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कुरान समीक्षा : खुदा को कर्ज दो बदले में दूना मिलेगा

खुदा को कर्ज दो बदले में दूना मिलेगा

कुरान पारा ६ सूरे मायदा रूकू २ आयत १२ में खुदा को कर्ज देने से गुनाह माफ का कुरान ने वायदा किया था और यहां खुदा कर्ज लेने पर उसे दूना, मयसूद के वापस देने का वायदा करता है। बतावें कि सूद देना व लेना इस्लाम में गुनाह कैसे हो सकता है।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

मन् जल्लजी युक्रिजुल्ला-ह कर्…………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा हदीद रूकू २ आयत ११)

ऐसा कौन है जो अल्लाह को खुश दिली से उधार दे फिर वह उसके लिए दूना कर दे और उसके लिए इज्जत का फल जन्नत है।

समीक्षा

उधार के लिए कर्ज देना मुनासिब होगा। आश्चर्य है कि खुदा को भी कर्ज मांगना पड़ा है और पाप माफ करने का लालच देना पड़ा है।

कुरान समीक्षा : सूरज के निकलने और डूबने की जगह है

सूरज के निकलने और डूबने की जगह है

सूरज निकलने और डूबने की जगह कहां पर है बताने का कष्ट करें। क्या इससे यह जाहिर नहीं है कि खुदा की इल्मी लियाकत बहुत ही कम थी जो वह सूरज निकलने व डूबने की जगह भी जानता था।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

रब्बुल-मश्रिकैनि व रब्बुल-मग्रिबैनि………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान रूकू १ आयत १७)

और वहीं सूरज निकलने और डूबने की जगहों का मालिक है।

समीक्षा

अरब में यह जगह कहाँ पर है? यह बात कुरान को और खोल देनी चाहिए थी तो खुदा के सही इल्म का सभी को ज्ञान हो जाता। कुरान की बातें ऐसी ही हैं जिन पर पढ़े लिखे लोग हँसे बिना न रह सकेंगे।

रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से उत्पत्ति का क्रम लिखा जाता है। इसमें संदेह यह है कि पहले जड़ की उत्पत्ति होती वा चेतन की और चेतनों में पशु, पक्षी, कीट, पतगदि वा मनुष्य इनमें कौन पहले उत्पन्न होते हैं ? तथा पांच तत्त्वों में आकाश की उत्पत्ति कैसे संभव होती है इत्यादि सैकड़ों विरोध सृष्टि-प्रक्रिया में हैं, उनको हटाने के लिए यहां संक्षेप में लिखते हैं।

पहले जड़ वस्तु उत्पन्न होते हैं किन्तु चेतन नहीं। जड़ों में पृथिव्यादि भूतों की रचना के पश्चात् मनुष्यादि के भक्ष्य ओषधि आदि पदार्थ और उसके पश्चात् मनुष्यादि चर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु शरीरधारियों में छोटे कीट पतगदि, तिस पीछे पशु-पक्षी आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं और सबसे पीछे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मनुष्य से नीचे योनि के सब प्राणी मनुष्य के उपकारार्थ हैं, इसलिये सुख के वा दुःख के साधन पहले बनाये जाते हैं। तथा कीट-पतग् आदि सूक्ष्म जन्तु हैं, स्थूल से पहले प्रायः सूक्ष्म की उत्पत्ति न्यायानुकूल माननी चाहिये। क्योंकि कारण सदा सूक्ष्म और कार्य सदा स्थूल होता है। यही क्रम प्रायः सभी शिष्ट लोगों के सम्मत है। ऐसा मान करके ही तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि- “उस परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं।”१ तथा सांख्य में लिखा है कि- “सत्त्व, रजस् और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति कहाती है, उससे द्वितीय कक्षा में महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसको कोई लोग हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसी को कोई विधि-विधाता वा ब्रह्मा कहते हैं कि कार्यरूप संसार की वृद्धि होने का वह पहला परिणाम है और ब्रह्मा शब्द का अर्थ भी यही है कि जिससे वृद्धि हो। तृतीय कक्षा में अहटार उत्पन्न होता है, अहटार से पांच सूक्ष्म भूत और उनसे इन्द्रिय इत्यादि।”२ इन प्रमाणों से स्पष्ट निश्चय होता है कि- आकाशादि क्रम से जड़ तत्त्व पहले उत्पन्न होते हैं। यदि आधारस्वरूप, आकाशादि तत्त्व पहले न हों तो उत्पन्न हुए प्राणी किसके आश्रय से ठहरें और क्या खाकर के जीवित रहें ? और चेतन शरीरों के कारण भी पृथिव्यादि तत्त्व हैं, उन कारणरूप तत्त्वों की उत्पत्ति हुए बिना प्राणियों के शरीर उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता। इसलिये सब वस्तुओं के कारणभूत द्रव्य पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे कार्यवस्तु होते हैं। सूक्ष्म प्रकृतिरूप अन्तिम कारण की अपेक्षा यद्यपि तन्मात्रादि सूक्ष्मभूत भी कार्य ही हैं, तो भी स्थूल भूतों की अपेक्षा से वे कारण ही समझे जाते हैं। यद्यपि कार्यरूप अग्नि, वायु का कार्य है, तो भी जल की उत्पत्ति की अपेक्षा से अग्नि कारण भी है। इस प्रकार कार्य-कारण व्यवस्था सापेक्ष है। अर्थात् जो कारण है वह किसी की अपेक्षा से कार्य और ऐसे ही कार्य कारण हो जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले प्रकाश उत्पन्न होता है, तब सृष्टि करने को उद्यतरूप से परमात्मा जागता है।१ इस प्रकार उस परमेश्वर का सृष्टि करने को उद्यत होना ही प्रकाश की उत्पत्ति है। उसको कोई अन्य जगाता नहीं किन्तु वह स्वयमेव उद्यत होता है। इसीलिये वह स्वयम्भू कहाता है। यही बात मनुस्मृति के छठे श्लोक में (प्रादुरासीत्तमोनुद०) इत्यादि प्रकार कही है। उस परमेश्वर से द्वितीयावस्था में आकाश उत्पन्न होता है, जो सब वस्तुओं का आधार, जिसमें सूर्यादि ज्योति नियम पूर्वक तपते, घूमते और प्रकाशित होते हैं। और उसके अवकाश देने स्वरूप होने से नित्य होना कह सकते हैं, फिर उसकी उत्पत्ति क्यों दिखायी जाती है ? इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि- घड़ा आदि के तुल्य आकाश उत्पन्न नहीं होता। यदि कभी किसी प्रकार तैजस वस्तुओं का सर्वथा अभाव होने से अन्धकार हो जावे। कोई कहीं जा भी न सके तो अवकाश के रहने पर भी कार्यसिद्धि का हेतु न होने से उसका अभाव जैसे कह सकते हैं। और प्रकाश रहने पर कार्यसिद्धि का हेतु होने से आकाश उत्पन्न होता ऐसा व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार आकाश शब्द दीप्ति अर्थ वाले काश धातु से यौगिक पक्ष में परमात्मा का नाम है। और योगरूढ़ दशा में शब्दगुण वाले आकाश तत्त्व का नाम है। अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है इसलिये सर्वविध प्रकाश के आधार का नाम आकाश है। इसी से सूर्यादि ज्योंतियों के प्रकाश से रहित प्रलय दशा में   अन्धकार रूप शून्य की आकाश संज्ञा नहीं कह सकते, इसी से आकाश नहीं है ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। और सृष्टि के आरम्भ में फिर व्यवहार होता है कि आकाश हो गया। यह भी उस आकाश की उत्पत्ति है। तथा अवकाश अनन्त है। जहां सृष्टि नहीं है, वहां भी शून्यरूप पोल है, उसमें से जितने अवकाश में ब्रह्माण्ड रचा गया, सृष्टि के आरम्भ में उसकी आकाश संज्ञा धरी गयी, क्योंकि सूर्यादि ज्योतियों के वहां रहने से ब्रह्माण्डस्थ ही शून्य प्रकाश युक्त होता उसी में वायु आदि साधनों के विद्यमान रहने से शब्द की भी उत्पत्ति हो सकती है इसलिये वही आकाश है अन्य शून्य आकाश नहीं, यह भी आकाश की उत्पत्ति दिखाने का आशय है। इस प्रकार आकाश की उत्पत्ति होती है, पर घटादि के तुल्य नहीं। आकाश का शब्द गुण है, उस शब्द की उत्पत्ति में वायु भी सहयोगी कारण है। वायु के बिना केवल आकाश से शब्द का श्रवण नहीं हो सकता। पर तो भी शब्द का मूल कारण आकाश है। तथा संयोग-विभाग से शब्द की उत्पत्ति होती (अर्थात् ताल्वादि स्थानों के संयोग से वा भेरी-दण्डादि के संयोग से शब्द की उत्पत्ति होती है वे संयोग-विभाग बिना अवकाश के नहीं हो सकते) इससे भी शब्द का मूल कारण आकाश होता है। तथा उस आकाश का शब्द गुण सहित होना प्रलयदशा में नहीं घटता ऐसा मानकर सृष्टि के आरम्भ में शब्द का आश्रय बनने से आकाश की उत्पत्ति अर्थात् प्रादुर्भाव मानना पड़ता है।

पीछे आकाश से वायु उत्पन्न होता है और वह वायु गतिवाला होता है। सब वस्तु की गति अवकाश होने पर ही हो सकती है। वायु इधर-उधर चलने से शरीर में लगता और तृणादि को इधर-उधर चलाता है, इससे अनुमान होता है कि वायु है। यदि आकाश न हो तो वायु का भी चलना न हो सके। वह शून्यरूप पोल तो सदा ही है किन्तु तैजस प्रकाश से युक्त आकाश प्रलयावस्था में नहीं रहता, इसी कारण उस समय वायु का भी अभाव है। तैजस कारणरूप प्रकाश के फैलने रूप आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है। और वह शब्दगुणवाले आकाश से उत्पन्न हुआ वायु स्वयं स्पर्श गुण वाला होता है। और उसमें कारण का गुण भी आता है इसीलिये शब्द और स्पर्श दो गुणों वाला वायु अपने कारणरूप सूक्ष्म आकाश से स्थूल उत्पन्न होता है। आकाश के होने पर वायु का होना और उसके न होने पर वायु का न होना, इस प्रकार वायु और आकाश का कार्यकारण सम्बन्ध है। कार्य-कारणों की एकता कई प्रकार से मानी जाती है। उनमें यहां अस्तित्व सामान्य वा कारण की सत्ता में कार्य का होना अर्थात् जिसकी विद्यमानता में जो रहे और जिसके न रहने पर जो न रहे, वह उसका कारण कहाता है। इस प्रकार यहां दोनों कार्य-कारण की एकरूपता है। इसी प्रकार वायु का भी शब्द गुण है यह वायु के कारण आकाश के सम्बन्ध से कह सकते हैं। इसीलिये वर्णोच्चारणशिक्षा में शब्द की उत्पत्ति में कहा है कि- “आकाश और वायु दोनों से शब्द उत्पन्न होता है”।१

तथा वायु से अग्नि उत्पन्न होता है। यहां सब स्थलों में प्रभव अपादान के तुल्य कारकपन मान वा विचार के आकाश वायु आदि शब्दों में पञ्चमी विभक्ति की गयी है। जैसे कहा जाता है कि “हिमालय से गग निकलती वा प्रकट होती है”२ इसी प्रकार यहां भी निकलना वा प्रकट होना अर्थ है। और (सम्भूतः) यह पद उत्पत्ति के कारण को जताता है। इससे वायु का आकाश अथवा अग्नि का वायु, घड़ा का मिट्टी के समान उपादान कारण नहीं अर्थात् जैसे मिट्टी स्वयं घड़ारूप बन जाती है वैसे आकाश वायुरूप और वायु अग्निरूप नहीं बन जाता। घड़े का उपादान कारण मिट्टी है पर वायु का उपादान आकाश और अग्नि का उपादान वायु नहीं है। और जहां घड़े के उपादान मिट्टी के तुल्य साक्षात् कार्य का उपादान कारण होता है वहां विशेष कर कार्यकारण की एकरूपता अपेक्षित होती है। इसी प्रकार यहां साक्षात् उपादान कारण न होने से वायु के साथ अग्नि का सारूप्य अपेक्षित नहीं होता, किन्तु वायु की विद्यमानता में अग्नि की उत्पत्ति होती है, इसलिये अग्नि का कारण वायु माना जाता है। जैसे वायु के होने पर अग्नि और दीपक जलते हैं, न होने पर नहीं। इसी से जहां वायु का आना-जाना घड़ा आदि से रोक दिया जाता है, वहां दीपादि नहीं जल सकता। जैसे जलते हुए दीपक को एक घड़े में धरके घड़े का मुख बन्द कर दिया जावे जिससे उसमें किञ्चित् भी वायु न पहुंचे तो उसी क्षण भर में दीपक बुझ जायेगा। ऐसा होने पर स्थूल वायु के आने-जाने से अग्नि जलता है अन्यथा नहीं। इससे अग्नि का कारण वायु है, यह कथन सम्भव है। तथा कहीं अग्नि भी वायु का कारण होता है। उसमें भेद यह है कि सूक्ष्म बिजली आदि कारणरूप अग्नि वायु का कारण है। और यही कारण अग्नि सबसे पहले उत्पन्न होता है, इसी के सम्बन्ध से शून्य का आकाश नाम पड़ता है, इसी की व्याप्ति से वायु चलता है, इसलिये इसी को वायु का कारण मानते हैं, पर स्थूल अग्नि का स्थूल वायु ही कारण है, यह पूर्व से सिद्ध हो चुका।

अग्नि के पश्चात् जल उत्पन्न होता है, इसी कारण ग्रीष्म ऋतु के तपने के पश्चात् वर्षा ऋतु होता है, अर्थात् ग्रीष्म ऋतु का अच्छे प्रकार तपना ही वर्षा का कारण है। तथा अन्य समय में भी जब-जब वर्षा होती है, तब-तब उष्णता की उत्तेजना पूर्वक ही होती है, इससे भी जलों की उत्पत्ति का कारण अग्नि आता है। यदि जगत् में अग्नि न हो तो जल में बहनारूप द्रवगुण रहना भी असम्भव है। तथा किसी यन्त्र से जल में व्याप्त अग्नि निकाल लिया जावे तो जलाकार की कठिनता हो जाने से जल का अपने रूप में ठहरना ही सम्भव नहीं (जल में से अग्नि का भाग निकाल लेने पर ही बरफ बन जाता है, वही अग्नि वायु के सम्बन्ध से फिर जलरूप होकर बहने लगता है) और जिसके अभाव में जिसका अभाव होता है, वह उसका कारण हो यह भी न्याय से सिद्ध ही है, जैसे तैल के न रहने पर दीपक नहीं जलता। तथा जल से पृथिवी उत्पन्न होती है। इसी कारण जब वर्षादि द्वारा पृथिवी को जल प्राप्त होता है, तभी पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुएं ठहरती हैं। जल न रहे तो संयोग से बने पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुओं के अवयवों का वियोग होकर विनाश हो जावे। इससे पृथिवी का कारण जल सिद्ध होता है। जहां-जहां जल की प्रवृत्ति है, वहां-वहां पृथिवी की ठीक दशा है। पृथिवी के सम्बन्ध से फल पकते समय स्वरूप से सूखने वा नष्ट होने वाली ओषधियां, उन ओषधियों से उनका फलरूप अन्न तथा खाये हुए अन्न से साररूप रसादि धातु उत्पन्न होते, और उन धातुओं का परस्पर विपरिणाम होते-होते वीर्य धातु उत्पन्न होता है, वह वीर्य प्राणियों के शरीरों का उपादान कारण है। इस प्रकार ओषधियों से अन्न उत्पन्न होने पर प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है। अन्नादि भोग्य वस्तुओं के होने पर भी भोक्ताओं के बिना रसादि धातु न होने से प्राणियों के शरीर नहीं उत्पन्न होते। इसलिये अन्न और ओषधि की रचना के अनन्तर सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने वैसे ही सूक्ष्म कारण से प्राणियों के शरीर उत्पन्न किये। उनके द्वारा खाये अन्न से फिर वीर्यादि धातु होकर मैथुनी सृष्टि हुई। स्थूल स्त्री-पुरुषों के संयोग के बिना अद्भुत शिल्पयुक्त प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति की है, इससे उस परमेश्वर का सर्वज्ञ होना सिद्ध है। फिर भी सृष्टि के आरम्भ में प्रथम बुद्धि में दो भेद कल्पित किये। उनका नाम स्त्री-पुरुष रखा गया, पीछे स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों से युक्त परमाणुओं के संयोग से सबको उत्पन्न किया। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों के संयोग से सब उत्पन्न होता है, यह आशय निकलता है। अथवा पुरुष नाम परमात्मा सृष्टि का निमित्त है और प्रकृति उपादानरूप स्त्री उन दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुई सृष्टि भी मैथुनी कहाती है। इस प्रकार यहां सृष्टिप्रक्रिया में उत्पत्ति का क्रम तथा अन्य भी यथासम्भव कहा। अब इस विषय में अधिक लिखना समाप्त करते हैं। आगे प्रथमाध्याय की समीक्षा लिखी जायेगी।

कुरान समीक्षा : खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है

खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है

खुदा का महल जन्नत अर्थात् स्वर्ग में है जहां वह रहता है, उसके पास ही प्यारी-प्यारी करोड़ों हूरें अर्थात् सुन्दर स्त्रियां भी रहती हैं, शराब की नहरें भी खुदा ही के पास हैं। तो बतावें कि खुदा की जन्नत अर्थात् स्वर्ग हमारी पृथ्वी से कितनी दूर व किस दिशा में है ? क्या आप जन्नत की मौजूदगी साबित कर सकते हैं?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इन्नल्-मुत्तक-न फी जन्नातिंव……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा कमर रूकू ३ आयत ५५)

परहेजगार बैकुण्ड के बागों ओर नहरो में होंगे।

फी मक्-अदि सिद्किन् अिन-द…….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा कमर रूकू ३ आयत ५५)

सच्ची बैठक में बादशाह के पास जिसका सब पर कब्जा है बैठेंगे।

समीक्षा

खुदा जन्नत अर्थात् बहिश्त में रहता हैं। वहीं पर असंख्य खूबसूरत औरतें तथा सुन्दर-सुन्दर लोंडे भी रहते हैं। वहीं पर हूरों के हुस्न अर्थात् सौन्दर्य की बिक्री का बाजार भी लगता है

(देखो मुकदमाये तफसीरूल्कुरान पृष्ठ ८३ व कुरान परिचय पृष्ठ ११७)

ऐसे ऐशो आराम के बहिश्त में अरबी खुदा की तबियत खूब लगी रहती होगी। वह बढ़ा भाग्यशाली है। तौरेत के अनुसार खुदा के मकान दरवाजे तथा फाटक भी लगे हुए हैं। उनकी रक्षा को बहुत से पहरेदार भी नियत्त रहते हैं। इन्जील के अनुसार-

‘‘खुदा की रक्षा को बीस करोड़ घुड़सवार फौज भी वहां रहती है।’’

(देखो बाइबिल प्रकाशित नाम का अध्याय ९ वाक्य १६)

अरबी खुदा बड़े ठाट-बाट का था जो किसी बड़े जमींदार से किसी बात में भी कम नहीं था। नौकर-चाकर फौजें-महल-हूरें-गिलमें सभी उसके पास बेशुमार थे।

मानसी और मैथुनी सृष्टि का भेद : पण्डित भीमसेन शर्मा

तथा सृष्टि में विचारशील पुरुषों को दो ही भेद निश्चित जानने चाहियें। एक मानवी या मानसी सृष्टि अथवा ऐश्वरी सृष्टि और दूसरी मैथुनी अथवा मानुषी सृष्टि कहाती है। इनमें पहली मानवी सृष्टि कल्प के आरम्भ में ही होती है तथा दूसरे प्रकार की सृष्टि उत्पत्ति होने के पश्चात् जगत् की स्थिति दशा रहने पर्यन्त सदा प्रतिदिन व प्रतिक्षण होती है। उनमें स्थूल कारण की अपेक्षा को छोड़कर प्रलय के पश्चात् सृष्टि के आरम्भ में विचार व मनन शक्ति का आश्रय लेकर मनु नामक परमेश्वर ने उत्पन्न की, इससे मानवी सृष्टि कहाती है। मन नाम विचार के आश्रय से ही सूक्ष्म कारण से की गयी किन्तु स्थूल शरीरादि का आश्रय रखने वाले कर्म से नहीं, इसीलिये प्रारम्भ की सृष्टि मानसी भी कही जाती है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही उस सृष्टि को कर सकता है किन्तु कोई साधारण पुरुष नहीं, इसलिये उसको ऐश्वरी सृष्टि भी कहते हैं, और वह सृष्टि स्थूल स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही उत्पन्न होती है, उस समय उन प्राणियों का माता-पिता वही एक परमेश्वर है। परम सूक्ष्म कारण से पृथिव्यादि स्थूल भूतों की और स्थूल बीज के बिना वृक्ष, ओषधि और वनस्पति आदि की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार की जिसको कोई देहधारी मनुष्य नहीं बना सकता, वही ऐश्वरी सृष्टि है। और जब उसने स्त्री-पुरुष, बीज, वृक्ष आदि एक बार प्रारम्भ में उत्पन्न कर पीछे इस प्रकार सबको सृष्टि की परम्परा चलानी चाहिये ऐसा वेद द्वारा उपदेश किया, तब से लेकर मनुष्य लोग वैसे ही अपने-अपने योग्य सृष्टि बनाते आते हैं। पुत्रादि का उत्पन्न करना, वृक्षादि का लगाना और घड़ा, वस्त्र या मकान आदि का बनाना इत्यादि सृष्टि मनुष्यों की ओर से प्रतिदिन होती है, यही सब मानुषी अथवा मैथुनी सृष्टि है। उन सब स्थावर वृक्षादि और जग्म मनुष्यादि चेतन प्राणियों की उत्पत्ति में चार ही मुख्य कारण हैं, जैसे- सुश्रुत में लिखा है कि- ऋतुसमय, क्षेत्र- खेत, जल और बीज इन चार प्रकार की सामग्रियों के संयोग से जैसे वृक्ष आदि का अङ्कुर उत्पन्न होता है, वैसे यही चार प्रकार की सामग्री संयुक्त होकर मनुष्यादि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इनमें स्थावर की उत्पत्ति मनुष्य की इच्छानुसार तथा स्वतन्त्र अकस्मात् भी होती है, पर जहां स्वतन्त्र होती है वहां भी मैथुन रूप कारण अवश्य मानना पड़ता है, और मनुष्यादि की उत्पत्ति बिना इच्छापूर्वक मैथुन संयोग के नहीं होती, यह विषय सुश्रुत के शारीरस्थान में लिखा है। पूर्वोक्त समय आदि का एकत्र संयुक्त होना ही मैथुन कर्म है, उससे उत्पन्न हुई सृष्टि मैथुनी कहाती है। केवल स्त्री-पुरुषों के संयोगमात्र का नाम मैथुन नहीं है, किन्तु किसी प्रकार स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति का संयोग होना मैथुन कहाता है। सो इस प्रकार का मैथुन सब वस्तुओं की उत्पत्ति में होता ही है, इसी से पीछे उत्पन्न होने वाली सब सृष्टि मैथुनी होती है। इससे जूँ, मक्खी, खटमल आदि और वृक्ष, ओषधि, वनस्पति आदि की भी मैथुन पूर्वक ही सृष्टि होती है, यह सिद्धान्त ठहरता है। बीज पुरुष और पृथिवी स्त्री उन दोनों का संयोग होना मैथुन कर्म और इस मैथुन से उत्पन्न होने वाले वृक्षादि मैथुनी सृष्टि में कहाते हैं। जूँ, मक्खी, खटमल आदि की सूक्ष्म शरीरधारी सूक्ष्म जीवों से उत्पत्ति होती है। अर्थात् देहधारियों के मुख्यकर दो भेद हैं- एक- स्थूल और द्वितीय- सूक्ष्म। जो इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होते हैं वे स्थूल मशक- मच्छर पर्यन्त हैं। इनसे भिन्न अतीन्द्रिय- इन्द्रियों से न दीख पड़ने वाले सूक्ष्म कहाते हैं। यद्यपि मच्छर आदि को किन्हीं की अपेक्षा से सूक्ष्म कह सकते हैं तो भी सूक्ष्मता वा स्थूलता की अवधि करनी चाहिये, ऐसा मानकर इन्द्रियों से न दीख पड़ने वालों को ही मुख्यकर सूक्ष्म मानना चाहिये। सूक्ष्म कारण और स्थूल कार्य होता या माना जाता है, यह भी न्याय से सिद्ध और सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जिन गोबर आदि में उत्पन्न हुए वृश्चिक आदि स्थूल प्राणियों को संयोग से उत्पन्न करने वाले स्थूल शरीरधारी कारणरूप नहीं दीखते वहां गोबर आदि में रहने वाले विषरूप सूक्ष्म अतीन्द्रिय शरीरधारी कारणस्वरूप जन्तु अर्थात् चेतनायुक्त जड़ कारण से उन वृश्चिक आदि की उत्पत्ति होती है यह अनुमान से ही निश्चित होता है। जड़ कारणमात्र से चेतन की उत्पत्ति हो सकती हो यह नहीं मान सकते। इसी प्रकार ‘कारण का गुण कार्य में आता है अर्थात् जो गुण कार्य में दीख पड़े उस का होना कारण में अवश्य मानना पड़ता है’१ यह वैशेषिकशास्त्र का सिद्धान्त है सो भी ठीक घट जाता है। तथा ‘कार्य-कारण की एकरूपता होती वा माननी चाहिये’ यह न्यायशास्त्र का सिद्धान्त भी पूर्वोक्त प्रकार मानने से ठीक बन सकता है।

यद्यपि मनुष्यादि प्राणियों के शरीर पृथिवी के वा किन्हीं के मतानुसार पञ्चभूतों से बनते हैं, इसलिये उन शरीरों का पृथिव्यादि जड़ ही उपादान कारण हैं। तो भी चेतनता-विशिष्ट शरीरों से ही प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है, इससे कार्य-कारण के साधर्म्य में कोई दोष नहीं आ सकता। इस गोबर आदि जड़ कारण मात्र से यदि वृश्चिक (बिच्छू) आदि जन्तुओं की उत्पत्ति मानी जावे तो बिच्छू आदि भी जड़ होने चाहियें। क्योंकि जड़ दूध के विकृत होने पर पदार्थान्तर दही चेतन नहीं बनता, अथवा प्रशस्त मिट्टी से चेतन घड़ा आदि नहीं उत्पन्न होते, किन्तु दूध से दही तथा मिट्टी से घट आदि जड़ से जड़ ही उत्पन्न होते हैं। वैसे यहां भी विचारना चाहिये कि जहाँ प्रत्यक्षता से कारण में वैसा गुण नहीं दीखता और कार्य में दीखे तो वहां कारण में उस गुण का सूक्ष्म वा अतीन्द्रिय होना अनुमान से जानना चाहिये। इससे चेतन सूक्ष्म शरीरधारी वैसे ही जन्तुओं से डांश, मच्छर और बिच्छू आदि की उत्पत्ति होती है, यह सिद्ध हो गया।

ये डांश, मच्छर आदि स्वेदज या उष्णज अर्थात् गर्मी से उत्पन्न होने वाले हैं ऐसा जो शास्त्रज्ञ लोग कहते हैं सो वह स्वेदज होना रूप गुण व धर्म उन जीवों में अण्डज वा जरायुज होने आदि के तुल्य है ऐसा जानना चाहिये। जैसे अण्डज और जरायुज कोई प्राणी चेतनता युक्त स्त्री-पुरुष के संयोग हुए बिना केवल अण्डा वा जरायुमात्र से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जिसके भीतर वीर्य और स्त्री के आर्त्तव रुधिर के संयोग से गर्भ शरीराकार बनता है, वह सूक्ष्म पतले चर्म के तुल्य जरायु कहाता है, उस जरायु अर्थात् जरायु के फट जाने से प्रसिद्ध अवयवों वाला सन्तान दृष्टि के सामने आता है तथा अण्डाकार के बीच उन्हीं रज-वीर्य के संयोग से गर्भ होकर पूर्ण अगें वाला हुआ, अण्डे के फूट जाने से उत्पन्न हुआ जन्तु अण्डज कहाता है (प्रायः जरायुज मनुष्यादि का जरायु बाहर निकलने से पहले फट जाता है तब बाहर निकले बच्चे के हाथ, पग आदि अग् स्पष्ट दीख पड़ते हैं। कभी-कभी कोई बालक जरायु में लिपटे हुए उत्पन्न हो जाते हैं उनके हाथ, पग आदि अग् बाहर निकल आने पर भी स्पष्ट पृथक्-पृथक् नहीं दीखते, वैसे ही गोलाकार जान पड़ते हैं और जब तक चाकू आदि से (उझय्या) नहीं फाड़ी जाती तब तक वे बच्चे रोते भी नहीं ऐसी दशा में रात्रि के समय कभी-कभी स्त्रियों को भ्रम हो जाता है कि यह क्या उत्पन्न हुआ ? जब अण्डज प्राणियों का मैथुन संयोग होता है तब गर्भाशय में रज-वीर्य के संयोग से अण्डा बनता है, वह कुछ दिन गर्भाशय में रहकर बच्चों के समान बाहर निकलता है। अण्डा वाले प्राणी पक्षिणी आदि उनकी बाहर भी रक्षा रखते हैं, पीछे जब अण्डा पक जाता है तब उसमें से सर्वाग् पूर्ण बच्चा निकलता है) किन्तु स्त्री-पुरुष के संयोग हुए बिना उत्पन्न हुए प्राणी अण्डज वा जरायुज नहीं कहाते। इसी प्रकार यहां भी स्वेदज प्राणी उष्णविशेष के कारण से शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। उष्ण- गरमी की अधिकता ही स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों के संयुक्त होने में भी कारण है। दोनों प्रकार की शक्तियों वाले सूक्ष्म देहधारी जन्तुओं का संयोग हुए पीछे गर्मी की अधिकता से अतिशीघ्र वृद्धि को प्राप्त हुए प्राणी दीखते हैं, इसलिए वे स्वेदज वा उष्णज कहाते हैं (उष्णता की अधिकता से प्राणियों के शरीरों की बहुत शीघ्र वृद्धि होती है, सो यह पदार्थ-विद्या से भी प्रसिद्ध है। जब आम के बीज में अधिक गर्मी किसी प्रकार पहुँचाते हैं तभी थोड़ी गीली मिट्टी और जल में गोठली धरके तत्काल वृक्ष की उत्पत्ति और पत्ते भी लग जाते और वृक्ष सूख जाता है। तथा उष्णता जिन प्रान्तों में अधिक है वहाँ स्त्रियों में कामासक्ति के चिह्न स्तन आदि शीघ्र निकलते उनकी युवावस्था भी शीघ्र आ जाती है, और शीत प्रदेशों में इसकी अपेक्षा पीछे आती है इसी प्रकार उष्ण की अधिकता से क्षुद्र जन्तुओं के शरीर शीघ्र दृष्टिगोचर होते हैं इसलिए उनको स्वेदज वा उष्णज कहते हैं)। तथा सूक्ष्म शरीरधारी स्थूल नहीं हो जाते किन्तु स्थूलों से सूक्ष्म उत्पन्न होते हैं। यदि कोई कहे कि जैसे प्राणियों के शरीर से कोई उत्पन्न होता है वह वैसा ही सूक्ष्म वा स्थूल होता वा बड़ा-छोटा होता है। किन्तु मच्छर के शरीर से उससे बड़े-बड़े प्राणी नहीं उत्पन्न होते, न शृगाल से हाथी ही। इसका उत्तर यह है कि जैसे स्थूल प्राणियों के मैथुन संयोग से शुक्र और शोणित एक होकर गर्भ में प्राणी उत्पन्न होते हैं, वैसे सूक्ष्म प्राणियों के मैथुन संयोग से वीर्यादिक कहीं नहीं निकलता। किन्तु जो स्वेदज प्राणियों के शरीरों का सूक्ष्म उपादान कारण है, उसमें स्त्री और पुरुष की दोनों शक्ति रहती है और वह शक्ति चेतनता से युक्त होती है, उसी शक्ति के संयोग से और उष्णता के बढ़ने से उन स्वेदज प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु वह उपादान कारण रूप दो प्रकार की शक्ति चेतनता युक्त होने से चेतन कहाती है, इसी कारण केवल जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं मानी जाती और उस चेतन शक्ति को सूक्ष्म जीव भी कह सकते हैं। इसी से कार्य-कारण की अनुकूलता वा एकरूपता बनती है। अब इस कथन से सिद्ध हो गया कि स्वेदज और उद्भिज्ज जीव भी मैथुनी सृष्टि के अन्तर्गत हैं।

कुरान समीक्षा : खुदा जमीन पर उतर कर आया

खुदा जमीन पर उतर कर आया

खुदा पहले शायद पलंग पर लेटा होगा, फिर उठकर बैठ गया फिर ऊपर से उतर कर नीचे जमीन पर आया।

इससे क्या यह स्पष्ट नहीं है कि वह खुदा हाजिर नाजिर अर्थात् सर्वव्यापक नहीं है। वह आसमान में रहता है और सैर करने कभी-कभी जमीन पर चला आता है और फिर वापस चला जाता है?

ज् मिर्रतिन फस्तवा………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा नज्म रूकू १ आयत ६)

(खुदा) जो जोरावर है। फिर सीधा बैठा।

व हु-व बिल्-उफुकिल्-अअ्……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा नज्म रूकू १ आयत ७)

और वह आसमान ऊँचे किनारे पर था।

सुम्-म दना फ-त-दल्ला……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा नज्म रूकू १ आयत ८)

फिर वह नजदीक हुआ और करीब आ गया।

फका-न का-ब कौसैनि औ…………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा नज्म रूकू १ आयत ९)

फिर दो कमान के बराबर या उससे भी कम फर्क रह गया।

फऔहा इला अब्दिही मा औहा……..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा नज्म रूकू १ आयत १०)

उस वक्त खुदा ने फिर अपने बन्दे ( मुहम्मद) पर हुक्म भेजा।

समीक्षा

खुदा को हाजिर नाजिर (सर्वव्यापक) इस्लाम साबित नहीं कर सकता है।

उसका अरबी खुदा आसमान पर रहता है, वहीं से आता जाता है यह ऊपर के प्रमाण से स्पष्ट है सर्वव्यापक का आना जाना बन ही नहीं सकता है।

सृष्टि-प्रसंग में विरोध कहने वालों का समाधान: पण्डित भीमसेन शर्मा

सृष्टिप्रक्रिया में कोई वेदादि ग्रन्थों का परस्पर विरोध कहते हैं उसकी निवृत्ति के लिये सब वचनों का यहां संग्रह तो हो नहीं सकता। और वैसा करने से लेख भी अत्यन्त बढ़ जाना सम्भव है, ऐसा विचार के संक्षेप से लिखते हैं- वेदादिग्रन्थों में कहीं-कहीं सृष्टि आदि विषयों का वर्णन शब्दों के भेद से किया गया है अर्थात् जिस विषय के लिये एक पुस्तक में जैसे शब्द हैं उससे भिन्न द्वितीय पुस्तक में लिखे गये, तब किन्हीं को भ्रम हो जाता है कि इसमें विरोध है। और सब पुस्तकों का लेख एक प्रकार के शब्दों में हो नहीं सकता क्योंकि देश, काल, वस्तु भेद से भेद हो जाता है और अनेक कर्त्ताओं के होने से भी उन-उन की शैली अलग-अलग होती है परन्तु विचारशील लोग जब उसके मुख्य सिद्धान्त पर ध्यान देते हैं तो उस मूल सिद्धान्त में कुछ भेद नहीं जान पड़ता किन्तु अज्ञानियों की बुद्धि में परस्पर विरोध बना रहता है, उसका कारण अज्ञान है। इसमें वेदादि शास्त्रों का कुछ दोष नहीं और इस अज्ञानियों के भेद से संसार की कुछ हानि भी नहीं हो सकती।

तथा अन्य वेदादिग्रन्थों में जहां-जहां सृष्टि का प्रकरण है, वहां-वहां रचना के वर्णन से पूर्व और प्रलयदशा के अन्त में कहा है कि-‘उस ने विचार किया कि मैं अनेकरूप सृष्टि करूँ’१ तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि- ‘संसार की रचना से पहले उसने तप किया’२ यहां तपशब्द से भी सृष्टि-रचना के        अनुसन्धान करने से तात्पर्य है, क्योंकि परमेश्वर के सम्बन्ध में तपशब्द का अर्थ ज्ञान ही लिया गया है। सो ब्राह्मणग्रन्थों में लिखा है कि- ‘जिसका तप ज्ञान है।’३ यही अंश यहां मनुस्मृति में भी लिखा है कि- ‘उसने अपने सामर्थ्य से अनेक प्रकार की प्रजा रचने की इच्छा से विचार करके प्रथम प्राण अर्थात् सूत्रात्मा वायु को रचा’४ सृष्टि विषयक इत्यादि सभी वचनों का एक ही आशय है।

तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि५- ‘उसने तप अर्थात् सत्-असत् अच्छे बुरे की प्रमाण वा कारण के अनुसार समीक्षा करके दो वस्तुओं को अर्थात् प्रथम दो प्रकार की शक्ति को उत्पन्न किया। जिनमें एक का नाम रयि और दूसरे का प्राण नाम रक्खा।’ इन्हीं दोनों का स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति शब्दों से भी व्यवहार करते हैं। कहीं इन्हीं को सूर्य-चन्द्रमा नामों से कहा है, क्योंकि चन्द्रमा में स्त्रीशक्ति की और सूर्य में पुरुषशक्ति की प्रधानता वा उत्तेजकता है। इन्हीं दोनों को भोग्य-भोक्ता वा प्रकृति-पुरुष नामों से भी कोई लोग कहते हैं। इस प्रकार इन दो शक्तियों का अनेक नामों से व्यवहार किया गया है। यही अंश मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है कि- ‘उस परमेश्वर ने प्रारम्भ में अपने सत्त्वादि गुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति नामक एक (जिसमें अनिर्वाच्य होने से द्वित्वादि नहीं कहा जा सकता) सामर्थ्य के दो खण्ड किये, जिसके अर्द्धभाग में पुरुष और आधे भाग में स्त्री हुई। उस स्त्री में विराट् नाम ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न किया।’१ अर्थात् प्रलय के पश्चात् स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना भी जितना जगत्- प्राणी उत्पन्न हुए वा जो कुछ जड़ वस्तु उत्पन्न होकर दृष्टिगोचर हुए उन सबकी उत्पत्ति स्त्रीपुरुषरूप दो शक्ति के मेल से हुई है। क्योंकि सब प्राणी और भूतों की उत्पत्ति से पहले दो शक्तियों की उत्पत्ति दिखाने का यही तात्पर्य है। अनुमान होता है कि इसी आशय को लेकर किन्हीं लोगों ने प्रारम्भ में एक स्त्री वा एक पुरुष को उत्पन्न किया माना है। उसी आदि पुरुष शक्ति को ब्रह्मा, स्त्रीशक्ति को सरस्वती वा महादेव-पार्वती (आदम-हव्वा) आदि नाम रखे गये। सम्भव है कि शक्ति की सौकर्यातिशय विवक्षा में स्वतन्त्र कर्त्ता की अविवक्षा कर देने से शक्ति का प्रयोग शक्तिमान् के स्थान पर मान लिया गया जिससे अनेक असम्भव पौराणिक कथा बन गईं। यहां प्रश्रोपनिषद् और मनुस्मृति का एक ही आशय है। केवल दोनों के कथन में किसी प्रकार कुछ भेदमात्र प्रतीत होता है। लोक में भी एक आशय वाले अविरुद्ध एक विषय को व्याख्यान कर्त्ताओं के भेद से भिन्न जैसा मान लेते हैं। वैसे ही सृष्टि में शास्त्रों का वास्तविक विरोध नहीं है।

सृष्टि प्रक्रिया में वेदों का जो सिद्धान्त है, वही इस मानवधर्मशास्त्र में भी समझना चाहिये। वेदों में जहां-जहां सृष्टि का वर्णन है वहां-वहां सर्वत्र वा प्रायः प्रथम प्रलय दशा का स्वरूप दिखाया गया है। जैसे- ऋग्वेद में लिखा है कि ‘उत्पत्ति से पहले अन्धकार से आच्छादित जगत् का कारण था।’२ इत्यादि प्रकार के मूल वेदमन्त्रस्थ आशय को लेकर के ही वाक्यभेद से मनु जी ने भी लिखा है कि३- ‘यह सब जगत् अन्धकाररूप अज्ञात- किसी प्रकार के चिह्न से रहित सब ओर से सोया जैसा था।’ तथा उक्त मन्त्र के “महिना जायतैकम्…” वाक्य का आशय भी मनुस्मृति के इसी प्रथमाध्याय में “महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः…”2 वर्णन किया गया है। इत्यादि प्रकार वेदानुकूल ही यहां सृष्टि का वर्णन है।

न्याय-मीमांसा और सांख्यादि शास्त्रों में कहीं-कहीं सृष्टि का वर्णन परस्पर विरुद्ध जैसा प्रतीत होता है। वहां भी वास्तविक विरोध नहीं। उस एक-एक में अपने-अपने अभीष्ट व्याख्येय कारण की प्रधानता दिखायी है। वे सब शास्त्रों में माने हुए सब कारण सृष्टि प्रक्रिया में उपयोगी होते हैं। काल, कर्म, उपादान और निमित्त शब्द वाच्यों की ही मुख्यकर शास्त्रों में कारणबुद्धि से प्रधानता दिखायी है। इन्हीं कालादि सृष्टि के कारणों की वेद में भी मुख्यता दीखती है। सो अथर्ववेद में भी “कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत।। कालादापः समभवन्कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः।।3 इत्यादि अनेक मन्त्र काल को ही सृष्टि का कारण कहते हैं कि काल से ही सृष्टि हुई। इसी प्रकार के मन्त्रों का आश्रय लेकर शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से काल की महिमा का वर्णन किया है। और ठीक-ठीक तो यह है कि उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयों में काल ही प्रथम कारण है क्योंकि कभी आधी रात में सूर्य का उदय नहीं हो सकता अथवा न मध्याह्न में अस्त हो सकता है। इसी प्रकार अनियत समय में सृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु अपने-अपने समय में सब उत्पन्न होते, समय आने पर नष्ट होते और अपने समय में सब वस्तु स्थिर रहते हैं। समय पर वृक्ष फूलते-ह्ल लते, समय पर मेघ वर्षता है। इसी प्रकार सब पदार्थ अपने-अपने समय पर उत्पन्न होते हैं। इसीलिये कहा गया कि काल प्रजाओं को उत्पन्न करता है। अर्थात् प्रलय के पश्चात् जब उत्पत्ति का समय आता है तभी परमेश्वर भी जगत् को रचता है किन्तु समय के नियम को परमेश्वर भी नहीं तोड़ता वा तोड़ सकता। तात्पर्य यह है कि प्रलय दशा के भीतर परमेश्वर भी सृष्टि रचने में असमर्थ है। इसीलिये कहा है कि काल ने ही प्रथम सृष्टि होने से पूर्व परमेश्वर को सृष्टि रचने के लिये प्रेरित किया। जैसे प्रातःकाल में सूर्य का उदय होना मनुष्यों को प्रेरणा कर निद्रा से उठाता वा उद्योग कराता है। तथा कश्यप नाम सबको दिखाने वाला, सर्वज्ञ, सर्वाधार, सबकी स्थिति का हेतु, सर्वरक्षक, सर्वसाक्षी परमेश्वर किसी मनुष्य की सहायता के बिना रचना का उद्योग करता है। इसीलिये उसको स्वयम्भू कहते हैं। वह परमेश्वर ऐसा होने पर भी काल की प्रेरणा से ही स्वाभाविक शक्ति के साथ सब करता है। तप नाम सृष्टि रचना का ज्ञान भी काल से ही होता है कि काम मुझको इस प्रकार करना चाहिये। मनुष्य भी अपने शरीर से हो सकने वाली प्रत्येक रचना को काल से ही जानता है कि अमुक काम का समय आ गया, वह अब करना चाहिये। काल से ही जल वा प्राण उत्पन्न हुए। वेदज्ञान और दिशा भी काल से ही उत्पन्न होती हैं, काल से सूर्य का उदय और अस्त होता है। यह सब अथर्ववेद के मन्त्रों का आशय है। इसी प्रकार काल की प्रधानता वैशेषिकशास्त्र में भी विशेषकर कही है।

तथा वेद में कर्मादि को भी सृष्टि के कारण ठहराने वाले बहुत मन्त्र हैं, उनका संग्रह खोजने से हो सकता है। कर्म की प्रधानता मीमांसा और न्याय में कही है। सांख्यशास्त्र में जगत् के उपादान कारण का और वेदान्त ब्रह्मसूत्रों में जगत् के निमित्त कारण का विशेषकर व्याख्यान किया है। वे अपने-अपने अवसर पर सब प्रधान हैं। इसलिये सृष्टि में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है।

विद्वानों ने परमेश्वर के जो काम स्वीकार किये हैं, उनको वह मनुष्य के तुल्य नहीं करता, किन्तु जैसे सूर्य के उदय होने के पश्चात् बहुत कार्य सूर्य के निमितमात्र वर्तमान रहने से होते हैं। सूर्य के होने पर उन कार्यों का वैसा होना और न होने पर वैसा न होना ही सूर्य का निमित्त कारण होना जताता है। वैसे ही परमेश्वर के प्रकट होने पर सृष्टि उत्पन्न होती है (जैसे कि स्वामी के उपस्थित सम्मुख रहने पर सेवक लोग अपना-अपना काम यथावत् करते हैं, स्वामी को कुछ कहने तक की आवश्यकता नहीं होती। पर वह चाहता है कि ये सेवक जन ऐसा करें और सेवक भी चाहते हैं कि हम स्वामी की इच्छानुसार करें) किन्तु वह कुम्हार के तुल्य हाथ से काम नहीं करता। इसी आशय को लेकर कोई लोग सृष्टि करने में परमेश्वर की अपेक्षा नहीं समझते उनको यह भ्रान्ति ही है। क्योंकि निमित्त कारण के बिना वे लोग सृष्टि-प्रक्रिया का प्रतिपादन नहीं कर सकते। अर्थात् जड़ वस्तुओं के संयोगमात्र से ईक्षण पूर्वक सृष्टि नहीं हो सकती। इसलिये श्रौतस्मार्त्त सिद्धान्त के अनुसार सर्वज्ञ चेतन कोई इस जगत् का कर्त्ता है, ऐसा सब शिष्ट विद्वानों का सम्मत हमको भी मान्य है।

उन अवान्तर प्रलयों में जिस प्रकार वा जो सृष्टि उत्पन्न होती है, उसका यहां वर्णन नहीं है किन्तु ब्राह्म कल्प में होने वाली सृष्टि का वर्णन है। और अवान्तर प्रलय ब्रह्म के एक ही दिन में (प्रत्येक मन्वन्तर के आदि-अन्त में जैसा कि सूर्यसिद्धान्त में विशेषकर वर्णन किया गया है) कई बार होते हैं उनमें भूतसृष्टि का सर्वथा प्रलय नहीं होता, किन्तु प्रायः प्राणियों का प्रलय होता है। किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में अवान्तर प्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन है, उसके साथ इस ब्राह्मदिन की सृष्टि का कुछ विरोध हो तो वह विरोध नहीं जानना चाहिये, क्योंकि उन दोनों सृष्टियों में देशकालादि के भेद से विषय में भेद हो गया और विषय भेद में विरोध होता नहीं, किन्तु एक ही विषय में विरोध होता है। उन प्रलय और सृष्टि के भेदों के व्याख्यान का यहां अवसर नहीं, किन्तु यहां तो इस वर्त्तमान ब्राह्मदिन के प्रारम्भ में कैसे सृष्टि हुई ऐसा विचार किया जाता है।

उसमें अन्य भाष्यकारों का यह सिद्धान्त है कि प्रलय दो प्रकार का है एक महाप्रलय और द्वितीय अवान्तर प्रलय। महाप्रलय में ब्रह्मा भी नहीं रहता क्योंकि महाप्रलय का समय आने तक ब्रह्मा की आयु भी पूर्ण हो जाती है और अवान्तर प्रलयों में वही एक ब्रह्मा स्थित रहता वा सोता है। महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन करने में ब्रह्मा की भी उत्पत्ति कहनी पड़ती है। सो यहां मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में ब्रह्मा की उत्पत्ति मानते हैं इससे महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन मनुस्मृति में बतलाना बनता है। ऐसा माना जावे तो इन लोगों के कथनानुसार ब्राह्म महाकल्प का यह प्रथम दिन हुआ और इस हिसाब से ब्रह्मा अभी एक दिन का नहीं हुआ। परन्तु प्रचरित पञ्चाग् और सटल्प की प्रक्रिया से यह कथन विरुद्ध प्रतीत होता है। क्योंकि पञ्चागें के लेखानुसार सटल्प में भी यह पढ़ा जाता है- “समस्तजगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणस्य कमलासनस्य स्वमानेन परमायुर्वर्षशतं तस्यार्द्धं पञ्चाशद् गतमथ ब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे प्रथमवर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वितीययामे- इत्यादि पञ्चाग्ेषु दृश्यते।” इसका तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाले ब्रह्मा की अपने दिन आदि के परिमाण से सौ वर्ष की अवस्था है उसका आधा ५० वर्ष बीत गया अब ब्रह्मा के द्वितीय उत्तरार्द्ध के प्रथम वर्ष के प्रथम मास के प्रथम पक्ष के प्रथम दिन में यह द्वितीय प्रहर है इत्यादि। पाठकों को इससे स्पष्ट विरोध प्रतीत हो जायगा। और परस्पर विरुद्ध पक्ष कदापि ठीक नहीं होते, यह विद्वानों का सिद्धान्त है। और वह ब्रह्मा अपने वर्षों से नियत सौ वर्ष जीवता है। यही महाप्रलय के अन्त में ह्लि र उत्पन्न होकर और अवान्तर प्रलयों में जाग-जाग कर सृष्टि रचता है। इत्यादि प्रकार शरीरधारी की असम्भव आयु स्वीकार करते हैं।

इसका उत्तर यह है कि किसी शरीरधारी की इतनी अवस्था हो नहीं सकती क्योंकि अन्य प्राणियों के तुल्य उसका शरीर भी मिट्टी आदि के परमाणुओं से मिलकर बना है। वे संयोगी पदार्थ कोई ऐसे नहीं जो अर्बों वर्ष चल जावें। सौ वर्ष की अवस्था वाला पुरुष है वा ‘मैं सौ वर्ष तक देखूं’ इत्यादि प्रकार वेद में भी कहा है जिससे सिद्ध है कि मनुष्य का आयु सौ वर्ष का है। और सौ शब्द से दैव वा ब्राह्म कोई सौ वर्ष लिये जावें सो नहीं, किन्तु मानुष ही लिये जावेंगे, क्योंकि वेदसम्बन्धी सब ही नियम वा आज्ञा मनुष्य पर ही घटती हैं। कोई कहे कि वेद में तो “भूयश्च शरदः शतात्” इस प्रमाण के अनुसार अधिक भी आयु हो सकती है। तो भी कोटिगुण अधिक नहीं हो सकती। संयेाग से उत्पन्न होने वाले वस्तु की ऐसी अवधि हो यह कौन बुद्धिमान् मान लेगा ?

तथा संयोग से उत्पन्न हुआ परिच्छिन्न- जिसकी लम्बाई-चौड़ाई आदि की अवधि है, ऐसा मनुष्य अचिन्त्य शक्ति से युक्त और अनन्तशक्ति नहीं हो सकता। सर्वशक्तिमान् परमेश्वर यदि अपने तुल्य अन्य ब्रह्मा को उत्पन्न करे तो जानो यह स्वयं जगत् को नहीं बना सकता। और जब जगत् को नहीं रच सकता तो उसका सर्वशक्तिमान् होना भी सिद्ध होना दुस्तर है। और ऐसा मानने से अनेक ईश्वर माननेरूप दोष भी उनके मत में आता है। और हमको ऐसा कोई प्रयोजन भी नहीं जान पड़ता कि जो प्राणियों की रचना के लिये किसी देहधारी पुरुषविशेष ब्रह्मादि को परमेश्वर बनाये। तिससे यह पक्ष श्रेष्ठ नहीं है।

कोई मेधातिथि आदि भाष्यकार इस प्रसग् में प्रचरित सांख्य के मतानुसार सृष्टि का वर्णन करते हैं तथा इस मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में कोई कुल्लूक भट्ट आदि परमेश्वर ही जगत् का उपदानकारण है ऐसे आधुनिक वेदान्त मत को स्वीकार करके सृष्टिप्रक्रिया का वर्णन करते हैं। और वेदान्त तथा सांख्य के सिद्धान्त में परस्पर विरोध मानते हैं, वह उन लोगों का केवल भ्रममात्र है, किन्तु सांख्य-वेदान्त में सृष्टिप्रक्रिया में मतभेद नहीं है। इस कार्य जगत् का उपादानकारण जड़ कारण ही हो सकता है। कार्य-कारण की विरूपता वा विरुद्धता किसी प्रकार सिद्ध करना ठीक नहीं हो सकता। अर्थात् वेदान्त का यह सिद्धान्त नहीं है कि जगत् का उपादानकारण चेतन आत्मा है। और सांख्य में भी किसी परमात्मा के बिना स्वतन्त्र जड़ स्वरूप प्रकृति विचार पूर्वक होने वाली सृष्टि को नहीं बना सकती। इसलिये दोनों का विरोध न होना ही ठीक है। वेदान्त में निमित्त कारण का तथा सांख्य में उपादान का प्रधानता के साथ वर्णन होने से लोगों को भ्रान्ति हो गई होगी कि सांख्यवादी तो केवल प्रकृति को ही जगत् का कारण मानते हैं, और वेदान्त में भी ब्रह्म को ही कारण माना है, ऐसा अनुमान से भ्रम होना सम्भव जान पड़ता है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर सृष्टि बनाने के पूर्वकल्प सम्बन्धी प्रकार को सोचता है, इसी का नाम ईक्षण, इसी का नाम तप और यही उसका प्रादुर्भाव है, यही उसकी प्रकटता है और इसी से वह स्वयम्भू कहाता है। इन वाक्यों से अन्य किसी देहधारी की उत्पत्ति होती हो ऐसा विचार न करना चाहिये। इस सब कथन से एक ही परमेश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारणरूप है, यह कथन सिद्ध होता है। वाद-विवाद तो बने ही रहते हैं।

सृष्टि-प्रकरण का सामान्य विचार :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब क्रमप्राप्त छठे सृष्टि प्रकरण की आलोचना करनी चाहिये। इस प्रकरण में कई अंश विचारने योग्य हैं, जिनमें पहला अंश यह है कि इस मानवधर्मशास्त्र में सृष्टि का वर्णन क्यों होना चाहिये ? क्योंकि इसका नाम धर्मशास्त्र है, सृष्टि का वर्णन करना कोई धर्म नहीं है। और यही बात अन्य महर्षियों ने मनु जी से पूछी सो इस मनुस्मृति के आरम्भ में द्वितीय श्लोक में ही लिखा है कि- ‘हे मनु जी! आप सब ब्राह्मणादि वर्णों और वर्णसटरों के धर्म कहने योग्य वा समर्थ हैं।’१ केवल इसी एक प्रश्न के ऊपर यह सब धर्मशास्त्र बना है अर्थात् यह मनुस्मृति इसी प्रश्न का उत्तररूप है, तो इसमें सृष्टि की उत्पत्ति कहने का काई प्रश्न भी नहीं, ह्लि र इस प्रथमाध्याय में सृष्टि का वर्णन क्यों किया गया ? और किया गया तो ‘आम पूछने पर कचनार के उत्तर देने’ के तुल्य प्रमत्तदशा का कथन हो गया। इस प्रसग् में इग्लेण्ड निवासी व्यूलर साहब ने कहा है कि- ‘गौतम और वसिष्ठ आदि के धर्मशास्त्रों में तथा मानव धर्मसूत्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं प्राप्त होता और न यह सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन धर्मशास्त्र के साथ सम्बन्ध रखता है तथा सृष्टि का व्याख्यान धर्म भी नहीं हो सकता और धर्मशास्त्रों की परिपाटी से भी यह विपरीत है। इससे सृष्टि का प्रकरणरूप प्रथमाध्याय इस पुस्तक में पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है।’ यह उक्त गौराग् महाशय का आशय है। इसी शटा को लेकर दो श्लोक२, पीछे बनाकर किन्हीं लोगों ने द्वितीय श्लोक के आगे धरे हैं। कि- ‘मनुष्य पश्वादि, पक्षी सर्पादि, मक्खी मच्छरादि और वृक्षादि तथा पृथिवी आदि सब भूतों की उत्पत्ति और प्रलय को सबके आचरण और विवादों का निर्णय- राज्यव्यवस्था राजनीति आदि सम्पूर्ण कहो।’ ये दोनों श्लोक मुम्बई के छपे छह टीका से युक्त पुस्तक में पाठान्तर बुद्धि से छपे हैं। और इन दोनों का व्याख्यान आधुनिक अति नवीन टीकाकार नन्दन और रामचन्द्र ने किया है। इससे इन दोनों श्लोकों का प्रक्षिप्त होना स्पष्ट प्रतीत होता है। यदि पूर्व से ये श्लोक होते तो पहले भाष्यकार मेधातिथि आदि भी इनका भाष्य करते वा ऐसी शटा न करते कि “क्वास्ताः क्व निपतिताः”। सो ये श्लोक वास्तव में इस पुस्तक के नहीं, इससे पीछे किसी ने मिलाये, यही निश्चय है। इस पर अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

