों को कभी क्षमा नहीं करता – प्रश्नः ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा करता है वा नहीं?

उत्तरः नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाय, और मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे, तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण – प्रश्नः- आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, परन्तु उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो?

उत्तरःसब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्नःईश्वर में प्रत्यक्षादि प्रमाण कभी नहीं घट सकते।

उत्तरः इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशयमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।

– न्यायदर्शन 1/1/4

अर्थात् जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का, शद, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख-दुःख  सत्यासत्य विषयों के साथ सबन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो।

अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है।26

इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर सिद्धि के सन्दर्भ में वेद, उपनिषद्, तर्क आदि प्रमाणों के आधार पर बहुत विस्तार से लिखा है। इस प्रसंग में महर्षि की जो मौलिक देन है, वह यह है कि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि करते हैं।

प्रत्यक्ष के बारे में वे स्वीकार करते हैं कि जब जीवात्मा शुद्ध अन्तःकरण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर होता है, उसको उसी समय आत्मा और परमात्मा दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। परमात्मा का यह प्रत्यक्ष केवल आत्मा युक्त मन से होता है, उसमें बाह्य इन्द्रियाँ कारण नहीं होतीं। ईश्वरकी सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकृति ऋषि दयानन्द के मौलिक और वैचारिक क्रान्तिकारी चिन्तन का परिणाम है।

स्वामी दयानन्द का ईश्वर विषयक एक-एक चिन्तन किसी दार्शनिक वैज्ञानिक की खोज से कम नहीं है। यथा जड़ पदार्थ कभी परमात्मा नहीं हो सकता और परमात्मा कभी जड़ नहीं हो सकता।

लक्षण प्रमाणायां वस्तु सिद्धिर्नतुप्रतिज्ञा मात्रेण।

सन्दर्भः

  1. (1) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।

– आर्य समाज का प्रथम नियम

(2) ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।

– आर्य समाज का द्वितीय नियम

  1. सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 426, 428
  2. सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 428
  3. सत्यार्थप्रकाशः सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 175
  4. (1)एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानााहुः।

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।।

– ऋग्वेद 1/164/64

(2) भुवनस्य यस्यपतिरेक एव नमस्यः ।

– अथर्ववेद 2/2/1

(3) ‘‘न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते। न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते। स एक एव सकवृदेक एव।’’

– अथर्ववेद (13/4/2) 16 से 18 मन्त्र

(4) ‘‘भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्’’।

– यजुर्वेद 13/4

  1. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 176
  2. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 193
  3. वही, पृष्ठ 193
  4. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, ईश्वर प्रार्थना विषयः पृष्ठ 3
  5. सत्यार्थ प्रकाशः अष्टम समुल्लासः पृष्ठ 211
  6. वही, पृष्ठ 211
  7. सत्यार्थप्रकाशः सप्तम समुल्लासःपृष्ठ 178
  8. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, वेद विषय विचारः पृष्ठ 33
  9. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 180
  10. वही, पृष्ठ 180
  11. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 187
  12. वही, पृष्ठ 187
  13. दार्शनिक संयोग दो प्रकार का मानते हैं। एक संयोगज और दूसरा समवायिक। समवाय सबन्ध गुण-गुणी में, कर्म-कर्मवान् में, अवयव-अवयवी में और जाति-व्यक्ति में रहता है। यह सबन्ध नित्य होता है। – युधिष्ठिर मीमांसक, स.प्र. (शतादी संस्करण) पृष्ठ 665
  14. सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 449
  15. इयं विसृष्टियति आबभूव यदिवादधे यदि वा न वेद।। – ऋग्वेद 10/129/7
  16. यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।

यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म।।

– तैत्तिरीयोपनिषद् 3/1

  1. तत्त्वमसि, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पृष्ठ 44
  2. सत्यार्थप्रकाशः अष्टम् समुल्लासः पृष्ठ 226
  3. विद्यार्थियों की दिनचर्या, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, पृष्ठ 38
  4. सत्यार्थ प्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 178

– आर्य समाज शक्तिनगर, सोनभद्र (उ.प्र.)

