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ओ३म् खं ब्रह्म: डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता पुरुष: ( परमात्मा) । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म् यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑ष॒ः सोऽसाव॒हम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥

I

– यजु० ४० । १७ ( हिरण्मयेन पात्रेण ) स्वर्णिम पात्र से, सुनहरी ताले से ( सत्यस्य ) मुझ सत्यस्वरूप परमेश्वर का ( मुखं ) द्वार ( अपिहितं ) बन्द है । ( यः असौ ) जो वह ( आदित्ये ) आदित्य में ( पुरुषः ) पुरुष दीखता है ( सः असौ ) वह ( अहम् ) मैं हूँ । (ओ३म् खं ब्रह्म ) मेरा नाम ‘ओम्’ है, ‘खं’ है, ‘ब्रह्म’ है ।

हे सांसारिक जनो ! क्या तुम मेरा दर्शन करना चाहते हो । मेरे दर्शन के लिए तुम्हें मेरे मन्दिर में आना होगा । किन्तु, मेरे मन्दिर का द्वार तो सुनहरे ताले से बन्द है । वह सुनहरा ताला इतना आकर्षक है कि जो भी मेरे दर्शन के लिए द्वार पर आता है, वह मेरे दर्शन की बात तो भूल जाता है, सुनहरे ताले पर ही रीझ कर उसी के दर्शन से तृप्तिलाभ करने लग जाता है । तुम सोचोगे कि मैं सम्भवतः किसी तीर्थस्थल पर बने अपने मन्दिर की बात कर रहा हूँ । नहीं, मेरा मन्दिर तो सर्वत्र है । प्रकृति की सब जड़-चेतन वस्तुएँ मेरे मन्दिर हैं। बर्फीले और हरियाली – भरे पर्वतं, नदी, सरोवर, जङ्गल, वृक्ष, वनस्पतियाँ, समुद्र, बादल, सूर्य, चाँद, सितारे सब मेरे मन्दिर हैं, सब में मैं बैठा हुआ हूँ । इन सबके द्वार सुनहरे पात्र से बन्द हैं । इन सब पदार्थों का अपना आकर्षण ही वह स्वर्णिम पात्र है, सुनहरा ताला है । मनुष्य प्राकृतिक छटा को जब अपनी आँखों से देखता है, तब इसकी चकाचौंध से उसकी आँखें चुंधिया जाती हैं । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु के अन्दर बैठा हुआ मैं उसे दिखायी नहीं देता हूँ । पहले उस स्वर्णिम पात्र को, सुनहरे ताले को खोलना होगा। तब मेरी दिव्य मूर्ति तुम सर्वत्र देख सकोगे। क्या तुमने कभी सोचा है कि आदित्य में ज्योति, आकर्षण शक्ति और विपुल चुम्बकीय शक्ति किसने भरी है ? आदित्य को ज्योति देनेवाला, ग्रह-उपग्रहों को अपनी आकर्षण की डोर से बाँधने की शक्ति देनेवाला मैं ही हूँ । अतः जब तुम आदित्य को देखोगे, तब उसमें मैं ही उसके सञ्चालक के रूप में बैठा हुआ दिखायी दूँगा । आदित्य में जो वह उसका सञ्चालक ‘पुरुष’ दीखता है, वह मैं ही हूँ । इसी प्रकार अन्तरिक्ष की विद्युत् में, पृथिवी की अग्नि और प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में तुम्हें ‘पुरुष’ बैठा हुआ दीखेगा। मैं ही वह पुरुष हूँ। मेरा नाम ‘पुरुष’ इस कारण है कि मैं प्रत्येक वस्तु की पुरी में बैठा हूँ, प्रत्येक वस्तु की पुरी में शयन कर रहा हूँ और प्रत्येक वस्तु को स्वयं से परिपूर्ण कर रहा हूँ। मेरा नाम ‘ओम्’ है, क्योंकि मैं सबकी रक्षा करता हूँ, मेरा नाम ‘ ख ३

* है- क्योंकि मैं आकाश के समान सर्वव्यापक हूँ, मेरा नाम ‘ब्रह्म’ है, क्योंकि मैं महिमा में सबसे बड़ा हूँ ।

सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश दे रहा है – हे मनुष्यो ! जो मैं यहाँ हूँ, वही अन्यत्र सूर्यादि में भी हूँ, जो अन्यत्र सूर्यादि में हूँ, वही यहाँ हूँ । सर्वत्र परिपूर्ण, ‘ख’ (आकाश) के समान व्यापक और मुझसे अधिक महान् अन्य कोई नहीं है । सुलक्षण पुत्र के समान प्राणप्रिय मेरा निज नाम ओम्’ है। जो प्रेम और सत्याचरण के साथ मेरी शरण में आता है, उसकी अविद्या को अन्तर्यामी रूप से मैं ही विनष्ट करके, उसके आत्मा को प्रकाशित करके, उसे शुभ-गुण- कर्म-स्वभाववाला करके, उसके ऊपर सत्यस्वरूप का आवरण चढ़ाकर और उसे शुद्ध योगजन्य विज्ञान देकर सब दुःखों से पृथक् करके मोक्षसुख प्राप्त कराता हूँ ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरुष: पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा । पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य ।

निरु० २.३, ‘ ( पुरुष: ) पूर्ण: परमात्मा’ – द० ।

२. (ओम् ) योऽवति सकलं जगत् – द० । अव रक्षणादिषु, अवति रक्षतीति

‘ओम्’, ‘अवतेष्टिलोपश्च’ उ० १.१४२ से मन् प्रत्यय और उसकी टि ‘अन्’ का लोप । धातु की उपधा और वकार को ऊठ् = ऊ । ऊ म्=ओम् ।

