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गीता महाभारत का नवनीत : बी.के. श्रीवास्तव

श्रीमद्भगवद्गाीता का भारतवर्ष के पौराणिक विद्वानों में बहुत मान्य है। भारत के प्रसिद्ध विद्वानों एवं सम्प्रदाय आचार्यो (द्वैत अद्वैत षुद्धाद्वैत विषिष्टाद्वैत ) ने अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार अनेक प्रकार के भाष्य गीता पर किये हैं। सभी पौराणिक टीकाकार जो गीता के समर्थक रहे हैं उनको गीता के कृष्ण ईष्वर के अवतार के रूप में मान रहे हैं। अतः उन्हें गीता के अन्दर कुछ भी प्रक्षिप्त या अस्वाभाविक दृष्टिगोचर नही हुआ। क्योंकि गीता उनके लिए वस्तुतः ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ (श्रीमान भगवान विष्णु यानी उनके अवतार कृष्ण के द्वारा गाई गयी – कही गई ही थी ) इस विषय में एक कथा भी प्रचलित है कि महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले अर्जुन अपने बन्धु-बान्धव के मोह मे फंसकर युद्ध से विमुख हो गया था। उसे समझाने के लिए ही कृष्ण ने जो उपदेष दिया वही गीता के रूप में प्रसिद्ध हुआ है। इसी आधार पर गीता को वेदादि षास्त्रों से अधिक मान्यता दी जाती है।
गीता के महत्त्व विषयक निम्न ष्लोक प्रसिद्ध भी हैः-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै षास्त्र विस्तरै।
या स्वयं पदमानाभस्य मुखपदमाह विनिःसृता।
अर्थ- गीता की ठीक से चर्चा करनी चाहिए, अन्य षास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन। गीता स्वयं विष्णु (कृष्ण)के मुख से निकली है।
इस ष्लोक का पद्मनाभ षब्द गीता को वेदो से उत्तम बताने का प्रयत्न करता है। विष्णु के नाभि से कमल निकला कमल से ब्रम्हा उत्पन्न हुए और ब्रम्हा के मुख से वेदो का जन्म हुआ। इस प्रकार वेदों का ब्रम्हा से परम्परा सम्बन्ध है जबकि गीता स्वयं उन्हीं के मुख से उच्चारित है। इस बात को इसी रूप मे मान लिया जाये तो गीता का रचना काल द्वापर सिद्ध होता है। आधुनिक विद्वान की भाषा मे कहा जाये तो गीता का रचना आज से पांच हजार वर्ष पहले हुई ।परन्तु यदि बुद्धि का थोड़ा सा प्रयोग करते हुए ध्यानपूर्वक महाभारत का अध्ययन किया जाये तो कोई भी इस निष्कर्ष मे पहुचे विना नही रहेगा कि गीता का न तो श्रीकृष्ण से कोई संबंध है, न ही व्यास मुनि महाभारत से , बल्कि यह सर्वथा काल्पनिक है- इसके कई कारण है।
गीता और श्री कृष्ण
(अ) ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी समय पद्यबद्ध बातचीत का चलन इतिहास मे सिद्ध नही होता। अतः गीता स्वयं पद्मनाभ विष्णु के मुख से निकली यह तो किसी प्रकार कहा ही नही जा सकता। हां यह हो सकता है कि किसी अन्य ने कृष्णार्जुन संवाद ही गीता का वर्तमान रूप दिया हो।
(आ) यदि यह भी मान लिया जाये कि गीतोक्त कृष्णार्जुन संवाद पद्यबद्ध न होकर गद्य मे ही हुआ था, बाद मे किसी अन्य ने गद्य मे व्यक्त भावों को पद्यबद्ध रूप दे दिया तो यह भी नही माना जा सकता क्योंकि युद्धभूमि मे इतना समय कहां था कि 700ष्लोको का वार्तालाप चलता रहता जिसमे कि कम से कम चार घण्टे यानी कि लगभग सवा प्रहर से कम का समय नही लग सकता था।
(इ) गीता का कथानक प्रारम्भ होता है महाभारत युद्ध के पूर्व से। अब यदि युद्ध के पहले दिन की घटनाओं पर ध्यान दे तो मालुम होता है कि गीता के इतने लम्बे और उबाऊ उपदेष के लिए समय बिल्कुल नही था क्योंकि दोनो सेनाओं ने संध्या हवन करके व्यूह रचना की। कौरव सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। अर्जुन ने उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकरषान्त किया। फिर अर्जुन व्यतमोह और गीता का लम्बा उपदेष चला । अर्जुन के तैयार हो जाने के बाद युधिष्ठिर युद्ध की अनुमति लेने के लिए पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य तथा षल्य नरेष के पास गये। बाद मे दोनो सेनाओ ने दो प्रहर तक युद्ध किया।
यहां ध्यान रखने योग्य तथ यह है कि महाभारत का युद्ध अगहन-पूष मे हुआ था जबकि दिन बहुत ही छोटा होता है- लगभग सवा तीन प्रहर का । इसमे से युद्ध के दो प्रहर निकाल दिए जाये तो सवा प्रहर ही बचता है। जो संध्या हवन जैसे आवष्यक कर्म करने, अपनी अपनी सेना के व्युह रचना करने , कौरवो की व्यूह रचना देखने युधिष्ठिर के घबरा जाने, अर्जुन द्वारा उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकर उन्हें समझाने व षान्त करने पितामह भीष्म व अन्य आचार्य जनों के पास युद्ध के लिए अनुमति लेने हेतु जाने वहां से लौटकर आने आदि कर्मों के बाद षेष समय तो गीता जैसे लम्बे उपदेष के लिउ कतई पर्याप्त नहीं।
गीता और महर्षि व्यास
परन्तु निम्न तर्क और प्रमाण महर्षि व्यास को भी गीता का रचयिता नही मानने देते ।
(अ) गीता को गहराई से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि गीता महर्षि व्यास की रचना नही है। क्योंकि जिस महर्षि व्यास के महाभारत का गीता नवनीत बतीई जाती है वह एैतिहासिक महाकाव्य है। जिसने कौरव पाण्डवों और उनके पूर्वजों, बन्धु-बान्धवों, इष्ट मित्रों, सम्बन्धियों आदि सभी के जीवन मरण यष अपयष, उत्थान पतन, कुषल अकुषल अच्छे बुरे सभी कामों का विसद वर्णन है, परन्तु गीता के 18 अध्यायों में प्रथम अध्याय के कुछ ष्लोकों को छोडकर सेष सम्पूर्ण गीता ऐतिहासिक घटनाक्रम से रहित दार्षनिक उहापोह से भरी पड़ी है जैसे आत्मा की अमरता, ज्ञानयोग, कर्म संन्यासयोग, योनियों की परिभाषा, यज्ञों का वर्णन, सकाम-निष्काम कर्मों का विवेचन, ध्यान योग प्रकार,योगभ्रष्ट लोगों की गति, देवता उपासना, देवी व आसुरी सम्प्रदाय वालों की विवेचन ,षुक्ल व कृष्ण मार्ग, जगत की उतपत्ति का वर्णन, सकाम निष्काम, उपासना का विष्लेपण, निष्काम कर्म की प्रषंसा, विष्वरूप दर्षन, साकार उपासना की प्रषंसा, प्रकृती पुरुष की व्याख्या, जीवात्मा की विवेचना, संसार वृक्ष का कथन, सत्त्व रज तम का विवेचन, श्री कृष्ण ही परमेष्वर है, वह ओमवाची हैं, यज्ञों से भी केवल वही प्राप्तव्य हैं, वेदों में भी उन्हीं की प्रषंसा है, वर्ण धर्मो का कथन, योग्याभ्यास करने का प्रकार, ब्रम्हाज्ञानी को अक्षय सुख की प्राप्ती, मुक्त जीवों का भिन्न भिन्न लोको से लौटना केवल कृष्ण लोक से न लौटना, कर्मफल त्याग की प्रषंसा, चार प्रकार के भक्तों का वर्णन, अन्य अन्य देवो की उपासना की निन्दा, क्षेत्र क्षेत्रिज्ञ के स्वरूप का कथन परमात्मा की एकता निरुपण, परमेष्वर का सगुण निर्गुण स्वरूप कथन, आत्मा को अकर्ता और गुणहीन जानने से भगवत् प्राप्ती आदि पचासों विषयों का उपदेष श्रीकृष्ण अर्जुन के वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसका कि इतिहासिकता से दूर का भी संबंध नहीं है।
जहां तक दार्षनिकता का प्रष्न है भरतीय वैदिक परम्परा में 6 दर्षन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। सांख्य, योग, वैषेसिक, पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा (जिसे ब्रह्मसूत्र या वेदांन्त दर्षन भी कहते है) इस वेदांत दर्षन के रचयिता भी महर्षि व्यास ही हैं। इसके साथ साथ योग दर्षन के भाष्यकार भी महर्षि व्यास ही हैं इतनी उच्च कोठि का विद्वान ऋषि ऋषि ही नही महर्षि गीता जैसी निम्न स्तर की पुस्तक की रचना करे। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति मानने को तैयार न होगा। गीता के अधिकांष दार्षनिक विचार वेद विरोधी है। जबकि वेदांत दर्षन सर्वथा वेदानुकूल है।
