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answeringaryamantavya ब्लॉग की जवाब (इस्लाम में नारी की दुर्दशा) भाग १

answeringaryamantavya ब्लॉग  की जवाब (इस्लाम में नारी की दुर्दशा) भाग १
(इस्लाम में नारी की दुर्दशा)
अभी एक उत्साही मोमिने ने मुझे एक लिंक दिया जिसमें उसने आर्यसमाज( सच पूछो तो पूरे सनातन धर्म) को नीचा दिखाने का प्रयास किया गया.
http://answeringaryamantavya.blogspot.in/2016/09/1_27.html?m=1
ये वह पोस्ट है.
हम क्रमशः इस पोस्ट का खंडन करेंगे
१:-बेशक कोइ शक ही नहीँ
अल्लाह ने फरमाया है कुरआन ए पाक मेँ कि मर्द औरत का
निगेहबान है । लेकिन वो इस बात को क्या
समझगेँ जो भरी सभा मेँ एक औरत कि इज्जत ना बचा
सके । भरी सभा मेँ उसे निवर्स्त होने से ना बचा सके
प्रमाण महाभारत मेँ द्रोपदी वो इस
बात को कया समझेगेँ जो एक औरत कि नाक ही काट देँ

वो भला इस बात को क्या समझेगेँ जो एक औरत को भोग
की वसतु समझते है ।
11 11 वाले मिशन कि पैदाइश आर्य समाजी क्या
समझेगेँ ।
आगे चलीये
*समीक्षा* पाठक पोस्ट पढ़कर समझ जायेंगे कि ऐसी हेय भाषा प्रयोग करने वाला कैसा व्यक्ति होगा.
इनके आरोपों पर नजर डालें:-
” भरी सभा में एक औरत की इज्जत न बचा सके”
हजरत साहब, मां द्रौपदी का चीरहरण भारतीय संस्कृति पर कलंक है.सत कहो तो दुर्योघन केवल द्रौपदी जी को दासी के वस्त्र पहना कर और झाडू लगवा कक अपमामित करना चाहता था.उनका चीरहरण करना उसका मकसद न था.सच कहो तो द्रौपदी का चीरहरण और वस्त्र का बढ जाना आदि गपोड़े महाभारत में कालांतर में जोड़े गये.सच कहो तो श्रीकृष्ण ने कहा था कि यदि मैं सभा में होता तो न तो जुआ होता न द्रौपदी और पांडवों का अपमान.महाभारत का काल पतनकाल था.पर तब भी स्त्रियों का सम्मान था.स्त्री के अपमान के कारण ही महाभारत क् युद्ध हुआ और स्त्रा की गरिमा पर हाथ डालने वाले रणभूमि में खून से लथपथ पड़े थे.मां सीता का हरण करने वाले रावण का वंशनाश हो गया.यह है स्त्री की गरिमा! वैदिक धर्म में ६ आततायी कहे गय हैं.उनमें स्त्री से जबरदसती करने वो भी आते हैं.मनु महाराज ने ऐसों को मौत की सजा का विधान रखा है.इस पर ” आर्यमंत्वय ” के लेख पढे होते उसके बाद कलम चलाई होती.
रजनीश जी द्रौपदी चीरहरण पर जवाब दे चुके हैं
देखिये:-http://aryamantavya.in/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8C%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A5%87/
आगे श्रीराम और लक्ष्मण जी को शूपणखा के नाक काटना का आरोप है.हजरत साहब! शूपणखा राक्षसी थी.वो कामुक भाव से श्रीराम से गांधर्वविवाह करने आई थी.पर उनके मना करने पर मां सीता पर झपट पड़ी क्योंकि उसको लगा कि राम जी को पानो से पहले सीता जी को रास्ते से हटाना होगा.तब वह राक्षसी रूप में आकर मां सीता पर टूट पड़ी.तब जवाब में लक्ष्मण जी ने उसको दूर हटा दिया उसकी नाक काट दी यानी अपमानित कर दिया.अब बतायें जरा, आपकी मां बहन बेटी पत्नी पर कोई जानलेवा वार करे तो क्या आप शांत बैठोगे? नहीं, पत्नी रक्षा पति का धर्म है.अतः इससे श्रीराम और लक्ष्मण जी को नारीविरोधी कहना धूर्तता है.राम जी ने शबरी अंबा और देवी अनसूया का आतिथ्य स्वीकार किया.इससे पता चलता हा कि वे कितने स्त्रीसमर्थक थे
बाकी *हम डंके की चोट पर कहतेहैं कि रामायण में उत्तरकांड और बीच बीच के कई प्रसंग प्रक्षिप्त हैं और अप्रमाण हैं.अतः सीता त्याग का हम खंडन करते हैं.( देखिये पुस्तक ‘ रामायण :भ्रांतियां और समाधान)*
मनुस्मृति में भी कई श्लोक प्रकषिप्त हैं.अतः हम आपसे आग्रह करेंगे कि स्वामी जगदीश्वरानंदजी और डॉ सुरेंद्रकुमार जी के ग्रंथ ” वाल्मीकीय रामायण” ” विशुद्ध मनुस्मृति” पढें जिनमें प्रक्षेप हटाकर इनको शुद्ध किया गया है.
बाकी ११-११ नियोग की बात तो नियोग केवल आपद्धर्म है.यह सेरोगेसी की तरह है जिससे उत्तम कुल के वर्ण के नियुक्क से शुक्रदान होता है.यह केवल सबसे रेयर केसेस में से एक है.हजरत, जरा उन मां बाप से पूछें जिनके संतान नहीं है.तब पता चलेगा कि निःसंतान होना कैसा है? इस स्थिति में संतान गोद ले लें.यदि न हो सके तो नियोग करें.पर सच कहो तो गृहस्थ होने की काबिलियत भी हममें नहीं, स्वामीजी के मत में.क्योंकि उसके लिये पूर्ण विद्वान और तैयार होना जरूरी है.तब तो नियोग करना दूर की बात.पर ये प्रथा ” हलाला” से तो बहुत अच्छी है.
अब इस्लाम पर आते हैं कि यदि तीन तलाक हो जाये और तलाकशुदा स्त्री पुराने पति को पाना चाबहे तो उसको परपुरुष से निकाह कर बिस्तर गरम करना होगा और फिर दुबारा वो पुराने पति के लिये हलाल है.( सूरा बकर २२९-२३०) अब किसी मोमिन में औकात है कि नियोग पर आक्षेप लगायें.नियोग के लिये आर्यमंतव्य  के ब्लॉग देख सकते हैं.शायद आपका शंका समाधान हो जाये.
शेष अगले लेख में
आर्यवीर  की  कलम से

औरतों का खतना: एक दर्दनाक इस्लामिक मान्यता

khatna

मोमिन कहते है कि इस्लाम में नारी को जो सम्मान मिला है वो किसी मत मतान्तर में नहीं मिला,

मत मतान्तर मेने प्रयोग किया है और उपयुक्त भी है परंतु धर्म की परिभाषा से अनभिज्ञ लोग इस्लाम ईसाइयत आदि मत मतान्तरों को भी धर्म कहते है, यह लम्बा विषय है जिस पर कभी भी लिखा जा सकता है परंतु हम आज जिस बात पर चर्चा कर रहे है वो मुद्दा इस सृष्टि के रचनाकार के माध्यम यानी नारी शक्ति को लेकर है तो मोमिनों की भांति विषयांतर ना करके हम विषय को आगे बढ़ाते है

इस्लाम में नारी की स्थिति इस्लामिक नरक में काफिरों के जैसी है
जहाँ पर्दा प्रथा यानी काला बुरका पहनने की पाबंदी चाहे कितनी ही झुलसा देने वाली गर्मी हो पर उस काले हीटर को धारण करना अतिआवश्यक है
फिर बच्चों की पूरी फ़ौज पैदा करना
प्रसव पीड़ा को एक नारी ही समझ सकती है और इस पीड़ा से इस्लाम में बार बार गुजरना पड़ता है

और तलाक के तीन शब्द कहने मात्र से यहाँ नारी की जिंदगी जो पहले से नरक थी और बदतर हो जाती है

विवाह जैसे रिश्ते यहाँ मकड़ी के जाल से भी कच्चे होते है

{हा जिसे बचपन से ऐसे ही संस्कार मिले हो उनके लिए तो यही जन्नत है परन्तु उन्हें भी चाहिए की इस इस्लामिक कुए से बाहर निकलकर सनातन वैदिक धर्म के स्वर्ग से रूबरू हो}