सत्यार्थ प्रकाश की अनमोल वचन

एक धन, दूसरे बन्धु कुटुम्ब कुल, तीसरी अवस्था, चौथा उत्तम कर्म और पांचवीं श्रेष्ठ विद्या ये पांच मान्य के स्थान हैं। परन्तु धन से उत्तम बन्धु, बन्धु से अधिक अवस्था, अवस्था से श्रेष्ठ कर्म और कर्म से पवित्र विद्या वाले उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं॥

क्योंकि चाहै सौ वर्ष का भी हो परन्तु जो विद्या विज्ञानरहित है वह बालक और जो विद्या विज्ञान का दाता है उस बालक को भी वृद्ध मानना चाहिये। क्योंकि सब शास्त्र आप्त विद्वान् अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं॥

अधिक वर्षों के बीतने, श्वेत बाल के होने, अधिक धन से और बड़े कुटुम्ब के होने से वृद्ध नहीं होता। किन्तु ऋषि महात्माओं का यही निश्चय है कि जो हमारे बीच में विद्या विज्ञान में अधिक है वही वृद्ध पुरुष कहाता है॥

ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय बल से, वैश्य धनधान्य से और शूद्र जन्म अर्थात् अधिक आयु से वृद्ध होता है॥

शिर के बाल श्वेत होने से बुढ्ढा नहीं होता किन्तु जो युवा विद्या पढ़ा हुआ है उसी को विद्वान् लोग बड़ा जानते हैं॥

और जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी; चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान् मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहाता है॥

इसलिये विद्या पढ़, विद्वान् धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। और उपदेश में वाणी मधुर और कोमल बोले। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं वे पुरुष धन्य हैं॥

-सत्यार्थ प्रकाश

संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

प्रश्न : संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।

प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा

नहीं?

उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।

प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?

उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।

प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा

नहीं?

उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।

प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?

उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)

– ब्र. राजेन्द्रार्य

चारवाक, बौद्ध, जैन आदि नास्तिक मतों का मानना है कि ईश्वर की सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लास में ईश्वर के दार्शनिक स्वरूप एवं वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर नास्तिकों की इस मान्यता का खण्डन किया है। ईश्वर प्रत्यक्ष न होने की जिस युक्ति के भरोसे नास्तिकों के सब सम्प्रदाय और आधुनिक वैज्ञानिक गण फूले नहीं समा रहे थे, स्वामी दयानन्द ने उनकी जड़ ही काट दी। महर्षि ने कहा कि ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे होता है, एतद् विषयक स्वामी जी की मान्यता के विचार यहाँ पर उद्धृत हैं-

ईश्वर का लक्षण वा स्वरूप – स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लगभग अपने सभी ग्रन्थों में ईश्वर के विषय में कुछ न कुछ अवश्य लिखा है। आर्य समाज के प्रथम व द्वितीय नियम में भी ईश्वर की चर्चा की हे। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर विषयक ऐसे अनेक मतों का निराकरण किया है, जिसमें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है या अन्यथा रूप में स्वीकार किया जाता है। नास्तिक मूर्धन्य चारवाक की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं-‘‘कोई एक बृहस्पति नामा पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को नहीं मानता था। उसके अनुसार लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।’’ ईश्वर विषयक इस चारवाक मत का निराकरण करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं- ‘‘यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान और प्रजा पालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, उसको भी परमेश्वरवत् मानते हो तो तुम्हारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं।’’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर के गुणों के वर्णन के सन्दर्भ में अनेक वेद मन्त्र प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहाँ पर उद्धृत हैं-

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।

यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।।

– ऋग्वेद १/१६४/३९

अर्थात् जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव-विद्यायुक्त, और जिसमें पृथिवी सूर्य्यादि लोक स्थित हैं, और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते, वे नास्तिक मन्दमति सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं। इसलिये सर्वदा उसी को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं।

प्रश्नः वेद में ईश्वर अनेक हैं, इस बात को तुम मानते हो वा नहीं?

उत्तरः नहीं मानते, क्योंकि चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा, जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों, किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है।

ईशा वास्यमिद ं  सर्वंयत्किञ्च जगत्याञ्जगत्।

तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।

– यजुर्वेद ४०/१

हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सब में व्याप्त होकर (जो उसका) नियन्ता है वह ईश्वर कहाता है। उससे डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग।

परमेश्वर का जैसा गुण-कर्म-स्वभाव है, वैसा ही जानकर मानना ही ज्ञान-विज्ञान कहाता है, उल्टा अज्ञान है। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में कहा है-

क्लेश कर्मविपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।

-योगदर्शन १/२४

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स्वामी दयानन्द ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-

‘ईश्वर’ कि जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी , सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हॅूँ।

जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव -प्रश्नः जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव कैसा है?