वेदों मं जिस परमेष्वर की व्याख्या की गई है। गीताकार उसके विपरीत भी श्रीकृअण को ईष्वर माना है। जीवात्मा भी विवेचना भी वेद विरुद्ध है, ईष्वरावतार की कल्पना भी गीता की सर्वथा अवैदिक तर्क एवं बुद्धि के विरुद्ध है, देवतावाद एवं स्वर्ग नर्क की मान्यता एवं मोक्ष के सिद्धान्त पर भी गीता का पक्ष वेद विरुद्ध है। वेदों के स्वरूप पर भी गीताकार का पक्ष प्रत्यक्ष के विरुद्ध है। गीताकार वेदों को ईष्वर एवं अध्यात्म विषय से रहित केवल भोतिक जगत की व्याख्या करने वाला स्वीकार करते हैं। गीता सब धर्म अधर्म के बखेड़ो को त्यागकर केवल श्रीकृष्ण जी की षरण मे जाने मात्र से पाप नाष व मोक्ष दिलाने की बात कहती है जो सर्वथा मिथ्या है। गीता को पढ़ने या सुनने मात्र से पाप नाष होना व सदगति गारण्टी देना गीता की मिथ्या प्रलोभन मात्र है जैसे की रामायण, भागवत, हनुमान चालीसा व गंगा आदि के महात्म्य लेखको ने अपने अपने ग्रन्थों के प्रचार के लिए लिखे हैं। ।
इस प्रकार गीता दर्षनकार व्यास की रचना न होकर किसी पौराणिक कालीन संस्कृति कवि की रचना प्रतीत होती है। जिसमें उस युग के सभी अंध विष्वास प्रविष्ट हैं। जैसे अवतारवाद, जातीवाद, साकारोपासना, बहुदेवतावाद, भाग्यवाद, आदि आदि। यहां तक कि गीता के कृष्ण अपने आप को जुआ बनाने मे भी नही लजाते।
(इ) इतिहास को ध्यान में रखकर विचार करें तो महर्षि व्यास महाभारतकालीन महापुरुष हैं जिसे आज लगभग 5000 से कुछ अधिक समय हो चुका है। जबकि गीता का रचनाकाल आठवी षताब्दी से पहले का नही ठहरता। गीता की प्राप्त टिकाओं में सबसे प्राचीन टीका श्री षंकराचार्य जी की है। श्री षंकराचार्य जी का काल भी विद्वानों द्वारा आठवी षताब्दी ही मान्य है। गीता की प्राप्त प्रतियों में भी कोई प्रति आठवीं षताब्दी से पूर्व प्राप्त नही होती इस प्रकार से गीता को महर्षि व्यास की रचना बताना यह सरासर उनके साथ अन्यान हां यह पौराणिक काल की रचना तो हो सकती है जैसा कि उपर दर्षाया जा चुका है और सह भी सम्भव हो सकता है कि इस प्रचारित करने की दृष्टि से उसके लेखक ने महर्षि व्यास के नाम का सहारा लिया हो जिससे कि खोटा सिक्का चलन में आ जाये
(ई) यदि दुर्जनतोष न्याय से मान भी लिया जाये कि गीता महर्षि व्यास की ही रचना है।तो प्रष्न उपस्थित होता कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के जिन बौद्ध विद्वानों ने नाम ले लेकर ब्राम्हण धर्म के ग्रन्थों का खण्डन किया है उनमे से किसी मे भी गीता का नाम नही लिया इससे ज्ञात होता है। कि उस समय या तो गीता थी नही और यदी थी तो उसे कोई मान्यता प्राप्त नही थी ।
केवल बौद्ध साहित्य ही नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ पंचतंत्र जिसमें कि सभी प्रसिद्ध एवं प्रचलित अच्छी अच्छी पुस्तकों के ष्लोक उद्धूत किये गये हैं।
उसमें भी गीता का एक भी ष्लोक नही है। आजकल जो पंचतंत्र प्रचलित है उसे पांचवी षताब्दी में संग्रहित किया गया है।
इससे सिद्ध होता है कि गीता कोई प्राचीन रचना न होकर आर्वाचीन रचना है। तथा महर्षि व्यास से इसका कोई संबंध नही है
गीता और महाभारत
अब हम यह देखने का प्रयास करेगे कि गीता महाभरत का भी अंग है या नही । आगे कुछ भी लिखने से पूर्व में अपने पाठको से निवेदन करना चाहूगां कि अब तक के तर्क और प्रमाणों के लिए तो महाराज श्रीकृष्ण और महर्षि व्यास को सक्षात् उपस्थित करना मेरे बष की बात न थी लेकिन अब बात महाभारत की है जो कि बाजार मे उपलब्ध होता है। गीता का सबसे बड़ा्र प्रचारक गीता प्रेस गोरखपुर है जिस गीता को महाभारत का नवनीत बताया जाता है वह महाभारत भी 6 खंड़ो में यही से प्रकाषित होता है। इसका तृतीय खण्ड हाथ में लेकर देखने का कष्ट करें कि इसमे दिये भीष्म पर्व को इस प्रतिज्ञा के साथ ‘ सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने मे सदा उद्यत रहेगे’ तो स्वयं पता लग जायेगा कि गीता की सही स्थिति क्या है।
अ. महाभारत के भीष्मवर्प के अध्याय 25 से लेकर अध्याय 42 तक वाला भाग गीता कहलाता है। 23 वे अध्याय दुर्गा स्त्रोत है। 24वे में संजय धृतराष्ट संवाद है।43 वे अध्याय के प्रथम 6 ष्लोको में गीता का महात्म्य है। अब यदि इन सबको निकालकर 22 वें अध्याय के साथ 43वे अध्याय के सातवें ष्लोक का पढ़ा जाये तो कथानक में कोई अन्तर नही आता । न कथानक का सूत्र टूटा हुआ लगता हैः- देखिए (भीष्मपर्व अ. 22 ष्लोक 14 से 16 तक ) उस समय सेना के मध्य में खढे हुए निद्राविजय राजकुमार दुर्जयवीर अर्जुन से कृष्ण ने कहा
ये जो अपनी सेना के मध्य में स्थित रोष से तप रहे हैं तथा हमारी सेना कि ओर सिंह की भांति देख रहे हैं जिन्होने 300 अष्वमेघ यज्ञ किये है। ये कौरव सेना महानुभाव भीष्म को इस प्रकार ढके हुए हैं जिस ्रपकार बादल सूर्य को ढक लेते हैं। हे नरवीर अर्जुन ! तुम इन सेनाओं को मारकर भीष्म के साथ युद्ध की अभिलाषा करो। (भीष्मपर्व अध्याय 43ष्लोक 6-7)
अर्जुन को धनुष बाण धारण किये देखकर पाण्डव महारथियों सैनिको तथा उनके अनुगामी सैनिको ने सिंहनाद किया, सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक षंख वजाये ।
यहां विचारणीय तथ्य यह है कि क्या किसी ऐतिहासिक लेखक की रचना में से एैसा होना संभव है कि उसके 20 अध्याय हटाने पर भी कथानक पर कोई प्रभाव न पड़े। मैं समझता हूं कि डा.सा.भी. ऐसा कोई उदाहरण न कर पायेगे जनसाधारण की तो बात ही क्या है। इसका सीधा अर्थ है कि गीता की रचना न तो श्रीकृष्ण ने की, न महर्षि व्यास ने बल्कि किसी अन्य ने इसे रचकर बाद में महाभारत घुसेड़ दिया है।
(आ) महाभारत के भीष्म पर्व मे गीता के कुल ष्लोक संख्या संबंधी निम्न ष्लोक प्राप्त होता है। :-
षट्षतानि सविंषानि ष्लोकानि प्राह केषवः
अजर्ुूनः सप्त पंचाषत सप्तषष्टिस्तु संजयः
धृतराष्टःष्लोकमेकं गीतायाः मानमुच्यते।
जिसके अनुसार 620ष्लोक कृष्ण ने कहे 57 अर्जृन ने कहे 67 संजय ने कहे और 1 धृतराष्ट ने कहा इस प्रकार गीता के ष्लोक की संख्या 745 बैठती है। जबकि वर्तमान मे प्राप्त गीता मे 700ष्लोक ही पाये जाते हैं जिनका विभाजन इस प्रकार है। कृष्ण ने 574 अर्जुन ने 86 संजय ने 39 और धृतराष्ट ने 1 ही कहा है।
इससे स्पष्ट है कि आजकल प्रचलित गीता महर्षि व्यास कृत नही है न महाभारत का अंग है क्योंकि इसमें पात्रो के बोलने के मात्रा मे भी परिवर्तन दिखाई देता है। यवगीता वास्तव मे इतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होता तो इसकी मौलिकता सुरक्षित रखने के लिए अर्थात घटा बढी रोकने के लिए कढ़े कदम उठाये जाते। जैसे की वेदो की सुरक्षा के लिए स्वर ,पद , क्रम, घन, जटा, माला, आदि अनेक प्रकार के पाठ चलाये गये थे ।
(इ) जिस प्रकार गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन व्यामोह का वर्णन है उसी प्रकार महाभारत में अर्जुन से बहुत पहले युधिष्ठिर व्यामोह का वर्णन है जिसमे अर्जुन ने युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से समझाया, तब कहीं वह षांत हुए। यदि गीता के रचयिता महर्षि व्यास ही होते या गीता महाभारत का ही अंग होती तो वह अर्जुन को समझाते समय कृष्ण द्वारा यह बात अवष्य कहलाते कि ” भले मानुष ! अभी तो तू अपने भाई को समझा रहा था अब स्वयं बहक गया। पर गीता मे इसका कोई संकेत नही है। इससे भी संकेत मिलता है कि गीता महाभारत का अंग नही है। न दोनों काले एक है।

