Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

‘राम के मित्र महावीर हनुमान का आदर्श व अनुकरणीय जीवन’

ओ३म्

 ‘राम के मित्र महावीर हनुमान का आदर्श अनुकरणीय जीवन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आज आर्य धर्म व संस्कृति के महान आदर्श आजन्म ब्रह्मचारी महावीर हनुमान जी की जयन्ती है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के साथ महावीर हनुमान जी का नाम भी इतिहास में अमर है व रहेगा। उनके समान  ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, स्वामी-भक्त, अपने स्वामी के कार्यों को प्राणपण से पूरा करने वाला व सभी कार्यों को सफल करने वाला, आर्य धर्म व संस्कृति का उनके समान विद्वान व आचरणीय पुरुष विश्व इतिहास में अन्यतम है। वीर हनुमान जी ने श्रेष्ठतम वैदिक धर्म व संस्कृति का वरण कर उसका हर पल व हर क्षण पालन किया। वह आजीवन ब्रह्मचारी रहे। रामायण एक प्राचीन ग्रन्थ होने के कारण उसमें अन्य ग्रन्थों की भांति बड़ी मात्रा में प्रक्षेप हुए हैं। कुछ प्रक्षेप उनके ब्रह्मचर्य जीवन को दूषित भी करते हैं जबकि हमारा अनुमान व निश्चय है कि उन्होंने जीवन भर कठोर व असम्भव ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन किया था। वैदिक धर्म व संस्कृति की यह विशेषता रही है कि इसमें महाभारतकाल से पूर्व काल में बड़ी संख्या में आदर्श राजा, वेदों के पारदर्शी व तलस्पर्शी गूढ़ विद्वान, ऋषि, मुनि, योगी, दर्शन-तत्ववेत्ता, आदर्श गृहस्थी, देश-धर्म-संस्कृति को गौरव प्रदान करने वाले स्त्री व पुरुष उत्पन्न हुए हैं जिनमें वीर हनुमान जी का स्थान बहुत ऊंचा एवं गौरवपूर्ण है।

 

हनुमान जी वानरराज राजा सुग्रीव के विद्वान मन्त्री थे। वानरराज बाली व सुग्रीव भाईयों के परस्पर विवाद में धर्मात्मा सुग्रीव को राजच्युत कर राजधानी से निकाल दिया गया था। वह वनों में अकेले विचरण करते थे। वहां उनका साथ यदि किसी ने दिया तो वीर हनुमान जी ने दिया था। धर्म पर आरूढ़ हनुमान जी ने सत्य व धर्म का साथ दिया व राजसुखों का त्याग कर वनों के कठोर जीवन को चुना। राम वनवास के बाद जब रावण ने महारानी सीता जी का हरण किया तो इस घटना के बाद श्री रामचन्द्र जी की भेंट पदच्युत राजा सुग्रीव के मंत्री हनुमान से होती है। राम व हनुमान जी में परस्पर संस्कृत में संवाद होता है। रामचन्द्र जी हनुमान की संस्कृत के ज्ञान व भाषा पर अधिकार व व्यवहार करने की योग्यता से प्रभावित होते हैं और अपने भ्राता लक्ष्मण को कहते हैं कि यह हनुमान वेदों का जानकार व विद्वान है। इसने जो बाते कहीं हैं, उसमें उसने व्याकरण संबंधी कोई साधारण सी भी भूल व त्रुटि नहीं की। इस घटना से हनुमान जी की बौद्धिक क्षमता व राजनैतिक कुशलता आदि का ज्ञान होता है। हनुमान जी की प्रशंसा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी ने स्वयं अपने श्रीमुख से वाल्मीकि रामायण में की है।

 

हनुमान जी का मुख्य कार्य महारानी सीता की खोज व राम रावण युद्ध में रामचन्द्र जी की सहायता व उनकी विजय में मुख्य सहायक होना भी है। उन्होंने हजारों वर्ष पूर्व लंका पहुंचने के लिए समुद्र को तैर कर पार किया था, ऐसा अनुमान होता है। साहित्यकार व कवि कई बार तैरने को भी भावना की उच्च उड़ान में घटनाओं को अलंकारिक रूप देकर उसे लाघंना कह सकते हैं। यह उनका वीरता का अपूर्व व महानतम उदाहरण है। वह लंका पहुंचे और माता सीता से मिले और उन्हें पुनः रामचन्द्र जी के दर्शन व उनसे मिलने के लिए आश्वस्त किया। उन्होंने लंका में अपने बल का परिचय भी दिया जिससे यह विदित हो जाये कि राम अविजेय हैं और लंका का बुरा समय निकट है। हनुमान जी रावण के दरबार में भी पहुंचे और वहां रामचन्द्र जी का सन्देश सुनाने के बाद अपनी वीरता व पराक्रम के उदाहरण प्रस्तुत किये। लंका के सेनापति, सैनिक व रावण के परिवार के लोग चाह कर भी उनको बन्दी बना कर दण्डित नहीं कर पाये और वह सकुशल लंका से बाहर आकर, माता सीता से मिलकर रामचन्द्र जी के पास सकुशल पहुंच गये और उन्हें माता सीता के लंका में जीवित होने का समाचार दिया। यह कितना बड़ा कार्य हनुमान ने किया था, यह रामचन्द्र जी ही भली भांति जानते थे। इस कार्य ने रामचन्द्र जी को उनका एक प्रकार से कृतज्ञ बना दिया था। इसके बाद राम-रावण युद्ध होने पर भी समुद्र पर पुल निर्माण और लक्ष्मण जी के युद्ध में घायल व मूच्र्छित होने पर उनके लिए वहां से हिमालय पर्वत जाकर संजीवनी बूटी लाना हनुमान जी जैसे वीर व विचारशील मनीषी का ही काम था। बताया जाता है कि वह उड़कर हिमालय पर्वत पर पहुंचे थे। ऐसा होना सम्भव नहीं दीखता। यह सम्भव है कि उन्होंने अवश्य किसी विमान की सहायता ली होगी अन्यथा वह हिमालय शायद न पहुंच पाते। मनुष्य का बिना किसी विमान आदि साधन के उड़कर जाना असम्भव है। साधारण भाषा में आज भी विमान में यात्रा करने वाला व्यक्ति कहता है मैं एयर से अमुक स्थान पर गया था। इसी प्रकार विमान के लिए उड़ कर जाने जैसे शब्दों का प्रयोग रामायण में किया गया है। आज ज्ञान व विज्ञान उन्नति के शिखर पर हैं परन्तु आज भी संसार के 7 अरब मनुष्यों में से किसी को उड़ने की विद्या व कला का ज्ञान नहीं है। अतः यही स्वीकार करना पड़ता है व स्वीकार करना चाहिये कि हनुमान जी किसी छोटे स्वचालित विमान से हिमालय पर आये और संजीवनी आदि इच्छित औषधियां लेकर वापिस लंका पहुंच गये थे। यह भी वर्णन कर दें कि प्राचीन साहित्य में इस बात का उल्लेख हुआ है कि उन दिनों निर्धन व्यक्तियों के पास भी अपने अपने विमान हुआ करते थे। सृष्टि के आरम्भ काल में भी लोग विमान से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे और उन्हें जहां जो स्थान अच्छा लगता था, वह वहीं जाकर अपने परिवारों व इष्ट मित्रों सहित बस जाते थे। इसी प्रकार से सारा संसार यूरोप व अरब आदि के देश बसे हंै। यह तथ्य है कि आदि सृष्टि भारत के तिब्बत में हुई थी। सृष्टि के आदि काल में नेपाल, तिब्बत व चीन आदि देश नहीं थे। तब सारा ही आर्यावर्त्त था।

 

माता सीता के प्रति हनुमान जी का माता-पुत्र की भांति अनुराग व प्रेम था। विश्व इतिहास में यह माता-पुत्र का संबंध भी विशेष महत्व रखता है। आज संसार के सभी देश व उनके नागरिक हनुमान जी के चरित्र की इस विशेषता से बहुत कुछ सीख सकते हैं। ‘‘पर दारेषु मात्रेषु अर्थात् अन्य सभी स्त्रियां माता के समान होती हैं। यह भावना वैदिक संस्कृति की देन है। यह वैदिक धर्म व संस्कृति का गौरव भी है। आदर्श को अच्छा मानने वालों को इसी स्थान पर आना होगा अर्थात् वैदिक धर्म व संस्कृति को अंगीकार करना होगा।

 

हमारे पौराणिक भाई हनुमान जी को वानर शब्द के कारण बन्दर समझते हैं जो कि उचित नहीं है। हनुमान जी हमारे जैसे ही मनुष्य थे तथा वनों में रहने के कारण वानर कहलाते थे। आजकल भारत में इसका एक प्रदेश नागालैण्ड है जिसके निवासी नागा कहलाते हैं। देश व विश्व में कोई उनकी सांप के समान आकृति नहीं बनाता। इसी प्रकार इंग्लिश, चीनी, जर्मनी, फ्रांसीसी आदि नागरिक हैं। यह सब हमारे जैसे ही हैं और हम उनके जैसे। इसी प्रकार से हनुमान व सुग्रीव आदि सभी वानर हमारे समान ही मनुष्य थे। उनमें से किसी की पूंछ नहीं थी। उनकी पूंछ मानना व चित्रों में चित्रित करना बुद्धि का मजाक व दिवालियापन है। वैदिक धर्मी मननशील व सत्यासत्य के विवेकी लोगों को कहते हैं। अतः वानर हनुमान जी बिना पूछ वाले राम, लक्ष्मण व अन्य मनुष्यों के समान ही मनुष्य थे, यह विवेकपूर्ण एवं निर्विवाद है। इस पर विचार करना चाहिये और इसी विचार व मान्यता का सभी पौराणिक भाईयों को अनुसरण भी करना चाहिये। हनुमान जी की पूंछ मानने वाले हमारे भाई इक्कीसवीं सदी में दूसरों का मजाक न बने और अपने महापुरुषों का अपमान न करायें, यह हमारी उनसे विनम्र प्रार्थना है। इसी के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं और भारतीयों व विश्व के आदर्श हनुमान जी को स्मरण कर उनसे प्रेरणा ग्रहण कर उनके पथ का अनुसरण करने का प्रयास करने का व्रत लेते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

आशा है, आप मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे सन्तुष्ट करेंगे। जन्म करने वाले मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सके।

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र

(ख) कृष्ण को खीरे की बेल से पैदा करवाना भी इनके अज्ञान का द्योतक है। कभी भी मनुष्य या अन्य प्राणी किसी बेल से उत्पन्न नहीं होते, न ही हो सकते। मनुष्यादि सदा माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं (आदि सृष्टि की रचना को छोड़कर)। सृष्टि विरुद्ध पैदा करने की लीला पुराणों में भरी पड़ी है और ये लोग वेद को छोड़ पुराणों को अधिक स्वीकारते हैं।

भागवत पुराण में सृष्टि रचना- विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दाहिने पैर के अँगुठे से स्वायमभुव, और बायें अँगूठे से शतरूपा रानी। ललाट से रूद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उनसे दश प्रजापति। दक्ष की तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से। उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनिता से पक्षी, कद्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते-स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधा, भैंसा, घासफूस और बबूल आदि वृक्ष काँटे सहित उत्पन्न हुए। ये बिना सिर-पैर की बातें इनके सबसे अधिक प्रचलित भागवत पुराण की हैं। मनुष्य से इन्होंने गधे, घोड़े पैदा करवा दिये, काँटों वाले वृक्ष पैदा करवा दिये तो खीरे की बेल से कृष्ण जी को पैदा करवा देना इनके लिए कौन-सी बड़ी बात है।

ऐसा ही देवी भगवत का गपोड़ा है- जब देवी की इच्छा हुई कि संसार बनाना है, तब उसने अपना हाथ घिसा। उससे हाथ में छाला हुआ। उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उससे देवी ने कहा कि तू मुझसे विवाह कर। ब्रह्मा ने कहा कि तू मेरी माता लगती है, मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता। ऐसा सुन माता को क्रोध चढ़ा और लड़के को भस्म कर दिया और फिर हाथ घिस कर उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न किया, उसका नाम विष्णु रखा। उससे भी उसी प्रकार कहा। उसने भी न माना तो उसको भी भस्म कर दिया। पुनः इसी प्रकार  तीसरे लड़के को उत्पन्न किया और उसका नाम महादेव रखा और उससे कहा कि तू मुझसे विवाह कर। महादेव बोला कि मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता, तू दूसरा स्त्री का शरीर धारण कर। वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव ने कहा कि ये दो ठिकाने राख-सी क्या पड़ी है? देवी ने कहा- ये तेरे भाई हैं, इन्होंने मेरी आज्ञा नहीं मानी, इसलिए भस्म कर दिये। महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इनको जीवित कर दे और दो स्त्री उत्पन्न और कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा। ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ। ये पोप लीला पुराण की है, इन पुराणवादियों के देवता हाथ से रगड़े हुए छाले से पैदा हुए हैं, कहीं विष्णु की नाभि से कमल और उससे ब्रह्मा तो खीरे की बेल से कृष्ण को पैदा ये कर दें तो कौन-सी बड़ी बात है!!! तात्पर्य है, जो आपने पूछा है, वह सब इन मिथ्यावादी, पुराणवादियों की लीला है, इसमें तथ्य कुछ भी नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

जिज्ञासाऋषि उद्यान के सभी विद्वानों को मेरा सादर नमस्ते। ईश्वर आप सबको लबी आयु प्रदान करे। आप अपने जैसे विद्वानों को तैयार करें, ताकि जिज्ञासा-समाधान की शृंखला निरन्तर चलती रहे। मेरी जिज्ञासा है-

(क) श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र.

