जिज्ञासा: यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ …..आचार्य सोमदेव

यज्ञ करते समय ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ वाला मन्त्र अग्न्यानयन मन्त्र, दीप प्रज्वलन मन्त्र और अग्न्याधान मन्त्र के पश्चात् आता है। इससे भी पहले ‘‘ईश्वर स्तुति प्रार्थनोपासना, स्वस्तिवाचनम् व शान्तिकरणम्’’ के मन्त्र आ चुके होते हैं, तो ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ वाला मन्त्र सर्वप्रथम क्यों नहीं आ जाता? इसमें क्या अनियमितता हो जाती है? जब इतना कुछ हो लेता है और अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, तब कहा जाता है कि अब सभी देव और यजमान बैठ जाएँ। तो क्या इससे पहले वाली सभी क्रियाएँ खड़े-खड़े करनी चाहिए? या सीदत का कोई अन्य अर्थ भी हो सकता है, जिसका हमें पता नहीं है। और यह भी हो सकता है कि अब तक पूरे एकाग्रचित्त नहीं हुए थे (वैसे होना तो चाहिए।), इसलिए चेताने के लिए कहा हो कि अब सावधान, सतर्क व सजग होकर बैठें। मामला क्या है? समझाने का कष्ट करें।

(ख) आपके इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले यहाँ जिस मन्त्र को आपने उठाया है, उसका अर्थ महर्षि दयानन्द ने जो किया है, वह दे रहे हैं-
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते सं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।।
– य. १५.५४
पदार्थ- हे (अग्ने) अच्छी विद्या से प्रकाशित स्त्री वा पुरुष तू (उद्बुध्यस्व) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हो, सब के प्रति, (प्रति जागृहि) अविद्यारूप निद्रा को छोड़ के विद्या से चेतन हो (त्वम्) तू स्त्री (च) और (अयम्) यह पुरुष दोनों (अस्मिन्) इस वर्तमान (सधस्थे) एक स्थान में और (उत्तरस्मिन्) आगामी समय में सदा (इष्टापूर्त्ते) इष्ट सुख विद्वानों का सत्कार, ईश्वर का आराधन, अच्छा संग करना और सत्यविद्या आदि का दान देना। यह इष्ट और पूर्णबल ब्रह्मचर्य, विद्या की शोभा, पूर्ण युवा अवस्था, साधन और उपसाधन-यह सब पूर्त्त इन दोनों को (सं, सृजेथाम्) सिद्ध किया करो (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (च) और (यजमानः) यज्ञ करने वाले पुरुष, तू इस एक स्थान में (अधि, सीदत) उन्नतिपूर्वक स्थिर होओ।
इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने कहा कि विद्वान् लोग और यज्ञ करने वाला पुरुष-ये दोनों इस स्थान अर्थात् यज्ञ कर्म करने के स्थान पर वा परोपकार रूप कर्म में उन्नतिपूर्वक स्थिर हों। महर्षि ने यहाँ स्थिर होने की बात कही है, बैठने आदि का संकेत नहीं किया। स्थिर होने का तात्पर्य अपने को अन्य कार्यों से हटाकर उस परोपकार रूप कार्य में स्थिर करना, उसी में अपने को लगाना है। महर्षि के वचनों से तो यह मामला ऐसे ही सुलझा हुआ है। हम अपने अल्प ज्ञान से सुलझे हुए को भी कभी-कभार उलझा लेते हैं।

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