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अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

– शिवनारायण उपाध्याय

वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।

वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

-ऋग्वेद 10.129.1

अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।

                        तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।

                        तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।

– ऋ. 10.129.3

अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

                       आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।

– ऋ. 10.129.2

सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।

फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-

‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।

-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6

अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-

सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।

अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।

ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।

– ऋ. 10.72.2

प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।      पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।

पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-

                           भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |

अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।

– ऋ. 10.72.4

अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।

सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।

नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है,  R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष

19d×3600×24×365

=186×109=9.7×109वर्ष

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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।

बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-

अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।

तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।

-मनु. 1.69

उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।

इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।

-मनु. 1.70

और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।

इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।

दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72

देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।

तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73

जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग  हैं।

इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष

12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष

12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष

यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।

तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।।   -मनु. 1.79

पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।

फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी  प्रवाह से अनादि है।

फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।

3म् तत्सत् श्री  ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।

यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।

इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-

छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष

वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष

अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष

कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष

= 5115 वर्ष

कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष

= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।

अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।

ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।

                        कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।

– ऋ. 1.95.8

अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।

भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।

यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-

= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष

साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।

 

– 73, शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी, कोटा-324009 (राजस्थान)

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ? – 2

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ?

मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ?

– आचार्य पं. उदयवीरजी शास्त्री

पिछले अंक का शेष भाग…………

उत्तर- प्रयोजन कामनामूलक होता है।ब्रह्म को ब्रह्मज्ञानियों ने पूर्णकाम व आप्तकाम बताया है, इसलिये सृष्टि रचना में ईश्वर का कामनामूलक कोई निजी प्रयोजन नहीं रहता। यह एक व्यवस्था है और ईश्वरीय व्यवस्था है, वह स्वयं अपनी व्यवस्था से बाहर नहीं जाता, उसके नियम सत्य हैं और पूर्ण हैं। उनके अनुसार ईश्वर सृष्टि रचना करता है- जीवात्माओं के भोग और अपवर्ग की सिद्धि के लिये। उसका यह कार्य उसकी एक स्वाभाविक विशेषता है, इसमें कभी कोई अन्तर या विपर्यास आने की संभावना नहीं की जा सकती। सृष्टि रचना के द्वारा ही परमात्मा का बोध होता है और इस मार्ग से जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। जब यह प्राप्त नहीं होता, तब कर्मों को करता और उनके अनुसार सुख-दुःख आदि फलों को भोगा करता है, सृष्टि-रचना का यही प्रयोजन है।

निराकार से साकार सृष्टि कैसे ?

प्रश्न- ईश्वर को निराकार माना जाता है, वह निराकार होता हुआ सृष्टि की रचना कैसे करता है? लोक में देखा जाता है कि कोई भीकर्त्ता देहादि साकार सहयोगी के बिना किसी प्रकार की रचना करने में असमर्थ रहता है, तब निराकार ईश्वर इस अनन्त विश्व की रचना करने में कैसे समर्थ होता है?

उत्तर – अनन्त विश्व की रचना करने वाला निराकार ही समर्थ हो सकता है। जहाँ ईश्वर को निराकार माना गया है, वहाँ उसे सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान भी कहा गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘सर्वशक्तिमान्’ का यही तात्पर्य है कि वह जगद्रचना में अन्य किसी सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, उसमें अनन्त शक्ति व पराक्रम है, उसका चैतन्यरूप सामर्थ्य असीम है, वह उसी सामर्थ्य द्वारा मूल उपादान जड़ प्रकृति को प्रेरित करता है, उसकी अनन्त सामर्थ्ययुक्त व्यवस्था सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में अपना कार्य किया करती है। जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्प शक्ति एवं एकदेशी है। उसे अपने किसी कार्य को संपन्न करने के लिये अन्तरंग साधनकरण (बुद्धि मन आदि) तथा बाह्य साधन देह एवं देहावयवों की अपेक्षा रहती है, इसलिये लोक में देखी गई स्थूल व्यवस्था के अनुसार ऐश्वरीसृष्टि के विषय में ऊहा करना उपयुक्त न होगा।

यदि गभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जीवात्मा द्वारा की जानेवाली प्रेरणाओं में उस स्थिति को पकड़ा जा सकता है, जहाँ किसी साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं जानी जाती। विचार कीजिये, आप कुर्सी पर बैठे हैं, मेज आपके सामने है, मेज पर आपका हाथ निश्चेष्ट रक्खा हुआ है, उससे कुछ दूर मेज के कोने पर कलम रक्खा है, आप उसे उठाकर कुछ लिखना चाहते हैं। आपकी इस इच्छा के साथ ही हाथ में हरकत होती है, वह ऊपर उठता और अँगुलियों में कलम पकड़ कर फिर पहली जगह आ टिकता है। अब विचारना यह है कि हाथ में उठने के लिये जो क्रिया हुई है, वह एक प्रेरणा का फल है, देह के अन्दर बैठा जो आपका चेतन आत्मा है, उसी से यह प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रेरणा देने की सीमा में चैतन्य के अतिरिक्त किसी अन्य साकार सहयोगी का समावेश नहीं है। यहाँ केवल चेतन आत्मा प्रेरणा दे रहा है, जो निराकार है। उसके अन्य साधन बुद्धि, मन आदि प्रेर्यमाण सीमा में आते हैं, प्रेरक सीमा में नहीं। इससे यह परिणाम निकलता है कि चैतन्य एक ऐसा तत्त्व है, जो प्रेरणा का अन्य आधार व स्रोत है, जिसमें किसी अन्य साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं रहती। जीव-चेतन की शक्ति जैसे अति सीमित है, ऐसे ब्रह्म-चेतन की शक्ति असीमित है, जैसे जीव केवल देह में प्रेरणा प्रदान करता है, ऐसे परमेश्वर अनन्त सामर्थ्य युक्त होने से अनन्त विश्व को प्रेरित करता है। सृष्टि रचना के विचार में यदि साकार सहयोगी की कल्पना की जाय तो वस्तुतः यह रचना ही असम्भव हो जायेगी, क्योंकि वह सहयोगी भी बिना रचना के असंभव होगा। फलतः अनन्त विश्व की रचना के लिये निरपेक्ष निराकार चैतन्य ही समर्थ हो सकता है, यह निश्चित है।

 

बिना कारण क्यों नहीं?

प्रश्न– ईश्वर जब सर्वशक्तिमान् है , तो वह बिना कारण के ही जगत् को क्यों नहीं बना देता?

उत्तर – यह संभव नहीं। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, कारण न होना ‘अभाव’ का स्वरूप है, जो अभाव है, वह कभी भाव रूप में परिणत नहीं हो सकता और न भाव रूप पदार्थ का कभी सर्वथा अभाव होता है। बिना कारण अथवा अभाव से जगत् की उत्पत्ति कहना बन्ध्या पुत्र के विवाह के समान मिथ्या है।

प्रश्नजब कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता, तो कारण का भी कोई कारण मानना होगा, और उसका भी कोई अन्य कारण, इस प्रकार तुमहारे इस कथन में अनवस्था दोष आता है कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता।

उत्तरहमने यह नहीं कहा कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता। ऐसे भी पदार्थ हैं, जो किसी के कारण हैं, पर वे स्वयं किसी के कारण हैं, तो वे स्वयं किसी के कार्य भी हैं। ऐसे पदार्थों को ‘कारण-कार्य’ अथवा  ‘प्रकृति-विकृति’ कहा जाता है। जैसे घड़ा मिट्टी से बनता है, मिट्टी पृथ्वीरूप है, पृथ्वी घड़े मकान आदि का कारण होते हुए भी अपने कारणों का कार्य है, अर्थात जिन कारणों से पृथ्वी की रचना होती है, उनका कार्य है। परन्तु जो सब कार्य जगत् का मूलकारण है, उसका और कोई कारण नहीं होता, जगत् का  मूल उपादान कारण अनादि पदार्थ है, वह किसी से उत्पन्न या परिणत नहीं होता, यदि ऐसा होता तो वह मूलकारण नहीं हो सकता था। इस प्रकार जैसे जगत् का कर्त्ता निमित्त कारण ईश्वर अनादि है, वैसे ही जगत् का मूल उपादान कारण प्रकृति भी अनादि है। उसका अन्य कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि वह कार्य नहीं, केवल कारण है, अतएव अनवस्था दोष की यहाँ संभावना नहीं हो सकती।

 

अन्यवादों का विवेचन

प्रश्न- आप प्रकृति उपादान से जगत् की सृष्टि कहते हैं, पर अन्य अनेक आचार्यों के सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विविध विचार हैं, क्या उनमें कोई सत्यता नहीं है? उन विचारों को निम्नलिखित वादों के रूप में उपस्थित किया जा सकता है-शून्यवाद, अभाववाद, आकस्मिकवाद, सर्वानित्यत्ववाद, भूतनित्यत्ववाद, पृथक्त्ववाद, इतरेतराभाववाद, स्वभाववाद, जगदनादिवाद, जीवेश्वरवाद आदि। क्या इनके अनुसार सृष्टि की यथार्थ व्याखया संभव नहीं?

उत्तर – इन वादों के आधार पर सृष्टि की सत्य एवं पूर्ण व्याखया होना समभव नहीं, ये सब एकदेशी, अवैदिकवाद हैं, जो किसी एक अंश पर धुँधला-सा प्रकाश डालते हैं, कहीं वह भी नहीं, प्रत्युत प्रकाश की जगह अन्धकार का ही विस्तार करते हैं। जगत् की यथार्थ विद्यमानता पहले दोनों वादों को ठुकरा देती है। किसी वस्तु का होना कहना अथवा उत्पन्न होना बताना और उसे अकस्मात् कहना परस्पर विरोधी हैं। जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह निश्चित ही अपने कारणों से होगी, यह अलग बात है कि हम उन कारणों को जान सकें या न जान सकें। सब वस्तु अनित्य है, अथवा भूतनित्य हैं, इसलिए सब वस्तु नित्य हैं, ये कथन अपने ही में मिथ्या है। किसी वस्तु का नित्य या अनित्य होना विशिष्ट निमित्तों पर आधारित है, उत्पन्न होने वाली वस्तु अनित्य तथा उत्पादन-विनाश से रहित वस्तु नित्य कही जाती है, यह एक व्यवस्था है। प्रत्येक वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य।

पृथक्त्ववाद आधुनिक रसायन शास्त्र से पर्याप्त सीमा तक मेल रखता है। रसायन  शास्त्र के अनुसार आज तक ऐसे एक सौ दो पदार्थों का पता लग चुका है, जो मूल रूप में एक दूसरे से पृथक है, एक दूसरे में किसी का कोई अंश नहीं है, भविष्य में और भी ऐसे अनेक पदार्थों का पता लग जाने की संभावना है। सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, पारा, गन्धक, जस्ता, सीसा, कैल्शियम, आक्सीजन, हाइड्रोजन, कॉर्बन, नाईट्रोजन, सिलिकन्, फास्फोरस, ऐल्युमिनिअम, आर्सनिक, प्लैटिनम्आदि सब ऐसे पदार्थ हैं, जो सर्वथा एक दूसरे से पृथक है। किसी में किसी का कोई अंश नहीं है, पर भौतिकी विज्ञान ने ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि ये सब किन्हीं मूलतत्त्वों के समिश्रण से बने हैं। वे मूल तत्त्व प्रोटॉन, इलैक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन् हैं, भारतीय दार्शनिकविचार के अनुसार इन्हें यथाक्रम सत्व, रजस्, तमस् के  वर्ग में समझा जा सकता  है। वैसे भी उक्त पदार्थों में से प्रत्येक में आकाश, काल, सामान्य (जाति) एवं नियन्ता शक्ति परमात्मा आदि का विद्यमान रहना अनिवार्य है, इसलिये स्वरूप से इनके पृथक रहते भी इनमें अन्य पदार्थों का अस्तित्व रहता ही है।

पदार्थों के इतरेतराभाव से सब पदार्थों का अभाव बताना सर्वथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है। गाय घोड़ा नहीं, घोड़ा गाय नहीं, इसलिये न गाय है न घोड़ा, ऐसा कहना नितान्त विचार शून्य है।यद्यपि गाय घोड़ा नहीं है, पर गाय गाय है, घोड़ा घोड़ा है, उनके अपने अस्तित्व को कैसे झुठलाया जा सकता है?