समाधान– (क) वैदिक शुद्ध ज्ञान के अभाव में आज विश्वभर में पाखण्ड, अन्धविश्वास का बोलबाला है। इसकी चपेट से वही बच सकता है, जो महर्षि दयानन्द के दिखाये विशुद्ध वैदिक ज्ञान को अपना लेता है। केवल भारत में ही पाखण्ड, अन्धविश्वास नहीं है, अपितु जो देश अपने को विकसित व शिक्षित मानते हैं, उनके वहाँ भी यह सब आडमबर है। इस पाखण्ड में प्रायः सृष्टि विरुद्ध कपोल कल्पनाएँ ही होती हैं, जो कि मानव के उत्थान में बाधक ही बनती हैं। ईसाई लोगों की सृष्टि विरुद्ध मान्यता- ‘‘ईश्वर ने भूमि की धूल से आदम को बनाया और नथुनों में जीवन का श्वास फूँका और आदम जीवता प्राण हुआ और परमेश्वर ईश्वर ने ‘अदन’ में पूर्व की ओर एक ‘बारी’ लगाई और उस आदम को, जिसे उसने बनाया था, उसमें रखा।। और बारी (बाड़ी=रहने का स्थान) के मध्य में जीवन का पेड़ और भले-बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि में उगाया।। तौ.उ.पर्व 2. आ.7-9 इस बिना सिर-पैर की बात को ईसाई लोग मानते हैं।

और भी देखिए- परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और उसकी सन्ति मांस भर दिया (पसली के स्थान पर मांस भर दिया) और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम के पास लाया। (तौ.उ.प. 2/आ 21-22) यहाँ भी पसली से स्त्री की उत्पत्ति सृष्टि विरुद्ध कथन है। महर्षि दयानन्द ने इस पर समीक्षा की है- ‘‘जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया, तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया, तो आदम को हड्डी से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ, तो नारी से नर नाम भी होना चाहिए…..।

देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी ‘पदार्थ विद्या’ अर्थात् ‘फिलासफी’ चलती है? जो आदम की एक पसली निकालकर नारी बनाई, तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक पसली होनी चाहिए, क्योंकि वह एक पसली से बनी हुई है। क्या जिस सामग्री से जगत् बनाया, उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था? इसलिए यह बाइबल का सृष्टिक्रम सृष्टि विद्या विरुद्ध है।’’

ऐसी ही सृष्टि विद्या विरुद्ध बातों को मुस्लिम मानते हैं, इनकी पुस्तकें भी व्यर्थ के चमत्कारों से भरी हुई हैं।

जैसे अन्य मतमतान्तरों में अविद्या के कारण पाखण्ड है, ऐसा ही पाखण्ड पुराणों को मानने वालों में है। कृष्ण के जन्म की जो आप पूछ रही हैं कि उनका ही जन्म क्यों करते-कराते हैं, यह इन जन्म कराने-करने वालों की बाल बुद्धि का द्योतक है, क्योंकि श्री कृष्ण जी का जन्म तो लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय उन्होंने मानव कल्याण का कार्य किया था, समाज से देशद्रोही तत्त्वों को दूर कर समाज और देश को संगठित किया था। आज प्रति वर्ष इन पाखण्डों को मानने वालों की कृष्ण जी के जन्म कराने वाली बात ऐसी ही समझें, जैसे गुड्डे-गुड्डियों का खेल।

आपने पूछा- अन्य देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करवाते तो इस पर हमारा विचार है कि करवाने को तो ये अन्य का भी करवा सकते हैं, फिर भी कृष्ण जन्म कराने में इनको गप्फा अधिक मिलता है। कृष्ण जन्म के समय बधाइयों के नाम पर जनता को खूब लूटा जाता है, जिस प्रकार रामलीला करते हुए सीता विवाह कन्यादान के नाम पर लोगों को ठगते हैं। यह सब स्वार्थ के वशीभूत हो कर किया जाता है, जो कि अवैदिक है।

धर्मसारथी श्री कृष्ण

धर्मसारथी श्री कृष्ण
– विवेकानन्द सरस्वती
जब धर्मवादी धर्मधुरन्धरों से भरी सभा में उन्हीं के समक्ष किसी सामान्य अबला नारी की नहीं, अपितु राजमहिषी पटरानी सबला का अट्टहासपूर्वक घोर अपमान हो, तब वहाँ धर्म का कुछ भी अंश अवशिष्ट रह गया हो, इसकी कल्पना भी बुद्धि शून्यता की पराकाष्ठा है। किसी भी प्रकार से चाहे वह छल-बल-कल से हो या अन्य किसी निम्नतर उपाय से अपने स्वजन के विनाश की षड्यन्त्र की कल्पना हो, उस परिस्थिति में जहाँ भीष्म द्रोणाचार्य जैसे सर्वमान्य लोकपूज्य व्यक्ति भी उसके विरुद्ध में कुछ कहने का या कराने का साहस न कर सकते हों और अपने सममुख ही धर्म को तार-तार होते हुए देख ही नहीं रहे हों, अपितु उस दुष्कर्म में सहयोगी भी बने हों, तब भला धर्म की या न्याय की रक्षा करने का बीड़ा उठाने का कौन साहस कर सकता है और जो व्यक्ति यह साहस कर सकता है, वह सामान्य नहीं हो सकता। योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हीं असामान्य लोगों में से थे। उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा को तिलाञ्जलि देकर धर्मरक्षा का प्रण किया। उन्होंने कहा कि-
परित्राणाय साधूनां, धर्मसंस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे।
और इस प्रतिज्ञा का पालन किया धार्मिकों की रक्षा के माध्यम से उन्होंने वेद धर्म की रक्षा की। सभा में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो कुछ कह सके या कर सके। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने अपने अग्रज श्री बलराम जी की उपेक्षा कर दाय भाग में से ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि’ की घोषणा करनेवाले तथा उनके समर्थकों को दण्डित धर्म की आधार भूमि को दृढ़ करने का निश्चय किया। सम्भवतः अन्य कोई सामान्य व्यक्ति होता तो इसको पारिवारिक कलह कहकर अपने को बचाने का मार्ग प्रशस्त कर लेता, किन्तु श्रीकृष्ण इसको कायरता ही नहीं, अपितु घोर अधर्म समझते थे। यदि किसी समर्थ व्यक्ति के सममुख धर्म एवं न्याय का हनन हो रहा हो और धर्म की रक्षा के लिए वह समर्थ व्यक्ति कुछ नहीं कर पा रहा हो, तो सचमुच वह अधार्मिक ही नहीं महापापी भी होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण इस प्रकार धर्म अवमानना नहीं देख सकते थे, इसलिए धर्मरक्षार्थ उन्होंने धर्म का सारथी बनना सहर्ष स्वीकार किया। सामान्य दृष्टि से लोग यही विचारते हैं कि भारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर उसके रथ को हाँका था, स्थूल दृष्टि से भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वास्तव में तो अर्जुन के नहीं, पाण्डवों के नहीं,अपितु धर्म के सारथी बने थे। जिन अधार्मिक कुकृत्यों का आश्रय कौरव लेकर चल रहे थे, यदि वे क़ुकृत्य पाण्डवों में भी दृष्टिगोचर होते तो श्रीकृष्ण कभी भी उनका साथ न देते। कौरवों के पक्ष में युद्ध के समय में जिस कर्ण पर दुर्योधन को सर्वाधिक विजय का विश्वास था, वह कर्ण स्वयं पूजा पाठ करते हुए तथा दान करते हुए भी महान् अधार्मिक था, क्योंकि उसने कौरवों के द्वारा किये जाते हुए अधार्मिक कुकृत्यों का समर्थन ही नहीं, अपितु कौरवों को प्रोत्साहित भी किया था। जब भारत युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण और अर्जुन का निर्णायक द्वन्द्व युद्ध होने लगा तो किसी विकट परिस्थिति में पड़कर स्वयं कर्ण ने धर्म की गाथा गाते हुए अर्जुन से कहा- अर्जुन! तुम धर्मयोद्धा हो, धर्मयुद्ध करने में तुमहारी प्रसिद्धि है, अतः कुछ क्षण रुको। श्रीकृष्ण कर्ण के द्वारा धर्म की बात सुनकर हँसे बिना नहीं रह सके और उन्होंने फटकारते हुए, धिक्कारते हुए, कर्ण से कहा- कर्ण, तुमहारे जैसे अधार्मिक निकृष्ट व्यक्ति को जब मृत्यु सामने उपस्थित हो जाती है तो धर्म स्मरण आता है। जो-जो अधर्म तुमने किये या तुमहारे प्रोत्साहित करने पर कौरवों ने किये, उस समय कभी भी तुमहें धर्म का स्मरण नहीं हुआ। उन्होंने पापमय अधार्मिक उन कार्यों का भी स्मरण कराया जिनको कर्ण नेकिया था और स्मरण कराते हुए कहा कि-
यदा सभायां राजानामनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।
यद् भीमसेन सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णो शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम्।।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
राज्यलुधः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
(महा.. कर्णपर्व अध्याय-91)
अर्थात् ‘कर्ण! जब कौरव सभा में जुए के खेल का ज्ञान न रखने वाले राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! वनवास का तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब राजा दुर्योधन ने तुमहारी ही सलाह लेकर भीमसेन को जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पों से डँसवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! उन दिनों वारणावत नगर में लाक्षा भवन के भीतर सोये हुये कुन्तीकुमारों को जब तुमने जलाने का प्रयत्न कराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! भरी सभा में दुःशासन के वश में पडी हुई रजस्वला द्रौपदी को लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! पहले नीच कौरवों द्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदी को जब तुम निकट से देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
(याद है न, तुमने द्रौपदी से कहा था) ‘कृष्ण-पाण्डव नष्ट हो गये हैं, सदा के लिये नरक में पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले। जब तुम ऐसी बातें करते हुए गजगामिनी द्रौपदी को निकट से आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! फिर राज्य के लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पाण्डवों को दोबारा जुए के लिये बुलवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर मार डाला था,उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
व्यास जी ने कहा है- ‘यतो धर्मस्ततो जयः।’ जहाँ धर्म है, वही विजय होती है। श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म के आधार पर सत्य का पालन किया। उनकी सत्यनिष्ठा का प्रमाण उत्तरा के मृतकल्प पुत्र को पुनः प्राणदान के समय की हुई शपथ से प्रतीत होता है-
नोक्तपूर्व मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्।।
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विश्ेाषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा।।
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृत शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः।।
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहितौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम्।।
(महा.. आश्वमेधिक पर्व अध्याय-70)
अर्थात् ‘मैनें खेल-कूद में भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्ध में पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्ति के प्रभाव से अभिमन्यु का यही बालक जीवित हो जाये।’
‘यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों तो अभिमन्यु का यह पुत्र जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाये।’
‘यदि मुझमें सत्य और धर्म की निरन्तर स्थिति बनी रहती हो, तो अभिमन्यु का यह मरा हुआ बालक जी उठे।’
‘मैनें कंस और केशी का धर्म के अनुसार वध किया है, इस सत्य के प्रभाव से यह बालक फिर जीवित हो जाये।’
वेद एवं नीतिकारों ने कहा भी है-
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः।
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः।।
(ऋग्.. 10/85/1)
न हि सत्यात् परो धर्मः ।
न हि असत्यात् पातकं महत्।।
श्रीकृष्ण उस सत्य धर्म की रक्षा के लिए दूत बने, सारथी बने, सेवक बने, मित्र बने, सब कुछ बने, किन्तु लक्ष्य एक ही था- धर्म की रक्षा, इसलिए वे यथार्थ में पार्थ के सारथी नहीं, अपितु धर्म के सारथी बने।
– प्रभात आश्रम, मेरठ

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन’

ओ३म्

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/120/3 में यथार्थ स्वर्ग का वर्णन हुआ है। लोगों ने पुराणों के आधार पर मिथ्या स्वर्ग की कल्पना कर रखी है और उसी को मानते हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि पुराण वर्णित स्वर्ग संसार व ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। हम एकमात्र यथार्थ वैदिक स्वर्ग पर पहले आर्यजगत के एक महान संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का संक्षिप्त वेदव्याख्यान दे रहे हैं। इसके बाद वेदमन्त्र व उसके पदों वा शब्दों का अर्थ भी प्रस्तुत है।

 

यथार्थ स्वर्ग का व्याख्यान

 

स्वर्ग किसी देशविशेष (स्थान विशेष) या लोकविशेष का नाम नहीं है, वरन् उस अवस्था को स्वर्ग कहते हैं, जिस अवस्था मे मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक, पारिवारिक आदि सब प्रकार के सुख प्राप्त हैं, जिस अवस्था में मनुष्य को कोई शारीरिक क्लेश, मानसिक पीड़ा नहीं सताती, मातापिता तथा सन्तान का सुख प्राप्त हो, शरीर सुन्दर तथा सुडौल हो, कोई त्रुटि हो, इसकी प्राप्ति का साधन सद्विचार तथा उत्तम सदाचार है। दूसरे शब्दों में रोग, दुःख, अंगभंग, कुरूप शरीर आदि पापों का फल है। संक्षेप मेंसुखविशेष भोग तथा उसकी सामग्री का नाम स्वर्ग है। (यह स्वर्ग मनुष्य के अपने भीतर, अपने निवास, परिवार, समाज देश में ही होता है माना जा सकता है। वाल्मिीकी रामायण में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम लक्ष्मण जी से कहते हैं किजननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। पूरे श्लोक का भाव है कि मैं जानता हूं कि लंका सोने की है परन्तु फिर भी मुझे यह अच्छी नहीं लगती। क्योंकि अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। यह इसलिए कि जो सुख विशेष अपनी माता और अपनी जन्म देश भूमि में मनुष्य को प्राप्त होता हो सकता है, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता।लेखक)

 

अथर्ववेद का मन्त्र संख्या 6/120/3

 

यात्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः।

अश्लोणा अंगैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ पुत्रान्।।

 

मन्त्र का पद वा शब्दार्थ

 

यत्र=जिस अवस्था में सुहार्दः=उत्तम हृदयवाले अपने तन्वः=शरीर के रोगम्=रोग को विहाय=छोड़कर, अर्थात् पूर्णतया नीरोग होकर अंगैः अश्लोणाः=अंग-भंगरहित, अर्थात् पूर्णांगवयवयुक्त शरीरवाले तथा अह्रुताः=शरीर, आत्मा तथा मन की कुटिलता से विरहित हुए मदन्ति=सुखी रहते हैं तत्र स्वर्गे=उस स्वर्ग में हम पितरौ=माता-पिता च=और पुत्रान्=पुत्रों-सन्तान को पश्येम=देखें, अर्थात् हमारे माता-पिता तथा सन्तान सदा सुखी रहे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार

ओ३म्

मनु का विरोध क्यों?

लेखक

डॉ. सुरेन्द्र कुमार

‘मनुस्मृति-भाष्यकार एवं प्रक्षेपानुसन्धानकर्ता’

आचार्य (संस्कृत, व्याकरण, साहित्य दर्शन)

एम.ए. (संस्कृत, हिन्दी), पी-एच.डी.

