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जातिनिर्मूलन और वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण: कुशलदेव शास्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी की एक सुप्रसिद्ध पुस्तक है-’जातिनिर्मूलन‘, जिसके प्रारम्भ में लिखा गया है-”डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा जात-पाँत-तोड़क मण्डल लाहौर के सन् 1936 के वार्षिक अधिवेशन के लिए तैयार किया गया भाषण, लेकिन जो दिया नहीं गया, क्योंकि स्वागत समिति ने इस आधार पर कि भाषण में व्यक्त विचार अधिवेशन को स्वीकार नहीं होंगे, अधिवेशन समाप्त कर दिया।” चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने जन्मना नहीं किन्तु कर्मणा वर्ण-व्यवस्था की वकालत करने वाले आर्यसमाजियों से असहमति प्रकट की है और उसे अव्यावहारिक, काल्पनिक और त्याज्य माना है। डॉ0 अम्बेडकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन लेवलों को छो़ड़ देने का आग्रह करते हैं। इस प्रकार का लेबल लगाने का आग्रह उन्हें निरर्थक और अनावश्यक प्रतीत होता है, उनका कहना है कि बिना इन लेबलों के भी व्यक्ति की योग्यता का अहसास हो जाता है, फिर इन लेबलों की क्या आवश्यकता है ?

    डॉ0 अम्बेडकरजी के इस अध्यक्षीय भाषण के साथ जो परिशिष्ट जोड़ा गया है, उसमें महात्मा गाँधी की तुलना में उन्होंने ”स्वामी दयानन्द द्वारा अनुमोदित वर्ण-व्यवस्था की बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी” कहा है। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में –

”महात्मा गान्धी जिस वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं, क्या वह वैदिक वर्ण-व्यवस्था है या स्वामी दयानन्द जिस वर्ण-व्यवस्था का अनुमोदन करते हैं वह वैदिक वर्ण-व्यवस्था है ? स्वामी दयानन्द और उनके अनुयायी आर्यसमाजियों के अनुसार वर्ण की वैदिक मान्यताओं का सार है-ऐसे व्यवसायों को अपनाना जो व्यक्ति के स्वाभाविक योग्यता के अनुरूप हों। महात्मा गान्धी के वर्ण का सार है-अपने पूर्वजों के व्यवसाय को अपनाना, चाहे स्वाभाविक योग्यता न भी हो। महात्मा गान्धी की वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था में मुझे कोई फर्क नहीं दिखाई देता। वहाँ तो वर्ण जाति का समानार्थी है। सार रूप में गान्धीजी का वर्ण और जाति इन दोनों का तात्पर्य पूर्वजों के व्यवसाय को अपनाना है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि महात्मा ने बहुत प्रगति की है, पर मेरी दृष्टि में महात्मा गान्धी प्रगति से दूर हैं और परस्पर विरोधी धारणाओं से पीड़ित हैैं। वर्ण की वैदिक मान्यताओं को इस प्रकार की व्याख्या देकर उन्होंने जो विशिष्ट था उसको हास्य बना दिया है। जब मैं वैदिक वर्ण-व्यवस्था को भाषणों में दिये कारणों से अस्वीकार करता हूँ, तो मुझे स्वीकार करना होगा कि वर्ण का वैदिक दर्शन जो स्वामी दयानन्द और कुछ अन्यों ने दिया है, वह समझदारीपूर्ण और बगैर हानिकारक है, क्योंकि वह व्यक्ति विशेष का समाज में स्थान निर्धारित करने के लिए जन्म को निर्णायक तथ्य नहीं मानता। वह केवल गुण को स्वीकार करता है। जबकि महात्मा गान्धी का वर्ण-व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण न केवल वैदिक वर्ण-व्यवस्था को फालतू की वस्तु बना देता है, अपितु घृणित भी बना देता है। वर्ण और जाति परस्पर भिन्न मान्यताएँ हैं। वर्ण गुणाश्रित सिद्धान्त है, तो जाति जन्माश्रित सिद्धान्त है। वस्तुतः वर्ण और जाति ये समानार्थी नहीं, अपितु विलोमार्थी शब्द हैं।“ इससे पूर्व सितम्बर सन् 1927 में तमिलनाडु के दलितोद्धारक श्री ई0 वी0 रामस्वामी नायकर जी भी (1879- ) श्री महात्मा गान्धीजी से मिलकर उनकी जन्मना वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण से अपनी तीव्र असहमति और चिन्ता व्यक्त कर चुके थे।

 

     इस प्रकार स्पष्ट है कि महात्मा गान्धी की तुलना में स्वामी दयानन्द प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था से डॉ0 अम्बेडकर सहमत हैं और इसीलिए उन्होंने उसे ’बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी‘ कहा है। पुनरपि डॉ0 अम्बेडकर ने अपने मूल भाषण में वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकारणीय और अव्यावहारिक माना है।

 

हम जब आर्यसमाज के 133 वर्ष के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था को व्यावहारिक रूप देने में वह 75 प्रतिशत असमर्थ रहा है और जब तक वह इसे क्रियात्मक रूप देने में पूर्णतया समर्थ नहीं होता, तब तक जमाना डॉ0 अम्बेडकर के स्वर में स्वर मिलाकर कहेगा कि वर्ण-व्यवस्था, अव्यावहारिक, काल्पनिक और त्याज्य है। लेकिन इसके साथ ही जातिनिर्मूलन के सन्दर्भ में डॉ0 अम्बेडकर और उनके अनुयायियों से जमाने का भी एक सवाल रहेगा, वह यह कि क्या एक धर्म का परित्याग कर दूसरे धर्म को अंगीकार करने से जातिगत भेद-भाव का उन्मूलन हो जाता है ? क्योंकि डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने चर्चित अध्यक्षीय भाषण में कहा है कि-”धार्मिक भावनाओं का उन्मूलन किये बिना जाति-व्यवस्था को तोड़ना सम्भव नहीं है।“ निःसन्देह जातिगत भेद-भाव को नष्ट करने का डॉ0 अम्बेडकर ने यथामति-यथाशक्ति पूर्ण प्रयास किया और सम्भवतः एतदर्थ उन्होंने हिन्दू मत का परित्याग कर बौद्ध सम्प्रदाय को स्वीकार किया, दीक्षा ली, उनके अनेक अनुयायी भी बौद्ध बने, पर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि न तो आर्यसमाज की कर्मणा वर्ण-व्यवस्था के रहते जातिगत भेदभाव पूर्णतया समाप्त हुआ और न ही डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त धर्मान्तरण के प्रयोग से जाति-पाँति का विष समाप्त हुआ। (जाति-पाँति को लेकर जिस दलित वर्ग के सन्दर्भ में मनुस्मृति का विरोध किया गया, किया जाता है। क्या उस दलित वर्ग में आपस में जाति-पाँति टूटी ? क्या उनका आपसी छुआछूत पूरी तरह नष्ट हुआ ? यदि नहीं तो आपसी विवाह सम्बन्ध होना तो बहुत दूर की बात है।-सम्पादक) बुद्ध, मूर्तिपूजा के विरोधी थे। आज बौद्ध ही महात्मा बुद्ध और डॉ0 अम्बेडकर की मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं। हिन्दुओं की तरह बौद्ध सम्प्रदाय से भी मूर्ति नहीं हट पाई। फर्क इतना ही है कि हिन्दू अनेक मूर्तियों की पूजा करते हैं, तो बौद्ध एक-दो प्रतिमाओं की। हिन्दू दीप जलाते हैं, तो बौद्ध मोमबत्ती। हिन्दुओं को केसरी रंग प्यारा है, तो बौद्धों को नीला। एक ने केसरी टोपी पहनी है तो दूसरे ने नीली। यहाँ बाह्म क्रियाओं में तो परिवर्तन हुआ है, पर मूल प्रवृत्ति अब भी ज्यों की त्यों है। रंग बदले हैं, पर अन्तर्मन नहीं बदला। आत्मा का कायाकल्प नहीं हुआ। दयानन्द और अम्बेडकर के अपने-अपने प्रयत्नों के बावजूद जातिगत भेद-भाव आज भी यथावत् विद्यमान है। क्या यह ठीक है कि जाति वही होती है, जो जाते-जाते भी नहीं जाती ? पता नहीं समूल जाति-पाँति का उन्मूलन कब हो पाएगा ? शायद ज्ञान भिन्न और क्रिया भिन्न होने से समाज इस विडम्बनात्मक स्थिति में पहुँच गया है, जातियाँ क्या टूटेंगी ? जबकि समाज अभी अपनी उपजातियाँ तोड़ पाने का भी साहस नहीं बटोर पा रहा है। जातिनिर्मूलन का एक मात्र अचूक उपाय अन्तर्जातीय विवाह है, जिसका समर्थन डॉ0 अम्बेडकर ने भी किया है। इस ˗प्रकार के अन्तर्जातीय विवाह एक पीढ़ी तक ही नहीं, अपितु सात-सात पीढ़ियों तक होंगे, तभी जातिगत भेद-भाव का समूल सर्वनाश होगा। इसके सिवाय अन्य कोई उपाय कारगर प्रतीत नहीं होता।

 

डॉ0 अम्बेडकर ने जात-पाँत तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के सन्दर्भ में लिखा है कि-”यह मेरे जीवन का निश्चित ही पहला अवसर है, जबकि मुझे सवर्ण हिन्दुओं के अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया हो (और मेरे लिखित अध्यक्षीय भाषण के वैचारिक मतभेदों के कारण अधिवेश नही स्थगित कर दिया गया हो।) मुझे खेद है कि इसका अन्त दुःखान्त हुआ।“

डॉ अम्बेडकर का वैदिक संस्कारों की ओर झुकाव : कुशलदेव शास्त्री

स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज की वेदनिष्ठा तो जाहिर है। आर्यसमाज का तीसरा नियम है-’वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है।‘ आर्यसमाजों में समस्त संस्कार वैदिक पद्धति से ही सम्पन्न होते हैं। कुछ अन्य भी ’सनातन‘ संगठन हैं, जो वैदिक संस्कारों के प्रति अनन्य आस्था अभिव्यक्त करते हैं।

माननीय डॉ0 अम्बेडकर के ’बहिष्कृत भारत‘ नामक साप्ताहिक मराठी समाचार पत्र के 12, अप्रैल-1929 के अंक में पृष्ठ सात पर यह संक्षिप्त समाचार प्रकाशित हुआ था -’समाज-समता-संघ का नया उपक्रम।‘ महार समाज में वैदिक विवाह पद्धति सुदृढ़ की जाएगी-स्मरण रहे इसी महार कुल में डॉ0 अम्बेडकर का जन्म हुआ था।

उपरोक्त चर्चित अंक के ही पृष्ठ 8 पर, एक सम्पन्न वैदिक विवाह संस्कार की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया गया था कि-

”यह विवाह हिन्दू मिशनरी सोसाइटी के संस्थापक श्री गजानन भास्कर वैद्य (1856-1921) की संकलित वैदिक पद्धति से सम्पन्न किया गया। उक्त समाचार के अन्त में यह शुभकामना की गई है कि अस्पृश्य समाज वैदिक पद्धति का प्रचलन कर उन पर लगाये गये अस्पृश्यता के कलंक को नष्ट करने में समर्थ हो।“

   यह जानकर आश्चर्य होता है कि 29 जून, 1929 को वैदिक पद्धति से सम्पन्न श्री केशव गोविन्दराव आड़रेकर के विवाह में डॉ0 अम्बेडकरजी अपनी सहधर्मिणी के साथ उपस्थित थे। यह विवाह ’समाज-समता-संघ‘ के तत्त्वाधान में तथा आचार्य-पुरोहित श्री सुन्दररावजी वैद्य की देख-रेख में सम्पन्न हुआ था। वर-वधू के माता-पिता रूढ़िवादी होते हुए भी माननीय डॉ0 अम्बेडकर के सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही वैदिक पद्धति से विवाह करवाने के लिए तैयार हुए थे। यह विवाह परल (मुम्बई) स्थित दामोदर मूलजी ठाकरसी हॉल में सम्पन्न हुआ था। श्री सुरवाडे के अनुसार ‘दलित समाज में वैदिक पद्धति से सम्पन्न यह पहला विवाह था।‘ अम्बेडकर-दम्पत्ति के अतिरिक्त इस विवाह में श्री रा0 ब0 बोले, डॉ0 सोलंकी, श्री कमलाकर चित्रे आदि गणमान्य सज्जन समुपस्थित थे।

  डॉ0 अम्बेडकरजी के 6, सितम्बर-1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ में यह समाचार भी प्रकाशित हुआ था कि ’मनमाड़ के महारों (दलितों) ने श्रावणी मनायी।‘ 26 व्यक्तियों ने यज्ञोपवीत धारण किये। यह समारोह मनमाड़ रेल्वे स्टेशन के पास डॉ0 अम्बेडकरजी के मित्र श्री रामचन्द्र राणोजी पवार नांदगांवकर के घर में सम्पन्न हुआ था।

इन समाचारों से स्पष्ट है कि माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी का अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में उपनयन-विवाह आदि वैदिक संस्कारों की ओर भी यत्किंचित् झुकाव अवश्य ही रहा और अपने पत्रों में भी वे वैदिक संस्कार विषयक समाचारों को प्रकाशनार्थ स्थान अवश्य देते थे।

द्वे-वचसि: कुशलदेव शास्त्री

मेरी शिक्षा-दीक्षा आर्यसमाजी शिक्षण संस्था गुरुकुल झज्जर (हरियाणा) और गुरुकुल ज्वालापुर (हरिद्वार) में हुई। गुरुकुलीय विद्यार्थी जीवन में एक-दो जातियों के नाम तो सुने थे, पर जातिगत भेद-भाव और उच्च-नीचता का थोड़ा भी अहसास नहीं हुआ था। स्वयं मुझे मेरी तथा अन्य छात्रों की जातियों के बारे में भी कुछ अता-पता नहीं था, अतः अस्पृश्यता का कोई सवाल ही नहीं उठता था। हम सभी छात्र एक ही परिवार के स्नेहित सदस्यों की तरह अपना-अपना जीवन यापन करते थे। पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने ठीक ही कहा है कि ’गुरुकुल के प्रवेश-पत्रों में जाति-बिरादरी का खाना नहीं था।‘ (भारतीय उत्थान और पतन की कहानी-पृष्ठ 119)

 

गुरुकुल की चारदीवारी से बाहर आने के बाद जातियों का पहले परिचय हुआ, फिर धीरे-धीरे जातिगत भेद-भाव की कटुताओं का परिचय होने लगा। हमारा घर आर्यसमाजी और वह भी क्रियात्मक जीवन में अन्तर्जातीय विवाह का समर्थक होने से सामाजिक सौहार्द का पक्षधर रहा। गाँव में पिताजी ’एक गाँव-एक पनघट‘ तथा ’मन्दिर-प्रवेश‘ जैसे उपक्रमों द्वारा सतत समता-बन्धुता का वातावरण बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। इस कारण गुरुकुल और घर दोनों से ही मानवतावादी संस्कार प्राप्त हुए।

