सृष्टि-प्रकरण का सामान्य विचार :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब क्रमप्राप्त छठे सृष्टि प्रकरण की आलोचना करनी चाहिये। इस प्रकरण में कई अंश विचारने योग्य हैं, जिनमें पहला अंश यह है कि इस मानवधर्मशास्त्र में सृष्टि का वर्णन क्यों होना चाहिये ? क्योंकि इसका नाम धर्मशास्त्र है, सृष्टि का वर्णन करना कोई धर्म नहीं है। और यही बात अन्य महर्षियों ने मनु जी से पूछी सो इस मनुस्मृति के आरम्भ में द्वितीय श्लोक में ही लिखा है कि- ‘हे मनु जी! आप सब ब्राह्मणादि वर्णों और वर्णसटरों के धर्म कहने योग्य वा समर्थ हैं।’१ केवल इसी एक प्रश्न के ऊपर यह सब धर्मशास्त्र बना है अर्थात् यह मनुस्मृति इसी प्रश्न का उत्तररूप है, तो इसमें सृष्टि की उत्पत्ति कहने का काई प्रश्न भी नहीं, ह्लि र इस प्रथमाध्याय में सृष्टि का वर्णन क्यों किया गया ? और किया गया तो ‘आम पूछने पर कचनार के उत्तर देने’ के तुल्य प्रमत्तदशा का कथन हो गया। इस प्रसग् में इग्लेण्ड निवासी व्यूलर साहब ने कहा है कि- ‘गौतम और वसिष्ठ आदि के धर्मशास्त्रों में तथा मानव धर्मसूत्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं प्राप्त होता और न यह सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन धर्मशास्त्र के साथ सम्बन्ध रखता है तथा सृष्टि का व्याख्यान धर्म भी नहीं हो सकता और धर्मशास्त्रों की परिपाटी से भी यह विपरीत है। इससे सृष्टि का प्रकरणरूप प्रथमाध्याय इस पुस्तक में पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है।’ यह उक्त गौराग् महाशय का आशय है। इसी शटा को लेकर दो श्लोक२, पीछे बनाकर किन्हीं लोगों ने द्वितीय श्लोक के आगे धरे हैं। कि- ‘मनुष्य पश्वादि, पक्षी सर्पादि, मक्खी मच्छरादि और वृक्षादि तथा पृथिवी आदि सब भूतों की उत्पत्ति और प्रलय को सबके आचरण और विवादों का निर्णय- राज्यव्यवस्था राजनीति आदि सम्पूर्ण कहो।’ ये दोनों श्लोक मुम्बई के छपे छह टीका से युक्त पुस्तक में पाठान्तर बुद्धि से छपे हैं। और इन दोनों का व्याख्यान आधुनिक अति नवीन टीकाकार नन्दन और रामचन्द्र ने किया है। इससे इन दोनों श्लोकों का प्रक्षिप्त होना स्पष्ट प्रतीत होता है। यदि पूर्व से ये श्लोक होते तो पहले भाष्यकार मेधातिथि आदि भी इनका भाष्य करते वा ऐसी शटा न करते कि “क्वास्ताः क्व निपतिताः”। सो ये श्लोक वास्तव में इस पुस्तक के नहीं, इससे पीछे किसी ने मिलाये, यही निश्चय है। इस पर अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

इस प्रसग् में जो प्रश्न और उत्तर में विरोध आता है, उसको हटाने के लिये भाष्यकारों ने समाधान दिये हैं। उनमें पहले मेधातिथि भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘इस सृष्टिप्रक्रिया के वर्णन से इस धर्मशास्त्र का महान् प्रयोजन जताया गया है क्योंकि ब्रह्मा से लेकर वृक्षादि पर्यन्त धर्म-अधर्म ही जिनके निमित्त, ऐसी संसार की दशा इस प्रकरण में कही गयी है। ‘वैसे कर्म होने में बहुत प्रकार के तमोगुण से ढपे हुए स्थावर योनि में जीव रहते हैं।’