 

आजकल हवा में एक शब्द उछाल दिया गया है-‘मनुवाद’, किन्तु इसमा अर्थ नहीं बताया गया है| इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का| मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का सही अर्थ है-‘गुण-कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्त्व पर आधारित विचारधारा’, और तब, ‘अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अश्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा-गैर मनुवाद|

अंग्रेज-आलोचकों से लेकर आजतक के मनुविरोधी भारतीय लेखकों ने मनु और मनुस्मृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह एकांगी, विकृत, भयावह और पूर्वाग्रहयुक्त हैं | उन्होंने सुन्दर पक्ष की सर्वथा उपेक्षा करके असुन्दर पक्ष को ही उजागर किया है| इससे न केवल मनु की छवि को आघात पहूंचता है, अपितु भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य, इतिहास, विशेषतः धर्मशास्त्रों का विकृत चित्र प्रस्तुत होता है, उससे देश-विदेश में उनके प्रति भ्रान्त धारणाएं बनती हैं| धर्मशास्त्रों का वृथा अपमान होता है| हमारे गौरव का हस होता हैं|

इस लेख के उद्देश्य हैं-मनु और मनुस्मृति की वास्तविकता का ज्ञान कराना, सही मूल्यांकन करना, इस सम्बन्धी भ्रान्तियों को दूर करना और सत्य को सत्य स्वीकार करने के लिए सहमत करना| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन्मना जाति-व्यवस्था से हमारे समाज और राष्ट्र का हस एवं पतन हुआ है, और भविष्य के लिए भी यह घातक है| किन्तु, इस एक परवर्ती त्रुटि के कारण समस्त गौरवमय अतीत को कलंकित करना और उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का कथन करना भी अज्ञता, अदूरदर्शिता, दुर्भावना और दुर्लक्ष्यपूर्ण है| यह आर्य (हिन्दू) धर्म, संस्कृति-सभ्यता और अस्तित्व की जडों में कुठाराघात के समान है|

 

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत खरी और सर्वमान्य नहीं होती| परवर्ती जातिव्यवस्था की तरह आज की व्यवस्था भी पूर्ण नहीं है| यदि कोई त्रुटि आ जाये तो उसका परिमार्जन किया जा सकता हैं| हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इसके लिए एक उदार मूलमन्त्र बहुत पहले से दे रखा है-

‘‘यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि|’’

(तैतिरीय उप.१.११.२)

अर्थात्-हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं |

इसका पालन करके हम अनुत्तम का परित्याग कर उत्तम को बनाये रख सकते हैं| उत्तम ही सत्य है, शिव है| उसका परित्याग करना मूर्खता हैं| आशा है, पाठक इसे पढकर मनु-सम्बन्धी भ्रान्तियों से बच सकेंगे, और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों से अवगत हो सकेंगे तथा उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होंगे |

निवेदक: डॉ. सुरेन्द्रकुमार

 

 

मनु का विरोध क्यों?

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी-शासन के हितों से जुडे और ईसाईयत में दीक्षित कुछ पाश्‍चात्य लेखकों ने पहले-पहल, भारतीयों के मन में प्रत्येक उस वस्तु और व्यक्ति के प्रति योजनाबद्ध रुप से विरोधी संस्कार भरने का और उनकी आस्था भंग करने का षड्यन्त्र किया, जिनका परम्परागत रुप से भारत की अस्मिता, गरिमा और महिमा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था | इस प्रकार नींव पडी भारतीयता-विरोध परम्परा की| अंग्रेजी शासन के प्रभाव, ‘फूट डालो और राज करो’ की कूट राजनीति और मैकाले द्वारा प्रवर्तित कूट शिक्षानीति के सहारे वे कुछ भारतीयों को अपने रंग में रंगने में सफल हो गये | उन्होंने इस परम्परा को निभाया और आगे बढाया| इसी परम्परा में उभरे कुछ वे लोग और वर्ग जिन्होंने सर्वप्रथम समाजव्यवस्थापक, आदि विधिनिर्माता महर्षि मनु और उनके आदि विधानशास्त्र मनुस्मृति को अपनी निंदात्मक आलोचनाओं का केन्द्र बनाया| आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी परम्परा में लिखी आलोचनाओं और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करना कुछ सामाजिक वर्गों का एक लक्ष्म बन बया है, तो अंग्रेजीदां लोगों की परिपाटी और कुछ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का मुद्दा | हमारे राजनीतिक लोगों की बात सबसे निराली है|  अभी पिछले वर्षो में कुछ लोग पार्टी विभाजन होते ही एक ही रात में ‘मनुपुत्र’ से ‘गैरमनुपुत्र’ बन गये और सार्वजनिक मंचों से लगे मनु, मनुस्मृति और मनुपुत्रों को कोसने | एक राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘मनुवाद’ जैसे नये मुद्दे का आविष्कार कर डाला | कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित उच्च न्यायालय के परिसर में जब आदि विधिप्रणेता होने के कारण मनु की प्रतिमा स्थापित की गयी, तो कुछ लोगों को उस जड प्रतिमा को ही विवाद का विषय बना डाला, जो आज एक प्रकरण के रुप में उसी न्यायालय में विचाराधीन है| जबकि वास्तविकता यह थी कि प्रतिमा-विरोध को कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने का सुअवसर समझकर उसका अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में थे|

आश्‍चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति के पढने की बात तो दूर, उसकी आकृति तक देखी नहीं होती | एक दिन मुझे एक उच्चतर डिग्रीधारी ऐसे व्यक्ति मिले जो तुलसीदास की चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’’ को मनु का श्‍लोक कहकर मनु की आलोचना करने लगे | इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु का विरोध करनेवालों में मनु और मनुस्मृति के विषय में सामान्य ज्ञान का कितना अभाव हैं |

सामान्य व्यक्तियों की बात छोड दीजिये, डॉ. अम्बेडकर जैसा व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतना बहक गया है कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता हैं|  शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड दिया हैं |  साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पायी जाती हैं, उसका विवरण लम्बा है| ये सब बातें इंगित करती हैं कि मनुस्मृति को गम्भीरता से पढा नहीं जाता |

ऐसा देखरे में आया है कि मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करनेवालों में प्रमुखतः तीन प्रकार के व्यक्ति हैं | एक तो वे, जिन्होंने मनु को पूर्वाग्रहग्रस्त अंग्रेजी अलोचनाओं और उस परम्परा के माध्यम से पढा है, और जो प्राचीन भारतीय साहित्य में कालक्रम से हुए परिवर्तनों-प्रक्षेपों से परिचित नहीं हैं| दूसरे वे, जिन्होंने मनुस्मृति के मौलिक और प्रक्षिप्त, दोनों पक्षों को चिन्तन-मनन पूर्वक नहीं पढा हैं| तीसरे वे, जिन्होंने किन्हीं भ्रान्तियों, पूर्वाग्रहों और निंहित स्वार्थो के कारण मनु के विरोध को अपना लक्ष्य बना लिया हैं | किन्तु वास्तविकता यह है कि महर्षि मनु का व्यक्तित्व और कृतित्व निंदा और विरोध करने का पात्र नहीं हैं| वे भारत और भारतीयता के लिए गर्व और गौरव के विषय हैं |

भारत में मनु की प्रतिष्ठा

महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित,नियमबध्द,नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पध्दति सिखायी है| वे मानवों के आदि पुरुष हैं, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज और राजनीति व्यवस्थापक, आदि राजर्षि हैं | मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का प्रवर्तन किया | उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है| अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों,लेखकों,कवियों और राजाओं की मिलती हैं, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है | वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है| महर्षि वाल्मीकि रामायण में मनु को एक प्रामाणिक धर्मशास्त्रज्ञ के रुप में उध्दृत करते हैं और हिन्दुओं में भगवान् के रुप में पूज्य राम अपने आचरण को शास्त्रसम्मत सिध्द करने के लिए उसके समर्थन में मनु के श्‍लोकों को उध्दृत करते हैं| महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु का सर्वोच्च धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्री के रुप में उल्लेख करते हुए उनके धर्मशास्त्र को परीक्षासिध्द घोषित किया हैं| अनेक पुराणों में मनु को आदि राजर्षि, शास्त्रकार आदि विशेषणों से विभूषित करके उन्हें लोक हितकारी व्यक्तित्व के रुप में वर्णित किया हैं | निरुक्त में आचार्य यास्क ने मनु के मत को उध्दृत करके ‘पुत्र-पुत्री के समान दायभाग’ के विषय में प्रामाणिक माना है| कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य ने मनु के मत को प्रमाण रुप में उध्दृत किया हैं | स्मृतिकार बृहस्पति मनु की स्मृति को सबसे प्रामाणिक स्मृति मानकर उसके विरुध्द स्मृतियों को अमान्य घोषित करते हैं | बौध्द कवि अश्‍वघोष ने अपनी कृति ‘वज्रकोपनिषद्’ में मनु के वचनों को प्रमाणरुप में उध्दृत किया है| याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति पर ही आधारित हैं|  सभी धर्मसूत्रों और स्मृतियों में मनु के वचनों को समर्थन में प्रस्तुत किया है| वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया हैं| बादशाह शाहजहां के लेखक पुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई,मुसलमान आदम कहकर पुकारते हैं| गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया हैं|

आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में प्रमाण माना है| श्री. अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रुप में सम्मान दिया है| श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ.राधाकृष्णन, जवाहरलाल नेहरु आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को आदि ‘लॉ गिवर’ के रुप में उल्लिखित किया है| अनेक कानूनविदों जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दु लॉ सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथारिटी’ घोषित किया हैं| मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं.नेहरु ने तथा जयपुर में डॉ.अम्बेडकर की प्रतिभा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था|

विदेशों में महर्षि मनु की प्रतिष्ठा

मनु की प्रतिष्ठा, गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा हैं| ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मन से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया’ में मनु को मानवजाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक वर्णित किया हैं| मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, ए.ए.मैकडानल,ए.बी.कीथ,पी. थामस,लुईसरेनो आदि पाश्‍चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ-साथ एक ‘लॉ बुक’ भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनिक तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है| भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज सर विलियम जोन्स ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढकर उसका सम्पादन भी किया| जर्मन के प्रसिध्द दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने तो यहां तक कहा कि ‘‘मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रन्थ है’’ बल्कि ‘‘उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है|’’ अमेरिका से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया आफ दि सोशल साइंसिज’, ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’, कीथरचित ‘हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’, भारतरत्न पी.बी. काणे रचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ डॉ. सत्यकेतु रचित ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति’ आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है, उसे पढकर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता हैं|

बालिद्वीप, बर्मा, फिलीपीन, थाइलैंड, चम्पा(दक्षिणी वियतनाम),कम्बोडिया, इन्डोनेशिया,मलेशिया,श्रीलंका,नेपाल आदि देशों से प्राप्त शिलालेखों और उनके प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि वहां प्रमुखतः मनु के धर्मशास्त्र पर आधारित-कर्मानुसारी वर्णव्यवस्था रही हैं| मनु के विधानों को सर्वोच्य महत्त्व दिया जाता था और उन्हीं के अनुसार न्याय होता था| शिलालेखों में मनुस्मृति के अनेक श्‍लोक उत्कीर्ण पाये गये हैं| राजा लोग स्वयं को मनु का अनुयायी अथवा मनुमार्गगामी कहने में गर्व अनुभव करते थे और मनु की उपाधि धारण करके स्वयं को गौरवान्वित मानते थे| चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग का अनुसरण करनेवाला था| कम्बोडिया के राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथोम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानवनीतिसार’ ग्रन्थ का उल्लेख है, जो मनुस्मृति पर आधारीत था | ‘प्रसत कोमपन’ से प्राप्त राजा यशोवर्मा के अभिलेख में मनुस्मृति का २.१३६ श्‍लोक उध्दृत मिलता है| राजा जयवर्मा के अभिलेख में मनुसंहिता के विशेषज्ञ एक मन्त्री का उल्लेख है| बालिद्वीप में आज भी मनु-व्यवस्था है| उक्त देशों की आचारसंहिताएं/संविधान मनुस्मृति पर ही आधारित थे और बहुत कुछ अब भी है| फिलीपीन के निवासी मानते हैं कि उनकी आचार संहिता के निर्माण के निर्माण में मनु और लाओत्से की स्मृति का प्रमुख योगदान है, इस कारण वहां की विधानसभा के द्वारपर इन दोनों की मूर्तियां स्थापित की गयीं|

हम मनु का कितना ही विरोध कर लें और चाहे कितनी ही निन्दा करलें, मनु का हम से जो सम्बन्ध बन चुका है, वह जब तक इतिहास और यह समाज रहेगा, तब तक मिट नहीं सकता |  आदिवंश प्रवर्तक होने के कारण मनु को न कभी त्यागा जा सकता है, न भुलाया जा सकता हैं|

भारतीय साहित्य और समाज मनु को अपना आदि-पुरुष मानता हैं| सभी मनुष्य मनु की सन्तान हैं| इसी कारण आदमी के वाचक जितने भी नाम हैं, वे ‘मनु’ शब्द से बने हैं, जैसे-मनुष्य,मनुज,मानव,मानुष आदि| इसीलिए निरुक्तकार ने इनकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा हैं-

‘‘मनोः अपत्यम्, मनुष्यः’’ (३.४)

अर्थात्–‘मनु की सन्तान होने से हमें मनुष्य कहा जाता है|’ ब्राह्मणग्रन्थों में भी ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहकर इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है| यूरोपीय विद्वानों ने भाषा विज्ञान के आधार पर राह सिध्द कर दिया है कि कभी युरोप, ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप निवासी एक ही परिवार के सदस्य थे| इन सबकी भाषाओं में मनुष्यवाचक जो शब्द प्रचलित हैं, वे मनुमूलक शुरों के अपभ्रंश हैं | जैसे, ग्रीक और लैटिन में माइनोस, जर्मनी में मन्न,स्पेनिश में मन्नाःअंग्रेजी तथा उसकी बोलियों में मैन,मेनिस,मनुस,मनेस,मनीस आदिः ईरानी-फारसी में नूह (मनुस् के स् को ह होकर और म का लोप होकर) कहा जाता हैं| इन देशों के ऐतिहासिक उल्लेखों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है| ईरानवासी आज भी स्वयं को आर्यवंशी मानते हैं और अपना मूल उद्रम आर्यो के ‘सप्तसिन्धु’ देश से मानते हैं| कम्बोडिया के निवासी स्वयं को मनु की सन्तान कहते हैं| थाईलैंड के निवासी स्वयं को सूर्यवंशी राम के वंशज मानते हैं| राम और कृष्ण दोनों हो मनु की वंशपरम्परा में आते हैं | इस विवरण को पढकर हम कह सकते हैं कि अतीत मएक धर्मशास्त्रकार और विधिदाता (लॉ गिवर) के रुप में महर्षि मनु को जो प्रतिष्ठा और महत्त्व मिला है, वह किसी अन्य को नहीं मिला|

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप

आइये, अब मनु और मनुस्मृति पर लगाये जानेवाले आक्षेपों पर विचार करें| मुख्यरुप से उन्हें तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-

(क)   मनु ने जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था का निर्माण किया|

(ख)  उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों अर्थात् दलितों के लिए पक्षपातपूर्ण एवं

अमानवीय विधान किये हैं, जबकि सवर्णों, विशेषतः ब्राह्मणों को

विशेषाधिकार प्रदान किये हैं| इस प्रकार मनु शूद्रविरोधी थे|

(ग)   मनु स्त्रीविरोधी थे| उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिये| मनु ने स्त्रियों की निन्दा की हैं |