गुरुकुल के विषय में अपनी टिप्पणी अंकित करते हुए श्री पं0 उदयवीरजी ’विराज‘ (जन्म-1921) लिखते हैं-”मेरे विचार से गुरुकुल शिक्षा पद्धति आदर्श शिक्षा पद्धति है। जब कहीं दलितोद्धार नहीं था, तब गुरुकुल में दलितोद्धार था, जब कहीं समाजवाद नहीं था, तब गुरुकुल में समाजवाद था। जब कहीं हिन्दी में पढ़ाई नहीं होती थी, तब गुरुकुल में सब विषय हिन्दी में पढ़ाये जाते थे। महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने युवकों को ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर उन्हें आदर्श नागरिक, आदर्श मनुष्य बनाना चाहा था।“ (निजामशाही पर पहली चोट-पृष्ठ 41) डॉ0 अम्बेडकरजी ने तो स्वामी श्रद्धानन्दजी को ”दलितोद्धार के क्षेत्र का चैम्पियन ही कहा है।“

उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द (1880-1936) माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के समाज-सुधार विषय रचनात्मक कार्यों से सुपरिचित थे, अतः उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ’हंस‘ मासिक के अगस्त-1933 के मुखपृष्ठ पर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर का चित्र छापा था। अप्रैल-1936 में लाहौर आर्यसमाज की जुबली के अवसर पर ”आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते प्रसंगवशात् प्रेमचन्दजी ने आर्यसमाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था -“

     ”मैं तो आर्यसमाज को जितनी धार्मिक संस्था मानता हूँ, उतनी ही तहजीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ। उसके तहजीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं। दलितों के उद्धार में सबसे पहले आर्यसमाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर पर है। जातिगत भेदभाव और खान-पान में छूत-छात और चैके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषय को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवरवाले ताले लगे हुए थे। “

निस्सन्देह आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर आदि की प्रेरणा से प्रचलित आन्दोलन मूलतः समाज-सुधार के चक्र को गतिशील बनाने वाले आन्दोलन रहे हैं। आज भी समाज में जहाँ-कहीं भी जातिगत भेदभाव के आधार पर नफरत की काली घटाएँ फैलती हैं, उन्हें छिन्न-भिन्न करने के लिए डॉ0 अम्बेडकर और ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को अग्रिम पंक्ति में नजर आना चाहिए और वैसे वे इस दिशा में आगे बढ़ते हुए नजर आते भी हैं। पर यहाँ कार्य करते समय हमारी भाषा और क्रिया ऐसी संयमित हो कि उसमें अनुदारता और उग्रता न झलके। हमें सतर्कता बरतना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं बिहार प्रान्त की तरह अन्यत्र भी वर्ण द्वेष, वर्ग द्वेष में परिवर्तित न हो। पूरी सावधानी के साथ हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि सामाजिक विषमता सामाजिक घृणा में बदलने की अपेक्षा समता-बन्धुता में रूपान्तिरत हो जाए। इन्सान और इन्सान के बीच में जातिगत-भेदभाव के कारण जो खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उसे पाटना ही हम सबका प्रयोजन होना चाहिए। इस लेख का भी यही मुख्य प्रयोजन है। इस विषय पर सर्वप्रथम आलेख ’आर्य लेखक परिषद‘ के उदयपुर (राजस्थान) अधिवेशन में पढ़ा गया था। यह उसी का सवंर्धित रूप है, जो श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास के संस्थापक, यशस्वी प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव जी आर्य के पुनीत प्रयास से हिण्डौन सिटी (राजस्थान) की ओर से प्रकाशित हो रहा है। आर्यसमाज के ख्याति प्राप्त शोध लेखक और इतिहासज्ञ प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ ने पुस्तक का प्राक्कथन लिखकर पुस्तक का गौरव बढ़ा दिया है, तदर्थ बहुत-बहुत धन्यवाद।

आर्य समाज और डॉ. अम्बेडकर ,प्राक्कथन: राजेन्द्र ’जिज्ञासु

मेरी उत्कट इच्छा थी कि ”आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर“ विषय पर कुछ लिखा जाए। मैं स्वयं तो इस विषय पर कुछ लिखूँगा ही, परन्तु मैं यह चाहता था कि प्रिय भाई कुशलदेवजी इस विषय पर अवश्य एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखें। हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने व्यस्त जीवन से कुछ क्षण निकालकर यह पठनीय व संग्रह करने योग्य पुस्तक लिख दी है। आर्यसमाज के एक कर्मठ व प्रबुद्ध विद्वान् डॉ0 रामकृष्ण आर्य इसे आर्य परिवार प्रकाशन समिति, कोटा के माध्यम से प्रकाशित-प्रसारित करने का यश लूट चुके हैं, और संप्रति श्री प्रभाकरदेव जी आर्य इस कीर्ति को लूट रहे हैं।

राष्ट्रीय एकता की कड़ियों को सुदृढ़ करने के लिए इस कृति का प्रकाशन अत्यन्त प्रशंसनीय है। इससे घृणा-द्वेष की दीवारें टूटेंगी और भ्रम भंजन भी होगा। इसकी एक-एक पंक्ति देश-जाति के सेवकों को पढ़नी चाहिए। डॉ0 कुशलदेवजी ने जो कुछ भी लिखा है, देश व समाज के हित के लिए लिखा है। एक पीड़ा लेकर लिखा है। आर्यसमाज गुण-कर्म-स्वभावानुसार समाज के निर्माण व जन्म की जाति-पाँति के दुर्ग को ध्वस्त करने में 75 प्रतिशत विफल रहा है, यह डॉ0 कुशलदेवजी की अन्तःवेदना को ही प्रकट करता है। मैं इस पीड़ा में उनका भागीदार हूँ। मैंने भी जीवन के मूल्यवान् 50 वर्ष इस जातीय राजरोग के निवारण में लगाये हैं।

मैंने डॉ0 कुशलदेवजी की एक-एक पंक्ति पढ़ी है। जात-पात तोड़क मण्डल के संस्थापक जीवन के अन्तिम श्वास तक आर्यसमाजी रहे। श्री सन्तरामजी आर्यसमाज के सर्वश्रेष्ठ मासिक ’आर्य मुसाफिर‘ के यशस्वी सम्पादक रहे। डॉ0 अम्बेडकर को जात-पात तोड़क सम्मेलन का अध्यक्ष बनाने में असर्मथता का कारण ’वेद निन्दा‘ के प्रचार में भागीदारी से बचना था। अन्यथा विरोध करने वाले तीनों व्यक्ति जाति-पाति के विरोधी थे। देवता स्वरूप भाई परमानन्दजी ने तो अपनी सन्तानों के विवाह जात-पाँत तोड़कर ही किये।

यह भी निवेदन कर दूँ कि डॉ0 गोकुलचन्द नारंग, भाईजी के भक्त, शिष्य, मित्र व सहयोगी थे।

पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय कोल्हापुर के राजाराम स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे। तब उस स्वल्प काल में आपने निकट से डॉ0 अम्बेडकर व उनकी गतिविधियों को देखा।

महाराष्ट्र में जन-जागृति, शिक्षा-प्रसार व अस्पृश्यता निवारण के आन्दोलन में प्रि0 श्री डॉ0 बालकृष्णजी का भी अद्भुत योगदान रहा। उस आर्य मनीषी को श्री शाहू महाराज ने ही कोल्हापुर बुलाया था। डॉ0 बालकृष्णजी के व्यक्तित्व व सेवाओं की डॉ0 अम्बेडकर पर छाप पड़ी, इसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

पंजाब में तो बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही दलित वर्ग में अनेक संस्कार वैदिक रीति से हुए। महाराष्ट्र में यह युग बाद में आया।

देश प्रेमियों का कत्र्तव्य है कि इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार प्रसार करें। अन्त में एक बात कहना चाहूँगा कि डॉ0 अम्बेडकर ने वेद व वैदिक मान्यताओं के विरूद्ध जो कुछ भी कहा था, लिखा है, वह रूढ़िवादियों के घृणित व्यवहार की प्रतिक्रिया मात्र था, अन्यथा उनका वेद से कोई विरोध नहीं था। ’धम्मपद‘ में भी तो कोई एक भी शब्द वेद की निन्दा में नहीं मिलता।

 

सृष्टि-प्रसंग में विरोध कहने वालों का समाधान: पण्डित भीमसेन शर्मा

सृष्टिप्रक्रिया में कोई वेदादि ग्रन्थों का परस्पर विरोध कहते हैं उसकी निवृत्ति के लिये सब वचनों का यहां संग्रह तो हो नहीं सकता। और वैसा करने से लेख भी अत्यन्त बढ़ जाना सम्भव है, ऐसा विचार के संक्षेप से लिखते हैं- वेदादिग्रन्थों में कहीं-कहीं सृष्टि आदि विषयों का वर्णन शब्दों के भेद से किया गया है अर्थात् जिस विषय के लिये एक पुस्तक में जैसे शब्द हैं उससे भिन्न द्वितीय पुस्तक में लिखे गये, तब किन्हीं को भ्रम हो जाता है कि इसमें विरोध है। और सब पुस्तकों का लेख एक प्रकार के शब्दों में हो नहीं सकता क्योंकि देश, काल, वस्तु भेद से भेद हो जाता है और अनेक कर्त्ताओं के होने से भी उन-उन की शैली अलग-अलग होती है परन्तु विचारशील लोग जब उसके मुख्य सिद्धान्त पर ध्यान देते हैं तो उस मूल सिद्धान्त में कुछ भेद नहीं जान पड़ता किन्तु अज्ञानियों की बुद्धि में परस्पर विरोध बना रहता है, उसका कारण अज्ञान है। इसमें वेदादि शास्त्रों का कुछ दोष नहीं और इस अज्ञानियों के भेद से संसार की कुछ हानि भी नहीं हो सकती।

तथा अन्य वेदादिग्रन्थों में जहां-जहां सृष्टि का प्रकरण है, वहां-वहां रचना के वर्णन से पूर्व और प्रलयदशा के अन्त में कहा है कि-‘उस ने विचार किया कि मैं अनेकरूप सृष्टि करूँ’१ तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि- ‘संसार की रचना से पहले उसने तप किया’२ यहां तपशब्द से भी सृष्टि-रचना के        अनुसन्धान करने से तात्पर्य है, क्योंकि परमेश्वर के सम्बन्ध में तपशब्द का अर्थ ज्ञान ही लिया गया है। सो ब्राह्मणग्रन्थों में लिखा है कि- ‘जिसका तप ज्ञान है।’३ यही अंश यहां मनुस्मृति में भी लिखा है कि- ‘उसने अपने सामर्थ्य से अनेक प्रकार की प्रजा रचने की इच्छा से विचार करके प्रथम प्राण अर्थात् सूत्रात्मा वायु को रचा’४ सृष्टि विषयक इत्यादि सभी वचनों का एक ही आशय है।

तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि५- ‘उसने तप अर्थात् सत्-असत् अच्छे बुरे की प्रमाण वा कारण के अनुसार समीक्षा करके दो वस्तुओं को अर्थात् प्रथम दो प्रकार की शक्ति को उत्पन्न किया। जिनमें एक का नाम रयि और दूसरे का प्राण नाम रक्खा।’ इन्हीं दोनों का स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति शब्दों से भी व्यवहार करते हैं। कहीं इन्हीं को सूर्य-चन्द्रमा नामों से कहा है, क्योंकि चन्द्रमा में स्त्रीशक्ति की और सूर्य में पुरुषशक्ति की प्रधानता वा उत्तेजकता है। इन्हीं दोनों को भोग्य-भोक्ता वा प्रकृति-पुरुष नामों से भी कोई लोग कहते हैं। इस प्रकार इन दो शक्तियों का अनेक नामों से व्यवहार किया गया है। यही अंश मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है कि- ‘उस परमेश्वर ने प्रारम्भ में अपने सत्त्वादि गुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति नामक एक (जिसमें अनिर्वाच्य होने से द्वित्वादि नहीं कहा जा सकता) सामर्थ्य के दो खण्ड किये, जिसके अर्द्धभाग में पुरुष और आधे भाग में स्त्री हुई। उस स्त्री में विराट् नाम ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न किया।’१ अर्थात् प्रलय के पश्चात् स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना भी जितना जगत्- प्राणी उत्पन्न हुए वा जो कुछ जड़ वस्तु उत्पन्न होकर दृष्टिगोचर हुए उन सबकी उत्पत्ति स्त्रीपुरुषरूप दो शक्ति के मेल से हुई है। क्योंकि सब प्राणी और भूतों की उत्पत्ति से पहले दो शक्तियों की उत्पत्ति दिखाने का यही तात्पर्य है। अनुमान होता है कि इसी आशय को लेकर किन्हीं लोगों ने प्रारम्भ में एक स्त्री वा एक पुरुष को उत्पन्न किया माना है। उसी आदि पुरुष शक्ति को ब्रह्मा, स्त्रीशक्ति को सरस्वती वा महादेव-पार्वती (आदम-हव्वा) आदि नाम रखे गये। सम्भव है कि शक्ति की सौकर्यातिशय विवक्षा में स्वतन्त्र कर्त्ता की अविवक्षा कर देने से शक्ति का प्रयोग शक्तिमान् के स्थान पर मान लिया गया जिससे अनेक असम्भव पौराणिक कथा बन गईं। यहां प्रश्रोपनिषद् और मनुस्मृति का एक ही आशय है। केवल दोनों के कथन में किसी प्रकार कुछ भेदमात्र प्रतीत होता है। लोक में भी एक आशय वाले अविरुद्ध एक विषय को व्याख्यान कर्त्ताओं के भेद से भिन्न जैसा मान लेते हैं। वैसे ही सृष्टि में शास्त्रों का वास्तविक विरोध नहीं है।

सृष्टि प्रक्रिया में वेदों का जो सिद्धान्त है, वही इस मानवधर्मशास्त्र में भी समझना चाहिये। वेदों में जहां-जहां सृष्टि का वर्णन है वहां-वहां सर्वत्र वा प्रायः प्रथम प्रलय दशा का स्वरूप दिखाया गया है। जैसे- ऋग्वेद में लिखा है कि ‘उत्पत्ति से पहले अन्धकार से आच्छादित जगत् का कारण था।’२ इत्यादि प्रकार के मूल वेदमन्त्रस्थ आशय को लेकर के ही वाक्यभेद से मनु जी ने भी लिखा है कि३- ‘यह सब जगत् अन्धकाररूप अज्ञात- किसी प्रकार के चिह्न से रहित सब ओर से सोया जैसा था।’ तथा उक्त मन्त्र के “महिना जायतैकम्…” वाक्य का आशय भी मनुस्मृति के इसी प्रथमाध्याय में “महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः…”2 वर्णन किया गया है। इत्यादि प्रकार वेदानुकूल ही यहां सृष्टि का वर्णन है।