१ तथा आगे बारहवें अध्याय में भी कहा है कि- ‘अपने कर्मों के अनुसार जीवात्मा की इन पूर्वोक्त दशाओं को विचारपूर्वक देखकर धर्म-अधर्म से हटाकर केवल धर्म में मन लगावे।’२ इस प्रकार धर्म में मन के ठहराने से असीम ऐश्वर्य प्राप्ति का हेतु धर्म और इससे विपरीत असीम दरिद्रता का हेतु अधर्म है। उन दोनों का स्वरूप जानने के अर्थ महान् फल वाले इस     धर्मशास्त्र को पढ़ना चाहिये, यह इस प्रथमाध्याय का तात्पर्य है। इसके पीछे गोविन्द राज भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय धर्म-अधर्म के अधीन हैं। उसके प्रतिपादनार्थ होने से यह शास्त्र महान् प्रयोजन वा ह्ल ल वाला है, इस कारण यत्न के साथ पढ़ना चाहिये। इसलिये जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण प्रथम आरम्भ किया है।’ इसके पीछे सर्वज्ञ नारायण ने लिखा है कि- ‘इस धर्मशास्त्र में ब्राह्मणादि वर्णों के क्रम से धर्म का कहना अभीष्ट होने से सम्पूर्ण देवताओं की उत्पत्ति रूप तत्त्वकथन का ज्ञान होता है, उससे ब्राह्मणादि वर्णों में पूर्व-पूर्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन इष्ट होने तथा मुखादि विशेष स्थानों से उत्पत्ति होने से वे ब्राह्मणादि श्रेष्ठ हैं, उस धर्म को कहने के लिये धर्मशास्त्रकर्त्ता ब्रह्मा की उत्पत्ति दिखाने को अपनी उत्पत्ति द्वारा जगत् की पूर्व प्रलयावस्था को प्रथम कहते हैं।’ इन सबके आशयों का खण्डन करते हुए कुल्लूक भट्ट कहते हैं कि- ‘ऋषियों के धर्मविषयक प्रश्न में जगत् के कारण होने से ब्रह्म का प्रतिपादन करना भी धर्म का ही कथन है, किन्तु प्रकरण-विरुद्ध कुछ नहीं है, क्योंकि आत्मज्ञान भी धर्म ही है। सो मनु ने ही धैर्य, क्षमा आदि दस प्रकार के धर्म कहने में विद्या शब्द वाच्य आत्मज्ञान को धर्म कहा है।’ इत्यादि प्रकार से कुल्लूक भट्ट ने बहुत कुछ लिखा है। राघवानन्द भाष्यकार समाधान कहते हैं कि- ‘धर्म के उपयोगी चार वर्णों की उत्पत्ति के क्रम से प्रधानता वा अप्रधानता मुखादि अवयवों से कहने के लिये ब्रह्मज्ञान होने के अर्थ सृष्टि के जानने की आवश्यकता प्रकट करते हुए श्रोतव्य कहते हैं।’ नन्दन और रामचन्द्र ने इस विषय में कुछ विशेष नहीं कहा, क्योंकि उनको उक्त दो श्लोक पुस्तक में मिलने से वैसी शटा ही न हुई। मेधातिथि और गोविन्दराज का समाधान विषय में एक ही आशय है। इन समाधानों से व्यूलर साहब का किया आक्षेप किसी प्रकार कट जाता है, सो बुद्धिमानों को विचारणीय है। और गौतमीयादि धर्मशास्त्रों में यदि सृष्टि का वर्णन नहीं, इससे अन्य धर्मशास्त्रों में भी न हो, यह अयुक्त है। क्योंकि जो विषय एक पुस्तक में न हो, वह अन्य किसी में क्यों न रखा जाये ? क्या एक-दो अज्ञानी वा अपूर्ण विचारशक्ति वाले हों तो सभी वैसे होने चाहियें ? वे गोतमादि के धर्मशास्त्र प्रधान नहीं, किन्तु गौण हैं। और यह मानवधर्मशास्त्र सर्वोपरि प्रधान है। इसलिये गम्भीर और प्रबल काम प्रधानों में ही हो सकते हैं, वैसा महत्त्व सबमें नहीं हो सकता। और यह नियम कहीं नहीं मिलता कि जो बात एक स्थल में न हो तो अन्यत्र होने से