‘स्वभाव’ से जगत् की उत्पत्ति कहना, किस अर्थ को प्रकट करता है, यह विचारणीय है। स्वभाव में ‘स्व’ पद का अर्थ क्या है? यदि पद मूलकारण को कहता है, तो इस पद मात्र के अलग कहने से कोई अन्तर नहीं आता, अपने मूल कारण से जगत् उत्पन्न होता है, यही उसका तात्पर्य हुआ। इसी प्रकार वर्तमान रूप में जगत् को अनादि कहना प्रमाण विरुद्ध है। जागतिक वस्तुओं में परिणाम व परिवर्तन अथवा उत्पादन-विनाश बराबर देखा जाता है, जो इसके बने हुए होने को सिद्ध करता है, इसी रूप में जगत् को अनादि कहना अयुक्त है। पृथिव्यादि पदार्थ अवयव संयोग से बने परीक्षा द्वारा प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। यह कहना भी सर्वथा अयुक्त है कि जगत् का कर्त्ता ईश्वर कोई नहीं, जीवात्मा ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त होकर जगद्रचना कर सकते हैं। जीवात्मा को सिद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिये भी संसार की आवश्यकता है, यह संसार किसने बनाया ? किसी जीवात्मा का अनादि सिद्ध होना सभव नहीं। यदि कोई चेतन आत्मतत्त्व सृष्टि रचना का सामर्थ्य रखने वाला अनादि सिद्ध माना जाता है, तो उसे ही परमात्मा कहा जा सकता है।

सृष्टि का क्रम प्रवाह से अनादि है, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जगत् के अनादिकाल से चले आते हैं, अनन्त काल तक इसी प्रकार चलते रहेंगे, यह ऐश्वरी व्यवस्था है। कल्प-कल्पान्तर में परमेश्वर ऐसी ही सृष्टि को बनाता, धारण करता एवं प्रलय करता रहता है। ईश्वर के कार्य में कभी भूल-चूक या विपर्यास नहीं होता।

दर्शनों में विरोध

प्रशन- सृष्टि विषय में क्या वेदादि शास्त्रों का एवं भारतीयदर्शनों का परस्पर विरोध नहीं है? कहीं आत्मा से, कहीं परमाणु से, कहीं प्रकृति से, कहीं ब्रह्म और काल एवं कर्म से सृष्टि कही है। इनमें स्पष्ट विरोध प्रतीत होता है ।

उत्तर– इनमें विरोध कोई नहीं, ये सब एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक कार्य अनेक कारणों से बनता है। यह कहा जा चुका है, कार्यमात्र के तीन कारण हुआ करते हैं, निमित्त, उपादान और साधारण। न्यायादिदर्शनों में जगत् के विभिन्न कारणों का वर्णन है और उसके लिये अन्य उपयोगी विधियों का। प्रत्येक वस्तु की सिद्धि के किसी भी स्वर पर हमें प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है, इस स्थिति का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। तत्त्व विषयक जिज्ञासा होने पर प्रारमभ में शिक्षा का उपक्रम वहीं से होता है, जिनका प्रतिपादन वैशेषिक दर्शन करता है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप और उनके गुण-धर्मों की जानकारी पर ही आगे तत्त्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना समभव है। प्रमाण और बाह्य प्रमेय का विषय न्याय-वैशेषिक दर्शनों में प्रतिपादित किया गया है। तत्त्वों की उन अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को सांय प्रस्तुत करता है। चेतन-अचेतन के भेद को साक्षात्कार करने की प्रक्रियाओं का वर्णन योग में है। इन प्रक्रियाओं के मुखय साधन भूत मन की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का केन्द्र भूत आधार है। समाज के कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का वर्णन मीमांसा एवं समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन तत्त्व का वर्णन वेदान्त करता है। यह ज्ञान साधन कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्णाश्रम धर्मों एवं कर्त्तव्यों के रूप में पूर्णतया व्यवस्थित है। इन उद्देश्यों के रूप में कहीं किसी का किसी के साथ विरोध का उद्भावन अकल्पनीय है। दर्शनों में जिन तत्त्वों का निरूपण किया है, सृष्टि रचना में एक दूसरे के पूरक होकर वे तत्त्व पहले कहे तीन कारणों में अन्तर्हित अथवा समाविष्ट हैं, इनमें विरोध का कहीं अवकाश नहीं।

प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे ?

प्रश्न– पृथिव्यादि लोक-लोकान्तर तथा पृथिवी पर औषधि वनस्पति आदि उत्पन्न हो जाने पर संचरण शील प्राणी का प्रादुर्भव कैसे होता है? चालू सर्ग क्रम में ऐसे प्राणी का प्रजनन मिथुन मूलक देखा जाता है, यह स्थिति सर्वादिकाल में होनी संभव नहीं। यह एक उलझन भरी समस्या है कि सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ।

उत्तर-सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव बाह्य मिथुन मूलक नहीं होता। परमात्मा अपनी अचिन्त्य शक्ति एवं व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है। शरीर की रचना जिस प्रक्रिया के अनुसार चालू होती है, उसमें जीवात्मा का संचार प्रथमतः हो जाता है। प्राणी शरीर की रचना अत्यन्त जटिल है, शरीर-रचना की इस सुव्यवस्था को देखकर रचना करने वाले का अनुमान होता है। जो व्यवस्था जिस प्राणी वर्ग में निहित कर दी गई है, वह चालू संसार के मिथुन-मूलक प्रजनन में अब तक चली आ रही है और प्रलय पर्यन्त चलती रहेगी। इससे आदि शरीर की रचना बाह्य मैथुन रहित केवल परमात्मा की नित्य व्यवस्था के अनुसार होती है। यह अनुमान वर्तमान में देखी गई व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है।

प्रश्न– इतने कथन से आदि सर्ग में मानव शरीर रचना की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसका और स्पष्ट विवरण देना चाहिए।

उत्तरआदि सर्ग में प्राणी देह की रचना ऐश्वरी सृष्टि में गिनी जाती है। सर्वप्रथम जो प्राणी हुए, विशेषतः मानव प्राणी, उनका पालन-पोषण करने वाला माता-पिता आदि कोई न था, इसलिये यह निश्चित समभावना होती है कि वे मानव किशोर अवस्था में प्रादुर्भूत हुए, कतिपय आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसा मानने लगे हैं। बोस्टन नगर के स्मिथसोनियन इन्स्टीट्यूट के जीव विज्ञान शास्त्र के अध्यक्ष डॉ. क्लॉर्क का कथन है- मानव जब प्रादुर्भूत हुआ, वह विचार करने, चलने फिरने और अपनी रक्षा करने के योग्य था- Man appeared able to think walk and defend himself.

समस्या यह है कि मानव ऐसा विकसित देह सर्वप्रथम प्रादुर्भूत कैसे हुआ? उसकी रचना किस प्रकार हुई होगी? सचमुच यह समस्या अत्यन्त गमभीर है। ऐसी स्थिति में ऐसे शरीरों का प्रकट हो जाना अनायास बुद्धिगमय नहीं है। इसे समझने के लिये हमें चालू सर्ग काल के प्रजनन की स्थिति पर ध्यान देना चाहिये, समभव है वहाँ की कोई पकड़ इस समस्या को सुलझाने में सहयोग दे सके। साधारण रूप से प्रजनन की विधा चार वर्गों में विभक्त है- जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज अथवा ऊष्मज। अन्तिम वर्ग अति सूक्ष्म, अदृश्य कृमि-कीटों से लगाकर दृश्य क्षुद्र जन्तुओं तक का है। इस वर्ग के प्राणी का देह नियत ऊष्मा पाकर अपने कारणों से उदभूत हो जाता है। उद्भिज्ज वर्ग वनस्पति का है। चालू सर्ग काल में देखा जाता है कि बीज से वृक्ष होता है, पर सबसे पहले वृक्ष का बीज कैसे हुआ, यह विचारणीय है। निश्चित है कि वह बीज वृक्ष पर नहीं लगा, तब यही अनुमान किया जा सकता है कि उसकी रचना प्रकृति गर्भ में होती रही होगी। बीज में प्रजनन शक्ति-अंश एक कोष (खोल) में सुरक्षित रहता है, यह स्पष्ट है। वृक्ष पर बीज के निर्माण की प्रक्रिया भी नियन्ता की व्यवस्था के अनुसार प्रकृति का एक चमत्कार है। वंश बीज-निर्माण की प्रक्रिया क्या है, प्रजनन-अंश किस प्रकार कोष में सुरक्षित हो जाते हैं, जड़ से बीज तक कैसे उसका निर्माण होता आता है, इसे आज तक किसने जाना है? इसी प्रकार अण्डज वर्ग में बीज एक अति सुरक्षित कोष में आहित रहता है, इस वर्ग में कीड़ी तथा उससेा भी अन्य कतिपय सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर अनेक सरीसृप जाति के प्राणी स्थलचर तथा  जलचर एवं नभचर पक्षी जाति का समावेश है। विभिन्न जातियों के देहों के अनुसार कोश की रचना छोटी-बड़ी देखी जाती है। इस वर्ग का भ्रूण एक विशेष प्रकार के खोल से सुरक्षित रहता है, मातृ-गर्भ र्में उपयुक्त पोषण प्राप्त कर गर्भ से बाहर भी नियत काल तक कोश युक्त रहता हुआ पोषण प्राप्त करता है। भ्रूण का यथायथ परिपाक होने पर खोल फटता है और बच्चा निकल आता है, यह प्रकृति का एक चमत्कार है। इस वर्ग में उत्पत्ति काल की दृष्टि से कुछ अधिक बड़े देह वाले प्राणियों का सामावेश है तथा यह एक विचारणीय बात है कि भ्रूण का गर्भ से बाहर भी परिपोषण होता है।

अण्डज वर्ग के आगे बड़ी देह वाला प्राणी-वर्ग जरायुज है, जिसमें मानव एवं समस्त पशु-मृग आदि का समावेश है। कोश में भ्रूण के परिपोषण की प्राकृत व्यवस्था इस वर्ग में भी समान है। मातृगर्भ भ्रूण पूर्णाङ्ग होने तक जरायु में परिवेष्टित रहता है। स्निग्ध सुदृढ़ चमड़े जैसे पदार्थ की थैली का नाम जरायु है, पूर्णाङ्ग होने पर बालक इसको भेदकर ही मातृगर्भ से बाहर आता है। इस प्रकार भ्रूण की सुरक्षा, उपयुक्त पुष्टि व वृद्धि तक के लिए उसका विशिष्ट कोश में परिवेष्टित होना सर्वत्र प्राणी-वर्ग में समान है। यह एक ऐसी नियत व्यवस्था है, जो प्राणी के प्रादुर्भाव की आद्य-स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। चालू सर्ग काल अथवा मैथुनी सृष्टि में नर-मादा का संयोग प्राणी के साजात्य प्रजनन की जिस स्थिति को प्रस्तुत करता है, वह स्थिति अमैथुनी सृष्टि में प्राकृत नियमों वव्यवस्थाओं के अनुसार प्रकृति गर्भ में प्रस्तुत हो जाती है। इस व्यवस्था से और अण्डज वर्ग के सामान मातृगर्भ से बाहर भ्रूण की परिपोषण प्रक्रिया से यह अनुमान होता है कि सर्व-प्रथम आदिकाल में मानव आदि बड़े की रचना प्रकृति पोषित सुरक्षित उपयुक्त कोशों द्वारा हुई होगी। चालू सर्ग काल में देहों के अनुसार कोषों के आकार में विभिन्नता देखी जाती है। यह समभव है, आदि काल में प्रकृति निर्मित उपयुक्त कोशों में सुरक्षित एवं परिपोषित मानव आदि के किशोरावस्थापन्न सजीव देह यथावसर प्रादुर्भूत हुए हों। आदिसर्ग में विविध प्राणियों का अनेक संखया में प्रादुर्भाव हो जाता है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है। यह सब जीवों के कर्मानुसार ऐश्वरी व्यवस्था के सहयोग से हुआ करता है।

आदिमानव का मूलस्थान

प्रश्न– सर्व प्रथम मानव का प्रादुर्भा व पृथ्वी के किस प्रदेश पर हुआ?