ये ऐसे नर्क वाले तथ्य तो लगभग सभी जानते है परंतु आज आपको एक नए तथ्य से अवगत कराते है

इसे पढ़ने मात्र से आपका रोम रोम खड़ा हो जाएगा तो सोचिये उस नारी की स्थिति क्या होगी जो इसे सहन करती है

इस्लाम में लड़कों का खतना तो हमने सुना ही है

आज आपको लड़कियों के खतने के बारे में बताते है

हवस से भरे इस मजहब में जहाँ कुछ इस्लामिक विद्वान खतने को शरीर की सफाई से जोड़ते है वही कुछ विद्वान इसे सेक्स का समय और आनन्द बढाने का माध्यम बताते है

अब लड़कियों के बारे में विचार किया जाए तो यहाँ कौनसी शारीरिक सफाई उससे होती है समझ से बाहर दिखेगी

हदीस मे लेखक कहता है कि

“लड़कियों का खतना भी वाजिब है और मुस्तहिब यह है कि फजूल खाल कम कम काटे और ज्यादा न काटे”

इस्लामिक विद्वान/नबी अपने आप को अल्लाह/ईश्वर से बढ़कर स्वयं को समझते है जो उसकी बनाई मानवीय कृति में भी छेड़छाड़ कर उसे ईश्वरीय बताते है

लड़कों के लिंग की खाल और लड़कियों के शर्मगाह की चमड़ी क्या अल्लाह/ईश्वर ने बेवजह बनाई है?

क्या अल्लाह अल्पज्ञ है ?

क्या अल्लाह को इतना भी ज्ञान नहीं की वो मनुष्यों में कुछ फ़ालतू अंग या चमड़ी आदि दे रहा है ?

क्या अल्लाह को अब इस्लामिक विद्वानों से सीखने की जरुरत है ?

इन विद्वानों को देखकर इन सब का जवाब “हां” ही लगता है

आगे लेखक लिखता है

“जिसका खतना न हुआ हो जमीन उसके पेशाब से कराहत करती है”

इस हास्यास्पद ब्यान पर में अपने शब्द लिखने की जगह पाठकों पर ये जिम्मेदारी देता हूं कि आप इसे ब्यान पर दो शब्द कहें

आगे लेखक ने हजरत मोहम्मद की बात रखते हुए इस हास्यास्पद ब्यान को पुख्ता करने का प्रयत्न किया है

“रसूल फरमाते है कि जिसका खतना न हुआ हो उसके पेशाब से जमीन चालीस दिन नजिस (परेशान) रहती है”

दूसरी हदीस में फरमाते है की

“जमीन उसके पेशाब से खुदाए तआला के सामने फ़रियाद करती है”

“खतना करने से औरत अपने शौहर की नजर में इज्जत पाती है फिर औरत को क्या चाहिए”

ये एक पंक्ति ही बता देती है की इस्लाम में औरत के लिए केवल एक ही कार्य है वह है उसके पति के सामने अपनी इज्जत बनाये रखने के लिए अपने शरीर तक को पीड़ा पहुचाती रहे

ये कैसा मजहब है और विचार कीजिये वो पति कितना सख्त दिल होगा जो अपनी अर्धांगनी को ऐसी शारीरिक पीड़ा से गुजरने देगा और जो गुजरने दे तो उससे भविष्य में क्या अपेक्षा की जा सकती है ?? यह विचार तो इस्लाम में घुट घुट कर जी रही महिलाओं को करना चाहिए

“औरतों का खतना सात बरस बाद करे”

सात वर्ष का होने के बाद से अत्याचार की शुरुआत हो जाती है

जो इस्लाम पग पग पर कुरान के अनुसार जीने को प्रेरित करता रहा है वही इस्लाम कुरान से इतर भी कर्म करता है उसी का उदाहरण है ये महिलाओं का खतना

दूसरी हदीस में लिखा है की
“पहली औरत जिसकी खतना की गई वह हजरते हाजरा हजरते इस्माइल अलैहिस्सलाम की वालिदा थी की हजरते सारा वालिदा-ए-हजरते इस्हाक अलैहिस्सलाम ने गुस्से से उनकी खतना कर दी थी मगर वह और हजरते हाजरा की खूबी की ज्यादती का बाएस हुई और उसी दिन से औरतों की खतना करने की सुन्नत जारी हुई”

और एक जगह देखिये हजरत क्या कहते है

एक बार लड़कियों के खतना करने वाली महिला “उम्मे-हबीबा” से हजरत ने फरमाया की

“ऐ उम्मे-हबीबा! जो काम तू पहले करती थी अब भी करती है ??

तो उसने कहा “रसुल्लाह अब तक तो करती हूँ मगर अब आप मना फरमाएंगे तो छोड़ दूंगी !

तो हजरत ने कहा

“नहीं छोड़ नहीं ! यह तो हलाल काम है बल्कि आ ! में तुझे समझा दूँ की क्या करना चाहिए, जब तू औरतो का खतना करे तो ज्यादा मत काटा कर बल्कि थोड़ा थोड़ा की उससे चेहरा ज्यादा नुरानी हो जाता है और रंग ज्यादा साफ़, और शौहर की नजर में इज्जत ज्यादा हो जाती है”

ये कोई इस्लामिक अविज्ञान होगा जिसका पल्लू अभी मुसलमान पकडे बैठे है

हिन्दू मत में अंधविश्वास की बाते करने वाले मत सम्प्रदायों को अपने मतों में फैले ऐसे अंधविश्वासों पर भी आँखे और मुह खोलने चाहिए

इस्लाम को औरतों के लिए जन्नत कहने वालों को इस्लाम का वास्तविक चेहरा एक बार स्वयं देख लेना चाहिए ऐसी बात कहना भी बैमानी लगता है

हां यह सही है की औरतों को चाहे वे इस्लाम में है या इस्लाम की और आकर्षित है या किसी मुस्लमान के प्यार में फसी हुई है उन सभी को ये वास्तविकता को देखना चाहिए पढना चाहिए

पाठकगण से आग्रह है की इसे लोगों में फैलाए जागरूकता बढाये और अपनी बहन बेटियों को इस्लाम के इस नरक से रूबरू कराए

इसी नरक को छुपाने को ये मुसलमान झूठे जन्नत के फलसफे सुनाते है

सन्दर्भ : तहजीब उल इस्लाम, अल्लामा मजलिसी

मत्कृते कथं न?

 मत्कृते कथं न?

– डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री

सात्त्विकं कर्म कर्त्तं च वक्तुं हितम्,

धर्म-कार्ये समाह्वातुम् एवं मुदा।

शद-शास्त्रे त्वदीये परं हे! प्रभो!

मृत्कृते नो द्वितीया विभक्तिः कथम्?

 

केन वृद्धास्तथा मातरः सेविताः?

केन पुत्राः समाजे सुखं वर्धिताः?

उत्तरं प्राप्तुमत्र प्रभो! निश्चितम्,

मत्कृते नो तृतीया विभक्तिः कथम्?।।

 

निर्बलोऽहं विभो! निर्धनोऽहं प्रभो!

संस्तुवे नामधेयं सदा ते परम्।

शद – शास्त्रे त्वदीये जगन्नाथ! हे!

मत्कृते नो चतुर्थी विभक्तिः कथम्?।।

 

दुर्जनाश्चाऽथ कस्मात् खला बियति?

संस्कृतं चाऽपि कस्मादधीते जनः?

शद-शास्त्रे तदस्योत्तरे हे! प्रभो!

मत्कृते पञ्चमी नो विभक्तिः कथम्?।।

 

काव्य-सौन्दर्यमेतत् भवेत् कस्य भो!

वाक्य-माधुर्यमेतत् मतं कस्य वा?।

शद-शास्त्रे त्वहो! सच्चिदानन्द ते,

किं न षष्ठी विभक्तिर्भवेत् मत्कृते?।।

 

कुत्र भक्तिश्च विश्वास आस्था प्रभो!