३. (खम्) आकाशवद् व्यापकम् – द० ।

४. (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत् — द० ।

५. दयानन्दभाष्य में प्रकृत मन्त्र के संस्कृतभावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद |

परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव :डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता परमात्मा । छन्दः स्वराड् आर्षी जगती । स पर्वग॑च्छुक्रम॑का॒यम॑त्र॒णम॑स्नावि॒रः शुद्धमपा॑पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्थान् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः

– यजु० ४०।८

( सः ) वह परमात्मा ( परि – अगात् ) चारों ओर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, ( शुक्रं ) तेजस्वी है, ( अकायम् ) शरीर- रहित है, (अव्रणं ) घावरहित है, ( अस्नाविरं ) नस-नाड़ियों से रहित है, ( शुद्धं ‘ ) पवित्र है, ( अपापविद्धं ) पाप से विद्ध नहीं है । वह ( कवि: ) मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, ( मनीषी ) बुद्धिमान् है, (परिभू: ४) दुष्टों को तिरस्कृत करनेवाला है, ( स्वयम्भूः ) स्वयम्भू है । उसने ( याथातथ्यतः ) यथातथ रूप में, अर्थात् जैसे होने चाहिएँ वैसा ( अर्थान् ) पदार्थों को ( व्यदधात् ) रचा है ( शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ) शाश्वत वर्षों

से सबने परमेश्वर के विषय में विभिन्न नामों से बहुत कुछ श्रवण किया हुआ है । फिर भी आओ, वेद उसके गुण-कर्म- स्वभाव का क्या परिचय दे रहा है, यह जानें । वेद कहता है कि वह चारों ओर गया हुआ है, चारों दिशाओं में विद्यमान है, सर्वव्यापक है । यह एक विचित्र विरोधाभास है कि चारों ओर विद्यमान है, फिर भी आँखों से दिखायी नहीं देता । आँखों से उसका प्रत्यक्ष इस कारण नहीं होता कि वह ‘ अकाय’ है, उसकी भौतिक काया ही नहीं है । आँख तो भौतिक वस्तु को ही देख सकती है । जब भौतिक शरीर ही नहीं है, तो शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग नस – नाड़ी आदि और शरीर के धर्म फोड़ा फुंसी, पीड़ा, ज्वर आदि भी उसके नहीं हैं, वह ‘अव्रण’ और अस्नायु’ है । वह ‘ शुक्र’ है, देदीप्यमान है, तेजोमय है, उसी के तेज से अग्नि, विद्युत्, सूर्य, तारे सब तेजोमय बने हुए हैं, उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं । वह ‘शुद्ध’ है, अविद्यादि दोषों से रहित होने के कारण सदा पवित्र रहता है । वह ‘ अपापविद्ध’ है, तस्करी, डकैती आदि पापों से विद्ध नहीं होता। वह ‘कवि’ है, मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है । वेदरूप काव्य का काव्यकार होने के कारण भी वह ‘कवि’ है । वह ‘ मनीषी’ है, मनस्वी है, पारदर्शी विचारों का अधीश्वर है । वह ‘ परिभू’ है, सबका परिभव या तिरस्कार करके सर्वोपरि विराजमान है । वह बड़े से बड़े दस्युओं को तिरस्कृत करके धूल में मिला देता है । वह ‘स्वयम्भू’ है, स्वयं सर्वशक्तिमान् बना हुआ है । अपनी शक्तिशालिता के लिए वह किसी अन्य पर निर्भर नहीं है । वह सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक यथोचित रूप में पदार्थों की रचना करता चला आया है। उसने सूर्य आदि पदार्थों को जैसा चाहिए था, वैसा ही बनाया है, उनमें कोई त्रुटि नहीं है ।

इस कण्डिका में परमेश्वर की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की स्तुति है । जिन विशेषणों या वाक्यों में उसके अन्दर विद्यमान गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन किया है, उनमें सगुण स्तुति है और ‘अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्, अपापविद्धम्’ विशेषणों द्वारा निर्गुण स्तुति है । आओ, हम भूयोभूयः प्रभु की स्तुति करें और उसके जिन गुण-कर्म-स्वभावों को ग्रहण कर सकते हैं, उन्हें ग्रहण करने का प्रयास करें ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रः = यः शोचति ज्वलति स शुक्रः । शोचति ज्वलतिकर्मा, निघं०

१.१६

२. (शुद्धम् ) अविद्यादिदोषरहितत्वात् सदा पवित्रम् – द० ।

३. कविः – मेधावी, निघं० ३.१५ । मेधावी कविः क्रान्तदर्शनो भवति

कवतेर्वा, निरु० १२.७।

४. (परिभूः ) यो दुष्टान् पापिन: परिभवति तिरस्करोति सः – द० ।

आत्मघाती लोग कहाँ जाते हैं? डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवतां आत्मा । छन्दः अनुष्टुप् । असुर्या, नाम ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः । ताँस्ते प्रेत्यापि॑िगच्छन्ति ये के चा॑त्म॒हना॒ जना॑ः ॥

I

– यजु० ४० । ३

( असुर्या : १ ) असुरों से प्राप्तव्य ( नाम ) निश्चय ही ( ते लोकाः ) वे लोक हैं, जो ( अन्धेन तमसा ) घोर अन्धकार से ( आवृताः ) आच्छादित हैं । ( तान् ) उन लोकों को (ते ) वे लोग (प्रेत्य ) मर कर ( अपि गच्छन्ति ) प्राप्त होते हैं, ( ये के च ) जो कोई भी ( आत्महन: २ जनाः ) आत्मघाती जन होते हैं ।