उसकी निन्दा हो जावे। इसलिये जिन धर्मशास्त्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं है, उनमें यह भी एक प्रकार की न्यूनता है। और समस्त वेद धर्म का मूल है, यह सब आर्यों के सम्मत है। यदि सृष्टि के वर्णन का धर्म के साथ सम्बन्ध न हो तो वेद में भी सृष्टि का कथन स्पष्ट है, उसका भी धर्म के साथ सम्बन्ध न हो सकने से सब वेद का धर्ममूलक कहना न बने। और जब यह मानवधर्मशास्त्र मुख्य है तो इसकी जो परिपाटी है वही धर्म शास्त्रों की जाननी चाहिये। इससे विरुद्ध चलने वाले ही दूषित ठहर सकते हैं। अन्य धर्मशास्त्र इसी के आश्रयभूत हैं। इससे धर्मशास्त्र के प्रारम्भ में सृष्टि का वर्णन करना ठीक ही है।

मेधातिथि आदि भाष्यकारों ने अपनी-अपनी बुद्धि, विद्या के अनुसार         समाधान दिये हैं, वे किसी अंश में किसी प्रकार सम्भव हैं। इसलिये उनका खण्डन करने में प्रयत्न न करके यथाबुद्धि हम भी अपने विचार को प्रकाशित करते हैं- जिन किन्हीं शास्त्रों में जो कुछ जिस किसी कथनीय विषय का प्रस्ताव किया जाता है, वहां सभी स्थलों में उस विषय के चार भाग करके कथन करना चाहिये। वैसा करने से वह सुलभ होता है। सो योगभाष्य में व्यासदेव ने कहा भी है कि- (१.) रोग, (२.) रोग का कारण, (३.) रोगरहित होना, (४.) ओषधि करना। ये चार भेद त्याज्य पक्ष में हैं। इसी प्रकार सभी स्थलों में प्रथम उसके स्वरूप का निरूपण करना, द्वितीय उसके हेतु मूलकारण वा निदान को बताना कि जिससे वह उत्पन्न हुआ हो। तृतीय उसके प्रतिपक्षी शत्रु को जताना कि जिससे उसकी निवृत्ति वा हानि हो सकती है। चतुर्थ उसको प्राप्त होने वा छोड़ देने के परिणाम वा ह्ल ल को जान लेना। प्रथम जिसको त्यागना वा ग्रहण करना चाहते हैं, उसके वास्तविक स्वरूप को जान लेना चाहिये। स्वरूप का ज्ञान हुए बिना त्याग वा ग्रहण करना कदापि नहीं बन सकता। द्वितीय उसके हेतु मूल उपादान कारण का जानना इस कारण आवश्यक है कि जैसे धातुओं की विषमता से रोग होता है तो उस विषमता के मिटाने का उपाय करना, जब तक विषमता न मिटेगी तब तक रोग नहीं जा सकता। वा जैसे दीपक जलने का कारण स्नेह वा चिकनाई जान लिया जाय तो उस कारण से दीपक जला सकते और कारण का अभाव करके दीपक की निवृत्ति भी कर सकते हैं। तृतीय प्रतियोगी शत्रु का ज्ञान इस कारण आवश्यक है कि जैसे रोग का प्रतियोगी औषध वा पथ्य है। वहां अनेक प्रतियोगियों में कौन किसका प्रतियोगी है, ऐसा जान लेने से औषधादि प्रतियोगी के प्रयोग से रोगादि की निवृत्ति कर सकता है। चतुर्थ ह्ल ल जाने बिना निष्प्रयोजन वा निष्ह्ल ल कार्य के करने में रुचि वा प्रीति नहीं हो सकती इस कारण ह्ल ल का जानना आवश्यक है। यह सब प्रतिकूल वा त्याज्य वस्तु रोगादि में क्रम है। और अनुकूल में कारण मुख से (अर्थात् प्रथम कक्षा में धर्मादि के कारण को दिखाकर द्वितीय कक्षा में उसके स्वरूप को कहना जैसे प्रथम सृष्टि प्रक्रिया में धर्म का हेतु कहकर आगे स्वरूप कहा है) भी व्याख्यान होता है।