(ई) अर्जुन ने युद्ध न करने के जो कारण बताए उनमे से एक यह भी है कि :7
हे मधुसूदन! मैं युद्ध मे भीष्म और द्रोण को बाणो से कैसे मारूंगा ये दोनो तो मेरे पूज्य हैं।
यदि गीता महाभारतकार महर्षि व्यास की ही रतचा होती तो वह पहले के उस युद्ध को न भूल जाते जहां विराट की गायें छिनने के प्रसंग मे अर्जुन ने इन्हीं पूज्योुं को मार मारकर बेहाल कर दिया था परन्तु गीता मे अर्जुन को समझाने के लिए ऐसा कोई संकेत इधर नही किया गया है। वस्तुतः अर्जुन को तों स्वयं ही यह बात करनी नही चाहिए था कि क्या उस दिन ये लोग पूज्य नही थे। पर दोनो ही इतनी बड़ी घटना भूले रहे जो सिद्ध करता है कि गीता महाभारत का अंष नही अन्यथा इसे पूर्व मे हुए युद्ध का ध्यान अवष्य रहा होता।

(उ) गीता के 11 वे अध्याय मे इस बात का वर्णन आता है कि जब श्रीकृष्ण ही बात नही मानी तो उन्होने अपना विराट रूप् दिखाया और बाद में श्रीकृष्ण ने अहसान जतातु हुए कहा कि ” हे अर्जुन! मैने प्रसन्न होकर आत्मयोग से यह रूप तुझे दिखाया है। मेरा यह आदि अन्त सीमा से रहित तेजोन्मय रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है।
अब विचारनीय बात यह है कि यहि गीता और महाभारत एक ही व्यक्ति की रचनाये होती तो वह उस प्रसंग को कैसे भूल जाता जब श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप् दिखाकर दुर्योधन को अभिभूत किया थौ इसका सीधा अर्थ यह है कि गीता महाभारत का अंग नही है। यदि गीता श्रीकृष्ण का उपरोक्त कथन कैसे संगत हो सकता है।
(ऊ) महाभारत मे छोटी बड़ी दर्जनों गीताय भरी पड़ी है।जिन्हे किसी न किसी बहाने घुसेड़ा गया है हम यहां केवल अनुगीता कीी बात करेंगे जो इस बात का प्रइल प्रमाण है कि महाभारत मे इस प्रकार की गीताओं को घुसेरने के लिए किस प्रकार से बयानवाजी से काम किया गया है। और ये गीताये महाभारत का अंग नही है।
महाभारत के अष्वमेघ पर्व मे (अ. 16ष्लोक 57 ) मे श्रीकृष्ण जब द्वारका चलने लगे तो उनसे अर्जुन ने कहा ”हे देवतीनन्दन महाबाहु ! महाभारत युद्ध के समय मुझे आपके महात्मय और ईष्वरीय रूप का ज्ञान हुआ था। आपने मित्रतावष जो भी ज्ञान मुझे उस समय दिया वह मै भूल गया उसको दोबारा सुनना चाहता हूं आपषीर्घ ही द्वारका जाने वाले हैं एक बार गीता का वह उपदेष फिर से सुनाते जाइये।