त्वाप्रति श्रद्धया वा मनः संस्थितम्।

शदे-शास्त्रे त्वदीये तदस्योत्तरे,

मत्कृते सप्तमी नो विभक्तिः कथम्?।।

– बी-29, आनन्द नगर, जेल रोड,

रायबरेली-229001

जिज्ञासा: यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ …..आचार्य सोमदेव

यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ वाला मन्त्र अग्न्यानयन मन्त्र, दीप प्रज्वलन मन्त्र और अग्न्याधान मन्त्र के पश्चात् आता है। इससे भी पहले ‘‘ईश्वर स्तुति प्रार्थनोपासना, स्वस्तिवाचनम् व शान्तिकरणम्’’ के मन्त्र आ चुके होते हैं, तो ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ वाला मन्त्र सर्वप्रथम क्यों नहीं आ जाता? इसमें क्या अनियमितता हो जाती है? जब इतना कुछ हो लेता है और अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, तब कहा जाता है कि अब सभी देव और यजमान बैठ जाएँ। तो क्या इससे पहले वाली सभी क्रियाएँ खड़े-खड़े करनी चाहिए? या सीदत का कोई अन्य अर्थ भी हो सकता है, जिसका हमें पता नहीं है। और यह भी हो सकता है कि अब तक पूरे एकाग्रचित्त नहीं हुए थे (वैसे होना तो चाहिए।), इसलिए चेताने के लिए कहा हो कि अब सावधान, सतर्क व सजग होकर बैठें। मामला क्या है? समझाने का कष्ट करें।

(ख) आपके इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले यहाँ जिस मन्त्र को आपने उठाया है, उसका अर्थ महर्षि दयानन्द ने जो किया है, वह दे रहे हैं-
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते सं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।।
– य. १५.५४
पदार्थ- हे (अग्ने) अच्छी विद्या से प्रकाशित स्त्री वा पुरुष तू (उद्बुध्यस्व) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हो, सब के प्रति, (प्रति जागृहि) अविद्यारूप निद्रा को छोड़ के विद्या से चेतन हो (त्वम्) तू स्त्री (च) और (अयम्) यह पुरुष दोनों (अस्मिन्) इस वर्तमान (सधस्थे) एक स्थान में और (उत्तरस्मिन्) आगामी समय में सदा (इष्टापूर्त्ते) इष्ट सुख विद्वानों का सत्कार, ईश्वर का आराधन, अच्छा संग करना और सत्यविद्या आदि का दान देना। यह इष्ट और पूर्णबल ब्रह्मचर्य, विद्या की शोभा, पूर्ण युवा अवस्था, साधन और उपसाधन-यह सब पूर्त्त इन दोनों को (सं, सृजेथाम्) सिद्ध किया करो (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (च) और (यजमानः) यज्ञ करने वाले पुरुष, तू इस एक स्थान में (अधि, सीदत) उन्नतिपूर्वक स्थिर होओ।
इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने कहा कि विद्वान् लोग और यज्ञ करने वाला पुरुष-ये दोनों इस स्थान अर्थात् यज्ञ कर्म करने के स्थान पर वा परोपकार रूप कर्म में उन्नतिपूर्वक स्थिर हों। महर्षि ने यहाँ स्थिर होने की बात कही है, बैठने आदि का संकेत नहीं किया। स्थिर होने का तात्पर्य अपने को अन्य कार्यों से हटाकर उस परोपकार रूप कार्य में स्थिर करना, उसी में अपने को लगाना है। महर्षि के वचनों से तो यह मामला ऐसे ही सुलझा हुआ है। हम अपने अल्प ज्ञान से सुलझे हुए को भी कभी-कभार उलझा लेते हैं।

वेद ज्ञान वरों की खान है

ओउम
वेद ज्ञान वरों की खान है
डा. अशोक आर्य
शब्द को सुनते ही ह्रदय में एक विशेष प्रकार का रोमांच सा पैदा होता है |यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ मे परम प्रभु ने जीव मात्र के कल्याण के लिए दिया था | प्रभु प्रदत ज्ञान होने से इस ज्ञान को अनादि भी कहा जा सकता है | इस ज्ञान से हमें प्रत्येक क्षेत्र के सम्बन्ध में, प्रत्येक व्यापार तथा प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में न केवल परिचय ही मिलता है अपितु प्रत्येक समस्या का समाधान भी मिलता है | इस कारण वेद वरों से भरपूर अथवा वरों की खान कहा गया है | अथर्ववेद में भी इस तथ्य की ही पुष्टि की गयी है | मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :-
स्तुता मया वरदा वेदमाता
प्र चोदयन्ताम पावमानी द्विजानाम |
आयु: प्राण प्रजां पशुं कीर्तिं
द्रविण ब्रह्मवर्चसम |
मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकं || अथर्ववेद १९.७१.१ ||
हे देवो ! द्विजों को पवित्र करने वाली , वरों को देने वाली , वेदमाता की मैंने स्तुति की है | आप मुझे प्रेरणा दें | दीर्घ आयु , जीवन शक्ति, सुसंतान, पशुधन , यश वैभव और ब्रह्मतेज प्रदान कर ब्रह्मलोक को जाईये |
वेदों को अपार महिमा का भंडार कहा जाता है | वेद का प्रकाश स्वयं पारम पिता परमात्मा ने मानव मात्र के कल्याण के लिए किया है | इस आधार पर स्पष्ट होता है कि वेद का यह ज्ञान सब प्रकार के ज्ञान का स्रोत है | जिस प्रकार किसी नदी का उद्गम स्थान वहां से जल के स्रोत के रूप में जाना जाता है , उस प्रकार ही परमपिता परमात्मा इस ज्ञान का स्रोत , उद्गम होने से सब प्रकार के ज्ञान का स्रोत वेद ही है | प्रभु प्रदत इस ज्ञान से पूर्व विशव में कोई ज्ञान न था | इस आधार पर स्पष्ट होता है कि समग्र विश्व को सर्वप्रथम ज्ञान देने का श्रय वेद को ही जाता है |
वेद को मानव मात्र के लिए प्रकाश स्तम्भ के रूप में जाना जाता है | जिस प्रकार सागर में स्थित प्रकाश स्तम्भ भटके हुए जलपोत को मार्ग देता है तथा इंगित करता है कि इस और मत आना यहाँ खतरा है | इस चेतावनी के कारण कोई भी जलपोत उधर को न जाकर अपनी रक्षा करता है | इस प्रकार ही वेद मानव मात्र के लिए प्रकाश सतम्भ का कार्य करता है | यह भी विश्व के भूले भटके मानव को सुपथ गामी बनाने के लिए प्रकाश देता है,ज्ञान देता है |
जहाँ पर वेदका प्रकाश है , वेदकी ज्योति है , वहां निश्चित रूप से अँधेरा छंट जाता है | वेदकी ज्योति जहाँ भी होती है , वहां निश्चित रूप से प्रकाश ही प्रकाश होताहै , उन्नति के सब मार्ग खुल जाते हैं , सर्वत्र सुख और शान्ति का निवास होता है , तथा सब प्रकार के विकास वद की ज्योति में होते हैं |
इस मन्त्र में वेदको माता कहा गया है | माता सदैव अपनी संतान की रक्षा करती है | यह बालक के लिए रक्षा कवच होती है | जिस प्रकार माता संतान के लिए रक्षा कवच का कार्य करती है , उस प्रकार ही वेदभी समग्र संसार का , संसार के समग्र प्राणियों का रक्षक होता है | माता अपने बालक को अमृत तुल्य दूध पिला कर उसे पुष्टि देती है | इस के ही अनुरूप वेदज्ञान स्वरूप दूध से सिंचित कर संसार को पुष्टि देते हैं , उसके सुखों कि वृद्धि करते हैं| यह वह ज्ञान है जिस के कारण आर्यों का वंश अक्षय रहा है | इस कारण ही इसे वरदायी कहा गया है |
वेद मैं समग्र ज्ञान होने के कारण , जिस भी प्रकार के ज्ञानकी प्राप्ति की अभिलाषा हो, उसे वेदके स्वाध्याय से पूर्ण किया जा सकता है | इस के स्वाध्याय से इस स्रष्टि का प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक समाज, प्रत्येक राष्ट्र तथा समग्र विश्व की उन्नति का कारण होता है , साधन होता है | विशव भर के लिए समान ज्ञान होने से यह ज्ञान विश्व – बंधुत्व का प्रेरक भी होता है | इतना ही नहीं ved धर्म विश्व धर्म का संस्थापक भी है | जिस ved ज्ञान के इतने गुण हैं , उस वेदका निरंतर स्वाध्याय कर विश्व के प्रत्येक प्राणी को वेदकी सीढियाँ प्राप्त कर न केवल अपना ही अपितु समग्र विश्व के कल्याण में , विश्व की उन्नति मंर ,विश्व के विकास में अपना योग देना चाहिए | इससे उसका अपना भी कल्याण व उत्थान होगा तथा अपने परिवार का भी लाभ होगा |
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट , कौशाम्बी, गाजियाबाद
चलाभाश ०९७१८५२८०६८, ०९०१७३२३९४३
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हम कब सुधरेंगे ?