वैसे यहां मुख्य प्रसग् में देखो- कि मुख्य वस्तु जिसका स्वरूप जानना चाहिये वह धर्म ग्राह्य और अधर्म त्याज्य है। और उसका मूलकारण द्वितीय है कि जिससे धर्म उत्पन्न होता है, उस वेद और परमेश्वर को जानना वही धर्म का भण्डार है और परमेश्वर का वा कार्य जगत् के साथ रहने वाले धर्म का सम्बन्ध दिखाना यही उत्पत्ति प्रक्रिया है। तृतीय धर्म का अधर्म और अधर्म का धर्म प्रतियोगी है।   धर्म के ह्ल ल सुखविशेष वा अधर्म के ह्ल ल दुःखविशेष का जानना। निर्मूल वस्तु शशविषाण के तुल्य मिथ्या न हो इसलिये उसका समूल होना साध्य है और धर्म के समूल सिद्ध करने में सृष्टि का वर्णन धर्मानुकूल ही है, प्रतिकूल नहीं। प्रतिकूल की हानि हुए बिना अनुकूल की सम्यक् प्रवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा मान के शत्रुरूप अधर्म की व्याख्यान पूर्र्वक निवृत्ति करनी अवश्य चाहिये। जो कुछ मनुष्य करता है वह समूल ही करना चाहिये अर्थात् निर्मूल वस्तु वा विषय के जानने का कभी उद्योग न करे। धर्म का मूल वेद है और वेद की नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव परमेश्वर से प्रवृत्ति होती है। धर्र्म के आधार ब्राह्मणादि वर्ण हैं और उन सब वर्णों को परमेश्वर ने धर्म के साथ ही धर्म की प्रवृत्ति के लिये उत्पन्न किया है। ऐसे अनेक प्रकार होने से धर्म के साथ सृष्टि का मुख्य सम्बन्ध है। और सृष्टि के आरम्भ से ही जिस धर्म की प्रवृत्ति है यही सनातन धर्म है यह जताने को भी सृष्टि के साथ धर्म का सम्बन्ध दिखाना चाहिए। इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप तीन ही अवस्था हैं। उन तीनों दशाओं में सर्वोपरि विचारशील बुद्धिमान् उत्तरदाता मनु जी को धर्म की स्थिति कहनी चाहिये। क्योंकि प्रश्नकर्त्ता महर्षियों ने स्थिति दशा में ही धर्म नहीं पूछा, यदि प्रश्न में ऐसा कोई शब्द पड़ा होता कि संसार की वर्त्तमान दशा में धर्म कहो तो उत्पत्ति, प्रलय में धर्म का सम्बन्ध दिखाना ‘आम के पूछने में कचनार के उत्तर देने’ के समान विरुद्ध होता सो तो है नहीं, इस कारण सामान्य से किये प्रश्न का तीनों अवस्था में उत्तर देना ही ठीक है, इससे कुछ विरोध नहीं है। और धर्मशब्द भी द्रव्य वा जाति वाचकों का गुण वा स्वभाव है, तिससे किस दशा, देश, काल वा वस्तु में कैसा गुण वा स्वभाव है उसका यथार्थरूप से जान लेना ही धर्मज्ञान है, और ज्ञान के अनुकूल आचरण करना     धर्म का आचरण कहाता है। ऐसा धर्म किसी एक ही दशा में नहीं हो सकता, किन्तु सब दशाओं में स्वरूप भेद से रहता है। इसी प्रकार विपरीत ज्ञान अधर्म दुःख का हेतु है यह कह सकते हैं। इसी पूर्वोक्त आशय को लेकर के ही ‘हम इस कारण अब धर्म की व्याख्या करेंगे’१ यह वैशेषिककार की प्रतिज्ञा बन सकती है। क्योंकि मनुस्मृति आदि ग्रन्थकारों के समान उस वैशेषिक ग्रन्थ में धर्म का व्याख्यान नहीं दीख पड़ता है। इसलिये जिस गुण वा स्वभाव का नाम धर्म है, वह कार्यरूप वा कारणरूप वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति वा प्रलय तीनों दशा में अवस्थित अवश्य रहता है। इस कारण प्रश्न के सामान्य दशापरक होने से तीनों दशा के साथ उसका व्याख्यान उचित है और जो प्रलय वा उत्पत्ति दशा में धर्म न रहे उसका सनातन होना नहीं कह सकते। इसलिये सब दशाओं के साथ धर्म मानना चाहिए।