यह सुनकर पहले तो श्रीकृष्ण अर्जुन पर बहुत बिगड़े फिर असमर्थता जताते हुए बोले तो उसे तो मै भी भूल गया, वह ज्ञान तो तुम्हे योगयुक्त होकर तुम्हे सुनाया था। अब उसे फिर से दोहराना संभव नही लो तुम्हारा काम चलाने के लिए दूसरा इतिहास बताता हूं।
इसके बाद जो उपदेष हुआ उसका नाम अनुगीता है। वक्ता और श्रोता दोनो एक नम्बर के भुलक्कड़ निकले।
इस प्रकरण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि अनुगीता के महाभारत मे मिलाने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण के भुलक्कड़पन का बहाना करने वाला विद्वान यह भूल ही गया कि जब अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनो ही गीता को भूल गये थे तो बाद में इसका प्रचार कैसे हुआ क्योकि अर्जुन और श्रीकृष्ण की बात के समय कोई भी उपस्थित नही था, संजय की दिव्य दृष्टी भी वहां सहायता नही कर सकती थी। क्योकि दृष्टि से सुनने का काम नही लिया जा सकता । महाभारत के अनुसार दिव्यदृष्टि वाली बात गलत है क्योंकि उसमे संजय द्वारा धृतराष्ट को प्रत्यक्ष देखी बात का उल्लेख है।(देखिए भीष्म पर्व अ. 13ष्लोक 1-2) इससे सिद्ध होता है कि महाभारत का गीता से कोई संबंध है।
एक ओर भी बात विचारणीय है – और वह यह की महाभारत और गीता की पुष्पिकाओं मे भी अन्तर है। यदि गीता महाभारत की ही भाग होती तो इसकी पुष्पिकाये भी महाभारत की भांति होनी चाहिए। परन्तु ऐसा नही है महाभारत के अध्यायों के अन्त मे जो पुष्पिकाये दी गई हैं वे गीता के अध्यायों के अन्तवाली पुष्पिकाओ से भिन्न है। महाभारत में नाम केवल पर्वों के है – अध्यायों के नही जबकि गीता के प्रत्येक अध्याय का नाम अलग अलग दिया गया है। गीता के पुष्पिकाओं मे उसे स्पष्ट रूप् से उपनिषद या ब्रम्हाविद्या स्वीकार किया गया हैं इस प्रकार भी गीता महाभारत का अंग नही ठहरती एक नमूना देखिए :-
ठति श्रीमद्भगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रम्हाविद्या योगषास्त्रं कृष्णार्जुन संवादे कर्मसंन्यासयोगानम् पंचमोध्यायः
अन्त में एक प्रमुख बात विचारणीय यह है कि कोई भी लेखक या कवि पुस्तक की समाप्ति पर ही प्रायः उसका महात्म्य लिखता है कि कोई भी पढ़ने या सुनने मा़त्र से अमुख अमुख लाभ है ऐसा नही है कि किसी एक भाग या प्रसंग की समाप्ति पर उसका महात्म्य अलग से लिखता फिरे । गीता के अन्त में उसका महात्म्य लिखा हुआ है जो उसको एक स्वतंत्र पुस्तक या रचना सिद्ध करता है और यह भी सिद्ध करता है कि यह महाभारत के लेखक महर्षि व्यास की रचना नही क्योंकि कोई भी लेखक या कवि यह नही भूल जाता कि यह मेरी दूसरी पुस्तक है या इसी का भाग है। गीता के 18 अध्यायों के बाद इसका महात्म्य इस प्रकार बताया गया हैः-
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैःषास्त्र संग्रहैः
या स्वयं पद्मनामस्य मुखपदमाद विनिसृतः
सर्वषास्त्रमयीगीता सर्वषास्त्रमयी हरिः
सर्वतीर्थमयी गंगा च गायत्राी गोविन्दोती हृदिस्थिते।।
चतुर्मकार संयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ।
महाभारत सर्वस्यं गीताया मथितस्य च।
सारमुदधृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम्।।
इस प्रकार प्रमाण तर्क और ऐतिहासिक विवेचन के पष्चात यह अधिक विष्वास से कहा जा सकता है कि गीता का न तो कृष्ण से कोई संबंध है न महर्षि व्यास से न महाभारत से । इस रचना को बहुत बाद में महाभारत के चोखटे मे फिर कर दिया है
लेखकः श्री बी.के. श्रीवास्तव
सम्भागीय लेखाधिकारी (से.नि.)
रायपुर भारत