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सबसे पूर्व ‘आत्महनः का अर्थ समझ लेना चाहिए । आत्मन्’ शब्द परमेश्वर और जीवात्मा दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म-हन्ता दोनों ही

आत्महनः’ कहलाते हैं । हत्या तो परमेश्वर और जीवात्मा किसी की भी नहीं होती है, ये दोनों ही अजर-अमर हैं । परमेश्वर – हन्ता वह है, जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और यह प्रचार करता है कि परमेश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो मनुष्यों को उनके अच्छे-बुरे कर्मों के फल प्रदान करे; अतः जैसा चाहो आचरण रखो, मारो – काटो, लूटो, दूसरों का धन छीनो, चोरी करो, डाके डालो, ईश्वर है ही नहीं तो बुरा फल क्या देगा । इसी प्रकार जो जीवात्मा की सत्ता से इन्कार करते हैं, वे जीवात्म-हन्ता हैं । वे कहते हैं जब तक जियो, सुख से जियो, कर्ज ले-लेकर घी पियो, मेवे खाओ, शरीर के मरने के बाद जीवात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो कर्मफल प्राप्त करे। ये परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म- हन्ता दोनों ही समाज में अनाचार, कदाचार, व्यभिचार फैला कर समाज को दूषित करते हैं, परिणामतः उन लोकों या योनियों में जाते हैं, जिनमें असुर लोग पहुँचते हैं और जो घोर अन्धकार से घिरी होती हैं । ‘सु-र’ का अर्थ होता है शुभ कर्म करनेवाले। उससे विपरीत ‘असुर’ होते हैं, अर्थात् अशुभ कर्म करनेवाले । वे पशु-पक्षी – कीट-पतङ्ग – सरीसृप आदि की योनियों में जन्म लेते हैं । वे योनियाँ अन्धकार से आवृत होती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि उन योनियों मन, बुद्धि आदि कार्य नहीं करते। उन योनियों में जिनका जन्म होता है, वे खाने-पीने आदि की साधारण क्रियाएँ ही करते हैं, जैसे मनुष्य सोच-विचार कर, बुद्धि का प्रयोग करके नवीन नवीन ज्ञान प्राप्त करता है, नये-नये आविष्कार करता है, वैसा वे कुछ नहीं कर सकते ।

—-

अतः हमें चाहिए कि हम ‘आत्मघाती’ न बनें, परमेश्वर और जीवात्मा दोनों की सत्ता स्वीकार करते हुए शुभ कर्म ही करें, जिससे हमें उन्नति करने के लिए पुनः मनुष्य- योनि प्राप्त हो और उसमें निष्काम कर्म करते हुए हम दुःखों से मुक्ति भी प्राप्त कर सकें ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सुराः शुभकर्मरता:, तद्विपरीता असुराः । असुराणाम् इमे असुर्याः असुरैः

प्राप्तव्या: ।

२. आत्मानं परमेश्वरं जीवात्मानं वा ध्वन्तीति आत्महनः ।

ईश- प्रार्थना:डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः नारायणः । देवताः सविता । छन्दः गायत्री ।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव । य॑ह्म॒द्रन्तन्न॒ऽआ सु॑व ॥

– यजु० ३० । ३ हे ( सवितः ) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र- ऐश्वर्ययुक्त शुभगुणप्रेरक, (देव) तेजस्वी, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे ( विश्वानि ) सम्पूर्ण ( दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिए। (यत्) जो ( भद्रम् ) कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ है, ( तत् ) वह सब, हमको ( आ सुव) प्रदान कीजिए ।

हे जगदीश्वर ! आप सूर्य, चन्द्र, तारावलि, पर्जन्य, पर्वत, निर्झर, सरिता, सागर आदि से परिपूर्ण सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता हो, समग्र ऐश्वर्यों से युक्त हो और हम मानवों के आत्मा में शुभ गुणों की प्रेरणा करनेवाले हो । आप ‘देव’ हो, तेजस्वी हो, तेज प्रदान करनेवाले हो, शुद्धस्वरूप हो और सब सुखों के दाता हो। जो दुर्गुण हमारे अन्दर आ गये हैं, जिन दुर्व्यसनों में हम फँस गये हैं, जिन आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक दुःखों के हम घर हो रहे हैं, उन सबको आप हमारे अन्दर से दूर कर दीजिए । जो भद्र है, कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव है और जो कल्याणकारक पदार्थ हैं, वह हमें प्रदान कीजिए ।

वसिष्ठ और चोरी :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

ऋग्वेद के सम्पूर्ण सप्तम मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ हैं । बहुत थोड़े से मन्त्रों के द्रष्टा वसिष्ठपुत्र भी माने जाते हैं । इसी मण्डल में वसिष्ठ सम्बन्धी बहुत सी प्रचलित वार्त्ताओं का बीज पाया जाता है ।” अमीवहा वास्तोष्पते” इत्यादि ५५ वें सूक्त को प्रस्वापिनी उपनिषद् नाम से अनुक्रमणिका कार लिखते हैं । वृहद्देवता इसके विषय में विलक्षण कथा गढ़ती है, वह यह है – ” एक समय वरुण के गृह पर वसिष्ठ गए, इनको काटने के लिए भौंकता हुआ एक महाबलिष्ठ कुत्ता पहुँचा । तब वशिष्ठ ने ” यदर्जुन ” इत्यादि दो मन्त्रों को