हम कब सुधरेंगे ? हम so called सेक्युलर ईराक से सिमटते हुए आज भारत तक सिमित रह गए है धर्म के नाम पर बंटवारा हुआ पाकिस्तान बनाया पर सही मायनों में बंटवारा नहीं हो पाया भारत में आज वो अल्पसंख्यक हक़ के नाम पर फिर से भारत के टुकड़े करने पर आमादा है और हम सेक्युलर आज भी उन्हें *भटके* हुए *भाई* समझ कर अपनी रिस रिस कर आती मौत को बुला रहे है इस्लाम गैर इस्लामिक से दोस्ती कभी नहीं सिखाता यदि सिखाता हो तो बताओ वो आयत इस्लाम कहता है गैर इस्लामिक तुम्हारा दोस्त तभी हो सकता है जब वो इस्लाम समर्थक हो इस्लाम कभी नहीं कहता की तुम दूसरे की मान्यताओं को भी समर्थन करो गजवा ए हिन्द मिशन को सफल बनाने के लिए कौम दिन रात लगी हुई है पर हम सो रहे है किसी ने सही ही कहा है की हिन्दू सोता हुआ शेर है उसे मत जगा वरना वो कही और जाकर सो जाएगा यही तो हुआ ईराक से जगा हुआ सेक्युलर हिन्दू भारत में आकर सो गया पकिस्तान से हिन्दू को जगाया गया वो भी भारत आकर सो गया अब कुछ हिंदुओं को कश्मीर से जगाया गया वो भी इधर उधर जाकर सो गया कब तक सोते रहोगे इस *सेक्युलर नींद* में ? कोई माने या ना माने कश्मीर को भारत से तोड़ दिया गया है यहाँ बात तर्क करने की नहीं है की कैसे तोडा, हम कश्मीर नहीं छीनने देंगे तो ये आपके हाथ नहीं ये तो वहां की आवाम का मुद्दा रह गया है जो की यासीन मल्लिक जैसे टटुओं के कहने पर चलती है यासीन मल्लिल भी केजरीवाल के डीएनए से मिलता जुलता नमूना है जो कश्मीर को भारत से अलग करना चाहता है और पाक से भी नहीं मिलने की बात करता है पर यह सार्वभौमिक है की वो अलग होने के बाद(यदि हुआ तो) क्या करेगा उसके बाद इसी तरह की भारत को तोड़ने की नीतियां धीरे धीरे कश्मीर के नीचे दिल्ली में भी प्रारम्भ हो चुकी है जो की केजरीवाल, यासीन मल्लिक और कांग्रेस का मिक्सचर है *कन्हैया* कश्मीर में उठ रहे भारत को तोड़ने की आवाजे अब दिल्ली के jnu में भी सुनाई देने लगी है *भारत तेरे टुकड़े होंगे* जैसे नारे लगाना ये कोई भटका हुआ नहीं अपितु देशद्रोही लगा सकता है, इन्हें भटका हुआ मत कहो, क्योंकि जो ये भटकते तो अपनी अन्य गतिविधियों से तो नहीं भटके दरअसल हो यह रहा है की मुस्लमानों की किताब *क़ुरआन* आतंकवाद की जड़ है, ये जो तर्क दिए जाते है ना की जो आतंकवादी बना है उसने क़ुरआन को सही मायने में समझा ही नहीं ये तर्क वास्तव में खुद के वजूद को बनाये रखने कद लिए ही दिया जाता है ताकि भारत के अंदर उनका और उनकी किताब का विरोध प्रारम्भ नहीं हो जाए पर सच यही है की क़ुरआन पढ़ने के बाद व्यक्ति हिंसक, खूंखार और आपके शब्दों में भड़का हुआ मुसलमान बन जाता है यदि हम इसी तरह सेक्युलर रहे तो एक दिन पाकिस्तान की तरह कश्मीर भी जाएगा फिर हिमाचल फिर दिल्ली और धीरे धीरे आने वाली सदियों में ये इस्लाम नाम का घुन इस देश को खोखला कर देगा और मेरा दावा है की सेक्युलर हिन्दू अंत तक चिर निंद्रा में सोया रहेगा और जब सोने को कही जगह नहीं मिलेगी तो वो भी इस घुन के रूप में खुद को ढाल देगा जो लोग कहते है की भारत के मुसलमान धर्म निरपेक्षता का समर्थन करते है वे तुर्की के मौजूदा हालात पर अपनी नजर दौड़ा ले तुर्की की आर्मी ने तुर्की को धर्म निरपेक्ष बनाने के लिए सता को हथियाने का प्रयास किया परन्तु भटकी हुई इस्लामिक आवाम ने उसे असफल कर दिया ये नमूने है इस्लाम के कॉन्सेप्ट को समझने के लिए ये शान्ति कभी नहीं चाहते इनका मन्तव्य केवल और केवल गजवा ए हिन्द ही रहा है और रहेगा भी भारत का भविष्य भी इसी तुर्की धटना जैसा होगा ऐसा लगता है हम अपनी तरक्की के चक्कर में धर्म और देश की रक्षा को किनारे किये जा रहे है पर मुसलमानों के दिमाग में केवल और केवल गजवा ए हिन्द है समय रहते नहीं सम्भले तो आने वाला समय हमें सम्भलने के लिए मौक़ा भी नहीं देगा भारत हो या कोई भी जगह मुसलमान एक जैसे ही है उनकी किताब एक है, उसका कॉन्सेप्ट भी एक है और उनका लक्ष्य भी है हमें सेक्युलरिज्म का चौला उतारना होगा, आर्थिक असहयोग को बढ़ाना होगा, *कट्टर* होना होगा, देश हित की बाते फेसबुक, whatsapp, ट्विटर पर करने से कुछ नहीं होगा देश के घुनों को पहचानों, औवेसी, जाकिर नाईक जैसे छद्म भेड़ियों को पहचानों और इनके सफाये के लिए कमर बाँध लो यही समय की मांग है हो सकता है, होगा भी की लोग इसे हेट स्पीच कहेंगे नकारात्मकता कहेंगे पर ये उज्जवल भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है हमारा तो इतिहास भी वीरता से भरा रहा है, समय समय पर मुगलों को हमने धूल चटाई है, तो हम आज सोये हुए क्यों है महाराणा प्रताप की जयंती मनाने मात्र से कुछ नहीं होगा हमें तो उनके रास्ते पर चलना होगा समय की मांग रही तो हिंसा को भी अपनाना पड़ेगा पर फिलहाल हमें इस *शान्ति के मजहब* का आर्थिक असहयोग करना होगा पढ़ने में ये बहुत मामूली और असफल सा अभियान लगता होगा या हम ये सोचते होंगे की हम अकेले के सोचने से क्या होगा तो आप म्यांमार के असीन विराथू को पढ़िए बौद्ध मत जो शान्ति और अहिंसा के लिए प्रसिद्ध रहा है उस मत के लोगों को हिंसा को अपनाया और रोहिंग्या मुसलमानों को चुन चुनकर अपने देश से भगाया जबकि वहां पर तो उनका प्रतिशत भी बहुत कम रहा है पर वे समय रहते सम्भले और एक व्यक्ति ने पुरे देश को बचा लिया बस वही आसीन विराथू हमें बनने की आवश्यकता है आर्थिक असहयोग के लिए तैयार होइए वरना अपनी घर की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए तैयार रहिये पसन्द आपकी है मेरा उद्देश्य स्पष्ट है जो मेने अपने शब्दों में कहा है किसी को यदि ये ग्रुप की *so called शालीनता* के विरुद्ध लगता हो तो मुझे निकाल दे में सेक्युलर नहीं हूँ और मेने अपना आर्थिक असहयोग प्रारम्भ कर दिया है आप में से मेरे साथ कौन है ?
writer: gaurav arya