धर्मसारथी श्री कृष्ण

धर्मसारथी श्री कृष्ण
– विवेकानन्द सरस्वती
जब धर्मवादी धर्मधुरन्धरों से भरी सभा में उन्हीं के समक्ष किसी सामान्य अबला नारी की नहीं, अपितु राजमहिषी पटरानी सबला का अट्टहासपूर्वक घोर अपमान हो, तब वहाँ धर्म का कुछ भी अंश अवशिष्ट रह गया हो, इसकी कल्पना भी बुद्धि शून्यता की पराकाष्ठा है। किसी भी प्रकार से चाहे वह छल-बल-कल से हो या अन्य किसी निम्नतर उपाय से अपने स्वजन के विनाश की षड्यन्त्र की कल्पना हो, उस परिस्थिति में जहाँ भीष्म द्रोणाचार्य जैसे सर्वमान्य लोकपूज्य व्यक्ति भी उसके विरुद्ध में कुछ कहने का या कराने का साहस न कर सकते हों और अपने सममुख ही धर्म को तार-तार होते हुए देख ही नहीं रहे हों, अपितु उस दुष्कर्म में सहयोगी भी बने हों, तब भला धर्म की या न्याय की रक्षा करने का बीड़ा उठाने का कौन साहस कर सकता है और जो व्यक्ति यह साहस कर सकता है, वह सामान्य नहीं हो सकता। योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हीं असामान्य लोगों में से थे। उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा को तिलाञ्जलि देकर धर्मरक्षा का प्रण किया। उन्होंने कहा कि-
परित्राणाय साधूनां, धर्मसंस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे।
और इस प्रतिज्ञा का पालन किया धार्मिकों की रक्षा के माध्यम से उन्होंने वेद धर्म की रक्षा की। सभा में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो कुछ कह सके या कर सके। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने अपने अग्रज श्री बलराम जी की उपेक्षा कर दाय भाग में से ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि’ की घोषणा करनेवाले तथा उनके समर्थकों को दण्डित धर्म की आधार भूमि को दृढ़ करने का निश्चय किया। सम्भवतः अन्य कोई सामान्य व्यक्ति होता तो इसको पारिवारिक कलह कहकर अपने को बचाने का मार्ग प्रशस्त कर लेता, किन्तु श्रीकृष्ण इसको कायरता ही नहीं, अपितु घोर अधर्म समझते थे। यदि किसी समर्थ व्यक्ति के सममुख धर्म एवं न्याय का हनन हो रहा हो और धर्म की रक्षा के लिए वह समर्थ व्यक्ति कुछ नहीं कर पा रहा हो, तो सचमुच वह अधार्मिक ही नहीं महापापी भी होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण इस प्रकार धर्म अवमानना नहीं देख सकते थे, इसलिए धर्मरक्षार्थ उन्होंने धर्म का सारथी बनना सहर्ष स्वीकार किया। सामान्य दृष्टि से लोग यही विचारते हैं कि भारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर उसके रथ को हाँका था, स्थूल दृष्टि से भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वास्तव में तो अर्जुन के नहीं, पाण्डवों के नहीं,अपितु धर्म के सारथी बने थे। जिन अधार्मिक कुकृत्यों का आश्रय कौरव लेकर चल रहे थे, यदि वे क़ुकृत्य पाण्डवों में भी दृष्टिगोचर होते तो श्रीकृष्ण कभी भी उनका साथ न देते। कौरवों के पक्ष में युद्ध के समय में जिस कर्ण पर दुर्योधन को सर्वाधिक विजय का विश्वास था, वह कर्ण स्वयं पूजा पाठ करते हुए तथा दान करते हुए भी महान् अधार्मिक था, क्योंकि उसने कौरवों के द्वारा किये जाते हुए अधार्मिक कुकृत्यों का समर्थन ही नहीं, अपितु कौरवों को प्रोत्साहित भी किया था। जब भारत युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण और अर्जुन का निर्णायक द्वन्द्व युद्ध होने लगा तो किसी विकट परिस्थिति में पड़कर स्वयं कर्ण ने धर्म की गाथा गाते हुए अर्जुन से कहा- अर्जुन! तुम धर्मयोद्धा हो, धर्मयुद्ध करने में तुमहारी प्रसिद्धि है, अतः कुछ क्षण रुको। श्रीकृष्ण कर्ण के द्वारा धर्म की बात सुनकर हँसे बिना नहीं रह सके और उन्होंने फटकारते हुए, धिक्कारते हुए, कर्ण से कहा- कर्ण, तुमहारे जैसे अधार्मिक निकृष्ट व्यक्ति को जब मृत्यु सामने उपस्थित हो जाती है तो धर्म स्मरण आता है। जो-जो अधर्म तुमने किये या तुमहारे प्रोत्साहित करने पर कौरवों ने किये, उस समय कभी भी तुमहें धर्म का स्मरण नहीं हुआ। उन्होंने पापमय अधार्मिक उन कार्यों का भी स्मरण कराया जिनको कर्ण नेकिया था और स्मरण कराते हुए कहा कि-
यदा सभायां राजानामनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।
यद् भीमसेन सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णो शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम्।।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
राज्यलुधः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
(महा.. कर्णपर्व अध्याय-91)
अर्थात् ‘कर्ण! जब कौरव सभा में जुए के खेल का ज्ञान न रखने वाले राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! वनवास का तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब राजा दुर्योधन ने तुमहारी ही सलाह लेकर भीमसेन को जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पों से डँसवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! उन दिनों वारणावत नगर में लाक्षा भवन के भीतर सोये हुये कुन्तीकुमारों को जब तुमने जलाने का प्रयत्न कराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! भरी सभा में दुःशासन के वश में पडी हुई रजस्वला द्रौपदी को लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! पहले नीच कौरवों द्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदी को जब तुम निकट से देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
(याद है न, तुमने द्रौपदी से कहा था) ‘कृष्ण-पाण्डव नष्ट हो गये हैं, सदा के लिये नरक में पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले। जब तुम ऐसी बातें करते हुए गजगामिनी द्रौपदी को निकट से आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! फिर राज्य के लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पाण्डवों को दोबारा जुए के लिये बुलवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर मार डाला था,उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
व्यास जी ने कहा है- ‘यतो धर्मस्ततो जयः।’ जहाँ धर्म है, वही विजय होती है। श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म के आधार पर सत्य का पालन किया। उनकी सत्यनिष्ठा का प्रमाण उत्तरा के मृतकल्प पुत्र को पुनः प्राणदान के समय की हुई शपथ से प्रतीत होता है-
नोक्तपूर्व मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्।।
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विश्ेाषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा।।
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृत शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः।।
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहितौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम्।।
(महा.. आश्वमेधिक पर्व अध्याय-70)
अर्थात् ‘मैनें खेल-कूद में भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्ध में पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्ति के प्रभाव से अभिमन्यु का यही बालक जीवित हो जाये।’
‘यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों तो अभिमन्यु का यह पुत्र जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाये।’
‘यदि मुझमें सत्य और धर्म की निरन्तर स्थिति बनी रहती हो, तो अभिमन्यु का यह मरा हुआ बालक जी उठे।’
‘मैनें कंस और केशी का धर्म के अनुसार वध किया है, इस सत्य के प्रभाव से यह बालक फिर जीवित हो जाये।’
वेद एवं नीतिकारों ने कहा भी है-
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः।
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः।।
(ऋग्.. 10/85/1)
न हि सत्यात् परो धर्मः ।
न हि असत्यात् पातकं महत्।।
श्रीकृष्ण उस सत्य धर्म की रक्षा के लिए दूत बने, सारथी बने, सेवक बने, मित्र बने, सब कुछ बने, किन्तु लक्ष्य एक ही था- धर्म की रक्षा, इसलिए वे यथार्थ में पार्थ के सारथी नहीं, अपितु धर्म के सारथी बने।
– प्रभात आश्रम, मेरठ

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

क्या अर्जुन के रथ पर हनुमान जी विद्यमान थे ?

अर्जुन के रथ में जो पताका थी, उसमे केवल हनुमान जी ही स्थापित थे – ऐसा महाभारत नहीं कहती –

जैसे आज भी हम बहुत से अत्याधुनिक मिसाइल, फाइटर प्लेन , एयरक्राफ्ट देखते हैं, उन सबमे, कुछ प्रतीक उपयोग किये जाते हैं, मिसाल के तौर पर –

राष्ट्र का ध्वज

सेना से सम्बन्ध विभाग का लोगो

कुछ न. भी लिखे होते हैं

आदि आदि अनेक एम्ब्लोम (प्रतीक चिन्ह) भी स्थापित होते हैं।

इसी प्रकार – अर्जुन के रथ (विमान) में अनेक अनेक महापुरषो, वीरो, और पितरो आदि के मूर्ति (प्रतीक चिन्ह) लगे हुए थे।

जो लोग केवल ये कहते हैं की हनुमान जी की ही मूर्ति या ध्वजा थी – वो कृपया एक बार – महाभारत में ही उद्योगपर्वान्तर्गत यानसन्धि पर्व – अध्याय ५६ श्लोक संख्या ७-८ पढ़ लेवे

संजय ने कहा – प्रजानाथ ! विश्वकर्मा त्वष्टा तथा प्रजापति ने इंद्र के साथ मिलकर अर्जुन के रथ की ध्वजा में अनेक प्रकार के रूपों के रचना की है।। ७ ।।

उन तीनो ने देवमाया के द्वारा उस ध्वज में छोटी बड़ी अनेक प्रकार की बहुमूल्य एवं दिव्य मूर्तियों का निर्माण किया है ।। ८ ।।

इन श्लोको में अर्जुन के रथ की ध्वज का वर्णन है – स्पष्ट है कहीं भी केवल हनुमान जी का वर्णन नहीं है – क्योंकि अनेक वीर, महापुरष, राजाओ आदि के चिन्ह उस ध्वज पर अंकित किये गए थे ठीक ऐसे ही हनुमान जी भी उनमे से एक थे।

मगर कुछ मूर्खो ने केवल हनुमान जी को ही ध्वज पर दिखा कर अर्जुन, कृष्ण जैसे महावीरों की विलक्षण और ज्ञानगर्भित सोच को दरकिनार करके – पक्षपाती तरीके से केवल हनुमान जी को ही ध्वज पर दिखाया –

क्या इस प्रकार के पक्षपात से अनेक वीरो और महापुरषो का अपमान नहीं होता ?