उत्तरः दोनों चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है, परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्त्पति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं और जीव के-

इच्छाद्वेष प्रयत्नसुख दुःख ज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति।

-न्याय दर्शन १/१/१०

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रिया

न्तरविकाराः सुख-दुःखे

इच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि।

– वैशेषिक दर्शन ३/२/४

‘इच्छा’ = पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, ‘द्वेष’ = दुःखादि की अनिच्छा वैर, ‘पुरुषार्थ’ =बल, ‘सुख’ = आनन्द, ‘दुःख’ =विलाप, अप्रसन्नता, ‘ज्ञान’=विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु वैशेषिक में ‘प्राण’= प्राणवायु को बाहर निकालना, ‘अपान’ = प्राणवायु को भीतर लेना, ‘निमेष’ =आँख को मींचना, ‘उन्मेष’ = आँख को खोलना, ‘जीवन’  = प्राण का धारण करना, ‘मन’ = निश्चय स्मरण और अहंकार करना, ‘गति’= चलना, ‘इन्द्रिय’= सब इन्द्रियों को चलाना, ‘अन्तरविकार’= भिन्न-भिन्न क्षुधा-तृषा, हर्ष-शोकादि युक्त होना (ये विशेष हैं।) ये जीवात्मा के गुण परमात्मा (के गुणों) से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होती है, तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब आत्मा शरीर छोड़ चली जाती है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसके होने से जो हो और न होने से न हो, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना, वैसे जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

ईश्वर अनादि हैईश्वर भूत, वर्तमान, भविष्यत तीनों कालों के बन्धन में न आने के कारण अनुत्पत्ति धर्मक है, अतः अनादि और जो वस्तु अनादि होती है, वह अमरणधर्मा होती है और जो अमृत होती है, वह अनन्त होती है। अनादि अनन्त को ही ‘‘सत्’’ कहते हैं। स्वामी दयानन्द ने अथर्ववेद के मन्त्र को उद्धृत करते हुए ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका१० में कहा है-

यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति स्वर्यस्य

च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।

– अथर्ववेद १०/८/१

अर्थ- यो भूत, भविष्यति, वर्तमानान् कालान् सर्वं जगच्चाधितिष्ठति सर्वाधिष्ठाता सन् कालादूर्ध्वं विराजमानोऽस्ति। दयानन्दर्षि।।

प्रश्नः ईश्वर सादि है वा अनादि?

उत्तरः अनादि। अर्थात् जिसका आदि कोई कारण वा समय न हो, उसको अनादि कहते हैं।

अनादि पदार्थ तीन हैं- एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति, अर्थात् जगत् का कारण। इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं, उनके-गुण-कर्म स्वभाव भी नित्य हैं। ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादित्व में वेदादिशास्त्रों के निम्न प्रमाण उद्धृत हैं-

द्वा सुपर्णा सयुजासखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नयो अभि चाकशीति।।१।।

– ऋग्वेद १/१६४/२०

शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। २।।  – यजुर्वेद ४०/८

(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ। इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है, वह इस वृक्ष रूप संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता  है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनशन्) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप; तीनों अनादि हैं।। १।।

(शाश्वतीभ्यः०) अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है।।२।।

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः

प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां

भुक्त भोगामजोऽन्यः।।

– श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं। इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फँसता है और उसमें परमात्मा न फँसता और न उसका भोग करता है।१२

ईश्वर का व्यापकत्व – प्रश्नः ईश्वर व्यापक है, वा किसी देश-विशेष में रहता है?

उत्तरः व्यापक है। क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता, सब का सृष्टा, सब का धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना असम्भव है।१३

इस विषय में स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में ऋग्वेद का निम्न मन्त्र उद्धृत किया है-

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।

दिवीव चक्षुराततम्।।

– ऋग्वेद १/२२/२०

व्यापक जो परमेश्वर है उसका अत्यन्त उत्तम आनन्दस्वरूप जो प्राप्ति होने के योग्य अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है, उसको विद्वान् लोग सब काल में देखते हैं। वह कैसा है कि सब में व्याप्त हो रहा है और उसमें देश, काल और वस्तु का भेद नहीं है अर्थात् उस देश काल में था और इस काल में नहीं,उस वस्तु में है और इस वस्तु में ंनहीं, ऐसा नहीं है। इसी कारण से वह पद सब जगह में सबको प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्रह्म सब ठिकाने परिपूर्ण है। इसमें यह दृष्टान्त है कि जैसे सूर्य का प्रकाश आवरणरहित आकाश में व्याप्त होता है, इसी प्रकार परब्रह्म पद भी स्वयं प्रकाश, सर्वत्र व्याप्तवान् हो रहा है। उस पद की प्राप्ति से कोई भी प्राप्ति उत्तम नहीं है, इसलिये चारों वेद उसी की प्राप्ति कराने के लिये विशेष करके प्रतिपादन कर रहे हैं।१४

ईश्वर सर्वशक्तिमान है – प्रश्नः ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वा नहीं?

उत्तरः है। परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ जानते हो, वैसा नहीं। किन्तु ‘सर्वशक्तिमान’ शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता, अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।१५

ईश्वर निराकार है, साकार नहीं – प्रश्नः ईश्वर साकार है वा निराकार?

उत्तरः निराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण क्षुधा-तृषा और रोग-दोष छेदन-भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता, इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों का बनाने हारा दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये।१६                        शेष भाग अगले अंक में….