इस प्रसग् में जो प्रश्न और उत्तर में विरोध आता है, उसको हटाने के लिये भाष्यकारों ने समाधान दिये हैं। उनमें पहले मेधातिथि भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘इस सृष्टिप्रक्रिया के वर्णन से इस धर्मशास्त्र का महान् प्रयोजन जताया गया है क्योंकि ब्रह्मा से लेकर वृक्षादि पर्यन्त धर्म-अधर्म ही जिनके निमित्त, ऐसी संसार की दशा इस प्रकरण में कही गयी है। ‘वैसे कर्म होने में बहुत प्रकार के तमोगुण से ढपे हुए स्थावर योनि में जीव रहते हैं।’१ तथा आगे बारहवें अध्याय में भी कहा है कि- ‘अपने कर्मों के अनुसार जीवात्मा की इन पूर्वोक्त दशाओं को विचारपूर्वक देखकर धर्म-अधर्म से हटाकर केवल धर्म में मन लगावे।’२ इस प्रकार धर्म में मन के ठहराने से असीम ऐश्वर्य प्राप्ति का हेतु धर्म और इससे विपरीत असीम दरिद्रता का हेतु अधर्म है। उन दोनों का स्वरूप जानने के अर्थ महान् फल वाले इस     धर्मशास्त्र को पढ़ना चाहिये, यह इस प्रथमाध्याय का तात्पर्य है। इसके पीछे गोविन्द राज भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय धर्म-अधर्म के अधीन हैं। उसके प्रतिपादनार्थ होने से यह शास्त्र महान् प्रयोजन वा ह्ल ल वाला है, इस कारण यत्न के साथ पढ़ना चाहिये। इसलिये जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण प्रथम आरम्भ किया है।’ इसके पीछे सर्वज्ञ नारायण ने लिखा है कि- ‘इस धर्मशास्त्र में ब्राह्मणादि वर्णों के क्रम से धर्म का कहना अभीष्ट होने से सम्पूर्ण देवताओं की उत्पत्ति रूप तत्त्वकथन का ज्ञान होता है, उससे ब्राह्मणादि वर्णों में पूर्व-पूर्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन इष्ट होने तथा मुखादि विशेष स्थानों से उत्पत्ति होने से वे ब्राह्मणादि श्रेष्ठ हैं, उस धर्म को कहने के लिये धर्मशास्त्रकर्त्ता ब्रह्मा की उत्पत्ति दिखाने को अपनी उत्पत्ति द्वारा जगत् की पूर्व प्रलयावस्था को प्रथम कहते हैं।’ इन सबके आशयों का खण्डन करते हुए कुल्लूक भट्ट कहते हैं कि- ‘ऋषियों के धर्मविषयक प्रश्न में जगत् के कारण होने से ब्रह्म का प्रतिपादन करना भी धर्म का ही कथन है, किन्तु प्रकरण-विरुद्ध कुछ नहीं है, क्योंकि आत्मज्ञान भी धर्म ही है। सो मनु ने ही धैर्य, क्षमा आदि दस प्रकार के धर्म कहने में विद्या शब्द वाच्य आत्मज्ञान को धर्म कहा है।’ इत्यादि प्रकार से कुल्लूक भट्ट ने बहुत कुछ लिखा है। राघवानन्द भाष्यकार समाधान कहते हैं कि- ‘धर्म के उपयोगी चार वर्णों की उत्पत्ति के क्रम से प्रधानता वा अप्रधानता मुखादि अवयवों से कहने के लिये ब्रह्मज्ञान होने के अर्थ सृष्टि के जानने की आवश्यकता प्रकट करते हुए श्रोतव्य कहते हैं।’ नन्दन और रामचन्द्र ने इस विषय में कुछ विशेष नहीं कहा, क्योंकि उनको उक्त दो श्लोक पुस्तक में मिलने से वैसी शटा ही न हुई। मेधातिथि और गोविन्दराज का समाधान विषय में एक ही आशय है। इन समाधानों से व्यूलर साहब का किया आक्षेप किसी प्रकार कट जाता है, सो बुद्धिमानों को विचारणीय है। और गौतमीयादि धर्मशास्त्रों में यदि सृष्टि का वर्णन नहीं, इससे अन्य धर्मशास्त्रों में भी न हो, यह अयुक्त है। क्योंकि जो विषय एक पुस्तक में न हो, वह अन्य किसी में क्यों न रखा जाये ? क्या एक-दो अज्ञानी वा अपूर्ण विचारशक्ति वाले हों तो सभी वैसे होने चाहियें ? वे गोतमादि के धर्मशास्त्र प्रधान नहीं, किन्तु गौण हैं। और यह मानवधर्मशास्त्र सर्वोपरि प्रधान है। इसलिये गम्भीर और प्रबल काम प्रधानों में ही हो सकते हैं, वैसा महत्त्व सबमें नहीं हो सकता। और यह नियम कहीं नहीं मिलता कि जो बात एक स्थल में न हो तो अन्यत्र होने से उसकी निन्दा हो जावे। इसलिये जिन धर्मशास्त्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं है, उनमें यह भी एक प्रकार की न्यूनता है। और समस्त वेद धर्म का मूल है, यह सब आर्यों के सम्मत है। यदि सृष्टि के वर्णन का धर्म के साथ सम्बन्ध न हो तो वेद में भी सृष्टि का कथन स्पष्ट है, उसका भी धर्म के साथ सम्बन्ध न हो सकने से सब वेद का धर्ममूलक कहना न बने। और जब यह मानवधर्मशास्त्र मुख्य है तो इसकी जो परिपाटी है वही धर्म शास्त्रों की जाननी चाहिये। इससे विरुद्ध चलने वाले ही दूषित ठहर सकते हैं। अन्य धर्मशास्त्र इसी के आश्रयभूत हैं। इससे धर्मशास्त्र के प्रारम्भ में सृष्टि का वर्णन करना ठीक ही है।

मेधातिथि आदि भाष्यकारों ने अपनी-अपनी बुद्धि, विद्या के अनुसार         समाधान दिये हैं, वे किसी अंश में किसी प्रकार सम्भव हैं। इसलिये उनका खण्डन करने में प्रयत्न न करके यथाबुद्धि हम भी अपने विचार को प्रकाशित करते हैं- जिन किन्हीं शास्त्रों में जो कुछ जिस किसी कथनीय विषय का प्रस्ताव किया जाता है, वहां सभी स्थलों में उस विषय के चार भाग करके कथन करना चाहिये। वैसा करने से वह सुलभ होता है। सो योगभाष्य में व्यासदेव ने कहा भी है कि- (१.) रोग, (२.) रोग का कारण, (३.) रोगरहित होना, (४.) ओषधि करना। ये चार भेद त्याज्य पक्ष में हैं। इसी प्रकार सभी स्थलों में प्रथम उसके स्वरूप का निरूपण करना, द्वितीय उसके हेतु मूलकारण वा निदान को बताना कि जिससे वह उत्पन्न हुआ हो। तृतीय उसके प्रतिपक्षी शत्रु को जताना कि जिससे उसकी निवृत्ति वा हानि हो सकती है। चतुर्थ उसको प्राप्त होने वा छोड़ देने के परिणाम वा ह्ल ल को जान लेना। प्रथम जिसको त्यागना वा ग्रहण करना चाहते हैं, उसके वास्तविक स्वरूप को जान लेना चाहिये। स्वरूप का ज्ञान हुए बिना त्याग वा ग्रहण करना कदापि नहीं बन सकता। द्वितीय उसके हेतु मूल उपादान कारण का जानना इस कारण आवश्यक है कि जैसे धातुओं की विषमता से रोग होता है तो उस विषमता के मिटाने का उपाय करना, जब तक विषमता न मिटेगी तब तक रोग नहीं जा सकता। वा जैसे दीपक जलने का कारण स्नेह वा चिकनाई जान लिया जाय तो उस कारण से दीपक जला सकते और कारण का अभाव करके दीपक की निवृत्ति भी कर सकते हैं। तृतीय प्रतियोगी शत्रु का ज्ञान इस कारण आवश्यक है कि जैसे रोग का प्रतियोगी औषध वा पथ्य है। वहां अनेक प्रतियोगियों में कौन किसका प्रतियोगी है, ऐसा जान लेने से औषधादि प्रतियोगी के प्रयोग से रोगादि की निवृत्ति कर सकता है। चतुर्थ ह्ल ल जाने बिना निष्प्रयोजन वा निष्ह्ल ल कार्य के करने में रुचि वा प्रीति नहीं हो सकती इस कारण ह्ल ल का जानना आवश्यक है। यह सब प्रतिकूल वा त्याज्य वस्तु रोगादि में क्रम है। और अनुकूल में कारण मुख से (अर्थात् प्रथम कक्षा में धर्मादि के कारण को दिखाकर द्वितीय कक्षा में उसके स्वरूप को कहना जैसे प्रथम सृष्टि प्रक्रिया में धर्म का हेतु कहकर आगे स्वरूप कहा है) भी व्याख्यान होता है।