पढ़कर उसको सुलाया और पश्चात् अन्यान्य मन्त्रों से वरुण सम्बन्धी सब मनुष्यों को भगा दिया । ” कोई आचार्य इस सूक्त पर यह आख्यायिका कहते हैं- “एक समय तीन रात्रि तक वसिष्ठ को भोजन न मिला तब चौथी रात्रि चोरी करने को वरुण के गृह पहुँचे । द्वार पर बहुत से आदमी और कुत्ते सोए हुए थे । इनको सुलाने के लिए वसिष्ठ जी ने इस ५५ वें सूक्त को देखा और उसका जप किया इत्यादि बातें सायण ने इस सूक्त के भाष्य के आरम्भ में ही दी हैं, अतः प्रथम सूक्त के शब्दार्थ कर आशय बतलाऊँगा ॥

अमीवहा वास्तोष्पते विश्वारूपाण्याविशन् ।

सखा सुखेव एधि नः ॥ १ ॥ – ऋ० ७1५५

अमीवहा= अमीव+हा । अमीव = रोग । हा-नाशक । वास्तोष्पते = वास्तो: +पते । वास्तु-गृह । संसाररूप गृहपति परमात्मा । यहाँ कोई उपासक कहता है कि ( वास्तो: + पते ) हे गृहाधिदेव ! समस्त गृहों में निवास करने हारे परमात्मन्! ( अमीवहा) आप मानसिक, आत्मिक तथा दैहिक सर्व रोग के निवारक हैं । (विश्वा+रूपाणि + आविशन्) आप सर्व रूपों में प्रविष्ट हैं । हे भगवान् ! (सखा) मित्रवत्, परमप्रिय और (सुशेवः) परम सुखकारक (न: + एधि) हमारे लिए हो जाइए। इतनी ईश्वर से प्रार्थना कर अब आगे कहते हैं कि-

यदर्जुन सारमेय दतः पिशङ्ग यच्छसे । वीव भ्राजन्त ऋष्टय उप स्रक्क्रेसु बप्सतो नि षु स्व ॥ २ ॥ स्तेनं राय सारमेय तस्करं वा पुनःसर । स्तोतृनिन्द्रस्य रायसि किमस्मान्दुच्छुनायसे नि षु स्वप ॥ ३ ॥ त्वं सूकरस्य दर्दृहि तवदर्दर्तु सूकरः । स्तोतृनिन्द्रस्य० ॥ ४॥

– ऋ० ७/५५ ॥

अर्जुन- श्वेत, सफेद । सारमेय – सरमा का पुत्र । देवसुनी का नाम सरमा है । दत्-दांत । ऋष्टि- आयुध, अस्त्र । राय – आओ । रायसि गच्छसि = जाते हो । अथ मन्त्रार्थ – (अर्जुन + सारमेय) हे श्वेत सारमेय ! (पिशंग) हे कहीं-कहीं पिंगलवर्ण! कुत्ते ( यद्+दतः + यच्छसे) जब तुम अपने दाँतों को दिखलाते हो तब वे दाँत (स्रक्वेषु + उप) ओष्ठ के कोने में (ऋष्टय: +इव + वि + भ्राजन्ते ) आयुध के समान चमकने लगते हैं और ( बप्सतः ) हमको खाने के लिए दौड़ते हो ॥ २ ॥ ( सारमेय+ पुन: सर) हे सारमेय ! हे पुनः सर ! पुनः – पुनः मेरी ओर आने वाले कुत्ते ! ( स्तेनं + तस्करम् + राय) तू चोर की ओर जा । (इन्द्रस्य + स्तोतृन् + अस्मान् + किम् + रायसि) परमात्मा के स्तुतिपाठक हमारी ओर तू क्यों आता है और (दुच्छुनायसे) क्यों हमको बाधा देता है। (नि+सु + स्वप) हे कुत्ते ! तू अत्यन्त सो जा ॥ ३ ॥ ( त्वम्+ सूकरस्य + दर्दृहि ) तु सूकर को काट खा ( सूकरः+तव + दर्दर्तु ) और सूकर तुझको काट खाय (इन्द्रस्य + स्तोतॄन्० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥

सस्तु माता सस्तु पिता सस्तु श्वा सस्तु विश्पतिः ।

ससन्तु सर्वे ज्ञातयः सस्त्वय मभितोजनः ॥ ५॥

य आस्ते यश्चरति यश्च पश्यति नोजनः । तेषां संहन्मो अक्षाणि यथेदं हर्म्यं तथा ॥ ६ ॥

ऋ०७1५५

(माता+सस्तु+पिता+सस्तु) हे सारमेय ! तेरे माता-पिता सो जाएँ । जो यह बड़ा कुत्ता है वह भी सो जाए। (विश्पतिः ) जो गृहपति है वह भी सो जाए इस प्रकार सब ही ज्ञाति और चारों तरफ के आदमी सो जाएँ। जो बैठा है, जो चल रहा है, जो हमको देखता है, उन सबकी आँखों को हम फोड़ते हैं । वे सब राजगृह के समान अचल होवें ॥ ६ ॥

प्रोष्ठेशयाः वह्येशया नारीर्यास्तल्पशीवरीः ।

स्त्रियोयाः पुण्यगन्धास्ताः सर्वाः स्वापयामसि ॥ ८ ॥

-ऋ० ७/५५ ( याः + नारी: + प्रोष्ठेशयाः ) जो स्त्रियाँ आंगन में सो गई हैं, (वह्येशयाः ) जो किसी बिछौने पर सोई हुई हैं, ( तल्पशीवरी: ) जो पलंग पर सोई हुई हैं, (याः + स्त्रियः + पुण्यगन्धाः ) जो स्त्रियां पुण्य गन्धवाली हैं, (ता:+सर्वा + स्वापयामसि) उन सबको मैं सुलाता हूँ ॥ ८ ॥