মনুস্মৃতি ও বর্ণ ব্যবস্থা

মনুস্মৃতি কে সৃষ্টি মধ্যে নীতি এবং ধর্মের (কানুন) নির্ধারন কারী সবচেয়ে প্রথম গ্রন্থ মানা হয়। এবং সেই সময় জন্মগত জাতিব্যবস্থার প্রথা ছিলো না। মহর্ষি মনুও জন্মগত ভাবে সিদ্ধ জাতিব্যবস্থার সমর্থন করে নি।মনু মহারাজ মানুষের গুন কর্ম স্বভাবের উপর আধারিত সমাজ ব্যবস্থা রচনা করার জন্য উপদেশ করেছে। এবং ইহাই সঠিক বর্ণ ব্যবস্থা। বর্ণ শব্দটি “বৃঞ” ধাতু থেকে এসেছে। যার অর্থ চয়ন বা নির্ধারন করা। এবং কর্ম এবং গুন দ্বারা বর্ণ নির্ধারিত হবে ইহাই ছিলো মনুর বিধান। কিন্তু বর্তমানে জন্মগত ভাবে বর্ণপ্রথা চালু রয়েছে। যা মনু কখনোই স্বীকার করে নি। উচ্চ বংশে জন্মগ্রহনকারীরা সব সময় নিম্ম বর্ণের মনুষ্যকে উপেক্ষিত করে চলে।এবং জন্মগত পরিচয়ে নিজেকে অনেক বড় বলে মনে করেন।
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মনুস্মৃতি ৩।১০৯ – এ স্পষ্ট বলা হয়েছে যে, ব্রাহ্মণ ভোজনের জন্য স্বীয় কুল গোত্রের পরিচয় প্রদান করিবেন না। ভোজনের জন্য কুল ও গোত্রের পরিচয় করিয়া ভোজন করিলে তাকে উদগীর্ণভোজী বলে।
অতএব মনুস্মৃতি অনুসারে, যে ব্রাহ্মণ বা উচু জাতি নিজ গোত্র বা বংশের পরিচয় দিয়ে নিজেকে বড় বলেন। এবং মার সম্মানের অপেক্ষা রাখে, অবশ্যই সে তিরস্কার যোগ্য।
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মনুস্মৃতি ২।১৩৬ – ন্যায়সঞ্চিত ধন, পিতৃব্যাদি সমন্ধ্য, বয়োধিকতা, শ্রেষ্ঠ কর্ম, বেদার্থতত্বজ্ঞান রূপ বিদ্যা এই পঞ্চ সম্মানের উত্তরোত্তর মানদন্ড।
এই শ্লোকে কোন কুল, জাতি বা বংশ কে সম্মানের মানদন্ড মানা হয় নি।
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=>বর্ণের পরিবর্তন –
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মনুস্মৃতি ১০।৬৫ – ব্রাহ্মণ ও শুদ্র হতে পারে এবং শুদ্রও ব্রাহ্মণ হতে পারে। এই প্রকার ক্ষত্রিয় ও বৈশ্যও নিজ নিজ বর্ণ পরিবর্তন করতে পারে।
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মনুস্মৃতি ৯।৩৩৫ – শরীর এবং মন দ্বারা শুদ্ধ – পবিত্র এবং উৎকৃষ্ট লোকের সান্নিধ্যে স্থিত। মিষ্টিভাষী, অহংকার রহিত, নিজ থেকে উৎকৃষ্ট বর্ণের সেবাকারী শুদ্রও উত্তম ব্রহ্ম জন্ম বা দ্বিজ বর্ণকে প্রাপ্ত করতে পারে।
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মনুস্মৃতি মধ্যে অনেক শ্লোক রয়েছে যেখানে বলা হয়েছে, উচ্চ বর্ণের ব্যক্তিও যদি শ্রেষ্ঠ কর্ম না করে তবে সে শুদ্র (অশিক্ষিত) বলে গন্য হবে।যেমন-
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মনুস্মৃতি ২।১০৩ – যে মনুষ্য নিত্য প্রাত এবং সন্ধ্যায় ঈশ্বরের আরাধনা করে না তাহাকে শুদ্র বলে জানবে।
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মনুস্মৃতি ২।১৭২ – যে ব্যক্তি বেদের শিক্ষাই দীক্ষিত হয় নি সে শুদ্র তুল্য।
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মনুস্মৃতি ২।১৬৮ – যে ব্রাহ্মণ বেদের অধ্যয়ন বা পালন ছেড়ে অন্য বিষয়ে প্রযত্ন করেন সে শুদ্রত্ব প্রাপ্ত হয়।
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মনুস্মৃতি ৪।২৪৫ – ব্রাহ্মণ বর্নস্থ ব্যক্তি শ্রেষ্ঠ অতিশ্রেষ্ঠ ব্যক্তি সঙ্গ করে এবং নিচ থেকে নিচতর ব্যক্তির সঙ্গ ছেড়ে অধিক শ্রেষ্ঠ হয়। ইহার বিপরীত আচরনে পতিত হয়ে সে শুদ্রত্ব প্রাপ্ত হয়।
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অতঃএব ইহা স্পষ্ট যে, ব্রাহ্মণ উত্তম কর্ম কারী বিদ্বান কে বলে। এবং শুদ্রের অর্থ অশিক্ষিত ব্যক্তি। ইহা কোন জন্মগত সমন্ধ্য নয়।
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মনুস্মৃতি ২।১২৬ – এমনকি কেন ব্রাহ্মণ হোক, কিন্তু যদি সে অভিবাদনের উত্তর শিষ্টতার সহিত দিতে না জানে, তবে সে শুদ্র।
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অর্থাৎ মনু জন্মসিদ্ধ বর্ণ প্রথার সমর্থন করে নি। মনুস্মৃতি অনুসারে মাতা পিতা তার সন্তানদের বাল্যকালে তার রূচি এবং প্রকৃতি জেনে ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয় বা বৈশ্যের বর্ণের জ্ঞান এবং প্রশিক্ষণ প্রাপ্ত করার জন্য উপদেশ প্রদান করবেন। কোন ব্রাহ্মণ পিতা মাতা যদি তার সন্তান কে ব্রাহ্মণ তৈরী করতে চায় তবে অবশ্যই তার মধ্যে ব্রাহ্মণোচিত গুণ,কর্ম, স্বভাব জাগিয়ে তুলবেন।
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মনুস্মৃতি ২।১৫৭ – যেমন কাষ্ঠনির্মিত হস্তি ও চর্ম্মনির্মিত মৃগ কোন কার্যকারক নহে। তদ্রুপ যে ব্রাহ্মণ বেদাধ্যয়ন না করে তিনিও কোন কার্যক্ষম নহে। কেবল ব্রাহ্মণের নাম মাত্র ধারন করেন।
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=>>শিক্ষাই বাস্তবিক জন্ম –
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মহর্ষি মনুর মতে মানুষের বাস্তবিক জন্ম বিদ্যাপ্রাপ্তিতেই ঘটে। জন্মত প্রত্যেক মানুষই শুদ্র অর্থাৎ অশিক্ষিত। এবং সংস্কার দ্বারা সে পরিশুদ্ধ হয়ে তার দ্বিতীয় জন্ম হয়। আর একেই দ্বিজ বলে। সংস্কারে অসমর্থ ব্যক্তি শুদ্রই রয়ে যায়।
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মনুস্মৃতি ২।১৪৮ – সমস্ত বেদশাস্ত্রের পারদর্শী আচার্য্য অভিজাত বালকের যথাবিধিনুসারে গায়ত্রী উপদেশ করিয়া যে যথার্থ জন্ম উৎপাদন করেন, সে জন্মই ব্রহ্মপ্রাপ্তির কারন বলিয়া অজর ও অমর রূপে গণ্য হয়।
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মনুস্মৃতি ২।১৪৬ – জন্মদাতা পিতা থেকে জ্ঞান দাতা আচার্য্য অধিক বড় এবং মাননীয়। আচার্য্য দ্বারা প্রদান করা জ্ঞান মুক্তি প্রদান করে। পিতা দ্বারা প্রদত্ত শরীর তো এই জন্মের সাথেই নষ্ট হয়।
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=>> শুদ্রের প্রতি ভালো ব্যবহার
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মনু পরম মানবীয় ছিলেন। তিনি জানতেন যে, কোন শুদ্র ইচ্ছাকৃত ভাবে শিক্ষাকে উপেক্ষা করতে পারবে না। তারা কোন কারন বশত জীবনের প্রথম ধাপে জ্ঞান এবং শিক্ষা থেকে বঞ্চিত হয়েছে। এ জন্য মহর্ষি মনু শুদ্রদের জন্য সমাজে উচিত সম্মানের বিধান করেছেন। তিনি শুদ্রদের প্রতি কখনো অপমান সূচক শব্দ ব্যবহার করেন নি। মনুর দৃষ্টিতে জ্ঞান ও শিক্ষার অভাবে শুদ্র সমাজের মধ্যে সবচেয়ে অসহায়। যা পরিস্থিতির বশ। সে জন্য মনু সমাজে তাদের প্রতি অধিক সহৃদয়তা এবং সহনাভূতি দেখাতে বলেছেন –
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মনুস্মৃতি ৩।১১২ – শুদ্র বা বৈশ্য অতিথি রূপে আসলে ব্রাহ্মণ তাকে সম্মানের সহিত ভোজন করাবেন।
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মনৃস্মৃতি ৩।১১৬ – আপন সেবক (শুদ্র) কে প্রথম ভোজন করানোর পর দম্পতি ভোজন করবেন।
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=>> মনুস্মৃতি বেদের উপর আধারিত
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বেদ ঈশ্বরীয় জ্ঞান এবং সমস্ত বিদ্যা বেদ থেকেই নির্গত হয়। এবং বেদ কে মেনেই ঋষিরা অন্য সব গ্রন্থ রচনা করেছেন।বেদের স্থান এবং প্রামানিকতা সবার উপরে। এবং অন্যান্য স্মৃতি শাস্ত্রও মান্য যদি সেগুলো বেদানুকুল হয়। এবং বেদ যে ধর্মের মূলে মনু ইহা দৃঢতার সহিত মান্য করতেন।
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মনুস্মৃতি ২।৮ – শাস্ত্র সকল জ্ঞানচক্ষু দ্বারা বিশেষরূপে পর্যালোচনা করিয়া বিদ্বানরা বেদমূলক কর্তব্যকর্ম্ম অবগত হইয়া তাহার অনুষ্ঠান করিবেন।
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মনুস্মৃতি ২।১৩ – ধর্ম্ম জিজ্ঞাসু ব্যক্তির নিকট প্রকৃষ্ট প্রমাণ বেদ। যেহেতু বেদ ও স্মৃতির অনৈক্যে বেদের মতই গ্রাহ্য হয়।
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এখানে ইহা স্পষ্ট যে, মনুর বিচার এবং মূল রচনা বেদানুকুল। তিনি বেদের আধারেই উপদেশ করেছেন। কিন্তু যদি মনুস্মৃতিতে বেদ বিরুদ্ধ কোন উপদেশ পাওয়া যায় , অবশ্যই তাহা প্রক্ষিপ্ত জানবে। কারন মনু বেদের বাহিরে গিয়ে কোন উপদেশ করেন নি। কিছু স্বর্থান্বেষী তাদের স্বার্থ সিদ্ধির জন্য তাদের মনগড়া শ্লোক সংযোজন করেছেন। যা সম্পূর্ণই ভ্রান্ত এবং বেদ বিরুদ্ধ।
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অতএব মহর্ষি মনুর মত অনুসারে, বর্ণব্যবস্থা জন্মগত নয়। ইহা গুন, কর্ম এবং স্বভাব জাত। নিম্ন জাত বলে কাউকো হেয় করা নয়। বরং তাদেরকে সম্মান করা। বাস্তবিক ইহাই তো ধর্ম। মহর্ষি মনুর তো ইহাই চরম সিদ্ধান্ত। তাই তো তিনি বলেছেন-
যাহাতে ধর্ম রক্ষা হয়, এমত যত্ন করিবে। জগতে ধর্ম হতে শ্রেষ্ঠ আর কিছু নাই। (মনুঃ ৮।১৭)