न्याय-मीमांसा और सांख्यादि शास्त्रों में कहीं-कहीं सृष्टि का वर्णन परस्पर विरुद्ध जैसा प्रतीत होता है। वहां भी वास्तविक विरोध नहीं। उस एक-एक में अपने-अपने अभीष्ट व्याख्येय कारण की प्रधानता दिखायी है। वे सब शास्त्रों में माने हुए सब कारण सृष्टि प्रक्रिया में उपयोगी होते हैं। काल, कर्म, उपादान और निमित्त शब्द वाच्यों की ही मुख्यकर शास्त्रों में कारणबुद्धि से प्रधानता दिखायी है। इन्हीं कालादि सृष्टि के कारणों की वेद में भी मुख्यता दीखती है। सो अथर्ववेद में भी “कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत।। कालादापः समभवन्कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः।।3 इत्यादि अनेक मन्त्र काल को ही सृष्टि का कारण कहते हैं कि काल से ही सृष्टि हुई। इसी प्रकार के मन्त्रों का आश्रय लेकर शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से काल की महिमा का वर्णन किया है। और ठीक-ठीक तो यह है कि उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयों में काल ही प्रथम कारण है क्योंकि कभी आधी रात में सूर्य का उदय नहीं हो सकता अथवा न मध्याह्न में अस्त हो सकता है। इसी प्रकार अनियत समय में सृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु अपने-अपने समय में सब उत्पन्न होते, समय आने पर नष्ट होते और अपने समय में सब वस्तु स्थिर रहते हैं। समय पर वृक्ष फूलते-ह्ल लते, समय पर मेघ वर्षता है। इसी प्रकार सब पदार्थ अपने-अपने समय पर उत्पन्न होते हैं। इसीलिये कहा गया कि काल प्रजाओं को उत्पन्न करता है। अर्थात् प्रलय के पश्चात् जब उत्पत्ति का समय आता है तभी परमेश्वर भी जगत् को रचता है किन्तु समय के नियम को परमेश्वर भी नहीं तोड़ता वा तोड़ सकता। तात्पर्य यह है कि प्रलय दशा के भीतर परमेश्वर भी सृष्टि रचने में असमर्थ है। इसीलिये कहा है कि काल ने ही प्रथम सृष्टि होने से पूर्व परमेश्वर को सृष्टि रचने के लिये प्रेरित किया। जैसे प्रातःकाल में सूर्य का उदय होना मनुष्यों को प्रेरणा कर निद्रा से उठाता वा उद्योग कराता है। तथा कश्यप नाम सबको दिखाने वाला, सर्वज्ञ, सर्वाधार, सबकी स्थिति का हेतु, सर्वरक्षक, सर्वसाक्षी परमेश्वर किसी मनुष्य की सहायता के बिना रचना का उद्योग करता है। इसीलिये उसको स्वयम्भू कहते हैं। वह परमेश्वर ऐसा होने पर भी काल की प्रेरणा से ही स्वाभाविक शक्ति के साथ सब करता है। तप नाम सृष्टि रचना का ज्ञान भी काल से ही होता है कि काम मुझको इस प्रकार करना चाहिये। मनुष्य भी अपने शरीर से हो सकने वाली प्रत्येक रचना को काल से ही जानता है कि अमुक काम का समय आ गया, वह अब करना चाहिये। काल से ही जल वा प्राण उत्पन्न हुए। वेदज्ञान और दिशा भी काल से ही उत्पन्न होती हैं, काल से सूर्य का उदय और अस्त होता है। यह सब अथर्ववेद के मन्त्रों का आशय है। इसी प्रकार काल की प्रधानता वैशेषिकशास्त्र में भी विशेषकर कही है।

तथा वेद में कर्मादि को भी सृष्टि के कारण ठहराने वाले बहुत मन्त्र हैं, उनका संग्रह खोजने से हो सकता है। कर्म की प्रधानता मीमांसा और न्याय में कही है। सांख्यशास्त्र में जगत् के उपादान कारण का और वेदान्त ब्रह्मसूत्रों में जगत् के निमित्त कारण का विशेषकर व्याख्यान किया है। वे अपने-अपने अवसर पर सब प्रधान हैं। इसलिये सृष्टि में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है।

विद्वानों ने परमेश्वर के जो काम स्वीकार किये हैं, उनको वह मनुष्य के तुल्य नहीं करता, किन्तु जैसे सूर्य के उदय होने के पश्चात् बहुत कार्य सूर्य के निमितमात्र वर्तमान रहने से होते हैं। सूर्य के होने पर उन कार्यों का वैसा होना और न होने पर वैसा न होना ही सूर्य का निमित्त कारण होना जताता है। वैसे ही परमेश्वर के प्रकट होने पर सृष्टि उत्पन्न होती है (जैसे कि स्वामी के उपस्थित सम्मुख रहने पर सेवक लोग अपना-अपना काम यथावत् करते हैं, स्वामी को कुछ कहने तक की आवश्यकता नहीं होती। पर वह चाहता है कि ये सेवक जन ऐसा करें और सेवक भी चाहते हैं कि हम स्वामी की इच्छानुसार करें) किन्तु वह कुम्हार के तुल्य हाथ से काम नहीं करता। इसी आशय को लेकर कोई लोग सृष्टि करने में परमेश्वर की अपेक्षा नहीं समझते उनको यह भ्रान्ति ही है। क्योंकि निमित्त कारण के बिना वे लोग सृष्टि-प्रक्रिया का प्रतिपादन नहीं कर सकते। अर्थात् जड़ वस्तुओं के संयोगमात्र से ईक्षण पूर्वक सृष्टि नहीं हो सकती। इसलिये श्रौतस्मार्त्त सिद्धान्त के अनुसार सर्वज्ञ चेतन कोई इस जगत् का कर्त्ता है, ऐसा सब शिष्ट विद्वानों का सम्मत हमको भी मान्य है।

उन अवान्तर प्रलयों में जिस प्रकार वा जो सृष्टि उत्पन्न होती है, उसका यहां वर्णन नहीं है किन्तु ब्राह्म कल्प में होने वाली सृष्टि का वर्णन है। और अवान्तर प्रलय ब्रह्म के एक ही दिन में (प्रत्येक मन्वन्तर के आदि-अन्त में जैसा कि सूर्यसिद्धान्त में विशेषकर वर्णन किया गया है) कई बार होते हैं उनमें भूतसृष्टि का सर्वथा प्रलय नहीं होता, किन्तु प्रायः प्राणियों का प्रलय होता है। किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में अवान्तर प्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन है, उसके साथ इस ब्राह्मदिन की सृष्टि का कुछ विरोध हो तो वह विरोध नहीं जानना चाहिये, क्योंकि उन दोनों सृष्टियों में देशकालादि के भेद से विषय में भेद हो गया और विषय भेद में विरोध होता नहीं, किन्तु एक ही विषय में विरोध होता है। उन प्रलय और सृष्टि के भेदों के व्याख्यान का यहां अवसर नहीं, किन्तु यहां तो इस वर्त्तमान ब्राह्मदिन के प्रारम्भ में कैसे सृष्टि हुई ऐसा विचार किया जाता है।

उसमें अन्य भाष्यकारों का यह सिद्धान्त है कि प्रलय दो प्रकार का है एक महाप्रलय और द्वितीय अवान्तर प्रलय। महाप्रलय में ब्रह्मा भी नहीं रहता क्योंकि महाप्रलय का समय आने तक ब्रह्मा की आयु भी पूर्ण हो जाती है और अवान्तर प्रलयों में वही एक ब्रह्मा स्थित रहता वा सोता है। महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन करने में ब्रह्मा की भी उत्पत्ति कहनी पड़ती है। सो यहां मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में ब्रह्मा की उत्पत्ति मानते हैं इससे महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन मनुस्मृति में बतलाना बनता है। ऐसा माना जावे तो इन लोगों के कथनानुसार ब्राह्म महाकल्प का यह प्रथम दिन हुआ और इस हिसाब से ब्रह्मा अभी एक दिन का नहीं हुआ। परन्तु प्रचरित पञ्चाग् और सटल्प की प्रक्रिया से यह कथन विरुद्ध प्रतीत होता है। क्योंकि पञ्चागें के लेखानुसार सटल्प में भी यह पढ़ा जाता है- “समस्तजगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणस्य कमलासनस्य स्वमानेन परमायुर्वर्षशतं तस्यार्द्धं पञ्चाशद् गतमथ ब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे प्रथमवर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वितीययामे- इत्यादि पञ्चाग्ेषु दृश्यते।” इसका तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाले ब्रह्मा की अपने दिन आदि के परिमाण से सौ वर्ष की अवस्था है उसका आधा ५० वर्ष बीत गया अब ब्रह्मा के द्वितीय उत्तरार्द्ध के प्रथम वर्ष के प्रथम मास के प्रथम पक्ष के प्रथम दिन में यह द्वितीय प्रहर है इत्यादि। पाठकों को इससे स्पष्ट विरोध प्रतीत हो जायगा। और परस्पर विरुद्ध पक्ष कदापि ठीक नहीं होते, यह विद्वानों का सिद्धान्त है। और वह ब्रह्मा अपने वर्षों से नियत सौ वर्ष जीवता है। यही महाप्रलय के अन्त में ह्लि र उत्पन्न होकर और अवान्तर प्रलयों में जाग-जाग कर सृष्टि रचता है। इत्यादि प्रकार शरीरधारी की असम्भव आयु स्वीकार करते हैं।

इसका उत्तर यह है कि किसी शरीरधारी की इतनी अवस्था हो नहीं सकती क्योंकि अन्य प्राणियों के तुल्य उसका शरीर भी मिट्टी आदि के परमाणुओं से मिलकर बना है। वे संयोगी पदार्थ कोई ऐसे नहीं जो अर्बों वर्ष चल जावें। सौ वर्ष की अवस्था वाला पुरुष है वा ‘मैं सौ वर्ष तक देखूं’ इत्यादि प्रकार वेद में भी कहा है जिससे सिद्ध है कि मनुष्य का आयु सौ वर्ष का है। और सौ शब्द से दैव वा ब्राह्म कोई सौ वर्ष लिये जावें सो नहीं, किन्तु मानुष ही लिये जावेंगे, क्योंकि वेदसम्बन्धी सब ही नियम वा आज्ञा मनुष्य पर ही घटती हैं। कोई कहे कि वेद में तो “भूयश्च शरदः शतात्” इस प्रमाण के अनुसार अधिक भी आयु हो सकती है। तो भी कोटिगुण अधिक नहीं हो सकती। संयेाग से उत्पन्न होने वाले वस्तु की ऐसी अवधि हो यह कौन बुद्धिमान् मान लेगा ?

तथा संयोग से उत्पन्न हुआ परिच्छिन्न- जिसकी लम्बाई-चौड़ाई आदि की अवधि है, ऐसा मनुष्य अचिन्त्य शक्ति से युक्त और अनन्तशक्ति नहीं हो सकता। सर्वशक्तिमान् परमेश्वर यदि अपने तुल्य अन्य ब्रह्मा को उत्पन्न करे तो जानो यह स्वयं जगत् को नहीं बना सकता। और जब जगत् को नहीं रच सकता तो उसका सर्वशक्तिमान् होना भी सिद्ध होना दुस्तर है। और ऐसा मानने से अनेक ईश्वर माननेरूप दोष भी उनके मत में आता है। और हमको ऐसा कोई प्रयोजन भी नहीं जान पड़ता कि जो प्राणियों की रचना के लिये किसी देहधारी पुरुषविशेष ब्रह्मादि को परमेश्वर बनाये। तिससे यह पक्ष श्रेष्ठ नहीं है।

कोई मेधातिथि आदि भाष्यकार इस प्रसग् में प्रचरित सांख्य के मतानुसार सृष्टि का वर्णन करते हैं तथा इस मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में कोई कुल्लूक भट्ट आदि परमेश्वर ही जगत् का उपदानकारण है ऐसे आधुनिक वेदान्त मत को स्वीकार करके सृष्टिप्रक्रिया का वर्णन करते हैं। और वेदान्त तथा सांख्य के सिद्धान्त में परस्पर विरोध मानते हैं, वह उन लोगों का केवल भ्रममात्र है, किन्तु सांख्य-वेदान्त में सृष्टिप्रक्रिया में मतभेद नहीं है। इस कार्य जगत् का उपादानकारण जड़ कारण ही हो सकता है। कार्य-कारण की विरूपता वा विरुद्धता किसी प्रकार सिद्ध करना ठीक नहीं हो सकता। अर्थात् वेदान्त का यह सिद्धान्त नहीं है कि जगत् का उपादानकारण चेतन आत्मा है। और सांख्य में भी किसी परमात्मा के बिना स्वतन्त्र जड़ स्वरूप प्रकृति विचार पूर्वक होने वाली सृष्टि को नहीं बना सकती। इसलिये दोनों का विरोध न होना ही ठीक है। वेदान्त में निमित्त कारण का तथा सांख्य में उपादान का प्रधानता के साथ वर्णन होने से लोगों को भ्रान्ति हो गई होगी कि सांख्यवादी तो केवल प्रकृति को ही जगत् का कारण मानते हैं, और वेदान्त में भी ब्रह्म को ही कारण माना है, ऐसा अनुमान से भ्रम होना सम्भव जान पड़ता है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर सृष्टि बनाने के पूर्वकल्प सम्बन्धी प्रकार को सोचता है, इसी का नाम ईक्षण, इसी का नाम तप और यही उसका प्रादुर्भाव है, यही उसकी प्रकटता है और इसी से वह स्वयम्भू कहाता है। इन वाक्यों से अन्य किसी देहधारी की उत्पत्ति होती हो ऐसा विचार न करना चाहिये। इस सब कथन से एक ही परमेश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारणरूप है, यह कथन सिद्ध होता है। वाद-विवाद तो बने ही रहते हैं।

कब और किसने इस मनुस्मृति को पुस्तकाकार में बनाया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