आशय-सरतीति सरमा । भोगविलास की ओर दौड़ने वाली जो यह महातृष्णा है यही शुनी अर्थात् कुत्ती है और इसी कुत्ती के ये आँख, कान आदि इन्द्रिय गुलाम हैं, अतः इसका नाम सारमेय है। अर्जुन श्वेत। इन इन्द्रियों में कोई श्वेत- सात्त्विक और कोई पिशंग अर्थात् राजस, तामस नाना वर्ण के हैं। ये दोनों प्रकार के इन्द्रिय परम दुःखदायी हैं और यह भी प्रत्यक्ष है कि इन्द्रियों का व्यवहार कुत्ते के समान है । अतः कोई उपासक प्रार्थना करता है कि हे कुत्ते समान इन्द्रियगण ! मुझे तुम क्यों दुःख देते हो। तुम तो जाओ अर्थात् शिथिल हो जाओ। तुम जानते नहीं कि हम परमात्मा के उपासक हैं, फिर तुम कैसे हमको काट सकते हो, तुम सो ही जाओ। मैं इन सब कुत्तों की आँखें फोड़ डालता हूँ इत्यादि । इससे जो कोई सचमुच कुत्ते को सुलाने का भाव समझते हैं वे बड़े अज्ञानी हैं। क्या मन्त्र पढ़ने से कुत्ते सो जाएँगे ? वेद के गूढ़-गूढ़ आशय को न समझ कैसी अज्ञानता लोगों ने फैलाई है । यहाँ सारमेय आदि शब्द इन्द्रिय वाचक हैं और “मैं स्त्रियों को सुलाता हूँ” इसका आशय यह है कि जब इन्द्रियगण अति

प्रबल होते हैं तब सबसे पहले स्त्रियों की ओर दौड़ते हैं । विषयी पुरुषों के लिए यह एक महाविषवल्ली है । अत: उपासक कहता है कि “मैं सब स्त्रियों को भी सुलाता हूँ” अर्थात् परमात्मा से प्रार्थना है कि स्त्रियों की ओर भी मेरा मन न जाए इत्यादि इसका सुन्दर भाव है । इससे चोरी की कथा गढ़ने वाले कदापि वेद नहीं समझ सकते । इसमें वसिष्ठ की कहीं भी चर्चा नहीं। यदि मान लिया जाए कि इस मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ होने से वसिष्ठ ही ऐसी प्रार्थना करते हैं तो भी कोई क्षति नहीं । मैं वैदिक इतिहासार्थ निर्णय में विस्तार से दिखला चुका हूँ कि वैदिक पदार्थानुसार ऋषियों के नाम दिये जाते हैं। जिस कारण वसिष्ठ अर्थात् सत्यधर्म की व्यवस्था का विषय इस मण्डल में है, अतः इसके द्रष्टा का नाम भी वसिष्ठ हुआ। सबको ऐसी प्रार्थना नित्य ही करनी चाहिए ।

वेद में विमान की चर्चा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

विमान एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् । स विश्वाची रभि चष्टे घृताची रन्तरो पूर्वमपरंच केतुम् ।

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– यजु० १७/५९

(दिवः + मध्ये) आकाश के मध्य में (एष: + विमानः आस्ते ) यह विमान के समान विद्यमान है। (रोदसी अन्तरिक्षम् ) द्युलोक, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, मानो, तीनों लोकों में ( आपप्रिवान् ) अच्छी प्रकार परिपूर्ण होता है अर्थात् तीनों लोकों में इसकी अहत गति है । (विश्वाची 🙂 सम्पूर्ण विश्व में गमन करनेहारा (घृताची: ) घृत:- जल अर्थात् मेघ के ऊपर भी चलने हारा (सः) वह विमानाधिष्ठित पुरुष ( पूर्वम्) इस लोक (अपरम्+च) उस परलोक ( अन्तरा ) इन दोनों के मध्य में विद्यमान (केतुम् ) प्रकाश (अभिचष्टे ) सब तरह से देखता है ।

यहाँ मन्त्र में विमान शब्द विस्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुआ है। इसकी गति का भी वर्णन है तथा इस पर चढ़ने हारे की दशा का भी निरूपण है, अत: प्रतीत होता है कि ऋषिगण अपने समय में विमान विद्या भी अच्छी प्रकार जानते थे । एक अति प्राचीन गाथा भी चली आती है कि प्रथम कुबेर का एक विमान था, रावण उसे ले आया था। रामचन्द्र विजय करके जब लङ्का से चले थे तब उसी विमान पर चढ़ कर लङ्का से अयोध्या आये थे ।

चन्द्रमा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह चन्द्र अमृतमय है । उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं, इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, परन्तु महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं-

पर्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।

२ – कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है । इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३ – यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है । कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५ – यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है । ६ – इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है । ७ – राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं । यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

चन्द्रमा का प्रकाश

अथाऽप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते तदेतेनोपेक्षितव्य मादित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति । – निरुक्त २ । ७ ।

यास्काचार्य कहते हैं कि सूर्य की एक किरण चन्द्रमा के ऊपर सदा पड़ती रहती है। इससे यह जानना चाहिए कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से होता है । पृथिवी के समान ही चन्द्रमा भी निस्तेज और अन्धकारमय है, जैसे पृथिवी के ऊपर जिस-जिस भाग में सूर्य की किरण पड़ती रहती है वहाँ-वहाँ दिन होता है। इसी प्रकार चन्द्रमा के ऊपर भी सूर्य की किरण पड़ती रहती है, अतः इसमें प्रकाश मालूम होता है। सूर्य की किरण न पड़ती तो चन्द्र सदा धुँधला प्रतीत होता ।