उत्तर– भारतीय साहित्य के आधार पर अनेक दिशाओं से यह स्पष्ट होता है कि मानव का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव ‘त्रिविष्टप’ नामक प्रदेश में हुआ, जो वर्तमान तिबत के कैलाश, मानसरोवर प्रदेश तथा उससे सुदूर पश्चिम और कुछ दक्षिण-पश्चिम की ओर फैला हुआ था। कुछ समय पश्चात गंगा सरस्वती आदि नदी घाटियों के द्वारा आर्यों ने भारत प्रदेश में आकर निवास किया और इसका आर्यावर्त्त नाम रक्खा, सर्वप्रथम यहाँ आर्यों का निवास हुआ। उनसे पहले यहाँ अन्य किसी मानव का निवास नहीं था। आर्यों का मूलस्थान और यह भूभाग एक ही देश था। आर्य कहीं बाहर से यहाँ कभी नहीं आये। इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव पर्यन्त पृथ्वी के इन समस्त भागों पर आर्यों का अखण्ड राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा सर्वत्र प्रचार रहा। अनन्तर आर्यों का आलस्य, प्रमाद और परस्पर का विरोध समस्त ऐश्वर्य एवं विभूतियों को ले बैठा। पृथिव्यादि लोकों की लगभग एक अरब सत्तानवें करोड़ वर्ष की आयु में अब तक आर्यों का अधिक काल अभयुदय का बीता है। वेद धर्म पर प्रज्ञा पूर्वक आचरण करने से अब भी उत्कृष्ट अभयुदय की सभावना की जा सकती है।

इस प्रकार सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने अतिसूक्ष्म प्रकृति रूप उपादान कारण से जगत् को बनाया, जो असंखय पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। ये समस्त लोक अपनी गति एवं परस्पर के आकर्षण से ऐश्वरी व्यवस्था के अनुसार अनन्त आकाश में अवस्थित हैं। जैसे परमेश्वर इन सबका उत्पादक है, वैसे ही इनका धारक एवं संहारक भी रहता है। हमारी इस पृथ्वी के समान अन्य लोक-लोकान्तरों में भी प्राणी का होना संभव है। जीवात्माओं के कर्मानुष्ठान और सुख-दुःखादि फलों को भोगने तथा आत्म-ज्ञान होने पर अपवर्ग की प्राप्ति जगद्रचना का प्रयोजन है। असंखय लोकान्तरों की रचना का निष्प्रयोजन होना असभव है, अतःलोकान्तरों में भी प्राणी का होना समभव है। वेद का ज्ञान सबके लिए समान है। समस्त विश्व पर परमेश्वर का नियन्त्रण रहता है। उसी व्यवस्था के अनुसार सब तत्त्व अपना कार्य किया करते हैं।

सृष्टिकर्त्ता ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म सभी मनुष्यों का परमधर्म

ओ३म्

सृष्टिकर्त्ता ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म सभी मनुष्यों का परमधर्म

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अग्नि आदि किसी पदार्थ के जलना, प्रकाश व गर्मी देना आदि गुणों को उसका धर्म कहा जाता है। मनुष्यों में जिन श्रेष्ठ गुणों को होना चाहिये उनका मनुष्यों में संस्कार व उन गुणों की उन्नति सहित तदनुसार आचरण को ही मनुष्यों का धर्म कह सकते हैं। किसी आचार्य व विद्वान द्वारा सत्यासत्य व स्वहित के नियमों का निर्धारण जिसमें दूसरों के हितों की किंचित भी अनदेखी व उपेक्षा हो वह धर्म कदापि नहीं हो सकता। धर्म वह होता है जिसकी मान्यतायें व सिद्धान्त सर्वमान्य व अकाट्य होने सहित सभी विषयों के ज्ञान में पूर्णता रखती हों और जिन्हें मनुष्यों द्वारा धारण करने से उनका अभ्युदय व निःश्रेयस सुनिश्चित होता हो। असत्य, अहिंसा व स्वहित के नियम मनुष्यों को आपस में बांटतें हैं और साथ हि अशान्ति व दुःख उत्पन्न करते हैं। यदि यह किसी समाज, संगठन व संस्था में हों तो विचार कर उनका निराकरण किया जाना चाहिये जिससे उस संस्था व अन्य संस्थाओं के लोग परस्पर भाई चारे का व्यवहार कर परस्पर निजी व सामाजिक उन्नति कर सकें। वैदिक मान्यताओं के अनुसार यह सृष्टि लगभग 1.96 अरब वर्षों पूर्व अस्तित्व में आई थी। लगभग 5,200 वर्ष पूर्व भारत में एक महायुद्ध हुआ जिसे वर्तमान में महाभारत के नाम से जाना जाता है। युद्ध में मनुष्यों की भारी क्षति होती है। बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। परिवारों में व देश में उनकी मृत्यु से सर्वत्र दुःख का वातावरण छा जाता है। लोगों की सामान्य दिनचर्या अस्तव्यस्त हो जाती है। राज्य की आर्थिक स्थिति पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। राज्य से शिक्षा, चिकित्सा व अन्य विभागों का बजट कम करके उपलब्ध धनराशि को युद्ध में हुई क्षति की पूर्ति में लगाना पड़ता है। ऐसा ही कुछ कम या अधिक महाभारत के युद्ध के बाद हमारे देश में भी हुआ। उसके बाद देश की जो सामाजिक स्थिति निर्मित हुई उससे लगता है कि देश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। कहां तो महाभारत पूर्व हमारे देश में योगेश्वर श्री कृष्ण, महात्मा विदुर, युधिष्ठिर व अर्जुन जैसे विद्वान व वीर मनुष्य तथा द्रोपदी, कुन्ती व माद्री जैसी शिक्षित व वेदज्ञान सम्पन्न विदुषी महिलायें होती थी और कहा महाभारत के बाद यज्ञों में गाय, बकरी, भेड़ व अश्व आदि की हिंसा करते हुए हमारे यज्ञकर्त्ता विद्वान दृष्टिगोचर होते हैं। अज्ञान व अन्धविश्वास बढ़ने लगे और इसके साथ जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, छुआछूत, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित-ज्योतिष जैसे अन्धविश्वास व कुरीतियां समाज में घर कर गये जिनसे आज तक भी पीछा नहीं छूटा है। पतन यहां तक हुआ कि सभी स्त्रियों व शूद्रों से वेदाध्ययन व शिक्षा का अधिकार ही छीन लिया गया। यह सब समाज की घोरतम पतनावस्था थी। इस अवस्था से जो सामाजिक स्थिति उत्पन्न होनी थी वह अविवेकपूर्ण ही होती, विवेकपूर्ण तो तब होती जब देश में लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपना अधिकांश समय विद्यार्जन, सत्योपदेश, अन्धविश्वास व अवैदिक मतों के खण्डन में लगाते। यह श्रेय किसी ने नहीं लिया। इसका श्रेय उन्नीसवीं सदी में आर्यसमाज के संस्थापक और वेदों के मर्मज्ञ विद्वान, सिद्ध योगी व परमदेशभक्त व वेदधर्मप्रेमी महर्षि दयानन्द सरस्वती को मिला।

 

सृष्टि का निर्माण मनुष्यों के द्वारा नहीं हो सकता। उनके लिए यह कार्य असम्भव है। हमारी यह सृष्टि वा भौतिक जगत जड़ प्रकृति के सूक्ष्म कणों वा परमाणुओं से मिलकर बना है। यह परमाणु भी नाना प्रकार के होते हैं। हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन, कार्बन, आयरन, कैल्शियम आदि अनेक तत्व हैं जिनके सूक्ष्म परमाणु संरचना की दृष्टि से भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। यह जिस सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से बने वा बनायें गये हैं, उसके लिए एक अतिसूक्ष्मतम सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सृष्टि निर्माण का पूर्व अनुभव रखनेवाली सत्ता की आवश्यकता होती है। बिना इसके सृष्टि का निर्माण नहीं हो सकता। सृष्टि का अस्तित्व यह घोषणा कर रहा है कि मुझे एक दिव्य सत्ता जो निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ होने सहित सच्चिदानन्द आदि गुणों से युक्त है, उसने इस समस्त सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को बनाया है। बनाने वाले ईश्वर से भिन्न उपादान कारण के रूप में जिस जड़ पदार्थ का प्रयोग किया गया, उसे प्रकृति कहते हैं। उस ईश्वर ने पहले अति सूक्ष्म प्रकृति को भिन्न-भिन्न परमाणुओं में बदला वा बनाया, फिर उनसे अणुओं का निर्माण होकर यह समस्त स्थूल जगत बना है जिसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र आदि सम्मिलित हैं। यह ध्यातव्य है कि जड़ पदार्थों में स्वयं निर्मित होने की क्षमता नहीं होती। उसके लिए किसी बुद्धियुक्त चेतन, शक्तिसम्पन्न व प्रकृति से भी सूक्ष्म सत्ता की अपेक्षा होती है जिसे सृष्टिकर्ता कहते हैं। बिना कर्ता के कोई कार्य नहीं होता। आप आटे व उससे बनने वाली रोटी का सारा समान बनाकर अपने रसोईघर में रख दीजिए। जब तक कोई रोटी बनाने वाला मनुष्य रोटी नहीं बनायेगा, समस्त सामान उपलब्ध होने पर भी रोटी अपने आप कभी नहीं बनेगी। अतः ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना, उत्पत्ति  व पालन होना युक्ति व तर्क से सिद्ध है। यदि कोई इन तथ्यों को नहीं मानता तो वह अज्ञानी, हठी व दुराग्रही ही कहा जा सकता है। यह सृष्टि की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है।

 

ईश्वर ने सृष्टि बनाई और मनुष्यों सहित समस्त प्राणी जगत को भी उसी ने इस सृष्टि के आदि काल में उत्पन्न किया, तब से अब तक और आगे भी निरन्तर उत्पन्न करता रहेगा। अन्य कोई यह कार्य नहीं कर सकता था और सृष्टि रचना और प्राणियों की उत्पत्ति अपने आप वा स्वतः हो नहीं सकती थी। अतः ईश्वर के ऊपर न केवल सृष्टि की रक्षा व पालन का उत्तरदायित्व है अपितु मनुष्यों सहित सभी प्राणियों के पालन-पोषण सहित उन्हें भाषा व ज्ञान देना भी उसी का कर्तव्य निश्चित होता है। अब इस प्रश्न पर विचार करना उचित है कि ईश्वर प्रदत्त वह भाषा कौन थी और उसका ज्ञान क्या व किस रूप में था? इसका उत्तर हमसे पूर्व ही हमारे प्राचीन शास्त्रों व बाद में महर्षि दयानन्द ने अनेक प्रमाणों, तर्कों व युक्तियों से दिया है जिसे सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है। प्रबल युक्तियों से पोषित यह उत्तर बताता है कि ईश्वर ने मनुष्यों को बोलने के लिए उत्कृष्ट संस्कृत जिसे वैदिक संस्कृत कह सकते हैं, का ज्ञान आदि ऋषियों व मनुष्यों को दिया था। ज्ञान पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर ने अपना वह ज्ञान चार वेद ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद के रूप में चार ऋषियों अग्निवायुआदित्यअंगिरा को उनकी आत्मा में प्रेरणा द्वारा प्रविष्ट किया था। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है अतः ऋषियों वा मनुष्यों की अन्तरात्मा में ज्ञान स्थापित करना व उसकी प्रेरणा करना उसके लिए सरल, सहज व स्वाभाविक है। ईश्वर के लिए यह कार्य यह सम्भव है असम्भव कदापि नहीं। चार वेदों का यह ज्ञान ईश्वर ने उनके अर्थों वा भावों सहित स्थापित किया था जिससे ऋषियों को वेदार्थ जानने में कोई कठिनता नहीं हुई। उन ऋषियों को ईश्वर की ओर से यह दायित्व भी दिया गया था कि वह वेदों के ज्ञान को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न अन्य सभी युवा स्त्री-पुरुषों को उपदेश, अध्ययन व अध्यापन द्वारा करायें जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक किया भी। वही परम्परा महाभारतकाल तक अबाध रूप से चली और उसके बाद लुप्त व विश्रृंखलित होने पर महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने उसे पुनः प्रचलित किया और उनकी इस कृपा से आज चारों वेद पूर्ण सुरक्षित हैं व उनके हिन्दी व संस्कृति सहित अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में भाष्य भी उपलब्ध हैं जिससे साधारण हिन्दी पढ़ सकने वाला मनुष्य भी विद्वान हो सकता है। इसी से हमने भी लाभ उठाया, हम जो कुछ हैं, इसी का परिणाम हैं।

 

चार वेद सभी सत्य विद्याओं के सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ हैं। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसका उल्लेख मनुष्य के कर्तव्य की शिक्षा वेद में हो। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में घोषणा की थी कि वेद ईश्वर कृत हैं और सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। इनका पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना संसार के सभी मनुष्यों का परम धर्म (परम कर्तव्य) है। यदि किसी मनुष्य ने वेद नहीं पढ़े और उनका प्रचार नहीं किया तो इसका अर्थ है कि हमने मनुष्य के परम धर्म का पालन नहीं किया। वेद से इतर मत-मतान्तर व्यापक दृष्टि से देखने पर कुछ व अधिक मात्रा में धर्म हो सकते हैं परन्तु वेद परम-धर्म है। वेद विरुद्ध विचार, कार्य व आचरण अधर्म ही कहा जा सकता है। जो व्यक्ति वेद नहीं पढ़ता और उसके अनुसार आचरण नहीं करता वह इस जगदीश्वर सृष्टिकर्ता के नियम को तोड़ने का दोषी होता है। ईश्वर व वेद की ओर से मनुष्यकृत रचनाओं को पढ़ने की मनाही नहीं है, इनको भी पढ़ना चाहिये, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्य के अल्पज्ञ होने से मनुष्यकृत ग्रन्थों में सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण होता है। अतः वेदों को जानकर वेदसम्मत कर्तव्यों व मान्यताओं का ही आचरण व प्रचार करना चाहिये। वेद में ही ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के सत्य स्वरूप का वर्णन है। इनके अध्ययन से ही ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना, देवयज्ञ व अन्य यज्ञों के विधिपूर्वक करने का ज्ञान होता है। वेदों की इसी महत्ता के कारण सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारतकाल तक के एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख अड़तालीस हजार वर्षों तक भूमण्डल पर एक ही मत वैदिक मत वा धर्म का प्रचार प्रसार रहा। अन्य किसी महापुरूष ने कभी नये मत की स्थापना का विचार ही नहीं किया क्योंकि उनरकी न तो आवश्यकता थी और ऐसा करने पर भी वह वर्तमान की तरह प्रचलित नहीं हो सकते थे। वेदेतर सभी मत महाभारत काल के बाद अन्धकार व अज्ञान के समय में अस्तित्व में आयें हैं। क्यों आये? क्योंकि लोग वेदों के मार्ग को भूल बैठे थे। उन्हें मत-प्रवर्तकों द्वारा अपने ज्ञान व योग्यतानुसार व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता रहा। वेद की तुलना में सभी मत व उनकी पुस्तकें ज्ञान की दृष्टि से उच्च न होकर निम्नतर ही हैं। अतः सत्य के खोजी व पिपासुओं के लिए वेद ही अन्तिम लक्ष्य है। वेद सम्पूर्ण मानव धर्म है। वेदरिुद्ध मान्यतायें व सिद्धान्त धर्म नहीं अपितु अधर्म हैं जो सर्वत्र मत-मतान्तरों में समान रूप से पाये जाते हैं। वैदिक धर्म ईश्वर प्रदत्त होने से सबके लिए कर्तव्य एवं आचरणीय है। यदि इसका कोई पालन नहीं करेगा तो ईश्वर की व्यवस्था का पालन न करने का दोषी होगा और उसका परजन्म उसके इस जन्म में वेदाज्ञा का पालन न करने से दण्ड का कारण व आधार हो सकता है। हमने सत्य के स्वरूप के प्रकाशन के लिए कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है सत्यप्रेमी इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्म-मरण-जन्म के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध

ओ३म्

अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्ममरणजन्म

 के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य संसार में जन्म लेता है, अधिकतर 100 वर्ष जीवित रहता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस संसार व पृथिवी  पर हम रहते हैं उसे हमने व हमारे पूर्वजों ने बनाया नहीं है अपितु उन्हें यह सृष्टि बनी बनाई मिली थी। इस संसार को किसने बनाया, इसका शास्त्र व बुद्धि संगत वैज्ञानिक उत्तर है कि इसे एक अदृश्य, अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक सत्ता ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर जो जीवात्माओं को मनुष्य आदि योनियों में जन्म देता है, उनका पालन-पोषण करता है और शरीर के निर्बल व वृद्ध हो जाने पर उसकी आत्मा को शरीर से निकाल कर पुनः व वारंवार मनुष्य आदि योनियों में नया जन्म देता है। यह ऐसा ही होता है जैसे कि हम पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं। साधारण मनुष्य जन्म लेकर व कुछ पढ़ाई लिखाई करके अपनी कुल व समुदाय की परम्परा व रीति-रिवाजों के अनुसार किसी मत व सम्प्रदाय की कुछ सत्यासत्य मान्यताओं के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर स्वयं को धन्य समझ लेते हैं परन्तु कुछ प्रखर बुद्धि व बुलन्द जीवात्मा वाले लोग मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है? मरने के बाद लोग कहां जाते हैं, क्या गर्भवास, जीवन में आने वाले मृत्यु आदि के दुःखों से बचा जा सकता है? जैसे अनेकानेक प्रश्नों पर विचार करते हैं और इसके लिए अपनी समस्त सामर्थ्य को लगाते हैं। इससे उनको जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसी के अनुसार वह अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे मनुष्यों में एक सर्वोपरि नाम है और वह है स्वामी दयानन्द सरस्वती। संसार के अनेक बुद्धिमान अपने गुरुओं से यह प्रश्न करते हैं व कुछ पुस्तकों एवं शास्त्रों आदि का अध्ययन करते हैं तो उन्हें इसका उत्तर मिलता है कि संसार में तीन सत्तायें हैं, ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर आदि गुणों वाला है। वह सूक्ष्म जीवात्माओं को उनके जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देकर उसके पूर्व कृत कर्मों का भोग कराता है। सिद्धान्त है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। अतः हम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म लेकर उस योनि के शरीरों की अवधि पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त होते जाते हैं। शेष कर्मों का फल भोगने के लिए हमारा पुनः जन्म होता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनको शास्त्रों व जन्म-मृत्यु विषयक ज्ञान तो होता नहीं, कुछ छोटी-मोटी बातों के आधार पर पुनर्जन्म का खण्डन कर देते हैं। वेदों का अध्ययन करने की उन्हें फुर्सत नहीं। वह समझते हैं कि वह जितना जानते हैं उतना ही पर्याप्त है और उनके अलावा सभी अज्ञानी व उनसे ज्ञानस्तर में निम्नकोटि के हैं।

 

जीवात्मा जन्म लेता है और माता-पिता बनकर अपनी सन्तानों को जन्म देता है। यह तथ्य है परन्तु जीवात्मा को मनुष्य जन्म ईश्वर से मिलता है। उसी ने इस सृष्टि को रचा है। अतः इन प्रश्नों का उत्तर उसी ईश्वर से मिल सकता है। उससे यदि उत्तर जानना है तो वह समाधि अवस्था में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। उससे भी सहायता ली जा सकती है। वेदों के अनुसार जीवात्मा को जन्म व मृत्यु ईश्वर के द्वारा प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म एक सत्य, तर्क संगत व वैज्ञानिक सिद्धान्त है। महर्षि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों का भाष्य करने का उपक्रम किया था और सबसे पहले चारों वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ लिखकर वेदभाष्य कार्य को आरम्भ किया था। इस ग्रन्थ का उन्नीसवां अध्याय ‘पुनर्जन्मविषय’ है। आज इस अध्याय में लिखे उनके उपदेशों को ही प्रस्तुत कर हम पुर्नजन्म का स्वरूप पाठकों के समस्त प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने पुनर्जन्म विषयक ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के मन्त्रों सहित निरुक्त व न्याय दर्शन आदि के वचन उद्धृत किये हैं। यहां हम केवल ऋग्वेद के दो मन्त्रों को देकर सभी वचनों का हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋग्वेद के मन्त्र हैं असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम! ज्योक् पश्येम सूय्र्यमुच्चरन्तमनुमते मृळया नः स्वस्ति।। एवं दूसरा मन्त्र पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनद्र्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम्। पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषा पथ्यां३ या स्वस्तिः।। इन मन्त्रों का तात्पर्य है कि हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म अर्थात् परजन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिये। प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में दीजिये। हे जगदीश्वर ! इस संसार अर्थात् इस जन्म और परजन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों तथा हे भगवन् ! आपकी कृपा से सूर्यलोक और आपको विज्ञान तथा प्रेम से हम सदा देखते रहें। हे अनुमते=सबको मान देने हारे सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये जिससे हम लोगों का कल्याण हो। दूसरे मन्त्र का अर्थ-हे सर्वशक्तिमन् ! आपके अनुग्रह से हमारे लिये वारंवार पृथिवी प्राण को, प्रकाश चक्षु को, और अन्तरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात् ओषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे।

 

महर्षि दयानन्द द्वारा यजुर्वेद के एक तथा अथर्ववेद के दो उद्धृत मऩ्त्रों का अर्थ इस प्रकार है। हे सर्वज्ञ ईश्वर ! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हों। जो विश्व में विराजमान ईश्वर है, वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे। सब पापों के नाश करनेवाले आप हमको बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रक्खें। हे जगदीश्वर आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे अर्थात् प्राणों को धारण करनेहारा सामथ्र्य मुझ को प्राप्त होता रहे जिससे दूसरे जन्म में भी हम लोग सौ वर्ष वा अच्छे आचरण से अधिक आयु तक भी जीवें। सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी हमें पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। सदा के लिये ब्रह्म जो वेद है, उसका व्याख्यानसहित विज्ञान तथा आप ही में हमारी निष्ठा बनी रहे। सब जगत् के उपकार के अर्थ हम लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ को करते रहें। हे जगदीश्वर ! हम लोग जैसे पूर्वजन्मों में शुभ गुण धारण करनेवाली बुद्धि से उत्तम शरीर और इन्द्रियों से युक्त थे, वैसे ही इस संसार में पुनर्जन्म में भी बुद्धि के साथ मनुष्य देह के कृत्य करने में समर्थ हों। ये सब शुद्ध बुद्धि के साथ मुझको यथावत् प्राप्त हों। हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सदा सिद्ध करें और इस सामग्र से आपकी भक्ति को प्रेम से सदा किया करें। ऐसा करके किसी जन्म में हमको कभी दुःख प्राप्त न हो।

 

मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है। अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता है। पूर्वजन्म में किये हुए पाप पुण्य के फलों का भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़़ के वायु के साथ रहता, पुनः जल ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही यथावत् जान के बोलता है और धर्म ही में यथावत् स्थित रहता है, वह मनुष्ययोनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंग पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है। इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि का होना। इनमें मनुष्यशरीर के तीन भेद हैं-एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़के विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्यशरीर का धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिये है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता है।

 

जैसा वेदों में पूर्वापरजन्म के धारण करने का विधान किया है वैसा ही निरुक्तकार ने भी प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक ठीक जानता है कि मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हजारों गर्भाशयों का सेवन किया है। अनेक प्रकार के भोजन किये हैं, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता पिता और सुहृदों को देखा है। मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये। परन्तु अब इन महादुःखों से तभी छूटूंगा कि जब परमेश्वर में पूर्ण प्रेम और उसकी आज्ञा का पालन करूंगा, नहीं तो इस जन्मरणरूप दुःखसागर के पार जाना कभी नहीं हो सकता। योगशास्त्र में भी पुनर्जन्म का विधान किया है। हर एक प्राणी की यह इच्छा नित्य देखने में आती है कि मैं सदैव सुखी बना रहूं। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि मैं न रहूं अर्थात् मर जाऊं। ऐसी इच्छा पूर्वजन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह अभिनिवेशक्लेश कहलाता है जो कि कृमिपर्य्यन्त को भी मृत्यु का भय बराबर होता है। यह व्यवहार पूर्वजन्म की सिद्धि को जनाता है। न्यायदर्शन के वात्स्यायन भाष्य में भी कहा है कि जो उत्पन्न होता है अर्थात् शरीर को धारण करता है, वह मरण अर्थात् शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता है।

 

अनेक मनुष्य ऐसा प्रश्न करते हैं कि जो पूर्वजन्म होता है, तो हमको उसका ज्ञान इस जन्म में क्यों नहीं होता? इसका उत्तर है कि आंख खोल के देखों कि जब इसी जन्म में जो जो सुख दुःख तुमने बाल्यावस्था में अर्थात् जन्म से पांच वर्ष पर्य्यन्त पाये हैं, उनका ज्ञान नहीं रहता अथवा जो कि नित्य पठन पाठन और व्यवहार करते है, उनमें से भी कितनी ही बातें भूल जाते हैं तथा निद्रा में भी यही हाल हो जाता है कि अब के किये का भी ज्ञान नहीं रहता। जब इसी जन्म के व्यवहारों को इसी शरीर में भूल जाते हैं, तो पूर्व शरीर के व्यवहारों का कब ज्ञान रह सकता है? ऐसा भी प्रश्न करते हैं कि जब हमको पूर्वजन्म के पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता और ईश्वर उनका फल दुःख वा सुख देता है, इससे ईश्वर का न्याय वा जीवों का सुधार कभी नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ज्ञान दो प्रकार का होता है–एक प्रत्यक्ष व दूसरा अनुमान आदि से। जैसे कि एक वैद्य और दूसरा अवैद्य, इन दोनों को ज्वर आने से वैद्य तो इसका पूर्व निदान जान लेता है और दूसरा नहीं जान सकता। परन्तु उस पूर्व कुपथ्य का कार्य जो ज्वर है, वह दोनों को प्रत्यक्ष होने से वे जान लेते है कि किसी कुपथ्य से ही यह ज्वर हुआ है, अन्यथा नहीं। इसमें इतना विशेष है कि विद्वान् ठीक ठीक रोग के कारण और कार्य को निश्चय करके जानता और वह अविद्वान् कार्य को तो ठीक ठीक जानता है परन्तु कारण में उसको यथावत् निश्चय नहीं होता। वैसे ही ईश्वर न्यायकारी होने से किसी को विना कारण से सुख वा दुःख कभी नहीं देता। जब हम को पुण्य पाप का कार्य सुख और दुःख प्रत्यक्ष हैं, तब हमको ठीक निश्चय होता है कि पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना उत्तम मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते। इससे हम लोग निश्चय करके जानते हैं कि ईश्वर का न्याय और हमारा सुधार ये दोनों काम यथावत् बनते हैं। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि उपर्युक्त विवेचन विश्लेषण से बुद्धिमान् लोग पुनर्जन्म विषयक सिद्धान्त उससे सम्बन्धित सभी  पहलुओं को अपने विचार चिन्तन से यथावत् जान लेवें।

 

हम अनुभव करते हैं कि इस लेख में पुनर्जन्म विषयक वेद व शास्त्रों में पुनर्जन्म के विधान सहित इसके सभी पहलुओं का युक्ति व तर्कों के आधार पर स्पष्टीकरण हो गया है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनुष्यों को पापकर्मों से दूर रखता है। यदि हम कोई भी बुरा काम करेंगे तो ईश्वर की व्यवस्था से उसका फल हमें अवश्य ही भोगना होगा। यदि बुरे काम अधिक होंगे तो हमें परजन्म में पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सुअर, सर्प व गधा आदि भी बनना पड़ सकता है। यह भी विचारणीय है कि जीवात्मा और ईश्वर अनादि व नित्य हैं और यह सृष्टि भी अनन्त काल से बनती व बिगड़ती चली आ रही है। इस अनन्त काल में हम अनेकानेक बार सभी योनियों में रहकर अपने कर्मानुसार सुख व दुःख भोगते रहे हैं और आगे भी भोगेंगे। मनुष्यादि जन्म मरण सहित अनेक बार हम मुक्ति की अवस्था में भी गये व रहे हैं। क्या कोई मनुष्य परजन्म में पशु, घोड़ा व गधा बनना चाहेगा, यदि नहीं हो उसे सद्कर्म ही करने होंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है ।