मनु कौन है इसका प्रतिपादन करके अब द्वितीय प्रकरण का विचार किया जाता है कि किस समय, किसलिये, किस पुरुष ने यह धर्मशास्त्र बनाया ? लोक में मनुस्मृति वा मानव धर्मशास्त्र नाम से यह पुस्तक प्रचरित है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सब वेदों का अनुसन्धान- पूर्वापर विचार करके संसार के व्यवहार की व्यवस्था करने और अच्छे आचरणों का प्रचार करने के लिये सूत्रादि रूप वाक्यों में धर्म का उपदेश किया, किन्तु उस समय कुछ भी विषय पुस्तकाकार से लिखा नहीं गया था। उस उपदेश को शास्त्र करके मानना वा कहना विरुद्ध इसलिये नहीं है कि शास्त्रशब्द का व्यवहार लेखनक्रिया की अपेक्षा नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन जी ने न्याय सूत्र के भाष्य में शास्त्र का लक्षण भी यही किया है कि ‘परस्पर सम्बन्ध रखने वाले अर्थसमूह का उपदेश शास्त्र है।’१ इससे लिखे वा छपे पुस्तक का नाम शास्त्र नहीं आता। मनु नाम ब्रह्मा जी ने वेद के अर्थ का अनुसन्धान करके वेद को मूल मानकर व्यवहार की व्यवस्था करने के लिये जो विचार किया वह मनुस्मृति कहाती है। और मनु नाम ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में कहा मानव धर्म उसका उपदेश जिसमें है, वह पद और वाक्यादि रूप मानवधर्म शास्त्र कहाता है। अथवा मनु जी के अनुभव से सिद्ध हुआ मानवधर्म, वह जिसमें कहा गया, वह मानवधर्मशास्त्र कहाता है। प्रोक्तार्थ में प्रत्यय करने से प्रतीत होता है कि मानवधर्म का मूल वेद है। क्योंकि किसी सनातन धर्मशास्त्र का आश्रय लेकर शास्त्र बनाया जाय, उसी में प्रोक्त प्रत्यय होता है। इसी कारण प्रोक्ताधिकार२ के पीछे ‘कृते ग्रन्थे3 प्रकरण पाणिनि ने रखा है। और प्र उपसर्ग पूर्वक वचधातु४ से सिद्ध हुए प्रयोगों की पढ़ाने, प्रचार करने, विशेष लुप्त हुए शास्त्रों को निकाल कर चलाने और प्रकारान्तर से व्याख्यान कर सबको जताने, अर्थ में यथासम्भव प्रवृत्ति होती है। यह महाभाष्यकार पतञ्जलि महर्षि का आशय५ प्रोक्ताधिकार के व्याख्यान से प्रतीत होता है। ऐसा मानने से ही वेदों की संहिता के माध्यन्दिनीय और वाजसनेयी आदि नाम निर्दोष बन सकते हैं। अर्थात् माध्यन्दिन, वाजसनेय आदि ऋषियों के नाम से वेद की संहिताएं प्रसिद्ध हैं। इसका अभिप्राय यही है कि जिन-जिन ऋषि जनों ने उन-उन संहिताओं का विशेषकर अध्यापन वा उपदेश आदि द्वारा प्रचार कराया उन-उन के नाम से वे-वे पुस्तक प्रचरित हो गये। किन्तु उन पुस्तकों को ऋषियों ने बनाया नहीं। यदि प्रोक्त अधिकार को नवीन कृत्य माना जावे तो ‘कृते ग्रन्थे’ प्रकरण पुनरुक्त होने से व्यर्थ हो जावे, इस कारण प्रोक्त का वही अर्थ ठीक है कि जो ऊपर लिखा गया है।

पहले सृष्टि के आरम्भ में गुरु-शिष्य की निरन्तर चलने वाली परम्परा के साथ वाक्य, पद और मन्त्ररूप से ही वेदों के उपदेश का प्रचार चलता था। एक ने अपने गुरु से यथावत् सुनकर अन्य अपने शिष्यों को किया। इस प्रकार वेद और धर्मशास्त्र सम्बन्धी सूत्रादि रूप वाक्य सब पढ़ने-पढ़ाने वालों को कण्ठस्थ रहते थे। और शास्त्र के कण्ठस्थ होने से पढ़ने-पढ़ाने वालों को विद्या का जैसा ह्ल ल होना सम्भव है वैसा पुस्तकस्थ पाठ से नहीं हो सकता। इस पर किसी विचारशील पुरुष ने कहा है कि- ‘पुस्तक में पड़ी विद्या और पराये हाथ में गया धन, ये दोनों ही समय पर उपयोगी नहीं होते।’1 इससे विचारशीलों को जान लेना चाहिये कि कण्ठस्थ करना सर्वोत्तम है। ऐसा विचार के ही उस समय के लोगों ने लिखने की प्रवृत्ति नहीं चलाई थी। क्योंकि यदि पुस्तकें लिखी जावें तो विद्यार्थी ‘पुस्तकस्थ अपने पाठ को यथावकाश हम देख सकते हैं’, ऐसा मानकर शास्त्र को कण्ठस्थ न करेंगे, ऐसा विचार के लेखन प्रक्रिया का चलाना हानिकारक समझते थे। और यह कदापि कहना ठीक नहीं बनता कि उस समय के लोगों को लिखने का सामान नहीं मिला अथवा उनको लेखन क्रिया ज्ञात नहीं थी। क्योंकि वेद द्वारा परमेश्वर ने सब क्रियाओं का उपदेश पहले ही किया है।२ जैसी लिखने की परिपाटी इस समय है वैसी पहले न हो, यह हो सकता है, तो भी अभाव नहीं कह सकते। क्योंकि अभाव से भाव नहीं होता। किन्तु संसार के कार्यों का प्रकार बदलता रहता है। इसी के अनुसार पूर्वकाल में अन्य प्रकार का लिखना था। अर्थात् पुस्तकें नहीं लिखी जाती थीं, तो भी भित्ति आदि पर प्रतिबिम्ब रखना, वस्त्रों पर अनेक चित्र काढ़ना या छापना वा किसी में मोहर लगाना वा किसी को अटित करना इत्यादि सब काम लिखने के अन्तर्गत ही समझे जाते हैं। और जब पूर्वकाल सृष्टि के आरम्भ में ही अकारादि वर्णों की आकृति विद्वान् लोगों ने बनाई, तो ह्लि र लेखन- क्रिया नहीं थी, यह कहना ठीक नहीं, किन्तु अपने ही कथन को काटना है। अब यह प्रकरणान्तर है इसलिये इस पर विशेष न लिखकर मुख्य प्रकरण की बात करनी चाहिये। अर्थात् पहले सृष्टि के आरम्भ में शास्त्रों को पुस्तकाकार में लिखने की प्रवृत्ति नहीं थी, यह बहुत कारणों से प्रतीत होता है।

सृष्टि के आरम्भ में शास्त्र भी बहुत नहीं थे, किन्तु वेद से भिन्न कोई ही शास्त्र बना था, उन थोड़ों का कण्ठस्थ करना भी सहज ही था। और जो वेद से भिन्न धर्मसूत्रादि रूप से शास्त्र बने थे, वे छोटे-छोटे थे, इस कारण उनका कण्ठस्थ करना सुलभ था। पीछे जब धीरे-धीरे समय के अनुसार व्यवहार चलाने और वेद के आशय का विशेष प्रचार कराने के लिए आवश्यकता के अनुसार विद्वान् लोगों ने अन्य शास्त्र बनाये तब अनेक शास्त्रों के बढ़ जाने से कण्ठस्थ करना दुस्तर था, इस कारण क्रमशः विद्याधर्मादि का न्यून सेवन हो सकने की शटा से आगे होने वाले शक्तिहीन पुरुषों के उपकार के लिए बने हुए शास्त्र पुस्तकाकार किये गये।१ पहले समय में सत्त्व गुण के प्रचार की अधिकता से रजोगुणी पुरुष बहुत नहीं थे।२ और सत्त्वगुणी पुरुषों का यह स्वाभाविक धर्म है कि वे अपना नाम प्रसिद्ध करने के लिए विशेष प्रयत्न न करके अन्य प्रथमोपदेष्टा पुरुषों के नाम से ही अपने निमित्तमात्र कामों को भी प्रचरित करते थे। वैसे ही यह मनुस्मृति सृष्टि के आरम्भ में सूत्रादिस्थ वाक्यरूपों से मनु जी ने उपदेश की, उसके पीछे भृग जी ने अपने शिष्यों को उपदिष्ट की और भृगु जी ने ही पद्यरूप से क्रमबद्ध आकार में बनायी।

कोई लोग कहते हैं कि भृगु के किसी शिष्य ने यह पुस्तक बनाया और ऐसा मानने पर ही ‘स्वयम्भुवे0’ [अमित तेज वाले स्यम्भू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके, मनु के द्वारा प्रणीत विविध शाश्वत धर्मों को कहूँगा।] यह प्रारम्भ में धरा गया किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में प्राप्त होने वाला श्लोक सार्थक हो सकता है। सो यदि इस पक्ष को सत्य माना जावे कि भृगु के किसी शिष्य का बनाया यह मनुस्मृति पुस्तक है, तो जिनका मत है कि भृगुप्रोक्त यह संहिता है, वह विरुद्ध पड़ेगा। और यह श्लोक भी सब पुस्तकों में नहीं मिलता। इससे इसका एकदेशी होना सिद्ध ही है। तथा व्यूलर ने भी यही कहा है कि कहीं-कहीं मिलने वाला यह श्लोक पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है। यदि यह श्लोक पहले से होता तो सब पुस्तकों में मिलना चाहिए था। इससे अधिकांश सम्मति के अनुसार मेरी भी सम्मति यही है कि यह पुस्तक भृगु का बनाया है और ‘स्वयम्भुवे0’ यह श्लोक किन्हीं का पीछे से मिलाया हुआ है। भृगु के द्वारा बनाया होने पर भी सृष्टि के आरम्भ में मनु ही इस धर्म के आशय के प्रवर्त्तक हैं, कि जिसको मैंने श्लोकबद्ध किया। मेरा कुछ इनमें नवीन कृत्य नहीं, ऐसा मन में विचार के उन्होंने मनु के नाम से ही प्रचरित की, और यह बात सत्य भी है। क्योंकि ऐसा होने पर ही वेदों को ईश्वर का वाक्य कह सकते हैं अर्थात् ईश्वर का ज्ञान मात्र वेद हैं, उसने पुस्तकाकार वेद नहीं बनाये। किन्तु महर्षि लोगों ने पुस्तकाकार किये हैं। तो भी परमात्मा से वेद उत्पन्न हुए, ऐसा कहा वा माना जाता है। किन्तु किसी महर्षि ने वेद बनाये, ऐसा प्रसिद्ध नहीं। इसी प्रकार मनु नामक ब्रह्मा ने इसका स्मरण किया और भृगु ने विशेषदशा में पद्यरूपाकार से बनाया। तो भी जैसा मनु ने स्मरण किया था, वही आशय पुस्तकाकार में लाया गया, इसलिये इस पुस्तक को मनुस्मृति कहना वा मानना ठीक ही है, किन्तु निरर्थक नहीं। तथा अन्य स्मृतियों का पीछे बनना, आधुनिक होना, उन-उन के आशयों और उनमें इसी का अनुवाद दीख पड़ने से प्रतीत होता है। और यह मनुस्मृति पुरानी है, तो भी जहां-तहां बीच-बीच में इतिहासादि सम्बन्धी अनेक श्लोक किन्हीं मतवादियों ने मिला दिये हैं, इससे अत्यन्त नवीन प्रतीत होती है। ऐसी ही बातों को देखकर व्यूलर साहब को भी भ्रान्ति हो गई, जिससे उन्होंने इसको अतिनवीन ठहराया है। उनको भ्रान्ति होने में अनुमान से यह भी कारण जान पड़ता है कि जैसे ईसाई मत अतिनवीन है, इससे थोड़ा इधर-उधर तक का समाचार उन्होंने लगा पाया है। जैसे दो-तीन सहस्र वर्ष से पूर्व हमारे मत या कुटुम्ब के नाम तक का पता नहीं, वैसे ही अन्य भी कोई मत पहले नहीं था। इन लोगों के मत वा सिद्धान्त से चार, पांच वा छह सहस्र वर्षों के पूर्व सृष्टि भी नहीं थी और न कोई शास्त्र था। परन्तु यह उन लोगों का विचार ठीक नहीं, क्योंकि इस आर्यावर्त्त देश में सूर्यसिद्धान्त नामक एक पुस्तक है जो वर्तमान इस चतुर्युगी के त्रेतायुग में बनाया गया। उसमें स्पष्ट लिखा है कि इस अट्ठाईसवीं चतुर्युगी में से अब तक केवल सद्युग बीत गया। उस पुस्तक को बने कई लाख वर्ष बीत गये। इसी प्रकार उससे भी अत्यन्त प्राचीन पुस्तकें इस देश में हैं। तथा काल का परिमाण, काल के अवयवों का वर्णन और कल्प तथा प्रलयादि का वर्णन सूर्यसिद्धान्तादि आर्यों के पुस्तकों में मिलता है। उससे सिद्ध है कि इस सृष्टि को उत्पन्न हुए अरब से ऊपर-ऊपर वर्ष बीत चुके हैं। तब से लेकर क्या मनुष्य विद्या, धर्म आदि से रहित ही थे, और ऐसा कथन कोई बुद्धिमान् मान सकता है ? कदापि नहीं। यदि कोई सनातन ईश्वर माना जावे, तो उसने सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों को कुछ ज्ञान दिया, ऐसा मानना चाहिये। अन्यथा परमेश्वर में दोष आवेगा। और परमेश्वर के किसी काम में भूल है नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि मनुस्मृति भी सृष्टि के आरम्भ से ही रूपान्तर में थी, वह कुछ काल पीछे भृगु ने पद्यरूप में बनायी। तब मनु जी के अभिप्रायानुकूल होने से मनुस्मृति नाम रखा गया। इस आर्यावर्त्त देश में पहले श्लोक बनाने की परिपाटी वा ज्ञान नहीं था यह भी किसी का मानना वा कहना सम्भव नहीं। क्योंकि वेद में सब प्रकार की छन्दरचना प्रत्यक्ष दीखती है। जब वेद में परमेश्वर ने श्लोक बनाने की प्रक्रिया पहले ही दिखा दी है, तो उन्हीं वेदों के पढ़ने-पढ़ाने-जानने और प्रचार करने वाले ब्रह्मादि लोग श्लोक-रचना की रीति न जानते हों, यह कदापि सम्भव नहीं। परन्तु यह सत्य है कि प्रायः उस समय के लोग आजकल के तुल्य श्लोक-रचना नहीं करते थे। उसका अभिप्राय यह था कि बहुत अर्थ जिसमें से निकले ऐसा छोटा शास्त्र बने, ऐसी लाघवबुद्वि से थोड़े अक्षरों तथा गम्भीर वा बहुत अर्थ वाले सूत्ररूप ग्रन्थों को प्रायः रचते थे। जिससे विद्यार्थी लोग ब्रह्मचर्य आश्रम के समय में ही सब शास्त्रों को पढ़ सकें। पर तो भी सर्वथा पद्यरचना का अभाव नहीं था, अर्थात् कोई-कोई श्लोकबद्ध भी शास्त्र बनाते थे। जैसे भृगु जी ने यह स्मृति बनायी वा जैसे त्रेतायुग में सूर्यसिद्धान्त पद्यरूप से बनाया गया। अब यह सिद्ध हो गया कि सृष्टि के आरम्भ में वेद के आश्रय से सांसारिक व्यवहार को ठीक व्यवस्था चलाने के लिये सूत्रादि वाक्यरूपों से मनु जी ने इस स्मृति का उपदेश किया, उसके पीछे भृगु ने श्लोकरूप से बनाया। जैसे इस समय बनने वाले पुस्तकों में संवत्सर का नाम रखा जाता है कि अमुक संवत् में अमुक पुरुष ने यह पुस्तक बनाया, वैसी परिपाटी पहले नहीं थी और कदापि हो तो भी किन्हीं लोगों ने पीछे नष्ट कर दी। इसी से किस संवत् में यह पुस्तक बना, यह कहना नहीं बन सकता। तो भी अनुमान से हम जान सकते हैं कि इस कल्प में संसार की उत्पत्ति होने के पश्चात् परमेश्वर से वेद का उपदेश पाकर अन्य शास्त्र बनने से पूर्व ही मनु जी ने पहले इस धर्मशास्त्र का उपदेश किया। उस समय यह धर्मशास्त्र पुस्तकाकार से नहीं लिखा था। पीछे अनुमान से दो सौ वर्ष के भीतर भृगु जी ने श्लोक रूप से बनाया। उसके पीछे कुछ काल बीतने पर किन्हीं अन्य ऋषि लोगों ने पुस्तकाकार किया। उससे पूर्व श्लोकरूप का ही निरन्तर चलने वाली गुरु-शिष्य की पठन-पाठन प्रणाली से प्रचार था। और प्रचार के अनुसार ही पहले लिखी गयी। पीछे कहीं-कहीं बीच में किन्हीं लोगों ने कुछ-कुछ मिला दिया यही इस प्रसग् में मुख्य और दृढ़ सिद्धान्त है।