इस अतिगहन विज्ञान का भी वेद में विविध प्रकार से वर्णन है । यास्काचार्य ने वेद का ही आशय लेकर उपर्युक्तार्थ प्रकट किया है और यहाँ ही एक-दो और प्रमाण देकर इसको बहुत पुष्ट किया है ।

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टु रपीच्यम् । इत्था चन्द्रसो गृहे ॥

ऋ० १।८४/१

(गोः) गमनशील ( चन्द्रमसः ) चन्द्रमा के (अत्र+ह+गृहे) इसी गृह में (त्वष्टः ) सूर्य का (नाम) सुप्रसिद्ध ज्योति ( इत्था ) इस प्रकार ( अपीच्यम् ) अन्तर्हित अर्थात् छिपा हुआ रहता है । यह ऋचा सर्व सन्देह को दूर कर देती है । चन्द्रमा के गृह में सूर्य का प्रकाश छिपा हुआ है । इस वर्णन से तो विस्पष्ट सिद्ध है कि सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्र प्रकाशित है । पुनः इसी अर्थ को अन्य प्रकार से वेद भगवान निरूपण करते हैं, वह यह है-

सोमो वधूयुरभव दश्विनास्तामुभा वरा । सूर्य्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविता ददात् ॥

– ऋ० १० । १८५।९।

सूर्य की कन्या से चन्द्रमा के विवाह का वर्णन यहाँ अलंकार रूप से किया गया है। सूर्य की प्रभा ही मानों सूर्य कन्या है । अथ मन्त्रार्थ- (सोमः ) चन्द्रमा (वधूयुः) वधू की इच्छा वाला हुआ अर्थात् चन्द्रमा ने विवाह करने की इच्छा की। (उभौ + अश्विनौ+ वरौ + आस्ताम् ) इस बराती में अश्वी अर्थात् दिन और रात्रि देव बरात हुए । (यद्) जब (मनसा) मन के परम अनुराग से (पत्ये + शंसन्तीम्+ सूर्याम्) पति के लिए चाह करती हुई सूर्या (अपनी कन्या को ) सूर्य ने देखा तब ( सविता + अददात् ) सूर्य ने चन्द्र के अधीन सूर्या को कर दिया। इस आलंकारिक वर्णन से विशद हो जाता है कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से हुआ करता है । यह विषय भारत देश में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि घर-घर इसको लोग जानते थे । काव्य नाटकों में भी इसकी चर्चा होने लगी । जो विषय अति प्रसिद्ध हो जाता है उसी का निरूपण कविगण अपने काव्यादि ग्रन्थों में किया करते हैं। कालिदास पौराणिक समय के विद्वान् थे, अतः अपने काव्यों को वैदिक और लौकिक दोनों

सिद्धान्तों से भूषित किया है। जैसे पौराणिक गप्प लेकर कालिदास जी ने कहा है कि देव और पितर चन्द्र का अमृत पीते रहते हैं, अतः चन्द्र की कला घटती-बढ़ती रहती है। वैसे ही वैदिक अर्थ को लेकर कहते हैं कि सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता है; यथा-

पितुः प्रयत्नात् स समग्रसम्पदः शुभैः शरीरावयवैर्दिनेदिने । पुपोष वृद्धिं सरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमा ।

– रघुवंश ३ । २२

सम्पूर्ण धनधान्य युक्त पिता के प्रयत्न से वह रघु दिन-दिन शरीर के शुभ अवयवों से बढ़ने लगे; जैसे- (बालचन्द्रमाः) छोटा चन्द्रमा (हरिदश्वदीधिते 🙂 सूर्य के ( अनुप्रवेशात्) अनुप्रवेश से शुक्ल पक्ष में दिन-दिन बढ़ता जाता है ।

वेदों में पृथिवी के नाम :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

गौ, ग्मा, ज्मा, क्ष्मा, क्षा, क्षमा, क्षोणि, क्षिति, अवनि, उर्वी, मही, रिपः, अदिति, इला, निर्ऋति, भू, भूमिः, गातुः, गोत्रा । इत्येक- विंशतिः पृथिवीनामधेयानि । – निघण्टु । १ । १

ये २१ नाम पृथिवी के हैं। इनके प्रयोग वेदों में आया करते हैं । इनमें से एक भी शब्द नहीं जो पृथिवी के अचलत्व का सूचक हो जब पृथिवी को अचल मानने लगे तो संस्कृत कोश में पृथिवी के नामों के साथ अचला, स्थिरा आदि शब्द भी आने लगे “भूर्भूमिरचलाऽनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा” अमरकोश । इससे सिद्ध होता है कि वैदिक समय में पृथिवी स्थिरा नहीं मानी जाती थी । वाचक शब्दों से भी विचारों का बहुत पता लगा है। जिस समय जैसा विचार उत्पन्न होता है शब्द भी तदनुकूल बनाए जाते हैं। जैसे आर्ष ग्रन्थों में ब्राह्मण के लिए मुखज, क्षत्रिय के लिए बाहुज, वैश्य के लिए ऊरुज और शूद्र के लिए पज्ज, चरणज आदि शब्द का प्रयोग एक भी पाया नहीं जाता, किन्तु अनार्ष ग्रन्थों में इनके शतशः प्रयोग हैं। इस समय में मुख आदि से ब्राह्मण आदि उत्पन्न हुए, ऐसा विचार प्रचलित हो चुका था, अतः शब्द भी वैसे आते हैं । इसी प्रकार यदि आर्ष समय में पृथिवी को स्थिरा मानते तो अवश्य वैसे शब्द भी आते । प्रत्युत इसके विरुद्ध गोशब्द आया है जिससे पृथिवी की गति मानी जाती थी । यह सिद्ध होता है । ” गच्छतीतिगौः ” चलनेहारे का नाम ही गौ है । यद्यपि यह अनेकार्थ है तथापि प्रायः चलायमान पदार्थ का ही नाम “गौ” रखा गया है । अब पृथिवी का गौ नाम क्यों रखा गया, जब यह विचार उपस्थित होता है तो यही कहना पड़ता है कि ऋषिगण पृथिवी को घूमती हुई मानते थे । तत्पश्चात् जब इनमें से यह विज्ञान लुप्त हो गया तब गो शब्द के अनेक धातु और व्युत्पत्तियाँ बतलाने लगे ।” गच्छन्ति प्राणिनोऽस्यामिति गौ: यां गायन्ति जना सा गौः ” वैदिक शब्दों का कोई दोष नहीं । अपने यहाँ जिज्ञासा के भाव के लोप होने से ऐसी दुर्मति फैली ।