इन तीनों आक्षेपों के समाधान के लिए बाह्य प्रमाणों और मतों की अपेक्षा अन्तःसाक्ष्य अधिक प्रामाणिक रहेंगे, अतः यहां मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं-

 

(क)   मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक स्वरुप

 

१.    मनु की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित और वेदमूलक-मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वेदमूलक हैं| यह मूलतः तीन वेदों (ऋग् १०.९०.११-१२;यजु. ३१.१०-११;अथर्व. १९.६.५-६) में पायी जाती हैं| मनु वेदों को धर्म में परम प्रमाण मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को धर्ममूलक व्यवस्था मानकर उसे वेदों से ग्रहण करके अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया|

 

२.    वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में अन्तर और परस्परविरोध-मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित हैं,जन्म पर आधारित नहीं| यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं| एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती| इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता हैं| वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख हैं| जिन्होंने इनका समानार्थ में प्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया| ‘वर्ण’ शब्द ‘वृत्र्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको वरण किया जाये’ वह समुदाय| निरुक्त में आचार्य यास्क ने इसके अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया हैं-

‘‘वर्णः वृणोतेः’’ (२.१४) = वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है|

जबकि जाति का अर्थ है-जन्म | इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मनुस्मृति में हुआ हैं-

‘‘जाति-अन्धबधिरौ’’ (१.२०१) = जन्म से अन्धे-बहरे |

‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ (४.१४८) = पूर्वजन्म को स्मरण करता है|

‘‘द्विजातिः’’ (१०.४) = द्विज,क्योंकि उसके दो जन्म होते हैं|

‘‘एकजातिः’’ (१०.४) = शूद्र,क्योंकि उसका विद्याजन्म नहीं होता|

एक जन्म ही होता हैं |

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र,इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया हैं| जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी | जब जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह जातिव्यवस्था बन गयी | वर्ण शब्द का धातु-प्रत्यमूलक अर्थ ही यह संकेत देता है कि जब यह व्यवस्था बनी तब यह गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार वरण की जाती थी, जन्म से नहीं थी|

 

३.    वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं-मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बडा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है, किन्हीं जातियों अथवा गोत्रों का परिगणन नहीं किया है| इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं | एक-मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी | दो-जन्म अथवा गोत्र का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी | यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां या गोत्र ब्राह्मण हैं और अमुक शूद्र| मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते हैं, इसका ज्ञान उस श्‍लोक से होता है जहां भोजनार्थ कुल-गोत्र का कथन करनेवाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खानेवाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है (३.१०९) | और आदरन्चडप्पन के मानदण्डों में कुल-गोत्र जाति का उल्लेख ही नहीं है, केवल गुण-कर्मो का हैं|

 

४.    मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ-यदि हम मनु को जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इससे मनुस्मृतिरचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक् कर्मों का विधान किया गया हैं| यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगता है, तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा | उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक हैं| मनु ने जो पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिध्द करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं |

 

५.    वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन का विधान-वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बडा अन्तर यह है कि वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है और व्यक्ति को वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है| मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, जिसमें व्यक्ति को वर्ण परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी | इस विषय मेंमनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्‍लोक प्रमाणरुप में उध्दृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

 

शूद्रो ब्राह्मणताम् एति, ब्राह्मणश्‍चैति शूद्रताम् |

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च ॥

(अ.१०, श्‍लोक ६५)

अर्थात् –‘गुण,कर्म,योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण| इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता हैं |’

 

६.    निर्धारित कर्मों के त्याग से वर्णपरिवर्तन-मनुस्मृति में दर्जनों ऐसे श्‍लोक हैं, जिनमें निर्धारित कर्मों के त्याग से और निकृष्ट कर्मों के कारण द्विजों को शूद्र कोटि में परिगणित करने का विधान किया है (द्रष्टव्य २| ३७,४०,१०३,१६८;४ | २४५ आदि श्‍लोक)| और शूद्रों को श्रेष्ठ कर्मों से उच्चवर्ण की प्राप्ति का विधान है (९.३३५)|

 

७.    महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था का प्रचलन-उ़क्त प्रमाणों और यु़िक्तयों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मनु द्वारा विहित वर्णव्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गुण-कर्मानुसार वर्ण में दीक्षित होने के समान अवसर प्राप्त थे | ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त यह कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है | गीता में स्पष्ट शुरों में कहा गया है-

 

‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’ (४ | १३)

 

अर्थात्-गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है| जन्म के अनुसार नहीं|

 

८.    वर्ण परिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण-भारतीय इतिहास में, सैंकडों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि किसी भी वर्ण को जन्म के आग्रह से नहीं जोडा गया | जैसे-(१) दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ और ‘शूद्रापुत्र’ ‘वत्स’ मन्त्रद्रष्टा होने के कारण दोनों ऋग्वेद के ऋषि कहलाये | (२) क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्‍वामित्र ब्रह्मर्षि बने | (३) अज्ञात कुल के सत्यकाम जाबाल ब्रह्मवादी ऋषि बने| (४) चंडाल के घर में उत्पन्न ‘मातंग’ एक ऋषि कहलाये | (५) (कुछ कथाओं के अनुसार) निम्न कुल में उत्पन्न वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि की पदवी को प्राप्त कर गये | (६) दासीपुत्र विदुर राजा धृतराष्ट के महामन्त्री बने और महात्मा कहलाये | (७) दशरथ पुत्र श्री राम और यदु कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण ‘भगवान’ माने गये | वे ब्राह्मणों के भी पूज्य बने, जबकि उनका कुल क्षत्रिय था | इसके विपरीत कर्मों के ही कारण, (८) पुलस्त्य ऋषि का वंशज लंकाधिपति रावण ‘राक्षस’ कहलाया| (९) राम के पूर्वज रघु का ‘प्रवृध्द’ नामक पुत्र नीच कर्मों के कारण क्षत्रियों से बहिष्कृत होकर ‘राक्षस’ बना | (१०) राजा त्रिशंकु चंडालभाव को प्राप्त हुआ | (११) विश्‍वामित्र के कई पुत्र शूद्र कहलाये |

 

९.    जातियों के वर्णपरिवर्तन-व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है| महाभारत और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जानेवाले श्‍लोकों से ज्ञात होता हैं कि निम्न जातियॉं पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय कर्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में परिगणित हो गयीं-

 

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः |

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥

पौण्ड्रकाश्‍चौड्रद्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः |

पारदाः पहृवाश्‍चीनाः किराताः दरदाः खशाः ॥ (१०.४३-४४)

 

अर्थात्-अपने निर्धारित कर्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं-पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज,यवन,शक,पारद,पहृव,चीन,किरात, दरद,खश॥ महाभारत अनु.३५.१७-१८ में इनके अतिरिक्त मे कल,लाट,कान्वशिरा, शौण्डिक,दार्व,चौर,शबर,बर्बर जातियों का भी उल्लेख हैं|

बाद तक भी वर्णेंपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं| जे.विलसन और एच.एल.रोज के अनुसार राजपूताना,सिन्ध और गुजरात के पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण, और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिला के आमताडा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निम्न जाति से ऊंची जाति के बने (देखिए हिन्दी विश्‍वकोश भाग४)|

१०.   चारों वर्णों में पाये जानेवाले समान गोत्रों का रहस्य-ब्राह्मणों, क्षत्रिय जातियों, वैश्य और दलित जातियों में समान रुप से पाये जाने वाले गोत्र, ऐतिहासिक वंश परम्परा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि वे सभी एक ही मूल परिवारों के वंशज हैं | पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे | बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा| किसी क्षेत्र में वही ब्राह्मण वर्ण में रह गया तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया| कालक्रमानुसार जन्म के आधार, पर उनकी जाति रुढ हो गयी|

११.   वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व-मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण,कर्म-योग्यता | मनु व्य़िक्त अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-सम्मान नहीं देते अपितु उक्त गुणों को देते हैं | जहॉं इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व, आदर-सम्मान अधिक है, न्यून होने पर न्यून हैं| आज तक संसार की कोई भी सभ्य व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी| इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष,आक्रोश,अव्यवस्था और अराजकता| मुहावरों की भाषा में इसी स्थिती को कहते हैं ‘घोडे-गधे को एक समझना’ या ‘सभी को एक लाठी से हांकना|’ इसका परिणाम होता है, कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृध्द हो सकता है, न सम्पन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित | ऐसी व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती| वर्तमान में निश्‍चित सर्वसमानता का दावा करने वाली साम्यवादी व्यवस्था भी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी| उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं| उन्हीं के अनुरुप वेतन, सुविधा और सम्मान में अन्तर हैं|

हमारी आजकल की प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था की तुलना करके देखिए, मनु की बात आसानी से समझ आ जायेगी और ज्ञात होगा कि मनु की और आज की इन व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता है| सरकार की प्रशासन व्यवस्था में चार वर्ग हैं- १. प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, २. द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, ३-४ तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी | इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारी हैं, दूसरे कर्मचारी | यह विभाजन गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, सम्मान एवं अधिकार हैं | इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल,आश्रम,आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय,विश्‍वविद्यालय आदि) ही करते हैं | शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी श्रेणी में आता है| पहले भी जो गुरु के पास जाकर विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी | शूद्र के अर्थ हैं-‘निम्न स्थितिवाला’ ‘आदेशवाहक’ आदि | नौकर, चाकर, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, निम्न श्रेणी कर्मचारी, आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है आप स्वयं देख लीजिये | व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं हैं | शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करके ही व्यवसाय की अनुमति है, उसके बिना नहीं | सबके नियम-कर्तव्य निर्धारित हैं| उनकी पालना न करनेवाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता हैं |

१२.   शूद्रों को वर्ण परिवर्तन के व्यावहारिक अवसर-जो लोग अपने आपको ‘शूद्र’ समझते हैं और अभी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु माननेवाला और मनु के सिध्दान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलनेवाला ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आव्हान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता हैं| जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शुद्रों को न पढाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सती प्रथा, शोषण आदि को सामाजिक बुराइयॉं घोषित करके उनके विरुध्द संघर्ष किया था | नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले | अपनी शिक्षा संस्थाओं में शूद्रों को प्रवेश दिया, परिणामास्वरुप वहॉं शिक्षित सैंकडों-दलित संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं| दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने संघर्ष को नहीं छोडा| इन घटनाओं से अनभिंज्ञ दलित-लेखक आर्यसमाज को भी रंगीन चश्मे से देखते हैं| क्या उनकी यह अकृतज्ञता नहीं है?

१३.   व्यवस्था का सही मूल्यांकन-मनुका समय अति प्राचीन है| यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमुल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरुप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं | मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी| यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाववाली रही और हजारों वर्षों तक वह प्रचलित होती आयी है| इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरुप को खोकर विकृत हो गयीं | समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ| किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी| यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुडी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा| किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए, वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है|

महर्षि मनु और डॉ.अम्बेडकर

१४.   भारतीय लेखकों में मनु के विरोध की परम्परा के प्रमुख संवाहक और प्रेरणास्त्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे| यद्यपि जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं, यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता, जो उन्होंने किया; किन्तु मनु और मनुस्मृति को गम्भीरता एवं पूर्णता से समझे बिना, पूर्वाग्रहों के कारण, उन्होंने मनु के विषय में जो व्यवहार किया, वह भी सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण था | एक कानूनविद् होने के नाते उन पर इस अनौचित्य की जिम्मेदारी अधिक आती है| उन्होंने संविधान में प्रावधान किया है कि ‘अनुचित निर्णय से निरपराध को दण्ड नहीं मिलना चाहिए, चाहे अपराधी मुक्त हो जाये|’ किन्तु उन्होंने अपने जीवन में इसका पालन नही किया| परवर्ती समाज द्वारा बनायी गयी जन्माधारित सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर अनावश्यक रुप से उन्हें दोषी घोषित करते रहे और उनके विरुध्द निंदा अभियान चलाते रहे, आर्य (हिन्दु) समाज में प्रतिष्ठित एक महर्षि के लिए बेहद कटु वचनों का प्रयोग करते रहे| हालांकि तत्कालीन बहुत से व्यक्ती उनका ध्यान बार-बार इस तथ्य की ओर आकर्षित करते रहे कि मनु के विषय में अभी उनकी कुछ भ्रान्तियॉं और पूर्वाग्रह हैं, वे उन्हें दूर कर लें, किन्तु वे पूर्वाग्रहों पर अडे रहे| उसके कई कारण थे| जो कुछ तब वे मनु के विषय में लिख चुके थे, शायद उसको छोडना नहीं चाहते थे, और उन्हीं के शब्दों में ‘‘उन पर मनु का भूत सवार था और उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे उसे उतार सकें|’’ सत्य है, उस भूत को वे जीवन-पर्यन्त नहीं उतार सके और जीवन के उपरान्त उसे अपने अनुगामियों पर छोड गये| लेकिन क्या ‘भूत सवार होना’ सामान्य स्थिति, संतुलित विचार, विवेकपूर्ण सही समीक्षा का परिचायक माना जा सकता है?

यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|

१५.   डॉ. अम्बेडकर के, मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था विषयक, आधारभूत मन्तव्यों को यहां प्रस्तुत करके उन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि उससे उनकी समीक्षा के साथ-साथ इस लेख को एक नया प्रमाण मिलेगा | वे लिखते हैं-

ह्न   ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी|’’ (भारत में जातिप्रथा पृ० २९)

ह्न   ‘‘यह निर्विवाद है कि वेदों में चातुर्वर्ण्य के सिध्दान्त की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त के नाम से जाना जाता हैं |’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० १२२)

ह्न   ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश किया है| वर्ण जाति की जननी है और इस अर्थ में, मनु जाति व्यवस्था का लेखक न भी हो, परंतु उसका पूर्वज होने का उस पर निश्‍चित ही आरोप लगाया जा सकता है|’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० ४२)

ह्न   ‘‘मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिध्दान्त की जो व्याख्या की है, वह बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्‍चित करने का निर्धारक तत्व हो| वह केवल योग्यता को मान्यता देती है|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ० ११९)

ह्न   ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो|’’ (वही पृ० ११९)

ह्न   ‘‘जाति का आधारभूत सिध्दान्त वर्ण के आधारभूत सिध्दान्त से मूल रुप से भिन्न है, न केवल मूलरुप से भिन्न है, बल्कि मूल रुप से परस्पर विरोधी है| पहला सिध्दान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है|’’ (वही पृ० ८१)

१६.   प्रस्तुत उध्दरणों में डॉ.अम्बेडकर स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई| मनु इसके निर्माता नहीं, केवल पोषक हैं| वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी हैं| मनु जाति व्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं| इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं| वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया | यदि वर्णव्यवस्था बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया| मनु वैदिक धर्मावलम्बी होने से वेदों को परम प्रमाण मानते हैं| अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं| सभी धर्मावलम्बी ऐसा करते हैं| बौध्द बनने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने भी बौध्द विचारों का प्रचार-प्रसार किया है| यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित है| इतनी स्वीकारोक्तियॉं होने के उपरान्त भी, आश्‍चर्य है कि डॉ.अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिम्मेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं| परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर उन्हें कटु वचन कहना कहॉं का न्याय हैं?