और यदि किसी प्रकार व्यूलर साहब आदि के कहने के अनुसार किसी ने दो सहस्र वर्ष के भीतर ही इस धर्मशास्त्र को बनाया, ऐसा सिद्धान्त ठीक हो तो भी हमारा मत यह है कि यदि इस पुस्तक में अन्य स्मृतियों की अपेक्षा गम्भीराशय के साथ पक्षपात को छोड़ के वेदानुकूल वर्णाश्रमादि धर्म का वर्णन किया गया है और अन्य-अन्य प्राप्त होने वाली स्मृतियों में वैसा धर्म का उपदेश नहीं प्राप्त होता है तो वेद के अनुकूल होना ही इस मानवधर्मशास्त्र की उत्तमता में हेतु होगा। यह सब सज्जनों का मत है कि जो वेदानुकूल है, वही श्रेष्ठ है। और यदि किसी प्रकार इसका नवीन बनना सिद्ध हो जावे, तो भी मनुस्मृति नाम रखना विरुद्ध नहीं है। क्योंकि कारण के बिना जब कोई कार्य नहीं होता तो मनु जी ने उपदेश किया सूत्रादि वाक्याकार पुरातन धर्म गुरु-शिष्य की परम्परा से प्रचरित चला आता था, उसी के आश्रय से किसी विद्वान् ने श्लोकरूप से बनाया उसमें भी आदि कर्त्ता मनु की प्रधानता से मनुस्मृति कहना सम्भव है। और इसको आधुनिक मानना हमारा पक्ष नहीं है किन्तु अन्य लोगों के समयानुसार किसी प्रकार कोई इसको आधुनिक मान लें तो भी समूलक वा वेदमूलक होने से प्रशंसा के योग्य अवश्य माननी चाहिये, यह अभिप्राय है। और मैंने तो अपनी सम्मति पूर्व ही लिख दी है।

मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार

ओ३म्

मनु का विरोध क्यों?

लेखक

डॉ. सुरेन्द्र कुमार

‘मनुस्मृति-भाष्यकार एवं प्रक्षेपानुसन्धानकर्ता’

आचार्य (संस्कृत, व्याकरण, साहित्य दर्शन)

एम.ए. (संस्कृत, हिन्दी), पी-एच.डी.

 

आजकल हवा में एक शब्द उछाल दिया गया है-‘मनुवाद’, किन्तु इसमा अर्थ नहीं बताया गया है| इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का| मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का सही अर्थ है-‘गुण-कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्त्व पर आधारित विचारधारा’, और तब, ‘अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अश्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा-गैर मनुवाद|

अंग्रेज-आलोचकों से लेकर आजतक के मनुविरोधी भारतीय लेखकों ने मनु और मनुस्मृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह एकांगी, विकृत, भयावह और पूर्वाग्रहयुक्त हैं | उन्होंने सुन्दर पक्ष की सर्वथा उपेक्षा करके असुन्दर पक्ष को ही उजागर किया है| इससे न केवल मनु की छवि को आघात पहूंचता है, अपितु भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य, इतिहास, विशेषतः धर्मशास्त्रों का विकृत चित्र प्रस्तुत होता है, उससे देश-विदेश में उनके प्रति भ्रान्त धारणाएं बनती हैं| धर्मशास्त्रों का वृथा अपमान होता है| हमारे गौरव का हस होता हैं|

इस लेख के उद्देश्य हैं-मनु और मनुस्मृति की वास्तविकता का ज्ञान कराना, सही मूल्यांकन करना, इस सम्बन्धी भ्रान्तियों को दूर करना और सत्य को सत्य स्वीकार करने के लिए सहमत करना| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन्मना जाति-व्यवस्था से हमारे समाज और राष्ट्र का हस एवं पतन हुआ है, और भविष्य के लिए भी यह घातक है| किन्तु, इस एक परवर्ती त्रुटि के कारण समस्त गौरवमय अतीत को कलंकित करना और उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का कथन करना भी अज्ञता, अदूरदर्शिता, दुर्भावना और दुर्लक्ष्यपूर्ण है| यह आर्य (हिन्दू) धर्म, संस्कृति-सभ्यता और अस्तित्व की जडों में कुठाराघात के समान है|

 

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत खरी और सर्वमान्य नहीं होती| परवर्ती जातिव्यवस्था की तरह आज की व्यवस्था भी पूर्ण नहीं है| यदि कोई त्रुटि आ जाये तो उसका परिमार्जन किया जा सकता हैं| हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इसके लिए एक उदार मूलमन्त्र बहुत पहले से दे रखा है-

‘‘यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि|’’

(तैतिरीय उप.१.११.२)

अर्थात्-हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं |

इसका पालन करके हम अनुत्तम का परित्याग कर उत्तम को बनाये रख सकते हैं| उत्तम ही सत्य है, शिव है| उसका परित्याग करना मूर्खता हैं| आशा है, पाठक इसे पढकर मनु-सम्बन्धी भ्रान्तियों से बच सकेंगे, और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों से अवगत हो सकेंगे तथा उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होंगे |

निवेदक: डॉ. सुरेन्द्रकुमार

 

 

मनु का विरोध क्यों?

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी-शासन के हितों से जुडे और ईसाईयत में दीक्षित कुछ पाश्‍चात्य लेखकों ने पहले-पहल, भारतीयों के मन में प्रत्येक उस वस्तु और व्यक्ति के प्रति योजनाबद्ध रुप से विरोधी संस्कार भरने का और उनकी आस्था भंग करने का षड्यन्त्र किया, जिनका परम्परागत रुप से भारत की अस्मिता, गरिमा और महिमा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था | इस प्रकार नींव पडी भारतीयता-विरोध परम्परा की| अंग्रेजी शासन के प्रभाव, ‘फूट डालो और राज करो’ की कूट राजनीति और मैकाले द्वारा प्रवर्तित कूट शिक्षानीति के सहारे वे कुछ भारतीयों को अपने रंग में रंगने में सफल हो गये | उन्होंने इस परम्परा को निभाया और आगे बढाया| इसी परम्परा में उभरे कुछ वे लोग और वर्ग जिन्होंने सर्वप्रथम समाजव्यवस्थापक, आदि विधिनिर्माता महर्षि मनु और उनके आदि विधानशास्त्र मनुस्मृति को अपनी निंदात्मक आलोचनाओं का केन्द्र बनाया| आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी परम्परा में लिखी आलोचनाओं और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करना कुछ सामाजिक वर्गों का एक लक्ष्म बन बया है, तो अंग्रेजीदां लोगों की परिपाटी और कुछ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का मुद्दा | हमारे राजनीतिक लोगों की बात सबसे निराली है|  अभी पिछले वर्षो में कुछ लोग पार्टी विभाजन होते ही एक ही रात में ‘मनुपुत्र’ से ‘गैरमनुपुत्र’ बन गये और सार्वजनिक मंचों से लगे मनु, मनुस्मृति और मनुपुत्रों को कोसने | एक राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘मनुवाद’ जैसे नये मुद्दे का आविष्कार कर डाला | कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित उच्च न्यायालय के परिसर में जब आदि विधिप्रणेता होने के कारण मनु की प्रतिमा स्थापित की गयी, तो कुछ लोगों को उस जड प्रतिमा को ही विवाद का विषय बना डाला, जो आज एक प्रकरण के रुप में उसी न्यायालय में विचाराधीन है| जबकि वास्तविकता यह थी कि प्रतिमा-विरोध को कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने का सुअवसर समझकर उसका अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में थे|

आश्‍चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति के पढने की बात तो दूर, उसकी आकृति तक देखी नहीं होती | एक दिन मुझे एक उच्चतर डिग्रीधारी ऐसे व्यक्ति मिले जो तुलसीदास की चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’’ को मनु का श्‍लोक कहकर मनु की आलोचना करने लगे | इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु का विरोध करनेवालों में मनु और मनुस्मृति के विषय में सामान्य ज्ञान का कितना अभाव हैं |

सामान्य व्यक्तियों की बात छोड दीजिये, डॉ. अम्बेडकर जैसा व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतना बहक गया है कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता हैं|  शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड दिया हैं |  साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पायी जाती हैं, उसका विवरण लम्बा है| ये सब बातें इंगित करती हैं कि मनुस्मृति को गम्भीरता से पढा नहीं जाता |

ऐसा देखरे में आया है कि मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करनेवालों में प्रमुखतः तीन प्रकार के व्यक्ति हैं | एक तो वे, जिन्होंने मनु को पूर्वाग्रहग्रस्त अंग्रेजी अलोचनाओं और उस परम्परा के माध्यम से पढा है, और जो प्राचीन भारतीय साहित्य में कालक्रम से हुए परिवर्तनों-प्रक्षेपों से परिचित नहीं हैं| दूसरे वे, जिन्होंने मनुस्मृति के मौलिक और प्रक्षिप्त, दोनों पक्षों को चिन्तन-मनन पूर्वक नहीं पढा हैं| तीसरे वे, जिन्होंने किन्हीं भ्रान्तियों, पूर्वाग्रहों और निंहित स्वार्थो के कारण मनु के विरोध को अपना लक्ष्य बना लिया हैं | किन्तु वास्तविकता यह है कि महर्षि मनु का व्यक्तित्व और कृतित्व निंदा और विरोध करने का पात्र नहीं हैं| वे भारत और भारतीयता के लिए गर्व और गौरव के विषय हैं |

भारत में मनु की प्रतिष्ठा

महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित,नियमबध्द,नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पध्दति सिखायी है| वे मानवों के आदि पुरुष हैं, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज और राजनीति व्यवस्थापक, आदि राजर्षि हैं | मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का प्रवर्तन किया | उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है| अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों,लेखकों,कवियों और राजाओं की मिलती हैं, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है | वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है| महर्षि वाल्मीकि रामायण में मनु को एक प्रामाणिक धर्मशास्त्रज्ञ के रुप में उध्दृत करते हैं और हिन्दुओं में भगवान् के रुप में पूज्य राम अपने आचरण को शास्त्रसम्मत सिध्द करने के लिए उसके समर्थन में मनु के श्‍लोकों को उध्दृत करते हैं| महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु का सर्वोच्च धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्री के रुप में उल्लेख करते हुए उनके धर्मशास्त्र को परीक्षासिध्द घोषित किया हैं| अनेक पुराणों में मनु को आदि राजर्षि, शास्त्रकार आदि विशेषणों से विभूषित करके उन्हें लोक हितकारी व्यक्तित्व के रुप में वर्णित किया हैं | निरुक्त में आचार्य यास्क ने मनु के मत को उध्दृत करके ‘पुत्र-पुत्री के समान दायभाग’ के विषय में प्रामाणिक माना है| कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य ने मनु के मत को प्रमाण रुप में उध्दृत किया हैं | स्मृतिकार बृहस्पति मनु की स्मृति को सबसे प्रामाणिक स्मृति मानकर उसके विरुध्द स्मृतियों को अमान्य घोषित करते हैं | बौध्द कवि अश्‍वघोष ने अपनी कृति ‘वज्रकोपनिषद्’ में मनु के वचनों को प्रमाणरुप में उध्दृत किया है| याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति पर ही आधारित हैं|  सभी धर्मसूत्रों और स्मृतियों में मनु के वचनों को समर्थन में प्रस्तुत किया है| वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया हैं| बादशाह शाहजहां के लेखक पुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई,मुसलमान आदम कहकर पुकारते हैं| गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया हैं|

आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में प्रमाण माना है| श्री. अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रुप में सम्मान दिया है| श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ.राधाकृष्णन, जवाहरलाल नेहरु आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को आदि ‘लॉ गिवर’ के रुप में उल्लिखित किया है| अनेक कानूनविदों जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दु लॉ सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथारिटी’ घोषित किया हैं| मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं.नेहरु ने तथा जयपुर में डॉ.अम्बेडकर की प्रतिभा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था|

विदेशों में महर्षि मनु की प्रतिष्ठा

मनु की प्रतिष्ठा, गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा हैं| ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मन से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया’ में मनु को मानवजाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक वर्णित किया हैं| मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, ए.ए.मैकडानल,ए.बी.कीथ,पी. थामस,लुईसरेनो आदि पाश्‍चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ-साथ एक ‘लॉ बुक’ भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनिक तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है| भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज सर विलियम जोन्स ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढकर उसका सम्पादन भी किया| जर्मन के प्रसिध्द दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने तो यहां तक कहा कि ‘‘मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रन्थ है’’ बल्कि ‘‘उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है|’’ अमेरिका से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया आफ दि सोशल साइंसिज’, ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’, कीथरचित ‘हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’, भारतरत्न पी.बी. काणे रचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ डॉ. सत्यकेतु रचित ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति’ आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है, उसे पढकर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता हैं|

बालिद्वीप, बर्मा, फिलीपीन, थाइलैंड, चम्पा(दक्षिणी वियतनाम),कम्बोडिया, इन्डोनेशिया,मलेशिया,श्रीलंका,नेपाल आदि देशों से प्राप्त शिलालेखों और उनके प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि वहां प्रमुखतः मनु के धर्मशास्त्र पर आधारित-कर्मानुसारी वर्णव्यवस्था रही हैं| मनु के विधानों को सर्वोच्य महत्त्व दिया जाता था और उन्हीं के अनुसार न्याय होता था| शिलालेखों में मनुस्मृति के अनेक श्‍लोक उत्कीर्ण पाये गये हैं| राजा लोग स्वयं को मनु का अनुयायी अथवा मनुमार्गगामी कहने में गर्व अनुभव करते थे और मनु की उपाधि धारण करके स्वयं को गौरवान्वित मानते थे| चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग का अनुसरण करनेवाला था| कम्बोडिया के राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथोम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानवनीतिसार’ ग्रन्थ का उल्लेख है, जो मनुस्मृति पर आधारीत था | ‘प्रसत कोमपन’ से प्राप्त राजा यशोवर्मा के अभिलेख में मनुस्मृति का २.१३६ श्‍लोक उध्दृत मिलता है| राजा जयवर्मा के अभिलेख में मनुसंहिता के विशेषज्ञ एक मन्त्री का उल्लेख है| बालिद्वीप में आज भी मनु-व्यवस्था है| उक्त देशों की आचारसंहिताएं/संविधान मनुस्मृति पर ही आधारित थे और बहुत कुछ अब भी है| फिलीपीन के निवासी मानते हैं कि उनकी आचार संहिता के निर्माण के निर्माण में मनु और लाओत्से की स्मृति का प्रमुख योगदान है, इस कारण वहां की विधानसभा के द्वारपर इन दोनों की मूर्तियां स्थापित की गयीं|