वैसे यहां मुख्य प्रसग् में देखो- कि मुख्य वस्तु जिसका स्वरूप जानना चाहिये वह धर्म ग्राह्य और अधर्म त्याज्य है। और उसका मूलकारण द्वितीय है कि जिससे धर्म उत्पन्न होता है, उस वेद और परमेश्वर को जानना वही धर्म का भण्डार है और परमेश्वर का वा कार्य जगत् के साथ रहने वाले धर्म का सम्बन्ध दिखाना यही उत्पत्ति प्रक्रिया है। तृतीय धर्म का अधर्म और अधर्म का धर्म प्रतियोगी है।   धर्म के ह्ल ल सुखविशेष वा अधर्म के ह्ल ल दुःखविशेष का जानना। निर्मूल वस्तु शशविषाण के तुल्य मिथ्या न हो इसलिये उसका समूल होना साध्य है और धर्म के समूल सिद्ध करने में सृष्टि का वर्णन धर्मानुकूल ही है, प्रतिकूल नहीं। प्रतिकूल की हानि हुए बिना अनुकूल की सम्यक् प्रवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा मान के शत्रुरूप अधर्म की व्याख्यान पूर्र्वक निवृत्ति करनी अवश्य चाहिये। जो कुछ मनुष्य करता है वह समूल ही करना चाहिये अर्थात् निर्मूल वस्तु वा विषय के जानने का कभी उद्योग न करे। धर्म का मूल वेद है और वेद की नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव परमेश्वर से प्रवृत्ति होती है। धर्र्म के आधार ब्राह्मणादि वर्ण हैं और उन सब वर्णों को परमेश्वर ने धर्म के साथ ही धर्म की प्रवृत्ति के लिये उत्पन्न किया है। ऐसे अनेक प्रकार होने से धर्म के साथ सृष्टि का मुख्य सम्बन्ध है। और सृष्टि के आरम्भ से ही जिस धर्म की प्रवृत्ति है यही सनातन धर्म है यह जताने को भी सृष्टि के साथ धर्म का सम्बन्ध दिखाना चाहिए। इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप तीन ही अवस्था हैं। उन तीनों दशाओं में सर्वोपरि विचारशील बुद्धिमान् उत्तरदाता मनु जी को धर्म की स्थिति कहनी चाहिये। क्योंकि प्रश्नकर्त्ता महर्षियों ने स्थिति दशा में ही धर्म नहीं पूछा, यदि प्रश्न में ऐसा कोई शब्द पड़ा होता कि संसार की वर्त्तमान दशा में धर्म कहो तो उत्पत्ति, प्रलय में धर्म का सम्बन्ध दिखाना ‘आम के पूछने में कचनार के उत्तर देने’ के समान विरुद्ध होता सो तो है नहीं, इस कारण सामान्य से किये प्रश्न का तीनों अवस्था में उत्तर देना ही ठीक है, इससे कुछ विरोध नहीं है। और धर्मशब्द भी द्रव्य वा जाति वाचकों का गुण वा स्वभाव है, तिससे किस दशा, देश, काल वा वस्तु में कैसा गुण वा स्वभाव है उसका यथार्थरूप से जान लेना ही धर्मज्ञान है, और ज्ञान के अनुकूल आचरण करना     धर्म का आचरण कहाता है। ऐसा धर्म किसी एक ही दशा में नहीं हो सकता, किन्तु सब दशाओं में स्वरूप भेद से रहता है। इसी प्रकार विपरीत ज्ञान अधर्म दुःख का हेतु है यह कह सकते हैं। इसी पूर्वोक्त आशय को लेकर के ही ‘हम इस कारण अब धर्म की व्याख्या करेंगे’१ यह वैशेषिककार की प्रतिज्ञा बन सकती है। क्योंकि मनुस्मृति आदि ग्रन्थकारों के समान उस वैशेषिक ग्रन्थ में धर्म का व्याख्यान नहीं दीख पड़ता है। इसलिये जिस गुण वा स्वभाव का नाम धर्म है, वह कार्यरूप वा कारणरूप वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति वा प्रलय तीनों दशा में अवस्थित अवश्य रहता है। इस कारण प्रश्न के सामान्य दशापरक होने से तीनों दशा के साथ उसका व्याख्यान उचित है और जो प्रलय वा उत्पत्ति दशा में धर्म न रहे उसका सनातन होना नहीं कह सकते। इसलिये सब दशाओं के साथ धर्म मानना चाहिए।

प्रलय दशा में धर्मी के साथ धर्म भी दबा हुआ रहता है, उत्पत्ति दशा में वही धर्म धर्मी के साथ प्रकट हो जाता है। जो कारणदशा में नहीं है उसका यदि कार्यदशा में भाव माना जावे तो सूखे चिकनाहट रहित तिलों में से भी तेल निकलना चाहिये सो नहीं होता। तो धर्म को भी सब दशाओं के साथ अवस्थित मानना चाहिये, इस कारण तीनों दशाओं के साथ दशा के तुल्यरूप से ही धर्म का व्याख्यान होना भी ठीक है। कैसे गुण वाले सामर्थ्य वा कारण से किस वस्तु की उत्पत्ति हुई ? ऐसा ज्ञान हुए बिना कार्य में भी गुणरूप धर्म का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। और वैसा ज्ञान उत्पत्ति दशा का क्रमपूर्वक वर्णन हुए बिना नहीं हो सकता। इस कारण धर्म का मर्म ज्ञान होने के लिये सृष्टि का वर्णन पहले किया गया। तथा सनातन धर्म कारण से ही कार्य में आते हैं, उनका उत्पत्ति प्रकरण के साथ सुगमता से ज्ञान हो सकता है। जैसे मुख से ब्राह्मण रचा गया, इसलिये वर्णों में ब्राह्मण मुख्य है। यहां कारण से ही मुख्यता आयी है। इस कारण धर्म की व्याख्या के साथ सृष्टि की प्रक्रिया कहनी चाहिये। तथा एक उत्तर यह भी है कि जब कोई किसी वस्तु को पूछकर जानना चाहे तो उत्तरदाता को उचित होगा कि प्रश्नकर्त्ता की ठीक तृप्ति होने के लिये उस विषय वा वस्तु को मूल वा उत्पत्ति सहित समझा दे, जिससे किसी प्रकार का सन्देह शेष न रह जावे। इस कारण     धर्म प्रकरण में सृष्टि का भी वर्णन होना उचित है। इस कथन से व्यूलरसाहब का भी उत्तर आ गया।

और धर्म शब्द का अर्थ भी जो धारण, आत्मा वा अन्तःकरण से मिलित वा अनुकूल मान के आकर्षण किया जावे वह धर्म कहा गया है, वह सब उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयदशा में वर्णों से किस प्रकार धारण किया जाता है, ऐसा प्रश्न का आशय माना जावे तो प्रश्न उत्तर में कुछ भी विरोध नहीं, किन्तु मेल है। व्यूलरसाहब के कहने से राज्य की व्यवस्था करना भी धर्मशास्त्र के अनुकूल नहीं। तब ऐसी दशा में यदि कोई पूछे कि क्षत्रिय का क्या धर्म है ? तो क्या कहना चाहिए ? इससे राज्य की व्यवस्था करना क्षत्रिय का धर्म है, उसकी व्याख्या     धर्मशास्त्र में क्यों न हो ? व्यूलरसाहब का आशय कोई विद्वान् सुने तो यही निकलेगा कि जो मनुष्यजाति की उन्नति के कारण हैं अथवा जिसके सेवन से वेदमत के अनुगामीमात्र आर्य लोगों की उन्नति हो सकती है वे ही विषय इस मनुस्मृति पुस्तक में आधुनिक लोगों ने मिलाये हैं। जैसे राजधर्म को प्र्रक्षिप्त कहा इत्यादि। इस पर विचारशीलों को ध्यान देना चाहिए कि इससे क्या तत्त्व निकलता है ? सो भी बुद्धिमान् लोग विचार ही लेंगे। अर्थात् भारतवासियों की पुरानी दशा को निकृष्ट कहना। वर्त्तमान में तो प्रत्यक्ष हीन दशा में हैं। अर्थात् उनको आर्यों की उच्च दशा कदापि अभीष्ट नहीं। इससे अनेक राजनैतिक लोग गूढ़ प्रयोजनसिद्धियां मानते हैं।

कुरान समीक्षा : खुदा अपनी पूजा का भूखा है

खुदा अपनी पूजा का भूखा है

अपनी पूजा का शौक खुदा को पैदा हुआ तो उसने सभी को अपना चेला क्यों नहीं बनाया और क्यों लोगों को स्वयं गुमराह किया? व क्यों लोगों के पीछे शैतान लगाये ताकि वे गुमराह होवें । अपनी पूजा के शौक से खुदा को क्या लाभ पहुंचता था यह बताया जावे?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व माख-लक्तुल्जि-न वल्इन………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा जारियात रूकू ३ आयत ५६)

और मैंने जिन्नों और आदमियों को इसी मतलब से पैदा किया है कि वे हमारी पूजा करें।

समीक्षा

खुदा को अपनी पूजा कराने का शौक प्रत्यक्ष है। इन्सान को उसकी तरक्की व फायदे तथा पुरूषार्थ के लिये पैदा न करके खुदगरजी से खुदा ने पैदा किया है। यदि ऐसी ही बात थी तो दोजख भरने के लिए गुनाहगारों को पैदा करने की क्या जरूरत थी? सभी को खुदापरस्त बना देना चाहिए था।

कुरान समीक्षा : खुदा ने आसमानों को अपने बाहुबल से बनाया था

खुदा ने आसमानों को अपने बाहुबल से बनाया था

दूनियां बनाने वक्त खुदा ‘कुन’अर्थात् हो जा कहकर सब कुछ बना लेने का अपना बताया नुस्खा क्यों भूल गया तथा खुदा के हाथ कितने लम्बे हैं? क्या पोला आकाश भी बनाया सकता है, जो स्वयं में कुछ भी ने हों?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

वस्समा-अ बनैनाहा बिऐदिव्-व……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा जारियात रूकू ३ आयत ४७)

और हमने आसमानों को अपने बाहुबल से बनाया और हम सामर्थ्य वाले हैं।

समीक्षा

खुदा ने शून्य आकाश (जिसे बनाने की बात कहना भी नादानी है) को अपने हाथों की बड़ी भारी ताकत लगाकर बनाया था। वाकई अरबी खुदा के हाथों में बड़ी ताकत है कि वह शून्य आकाश को भी बना सकता है जिसमें कुछ नहीं बना होता है।