संविधान में चवालीस वर्षों में अस्सी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकुल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढाना,मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि, क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता हैं?

१७.   डॉ.अम्बेडकर का मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं| कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा| जैसे-किसी ने श्राध्द नहीं किया तो वह पिछली छह पीढियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक हैं| किसी ने श्राध्द किया तो उसकी पिछली छह-पीढियॉं तर जायेंगी, क्योंकि वे उसकी ‘जनक’ हैं| ऐसे ही, जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उनके पोषक मनु भी दोषी हैं| आश्‍चर्य तो यह है कि कानूनवेत्ता एक कानूनदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा हैं| संविधान में तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी को दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके जनक हैं | विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिध्दान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में भी लागू कर देते तो इससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतंत्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रता द्रोह किया था, जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी | वे लोग मुरब्बे, पद पैसे पाकर तब भी सम्पन्न-सुखी थे, आज भी हैं और स्वतन्त्रतासेनानी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो| यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता|

१८.   वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा हैं, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जान बुझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे| डॉ.अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है| क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं| इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में क्या रुप होगा|

१९.   डॉ.अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के निर्माता एवं पोषक हैं| दुर्भाग्य से, सैकडों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रुप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिम्मेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये| इसी प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है| मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत हैं| सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया, अतः वही समाज इसका जनक भी है, दोषी भी|

२०.   जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था|’ यह तो स्वयं ही डॉ.अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिम्मेदार नहीं है| इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था| वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी और सर्वस्वीकृत थी| मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी| समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया हैं, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्ण व्यवस्था का पोषण किया था | इसमें दोष या दोषी होने का अवसर ही कहॉं हैं?

२१.   संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती| अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दु व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता | आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सम्पूर्ण हैं? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी हैं| सामायिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है| आज के सैकडों वर्ष पश्‍चात् जब ये परिस्थितियॉं विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशास्त्रों का लिखा जा रहा हैं |

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान हैं| कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं| थोडे से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुँच गयी है कि प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सम्बन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः लिये जाते हैं, योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है| साक्षात्कार योग्यता की जांच के लिए आयोजित होते हैं, किन्तु वहॉं भी हजारों नौकरियॉं सिफारिश और पैसें के आधार पर दी जा रही हैं| न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसकी सत्यापित प्रमाण हैं| राजनीतिक क्षेत्र के पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पडती | वहॉं अपने-परायें का नग्न रुप हैं| कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड रही हैं, सैंकडो वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रुप ले गयीं तो क्या उसकी जिम्मेदारी डॉ.अम्बेडकर और उनकी संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी जानी चाहिए? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति- व्यवस्था का जनक और जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता|

२२.   इनसे भी अधिक अविचारित और खतरनाक बात जो डॉ.अम्बेडकर ने कही है, वह है-‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन पृ.९९)| एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्ण व्यवस्था हैं और वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुध्दिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी वेदों में डायनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं | कितना परस्पर विरोधी वक्तव्य है उनका! वेद,धर्मशास्त्र,रामायण,महाभारत,पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोडने की बात कही है उन्होंने! धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्त्रोत होते हैं धर्मशास्त्र | उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (हिन्दु) संस्कृति-सभ्यता, धर्म, सब कुछ को नष्ट करना | क्या डॉ.अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ.अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीडित थे और उन्हें वह छोडना था, तो वे उसे छोडकर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके | उन्होंने बौध्द धर्म का आश्रय लिया और बौध्द धर्मशास्त्रों को प्रमाण माना जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशास्त्रों का त्याग करने को कहते हैं| यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उध्दृत करना चाहूंगा-‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान नहीं हो सकता, बाइबल को अस्वीकार कर ईसाई नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों-शास्त्रों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’ डॉ.अम्बेडकर की यह सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोडा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये |

२३.   वेदों में जाति व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है| फिर भी डॉ.अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया| बौध्द होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है| उन्होंने बौध्द-शास्त्रों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौध्द शास्त्रों में महात्मा बुध्द ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है| कुछ प्रमाण देखिए-

(अ)   ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम् |

न उच्चावचं गच्छति भूरिपत्र्वो |’’ (सुत्तनिपात २९२)

 

अर्थात्-महात्मा बुध्द कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता|’

(आ)  ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा |

सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सो जाति जरांति ब्रूमीति ॥

(सुत्तनिपात १०६०)

अर्थात्-‘वेद को जाननेवाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है|’ अन्य श्‍लोक द्रष्टव्य हैं-३२२,४५८,५०३,८४६,१०५९आदि|

२४.   डॉ.अम्बेडकर की मनु-विरोध परम्परा में डॉ.भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-‘विरोध’ केवल विरोध के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है| उसमें न तर्क है, न सम्यक् विश्‍लेषण | अपव्याख्या और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिध्द करने का प्रयास है| उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्ह = सम्मानयोग्य’’ क्यों कहा गया! इसी को कहते है ‘चित भी मेरी पट भी मेरी|’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है | महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते | बौध्द हैं, किन्तु बौध्द साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्व को स्वीकार नहीं करते| स्वयं को गर्व से अवैदिक=अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शास्त्रों के तथाकथित उध्दार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में लगे रहे|

२५.   मनुस्मृति-विरोधी सभी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरुप से पायी जाती हैं |  उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिध्द करनेवाले आपत्तिरहित श्‍लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बध्द होने के कारण मौलिक माना जाता है, को उध्दृत ही नहीं किया| केवळ आपत्तिपूर्ण श्‍लोकों, जिन्हें कि प्रक्षिप्त माना जाता है, को उध्दृत करके निन्दा-आलोचना की है| उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही पुस्तक में, एक ही प्रसंग में स्पष्टतः परस्पर विरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्‍न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वयं मिल जाता | न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते|

(ख)  मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

आइये, अब विचार करते हैं मनुस्मृति के सबसे अधिक चर्चित और विवादास्पद शूद्र सम्बन्धी विषय पर| मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शूद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं| वे इस प्रकार हैं-

१.    दलितों-पिछडों को शूद्र नहीं कहा-आजकल की दलित, पिछडी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं ‘शूद्र’ नहीं कहा गया हैं| मनु की वर्णव्यवस्था है, अतः सभी व्यक्तियों के वर्णों का निश्‍चय गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर किया गया है, जाति के आधार पर नहीं | यही कारण है कि शूद्र वर्ण में किसी जाति की गणना करके यह नहीं कहा है कि अमुक-अमुक जातियॉं ‘शूद्र’ हैं| परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों को शूद्रवर्ग में सम्मिलित कर दिया| कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिम्मेदारी मनु पर थोंप रहे हैं| विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका दण्ड मनु को दिया जा रहा है| न्याय की मांग करनेवाले दलित प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है?

२.    मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों पर लागू नहीं होती| मनु द्वारा दी गयी शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछडी जातियों पर लागू नहीं होती| मनुकृत शूद्र की परिभाषा है–जिनका ब्रह्मजन्म = विद्याजन्म रुप दूसरा जन्म होता है, वे ‘द्विजाति’ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं | जिसका ब्रह्मजन्म नहीं होता वह ‘एकजाति’ रहनेवाला शूद्र है| अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन वेदाध्ययन, विद्याध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका ‘विद्याजन्म’ नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में ‘ब्रह्मजन्म’ कहा गया है| जो जानबूझकर, मन्दबुध्दि होने के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण ‘विद्याध्ययन’ और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता, वह अशिक्षित व्यक्ति ‘एकजाति=एक जन्मवाला’ अर्थात शूद्र कहलाता हैं| इसके अतिरिक्त उच्च वर्णों में दीक्षित होकर जो निर्धारित कर्मों को नहीं करता, वह भी शूद्र हो जाता है (मनु० २.१२६,१६९,१७०,१७२; १०.४ आदि) इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ)   ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः, त्रयो वर्णाः द्विजातयः |

चतुर्थः एकजातिस्तु, शूद्रः नास्ति तु पंचमः ॥ (मनु० १०.४)

 

अर्थात्-ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,इन तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है| चौथा वर्ण एकजाति=केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करनेवाला और विद्याजन्म न प्राप्त करनेवाला, शूद्र है | इन चारों वर्णों के अतिरिक्त कोई वर्ण नहीं है|

(आ)  शूद्रेण हि सपस्तावद् यावद् वेदे न जायते | (२.१७२)

अर्थात्-जब तक व्यक्ति का ब्रह्मजन्म = वेदाध्ययन रुप जन्म नहीं होता, तब तक वह शूद्र के समान ही होता है|

(इ)   न वेत्ति अभिवादस्य.. .. यथा शूद्रस्तथैव सः | (२.१२६)

अर्थात्-जो अभिवादन विधि का ज्ञान नहीं रखता, वह शूद्र ही है|

(ई)   ‘‘प्रत्यवायेन शूद्रताम्’’ (४.२४५)

अर्थात्-ब्राह्मण, हीन लोगों के संग और आचरण से शूद्र हो जाता है|

बाद तक भी शूद्र की यही परिभाषा रही है-

(उ)   जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते | (स्कन्दपुराण)

अर्थात्-प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता हैं|

मनु की यह व्यवस्था अब भी बालिद्वीप में प्रचलित हैं| वहॉं ‘द्विजाति’ और ‘एकजाति’ संज्ञाओं का ही प्रयोग होता है| शूद्र को अस्पृश्य नहीं माना जाता|

३.    शूद्र अस्पृश्य नहीं-अनेक श्‍लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के एति मनुं की मानवीय सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे | मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट, शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ऐसा विशेष्य व्यक्ति कभी अस्पृश्य या घृणित नहीं माना जा सकता (९.३३५) | शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (१.९१;९.३३४-३३५)| किसी द्विज के यहां यदि कोई शूद्र अतिथिरुप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (३.११२)| व्दिजों को आदेश है कि अपने भृत्यों को, जो कि शूद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद, भोजन करें (३.११६)| क्या आज के वर्णरहित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? कितना मानवीय, सम्मान और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का|

वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मापुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख,बाहु,जंघा, पैर से क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी है(१.३१)| इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं| एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं| दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता| तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है| ऐसे श्‍लोकों के रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

४.    शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी हैं| मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (२.१११,११२,१३०)| किन्तु शूद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति वृध्द शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है| यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया हैं-

‘‘मानार्हः शूद्रो ऽपि दशमीं गतः’’ (२.१३७)

अर्थात्-वृध्द शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें| शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है|

५.    शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता-‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (१०.१२६) अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है| इस तथ्य का ज्ञान उस श्‍लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए’ (२.२१३) | वेदों में शूद्रों को स्पष्टतः यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढने का अधिकार दिया हैं–

(अ)   यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः |

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ॥ २६.२)

 

अर्थात्-मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश सभी मनुष्यों-ब्राह्मण,क्षत्रिय,शूद्र,वैश्य,स्वाश्रित स्त्री-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है|

(आ)  यज्ञियासः पश्‍चजनाः मम होत्रं जुषध्वम् | (ऋग्० १०.५३.४)

पश्‍चजनाः = चत्वारो वर्णाः, निषादः पश्‍चमः | (निरुक्त ३.८)

 

अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें|’ चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पश्‍चजन कहलाते हैं|

मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएं हैं| यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता |

६.    दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-पाठकवृन्द! आइये, अब मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं| यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं| मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण-दोष, और आधारभूत तत्व हैं-बौध्दिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध का प्रभाव | मनु की दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है| यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं| इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक| मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होती हैं-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्|

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविध्दि सः ॥

 

अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अठ्ठाईसगुणा दण्ड करना चाहिए क्योकिं उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझनेवाले हैं|

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी हैं, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों| राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोडे और कोई समृध्द व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोडे (८.३३५, ३४७)

देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है| इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा | आज की दण्डव्यवस्था का नारा हैं-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं|’ पहला विरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सम्मान व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा| दूसरा, यथायोग्य दण्ड नहीं| इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी को भी| इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी को अनुभूति ही नहीं होगी| क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? समान दण्ड तो वह हैं, जो लोकव्यवहार में प्रचलित हैं | भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता हैं| दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यमवर्गीय थोडा कष्ट अनुभव करके और समृध्द-सम्पन्न जूती की नोक पर रख कर देगा | इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंस जाते हैं, धन-पद-सत्ता-सम्पन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तुडा कर निकल भागते हैं| आंकडे इकठ्ठे करके देख लीजिए, स्वतन्त्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सम्पन्न लोगों को| आर्थिक अपराधों में समृध्द लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं, अपराध करते रहते हैं | मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन नहीं है|

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है| वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता हैं| शूद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह प्रक्षिप्त श्‍लोकों में है| उक्त दण्डनीति के विरुध्द जो श्‍लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं|

७.    शूद्र दास नहीं है-शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का कथन मनु के निर्देशों के विरुध्द है| मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्‍चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रुप से न काटा जाये (७.१२५-१२६-;८.२१६) |

८.    शूद्र सवर्ण हैं-वर्तमान मनुस्मृति को उठाकर देख लीजिए, उनकी ऐसी कितनी ही व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें परवर्ती समाज ने अपने ढंग से बदल लिया है| मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है, चारों से भिन्न को असवर्ण (१०.४,४५), किन्तु परवर्ती समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया| मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि के कार्य करनेवालें लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (३.६४;९.३२९;१०.९९;१०.१२०), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शूद्रकोटि में ला खडा कर दिया| दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (१.९०), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी कृषि-पशुपालन कर रहा हैं, उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया| इनको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता हैं?

इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएं न्यायपूर्ण हैं| उन्होंने न शूद्र और न किसी अन्य वर्ण के साथ अन्याय या पक्षपात किया है|

 

(ग)   मनुस्मृति में नारियों की स्थिति

मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्य कहते हैं कि मनु की जो स्त्री-विरोधी छवि प्रस्तुत की जा रही है, वह निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है| मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बन्धित जो व्यवस्थाएं दी हैं वे उनके सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं| कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

१.    नारियों को सर्वोच्य महत्त्व-महर्षि मनु संसार के वह प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और सम्मान को असाधारण ऊंचाई प्रदान करता है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः॥ (३.५६)

 

इसमा सही अर्थ है-‘जिस परिवार में नारियों का आदर-सम्मान होता है, वहां देवता=दिव्य गुण,कर्म,स्वभाव,सन्तान,दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-सम्मान नहीं होता, वहां उनकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं|’

स्त्रियों के प्रति प्रयुक्त सम्मानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढकर, नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध करानेवाले प्रमाण और कोई नहीं हो सकते| वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग, संसारयात्रा की आधार हैं (९.११,२६,२८;५.१५०)| कल्याण चाहनेवाले परिवारजनों को स्त्रियों का आदर-सत्कार करना चाहिये, अनादर से शोकग्रस्त रहनेवाली स्त्रियों के कारण घर और कुल नष्ट हो जाते हैं| स्त्री की प्रसन्नता में ही कुल की वास्तविक प्रसन्नता है (३.५५-६२)| इसलिए वे गृहस्थों को उपदेश देते हैं कि परस्पर संतुष्ट रहें एक दूसरे के विपरीत आचरण न करें और ऐसा कोई कार्य न करें जिससे एक-दुसरे से वियुक्त होने की स्थिति आ जाये (९.१०१-१०२)| मनु की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक श्‍लोक ही पर्याप्त है-

 

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः|

स्त्रियः श्रियश्‍च गेहेषु न विशेषो ऽस्ति कश्‍चन ॥ १.२६)

 

अर्थात्-सन्तान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर-सम्मान के योग्य, गृहज्योति होती हैं स्त्रियां| शोभा-लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं|

२.    पुत्र-पुत्री एक समान-मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होगा कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान निर्माता हैं| जिन्होंने पु-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है-

‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनु० ९.१३०)

अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है| वह आत्मारुप है, अतः वह पैतृकसम्पत्ति की अधिकारिणी है|

३.    पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार-मनु ने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है| उनका यह मत मनुस्मृति के ९.१३०, १९२ में वर्णित है| इसे निरुक्त में इस प्रकार उध्दृत किया गया हैं-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः |

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.१.४)

अर्थात्-सृष्टि के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मनु ने यह विधान किया है कि दायभाग = पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है| मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृध्दि की है (९.१३१)|

४.    स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश-स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लें, तो उन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है (९.२१२;३.५२;८.२;८.२९)|

५.    नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड-स्त्रियों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करनेवालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाने का यत्न किया है(८.३२३;९.२३२;८.३५२)| नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं| पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें (४.१८०), इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है(८.२७५,३८९;९.४)|

६.    वैवाहिक स्वतन्त्रता एवं अधिकार-विवाह के विषय में मनु के आदर्श विचार हैं| मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयम्वर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी हैं (९०९०-९१)| विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है, साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (९.१७६,९.५६-६३)| उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतःविवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है(३.५१-५४)| स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझाव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन,दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए(९.८९)|

७.    सहभागिता तथा धर्मानुष्ठान में अपरिहार्यता-विश्‍व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में स्त्रियों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती| यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान स्त्री को साथ लिए बिना सम्पन्न नहीं होता| यही मनु की मान्यता है| इसलिए धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व स्त्री को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है(९.११,२८,९६)| वैदिक काल में स्त्रियों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे| वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं| उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्टी् ऋषिकाएं बनती थी | वेदों को धर्म में परम प्रमाण माननेवाले ऋषि मनु वेदानुसार स्त्रियों के सभी धार्मिक अधिकारों तथा उच्च शिक्षा के समर्थक हैं| तभी उन्होंने स्त्रियों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करने और धर्मकार्यों का अनुष्ठान स्त्रियों के अधीन घोषित किया है(२.४;३.२८)|

८.    स्त्रियों को प्राथमिकता-‘लेडीज फस्ट’ की सभ्यता के प्रशंसकों को यह पढकर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘स्त्रियों के लिए पहले रास्ता छोड दें| नवविवाहिताओं,कुमारियों,रोगिणी, गर्भिणी,वृध्दा आदि स्त्रियों को पहले भोजन करा के फिर पति-पत,नी को साथ भोजन करने का कथन है(२.१३८;३.११४,११६)| मनु के ये सब विधान स्त्रियों के प्रति सम्मान और स्नेह के द्योतक हैं|’

९)    स्त्रियों की अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षघर नहीं-यहां प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना उपयोगी रहेगा कि मनु गुणों के प्रशंसक हैं और अवगुणों के निन्दक| गुणियों को सम्मानदाता हैं, अवगुणियों को दण्डदाता| यदि उन्होंने गुणवती स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान दिया है, तो अवगुणवती स्त्रियों की निन्दा की है और दण्ड का विधान किया है| मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं| इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है(५.१४९;९.५-६)| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथमं सामाजिक आवश्यकता है-सुरक्षा की| वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य| भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देती| उदाहरणों से पता चलता है कि शस्त्रधारिणी डाकू स्त्रियों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रही है| मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है| आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है| फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं| प्रतिदिन बलात्कार, नारी-हत्या जैसे जधन्य अपराधों की हजारों घटनाएं होती रहती हैं| जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती रहती है, कानून शिथिल पड जाते हैं, जब क्या परिणाम होगा, उस स्थितिमें मनु के वचनों के महत्त्व को आंककर देखना चाहिये| तब यह मानना पडेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं|

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री-शूद्रविरोधी नहीं हैं, वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं| मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो|

मनुस्मृति में प्रक्षेप

अब प्रश्‍न उठता है, कि ठीक है, मनुस्मृति में उत्तम विधानों के श्‍लोक हैं, किन्तु मनु-विरोधी लेखकों द्वारा प्रस्तुत श्‍लोक भी तो मनुस्मृति के ही हैं, जो सर्वथा आपत्ति योग्य हैं| इस प्रकार बडी उलझनभरी स्थिती ज्ञात होती हैं मनुस्मृति की| उसमें एक ही साथ न्यायपूर्ण श्रेष्ठ विधान भी हैं और अन्यायपूर्ण निन्द्य विधान भी! लेकिन क्या मौलिक रुप से यह स्थिति संभव मानी जा सकती है? जब एक प्रबुध्द सामान्य लेखक की रचना में भी इस प्रकार के परस्पर विरोध नहीं मिलते तो एक धर्मवेत्ता, विधिवेत्ता ऋषि के धर्म और विधिशास्त्र में ऐसे विरोध कैसे हो गये? इसका सीधा-स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर है कि जो न्यायपूर्ण,श्रेष्ठ और गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित विधान हैं, वे मनु के मौलिक श्‍लोक हैं, जो इनके विरुध्द अन्याय और पक्षपातपूर्ण हैं, वे प्रक्षिप्त हैं अर्थात् समय-समय पर बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिला दिये हैं| इस उत्तर की पुष्टि मनुस्मृति पर आधारित मादडण्डों से ही हो जातीं है| मौलिक श्‍लोक पूर्वापर प्रसंगों से, विषयों से जुडे हुए हैं और गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित गम्भीर शैली में हैं, जबकि प्रक्षिप्त श्‍लोक प्रसंग और विषयविरुध्द तथा भिन्न शैली के हैं| इन आधारों के अनुसार अब हम कह सकते हैं कि इस लेख में उध्दृत श्‍लोक मौलिक हैं और इनकी भावना के विपरीत श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं, जिन्हें कि मनु-विरोधी लेखकों ने विरोध का आधार बनाया हैं| संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोक इस प्रकार हैं-

१.    मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ.अम्बेडकर ने भी इसे स्वीकार किया हैं), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित जो श्‍लोक हैं, वे मौलिक हैं| इनके विरुध्द जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करनेवाले श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

मनु के समय जातियॉं नहीं बनी थीं| यही कारण है कि मनु ने वर्णों में जातियों की गणना नहीं दर्शायी हैं| इस शैली और सिध्दांन्त के आधार पर वर्णसंस्कारों से सम्बन्धित श्‍लोक भी प्रक्षिप्त हैं|

२.    इस लेख में उध्दृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘जनरल कानून’ है, मौलिक है; इसके विरुध्द पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डव्यवस्था विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

३.    इस लेख में उध्दृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्‍लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

४.    इस लेख में उध्दृत नारियों के सम्मान, स्वतन्त्रता, समानता, शिक्षा विधायक श्‍लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं|

इन श्‍लोकों की मौलिकता और प्रक्षिप्तता को यदि पाठक, और अधिक गम्भीरता तथा विस्तार से जानना चाहें, तो वे ‘आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, ४५५-खारी बावली, दिल्ली’ से प्रकाशित मनुस्मृति (सम्पूर्ण) का अध्ययन कर सकते हैं| इसमें कृतित्व पर आधारित सर्वसामान्य मानदण्डों के आधार पर मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों को पृथक् दर्शा कर उन पर युक्ति-प्रमाण सहित समीक्षा दी गयी है| मनुस्मृति की मौलिक विषयवस्तु की जानकारी देने, प्रक्षिप्त श्‍लोकों को कारणपूर्वक समझाने और मनुस्मृति सम्बन्धी भ्रान्तियों के निराकरण के दृष्टिकोण से यह संस्करण पर्याप्त उपयोगी सिध्द होगा| प्रक्षिप्तों पर यह नवीनतम शोधकार्य हैं|

यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रक्षिप्त श्‍लोक अब विवाद नहीं रह गये हैं, अपितु एक निर्णय के रुप में मान्य हो गये हैं कि अधिकांश प्राचीन संस्कृत साहित्य में समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं| महाभारत के उल्लेख के अनुसार, दस हजार श्‍लोकों का काव्य बढते-बढते एक लाख श्‍लोकों का संग्रह बन गया| एक हजार वर्ष पुरानी हस्तलिखित रामायण से जो नेपाल के अभिलेखागार में सुरक्षित है, आज की रामायण में सैंकडों श्‍लोक अधिक पाये जाते हैं| यही स्थिति मनुस्मृति की है, अपितु इसमें अधिक परिवर्तन-परिवर्धन-प्रक्षेप हुए हैं| कारण, इसका मनुष्य के दैनिक आचार-व्यवहार से अधिक सम्बन्ध था, अतः स्वार्थवश उतनी ही अधिक छेडछाड की गयी| मनुस्मृति में हुए प्रक्षेपों के विषय में सभी वर्गों के विद्वान् एकमत हैं| इसकी टीकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं| बाद-बाद की टीका में अधिक श्‍लोक पाये जाते हैं| मेधातिथि (९ वीं शताब्दी) की तुलना में कुल्लूकभट्ट (१२ वीं शताब्दी) की टीका में एक सौ सत्तर श्‍लोक अधिक हैं| वे तब तक धुल-मिल नहीं पाये थे, अतः बृहत् कोष्ठक में दिये गये हैं| अन्य टीकाओं में भी श्‍लोक संख्या में अन्तर हैं|

अंग्रेज शोधकर्ता वूलर, जे, जौली, कीथ, मैकडानल और इन्साइक्लोपीडिया (अमेरिका) के लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षेप होते रहे हैं|

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने प्रक्षेप रहित मनुस्मृति को प्रमाण माना है| उन्होंने कुछ प्रक्षिप्त श्‍लोकों को छांटा हैं और छांटने की प्रेरणा दी हैं|

महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्ण व्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि मनुस्मृति में पायी जानेवाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं| डॉ.राधाकृष्णन, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि राष्ट्रनेता एवं विद्वान भी यही मानते हैं|

अतः आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रुप में समझा जाये और प्रक्षिप्त श्‍लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये | मनु एवं मनुस्मृति गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं| भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्वपूर्ण धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये|

 

 

हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हत्यारा मनुष्य था फ़रिश्ता नहीं :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

१. मिर्ज़ा तथा मिर्जाई  पण्डित जी के हत्यारे को खुदा का भेजा फ़रिश्ता बताते व लिखते  चले आ रहे हैं .
कितना भी झूठ गढ़ते  जाओ , सच्चाई सौ पर्दे फाड़ कर बाहर  आ जाती है . मिर्जा  ने स्वयं  स्वीकार किया है . वह उसे एक शख्स ( मनुष्य ) लिखता है . उसने पण्डित लेखराम के पेट में तीखी छुरी मारी . छुरी मार कर वह मनुष्य लुप्त हो गया  पकड़ा नहीं गया

२. वह हत्यारा मनुष्य बहुत समय पण्डित लेखराम के साथ रहा . यहाँ बार बार उसे मनुष्य लिखा गया है . फ़रिश्ता नहीं . झूठ की पोल अपने आप खुल गयी
– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २३९ प्रथम संस्करण

हत्यारा मनुष्य ही था :- मिर्जा पुनः लिखता है ” मैं उस मकान की ओर चला जा रहा हूँ . मेने एक व्यक्ति को आते हुए देखा जो कि एक सिख सरीखा प्रतीत होता था ” कुछ ऐसा दिखाई देता था जिस प्रकार मेने लेखराम के समय एक मनुष्य को स्वप्न में देखता था .
– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – ४४०  प्रथम संस्करण

यहाँ  फ़रिश्ते को सिख, अकालिया, सरीखा आदि तथा डरावना बताकर सीखो को तिरस्कृत किया साथ ही वह भी बता दिया की कादियानी अल्लाह के फ़रिश्ते शांति दूत नहीं क्रूर डरावने व हत्यारे  होते हैं . झूठ की फिर पोल खुल गयी .