पृथिवी का आधार: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब यह तो विस्पष्ट हो गया कि जब भूमि घूम रही है तब इसके आधार की आवश्यकता नहीं । धर्माभास पुस्तकों में यह एक अति तुच्छ प्रश्न और समाधान है। मुझे आश्चर्य होता है कि इन ग्रन्थकर्त्ताओं ने एकाग्र हो कभी इस विषय को न विचारा और न सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रों की ओर ध्यान ही दिया । उन्हें यह तो बड़ी चिन्ता लगी कि यदि पृथिवी का कोई आधार न हो तो यह कैसे ठहर सकती, किन्तु इन्हें यह नहीं सूझा कि यह महान् सूर्य निराधार आकाश में कैसे घूम रहा है, हमारे ऊपर क्यों नहीं गिर पड़ता। इन लाखों कोटियों ताराओं को कौन असुर पकड़े हुए है। हमारे शिर पर गिर कर क्यों नहीं चूर्ण- चूर्ण कर देता । हाँ, इसका भी उपाय वा समाधान इन सम्प्रदायियों ने अच्छा गढ़ा। जब निर्बुद्धि शिष्यों ने पूछा कि यह सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र आदि क्यों नहीं गिरते तो इसका उत्तर दिया कि सूर्य साक्षात् भगवान् हैं, ये चेतन देव हैं । रथ पर चढ़कर पृथिवी की परिक्रमा कर रहे हैं । यहाँ से पुण्यवान पुरुष मरकर सूर्यलोक में निवास करते हैं । इसी प्रकार चन्द्रमा आदि भी चेतन देव हैं। पितृगण यहाँ अमृतपान करते हुए आनन्द भोग रहे हैं इत्यादि गप्प कहकर शिष्यों को समझा दिया, किन्तु पुनः अन्ध शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि वे रथ किस-किस आधार वा मार्ग पर चल रहे हैं। प्रश्न किए भी गये हों तो ऐसे सम्प्रदायियों को समाधान गढ़ने में कितनी देर लगती है। झट से कह दिये होंगे कि अरे ! ये सब देव हैं । वे स्वयं उड़ा करते हैं जो चाहे सो कर लें, इनको क्या पूछते हो ये बड़े सामर्थी हैं । विचारी रह गई पृथिवी । यह देवी नहीं और चेतन भी नहीं । यदि पृथिवी चेतन देवी सूर्यादिवत् मानी जाती तो इसके आधार की भी चिन्तारूप नदियों में वे गोते न खाते। जिसकी आज्ञा से सूर्य-चन्द्र आदि नियत मार्ग पर चल रहे हैं, नियत समय पर उदित और अस्त होते, इसी की आज्ञा से यह पृथिवी ठहरी हुई है, यदि इतना भी वे विचार कर लेते तो इतने धोखे न खाते । ” अतिपरिचया- दवज्ञा” अति परिचय से निरादर होता है। भूमि पर सम्प्रदायी निवास करते हैं, प्रतिदिन देखते हैं, इसको देव वा देवी कहकर शिष्यों को बहला नहीं सकते थे । अतः अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इसके अनेक आधार गढ़ लिए। किसी ने कहा साँप के शिर के ऊपर है, किसी ने कहा कि कछुए की पीठ पर स्थापित है, किसी ने कहा कि नौका के समान जल के ऊपर तैर रही है । इस प्रकार अनेक कल्पनाएँ कर अपने-अपने शिष्यों को सम्बोधित करते गए। किन्तु किसी सम्प्रदायी को इसका सत्यभेद मालूम ही नहीं था । वे कैसे बतलाते । वेद ही सत्य भेद दिखलाते हैं । शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि यदि साँप पर पृथिवी है तो वह साँप किस पर है । नात्र कार्या विचारणा, नात्र कार्या विचारणा ” ऐसी बातें कह मन को संतोष देते रहे । भास्कराचार्य ने उन सब गप्पों का अच्छा खण्डन किया है, परन्तु ये आचार्य पौराणिक समय में हुए हैं। पृथिवी घूमती है, यह बात इनके समय में नहीं मानी जाती थी, अतः पृथिवी को ये महात्मा भी अचल ही मानते थे और इसके चारों तरफ सूर्य ही घूम रहा है ऐसा ही समझते थे, किन्तु वेद से यह विरुद्ध बात है । पृथिवी ही सूर्य के चारों तरफ घूमती है । पृथिवी से १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य बड़ा है। सूर्य के सामने पृथिवी एक अति तुच्छ चींटी के बराबर है । तब कब सम्भव है कि एक अति तुच्छ चींटी की परिक्रमा पर्वत करे । अब आधार के विषय में भास्करीय खण्डन परक श्लोक सुनिए ।