যজ্ঞাদি কর্ম অধ্বর অর্থ্যাৎ অহিংসা কর্ম।

মহাভারত কালে এই বৃত্তান্ত এসেছে যে,
“যজ্ঞে হিংসার নিন্দা এবং অহিংসার প্রশংসা”
এই বৃত্তান্ত মহাভারতের শান্তিপর্বের অন্তর্গত ২৭২ অধ্যায়ে এসেছে। এখানে বলা হয়েছে যে, যদি কেউ যজ্ঞের মধ্যে পশু বধ করে, তবে নিশ্চয় তার সমস্ত তপ নষ্ট হয়ে যাবে।
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তস্য তেনানুভাবেন মৃগহিংসাত্মনস্তদা।
তপো মহৎ সমুচ্ছিন্ন তস্মাদহিংসা ন যজ্ঞিয়া।।
অহিংসা সকলো ধর্মাহিংসা ধর্মস্তথাবিধঃ।
সত্যংতেহং প্রবক্ষামি, যো ধর্মঃ সত্যবাদিনাম।।
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এই প্রকরেন মহারাজ যুধিষ্ঠির পিতামহ ভীষ্ম কে জিজ্ঞেস করছেন যে,
ধর্ম তথা সুখের জন্য যজ্ঞ কিভাবে করা উচিত?
ইহার উত্তরে পিতামহ এক তপস্বী ব্রাহ্মন ব্রাহ্মণী দম্পতির বৃত্তান্ত দিয়ে বললেন যে,
সেই তপস্বী ব্রাহ্মণের মহান তপ যজ্ঞের মধ্যে পশুবলি দেবার জন্য এক বণ্য মৃগ বধ করার ইচ্ছা মাত্র সমস্ত বিনষ্ট হয়ে গিয়েছিলো।
এইজন্য যজ্ঞের মধ্যে কখনো হিংসা করা উচিৎ নয়। অহিংসা সার্বত্রিক এবং সর্বকালীন নিত্য ধর্ম।
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এই প্রমাণ দ্বারা জানা যায় যে, মহাভারত কালে পশু হিংসার বিধান ছিলো না।
এমনকি এর পূর্বেও পবিত্র বেদে এ প্রকরন এসেছে-
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রাজসুয়ং বাজপেয়মগ্নিষ্টোমস্ত­দধ্বরঃ।
অকাশ্বমেধাবৃচ্ছিষ্টে জীব বর্হিমমন্দিতমঃ।।
(অথর্ববেদ ১১।৭।৭)
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রাজসূয়, বাজপেয়,অগ্নিষ্টোম, অশ্বমেধ আদি সব যজ্ঞ অধ্বরঃ অর্থাৎ হিংসা রহিত যজ্ঞ। যাহা প্রাণীমাত্রকে বৃদ্ধি এবং সুখ শান্তি দাতা।
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এই মন্ত্রে রাজসূয় আদি সব যজ্ঞকে অধ্বরঃ বলে গিয়েছেন। যার একমাত্র সর্ব্বসম্মত অর্থ হিংসা রহিত যজ্ঞ।
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তাহলে ইহা স্পষ্ট যে, বেদের মধ্যে কোন যজ্ঞে পশুবধের আজ্ঞা নেই। তবুও বেদের নাম নিয়ে যজ্ঞে পশু বধ করা মানে নিজেকে ধোকা দেওয়া এবং নিজের অজ্ঞানতাকে প্রকাশ করা।
আবার ইহা দেখ যে, পশু বধ করে প্রাণীমাত্রের কিরকম বৃদ্ধি হচ্ছে? এবং মানুষ কি রকম সুখ প্রাপ্ত হচ্ছে?
পরন্ত প্রাণীহত্যা করার সময় তার ঘোর যাতনা প্রাপ্ত হয় এবং তার জীবনের সমাপ্তি ঘটে।
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তাহলে দেখা যাচ্ছে যে, ইতিহাসও পশুবলির সমর্থন করে নি। এমন কি বেদও। কিন্তু কিছু মূর্খ যাজ্ঞিক( পৌরাণিক) লোক ” বৈদিকী হিংসা হিংসা ন ভবতি” এর ঢোল পিটিয়ে যজ্ঞে পশুবধ কে অহিংসার সঙ্গা দিয়ে স্বর্গের মার্গ কে প্রশস্ত করার জন্য আপ্রাণ চেষ্টা করে।
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এদের বিচার দেখে মনে যে,নিশ্চয় এরা তাদের বুদ্ধি ঘাসক্ষেতে রেখে এসেছিলেন। নতুবা এরকম অর্থ তারা করতো না।
” বৈদিকী হিংসা হিংসা ন ভবতি” এর অর্থে মনু মহারাজ কি বলেছেন দেখুন-
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যা বেদবিহিতা হিংসা নিয়তাস্মিংশ্চরাচরে।
অহিংসামেব তাং বিদ্যাদ্বেদাদ ধর্মো হি নির্ব্বভৌ।।
যো হিংসকানি ভুতানি হিনস্ত্যান্তসুখেচ্ছয়া।
স জীবংশ্চ মৃতশ্চৈব, নকশ্চিক সুখমেধতে।।
(মনুস্মৃতি ৫।৪৪- ৪৫)
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অর্থাৎ বেদে বিশ্ব সংসার মধ্যে দুষ্ট আততায়ী, ক্রুর পাপীকে দন্ড দান রূপ হিংসা বিহিত আছে তাহা অহিংসাই জানবে। কারন বেদ দ্বারাই যথার্থ ধর্মের প্রকাশ হয়।
কিন্তু ইহার বিপরীতে যে নিরপরাধ,অহিংস প্রাণীকে নিজ সুখ প্রাপ্তির জন্য হত্যা করে সে জীবিত অথবা মৃত এই দুই অবস্থায় কখনোই সুখ পায় না।
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দুষ্টকে দন্ড প্রদান করা হিংসা নয় পরন্ত অহিংসারূপ পূণ্য তাহা মনুস্মৃতি ৮।৩৫১ এ স্পষ্ট আছে-
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” নাততায়িবধে দোষো হন্তুর্ভবতি কশ্চন”
অর্থাৎ আততায়ি ( যে ব্যক্তি বধ উদ্যত) তাহাকে বধ করিলে কোন দোষ নেই।