अध्यात्मवाद

– कृष्णचन्द्र गर्ग

आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है- इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है । आत्मा और परमात्मा दोनों ही भौतिक पदार्थ नहीं हैं। इन्हें आँख से देखा नहीं जा सकता, कान से सुना नहीं जा सकता, नाक से सूँघा नहीं जा सकता, जिह्वा से चखा नहीं जा सकता, त्वचा से छुआ नहीं जा सकता।

परमात्मा एक है, अनेक नहीं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि उसी एक ईश्वर के नाम हैं। (एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। ऋग्वेद – 1-164-46 ) अर्थात् एक ही परमात्मा शक्ति को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। संसार में जीवधारी प्राणी अनन्त हैं, इसलिए आत्माएँ भी अनन्त हैं। न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान, प्रयत्न, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख- ये छः गुण जिसमें हैं, उसमें आत्मा है। ज्ञान और प्रयत्न आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, बाकी चार गुण इसमें शरीर के मेल से आते हैं। आत्मा की उपस्थिति के कारण ही यह शरीर प्रकाशित है, नहीं तो मुर्दा अप्रकाशित और अपवित्र है। यह संसार भी परमात्मा की विद्यमानता के कारण ही प्रकाशित है।

आत्मा और परमात्मा- दोनों ही अजन्मा व अनन्त हैं। ये न कभी पैदा होते हैं और नही कभी मरते हैं, ये सदा रहते हैं। इनका बनाने वाला कोई नहीं है। आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है। हर आत्मा एक अलग और स्वतन्त्र सत्ता है।

आत्मा अणु है, बेहद छोटी है। परमात्मा आकाश की तरह सर्व व्यापक है। आत्मा का ज्ञान सीमित है, थोड़ा है। परमात्मा सर्वज्ञ है, वह सब कुछ जानता है। जो कुछ हो चुका है और हो रहा है, सब कुछ उसके संज्ञान में है। अन्तर्यामी होने से वह सभी के मनों में क्या है- यह भी जानता है। आत्मा की शक्ति सीमित है, थोड़ी है, परन्तु परमात्मा सर्वशक्तिमान है। सृष्टि को बनाना, चलाना, प्रलय करना- आदि अपने सभी काम करने में वह समर्थ है। पीर, पैगबर, अवतार आदि नाम से कोई एजैंट या बिचौलिए उसने नहीं रखे हैं। ईश्वर सभी काम अपने अन्दर से करता है, क्योंकि उसके बाहर कुछ भी नहीं है। ईश्वर जो भी करता है, वह हाथ-पैर आदि से नहीं करता, क्योंकि उसके ये अंग है ही नहीं। वह सब कुछ इच्छा मात्र से करता है।

ईश्वर आनन्द स्वरूप है। वह सदा एकरस आनन्द में रहता है। वह किसी से राग-द्वेष नहीं करता। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से परे है। ईश्वर की उपासना करने से अर्थात् उसके समीप जाने से आनन्द प्राप्त होता है, जैसे सर्दी में आग के पास जाने से सुख मिलता है। ईश्वर निराकार है। उसे शुद्ध मन से जाना जा सकता है, जैसे हम सुख-दुःख मन में अनुभव करते हैं।

यह आत्मा जब मनुष्य शरीर में होती है, तब वह कार्य करने में स्वतन्त्र रहती है। उस समय किए कार्यों के अनुसार ही उसे परमात्मा सुख, दुःख तथा अगला जन्म देता है। दूसरी योनियाँ या तो किसी दूसरे के आदेश पर चलती हैं या स्वभाव से काम करती हैं। उनमें विचार शक्ति नहीं होती, इसलिए उन योनियों में की गई क्रियाओं का उन्हें अच्छा या बुरा फल नहीं मिलता। वे केवल भोग योनियाँ हैं जो पहले किए कर्मों का फल भोग रही हैं। मनुष्य योनि में कर्म और भोग दोनों का मिश्रण है। मनुष्य स्वतन्त्र रूप से कर्म भी करता है और कर्मफल भी भोगता है।

मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ। शरीर मेरा संसार में व्यवहार करने का साधन है। कर्ता और भोक्ता आत्मा है। सुख-दुःख आत्मा को होता है।

जीवात्मा न स्त्रीलिंग है, न पुलिंग है और न ही नपुंसक है। यह जैसा शरीर पाता है, वैसा कहा जाता है। (श्वेताश्वतर उपनिषद्)

ईश्वर की पूजा ऐसे नहीं की जाती, जैसे मनुष्यों की पूजा अर्थात सेवा सत्कार किया जाता है। ईश्वर की आज्ञा का पालन अर्थात सत्य और न्याय का आचरण- यही ईश्वर की पूजा है।

कठोपनिषद में मनुष्य-शरीर की तुलना घोड़ागाड़ी से की गई है। इसमें आत्मा गाड़ी का मालिक अर्थात सवार है। बुद्धि सारथी अर्थात् कोचवान है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इन्द्रियों के विषय वे मार्ग हैं, जिन पर इन्द्रियाँरूपी घोड़े दौड़ते हैं। आत्मारूपी सवार अपने लक्ष्य तक तभी पहुँचेगा, जब बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम को अपने वश में रखकर इन्द्रियाँरूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा।

उपनिषद में घोड़ागाड़ी को रथ कहा जाता है और रथ पर सवार को रथी। मनुष्य शरीर में आत्मा रथी है। जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर अरथी रह जाता है।

परमात्मा हम सबका माता, पिता और मित्र है। हम सब प्राणियों का भला चाहता है। जब मनुष्य कोई अच्छा काम करने लगता है तो उसे आनन्द, उत्साह, निर्भयता महसूस होती है । वह परमात्मा की तरफ से होता है, और जब वह कोई बुरा काम करने लगता है, तब उसे भय, शंका, लज्जा महसूस होती है। वह भी परमात्मा की तरफ से ही होता है ।

 

– 831 सैक्टर 10, पंचकूला, हरियाणा।

दूरभाषः 095014-67456

आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें

ओ३म्

आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्यों द्वारा अपनी आत्मा व शरीर में भेद न करने व आत्मा व शरीर को एक मान लेने के कारण ही विश्व में अशान्ति व नाना प्रकार की समस्यायें हैं। इन सबका हल यही है कि संसार के सभी मनुष्य आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानें। इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यवस्था  से जुड़े शीर्षस्थ व्यक्ति सर्वसम्मति से शिक्षा में आत्मा विषयक यथार्थ ज्ञान के अध्ययन व अध्यापन की व्यवस्था करें। जो व्यक्ति आत्मा का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेगा तो वह परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना चैन से नहीं बैठ सकता। वेद, उपनिषद व योग-सांख्य-वेदान्त दर्शन से ईश्वर विषयक यथार्थ ज्ञान भी इसके अध्येताओं को अवश्य होगा जिससे वह वैराग्य को प्राप्त होगें। वैराग्य ज्ञान की पराकाष्ठा को कहते हैं। बच्चा बड़ा होकर खिलौनो से खेलना इसलिए बन्द कर देता है कि उसे इनकी वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। जिस मनुष्य को यह पता लग जाये कि उसे कुछ दिन बाद मरना है तो उसे नींद नहीं आती, स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता और धन ऐश्वर्य होते हुए भी जीवन नीरस, फीका व स्वादरहित हो जाता है। इस स्थिति के बनने पर अध्यात्मिक ज्ञान व ईश्वरोपासना आदि साधनों से जीवन को सुखी, आनन्दयुक्त व सरस बनाया जा सकता है। आज के व्यक्तियों को देखकर लगता है कि वह सभी आंखें बन्द कर मार्ग पर चल रहे हैं और, देर व सबेर, सभी एक बड़ी दुर्घटना का शिकार होंगे जिससे यदि कोई बचा सकता है तो वह वेदों व उपनिषदों का ज्ञान ही है। इसके लिए महर्षि दयानन्द का लघुग्रन्थ आर्याभिविनय व सत्यार्थप्रकाश आदि के प्रथम, सप्तम, अष्टम, नवम व दशम समुल्लास भी उपयोगी हो सकते हैं। वैदिक विद्वानों ने वेदमन्त्रों की आध्यात्मिक व्याख्याओं के संग्रह प्रकाशित किये हुए हैं, वह भी मनुष्य का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

 

आत्मा का ज्ञान क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का उत्तर है कि आत्मा का गहरा सम्बन्ध मुझसे व सभी प्राणियों का अपने आप से है। कुछ भी जानने से पहले मुझे स्वयं को जानना अनिवार्य है अन्यथा हम भोग पदार्थों को अर्जित कर उनके भोग का विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कर पायेंगे। यदि किसी शिक्षित व्यक्ति से पूछा जाये कि वह अपने आप व स्वयं को जानता है तो वह कुछ न कुछ उत्तर अवश्य देगा। वह उत्तर ठीक हो सकता है परन्तु वह अपूर्ण ही होगा। आत्मा व मैं एक हैं। मेरे जीवन में मैं ही आत्मा और आत्मा ही मैं हूं। इस आत्मा का इतिहास व जन्मादि कब, कैसे, कहां व किससे हुआ, यह प्रश्न जानने पर जो स्थिति हमें अवगत होती है, उससे बड़े बड़े ज्ञानी भी अनभिज्ञ व अपरिचित हैं। हमारा आत्मा एक चेतन पदार्थ है। चेतन का अर्थ है कि इसमें सुख व दुःख की संवेदनायें, जिज्ञासायें व ज्ञान तथा क्रिया करने की सामथ्र्य होती है। इसके विपरीत जड़ पदार्थ होते हैं जिनमें किसी प्रकार की संवेदनायें व सुख व दुःख की अनुभूति, ज्ञान व स्वयं उद्देश्य प्रधान क्रिया करने की सामर्थ्य नहीं होती। सभी भौतिक पदार्थ जड़ पदार्थों की श्रेणी में आते हैं। हमारा व सभी प्राणियों का शरीर भौतिक पदार्थों से मिलकर बना है। हम अन्न के रूप में जिन पदार्थों का सेवन करते हैं उसी से हमारा शरीर बना व बनता है। इस शरीर का निर्माण स्वतः नहीं होता अपितु ईश्वर के विधान व उसके द्वारा ही होता है। इस शरीर का एक-एक अंग कितना महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान तब पता चलता है कि जब कोई अंग विकारयुक्त हो जाता है या कार्य करना बन्द कर देता है। वर्तमान में विकसित चिकित्सा विज्ञान इन विकारों का उपचार करता है, कुछ स्वस्थ हो जाते हैं और कुछ परलोक सिधार जाते हैं। मनुष्य, वैज्ञानिक व चिकित्सक शरीर व उसके किसी भाग को बनाते नहीं, उस ईश्वर के नियमों द्वारा बने शरीर का अध्ययन कर केवल रोग व विकार के कारणों को हटाने का काम करते हैं जिसमें उन्हें आंशिक सफलता व विफलतायें दोनों ही मिलती हैं। जीवात्मा शरीर से पृथक एक चेतन तत्व है जबकि हमारा शरीर जड़ पदार्थों से मिलकर बना व बनाया गया है। इस शरीर को तो विज्ञान ने काफी हद तक जान लिया है परन्तु आत्मा का ज्ञान उपलब्ध होने पर भी सभी लोग जिनमें शिक्षित, ज्ञानी एवं वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, अपने संस्कारों, स्वभाव व सांसारिक पदार्थों से आकर्षित होकर भ्रमित रहते हैं जिसका परिणाम सुख व दुःख व यदा-कदा कम आयु में व अधिकांश की 60 से 80 वर्ष की आयु के बीच मृत्यु का होना है।

 

जीवात्मा शरीर से भिन्न चेतन पदार्थ है, यह जानने के बाद जीवात्मा की उत्पत्ति से जुड़े प्रश्नों पर विचार करना भी आवश्यक है। प्रत्येक कार्य का एक कारण होता है परन्तु मूल कारण का कारण नहीं होता। जीवात्मा प्रकृति में उपलब्ध किसी भौतिक पदार्थ के द्वारा निर्मित नहीं है। यह अनादि व अनुत्पन्न है। हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन होता रहता है। विज्ञान भी मानता है कि पूर्ण नाश व समाप्ती किसी पदार्थ की कभी नहीं होती। दर्शन के आधार पर विचार करें तो भाव से भाव उत्पन्न होता है, अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार भाव का अभाव भी नहीं हो सकता। अतः आत्मा यदि है, जो कि प्रत्यक्ष अनुभव से जानी जाती है, तो यह आत्मा भाव पदार्थ है, इसका अभाव व पूर्ण नाश कदापि नहीं हो सकता। इस लिए आत्मा को अविनाशी स्वीकार किया जाता है। अमरता अर्थात् न मरना भी आत्मा का गुण है। शरीर की मृत्यु होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो ईश्वर के नियमों से शरीर से निकल कर अपने कर्मानुसार अन्य किसी योनि में जन्म ग्रहण करने के लिए चला जाता है। इसी नियम का पालन करते हुए हम अपने पूर्वजन्म के स्थान से अपने वर्तमान के पिता व माता के शरीरों से होते हुए जन्में हैं। जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृतक का जन्म होना भी एक सत्य शास्त्रीय सिद्धान्त होने के साथ तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध है। अतः हमारी कालान्तर में मृत्यु अवश्य होनी है। यह शाश्वत् सत्य है परन्तु सभी मनुष्य लोग सारा जीवन इस सत्य से अनजान बने रहते हैं। यदि यह सत्य है तो क्यों न हम अपने जन्म और मृत्यु के सत्य को अधिक न सही, प्रातः व सायं ही स्मरण कर मृत्यु के भय पर विजय पाने की चेष्टा व अभ्यास करें। यदि हम मृत्यु को स्मरण रखेंगे और इससे होने वाले दुःख पर विजय पाने के लिए आत्मा के सत्यस्वरूप को जानकर उससे इस संसार के रचयिता को जानने सहित उसकी पूर्ण तर्क व युक्तिपूर्वक स्तुति, प्रार्थना व उपासना करेंगे साथ हि सदाचारयुक्त जीवन व्यतीत करेंगे तो हम निश्चय ही मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