मूर्तो धर्त्ता चेद्धरित्र्यास्तदन्य स्तस्याप्यन्योऽप्येव मत्रानवस्था । अन्त्ये कल्प्या चेत् स्वशक्तिः किमाद्ये किन्नो भूमिः साष्टमूर्तेश्च मूर्तिः ॥

अर्थ – यदि पृथिवी के पकड़नेहारा कोई शरीर धारी है तो उसका भी कोई अन्य पकड़नेहारा होना चाहिए। यदि कहो उसका भी पकड़नेहारा है तो पुनः उसका भी कोई पकड़नेहारा होना उचित है । इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। इस दोष से ग्रस्त होकर आपको किसी अन्तिम धर्ता के विषय में कहना पड़ेगा कि वह अपनी शक्ति पर स्थित है । तो मैं पूछता हूँ कि आदि में पृथिवी को ही अपनी शक्ति पर ठहरी हुई क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि यह भूमि भी महादेव की अष्ट मूर्तियों में से एक मूर्ति है तो वह अपनी शक्ति पर क्यों नहीं ठहर सकती ?

अभी हमने आपसे कहा है कि सूर्यादिवत् इसको भी यदि चेतन और स्वशक्तिसम्पन्न मान लेते तो इतनी चिंता न करनी पड़ती, किन्तु समीप रहने के कारण पृथिवी को वैसी न मनवा सके । भास्कराचार्य वही बात कहते हैं कि यह भूमि भी महादेव की एक मूर्ति है तब वह क्या अपनी शक्ति पर ठहर नहीं सकती ? इसको पुनः विस्फुट कर देते हैं-

यथोष्णतार्कानलयोश्च शीतता विधौ द्रुतिः के कठिनत्व मश्मनि । मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रा: खलु वस्तुशक्तयः ॥

जैसे स्वभाव से ही सूर्य और अग्नि में उष्णता, चन्द्रमा में शीतलता, जल में द्रति (वहनशीलता), शिला में कठोरता है और जैसे वायु चलता है वैसे ही स्वभावतः पृथिवी अचला है, क्योंकि वस्तुशक्तियाँ नाना प्रकार की हैं। अतः यह पृथिवी स्वशक्ति के ऊपर स्थित होकर अचला है, यह कौन सी आश्चर्य की बात है । भास्कराचार्य ऐसे ज्योतिविद् होने पर भी पृथिवी को अचला मानकर कैसी गलती फैला गये हैं। इतना ही नहीं, ये कहते हैं कि रवि, सोम, मंगल, बुध,

बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रह और ये नक्षत्र मण्डल सब ही इसी पृथिवी के परितः स्थित हैं और यह भूमिमंडल अपनी शक्ति से स्थित है; यथा-

भूमेः पिण्डः शशांकज्ञकविरविकुजेज्यार्कि नक्षत्रकक्षा वृत्तैर्वृत्तो वृतः सन् मृदनिलसलिल व्योमतेजोमयोऽयम् ॥ नान्या- धार: स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे निष्ठं विश्वञ्च शश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात् ॥

इसका कारण यह है कि वे वैदिक विज्ञान की ओर नहीं गये अथवा इस ओर इनका ध्यान नहीं गया । यह कितनी अल्पज्ञता है कि सूर्य-चन्द्र आदि को चल और पृथिवी को अचला मानें। सूर्य-चन्द्र को उदित और अस्त होते देख मान लिया कि यह सब चल रहे हैं । पृथिवी की गति इन्हें मालूम नहीं हुई । रेल की गति जैसे एक अति क्षुद्र चींटी को मालूम नहीं होती होगी, अतः पृथिवी को अचला कहने लगे। जब हम इस बात की समालोचना करते हैं तो यही कहना पड़ता है कि हमारे पूर्वज आचार्य सूक्ष्मता की ओर दूर तक न पहुँच सके और न वेदों का पूरा मनन ही किया । एवमस्तु-

पृथिवी का ऊपर और नीचे का भाग :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

यद्यपि छोटे से छोटे पदार्थ का भी ऊपर और नीचे भाग माना जा सकता है। सेब और कदम्ब फल का भी कोई भाग नीचे का माना ही जाता है । वैसा ही पृथिवी का भी हिसाब हो सकता है किन्तु आश्चर्य यह है कि पृथिवी के सामने मनुष्य जाति इतनी छोटी है कि इसकी आकृति नहीं के बराबर है। इसी हेतु पृथिवी के अर्धगोलक पर रहने वाला अन्य अर्धगोलक पर रहने वाले को अपने से नीचे समझता है, किन्तु वे दोनों एक ही सीध में हैं, नीचे-ऊपर नहीं । जैसे अमेरिका देश पृथिवी के अर्धगोलक में है और द्वितीय अर्धगोलक में यूरोप, एशिया देश हैं। ये दोनों एक सीध में होने पर भी एक-दूसरे के ऊपर- नीचे प्रतीत होते हैं। भास्कराचार्य इस पर कहते हैं-

योयत्र तिष्ठत्यवनीतलस्थमात्मानमस्या उपरिस्थितञ्च । स मन्यतेऽतः कुचतुर्थसंस्था मिथश्च ते तिर्य्यगिवामनन्ति ॥ पृथिवी के किसी भाग में जो जहाँ है वह अपने को वहाँ ऊपर ही मानता है और दूसरे भागस्थ पुरुष को नीचे समझता है