তাহলে উপরিউক্ত আলোচনা থেকে স্পষ্ট হয় যে যজ্ঞে পশু বধ নিষিদ্ধ। যে বেদ পশু পালনের সুস্পষ্ট নির্দেশ দেয়। সে বেদ পশু হত্যার বিধান কি করে দিতে পারে?

আধ্যাত্মবাদ

আত্মা কি? পরমাত্মা কি? এই দুইয়ের মাঝে সমন্ধ কি? এই বিষয়ের নাম আধ্যাত্মাবাদ।
আত্মা ও পরমাত্মা এই দুই বস্তু কোন ভৌতিক পদার্থ নয়। ইহা চর্ম চক্ষু দ্বারা দর্শন করা যায় না,কর্ণ দ্বারা শ্রবন করা যায় না, ইহা নাসিকার ঘ্রান থেকে মুক্ত,জিহ্বাগ্র দ্বারা আস্বাদন নেওয়া যায় না। ইহা ধরা ছোঁয়ার বাহিরে।
পরমাত্মা এক তিনি একাধিক নন। ব্রহ্মা, বিষ্ণু, মহেশ একই পরমাত্মার বিভিন্ন নাম।
(একং সদ্ বিপ্রা বহুধা বদন্তি)ঋগ্বেদ ১/১৬৪/৪৬ অথ্যাৎ একই পরমাত্মাকে বিদ্বান ব্যাক্তিগন বিভিন্ন নামে ডেকে থাকেন।
সংসারে জীবধারী প্রাণী অনন্ত। সেজন্য জীবাত্মা ও অনন্ত।

ন্যায়দর্শন অনুসারে জ্ঞান,প্রযত্ন, ইচ্ছা,দ্বেষ,সুখ,দু:খ এই ছয় গুন আত্মার মধ্যে অবস্তিত। জ্ঞান আর প্রযত্ন আত্মার স্বাভাবিক গুন, বাকি চার গুন আত্মা শরীর ধারণে লাভ করে। আত্মার উপস্থিতির কারণে এই শরীর প্রকাশিত। আত্মা ত্যাগ করতে সেই শরীর অপবিত্র,ও অপ্রকাশিত। এই সংসারও পরমাত্ম প্রাপ্তির সেই বিশেষ জ্ঞানের জন্য প্রকাশিত। আত্মা ও পরমাত্মা এই দুই বস্তুই অজন্মা,অনাদি অনন্ত। ইহা কখনো জন্মগ্রহণ করেন না, মৃতও হন না। আত্মকে কেউ সৃষ্টি করতে পারে না, আত্মা পরমাত্মার অংশ নয়। আত্মা ও পরমাত্মা ইহা দুইটি আলাদা ও সতন্ত্র সত্তা। আত্মা অনু স্বরুপ সুতরাং অনেক ছোট, আর পরমাত্মা সর্ব্ব্যপক। আত্মার জ্ঞান সীমিত, আর পরমাত্মা সর্বজ্ঞ। তিনি সবকিছুর জানতা, সব বিষয়ে তিনি জ্ঞাত। তিনি অন্তর্যামী তাই সকলের মনের অবস্থা জানেন। আত্মার শক্তি সীমিত পরন্তু পরমাত্মা সর্বশক্তিমান। সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় সবকিছু পরমাত্মার ইচ্ছানুসারে হয়। পীর,পৈগম্বর,অবতার, এজেন্ট, দালাল ইত্যাদি তিনি রাখেন না, রাখার প্রয়োজন নেই,কারণ তিনি সর্বশক্তিমান। তার কার্য সম্পাদনের জন্য অবতার বা দালালের প্রয়োজন নেই। তিনি সব কাজ নিজ অন্তর থেকে সমাধান করেন। তার বাহিরে কিছু নেই। ঈশ্বর যা কিছু করেন না কেন তাহা হাত, পা দিয়ে করেন না,কারণ তিনি লিঙ্গশরীর মুক্ত,অশরীরি।
তিনি ইচ্ছা মাত্র সব কিছু করেন। ঈশ্বর আনন্দ স্বরুপ, তিনি রাগ,দ্বেষ থেকে মুক্ত। কাম,ক্রোধ,লোভ,মোহ, অহংকার তাকে লিপ্ত করতে পারে না। জ্ঞানিগন আনন্দস্বরুপ ঈশ্বরের উপাসনা করে আনন্দ প্রাপ্ত হন। ঈশ্বর সাকার নিরাকার এর অতীত কোন বস্তু। শুদ্ধ মন দ্বারা তাকে জানা সম্ভব। যেমনি ভাবে আমরা সুখ,দুঃখ মন দিয়ে অনুভব করি।
আত্মা যখন শরীর প্রাপ্ত হয় তখন সে সতন্ত্র ভাবে কার্য করে।দেহান্তে সেই কর্ম অনুসারে পরমাত্মা তাকে সুখ,দুঃখ তথা অন্য জন্ম প্রদান করে। পরবর্তী জন্মে সে স্বভাব অনুযায়ী কর্ম করে। যদি সে শরীর অবস্থায় আত্মা মন্দ কর্ম করে থাকে তাহলে সে নিম্ন যোনী প্রাপ্ত হয়। তখন তার মাঝে ভালো মন্দের বিচার থাকে না। নিম্ন যোনী প্রাপ্ত জীব ভোগ বিলাসে মত্ত থাকে।
কিন্তু মানব যোনীতে ভোগ আর কর্ম দুটোরেই মিশ্রন। । এই যোনীতে ভালো মন্দের বিচার সম্ভব এবং ঈশ্বর ভজনার উত্তম স্থান।
আমি আত্মা, শরীর নই। এই শরীর রুপ সংসার থেকে আত্মা ঈশ্বর ভজন করে ও সুখ দুঃখাদি ভোগ করে।

জীবাত্মা নয় স্ত্রী, নয় পুরুষ আর নয় নপুংসক। ইহা পূর্বজন্মে যেমন যেমন কর্ম করে, তেমন শরীর প্রাপ্ত হয় পরবর্তী জন্মে। (শ্বেতাশ্বতর উপনিষদ্)
বর্তমানে মানুষ যেভাবে ধুপ,ধুনা, গন্ধ,খাবার,পশুবলি ইত্যাদি দিয়ে পূজা করেন সেটাকে পূজা বলা যায় না।
প্রকৃত পূজা হলো নিজ আত্মাকে পূর্ণ রুপে জাগরন করা। ঈশ্বরে আজ্ঞা পালন করা আর সত্য ও ন্যায়ের আচরন করা ইহাই ঈশ্বরের পূজা।