अल्लाह का फ़ारसी पद्य पढ़िए :-

मिर्जा ने अपने एक लम्बी फ़ारसी कविता में पण्डित जी को हत्या की धमकी दते हुए अल्लाह मियां रचित निम्न पद्य दिया है :-

अला अय दुश्मने नादानों बेराह

बतरस अज तेगे बुर्राने मुहम्मद

– दृष्टव्य – हकीकत उल वही  पृष्ठ – २८८   तृतीय  संस्करण

अर्थात अय मुर्ख भटके हुए शत्रु तू मुहम्मद की तेज काटने वाले तलवार से डर

प्रबुद्ध, सत्यान्वेषी और निष्पक्ष पाठक ध्यान दें की अल्लाह ने तलवार से काटने की धमकी दी थी परन्तु मिर्जा ने स्वयं स्वीकार किया है की पण्डित लेखराम जी की हत्या तीखी छुरी से की गयी . मिर्ज़ा झूठा नहीं सच्चा होगा परन्तु मिर्ज़ा का कादियानी अलाल्ह जनाब मिर्ज़ा की साक्षी से झूठा सिद्ध हो गया . इसमें हमारा क्या दोष

न छुरी , न तलवार प्रत्युत नेजा ( भाला )

मिर्ज़ा लिखता है ” एक बार मेने इसी लेखराम के बारे में देखा कि एक नेजा ( भाला ) हा ई . उसका फल बड़ा चमकता है और लेखराम का सर पड़ा हुआ है उसे नेजे से पिरो दिया है और खा है की फिर यह कादियां में न आवेगा . उन दिनों लेखराम कादियां में था और उसकी हत्या से एक मॉस पहले की घटना है

 

– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २८७   प्रथम संस्करण

 

यह इलहाम एक शुद्ध झूठ सिद्ध हुआ . पण्डित लेखराम जी का सर कभी भाले पर पिरोया गया हो इसकी पुष्टि आज तक किसी ने नहीं की .मिर्ज़ा ने स्वयं पण्डित जी के देह त्याग के समय का उनका चित्र छापा है मिर्जा के उपरोक्त कथन की पोल वह चित्र तथा मिर्जाई लेखकों के सैकड़ों लेख खोल रहे हैं

अपने बलिदान से पूर्व पण्डित जी ने कादियां पर तीसरी बार चढाई की मिर्ज़ा को  पण्डित जी का सामना करने की हिम्मत न हो सकी . मिर्जा को सपने में भी पण्डित लेखराम का भय सततता था उनकी मन स्तिथि का ज्वलंत प्रमाण उनका यह इलहामी कथन है :

झूठ ही झूठ :- मिर्जा का यह कथन भी तो एक शुध्ध झूठ है की पण्डित जी अपनी हत्या से एक मॉस पूर्व कादियां पधारे थे . यह घटना जनवरी की मास  की है जब पण्डित जी भागोवाल आये थे . स्वामी श्रद्धानन्द  जी ने तथा  इस विनीत ने अपने ग्रंथो में भागोवाल की घटना दी है . न जाने झूठ बोलने में मिर्जा को क्या स्वाद आता है .

तत्कालीन पत्रों में भी यही प्रमाणित होता है की पूज्य पण्डित जी १७-१८ जनवरी को भागोवाल पधारे सो कादियां `१९-२० जनवरी को आये होंगे . उनका बलिदान ६ मार्च को हुआ . विचारशील पाठक आप निर्णय कर लें की यह डेढ़ मास  पहले की घटना है अथवा एक मास पहले की . अल्पज्ञ जेव तो विस्मृति का शिकार हो सकता है . क्या सर्वज्ञ अल्लाह को भी विस्मृति रोग सताता है ?

अल्लाह का डाकिया कादियानी  नबी :-

मिर्जा ने मौलवियों का, पादरियों का , सिखों का , हिन्दुओं का सबका अपमान किया . सबके लिए अपशब्दों का प्रयोग किया तभी तो “खालसा ” अखबार के सम्पादक सरदार राजेन्द्र सिंह जी ने मिर्जा की पुस्तक को ” गलियों की लुगात ” ( अपशब्दों का शब्दकोष ) लिखा है . दुःख तो इस बात का है की मिर्ज़ा बात बार पर अल्लाह का निरादर व अवमूल्यन करने से नहीं चूका . मिर्जा ने लिखा है मेने एक डरावने व्यक्ति को देखा . इसको भी फ़रिश्ता ही बताया है – ” उसने मुझसे पूछा कि लेखराम कहाँ है ? और एक और व्यक्ति का नाम लिया की वह कहा है ?

– दृष्टव्य – तजकरा पृष्ठ – २२५   प्रथम संस्करण

पाठकवृन्द ! क्या  यह सर्वज्ञ अल्लाह का घोर अपमान नहीं की वह कादियां फ़रिश्ते को भेजकर अपने पोस्टमैन मिर्ज़ा गुलाम अहमद से पण्डित लेखराम तथा एक दूसरे व्यक्ति ( स्वामी श्रद्धानन्द ) का अता पता पूछता है . खुदा के पास फरिश्तों की क्या कमी पड़  गयी है ? खुदा तो मिर्ज़ा पर पूरा पूरा निर्भर हो गया . उसकी सर्वज्ञता पर मिर्जा ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया .

एक और झूठ गढ़ा गया : – ऐसा लगता है कि कादियां में नबी ने झूठ गढ़ने की फैक्ट्री लगा दी . यह फैक्ट्री ने झूठ गढ़ गढ़ कर सप्लाई करती थी पाठक पीछे नबी के भिन्न भिन्न प्रमाणों से यह पढ़ चुके हैं कि पण्डित जी की हत्या :
१. छुरी से की गयी

२. हत्या तलवार से की गए

३. हाथ भाले से की गयी

नबी के पुत्र और दूसरे खलीफा बशीर महमूद यह लिखते हैं :-

४. घातक ने पण्डित जी पर खंजर से वर किया
देखिये – “दावतुल अमीर ” लेखक मिर्जा महमूद पृष्ठ – २२०

अब पाठक इन चरों कथनों के मिलान कर देख लें की इनमें सच कितना है और झूठ कितना . म्यू हस्पताल के सर्जन डॉ. पेरी को प्रमाण मानते ही प्रत्येक बुद्धिमानi यह कहेगा कि बाप बेटे के कथनों में ७५ % झूठ है .

 

‘होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार’

ओ३म्

होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत और भारत से इतर देशों में जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं, प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन रंगों का पर्व होली हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। होली के अगले दिन लोग नाना रंगों को एक दूसरे के चेहरे पर लगाते हैं, मिठाई व पकवानों का वितरण आदि करते हैं और कुछ हुड़दंग भी करते हैं। क्या होली का प्राचीन स्वरुप भी वर्तमान जैसा था? इससे कुछ भिन्न था वा यह वर्तमान स्वरूप पूर्व की विकृति वा रूपान्तर है?

 

विचार करने पर ज्ञात होता है कि भारत की धर्म व संस्कृति 1.96 अरब पुरानी है। महाभारत काल, आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व, तक वैदिक संस्कृति अपने मूल स्वरूप में देश देशान्तर में विद्यमान रही। इसका प्रमाण है कि भारत में वेदों के साक्षात ज्ञानी, ऋषि, मुनि व योगी महाभारत काल तक बहुतायत में रहे हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि न भारत में और न हि विश्व के किसी अन्य देश में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व की किसी अन्य धर्म, संस्कृति का कोई प्रमाण मिलता है। महाभारत ग्रन्थ में ऐसे अनेक प्रमाण है कि प्राचीन काल में भारत के लोग विश्व वा यूरोप के प्रायः सभी देशों में आते जाते थे। मनुस्मृति ग्रन्थ सृष्टि के आदि में रचा गया जिसमें वर्णन है कि यह आर्यावर्त्त देश ही संसार का अग्रजन्मा देश है। संसार के सभी देशों के लोग यहां विद्यार्जन करने आते थे और अपने योग्य चरित्र आदि की शिक्षा लेते थे। यहां से वेदों आदि व सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने देश में उसका प्रचार व उपयोग करते कराते थे।

 

वेद मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए ईश्वरोपासना सहित पंचमहायज्ञों का विधान करते हैं। इन पंच महायज्ञों में मनुष्यों के अनेक व अधिकांश कर्तव्य आ जाते हैं। वैदिक धर्म व संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को मानने वाली संस्कृति है। यहां सभी लोग सृष्टि के आदि काल से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। की प्रार्थना करते आ रहे हैं। अतः आज जैसी होली महाभारतकाल तक भारत व विश्व में कहीं होने की कोई सम्भावना नहीं है। अनुमान है कि वर्तमान जैसी होली का प्रचलन मध्यकाल में पुराणों की रचना से कुछ समय पूर्व व रचना होने से प्रचलित हुआ। प्राचीन काल में तो प्रत्येक माह पूर्णमास पर बड़े-बड़े यज्ञों का प्रचलन होने का अनुमान होता है। वृहत यज्ञों के उस प्राचीन स्वरूप का अनुसरण ही मध्यकाल से प्रचलित होकर वर्तमान काल तक फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन रात्रि को होली जलाकर किया जा रहा है। यज्ञ से वायुमण्डल शुद्ध, पवित्र, सुगन्धित व स्वास्थ्यवर्धक होता है। यज्ञ से बादल बनते हैं, समय पर आवश्यकतानुसार वर्षा होती है, अतिवृष्टि वा अनावृष्टि नहीं होती, शुद्ध, पवित्र व स्वास्थ्यवर्धक अन्न उत्पन्न होता है व यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण व दान करने से ऐसे अनेक लाभों सहित हमारे अन्दर पाप की प्रवृत्ति का भी शमन होता है। इसके साथ अदृष्ट धर्म लाभ भी होता है जिससे हमारा वर्तमान, भविष्य, परजन्म सुधरता है व अच्छे कर्मों के सग्रंह से मोक्ष की प्राप्ति की ओर जीवात्मा प्रवृत्त होता है।

 

फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाये जाने का एक कारण यह भी है कि भारत में सृष्टि के आदि काल से प्रचलित चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आषाण आदि बारह हिन्दी महीने जो चैत्र से आरम्भ होकर फाल्गुन की पूर्णिमा को समाप्त होते हैं, उनमें फाल्गुन पूर्णिमा वर्ष का अन्तिम दिन होता है। आज हिन्दी के बारह महीनों का अन्तिम महिना फाल्गुन का अन्तिम दिन है। एक प्रकार से वर्ष का अन्त हो रहा है। कल से चैत्र का महीना आरम्भ होगा। यह वर्ष का पहला महीना होता है। अतः वर्ष के अन्त पर वृहत्त यज्ञ का आयोजन कर उसे विदाई दी जाती थी और हो सकता है कि नये वर्ष के प्रथम महीने चैत्र के प्रथम दिन को नये वर्ष के रूप में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता रहा हो। इसका इतना अभिप्राय हो सकता है कि यदि किसी का किसी के प्रति कोई द्वेष भाव होता रहा होगा तो इस दिन उसे छोड़ने का संकल्प लिया जाता होगा व ऐसे लोग परस्पर मिलकर आपस में प्रेम व मैत्री पूर्ण संबंध पुनः स्थापित करने की प्रतिज्ञा करते होंगे। उसी का कुछ विकृत रूप आज एक दूसरे पर रंग लगाकर, गले मिलकर, स्वादिष्ट पदार्थों का परस्पर वितरण करके व रंग डालकर मनाने की परम्परा मध्यकाल व उसके बाद से चल पड़ी है।  ऐसा देखा जाता है कि इस दिन लोग हुड़दंग करते हैं, कुछ नशा करके गलत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं तथा कहीं कहीं परस्पर लड़ाई झगड़े आदि भी हो जाते हैं। वर्तमान का समय शिक्षा व आधुनिकता का युग है अतः सभी को सभ्यता का अच्छा उदाहरण इस दिन प्रस्तुत करना चाहिये।

 

यह भी विचारणीय है कि होली से पूर्व शीत के महीने होते हैं। शीत ऋतु वृद्ध लोगों के लिए तो कष्टकर होती ही है परन्तु साथ हि युवा व बच्चों सहित निर्धन लोगों के लिए भी अति कष्टदायक होती है। अतः ऋतु परिवर्तन से शीत की निवृत्ति व सबके लिए सुखद ऋतु वसन्त के होने पर सबका हर्षित व प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। देश के कृषक लोग भी इस अवसर पर प्रसन्नता व सुख का अनुभव करते हैं क्योंकि उनकी गेहूं व अन्य फसलें पक कर तैयार होती हैं। सारा वातावरण नये नये फूलों की सुगन्ध से सुवासित होता है। सभी वृक्ष अपने पुराने पत्ते-पत्तियों का त्याग कर नये हरे पत्ते धारण करते हैं जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है। इससे सारा वातावरण व उसका परिदृश्य मनमोहक व लुभावना बन जाता है। ऐसे में सामान्य मनुष्य का मन कुछ आमोद प्रमोद की बातों में लगना स्वाभाविक होता है जिसकी अभिव्यक्ति होली के चैत्र कृष्ण प्रथमा के पर्व से होती है। इतना ही निवेदन है कि मनुष्य को जोश के साथ होश भी रखना चाहिये। कहीं किसी के द्वारा इस पर्व पर कोई अमर्यादित बात व कार्य नहीं होना चाहिये। वैदिक साहित्य का अध्ययन कर हमें लगता है कि सभी परिवारों में पूर्णिमा व अगले दिन प्रथमा को अनिवार्य रूप से अग्निहोत्र व हवन का प्रचलन होना चाहिये जिसमें किसान अपनी नई फसल वा गेहूं की बालियों की आहुतियां भी दे सकते हैं जिससे यह पर्व मनाना सार्थक होता है। इस प्रकार यज्ञ पूर्वक होली को मनाना होली का मुख्य प्रतीक बनना चाहिये। इससे लाभ ही लाभ होगा। समाज, पर्यावरण व देश सभी उन्नत होंगे और ईश्वर प्रदत्त प्राचीन वैदिक धर्म व संस्कृति उन्नति को प्राप्त होगी।

 

होली के दिन प्रायः सभी घरों में स्वादिष्ट भोजन व नाना प्रकार के पकवान बनते हैं और लोग परस्पर अपने पड़ेसियों व मित्रों में इसका वितरण व सेवन आदि करते हैं। यह अच्छी प्रथा है। लेख को विराम देने से पूर्व इतना और निवेदन है कि इस दिन सभी समर्थ व सम्पन्न लोगों को समाज क निर्धन व साधनहीन लोगों तक अपनी ओर से उनके उपयोग की कुछ वस्तुयें वितरित करने का प्रयास करना चाहिये और उनको आगे बढ़ाने का कुछ सहयोग किया जा सके तो इसका विचार करना चाहिए। आज होली के दिन हमने कुछ क्षण जो चिन्तन किया है, उसे आपको सादर भेंट करते हैं और सभी बन्धुओं व मित्रों को हमारी होली के पर्व की बहुत बहुत शुभकामनायें हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

माता भगवती का इतिहास में स्थानः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माता भगवती का इतिहास में स्थानः

किसी ने यह रिसर्च आर्यसमाज पर थोप दी कि ‘‘होशियारपुर की लड़की भगवती……’’। पता लगने पर प्रश्नकर्त्ता का उत्तर देते हुए इस विनीत ने परोपकारी में लिखा कि माता भगवती लड़की नहीं, बड़ी आयु की थी। उसे सब माई भगवती या माता भगवती कहा व लिखा करते थे। मेरा लेख छपते ही मेरे कृपालु नई-नई रिसर्च व नये-नये प्रश्नों के साथ इस सेवक व परोपकारी को लताड़ने लग गये। कुछ पत्रों के कृपालु सपादकों ने मेरा उपहास-सा उड़ाने वाले लेख छापे। मैं ऐसे पत्रों का आभारी हूँ। सपादकों को धन्यवाद!

पूज्य पं. हीरानन्द जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, नारी शिक्षण के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनी जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी प्रेम के मुख से माता भगवती के बारे में जो कुछ सुना, वही तथ्य रखे। दीवान जी, मेहता जी व महाशय जी माता भगवती के क्षेत्र के प्रमुख आर्य कर्णधार रहे। मैंने हरियाणा के समीप जालंधर में शिक्षा पाई। जहाँ इतिहास के बारे कोई समस्या हो, कुछ पूछना हो तो देश भर से नित्य पाँच-सात प्रश्न मुझसे पूछे जाते हैं। बड़े खेद की बात है कि हठ व दुराग्रह से अकारण मेरे प्रत्येक कथन को जिहादी जोश से चुनौती दी गई। चलो! इनका धन्यवाद! ‘इतिहास प्रदूषण’ पुस्तक में यदि प्रदूषण के सप्रमाण दिये गये तथ्यों को कोई झुठला पाता तो मैं मान लेता।

विषय से हटकर वितण्डा किया जा रहा है। माता भगवती लड़की नहीं थी। बड़ी आयु की बाल विधवा थी। विषय तो यह था। एक भद्रपुरुष ने बाल विधवा होने को विवाद का मुद्दा बना लिया। संक्षेप से कुछ जानकारी मूल स्रोतों के प्रमाण से देता हूँ। उन स्रोतों को इस टोली ने देखा, न पढ़ा और न इनकी वहाँ पहुँच है-

  1. माता भगवती का चित्र मैं दिखा सकता हूँ। वह एक बड़ी आयु की देवी स्पष्ट दिख रही है। लड़की नहीं।
  2. वह तब 38-39 वर्ष की थी, जब उसने ऋषि-दर्शन किये। तब 38 वर्ष की स्त्रियाँ दादी बन जाती थीं। श्री इन्द्रजीत जी ने अपने लेख में माई जी के जन्म का वर्ष दे दिया है।
  3. मेरे पास माई जी के निधन के समय लिखा गया महात्मा मुंशीराम जी का लेख है। इससे बड़ा क्या प्रमाण किसी के पास है?
  4. महात्मा जी ने पत्र-व्यवहार में माई जी के लिए ‘श्रीमती’ शब्द का प्रयोग किया है। पुराने पत्रों के समाचारों में कई बार उसके लिए श्रीमती शब्द का प्रयोग हुआ है। जो भी चाहे मेरे पास आकर देख ले।
  5. माई जी के निधन पर पंजाब सभा ने ‘माई भगवती विधवा सहायक निधि’ की स्थापना की। देश भर के आर्यों ने उसमें आहुति दी। इससे बड़ा उसके बाल विधवा होने का क्या प्रमाण हो सकता है। उसके पीहर की, भाई की, माता की, जन्म की, कुल की, चर्चा की जाती है, पर उसकी सन्तान की, सास, ससुर व पति की, ससुराल के नगर, ग्राम की कोई चर्चा? ‘श्रीमती’ शब्द के प्रयोग को कोई झुठला कर दिखाये? ‘माता’ शब्द का प्रयोग भाई जी के प्राप्त एकमेव साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में स्पष्ट मिलता है। यहाी इन्हें नहीं दिखाई देता। ‘लड़की’ मानने की रिसर्च तो छूटी, अब बाल विधवा नहीं थी, इस रट पर इनका महामण्डल आगे क्या कहता है, पता नहीं।
  6. महात्मा मुंशीराम जी के सपादकीय (श्रद्धाञ्जलि) के प्रथम पैरा में लिखा है कि माई जी ने अपने पीहर में-माता-पिता के घर हरियाणा में प्राण त्यागे। बाल विधवा नहीं थी, तो पतिकुल में अन्तिम श्वास क्यों न लिया? माता भगवती के भाई राय चूनीलाल की चर्चा तो पत्रों में मिलती है, पर पति कुल की कोई चर्चा नहीं। अब पाठक माई जी पर लिखित मेरी पुस्तिका (उनके जीवन चरित्र) की प्रतीक्षा करें। मुझे और कुछ नहीं कहना। फिर निवेदन करता हूँ कि माई जी के जीवन काल में मेहता जैमिनि, दीवान बद्रीदास जी, ला. सलामतराय की दो आबा, पंजाब में घर-घर में धूम मची रहती थी। मैंने इन सबके जी भरकर दर्शन किये। मेरे अतिरिक्त और कोई पंजाब में इनको जानने वाला नहीं। पं. ओम्प्रकाश जी वर्मा ने भी इन सबको निकट से देखा।

यम-यमी का वैदिक स्वरूप -शिवदेव आर्य

प्रत्येक मनुष्य समाज को एक नई दिशा व दशा देने की पूर्णरूपेण योग्यता रखता है।अब दिशा व दशा कैसे हो, यह दिशा व दशा दिखाने वाले पर आश्रित है, वह अपने ज्ञान के आलोक से मार्गप्रशस्त करता है अथवा ज्ञान के आलोक के अभाव में सत्य मार्ग से हटा कर असत्य मार्ग का अनुसरण कराता है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशवाॅं सूक्त यम-यमी सूक्त है। इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृध्दि सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक अथर्ववेद (18/1/1-16)  में दृष्टिपथ होते हैं, अब विचारणीय है कि- यम-यमी क्या है? अर्थात् यम-यमी किसको कहा । इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भाई-बहन का इतना अश्लीलता परक अर्थ करके पाश्चात्य विद्वानों तथा पाखण्डियों को वेदों पर आक्षेप करने का अवसर प्राप्त करा दिया। इस अश्लील परक अर्थ को कोई भी सभ्य समाज का नागरिक कदापि स्वीकार नहीं कर सकता है।

प्रो. मैक्समूलर के मत में यम-यमी कोई मानवीय सृष्टि के पुरुष न थे किन्तु दिन का नाम यम और रात्री का नाम यमी है इन्हीं दोनों से विवाह विषयक वार्तालाप है। इस कल्पना में दोष यह है कि जब यम और यमी दोनों दिन और रात हुए तो दोनों ही भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं। इससे यहाॅं इनको रात्री तथा दिन रूप देना सर्वथा विरु( है।

अनेक भारतीय लेखकों ने भी इन मन्त्रों के व्याख्यान को अलंकार बनाकर यम-यमी को दिन-रात सिद्ध किया है, इनके मत में भी कथा सर्वथा निरर्थक ही प्रतीत होती है, क्योंकि न कभी दिन-रात को विवाह की इच्छा हुई और न कोई इनके विवाह के निषेध से अपूर्वभाव ही उत्पन्न होता है। आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वानों को भी इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं।

आचार्य यास्क जी ने ‘यमी’ का निर्वचन लिंभेद मात्र से ‘यम’ से माना है। ‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात् यम को यम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों को नियन्त्रित करता है। पं. चन्द्रमणि जी के अनुसार ‘यम’ प्राण को कहते हैं, क्योंकि यह जीवन प्रदान करता है। (निरु.चन्द्रमणिभाष्य-10/12) निरुक्त भाष्यकर्ता स्कन्दस्वामी जी ने यम-यमी को आदित्य और रात्रि  मानकर (10/10/8) मन्त्र की व्याख्या की है। स्वामी ब्रह्ममुनि यम-यमी को पति-पत्नी, दिन-रात्री और वायु-विद्युत् का बोधक मानते हैं। पं. भगवद्दत्त जी ने यम को अग्नि, आदित्य, वायु, मध्यम तमोभाग तथा यमी से पृथिवी और माध्यमिका वाक् अर्थ ग्रहण किये हैं।

चन्द्रमणि विद्यालप्रार जी ने अपने निरुक्त परिशिष्ट में सम्पूर्ण यम-यमी सूक्त की व्याख्या की है, जो भाई-बहन परक है, किन्तु सहोदर भाई बहन न दिखा कर सगोत्र दिखाने का प्रयास किया है।

किन्तु विभिन्नतत्त्वविद्निष्णातों के भाव को शायद मैं ऋषिवर देव दयानन्द के विचारों से जोड़ने में असमर्थ हो रहा हूॅं, अतः मैं ऋषिवर के पथ का अनुसरण करता हूॅं ऋषि को समझने का प्रयास करता हूॅं यद्यपि ऋषिवर ने इस सूक्त का भाष्य नहीं किया है, पुनरपि सत्यार्थ-प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास के नियोग प्रकरण में इसी सूक्त के मन्त्र को प्रस्तुत किया है। ऋषिवर की उन पंक्तियों को प्रमाण रूप से यहाॅं उद्धृत करना अनिवार्य ही नहीं अपितु प्रसांिक भी होता है।

‘‘जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा कर क्योंकि अब मुझसे सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी।  (चतुर्थसमुल्लास, सत्यार्थ-प्रकाश)

ऋषिवर  की इन पक्तियों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस सूक्त में पति-पत्नि का संवाद है न कि भाई-बहन का। हम स्वामी दयानन्द  कि इन पक्तियों को इसलिए और भी प्रमाण रूप में स्वीकार करेंगे क्योंकि दयानन्द जी एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। जिनके समान वेदों का भाष्य, मन्त्रों का यथार्थ स्वरूप किसी अन्य का प्रतीत नहीं होता।

अब हम व्याकरण कि दृष्टि से यम-यमी शब्द को जानने का यत्न करते हैं। महर्षि पाणिनि के व्याकरण के अनुसार ‘पुंयोगादाख्याम्(अष्टा.-4/1/48) इस सूक्त से यमी शब्द में ङीष् प्रत्यय हुआ है। इससे ही पत्नी का भाव द्योतित होता है। यदि यम-यमी का अर्थ भाई-बहन लिया जाता तब यम-यमा ऐसा प्रयोग होना चाहिए था, जबकि ऐसा प्रयोग नहीं है। जैसे हम लोकव्यवहार में देखते हैं कि आचार्य की स्त्री आचार्याणी, इन्द्र की स्त्री इन्द्राणी आदि प्रसिध्द है न कि आचार्याणी से आचार्य की बहन अथवा इन्द्राणी से इन्द्र की बहन स्वीकार की जाती है। ऐसे ही यमी शब्द से पत्नी और यम शब्द से पति स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् यम की स्त्री यमी ही होगी।

सायण के यम-यमी संवाद भाई-बहन का संवाद कदापि नहीं हो सकता। ये तो सायण ने अपनी इच्छानुसार ही कल्पित अर्थ को जन्म दे दिया है। जिसको हम आज भी स्वीकार करते चले आ रहे हैं। इस अर्थ के कारण पाश्चात्य विद्वानों के आक्षेप तथा विधर्मियों के विवाद सदैव हम सबके समक्ष उपस्थित होते रहे हैं। आर्य विद्वान् जो सायण आदि से प्रभावित हुए हैं। वे भी वैसा ही अर्थ कर गए। भाई-बहन का ऐसा पशु तुल्य व्यवहार वैदिक कदापि नहीं हो सकता। मानव समाज में  शिष्टाचार और सभ्यतापूर्वक सम्बन्धों की परम आवश्यकता है। ऋषिवर देव दयानन्द ने जो तिरोहित वेद ज्ञान की ज्योति को पुनर्जीवित किया है। उसके प्रकाश में जो पथभ्रष्ट हो रहे हैं, वे निश्चित ही अंधकार से संलिप्त हैं।

इस सूक्त के ग्यारहवें मन्त्र में भ्राता तथा स्वसा नाम दिये गये हैं। जिसको पढ़ने से कोई भी जन पूर्वापर प्रसंग को समझ सकता है। इस पूर्वापर प्रकरण को देखकर मन्त्रार्थ पर विचार-विमर्श करें तो स्वतः ही भ्रान्ति का निवारण हो जाएगा।

आ घा तो गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।

उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्।। (10/10/10)

इस मन्त्र के माध्यम से सन्तति उत्पत्ति में असमर्थ पति अपनी पत्नी को कहता है कि हे सौभाग्यशालिनी! तू अन्य वीर्यवान् पुरुष के बाहु का सहारा ले और इस प्रकार सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ मुझ पति से अतिरिक्त पति की इच्छा कर।

इस मन्त्र के भाव से यथार्थ स्पष्ट हो जाता है कि इन मन्त्रों में पति-पन्ति परक अर्थ का ही ज्ञान करना चाहिए। क्योंकि इससे अगले ही मन्त्र-

किं भ्रातासद्यदनायं भवाति किमुस्वसा किमुस्वसा यर्‍ॠनटी तिर्निगच्छात्‍।

काममूता बह्‍वे तद्रपामि मे तन्वं सं पिपृग्धि॥ ( 10/10/11)

इन मन्त्र की व्याख्या में पत्नी पति की भर्त्सना करती हुयी कहती है कि- क्या अब मै तुम्हारी पत्नी न होकर बहन हो गई हूॅं। क्या तुम मेरे पति न होकर भाई हो, जो मैं अन्यत्र चली जाऊॅं।

इससे अगले मन्त्र अर्थात् 12 वें मन्त्र में यम के उत्तर से सम्पूर्ण सूक्त की यर्थाथता समझी  जा सकती है। मन्त्र इस प्रकार है –

न वा उ ते तन्वा सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्।

अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत्।। (10/10/12)

इस मन्त्र में पति कहता है कि – जब मैं असमर्थ हो तुझे दूसरे पति से नियोग की आज्ञा दे दी तो तू मेरी बहन समान हुयी और मैं तेरा भाई समान। अतः मैं तूझे आदेश देता हूॅं कि तू मुझ से अन्य श्रेष्ठ पुरुष का समागम कर।

जो सायण आदि ने भाई-बहन परक अर्थ किया है, शायद वह इस मन्त्र भाव को न समझ कर किया होगा।

इस सूक्त में अलंकारिक वर्णन किया गया है। यह सर्वथा ज्ञात रहे कि यम-यमी मानुषी सृष्टि के स्त्री या पुरुष नहीं हैं, यहॉं नियोग प्रकरण को समझाने के लिए यम-यमी को पति-पत्नी का रूप दिया गया है।

यह सम्पूर्ण कृत नियोग पध्दति का है। सामान्य स्थिति के लिए यह पध्दति नहीं है। नियोग के समस्त नियम-उपनियम व अधिकार स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ सम्मुल्लास को देखें।

पूर्वापर मन्त्रार्थ की संगति से स्पष्ट हो जाता है कि भ्राता तथा स्वसा इन दोनों शब्दों का वहॉं पर क्या भाव है और सम्पूर्ण सूक्त की संगति पति-पत्नी परक मन्त्रार्थ ही सत्य ही प्रतीत होता है अन्यार्थ तो बस लोगों की कल्पनामात्र ही प्रतीत होती है।

-शिवदेव आर्य

गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

मो.-08810005096

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One  of the main topic out of that is ” Yam Yami Sukt” . They have used it as a tool to show adultery in vedas.  Lets read this article to know the what does :Yam Yami sukt  actually means

 

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