एक तरफ तो पौराणिक लोग कहते नहीं थकते की हनुमान जी प्रभु श्री राम के चरणो से हटते तक नहीं – दूसरी तरफ कृष्ण को राम का ही दूसरा रूप भी बताते हैं –

फिर मेरी शंका है – ये हनुमान जी कृष्ण यानी अपने प्रभु राम के चरणो से हटकर – उनके सर पर क्यों और कैसे सवार हो गए ?

क्या ये तर्क सही होगा ?

आशा है इस पोस्ट का सही मतलब समझा जाएगा

धन्यवाद

नोट : अर्जुन के रथ में १०० घोड़े (हार्सपावर) उपयोग था – जो एक फाइटर प्लेन था – जिसमे अनेक शस्त्र और तकनीकी थी – जिसके बारे में विस्तार से पोस्ट लिखी जायेगी।

“द्रौपदी का चीरहरण” – भारतीय संस्कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र – पार्ट 2

जैसे की पिछली पोस्ट से स्पष्ट हुआ की “द्रौपदी का चीरहरण” मात्र कुछ धूर्तो की मिलावट का परिणाम है – क्योंकि महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण जैसी कुत्सित घटना का होना एक असंभव कृत्य था – भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि गुरुओ और विदुर जैसे महानितिनिपुण के होते – ये कार्य हो ही नहीं सकता था –
फिर भी यदि कुछ हिन्दू भाई इस पक्ष में नहीं हैं – यदि वो अभी भी कहते हैं की द्रौपदी का चीरहरण हुआ था – तो इस पोस्ट को भी ध्यानपूर्वक पढ़ – सत्य से अवगत होकर अपने दुराग्रह और पूर्वाग्रह को छोड़ – संस्कृति और सभ्यता को बदनाम करना छोड़ देवे –

आइये गतलेख से आगे थोड़ा और विस्तार से समझते हैं –

जब पांडव जुए में राज्य के साथ साथ अपने आप को और द्रोपदी को हार गए तब पांड्वो की स्थिति दासों की तरह और द्रोपदी की स्थिति दासी की तरह रह गयी थी , अतः अब उन्हें राजाओ अथवा राजकुमारों जैसे वस्त्र धारण करने का कोई अधिकार नहीं रह गया था । यही दशा द्रोपदी की भी थी , पर जब द्रोपदी सभा में लाई गयी , उस समय केवल पांडव उच्च कोटि और सज्जित वस्त्र धारण किये थे , और द्रौपदी ने केवल एक वस्त्र धारण किया हुआ था क्योंकि द्रौपदी उस समय रजस्वला थी। अतः उनसे उनके वस्त्र उतर के दासो और दासी के परिधान पहन लेने के लिए कहा गया।

द्रौपदी ने विरोध किया – क्यों की वो अपने आप को हारी हुयी नहीं मानती थी – द्रौपदी ने कहा – जब युधिष्ठर स्वयं अपने को हार गए तब किस प्रकार वे मुझे दांव पर लगाने का अधिकार रखते थे ?

द्रौपदी के प्रश्नो के उत्तर हेतु – विदुर ने सभासदो से पूछा – साथ में – धृतराष्ट्र का एक पुत्र “विकर्ण” स्वयं द्रौपदी के समर्थन में उत्तर आया – उसने भी यही कहा – जब युधिष्ठर स्वयं अपने को दांव पर लगा हार गए – तब किस प्रकार द्रौपदी को दांव लगाने का अधिकार युधिष्ठर के पास रहा ?

तब कोई जवाब ना पाकर – द्रौपदी हताश और निराश हो गयी – दुःशासन द्रौपदी को “दासी” कहकर सम्बोधित करने लगा – इतने में कर्ण ने अपने अनुचित वचनो से द्रौपदी को अनेक बुरे वचन कहकर दुःशासन को द्रौपदी और पांडवो के वस्त्र उतार लेने को कहा।

दु:शाशन ! यह विकर्ण अत्यंत मूढ़ है तथापि विद्वानों सी बाते बनाता है , तुम पांड्वो और द्रोपदी के भी वस्त्र उतर लो ”
द्यूतपर्व अध्याय ६८ श्लोक ३८

ध्यान देने की बात है की कर्ण केवल द्रोपदी के ही वस्त्र उतरने के लिए नहीं कहता वरन पांड्वो के भी वस्त्र उतरने के लिए कहता है । इस बात से स्पष्ट है की “द्रौपदी का चीरहरण” मात्र कुछ लोगो की “धूर्त मानसिकता” का परिणाम है।

असल में हुआ ये था की – पांडवो ने अपने वस्त्र उतार कर रख दिए और दासो के वस्त्र धारण किये होंगे –

वैशम्पायन जी कहते हैं – “जनमेजय ! कर्ण की बात सुन के समस्त पांड्वो ने अपने अपने राजकीय वस्त्र उतार कर सभा में बैठ गए ( सभा पर्व अध्याय 68, श्लोक 39)

क्योंकि द्रौपदी अपने को हारी नहीं मानती थी – इसलिए दुःशासन को जबरदस्ती द्रौपदी के कपडे बदलवाने हेतु विवश किया गया था – जिसे “धूर्तमंडली” व्याख्याकारों ने – चीरहरण का नाम दिया।

यदि एक बार ऐसा भी मान ले – की दुःशासन ने चीरहरण करने को द्रौपदी की साडी खींची और कृष्ण ने साडी को बढ़ा दिया – तो भाई जरा इस श्लोक पर भी एक सरसरी नजर डाल लेवे –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।
द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यदि कृष्ण ने साडी देकर नग्न होने से बचाया – तो भाई – इन श्लोक के अनुसार तो द्रौपदी अर्धनग्न हो चुकी थी – तभी क्यों नहीं बचा लिया ? या फिर जब दुःशासन बाल पकड़कर जबरदस्ती द्रौपदी को खींच रहा था – और द्रौपदी कृष्ण को आवाज़ लगा बुला रही थी – तब ही क्यों नहीं कृष्ण ने बचा लिया ?

क्या कृष्ण जी इस बात का इन्तेजार कर रहे थे की – कब दुःशासन साडी खींचे और मैं चमत्कार दिखाऊ ?

क्या कृष्ण द्रौपदी की पहली आवाज़ सुनकर ही नहीं बचा सकते थे ? यदि पहली आवाज़ पर ही बचा लिया होता – तो ये धूर्तो ने जो मिलावट करने की कोशिश की – वो होती ही नहीं –

आगे देखिये –

वनपर्व मेँ जब श्रीकृष्ण जंगल मेँ पांडवोँ से मिलने गए थे। वहाँ श्रीकृष्ण ने बताया की वेँ द्युतसभा मेँ जो कुछ भी हुआ था उससे अनभिज्ञ है। उन्होने ये भी कहा की अगर वेँ वहाँ मौजुद होते तो युधिष्ठिर को ऐसा कभी नही करने देतेँ। युधिष्ठिर ने पुछा की उस वक्त वेँ कहाँ थे तब श्रीकृष्ण ने बताया की उस वक्त शाल्व ने अपने प्रचंड ‘सौभ’ विमान से द्वारका पर उपर से बमबारी शुरु कर द्वारका जला रहा था, इसलिए श्रीकृष्ण उसे मारने के लिए गए थे, जब वो विमान का संहार करके वापिस आए तब उन्हे सात्यकी से खबर मिली की द्युतसभा मेँ युधिष्ठिर जुए मेँ सारा राज्य हार गया और इसलिए वेँ दौडते पांडवोँ से मिलने जंगल मेँ आए।

आगे किसी जगह दु:खी द्रौपदी भी युधिष्ठिर, अर्जुन और अपने भाई को कोसते हुए कहती है की उनमेँ से कोई भी उसकी विटंबना रोकने नहीँ आया इसलिए उनमेँ से कोई भी उसका अपना नहीँ है। वो उधर खडे श्रीकृष्ण को भी कहती है की तुम भी मेरी मदद के लिए नहीँ आए इसलिए कृष्ण तुम भी मेरेँ नहीँ। अगर कृष्णने सचमेँ वस्त्रावतार लिया था तब द्रौपदी क्या उन्हे ऐसे शब्द कहती?

ये सारी घटनाओ से ज्ञात होता है की द्रौपदी का चीरहरण हुआ नहीं था – मात्र कुछ धूर्तो ने कृष्ण के चमत्कार को दर्शाने के लिए ये सब मनगढ़ंत बात गढ़ी है –

एक आखरी पोस्ट और आएगी – जिसमे इस द्यूतपर्व में मिलावट की पूरी स्थति आपके सामने आ जाएगी

अपनी सभ्यता और संस्कृति पर स्वयं ही मिथ्या दोष न गढ़े।

कृपया सत्य को जानिये –

 

वेदो की और लौटिए

द्रौपदी का चीरहरण – मिथक से सत्यता की ओर

मेरे सभी हिन्दू भाइयो और बहिनो –

जो जो भी व्यक्ति – महाभारत में ऐसा सोचते और समझते हैं की द्रौपदी के “चीर हरण” जैसा कुत्सित और भ्रष्ट आचरण हुआ था –

तो ऐसी विसंगति को दिमाग से पूरी तरह हटा देवे – और जो इस पोस्ट में लिखा जा रहा है – उसे ध्यान पूर्वक पढ़े – निष्पक्ष होकर जांच करे और जो सत्य हो उसे मान लेवे –

यहाँ पोस्ट को बड़ी करने का उद्देश्य नहीं है – इसलिए पॉइंट तो पॉइंट बात लिखूंगा – यदि किसी भाई को स्पष्टीकरण चाहिए तो विषय से सम्बंधित सन्दर्भ दिए गए हैं स्वयं जांच कर लेवे – तब भी कोई शंका शेष हो तो सवाल पूछ लेवे –

पहली बात – जब द्यूतक्रीड़ा महाभारत में आरम्भ हुई और युधिष्ठर ने स्वयं और अपने भाइयो को तथा अपनी “पत्नी द्रौपदी” को दांव पर लगा दिया – और हार गए –
तब यहाँ ये जानना आवश्यक है कि वो क्या हार गए और हारने के बाद क्या बन गए ?

देखिये –

दुर्योधन ने जब देखा की शकुनि ने युधिष्ठर से सब कुछ जीत लिया है तो आदेश दिया –

दुर्योधन बोला – विदुर ! यहां आओ। तुम जाकर पांडवो की प्यारी और मनोनुकूल द्रौपदी को यहाँ ले आओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहां आये और मेरे महल में झाड़ू लगाये। उसे वहीँ दासियों के साथ रहना होगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६६ श्लोक १

यहाँ स्पष्ट है – दुर्योधन ने पांडवो और द्रौपदी को केवल लज्जित ही करना था इसलिए विदुर को बोला गया की द्रौपदी जो एक कुल की रानी थी – को “दासी” और पांडव जो राजा थे उन्हें – “दास” बना कर लज्जित ही करना मात्र दुर्योधन का मंतव्य था –

विदुर के विरोध और नीतिवचन सुनने के बाद दुर्योधन ने “प्रतिकामिन” को आदेश दिया की द्रौपदी को यहाँ ले आवो (दासीरूप में झाड़ू लगाने हेतु)

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक २

प्रतिकामिन ने द्रौपदी से कहा –

द्रुपदकुमारी ! धर्मराज युधिष्ठर जुए के मदसे उन्मत्त हो गए थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप को दांव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी ! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारे। मैं आपको वहां दासी का काम करवाने के लिए ले चलता हूँ।

यहाँ भी बिलकुल स्पष्ट है की द्रौपदी को केवल दासी के काम हेतु महल की सफाई आदि करवाने के उद्देश्य से दुर्योधन ने प्रतिकामिन को भेजा था – ताकि द्रौपदी और पांडवो का मानमर्दन हो सके – अन्य कोई मंतव्य दुर्योधन का नहीं था।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक ४

उपरोक्त श्लोको से स्पष्ट है – दुर्योधन का मंतव्य द्रौपदी का चीरहरण करना तो बिलकुल गलत और समाज को भ्रामित करने वाली बात गढ़ी गयी है।

आगे देखिये –

कुछ मित्र कहते हैं की दुःशासन द्रौपदी को जबरदस्ती पकड़ कर – सभाग्रह ले आया – यहाँ पर भी कुछ शंका खड़ी होती है –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह सन्देश कहलाया – “पाँचालराजकुमारी ! यद्यपि तुम रजस्वला और नीवी (नाभि) को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभामे आकर अपने श्वसुर के सामने खड़ी हो जाओ।

“तुम जैसी राजकुमारी को सभा में आई देख सभी सभासद मन ही मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक १८-२१

यहाँ धर्मराज युधिष्ठर की बात से भी प्रमाण मिलता है की द्रौपदी का चीरहरण जैसी घटना – समाज को भ्रमित करने हेतु कुछ धूर्तो ने रची – यदि दुर्योधन का मंतव्य केवल द्रौपदी का चीरहरण करना ही था – तो युधिष्ठर द्रौपदी को सभा में आने के लिए क्यों कहते ?

जबकि यह स्पष्ट है की द्रौपदी को युधिष्ठर ने सभा में आने के लिए दूत से बुलावा भेज दिया – और द्रौपदी भी सभा में आने को तईयार थी – तब ये कहना की दुःशाशन जबरदस्ती द्रौपदी को पकड़ कर सभा में ले आया संदेह प्रकट करता है – खैर यदि ये मान भी ले की दुःशासन ने द्रौपदी को बाल से खींच घसीट कर सभा में ले आया – तो उसका वृतांत महाभारत में देखिये

दुःशासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा -‘ओ मंदबुद्धि दुष्टात्मा दुःशासन। में रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३२

दुःशासन बोला – द्रौपदी ! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जुए में जीता है ; अतः तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिए अब तुझे हमारी इच्छा के अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३४

यहाँ दुःशासन के बोले शब्द देखिये – दुःशासन का उद्देश्य भी द्रौपदी का चीरहरण करना नहीं था – बल्कि यहाँ भी स्पष्ट है की कौरवो – दुर्योधन आदि को केवल पांडवो और द्रौपदी को “दास” आदि बनाकर भरी सभा में अपमानित ही करना था।

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यहाँ ही वह शब्द है जहाँ पर द्रौपदी को घसीटने के कारण – द्रौपदी के रजस्वला अवस्था में पहने हुए एक वस्त्र के सरकने से द्रौपदी के चीरहरण की कथा गढ़ ली गयी – जबकि ये चीरहरण नहीं था – केवल द्रौपदी को दुःशासन द्वारा खींचा गया –
घसीटा गया – जिसके परिणामस्वरूप द्रौपदी का एकमात्र पहना हुआ वस्त्र शरीर से थोड़ा सरक गया – जिसके आधार पर पूरी की पूरी मिथ्या कथा बना दी गयी – की द्रौपदी का चीरहरण हुआ –

यदि द्रौपदी का चीरहरण करना उद्देश्य ही नहीं था दुर्योधन का तो चीरहरण जैसी कुत्सित भ्रान्ति क्यों और किसलिए फैलाई गयी ?