हम मनु का कितना ही विरोध कर लें और चाहे कितनी ही निन्दा करलें, मनु का हम से जो सम्बन्ध बन चुका है, वह जब तक इतिहास और यह समाज रहेगा, तब तक मिट नहीं सकता |  आदिवंश प्रवर्तक होने के कारण मनु को न कभी त्यागा जा सकता है, न भुलाया जा सकता हैं|

भारतीय साहित्य और समाज मनु को अपना आदि-पुरुष मानता हैं| सभी मनुष्य मनु की सन्तान हैं| इसी कारण आदमी के वाचक जितने भी नाम हैं, वे ‘मनु’ शब्द से बने हैं, जैसे-मनुष्य,मनुज,मानव,मानुष आदि| इसीलिए निरुक्तकार ने इनकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा हैं-

‘‘मनोः अपत्यम्, मनुष्यः’’ (३.४)

अर्थात्–‘मनु की सन्तान होने से हमें मनुष्य कहा जाता है|’ ब्राह्मणग्रन्थों में भी ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहकर इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है| यूरोपीय विद्वानों ने भाषा विज्ञान के आधार पर राह सिध्द कर दिया है कि कभी युरोप, ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप निवासी एक ही परिवार के सदस्य थे| इन सबकी भाषाओं में मनुष्यवाचक जो शब्द प्रचलित हैं, वे मनुमूलक शुरों के अपभ्रंश हैं | जैसे, ग्रीक और लैटिन में माइनोस, जर्मनी में मन्न,स्पेनिश में मन्नाःअंग्रेजी तथा उसकी बोलियों में मैन,मेनिस,मनुस,मनेस,मनीस आदिः ईरानी-फारसी में नूह (मनुस् के स् को ह होकर और म का लोप होकर) कहा जाता हैं| इन देशों के ऐतिहासिक उल्लेखों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है| ईरानवासी आज भी स्वयं को आर्यवंशी मानते हैं और अपना मूल उद्रम आर्यो के ‘सप्तसिन्धु’ देश से मानते हैं| कम्बोडिया के निवासी स्वयं को मनु की सन्तान कहते हैं| थाईलैंड के निवासी स्वयं को सूर्यवंशी राम के वंशज मानते हैं| राम और कृष्ण दोनों हो मनु की वंशपरम्परा में आते हैं | इस विवरण को पढकर हम कह सकते हैं कि अतीत मएक धर्मशास्त्रकार और विधिदाता (लॉ गिवर) के रुप में महर्षि मनु को जो प्रतिष्ठा और महत्त्व मिला है, वह किसी अन्य को नहीं मिला|

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप

आइये, अब मनु और मनुस्मृति पर लगाये जानेवाले आक्षेपों पर विचार करें| मुख्यरुप से उन्हें तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-

(क)   मनु ने जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था का निर्माण किया|

(ख)  उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों अर्थात् दलितों के लिए पक्षपातपूर्ण एवं

अमानवीय विधान किये हैं, जबकि सवर्णों, विशेषतः ब्राह्मणों को

विशेषाधिकार प्रदान किये हैं| इस प्रकार मनु शूद्रविरोधी थे|

(ग)   मनु स्त्रीविरोधी थे| उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिये| मनु ने स्त्रियों की निन्दा की हैं |

इन तीनों आक्षेपों के समाधान के लिए बाह्य प्रमाणों और मतों की अपेक्षा अन्तःसाक्ष्य अधिक प्रामाणिक रहेंगे, अतः यहां मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं-

 

(क)   मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक स्वरुप

 

१.    मनु की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित और वेदमूलक-मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वेदमूलक हैं| यह मूलतः तीन वेदों (ऋग् १०.९०.११-१२;यजु. ३१.१०-११;अथर्व. १९.६.५-६) में पायी जाती हैं| मनु वेदों को धर्म में परम प्रमाण मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को धर्ममूलक व्यवस्था मानकर उसे वेदों से ग्रहण करके अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया|

 

२.    वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में अन्तर और परस्परविरोध-मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित हैं,जन्म पर आधारित नहीं| यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं| एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती| इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता हैं| वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख हैं| जिन्होंने इनका समानार्थ में प्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया| ‘वर्ण’ शब्द ‘वृत्र्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको वरण किया जाये’ वह समुदाय| निरुक्त में आचार्य यास्क ने इसके अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया हैं-

‘‘वर्णः वृणोतेः’’ (२.१४) = वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है|

जबकि जाति का अर्थ है-जन्म | इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मनुस्मृति में हुआ हैं-

‘‘जाति-अन्धबधिरौ’’ (१.२०१) = जन्म से अन्धे-बहरे |

‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ (४.१४८) = पूर्वजन्म को स्मरण करता है|

‘‘द्विजातिः’’ (१०.४) = द्विज,क्योंकि उसके दो जन्म होते हैं|

‘‘एकजातिः’’ (१०.४) = शूद्र,क्योंकि उसका विद्याजन्म नहीं होता|

एक जन्म ही होता हैं |

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र,इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया हैं| जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी | जब जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह जातिव्यवस्था बन गयी | वर्ण शब्द का धातु-प्रत्यमूलक अर्थ ही यह संकेत देता है कि जब यह व्यवस्था बनी तब यह गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार वरण की जाती थी, जन्म से नहीं थी|

 

३.    वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं-मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बडा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है, किन्हीं जातियों अथवा गोत्रों का परिगणन नहीं किया है| इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं | एक-मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी | दो-जन्म अथवा गोत्र का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी | यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां या गोत्र ब्राह्मण हैं और अमुक शूद्र| मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते हैं, इसका ज्ञान उस श्‍लोक से होता है जहां भोजनार्थ कुल-गोत्र का कथन करनेवाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खानेवाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है (३.१०९) | और आदरन्चडप्पन के मानदण्डों में कुल-गोत्र जाति का उल्लेख ही नहीं है, केवल गुण-कर्मो का हैं|

 

४.    मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ-यदि हम मनु को जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इससे मनुस्मृतिरचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक् कर्मों का विधान किया गया हैं| यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगता है, तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा | उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक हैं| मनु ने जो पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिध्द करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं |

 

५.    वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन का विधान-वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बडा अन्तर यह है कि वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है और व्यक्ति को वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है| मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, जिसमें व्यक्ति को वर्ण परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी | इस विषय मेंमनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्‍लोक प्रमाणरुप में उध्दृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

 

शूद्रो ब्राह्मणताम् एति, ब्राह्मणश्‍चैति शूद्रताम् |

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च ॥

(अ.१०, श्‍लोक ६५)

अर्थात् –‘गुण,कर्म,योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण| इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता हैं |’

 

६.    निर्धारित कर्मों के त्याग से वर्णपरिवर्तन-मनुस्मृति में दर्जनों ऐसे श्‍लोक हैं, जिनमें निर्धारित कर्मों के त्याग से और निकृष्ट कर्मों के कारण द्विजों को शूद्र कोटि में परिगणित करने का विधान किया है (द्रष्टव्य २| ३७,४०,१०३,१६८;४ | २४५ आदि श्‍लोक)| और शूद्रों को श्रेष्ठ कर्मों से उच्चवर्ण की प्राप्ति का विधान है (९.३३५)|

 

७.    महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था का प्रचलन-उ़क्त प्रमाणों और यु़िक्तयों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मनु द्वारा विहित वर्णव्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गुण-कर्मानुसार वर्ण में दीक्षित होने के समान अवसर प्राप्त थे | ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त यह कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है | गीता में स्पष्ट शुरों में कहा गया है-

 

‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’ (४ | १३)

 

अर्थात्-गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है| जन्म के अनुसार नहीं|

 

८.    वर्ण परिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण-भारतीय इतिहास में, सैंकडों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि किसी भी वर्ण को जन्म के आग्रह से नहीं जोडा गया | जैसे-(१) दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ और ‘शूद्रापुत्र’ ‘वत्स’ मन्त्रद्रष्टा होने के कारण दोनों ऋग्वेद के ऋषि कहलाये | (२) क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्‍वामित्र ब्रह्मर्षि बने | (३) अज्ञात कुल के सत्यकाम जाबाल ब्रह्मवादी ऋषि बने| (४) चंडाल के घर में उत्पन्न ‘मातंग’ एक ऋषि कहलाये | (५) (कुछ कथाओं के अनुसार) निम्न कुल में उत्पन्न वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि की पदवी को प्राप्त कर गये | (६) दासीपुत्र विदुर राजा धृतराष्ट के महामन्त्री बने और महात्मा कहलाये | (७) दशरथ पुत्र श्री राम और यदु कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण ‘भगवान’ माने गये | वे ब्राह्मणों के भी पूज्य बने, जबकि उनका कुल क्षत्रिय था | इसके विपरीत कर्मों के ही कारण, (८) पुलस्त्य ऋषि का वंशज लंकाधिपति रावण ‘राक्षस’ कहलाया| (९) राम के पूर्वज रघु का ‘प्रवृध्द’ नामक पुत्र नीच कर्मों के कारण क्षत्रियों से बहिष्कृत होकर ‘राक्षस’ बना | (१०) राजा त्रिशंकु चंडालभाव को प्राप्त हुआ | (११) विश्‍वामित्र के कई पुत्र शूद्र कहलाये |

 

९.    जातियों के वर्णपरिवर्तन-व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है| महाभारत और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जानेवाले श्‍लोकों से ज्ञात होता हैं कि निम्न जातियॉं पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय कर्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में परिगणित हो गयीं-

 

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः |

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥

पौण्ड्रकाश्‍चौड्रद्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः |

पारदाः पहृवाश्‍चीनाः किराताः दरदाः खशाः ॥ (१०.४३-४४)

 

अर्थात्-अपने निर्धारित कर्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं-पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज,यवन,शक,पारद,पहृव,चीन,किरात, दरद,खश॥ महाभारत अनु.३५.१७-१८ में इनके अतिरिक्त मे कल,लाट,कान्वशिरा, शौण्डिक,दार्व,चौर,शबर,बर्बर जातियों का भी उल्लेख हैं|

बाद तक भी वर्णेंपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं| जे.विलसन और एच.एल.रोज के अनुसार राजपूताना,सिन्ध और गुजरात के पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण, और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिला के आमताडा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निम्न जाति से ऊंची जाति के बने (देखिए हिन्दी विश्‍वकोश भाग४)|

१०.   चारों वर्णों में पाये जानेवाले समान गोत्रों का रहस्य-ब्राह्मणों, क्षत्रिय जातियों, वैश्य और दलित जातियों में समान रुप से पाये जाने वाले गोत्र, ऐतिहासिक वंश परम्परा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि वे सभी एक ही मूल परिवारों के वंशज हैं | पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे | बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा| किसी क्षेत्र में वही ब्राह्मण वर्ण में रह गया तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया| कालक्रमानुसार जन्म के आधार, पर उनकी जाति रुढ हो गयी|

११.   वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व-मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण,कर्म-योग्यता | मनु व्य़िक्त अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-सम्मान नहीं देते अपितु उक्त गुणों को देते हैं | जहॉं इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व, आदर-सम्मान अधिक है, न्यून होने पर न्यून हैं| आज तक संसार की कोई भी सभ्य व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी| इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष,आक्रोश,अव्यवस्था और अराजकता| मुहावरों की भाषा में इसी स्थिती को कहते हैं ‘घोडे-गधे को एक समझना’ या ‘सभी को एक लाठी से हांकना|’ इसका परिणाम होता है, कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृध्द हो सकता है, न सम्पन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित | ऐसी व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती| वर्तमान में निश्‍चित सर्वसमानता का दावा करने वाली साम्यवादी व्यवस्था भी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी| उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं| उन्हीं के अनुरुप वेतन, सुविधा और सम्मान में अन्तर हैं|

हमारी आजकल की प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था की तुलना करके देखिए, मनु की बात आसानी से समझ आ जायेगी और ज्ञात होगा कि मनु की और आज की इन व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता है| सरकार की प्रशासन व्यवस्था में चार वर्ग हैं- १. प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, २. द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, ३-४ तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी | इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारी हैं, दूसरे कर्मचारी | यह विभाजन गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, सम्मान एवं अधिकार हैं | इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल,आश्रम,आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय,विश्‍वविद्यालय आदि) ही करते हैं | शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी श्रेणी में आता है| पहले भी जो गुरु के पास जाकर विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी | शूद्र के अर्थ हैं-‘निम्न स्थितिवाला’ ‘आदेशवाहक’ आदि | नौकर, चाकर, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, निम्न श्रेणी कर्मचारी, आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है आप स्वयं देख लीजिये | व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं हैं | शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करके ही व्यवसाय की अनुमति है, उसके बिना नहीं | सबके नियम-कर्तव्य निर्धारित हैं| उनकी पालना न करनेवाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता हैं |

१२.   शूद्रों को वर्ण परिवर्तन के व्यावहारिक अवसर-जो लोग अपने आपको ‘शूद्र’ समझते हैं और अभी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु माननेवाला और मनु के सिध्दान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलनेवाला ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आव्हान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता हैं| जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शुद्रों को न पढाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सती प्रथा, शोषण आदि को सामाजिक बुराइयॉं घोषित करके उनके विरुध्द संघर्ष किया था | नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले | अपनी शिक्षा संस्थाओं में शूद्रों को प्रवेश दिया, परिणामास्वरुप वहॉं शिक्षित सैंकडों-दलित संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं| दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने संघर्ष को नहीं छोडा| इन घटनाओं से अनभिंज्ञ दलित-लेखक आर्यसमाज को भी रंगीन चश्मे से देखते हैं| क्या उनकी यह अकृतज्ञता नहीं है?