 

मृत्यु के स्वरूप को जानकर व उसके दुःख पर उस ज्ञान से मोह व अहंकारयुक्त जीवन का त्याग कर हम अवश्य ही अपने बुरे कर्मों जिनसे समाज व देश के निर्दोष लोगों को हमारे स्वार्थों के कारण दुःख होता है, उनसे बचने का अवश्य प्रयत्न करेंगे क्योंकि हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि संसार का सर्वव्यापक रचयिता, पालक, धारणकर्ता व सभी जीवात्मा के प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्मों का नियन्ता व न्यायाधीश हमारे किसी कर्म को क्षमा नहीं करेगा और उसका उचित दण्ड जन्म व जन्मान्तरों में हमें अवश्य देगा। आत्मा पर विचार करते रहने व इस विषयक सत्साहित्य पढ़ने से आत्मा के अन्य गुणों व स्वरूप जिसमें इसका सूक्ष्म होना, एकदेशी होना, कर्म करने में स्वतन्त्र और उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होना, पूर्वजन्मों के कर्मानुसार हमें इस मनुष्य योनि व सामाजिक परिवेश, माता, पिता आदि का मिलना व भविष्य में इस जन्म के कर्मों के आधार पर भावी मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि किसी योनि में जन्म मिलना, अज्ञान से दुःखों को प्राप्त होना व सत्य ज्ञान से दुःखों के स्वरूप को जानकर उनसे मुक्त व सुखी होना, आत्मा आकाररहित है, अल्पशक्ति वाला, अल्पज्ञ है, आदि जीवात्मा के स्वरूप व इसके विविध गुणों का ज्ञान होता है। जीवात्म अनादि व अनुत्पन्न होने से यह कभी बना व जन्मा नहीं है। इसी कारण इसकी मृत्यु, नाश व अभाव भी कभी नहीं होगा। यह जीवात्मा सदा-सर्वदा अपने अस्तित्व को विद्यमान रखते हुए जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहेगा, इसका ज्ञान स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व सच्चे गुरू के उपदेश से होता है।

 

जीवात्मा का अच्छा व बुरा पूर्वजन्म समाप्त हो चुका है, उसके बारे में कुछ करना करणीय नहीं है। वर्तमान जीवन सुखी, समृद्ध व यशस्वी हो तथा परजन्म भी इस जन्म से अधिक उन्नत हो, यह सभी जीवात्माओं वा मनुष्यों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये। इसके लिए प्रथम जीवात्मा व परमात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। यह ज्ञान वेद, उपनिषद, योग, सांख्य व वेदान्त दर्शन सहित सत्यार्थप्रकश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों में सुलभ है। श्री कर्मनारायण कपूर का ग्रन्थ जीवात्मा का स्वरूप और पं. राजवीरशास्त्री सम्पादित दयानन्दसन्देश पत्रिका का तीन खण्डीय जीवात्मज्योतिविशेषाक का अध्ययन कर उनमें निहित आत्मा विषयक ज्ञान को आत्मसात किया जाना समीचीन है। इस ज्ञान के अनुसार जहां मनुष्यों को पुरूषार्थमय जीवन व्यतीत करते हुए अशुभ कर्मों का त्याग कर समस्त शुभ कर्म ही करने हैं वहीं वैदिक विधि से ईश्वर की उपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र अनुष्ठान, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों की सेवा-सत्कार सहित परोपकार व यथाशक्ति आर्ष-गुरूकुल-प्रणाली व वेदविद्या के प्रचार व प्रसार में सहयोग भी करना है। इन शुभकर्मों का लाभ हमें इस जीवन व परजन्म में मिलता है। आत्मा के सत्यस्वरूप को जाने बिना यह सभी कार्य नहीं किये जा सकते। इन कर्मों को करने से हमारा वर्तमान व परजन्म दोनों ही सुधरेंगे और हम इससे मुमुक्षत्व को प्राप्त होकर और अधिक त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत कर मुक्ति के अधिकारी भी बन सकते हैं।

 

जीवात्मा व ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर मनुष्य अशुभ कर्मों का त्याग कर देता है। स्वार्थ से ऊपर उठकर देश व समाज के हित की कामना से शुभ कर्मों को करता है। वह असत्य व अशुभ कर्मों के परिणामों को जानकर उनका सर्वधा त्याग व निषेध कर देता है। वेदाध्ययन करने से उसे अपने कर्तव्यों का बोध बना रहता है जिससे उसकी अशुभ प्रवृत्तियां नियंत्रण में रहती है। ऐसा करके वह मृत्यु को भी यथार्थरूप में जानकर उसके भय से मुक्त हो जाता है और देश व समाज के सभी लोग उससे लाभान्वित होते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी दर्शनानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी आदि का जीवन इसी प्रकार का जीवन था। यह श्रेय का मार्ग है। सरकार का कर्तव्य एवं दायित्व है कि वह जीवात्मा व ईश्वर सहित वेदों का सत्य ज्ञान सभी देशवासियों को कराये और उसके विरोध में उठने वाले अज्ञानता व स्वार्थान्धता के स्वरों की चिन्ता न करे। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो शायद यह देश सुरक्षित नहीं रह सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद सरल च सुबोध हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आदि में मनुष्यों को ज्ञानयुक्त करने के लिए सर्वव्यापक निराकार ईश्वर ने चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। महर्षि दयानन्द की घोषणा है कि यह चार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं और इनका पढ़़ना,  दूसरों को पढ़ाना, स्वयं सुनना व अन्यों को सुनाना संसार के सभी मनुष्यों का परम धर्म है। वेद संस्कृत में हैं और संस्कृत भाषा सबको आती नहीं है। हिन्दी भाषी लोग भी संस्कृत को एक कठिन भाषा समझते हैं। ऐसी स्थिति में यदि कोई कहे कि संस्कृत भाषा के ग्रन्थ चारों वेद सरल हैं तो सम्भवतः सभी आश्चर्य करेंगे। आर्यसमाज में दूसरी व तीसरी पीढ़ी के वेद के प्रमुख विद्वानों में स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का नाम अन्यतम है। आपका जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन नगरी में सन् 1892 में हुआ था। आप एक सम्पन्न, उच्च शिक्षित व प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। आपके छोटे भाई जज थे। आपने जीवन की भूलें नाम से अपनी आत्मकथा लिखी है जो मरणोपरान्त प्रकाशित हुई। आपकी दिल्ली में सन् 1956 में मृत्यु के बाद आपके सहयोगी आर्यविद्वान मेहता जैमिनी और पं. शान्तिप्रकाशजी ने आपके जन्म स्थान व कुल की चर्चा करते हुए यह लिखा था कि आप मुलतान के एक अरोड़ा घराने में पैदा हुये। आपने वेद परिचय नाम से एक लघु ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक में आपने वेद सरल हैं, कठिन नहीं शीर्षक से अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि ‘आर्यों-अनार्यों सभी में यह भ्रम फैला हुआ है कि वेद बहुत कठिन हैं। ऐसा भासता है कि जब ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मणेतरों को वेद पढ़ाना बन्द किया गया, उस समय वेद के जिज्ञासु न रहने से स्वयं ब्राह्मणों में भी वेद के प्रति उदासीनता उत्पन्न हो गई। उस समय यदि कोई तथाकथित ब्र्राह्मण भी वेदार्थ की जिज्ञासा करता तो अपना अज्ञान छिपाने के लिए वेद कठिन है ऐसा कहकर उस जिज्ञासु को हतोत्साहित कर दिया जाता था।

 

वास्तविकता इसके विपरीत है। जगदीश्वर ने मनुष्य को सृष्टि के पदार्थों एवं अपने विषय में ज्ञान कराने के लिए वेद प्रदान किया है। उसे वह कठिन कैसे बना सकता है? हम इसको ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र द्वारा स्पष्ट करते हैं। ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है-अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्।। इस मन्त्र के पदों पर दृष्टि दीजिए–अग्निम्, इडे, पुरोहितं, यज्ञस्य, देवम्, ़ऋत्विजम्, होतारं, रत्नधातमम्। इतने पद (शब्द) इस मन्त्र में हैं। हमारा विचार है कि यदि ईडे का अर्थ आपको बता दिया जाए, तो शेष पदों का अर्थ आपमें से प्रायः सभी जानते हैं। अग्नि-शब्द से आप परिचित हैं। इसी भांति पुरोहित-शब्द भी आपको ज्ञात है, यज्ञ, देव तथा ऋत्विक् भी आपसे अज्ञात नहीं है। ऋत्विजों में एक होता भी होता है, इसे भी आप जानते हैं। रत्न को सभी समझते हैं, रत्न के साथ लगे धातमम् का अर्थ निर्माण करनेवाला आपको अविदित नहीं है।

 

ईड का अर्थ है–स्तुति करना, पूजा करना, वर्णन करना (अरबी भाषा का ईद इस ईड धातु का रूप है, अरबी में वर्ग है ही नहीं) अग्नि-शब्द का अर्थ लोक प्रसिद्ध आग कर दिया जाए, तो अर्थ बनता है–मैं अग्नि का वर्णन करता हूं जो पुरोहित=पहले रखा गया है, सभी जानते हैं कि सूर्यरूपी अग्नि सभी वृक्ष, पशु, पक्षी, मनुष्यादि से पूर्व बनाया गया। जीवन-यज्ञ को अग्नि प्रकाशित करता है। शरीर की अग्नि शान्त हो जाए तो जीवन की समाप्ति हो जाती है। ऋत्विज ऋतुओं की व्यवस्था अग्नि-सूर्य द्वारा होती है। होता हवन का साधन। रत्नधातमम्=रत्नों=रमणसाधनों का निर्माण करनेवाला। जीवन के सभी उपयोगी पदार्थों को रत्न कहते हैं। उनके निर्माण में अग्नि का कितना उपयोग है, यह बात आज बताने की आवश्यकता नहीं है।

 

भूगर्भविज्ञान तथा रत्नविज्ञान का एक विद्वान् इसे सुनकर कहता है कि यह तो भूगर्भस्थ अग्नि का वर्णन है। रत्न वास्तव में पत्थर का कोयला ही है। एक विशेष समय तक विशेष ताप के संयोग से वह कोयला रत्न बन जाता है, अतः उसको रत्न बनानेवाले अग्नि को लक्ष्य करके मन्त्र में रत्नधातमम् कहा है। आत्मवित् कहता है, अग्नि का अर्थ आगे ले-जानेवाला। सभी जानते हैं कि आत्मसंयोग से ही शरीर की वृद्धि-पुष्टि होती है, अतः इस मन्त्र में आत्मा का निरूपण है। मन्त्र का अर्थ उनके अनुसार यह है-मैं आत्मा का वर्णन करता हूं, जो पुरोहित है, शरीर-निर्माण के लिए प्रथम आता है। जीवन यज्ञ का प्रकाशक है, होता=लेने-देनेवाला, खानेवाला है। आत्मा न हो तो शरीर द्वारा भोजनादि भी नहीं हो सकता। आत्मा ऋत्विक् है शरीर को व्यवस्थित रखता है। समस्त उत्तम पदार्थों की रचना जीवन के लिए हुई है, यह सबको मान्य है।

 

एक अन्य कहता है–अग्नि का वास्तविक अर्थ ब्रह्म है। ये सारे विशेषण उसी पर घटते हैं। वह पुरोहित है। इस जगत् से पूर्व भी वह था, संसार-यज्ञ का प्रकाशक एवं व्यवस्थापक वही है, वही सबका दाता तथा सब पदार्थों (सभी पदार्थ भोग्य होने से रत्न हैं) का धाता=विधाता है।

यह तो विचार की गम्भीरता है। शब्दों की दृष्टि से वेद अत्यन्त सरल है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी ने अपनी इसी पुस्तक में बुराई से भलाई शीर्षक से भी वेदों के विषय में कुछ महत्वपूर्ण विचारों को प्रस्तुत किया है। उपयोगी होने से उन्हें भी यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि येन केनापि प्रकारेण वेद की हेयता व तुच्छता सिद्ध करने के लिए योरुपियन विद्वानों ने अदम्य उत्साह एवं अविश्रान्त परिश्रम से वेद एवं वैदिक साहित्य का आलोडन, आलोचन, मन्थन किया। इसके लिए उन्होंने वैदिक ग्रन्थों के सुपरिष्कृत संस्करण भी निकाले। वेद पुस्तक सर्वप्रथम योरुप में ही मुद्रित हुए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जर्मनी से वेद मंगवाये थे। वेद तो भारत में सहस्रों नहीं लाखों घरों में हस्तलेखों के रूप् में विद्यमान थे। सहस्रों ब्राह्मण इनको कण्ठस्थ करने में दिनरात निष्कामभाव से अनवरत परिश्रम करते थे, किन्तु स्वामीजी के समय तक भारत में वेद मुद्रित नहीं हुए थे। हम पाठको के लाभार्थ स्वामी वेदानन्द जी की विनम्रता का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि एक बार आप उपदेशकों से घिरे बैठे थे तो नवयुवक भजनोपदेशक श्री ओम्प्रकाश वर्म्मा ने कहा, ‘‘आप ऋषि दयानन्द जी के काल में होते तो ऋषि आप सरीखा प्रकाण्ड विद्वान् शिष्य के रूप में पाकर अभिमान करते। इस पर आपने झट से कहा, ‘‘अभिमान या गौरव तो नहीं करते। पास बैठने का अधिकार दे देते। इतना कहते कि यह कुछ जानता है। यह भी बता दें कि स्वामी वेदानन्द जी बहुभाषा विद थे। वह संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, अरबी, उर्दू, फारसी सहित बंगला, गुजराती, मराठी, सिंधी आदि भाषायें भी जानते थे। उनका बहुत सा साहित्य सम्प्रति अनुपलब्ध है, जिसे आर्य प्रकाशकों द्वारा संग्रहित कर एक या दो जिल्दों में प्रकाशित किया जाना उत्तम होगा अन्यथा यह सदा सर्वदा के लिए विलुप्त होकर नष्ट हो जायेगा।

 

वेद सरल हैं अवश्य परन्तु वेदार्थ के लिए संस्कृत व्याकरण का ज्ञान अपरिहार्य है। संस्कृत विख्यात विद्वानों में ऋषि दयानन्दभक्त पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का नाम अन्यतम है। आपने संस्कृत आर्ष व्याकरण के प्रचार प्रसार का महनीय कार्य किया। आपने दो खण्डों में बिना रटे संस्कृत पठन पाठन की अनुभूत सरलतम विधि पुस्तक भी लिखी है जिससे अनेक लोगों ने लाभ उठाया है। सम्प्रति रामलालकपूर ट्रस्ट, रेवली इस ग्रन्थ का प्रकाशन करता है। जिज्ञासुजन इस ग्रन्थ को पढ़ने व समझने में होनी वाली कठिनाईयों और अपनी शंकाओं के निवारण के लिए आर्यसमाज व इसके गुरुकुलों के संस्कृत विद्वानों की सहायता ले सकते हैं। महर्षि दयानन्द और उनके अनुवर्ती विद्वानों ने हिन्दी भाषी लोगों के लिए वेदाध्ययन को अधिक सरल सुगम बना दिया है। महर्षि दयानन्द यजुर्वेद का सम्पूर्ण तथा ऋग्वेद का आंशिक भाष्य किया है जिसमें उन्होंने भाष्य किये गए सभी मन्त्रों का पदच्छेद कर उनका अन्वय और प्रत्येक पद के संस्कृत हिन्दी में अर्थों को प्रस्तुत कर उनकी व्याख्या करने के साथ मन्त्र का भावार्थ भी दिया है। इससे वेदाध्ययन बहुत ही सरल हो गया है। सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका को पढ़कर वेदों के महत्व को जाना जा सकता है। हम आशा करते हैं कि लेख से पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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वैदिक दर्शन की विशेषताएँ – पं. गंगा प्रसाद जी उपाध्याय

[लगभग 8 दशक पूर्व का यह लेख आज भी प्रासंगिक है। इसलिए पाठकों के लााार्थ प्रस्तुत है – सपादक ]

आजकल ‘वैदिक दर्शन’ एक अनिश्चित शद है। अति प्राचीन काल में निश्चित रहा होगा। जिस प्रकार आजकल गंगा की नहर और उस नहर से निकली हुई सहस्त्रों कूलों का पानी भी गंगाजल नाम से ही प्रसिद्ध है चाहे उसमें कितने ही बाहर के नालों का गंदा पानी मिला हो इसी प्रकार प्रत्येक सप्रदाय जो वेदों को तत्वतः अथवा दिखाने के लिये अपने धर्म का मूल स्रोत मानता है उस का दर्शन भी वैदिक दर्शन है। शंकर का अद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। निबार्क का द्वैताद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। और ऐसे ही मत हैं जिसके अनुसार वेदों में अनीश्वरवाद का प्रतिपादन है। बौद्ध और जैन तो अपने दर्शनों को वैदिक दर्शन नहीं मानते । परन्तु भारतीय अन्य सब दर्शन वैदिक कहलाते हैं। और उन में दर्शन के वे सब गुण और दोष पाये जाते हैं जो किसी देश या किसी युग के दर्शनों में देखे जा सकते हैं। इसके तीन मुय कारण हैंः-

(1)वेदों की सर्वप्रियता जिन से वेद सर्वथा भुलाये न जा सके।

(2)वैदिक सयता की अति प्राचीनता और उसमें कालान्तर में प्रक्षेप और मिलावट।

(3)आर्य परपरा का त्रुटिकरण।

ऋग्वेद का नासदीय सूक्त वैदिक दर्शन का एक सर्वसमत उच्चकोटि का नमूना गिना जाता है। परन्तु उसके अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत के अनुसार भिन्न-भिन्न किये हैं। ज्यूसन, मैक्समूलर, तिलक तथा अन्य विद्वानों के भाष्य अवलोकन कीजिये मैंने भी सन् 1928 ई. में अपनी पुस्तक ‘अद्वैतवाद’ में इस सूक्त का उस प्रकार से अर्थ किया था जो मैं ठीक समझता हूँ। क्योंकि मेरे लिये तो ‘‘वैदिक दर्शन’’ वही है जो संकुचित परन्तु वास्तविक अर्थ में ‘दयानन्द दर्शन’ कहा जा सकता है। इसलिये इस लेख में ‘वैदिक दर्शन’ की विशेषतायें वही दृष्टिगोचर पड़ेंगी, जो दयानन्द दर्शन की हैं। 1951 ई. के दिसबर मास में रंगून विश्वविद्यालय के एक साँस्कृतिक उत्सव के समय मैंने A bird’s eyeview of Vedic Philosophy, पर एक लेख पढ़ा था जो वहाँ की पुस्तिका में प्रकाशित हुआ था। वहाँाी मैंने यही दृष्टिकोण उसका रक्खा था। परन्तु पीछे से मुझे ऐसा भान हुआ कि जब तक हम ‘दयानन्द दर्शन’ को विशेष रूप से जनता के समक्ष न लावें ‘वैदिक दर्शन’ से लोगों में भ्रम ही उत्पन्न होता रहेगा। अतः सप्रति मैं अंग्रेजी में जो ग्रन्थ लिख रहा हूँ उसका नाम ‘वैदिक फिलासफी’ न रखकर ‘‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’’ रक्खा है। मेरे लिये वैदिक फिलासफी और दयानन्द फिलासफी पर्याय वाचक शद हैं, परन्तु सब के लिए नहीं। आज कल वैदिक फिलासफी सनातन धर्म की फिलासफी है। जिस में हर मत के पबन्द लगे हुये हैं। और यूरोप के दर्शनकार भी यही मानते हैं।

इस छोटे से लेख में तो वैदिक फिलासफी की भूमिका भी नहीं दी जा सकती। उसकी विशेषतायें कैसे बताई जा सकती हैं और जब तक उन विशेषताओं की व्याया न की जाय लोगों को विशेषताओं का पता ही कैसे चले? स्वामी दयानन्द ने वैदिक दर्शन पर अलग पुस्तक नहीं लिखी वह तो समस्त मूल षट्दर्शनों और मौलिक उपनिषदों को ‘वैदिक दर्शन’ मानते रहे फिर भी उन्होंने अपने ग्रन्थों में अन्य व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख करते हुए वैदिक दर्शन की इतनी विशेषतायें लिखी हैं कि आश्चर्य होता है। मैं जब ‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’ लिखने बैठा तो मेरी धारणा थी कि 100 पृष्ठ भी पर्याप्त होंगे परन्तु ज्यों-ज्यों सामग्री एकत्रित करता गया अनेक बातें उपलध होती रहीं। जिनकी ओर पाठकों का समान्यतया ध्यान नहीं गया और यदि गया भी हो तो  उसकी विशेषता का अनुभव नहीं किया। अब मैं असमंजस में हूँ कि क्या छोडूं और क्या लिखूं। पुस्तक 500 पृष्ठ से अधिक की हो गई, बड़े आकार की। 400 के लगभग पृष्ठ छप चुके अभी सामग्री पर्याप्त शेष है । उसे शीघ्र ही समाप्त करना चाहता हूँ।

वैदिक दर्शन की अनेक विशेषतायें हैं। प्रथम तो नाम पर ही विचार कीजिये। अंगरेजी में दर्शन के लिये फिलासफी शद का प्रयोग होता है। यह ग्रीक (यूनानी) शद है और इसका अर्थ है लव ऑफ विज्डम (Love of Wisdom)  या बुद्धि प्रेम। सन्स्कृत का ‘दर्शन’ शद अधिक सारगर्ाित है। दर्शन का अर्थ है देखना। (दृश धातु से) दर्शन की सार्थकता निर्भर है द्रष्टा और दृश्य पर। यदि द्रष्टा मिथ्या है तो दर्शन कैसा और यदि दृश्य मिथ्या तो दर्शन का क्या अर्थ? अतः दर्शन शद ही प्रकट् करता है कि द्रष्टा और दृश्य जीव और जगत् की सत्ता को स्वीकार करते हैं। यदि शंकर स्वामी ने जगत् को मिथ्या कहा, तो मिथ्या का दर्शन ही क्या। और यदि दृश्य कुछ न रहा  तो न दर्शन रहा न द्रष्टा। ऋषि दयानन्द ने इसीलिये वेद के ‘द्वा सुपर्णा’ इस मन्त्र का उद्धरण देकर के जीव, ब्रह्म और जड़ जगत् तीनों की सत्ता स्वीकार की है, वैदिक दर्शन द्वैत दर्शन है इस अर्थ में कि वह चेतन और जड़ देानों संज्ञाओं को वास्तविक मानता है, इस को आप इस अर्थ में त्रैतवाद भी कह सकते हैं कि यह ईश्वर, जीव तथा प्रकृ ति तीन अनादि पदार्थों को मानता है। इस को ‘बहुत्ववाद’ाी कह सकते हैं कि क्योंकि यह जीवों और परमाणुओं के बहुत्व को मानता है।

प्रायः दर्शन की विशेषता यह मानी जाती है कि अनेकत्व में एकत्व को देखा जाय। वैसा वेद में लिखा हैः-

अस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति।।

अर्थात् जो सब भूतों को आत्मा में और आत्मा को सब भूतों में ओत प्रोत देखता हैं वह कभी दुःख नहीं पाता (यजुर्वेद अ. 40, मन्त्र 6)परन्तु जो लोग इस का अर्थ यह लेते हैं कि अनेकत्व (Diversity)मिथ्या है और एकत्व (Unity) सत्य है, वह वेद के आशय को नहीं समझते। अनेकत्व में एकत्व (Unity in Diversity) कैसे देखा जाय यदि अनेकत्व मिथ्या हो। अधिकरण के मिथ्या होने से अधिकृत भी मिथ्या होगा। आर्य दर्शन यही है कि जगत् को मिथ्या न माना जाय। महर्षि व्यास ने वेदान्त का पहला सूत्र लिखा।

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।

अब ब्रह्म के जानने की जिज्ञासा है

फिर ब्रह्म के लक्षण किएः-

जन्मा द्यस्य यतः।

अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय हो।

यदि जगत् मिथ्या है तो उसकी उत्पत्ति कैसी? और स्थिति कैसी? एकतत्ववादी यह नहीं समझते कि अनेक तत्व न हों तो एक तत्व का भी क्या मूल्य? दार्शनिक जगत् में ‘एकत्व’ के कई समुदाय पाए जाते हैं। जैसे

(1) कारणैक्यवाद अर्थात् केवल एक ही वस्तु है, अन्य सब उसी एक मूल से बना है इसके दो रूप  हैं एक अद्वैकवाद अर्थात् के वल जड़ प्रकृति से ही जगत के समस्त व्यापारों की सिद्धि। दूसरा ‘चेतनैकवाद’ अर्थात् एक चेतन से जड चेतन दोनों की उत्पत्ति या व्याया।

इन दोनों भेदों में अनेक उलझनें हैं जिनके दोषों के  दूर करने के लिए अनेक सप्रदाय बन गए हैं। परन्तु वे उलझनें सुलझने में नहीं आ सकी।

(2) वस्त्वैक्यवाद। इनका मत है कि वस्तु केवल एक है। अनेकत्व मिथ्या है। प्रतीत मात्र है। ऋषि दयानन्द ने ठीक कहा है कि यदि एक ही वस्तु सत्य है तो वह सत्य को कैसे देख सकता है। मिथ्या दर्शन या मिथ्या प्रतीत के लिए भी तो कोई कारण होना चाहिए जो केवल एक ब्रह्म से सिद्ध नहीं होता।

(3) ईश्वरैक्यवाद यह वैदिक वाद है। इसमें जगत् को सत् तथा नाना मानकर उसमें एक ईश्वर की व्यापकता और प्रमुखता बताई गई है। दयानन्द दर्शन का यह एक मौलिक सिद्धान्त है। मोटे शदों में इस दर्शन की यथार्थता के अतिरिक्त उपयोगिता भी हैः-

(1) इन्द्रिय जन्य ज्ञान को मिथ्या, अतथ्य, अथवा स्वप्नवत् मानने से जगत् का समस्त व्यापार विज्ञान, कला कौशल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, यज्ञ, अध्ययन, दान आदि धर्माङ्ग सब व्यर्थ हो जाते हैं। वैदिक दर्शन, न इन्द्रिय को अतथ्य मानता है, न इन्द्रिय जन्य ज्ञान को। भ्रम ज्ञान का अभाव नहीं अपितु दुष्ट ज्ञान हैं जिनका अर्थ हुआ अल्प या सीमित ज्ञान। जगत् मिथ्यात्व में तो ज्ञान का मिथ्यात्व भी नहीं घटता। ऋषि दयानन्द की बड़ी जबरदस्त पकड़ यह है कि तुम रस्सी में सांप की भ्रान्ति कर ही नहीं सकते जब तक अन्यत्र कहीं सर्प की सत्ता को न मानो।

(2) वैदिक दर्शन लेाक की सत्ता स्वीकार करके लौकिक उन्नति को परलोक यात्रा का साधन बना देता है। बुद्धि की तुच्छता के कारण केवल लोकवादी लोकायतों और केवल परलोकवादी लोकायतों में जो अनेक रूपों वाला युद्ध छिड़ता रहा है उसको दूर करना केवल वैदिक दर्शन (दयानन्दीय दर्शन) से ही सभव है।

(3) अवैदिक दर्शनों में एकान्तता का दोष है। जड़ प्रकृति या मैटर मानने वालों ने आत्मा या परमात्मा की चेतन सत्ताओं का निषेध करके न केवल दार्शनिक अपितु व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न कर दी है। जिनका मनुष्य के आचारशास्त्र पर बुरा प्रभाव पड़ा है मनुष्य असत्य और हिंसा के चंगुल में फंस गया है। इसी प्रकार प्रकृति का निषेध करके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सप्रदायों ने जीव को जीवत्व के उच्च पद पर से गिरा दिया है।  इससे भी आचारशास्त्र को हानि हुई है।

(4) गत दो शतादियों के पश्चिमी दार्शनिक विद्वान इन्हीं दोषों को दूर करने का असफल प्रयास करते रहे हैं। परन्तु इस असफलता का मुय कारण है वे पुराने विचार जो परंपरा से उनको दाय भाग में मिले हैं और छोड़ने पर भी नहीं छूटते। भारतीय वर्तमान विद्वानों का भी यही हाल है। जो शंकर, रामानुज लिख गए वह वायु मन्डल में प्रसारित हो गया। हम उससे मुक्त नहीं हो सकते। जो पश्चिमी दर्शन पर प्लैटो या अरस्तु का प्रभाव है वह भारत पर शंकर और रामानुज का है।

आवश्यकता है कि दयानन्द दर्शन की विस्तृत व्याया करके  इन जटिल समस्याओं को सुलझाने का यत्न किया जाय। जब तक वैदिक दर्शन यथार्थ रूप में विचार के समक्ष नहीं जाएगा, मानवी जीवन की व्यावहारिक समस्यायें उलझी रहेंगी  और शान्ति तथा उन्नति दोनों में बाधा होगी।

वेदो की कुछ पर अतिज्ञानवर्धक मौलिक शिक्षाये :

1. जीवन भर (शत समां पयंत) निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। इस प्रकार का निष्काम कर्म पुरुष में लिप्त नहीं होता है। (यजु० ४०।२)

2. जो ग्राम, अरण्य, रात्रि-दिन में जानकार अथवा अजानकार बुरे कर्म करने की इच्छा है अथवा भविष्य में करने वाले हैं उनसे परमेश्वर हमें सदा दूर रखे।

3. हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वन आप हमें दुश्चरित से दूर हटावे और सुचरित में प्रवृत करे (यजु० ४।२८)

4. हे पुरुष ! तू लालच मत कर, धन है ही किसका। (यजु० ४०।१)

5. एक समय में एक पति की एक ही पत्नी और एक पत्नी का एक ही पति होवे। (अथर्व० ७।३७।१)

6. हमारे दायें हाथ में पुरुषार्थ हो और बायें में विजय हो। (अथर्व० ७। ५८।८)

7. पिता पुत्र, भाई-बहिन आदि परस्पर किस प्रकार व्यवहार करे – इसका वर्णन अथर्व० ३।३० सूक्त में हैं।

8. द्यूत नहीं खेलना चाहिए। इसको निंद कर्म समझे। (ऋग्वेद १०।३४ सूक्त )

9. सात मर्यादाएं हैं जिनका सेवन करने वाला पापी माना जाता है। इन सातो पापो को नहीं करना चाहिए। स्तेय, तलपारोहण, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, दुष्कृत कर्म पुनः पुनः करना, तथा पाप करके झूठ बोलना – ये साथ मर्यादाये हैं। (ऋग्वेद १०।५।६)

10. पशुओ के मित्र बनो और उनका पालन करो। (अथर्व० १७।४ और यजु० १।१)

11. चावल खाओ यव खावो उड़द खाओ तिल खाओ – इन अन्नो में ही तुम्हारा भाग निहित है। (अथर्व० ६।१४०।२)

12. आयु यज्ञ से पूर्ण हो, मन यज्ञ से पूर्ण हो, आत्मा यज्ञ से पूर्ण हो और यज्ञ भी यज्ञ से पूर्ण हो। (यजु० २२।३३)

13. संसार के मनुष्यो में न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। सब एक परमात्मा की संतान हैं और पृथ्वी उनकी माता है। सबको प्रत्येक के कल्याण में लगे रहना चाहिए (ऋग्वेद ५।६०।५)

14. जो samast प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है उसे किसी प्रकार का मोह और शोक नहीं होता है। (यजु ४०।६)

15. परमेश्वर यहाँ वहां सर्वत्र और सबके बाहर भीतर भी है। (यजु० ४०।५)

ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं

संस्कृत भाषा में परमात्मा = परम + आत्मा तथा जीवात्मा = जीव + आत्मा दो शब्द हैं।

परमात्मा शब्द का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ आत्मा

और जीवात्मा का अर्थ है प्राणधारी आत्मा

आत्मा शब्द दोनों के लिए आता है और बहुधा परम-आत्मा तथा जीव-आत्माओ का भेदभाव किये बिना समस्त जीवनतत्वो के लिए व्यवहृत किया जाता है।

परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में इतनी समानता है [मगर दोनों के कार्य क्षेत्र निसंदेह अत्यंत विभिन्न हैं] की प्रायः इनके सम्बन्ध के विषय में भ्रम हो जाता है और इस भ्रम के कारन दर्शनशास्त्र तथा धर्म दोनों क्षेत्रो में बाल की खाल निकाली जाती है।

खासतौर पर ईश्वर को ना मानने वाले लोग मनुष्य को ही “सिद्ध” व “ईश्वर” का दर्ज देकर अपनी अल्पज्ञता के कारण ऐसा विचार लाते हैं –

वैदिक ईश्वर का स्वरुप कैसा है और जीव का स्वरुप कैसा है – जब इस प्रकार की चर्चा की जाती है तब आवश्यक हो जाता है इस प्रकृति के बारे में भी कुछ जाना जाए – तो आइये – इस विषय पर कुछ विचार करे –

इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दीखते हैं :

पहिला – इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक, परिवर्तनशील है।

दूसरा – प्रत्येक जाती के प्राणी अपनी जाती के ही अंदर उत्तम, माध्यम और निकृष्ट स्वाभाव से पैदा होते हैं।

तीसरा – इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है वह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है।

पहिला नियम : सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील है इसका अर्थ जो लोग सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानते हैं वे गलती पर हैं क्योंकि स्वाभाव में परिवर्तन नहीं होता ऐसे लोग भूल जाते हैं की परिवर्तन नाम है अस्थिरता का और स्वाभाव में अस्थिरता नहीं होती क्योंकि उलटपलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है की यदि प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने तो ये अनंत परिवर्तन यानी अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एकसमान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रासविकास संभव नहीं रहेगा किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है की सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है सवभविक नहीं, इसीलिएि इस परिवर्तनरुपी प्रधान नियम के द्वारा यह सिद्ध होता है की सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं इसकी बड़ी वजह है की जो भी चेतन और ज्ञानवान सत्ता होगी वो कभी दूसरे के बनाये नियमो में बंध नहीं सकती बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञानस्वतंत्रता से निर्धारित नियमो में बाधा पहुचाती है – जहाँ तक हम देखते हैं परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं – जिस भी जगह उनको दूसरे जड़ पदार्धो में जोड़ा गया – वहां आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं जरा भी इधर उधर नहीं होते इससे ज्ञात होता है की इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है ज्ञानवान नहीं बल्कि जड़ है – इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु मेटर आदि नामो से कहा जाता है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है

दूसरा नियम : सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वाभाव हैं। अनेक मनुष्य प्रतिभावान, सौम्य और दयावान होते हैं, अनेक मुर्ख उद्दंड और निर्दय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोडा आदि पशु स्वाभाव से ही सीधे होते हैं और अनेक शेर, आदि क्रोधी और दौड़दौड़कर मारने वाले होते हैं यहाँ देखने वाली बात है की ये स्वभावविरोध शारीरिक यानी भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है, जो चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। लेकिन ध्यान देने वाली है ये ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, क्योंकि यदि सारे शरीर में ये ज्ञान व्याप्त होता तो किसी का कोई अंग भंग यथा अंगुली, हाथ, पैर आदि कट जाने पर उसका ज्ञानंश कम हो जाना चाहिए लेकिन वस्तुतः ऐसा होता नहीं इसलिए यह निश्चित और निर्विवाद है की ज्ञानवाली शक्ति जो प्राणियों में वास करती है वो पुरे शरीर में व्याप्त नहीं है प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है क्योंकि सुक्षतिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है दूसरा तथ्य ये भी है की यदि पुरे शरीर में ज्ञानशक्ति मौजूद होती तो जैसे शरीर का आकर बढ़ता है वैसे उस शक्ति को भी बढ़ना पड़ता जबकि ऐसा होता नहीं और ये शक्ति परमाणुओ के संयोग से भी नहीं बनी क्योंकि ऊपर सिद्ध किया गया की ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही ये हो सकता है की अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणु एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकते हो। यदि कोई मनुष्य ब्रिटेन में जिस समय पर गाडी दौड़ा रहा है – तो उसी समय पूरी दुनिया में मौजूद इंसान उस गाडी और मनुष्य को नहीं देख पा रहे इसलिए प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव, रूह और सोल के नाम से जानते हैं।

इस विस्तृत सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, वह नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य चन्द्र और समस्त ग्रह उपग्रह अपनी अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशुपक्ष्यादि के शरीरो की बनावट वृक्षों में फूलो और फलो की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज का नियम और प्रत्येक जाती की आयु और भोगो की व्यवस्था आदि जितने इस सृष्टि के स्थूल सूक्ष्म व्यवहार हैं, सबमे व्यवस्था, प्रबंध और नियम पाया जाता है। नियामक के नियम का सब बड़ा चमकार तो प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में दिखलाई देता है। क्यों एक बालक नियत समय तक बढ़ता और क्यों एक जवान धीरे धीरे ह्रास की और – वृद्धावस्था की और बढ़ता जाता है इस बात का जवाब कोई नहीं दे सकता यदि कोई कहे की वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ हैं, तो ये युक्तियुक्त और प्रामाणिक नहीं होगा क्योंकि हम रोज देखते हैं एक ही घर में एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे छोटे बच्चे बढ़ते जाते हैं और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमो से सूचित होता है की इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है जो अनंत आकाश में फ़ैल हुए असंख्य लोकलोकान्तरो का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए हैं। ऐसा इसलिए तार्किक और प्रामाणिक है क्योंकि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के ठहर नहीं सकता। हम सम्पूर्ण सृष्टि में नियमपूर्वक व्यवस्था देखते हैं, इसलिए सृष्टि का यह तीसरा कारण भी सृष्टि के नियमो से ही सिद्ध होता है। इसी को परमात्मा, ईश्वर खुदा और गॉड कहते आदि अनेक नामो से पुकारते हैं हैं जिसका मुख्य नाम ओ३म है।

सृष्टि के ये तीनो कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं।

मेरे मित्रो, ज्ञान और विज्ञान की और लौटिए,

सत्य और न्याय की और लौटिए

वेदो की और लौटिए….

आओ लौट चले वेदो की और।