উপনিষদে মানুষের শরীর কে রথের সাথে তুলনা করা হয়েছে। আত্মা হচ্ছে সেই রথের মালিক, বুদ্ধি সারথি, মন লাগাম,ইন্দ্রিয় গুলো হলো অশ্বসমুহ। রথের সারথি যদি উত্তম না হন ঠিক ভাবে যদি লাগাম না ধরেন তাহলে অশ্বসমুহ বিপথে ধাবিত হয়। ঠিক তেমনি মনরুপ লাগাম সংযত না হলে ইন্দ্রিয় সমুহ বিপথে ধাবিত হয়,ঈশ্বর কে জানতে পারে না। তাই শুদ্ধ মনে ঈশ্বরের উপাসনা করতে হয়।
পরমাত্মা আমাদের মাতা,পিতা,মিত্র। তাই তার কাছে আমরা প্রার্থনা করব তিনি সকল প্রাণী কে সৎমার্গে প্রেরণ করুক।
ওম্ শান্তিঃ শান্তিঃ শান্তিঃ।
কৃষ্ণচন্দ্রগর্গজীর হিন্দি আর্টিকেল থেকে বাংলা অনুবাদ by বিকাশ মজুমদার

বেদে গৌরাঙ্গের কথা একটি ভ্রান্ত ধারণা।

বেদ নিয়ে যেন পৌরাণিকদের জল্পনা কল্পনার শেষ নেই। তারা তাদের কাল্পনিক চিন্তাধারা বেদের মধ্যে প্রতিফলিত করতে চায়। যেমনঃ রাম অবতার, কৃষ্ণ অবতার, কাল্পনিক রাধা চরিত্র ইত্যাদি। এমন কি বাদ যায় নি কলি যুগের নিমাই সন্ন্যাসি (গৌরাঙ্গ)। তাদের দাবী হচ্ছে, বেদে নাকি নিমাই (গৌর) এর ভবিষ্যত বাণী করা হয়েছে। এবং বলা হয়েছে তিনি না কি কীর্তন প্রচার করবেন। তারা নিম্নক্তো দাবী উপস্থাপন করে –

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=>> দাবী -০১

সেমং নঃ স্তোমমা গহ্যুপেদং সবনং সুতম। গৌরো ন তৃষিতঃ পিব।।

(ঋগবেদ ১।১৬।৫)

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হে ভগবান গৌর! সূর্যরশ্নি সম্মিলনা কাঙ্ক্ষী চন্দ্রের মতো তৃষিত এই ভক্তমন্ডলীর সমীপে আগমনপূর্বক দিব্য সংকীর্তনানন্দ আস্বাদন করুন।

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দাবীর সত্যতাঃ

সম্পূর্ণ মনোকল্পিত অনুবাদ এটি।মহর্ষী যাস্কের মতে বেদ মন্ত্রের অনুবাদ মন্ত্রের প্রকরন এবং দেবতা অনুয়ায়ী করা উচিত। কিন্তু উক্ত অনুবাদে এর কোনটাই মানা হয় নি। অনুবাদক যেন তার মনের মাধুরি মিশিয়ে অনুবাদ করেছেন। যা কল্পনা ব্যতিত আর কিছুই নয়। যথার্থ অনুবাদ হচ্ছে –

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” হে ইন্দ্রেদেব! আমাদের স্তোত্র শ্রবন করতে আপনি এখানে আসুন। তৃষ্ণার্থ গৌর মৃগের ন্যায় ব্যকুল মনে সোমের অভিষেক স্থানের নিকট এসে সোম পান করুন ”

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উপরিউক্ত মন্ত্রে দেখা যাচ্ছে যে, ওখানে “গৌর মৃগের ” কথা বলা হয়েছে। নিমাই (গৌরাঙ্গদেব) এর কথা বলা হয় নি। মন্ত্রে গৌর একটি বর্ণ বিশেষ। এই গৌর শব্দের উল্লেখ আমরা যজুর্বেদ ১৩।৪৮ এ পাই-

” গৌরমারণ্যমনু তে দিশামি…….গৌরং তে শুগৃচ্ছতু যং দ্বিশস্তং শৃশুগচাছতু”

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এর অনুবাদে বলা হয়েছে, তোমার শোক, সন্তাপ বা ক্রোধ গৌর মৃগের প্রাপ্ত হোক।

যদি এখানে আমরা গৌর = নিমাই (গৌরাঙ্গ) অর্থ করি তাহলে মন্ত্রটির অর্থ দাড়ায় –

“তোমার শোক, সন্তাপ বা ক্রোধ নিমাই(গৌর) এর প্রাপ্ত হোক”

এরকম অর্থ কি তারা স্বীকার করবেন?

সর্বাশ্চার্যের বিষয় এই যে পৌরাণিকদের শিরোমনি রমেশ দত্তও উক্ত মন্ত্রে নিমাই (গৌর) কে খুজে পান নি।

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“হে ইন্দ্র! তুমি আমাদের স্তুতি গ্রহন করিতে আসো। যেহেতু যজ্ঞসবন অভিযুত হইয়াছে। তুমি তৃষিত গৌর মৃগের ন্যায় পান কর”

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=>> দাবী – ০২

অগ্নেঃ পূর্ব্বে….বরুণং দুরমায় গৌরো ন ক্ষেপ্নোরবিজে জ্যায়া।।

(ঋগবেদ ১০।৫১।১৬)

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আমি আমার পূর্বতন ব্রহ্মাদি ভ্রাতাদের মৃত্যু দর্শন করে মৃত্যভয়ে ভীত হয়ে বহু দেশ ভ্রমন করার পর মৃত্যুর লক্ষের বাইরে শ্রী গৌরদেবের চরন আশ্রয় করেছি – যা আশ্রয়ে নিরুদ্বেগ হওয়া যায়।

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দাবীর সত্যতাঃ

এ মন্ত্রেও সেই একই কল্পনার আশ্রয়। তাদের যেন মন্ত্রে গৌর শব্দটি পেলেই হলো আর কিছুই দেখার প্রয়োজন নেই। মন্ত্রটিকে একেবারে চৈতন্য চরিতামৃত বানিয়ে ছাড়বে। মন্ত্রদ্রষ্টা ঋষিরা এরকমটি জানলে হয়তবা আগেই দেহত্যাগ করতেন।

মন্ত্রটির যথার্থ অনুবাদ-

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“যেই প্রকারে রথী মার্গে গমন করে লক্ষ্যে পৌছে, এভাবে আমার তিন জ্যেষ্ঠ ভ্রাতা এই যজন কার্য করতে গিয়ে মৃত্যু প্রাপ্ত হয়েছে। হে বরুনদেব! এই ভয়ে আমি চিন্তিত হয়ে সুদূরে চলে এসেছি। ধনুধারীর বাণ দ্বারা যেই প্রকারে হরিণ ভয়ে ভীত হয়, সেই প্রকারে আমি যজন কার্যে ভয়ে ভীত”

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এই মন্ত্রেও গৌর= মৃগের কথা বলা হচ্ছে। নিমাই (গৌরাঙ্গ) এর কথা নয়। অতএব ব্যাখ্যা নিষ্প্রয়োজন। এবার রমেশ দত্তের অনুবাদে আসি। তিনি কি এই মন্ত্রে নিমাই(গৌরাঙ্গ) এর কথা স্বীকার করেছেন?

চলুন দেখে নেওয়া যাক-

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” অগ্নির পূর্ব্বতন ভ্রাতাগন, যেমন রথী দূরপথ পর্যটনে প্রবৃত্ত হয়, তদরূপ এই কার্যে ব্রতী হইয়া বিষ্ট হইয়াছে। হে বরুন! এই নিমিত্ত ভয়প্রযুক্ত আমি দূরে চলিয়া আসিয়াছি। যেরূপ শ্বেত হরিণন ধনুকের গুন দেখিলে বাণের ভয় প্রাপ্ত হয়। তদ্রুপ আমিও উদ্বিগ্ন হইয়াছি”

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অতএব দেখা যাচ্ছে যে, কোন অনুবাদকই উক্ত মন্ত্রগুলোতে নিমাই(গৌরাঙ্গ) এর কথা স্বীকার করেন নি। দাবীগুলো যে ভ্রান্ত ছিলো তাহা সুস্পষ্ট।