१३.   व्यवस्था का सही मूल्यांकन-मनुका समय अति प्राचीन है| यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमुल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरुप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं | मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी| यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाववाली रही और हजारों वर्षों तक वह प्रचलित होती आयी है| इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरुप को खोकर विकृत हो गयीं | समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ| किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी| यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुडी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा| किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए, वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है|

महर्षि मनु और डॉ.अम्बेडकर

१४.   भारतीय लेखकों में मनु के विरोध की परम्परा के प्रमुख संवाहक और प्रेरणास्त्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे| यद्यपि जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं, यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता, जो उन्होंने किया; किन्तु मनु और मनुस्मृति को गम्भीरता एवं पूर्णता से समझे बिना, पूर्वाग्रहों के कारण, उन्होंने मनु के विषय में जो व्यवहार किया, वह भी सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण था | एक कानूनविद् होने के नाते उन पर इस अनौचित्य की जिम्मेदारी अधिक आती है| उन्होंने संविधान में प्रावधान किया है कि ‘अनुचित निर्णय से निरपराध को दण्ड नहीं मिलना चाहिए, चाहे अपराधी मुक्त हो जाये|’ किन्तु उन्होंने अपने जीवन में इसका पालन नही किया| परवर्ती समाज द्वारा बनायी गयी जन्माधारित सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर अनावश्यक रुप से उन्हें दोषी घोषित करते रहे और उनके विरुध्द निंदा अभियान चलाते रहे, आर्य (हिन्दु) समाज में प्रतिष्ठित एक महर्षि के लिए बेहद कटु वचनों का प्रयोग करते रहे| हालांकि तत्कालीन बहुत से व्यक्ती उनका ध्यान बार-बार इस तथ्य की ओर आकर्षित करते रहे कि मनु के विषय में अभी उनकी कुछ भ्रान्तियॉं और पूर्वाग्रह हैं, वे उन्हें दूर कर लें, किन्तु वे पूर्वाग्रहों पर अडे रहे| उसके कई कारण थे| जो कुछ तब वे मनु के विषय में लिख चुके थे, शायद उसको छोडना नहीं चाहते थे, और उन्हीं के शब्दों में ‘‘उन पर मनु का भूत सवार था और उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे उसे उतार सकें|’’ सत्य है, उस भूत को वे जीवन-पर्यन्त नहीं उतार सके और जीवन के उपरान्त उसे अपने अनुगामियों पर छोड गये| लेकिन क्या ‘भूत सवार होना’ सामान्य स्थिति, संतुलित विचार, विवेकपूर्ण सही समीक्षा का परिचायक माना जा सकता है?

यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|

१५.   डॉ. अम्बेडकर के, मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था विषयक, आधारभूत मन्तव्यों को यहां प्रस्तुत करके उन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि उससे उनकी समीक्षा के साथ-साथ इस लेख को एक नया प्रमाण मिलेगा | वे लिखते हैं-

ह्न   ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी|’’ (भारत में जातिप्रथा पृ० २९)

ह्न   ‘‘यह निर्विवाद है कि वेदों में चातुर्वर्ण्य के सिध्दान्त की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त के नाम से जाना जाता हैं |’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० १२२)

ह्न   ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश किया है| वर्ण जाति की जननी है और इस अर्थ में, मनु जाति व्यवस्था का लेखक न भी हो, परंतु उसका पूर्वज होने का उस पर निश्‍चित ही आरोप लगाया जा सकता है|’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० ४२)

ह्न   ‘‘मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिध्दान्त की जो व्याख्या की है, वह बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्‍चित करने का निर्धारक तत्व हो| वह केवल योग्यता को मान्यता देती है|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ० ११९)

ह्न   ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो|’’ (वही पृ० ११९)

ह्न   ‘‘जाति का आधारभूत सिध्दान्त वर्ण के आधारभूत सिध्दान्त से मूल रुप से भिन्न है, न केवल मूलरुप से भिन्न है, बल्कि मूल रुप से परस्पर विरोधी है| पहला सिध्दान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है|’’ (वही पृ० ८१)

१६.   प्रस्तुत उध्दरणों में डॉ.अम्बेडकर स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई| मनु इसके निर्माता नहीं, केवल पोषक हैं| वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी हैं| मनु जाति व्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं| इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं| वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया | यदि वर्णव्यवस्था बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया| मनु वैदिक धर्मावलम्बी होने से वेदों को परम प्रमाण मानते हैं| अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं| सभी धर्मावलम्बी ऐसा करते हैं| बौध्द बनने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने भी बौध्द विचारों का प्रचार-प्रसार किया है| यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित है| इतनी स्वीकारोक्तियॉं होने के उपरान्त भी, आश्‍चर्य है कि डॉ.अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिम्मेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं| परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर उन्हें कटु वचन कहना कहॉं का न्याय हैं?

संविधान में चवालीस वर्षों में अस्सी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकुल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढाना,मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि, क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता हैं?

१७.   डॉ.अम्बेडकर का मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं| कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा| जैसे-किसी ने श्राध्द नहीं किया तो वह पिछली छह पीढियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक हैं| किसी ने श्राध्द किया तो उसकी पिछली छह-पीढियॉं तर जायेंगी, क्योंकि वे उसकी ‘जनक’ हैं| ऐसे ही, जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उनके पोषक मनु भी दोषी हैं| आश्‍चर्य तो यह है कि कानूनवेत्ता एक कानूनदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा हैं| संविधान में तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी को दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके जनक हैं | विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिध्दान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में भी लागू कर देते तो इससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतंत्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रता द्रोह किया था, जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी | वे लोग मुरब्बे, पद पैसे पाकर तब भी सम्पन्न-सुखी थे, आज भी हैं और स्वतन्त्रतासेनानी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो| यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता|

१८.   वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा हैं, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जान बुझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे| डॉ.अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है| क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं| इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में क्या रुप होगा|

१९.   डॉ.अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के निर्माता एवं पोषक हैं| दुर्भाग्य से, सैकडों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रुप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिम्मेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये| इसी प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है| मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत हैं| सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया, अतः वही समाज इसका जनक भी है, दोषी भी|

२०.   जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था|’ यह तो स्वयं ही डॉ.अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिम्मेदार नहीं है| इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था| वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी और सर्वस्वीकृत थी| मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी| समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया हैं, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्ण व्यवस्था का पोषण किया था | इसमें दोष या दोषी होने का अवसर ही कहॉं हैं?

२१.   संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती| अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दु व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता | आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सम्पूर्ण हैं? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी हैं| सामायिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है| आज के सैकडों वर्ष पश्‍चात् जब ये परिस्थितियॉं विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशास्त्रों का लिखा जा रहा हैं |

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान हैं| कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं| थोडे से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुँच गयी है कि प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सम्बन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः लिये जाते हैं, योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है| साक्षात्कार योग्यता की जांच के लिए आयोजित होते हैं, किन्तु वहॉं भी हजारों नौकरियॉं सिफारिश और पैसें के आधार पर दी जा रही हैं| न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसकी सत्यापित प्रमाण हैं| राजनीतिक क्षेत्र के पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पडती | वहॉं अपने-परायें का नग्न रुप हैं| कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड रही हैं, सैंकडो वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रुप ले गयीं तो क्या उसकी जिम्मेदारी डॉ.अम्बेडकर और उनकी संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी जानी चाहिए? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति- व्यवस्था का जनक और जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता|

२२.   इनसे भी अधिक अविचारित और खतरनाक बात जो डॉ.अम्बेडकर ने कही है, वह है-‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन पृ.९९)| एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्ण व्यवस्था हैं और वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुध्दिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी वेदों में डायनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं | कितना परस्पर विरोधी वक्तव्य है उनका! वेद,धर्मशास्त्र,रामायण,महाभारत,पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोडने की बात कही है उन्होंने! धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्त्रोत होते हैं धर्मशास्त्र | उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (हिन्दु) संस्कृति-सभ्यता, धर्म, सब कुछ को नष्ट करना | क्या डॉ.अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ.अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीडित थे और उन्हें वह छोडना था, तो वे उसे छोडकर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके | उन्होंने बौध्द धर्म का आश्रय लिया और बौध्द धर्मशास्त्रों को प्रमाण माना जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशास्त्रों का त्याग करने को कहते हैं| यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उध्दृत करना चाहूंगा-‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान नहीं हो सकता, बाइबल को अस्वीकार कर ईसाई नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों-शास्त्रों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’ डॉ.अम्बेडकर की यह सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोडा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये |

२३.   वेदों में जाति व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है| फिर भी डॉ.अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया| बौध्द होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है| उन्होंने बौध्द-शास्त्रों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौध्द शास्त्रों में महात्मा बुध्द ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है| कुछ प्रमाण देखिए-

(अ)   ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम् |

न उच्चावचं गच्छति भूरिपत्र्वो |’’ (सुत्तनिपात २९२)

 

अर्थात्-महात्मा बुध्द कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता|’

(आ)  ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा |

सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सो जाति जरांति ब्रूमीति ॥

(सुत्तनिपात १०६०)

अर्थात्-‘वेद को जाननेवाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है|’ अन्य श्‍लोक द्रष्टव्य हैं-३२२,४५८,५०३,८४६,१०५९आदि|

२४.   डॉ.अम्बेडकर की मनु-विरोध परम्परा में डॉ.भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-‘विरोध’ केवल विरोध के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है| उसमें न तर्क है, न सम्यक् विश्‍लेषण | अपव्याख्या और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिध्द करने का प्रयास है| उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्ह = सम्मानयोग्य’’ क्यों कहा गया! इसी को कहते है ‘चित भी मेरी पट भी मेरी|’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है | महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते | बौध्द हैं, किन्तु बौध्द साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्व को स्वीकार नहीं करते| स्वयं को गर्व से अवैदिक=अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शास्त्रों के तथाकथित उध्दार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में लगे रहे|

२५.   मनुस्मृति-विरोधी सभी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरुप से पायी जाती हैं |  उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिध्द करनेवाले आपत्तिरहित श्‍लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बध्द होने के कारण मौलिक माना जाता है, को उध्दृत ही नहीं किया| केवळ आपत्तिपूर्ण श्‍लोकों, जिन्हें कि प्रक्षिप्त माना जाता है, को उध्दृत करके निन्दा-आलोचना की है| उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही पुस्तक में, एक ही प्रसंग में स्पष्टतः परस्पर विरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्‍न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वयं मिल जाता | न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते|

(ख)  मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

आइये, अब विचार करते हैं मनुस्मृति के सबसे अधिक चर्चित और विवादास्पद शूद्र सम्बन्धी विषय पर| मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शूद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं| वे इस प्रकार हैं-

१.    दलितों-पिछडों को शूद्र नहीं कहा-आजकल की दलित, पिछडी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं ‘शूद्र’ नहीं कहा गया हैं| मनु की वर्णव्यवस्था है, अतः सभी व्यक्तियों के वर्णों का निश्‍चय गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर किया गया है, जाति के आधार पर नहीं | यही कारण है कि शूद्र वर्ण में किसी जाति की गणना करके यह नहीं कहा है कि अमुक-अमुक जातियॉं ‘शूद्र’ हैं| परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों को शूद्रवर्ग में सम्मिलित कर दिया| कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिम्मेदारी मनु पर थोंप रहे हैं| विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका दण्ड मनु को दिया जा रहा है| न्याय की मांग करनेवाले दलित प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है?

२.    मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों पर लागू नहीं होती| मनु द्वारा दी गयी शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछडी जातियों पर लागू नहीं होती| मनुकृत शूद्र की परिभाषा है–जिनका ब्रह्मजन्म = विद्याजन्म रुप दूसरा जन्म होता है, वे ‘द्विजाति’ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं | जिसका ब्रह्मजन्म नहीं होता वह ‘एकजाति’ रहनेवाला शूद्र है| अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन वेदाध्ययन, विद्याध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका ‘विद्याजन्म’ नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में ‘ब्रह्मजन्म’ कहा गया है| जो जानबूझकर, मन्दबुध्दि होने के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण ‘विद्याध्ययन’ और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता, वह अशिक्षित व्यक्ति ‘एकजाति=एक जन्मवाला’ अर्थात शूद्र कहलाता हैं| इसके अतिरिक्त उच्च वर्णों में दीक्षित होकर जो निर्धारित कर्मों को नहीं करता, वह भी शूद्र हो जाता है (मनु० २.१२६,१६९,१७०,१७२; १०.४ आदि) इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ)   ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः, त्रयो वर्णाः द्विजातयः |

चतुर्थः एकजातिस्तु, शूद्रः नास्ति तु पंचमः ॥ (मनु० १०.४)

 

अर्थात्-ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,इन तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है| चौथा वर्ण एकजाति=केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करनेवाला और विद्याजन्म न प्राप्त करनेवाला, शूद्र है | इन चारों वर्णों के अतिरिक्त कोई वर्ण नहीं है|

(आ)  शूद्रेण हि सपस्तावद् यावद् वेदे न जायते | (२.१७२)

अर्थात्-जब तक व्यक्ति का ब्रह्मजन्म = वेदाध्ययन रुप जन्म नहीं होता, तब तक वह शूद्र के समान ही होता है|

(इ)   न वेत्ति अभिवादस्य.. .. यथा शूद्रस्तथैव सः | (२.१२६)

अर्थात्-जो अभिवादन विधि का ज्ञान नहीं रखता, वह शूद्र ही है|

(ई)   ‘‘प्रत्यवायेन शूद्रताम्’’ (४.२४५)

अर्थात्-ब्राह्मण, हीन लोगों के संग और आचरण से शूद्र हो जाता है|

बाद तक भी शूद्र की यही परिभाषा रही है-

(उ)   जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते | (स्कन्दपुराण)

अर्थात्-प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता हैं|

मनु की यह व्यवस्था अब भी बालिद्वीप में प्रचलित हैं| वहॉं ‘द्विजाति’ और ‘एकजाति’ संज्ञाओं का ही प्रयोग होता है| शूद्र को अस्पृश्य नहीं माना जाता|

३.    शूद्र अस्पृश्य नहीं-अनेक श्‍लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के एति मनुं की मानवीय सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे | मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट, शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ऐसा विशेष्य व्यक्ति कभी अस्पृश्य या घृणित नहीं माना जा सकता (९.३३५) | शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (१.९१;९.३३४-३३५)| किसी द्विज के यहां यदि कोई शूद्र अतिथिरुप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (३.११२)| व्दिजों को आदेश है कि अपने भृत्यों को, जो कि शूद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद, भोजन करें (३.११६)| क्या आज के वर्णरहित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? कितना मानवीय, सम्मान और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का|

वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मापुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख,बाहु,जंघा, पैर से क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी है(१.३१)| इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं| एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं| दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता| तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है| ऐसे श्‍लोकों के रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

४.    शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी हैं| मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (२.१११,११२,१३०)| किन्तु शूद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति वृध्द शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है| यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया हैं-

‘‘मानार्हः शूद्रो ऽपि दशमीं गतः’’ (२.१३७)

अर्थात्-वृध्द शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें| शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है|

५.    शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता-‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (१०.१२६) अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है| इस तथ्य का ज्ञान उस श्‍लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए’ (२.२१३) | वेदों में शूद्रों को स्पष्टतः यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढने का अधिकार दिया हैं–

(अ)   यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः |

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ॥ २६.२)

 

अर्थात्-मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश सभी मनुष्यों-ब्राह्मण,क्षत्रिय,शूद्र,वैश्य,स्वाश्रित स्त्री-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है|