इस लेख को ज्यादा बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं – इसलिए यहाँ से स्पष्ट होगा की द्रौपदी का चीरहरण नहीं हुआ –

अब जो महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण की झूठी और बेबुनियाद कथा जोड़ी गयी है अगले लेख में उसका भंडाफोड़ करेंगे – कैसे “द्रौपदी का चीरहरण” घटना जो महाभारत में जबरदस्ती ठूंसा गया – और क्यों ?

शेष अगले लेख में अगले लेख का इन्तेजार करे –

महाभारत की १८ अक्षोहिणी सेना और कुरुक्षेत्र का क्षेत्रफल

भारतीय इतिहास और महाभारत युद्ध को झूठा कहने वालो के मुह पर जोरदार तमाचा लगाता ज्ञान वर्धक लेख :

युद्ध के लिए आवश्यक सैनिक, रथादि वाहन, घुड़सवार आदि का वर्गीकरण और सेना की संरचना।

अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं। महाभारत के अनुसार इसमें २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते थे। महाभारत, (आदि पर्व – २. १५-२३)

इसके अनुसार इनका अनुपात १ रथ:१ गज:३ घुड़सवार:५ पैदल सैनिक होता था। इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा १८ आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम ४६,८१,९२० और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर २७,१५,६२० हुई इस संख्या में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं मारी भी गई।

अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम्।
प्रविश्यान्तर्दधे राजन्सागरं कुनदी यथा ॥
(5.49.19.0.6 उद्योगपर्व, एकोनविंशोऽध्यायः (19) श्लोक 6)
महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी।

महाभारत के आदिपर्व और सभापर्व अनुसार
अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।
अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।

यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव॥ सौतिरूवाच
उग्रश्रवाजी ने कहा- एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
त्रयश्च तुरगास्तज्झै: पत्तिरित्यभिधीयते॥

इस पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखो’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा:।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥

तीन गुल्म का एक ‘गण’ होता है, तीन गण की एक ‘वाहिनी’ होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने ‘पृतना’ कहा है।

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय:।
स्मृतास्तिस्त्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै:॥

तीन पृतना की एक ‘चमू’ तीन चमू की एक ‘अनीकिनी’ और दस अनीकिनी की एक ‘अक्षौहिणी’ होती है। यह विद्वानों का कथन है।

चमूस्तु पृतनास्तिस्त्रस्तिस्त्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।

अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा:।
संख्या गणिततत्त्वज्ञै: सहस्त्राण्येकविंशति:॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्तति:।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्॥

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये।

ज्ञेयं शतसहस्त्रं तु सहस्त्राणि नवैव तु।
नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघा:॥

एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (65610) कही गयी है।

पञ्चषष्टिसहस्त्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया॥

तपोधनो! संख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।

एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना:।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणना के अनुसार कौरवों-पाण्डवों दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी।

एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयो:।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु॥

अद्भुत कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपञ्चक क्षेत्र में कौरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता:।
कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा॥

अल बरूनी के अनुसार –
अल बरूनी ने अक्षौहिणी की परिमाण-संबंधी व्याख्या इस प्रकार की है-

एक अक्षौहिणी में १० अंतकिनियां होती हैं।

एक अंतकिनी में ३ चमू होते हैं।

एक चमू में ३ पृतना होते हैं।

एक पृतना में ३ वाहिनियां होती हैं।

एक वाहिनी में ३ गण होते हैं।

एक गण में ३ गुल्म होते हैं।

एक गुल्म में ३ सेनामुख होते हैं।

एक सेनामुख में ३ पंक्ति होती हैं।

एक पंक्ति में १ रथ होता है।

शतरंज के हाथी को ‘रूख’ कहते हैं जबकि यूनानी इसे ‘युद्ध-रथ’ कहते हैं। इसका आविष्कार एथेंस में ‘मनकालुस'(मिर्तिलोस) ने किया था और एथेंसवासियों का कहना है कि सबसे पहले युद्ध के रथों पर वे ही सवार हुए थे। लेकिन उस समय के पहले उनका आविष्कार एफ्रोडिसियास (एवमेव) हिन्दू कर चुका था, जब महाप्रलय के लगभग ९०० वर्ष बाद मिस्त्र पर उसका राज्य था। उन रथों को दो घोड़े खींचते थे।

रथ में एक हाथी, तीन सवार और पांच प्यादे होते हैं।

युद्ध की तैयारी, तंबू तानने और तंबू उखाड़ने के लिए उपर्युक्त सभी की आवश्यकता होती है।

एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५,६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।

हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक हो होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।
तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २,८४,३२३ होती है (एवमेव के अनुसार)। जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या ८७,४८० होती है। एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या २१,८७० होती है, रथों की संख्या भी २१,८७० होती है, घोड़ों की संख्या १,५३,०९० और मनुष्यों की संख्या ४,५९,२८३ होती है।

एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६,३४,२४३ होती है। अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या ११,४१६,३७४ हो जाती है अर्थात ३,९३,६६० हाथी, २७,५५,६२० घोड़े, ८२,६७,०९४ मनुष्य।

इतनी बड़ी सेना का विस्तार और वर्गीकरण – कितना गणितज्ञ और वैज्ञानिक स्तर पर होगा – ये आप लोग आंकलन कर लेवे – धनुर्वेद में जो उपवेद है के आधार पर सेना की संरचना – गठन – सञ्चालन – व्यूह रचना – युद्ध कौशल – रणनीति आदि भली भाँती वर्णित है।

कुछ अति ज्ञानी हिन्दू और वामपंथी विचारधारा के इतिहास को पढ़ने वाले सेक्युलर जमात के लोग कहते हैं – कुरुक्षेत्र तो इतना सा राज्य है – उसमे इतनी सेना का होना और युद्ध होना – सेनिको के मरने पर अन्तेय्ष्टि आदि और भी बहुत से कार्य कैसे संभव होंगे ?

उन अति विशिष्ट ज्ञानी लोगो को केवल हिन्दू समाज और भारतीय इतिहास आदि को झूठा साबित करने का ही कार्य है इसलिए मनगढ़ंत रचना करते हैं – ऐसे लोगो से पूछना चाहिए क्या “कुरुक्षेत्र” जो आज की स्तिथि में दीखता है – उसका क्षेत्रफल महाभारत काल में भी इतना ही था क्या ??? तब कोई जवाब नहीं बन पायेगा –

आइये देखते हैं कुरुक्षेत्र कितना बड़ा था –

कुरु-जनपद

प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी।

महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जला कर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास रहा होगा।

मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ0प्र0) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे।

महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है।

अंगुत्तर-निकाय में ‘सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है।

महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है। हत्थिनापुर या हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। इस तथ्य का ज्ञान हमें जैन उत्तराध्यायन सूत्र से होता है जिससे बुद्धकाल में कुरुप्रदेश में कई छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है।

अब बताओ विशिष्ट ज्ञानियो – जब कुरुक्षेत्र ही इतना बड़ा था उस समय – तो इतनी बड़ी सेना और युद्ध कैसे नहीं हो सकता ???

अब बुद्धिमान लोग स्वयं विचार लेवे –MBRT