प्रलय दशा में धर्मी के साथ धर्म भी दबा हुआ रहता है, उत्पत्ति दशा में वही धर्म धर्मी के साथ प्रकट हो जाता है। जो कारणदशा में नहीं है उसका यदि कार्यदशा में भाव माना जावे तो सूखे चिकनाहट रहित तिलों में से भी तेल निकलना चाहिये सो नहीं होता। तो धर्म को भी सब दशाओं के साथ अवस्थित मानना चाहिये, इस कारण तीनों दशाओं के साथ दशा के तुल्यरूप से ही धर्म का व्याख्यान होना भी ठीक है। कैसे गुण वाले सामर्थ्य वा कारण से किस वस्तु की उत्पत्ति हुई ? ऐसा ज्ञान हुए बिना कार्य में भी गुणरूप धर्म का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। और वैसा ज्ञान उत्पत्ति दशा का क्रमपूर्वक वर्णन हुए बिना नहीं हो सकता। इस कारण धर्म का मर्म ज्ञान होने के लिये सृष्टि का वर्णन पहले किया गया। तथा सनातन धर्म कारण से ही कार्य में आते हैं, उनका उत्पत्ति प्रकरण के साथ सुगमता से ज्ञान हो सकता है। जैसे मुख से ब्राह्मण रचा गया, इसलिये वर्णों में ब्राह्मण मुख्य है। यहां कारण से ही मुख्यता आयी है। इस कारण धर्म की व्याख्या के साथ सृष्टि की प्रक्रिया कहनी चाहिये। तथा एक उत्तर यह भी है कि जब कोई किसी वस्तु को पूछकर जानना चाहे तो उत्तरदाता को उचित होगा कि प्रश्नकर्त्ता की ठीक तृप्ति होने के लिये उस विषय वा वस्तु को मूल वा उत्पत्ति सहित समझा दे, जिससे किसी प्रकार का सन्देह शेष न रह जावे। इस कारण     धर्म प्रकरण में सृष्टि का भी वर्णन होना उचित है। इस कथन से व्यूलरसाहब का भी उत्तर आ गया।

और धर्म शब्द का अर्थ भी जो धारण, आत्मा वा अन्तःकरण से मिलित वा अनुकूल मान के आकर्षण किया जावे वह धर्म कहा गया है, वह सब उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयदशा में वर्णों से किस प्रकार धारण किया जाता है, ऐसा प्रश्न का आशय माना जावे तो प्रश्न उत्तर में कुछ भी विरोध नहीं, किन्तु मेल है। व्यूलरसाहब के कहने से राज्य की व्यवस्था करना भी धर्मशास्त्र के अनुकूल नहीं। तब ऐसी दशा में यदि कोई पूछे कि क्षत्रिय का क्या धर्म है ? तो क्या कहना चाहिए ? इससे राज्य की व्यवस्था करना क्षत्रिय का धर्म है, उसकी व्याख्या     धर्मशास्त्र में क्यों न हो ? व्यूलरसाहब का आशय कोई विद्वान् सुने तो यही निकलेगा कि जो मनुष्यजाति की उन्नति के कारण हैं अथवा जिसके सेवन से वेदमत के अनुगामीमात्र आर्य लोगों की उन्नति हो सकती है वे ही विषय इस मनुस्मृति पुस्तक में आधुनिक लोगों ने मिलाये हैं। जैसे राजधर्म को प्र्रक्षिप्त कहा इत्यादि। इस पर विचारशीलों को ध्यान देना चाहिए कि इससे क्या तत्त्व निकलता है ? सो भी बुद्धिमान् लोग विचार ही लेंगे। अर्थात् भारतवासियों की पुरानी दशा को निकृष्ट कहना। वर्त्तमान में तो प्रत्यक्ष हीन दशा में हैं। अर्थात् उनको आर्यों की उच्च दशा कदापि अभीष्ट नहीं। इससे अनेक राजनैतिक लोग गूढ़ प्रयोजनसिद्धियां मानते हैं।

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