(आ)  यज्ञियासः पश्‍चजनाः मम होत्रं जुषध्वम् | (ऋग्० १०.५३.४)

पश्‍चजनाः = चत्वारो वर्णाः, निषादः पश्‍चमः | (निरुक्त ३.८)

 

अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें|’ चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पश्‍चजन कहलाते हैं|

मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएं हैं| यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता |

६.    दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-पाठकवृन्द! आइये, अब मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं| यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं| मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण-दोष, और आधारभूत तत्व हैं-बौध्दिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध का प्रभाव | मनु की दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है| यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं| इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक| मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होती हैं-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्|

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविध्दि सः ॥

 

अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अठ्ठाईसगुणा दण्ड करना चाहिए क्योकिं उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझनेवाले हैं|

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी हैं, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों| राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोडे और कोई समृध्द व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोडे (८.३३५, ३४७)

देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है| इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा | आज की दण्डव्यवस्था का नारा हैं-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं|’ पहला विरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सम्मान व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा| दूसरा, यथायोग्य दण्ड नहीं| इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी को भी| इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी को अनुभूति ही नहीं होगी| क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? समान दण्ड तो वह हैं, जो लोकव्यवहार में प्रचलित हैं | भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता हैं| दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यमवर्गीय थोडा कष्ट अनुभव करके और समृध्द-सम्पन्न जूती की नोक पर रख कर देगा | इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंस जाते हैं, धन-पद-सत्ता-सम्पन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तुडा कर निकल भागते हैं| आंकडे इकठ्ठे करके देख लीजिए, स्वतन्त्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सम्पन्न लोगों को| आर्थिक अपराधों में समृध्द लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं, अपराध करते रहते हैं | मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन नहीं है|

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है| वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता हैं| शूद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह प्रक्षिप्त श्‍लोकों में है| उक्त दण्डनीति के विरुध्द जो श्‍लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं|

७.    शूद्र दास नहीं है-शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का कथन मनु के निर्देशों के विरुध्द है| मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्‍चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रुप से न काटा जाये (७.१२५-१२६-;८.२१६) |

८.    शूद्र सवर्ण हैं-वर्तमान मनुस्मृति को उठाकर देख लीजिए, उनकी ऐसी कितनी ही व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें परवर्ती समाज ने अपने ढंग से बदल लिया है| मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है, चारों से भिन्न को असवर्ण (१०.४,४५), किन्तु परवर्ती समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया| मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि के कार्य करनेवालें लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (३.६४;९.३२९;१०.९९;१०.१२०), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शूद्रकोटि में ला खडा कर दिया| दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (१.९०), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी कृषि-पशुपालन कर रहा हैं, उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया| इनको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता हैं?

इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएं न्यायपूर्ण हैं| उन्होंने न शूद्र और न किसी अन्य वर्ण के साथ अन्याय या पक्षपात किया है|

 

(ग)   मनुस्मृति में नारियों की स्थिति

मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्य कहते हैं कि मनु की जो स्त्री-विरोधी छवि प्रस्तुत की जा रही है, वह निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है| मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बन्धित जो व्यवस्थाएं दी हैं वे उनके सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं| कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

१.    नारियों को सर्वोच्य महत्त्व-महर्षि मनु संसार के वह प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और सम्मान को असाधारण ऊंचाई प्रदान करता है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः॥ (३.५६)

 

इसमा सही अर्थ है-‘जिस परिवार में नारियों का आदर-सम्मान होता है, वहां देवता=दिव्य गुण,कर्म,स्वभाव,सन्तान,दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-सम्मान नहीं होता, वहां उनकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं|’

स्त्रियों के प्रति प्रयुक्त सम्मानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढकर, नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध करानेवाले प्रमाण और कोई नहीं हो सकते| वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग, संसारयात्रा की आधार हैं (९.११,२६,२८;५.१५०)| कल्याण चाहनेवाले परिवारजनों को स्त्रियों का आदर-सत्कार करना चाहिये, अनादर से शोकग्रस्त रहनेवाली स्त्रियों के कारण घर और कुल नष्ट हो जाते हैं| स्त्री की प्रसन्नता में ही कुल की वास्तविक प्रसन्नता है (३.५५-६२)| इसलिए वे गृहस्थों को उपदेश देते हैं कि परस्पर संतुष्ट रहें एक दूसरे के विपरीत आचरण न करें और ऐसा कोई कार्य न करें जिससे एक-दुसरे से वियुक्त होने की स्थिति आ जाये (९.१०१-१०२)| मनु की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक श्‍लोक ही पर्याप्त है-

 

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः|

स्त्रियः श्रियश्‍च गेहेषु न विशेषो ऽस्ति कश्‍चन ॥ १.२६)

 

अर्थात्-सन्तान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर-सम्मान के योग्य, गृहज्योति होती हैं स्त्रियां| शोभा-लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं|

२.    पुत्र-पुत्री एक समान-मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होगा कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान निर्माता हैं| जिन्होंने पु-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है-

‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनु० ९.१३०)

अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है| वह आत्मारुप है, अतः वह पैतृकसम्पत्ति की अधिकारिणी है|

३.    पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार-मनु ने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है| उनका यह मत मनुस्मृति के ९.१३०, १९२ में वर्णित है| इसे निरुक्त में इस प्रकार उध्दृत किया गया हैं-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः |

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.१.४)

अर्थात्-सृष्टि के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मनु ने यह विधान किया है कि दायभाग = पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है| मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृध्दि की है (९.१३१)|

४.    स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश-स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लें, तो उन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है (९.२१२;३.५२;८.२;८.२९)|

५.    नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड-स्त्रियों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करनेवालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाने का यत्न किया है(८.३२३;९.२३२;८.३५२)| नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं| पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें (४.१८०), इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है(८.२७५,३८९;९.४)|

६.    वैवाहिक स्वतन्त्रता एवं अधिकार-विवाह के विषय में मनु के आदर्श विचार हैं| मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयम्वर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी हैं (९०९०-९१)| विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है, साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (९.१७६,९.५६-६३)| उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतःविवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है(३.५१-५४)| स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझाव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन,दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए(९.८९)|

७.    सहभागिता तथा धर्मानुष्ठान में अपरिहार्यता-विश्‍व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में स्त्रियों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती| यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान स्त्री को साथ लिए बिना सम्पन्न नहीं होता| यही मनु की मान्यता है| इसलिए धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व स्त्री को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है(९.११,२८,९६)| वैदिक काल में स्त्रियों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे| वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं| उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्टी् ऋषिकाएं बनती थी | वेदों को धर्म में परम प्रमाण माननेवाले ऋषि मनु वेदानुसार स्त्रियों के सभी धार्मिक अधिकारों तथा उच्च शिक्षा के समर्थक हैं| तभी उन्होंने स्त्रियों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करने और धर्मकार्यों का अनुष्ठान स्त्रियों के अधीन घोषित किया है(२.४;३.२८)|

८.    स्त्रियों को प्राथमिकता-‘लेडीज फस्ट’ की सभ्यता के प्रशंसकों को यह पढकर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘स्त्रियों के लिए पहले रास्ता छोड दें| नवविवाहिताओं,कुमारियों,रोगिणी, गर्भिणी,वृध्दा आदि स्त्रियों को पहले भोजन करा के फिर पति-पत,नी को साथ भोजन करने का कथन है(२.१३८;३.११४,११६)| मनु के ये सब विधान स्त्रियों के प्रति सम्मान और स्नेह के द्योतक हैं|’

९)    स्त्रियों की अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षघर नहीं-यहां प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना उपयोगी रहेगा कि मनु गुणों के प्रशंसक हैं और अवगुणों के निन्दक| गुणियों को सम्मानदाता हैं, अवगुणियों को दण्डदाता| यदि उन्होंने गुणवती स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान दिया है, तो अवगुणवती स्त्रियों की निन्दा की है और दण्ड का विधान किया है| मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं| इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है(५.१४९;९.५-६)| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथमं सामाजिक आवश्यकता है-सुरक्षा की| वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य| भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देती| उदाहरणों से पता चलता है कि शस्त्रधारिणी डाकू स्त्रियों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रही है| मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है| आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है| फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं| प्रतिदिन बलात्कार, नारी-हत्या जैसे जधन्य अपराधों की हजारों घटनाएं होती रहती हैं| जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती रहती है, कानून शिथिल पड जाते हैं, जब क्या परिणाम होगा, उस स्थितिमें मनु के वचनों के महत्त्व को आंककर देखना चाहिये| तब यह मानना पडेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं|

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री-शूद्रविरोधी नहीं हैं, वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं| मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो|

मनुस्मृति में प्रक्षेप

अब प्रश्‍न उठता है, कि ठीक है, मनुस्मृति में उत्तम विधानों के श्‍लोक हैं, किन्तु मनु-विरोधी लेखकों द्वारा प्रस्तुत श्‍लोक भी तो मनुस्मृति के ही हैं, जो सर्वथा आपत्ति योग्य हैं| इस प्रकार बडी उलझनभरी स्थिती ज्ञात होती हैं मनुस्मृति की| उसमें एक ही साथ न्यायपूर्ण श्रेष्ठ विधान भी हैं और अन्यायपूर्ण निन्द्य विधान भी! लेकिन क्या मौलिक रुप से यह स्थिति संभव मानी जा सकती है? जब एक प्रबुध्द सामान्य लेखक की रचना में भी इस प्रकार के परस्पर विरोध नहीं मिलते तो एक धर्मवेत्ता, विधिवेत्ता ऋषि के धर्म और विधिशास्त्र में ऐसे विरोध कैसे हो गये? इसका सीधा-स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर है कि जो न्यायपूर्ण,श्रेष्ठ और गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित विधान हैं, वे मनु के मौलिक श्‍लोक हैं, जो इनके विरुध्द अन्याय और पक्षपातपूर्ण हैं, वे प्रक्षिप्त हैं अर्थात् समय-समय पर बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिला दिये हैं| इस उत्तर की पुष्टि मनुस्मृति पर आधारित मादडण्डों से ही हो जातीं है| मौलिक श्‍लोक पूर्वापर प्रसंगों से, विषयों से जुडे हुए हैं और गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित गम्भीर शैली में हैं, जबकि प्रक्षिप्त श्‍लोक प्रसंग और विषयविरुध्द तथा भिन्न शैली के हैं| इन आधारों के अनुसार अब हम कह सकते हैं कि इस लेख में उध्दृत श्‍लोक मौलिक हैं और इनकी भावना के विपरीत श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं, जिन्हें कि मनु-विरोधी लेखकों ने विरोध का आधार बनाया हैं| संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोक इस प्रकार हैं-

१.    मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ.अम्बेडकर ने भी इसे स्वीकार किया हैं), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित जो श्‍लोक हैं, वे मौलिक हैं| इनके विरुध्द जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करनेवाले श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

मनु के समय जातियॉं नहीं बनी थीं| यही कारण है कि मनु ने वर्णों में जातियों की गणना नहीं दर्शायी हैं| इस शैली और सिध्दांन्त के आधार पर वर्णसंस्कारों से सम्बन्धित श्‍लोक भी प्रक्षिप्त हैं|

२.    इस लेख में उध्दृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘जनरल कानून’ है, मौलिक है; इसके विरुध्द पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डव्यवस्था विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

३.    इस लेख में उध्दृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्‍लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

४.    इस लेख में उध्दृत नारियों के सम्मान, स्वतन्त्रता, समानता, शिक्षा विधायक श्‍लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं|

इन श्‍लोकों की मौलिकता और प्रक्षिप्तता को यदि पाठक, और अधिक गम्भीरता तथा विस्तार से जानना चाहें, तो वे ‘आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, ४५५-खारी बावली, दिल्ली’ से प्रकाशित मनुस्मृति (सम्पूर्ण) का अध्ययन कर सकते हैं| इसमें कृतित्व पर आधारित सर्वसामान्य मानदण्डों के आधार पर मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों को पृथक् दर्शा कर उन पर युक्ति-प्रमाण सहित समीक्षा दी गयी है| मनुस्मृति की मौलिक विषयवस्तु की जानकारी देने, प्रक्षिप्त श्‍लोकों को कारणपूर्वक समझाने और मनुस्मृति सम्बन्धी भ्रान्तियों के निराकरण के दृष्टिकोण से यह संस्करण पर्याप्त उपयोगी सिध्द होगा| प्रक्षिप्तों पर यह नवीनतम शोधकार्य हैं|

यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रक्षिप्त श्‍लोक अब विवाद नहीं रह गये हैं, अपितु एक निर्णय के रुप में मान्य हो गये हैं कि अधिकांश प्राचीन संस्कृत साहित्य में समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं| महाभारत के उल्लेख के अनुसार, दस हजार श्‍लोकों का काव्य बढते-बढते एक लाख श्‍लोकों का संग्रह बन गया| एक हजार वर्ष पुरानी हस्तलिखित रामायण से जो नेपाल के अभिलेखागार में सुरक्षित है, आज की रामायण में सैंकडों श्‍लोक अधिक पाये जाते हैं| यही स्थिति मनुस्मृति की है, अपितु इसमें अधिक परिवर्तन-परिवर्धन-प्रक्षेप हुए हैं| कारण, इसका मनुष्य के दैनिक आचार-व्यवहार से अधिक सम्बन्ध था, अतः स्वार्थवश उतनी ही अधिक छेडछाड की गयी| मनुस्मृति में हुए प्रक्षेपों के विषय में सभी वर्गों के विद्वान् एकमत हैं| इसकी टीकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं| बाद-बाद की टीका में अधिक श्‍लोक पाये जाते हैं| मेधातिथि (९ वीं शताब्दी) की तुलना में कुल्लूकभट्ट (१२ वीं शताब्दी) की टीका में एक सौ सत्तर श्‍लोक अधिक हैं| वे तब तक धुल-मिल नहीं पाये थे, अतः बृहत् कोष्ठक में दिये गये हैं| अन्य टीकाओं में भी श्‍लोक संख्या में अन्तर हैं|

अंग्रेज शोधकर्ता वूलर, जे, जौली, कीथ, मैकडानल और इन्साइक्लोपीडिया (अमेरिका) के लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षेप होते रहे हैं|

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने प्रक्षेप रहित मनुस्मृति को प्रमाण माना है| उन्होंने कुछ प्रक्षिप्त श्‍लोकों को छांटा हैं और छांटने की प्रेरणा दी हैं|

महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्ण व्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि मनुस्मृति में पायी जानेवाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं| डॉ.राधाकृष्णन, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि राष्ट्रनेता एवं विद्वान भी यही मानते हैं|

अतः आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रुप में समझा जाये और प्रक्षिप्त श्‍लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये | मनु एवं मनुस्मृति गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं| भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्वपूर्ण धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये|