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सृष्टि-प्रसंग में विरोध कहने वालों का समाधान: पण्डित भीमसेन शर्मा

सृष्टिप्रक्रिया में कोई वेदादि ग्रन्थों का परस्पर विरोध कहते हैं उसकी निवृत्ति के लिये सब वचनों का यहां संग्रह तो हो नहीं सकता। और वैसा करने से लेख भी अत्यन्त बढ़ जाना सम्भव है, ऐसा विचार के संक्षेप से लिखते हैं- वेदादिग्रन्थों में कहीं-कहीं सृष्टि आदि विषयों का वर्णन शब्दों के भेद से किया गया है अर्थात् जिस विषय के लिये एक पुस्तक में जैसे शब्द हैं उससे भिन्न द्वितीय पुस्तक में लिखे गये, तब किन्हीं को भ्रम हो जाता है कि इसमें विरोध है। और सब पुस्तकों का लेख एक प्रकार के शब्दों में हो नहीं सकता क्योंकि देश, काल, वस्तु भेद से भेद हो जाता है और अनेक कर्त्ताओं के होने से भी उन-उन की शैली अलग-अलग होती है परन्तु विचारशील लोग जब उसके मुख्य सिद्धान्त पर ध्यान देते हैं तो उस मूल सिद्धान्त में कुछ भेद नहीं जान पड़ता किन्तु अज्ञानियों की बुद्धि में परस्पर विरोध बना रहता है, उसका कारण अज्ञान है। इसमें वेदादि शास्त्रों का कुछ दोष नहीं और इस अज्ञानियों के भेद से संसार की कुछ हानि भी नहीं हो सकती।

तथा अन्य वेदादिग्रन्थों में जहां-जहां सृष्टि का प्रकरण है, वहां-वहां रचना के वर्णन से पूर्व और प्रलयदशा के अन्त में कहा है कि-‘उस ने विचार किया कि मैं अनेकरूप सृष्टि करूँ’१ तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि- ‘संसार की रचना से पहले उसने तप किया’२ यहां तपशब्द से भी सृष्टि-रचना के        अनुसन्धान करने से तात्पर्य है, क्योंकि परमेश्वर के सम्बन्ध में तपशब्द का अर्थ ज्ञान ही लिया गया है। सो ब्राह्मणग्रन्थों में लिखा है कि- ‘जिसका तप ज्ञान है।’३ यही अंश यहां मनुस्मृति में भी लिखा है कि- ‘उसने अपने सामर्थ्य से अनेक प्रकार की प्रजा रचने की इच्छा से विचार करके प्रथम प्राण अर्थात् सूत्रात्मा वायु को रचा’४ सृष्टि विषयक इत्यादि सभी वचनों का एक ही आशय है।

तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि५- ‘उसने तप अर्थात् सत्-असत् अच्छे बुरे की प्रमाण वा कारण के अनुसार समीक्षा करके दो वस्तुओं को अर्थात् प्रथम दो प्रकार की शक्ति को उत्पन्न किया। जिनमें एक का नाम रयि और दूसरे का प्राण नाम रक्खा।’ इन्हीं दोनों का स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति शब्दों से भी व्यवहार करते हैं। कहीं इन्हीं को सूर्य-चन्द्रमा नामों से कहा है, क्योंकि चन्द्रमा में स्त्रीशक्ति की और सूर्य में पुरुषशक्ति की प्रधानता वा उत्तेजकता है। इन्हीं दोनों को भोग्य-भोक्ता वा प्रकृति-पुरुष नामों से भी कोई लोग कहते हैं। इस प्रकार इन दो शक्तियों का अनेक नामों से व्यवहार किया गया है। यही अंश मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है कि- ‘उस परमेश्वर ने प्रारम्भ में अपने सत्त्वादि गुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति नामक एक (जिसमें अनिर्वाच्य होने से द्वित्वादि नहीं कहा जा सकता) सामर्थ्य के दो खण्ड किये, जिसके अर्द्धभाग में पुरुष और आधे भाग में स्त्री हुई। उस स्त्री में विराट् नाम ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न किया।’१ अर्थात् प्रलय के पश्चात् स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना भी जितना जगत्- प्राणी उत्पन्न हुए वा जो कुछ जड़ वस्तु उत्पन्न होकर दृष्टिगोचर हुए उन सबकी उत्पत्ति स्त्रीपुरुषरूप दो शक्ति के मेल से हुई है। क्योंकि सब प्राणी और भूतों की उत्पत्ति से पहले दो शक्तियों की उत्पत्ति दिखाने का यही तात्पर्य है। अनुमान होता है कि इसी आशय को लेकर किन्हीं लोगों ने प्रारम्भ में एक स्त्री वा एक पुरुष को उत्पन्न किया माना है। उसी आदि पुरुष शक्ति को ब्रह्मा, स्त्रीशक्ति को सरस्वती वा महादेव-पार्वती (आदम-हव्वा) आदि नाम रखे गये। सम्भव है कि शक्ति की सौकर्यातिशय विवक्षा में स्वतन्त्र कर्त्ता की अविवक्षा कर देने से शक्ति का प्रयोग शक्तिमान् के स्थान पर मान लिया गया जिससे अनेक असम्भव पौराणिक कथा बन गईं। यहां प्रश्रोपनिषद् और मनुस्मृति का एक ही आशय है। केवल दोनों के कथन में किसी प्रकार कुछ भेदमात्र प्रतीत होता है। लोक में भी एक आशय वाले अविरुद्ध एक विषय को व्याख्यान कर्त्ताओं के भेद से भिन्न जैसा मान लेते हैं। वैसे ही सृष्टि में शास्त्रों का वास्तविक विरोध नहीं है।

सृष्टि प्रक्रिया में वेदों का जो सिद्धान्त है, वही इस मानवधर्मशास्त्र में भी समझना चाहिये। वेदों में जहां-जहां सृष्टि का वर्णन है वहां-वहां सर्वत्र वा प्रायः प्रथम प्रलय दशा का स्वरूप दिखाया गया है। जैसे- ऋग्वेद में लिखा है कि ‘उत्पत्ति से पहले अन्धकार से आच्छादित जगत् का कारण था।’२ इत्यादि प्रकार के मूल वेदमन्त्रस्थ आशय को लेकर के ही वाक्यभेद से मनु जी ने भी लिखा है कि३- ‘यह सब जगत् अन्धकाररूप अज्ञात- किसी प्रकार के चिह्न से रहित सब ओर से सोया जैसा था।’ तथा उक्त मन्त्र के “महिना जायतैकम्…” वाक्य का आशय भी मनुस्मृति के इसी प्रथमाध्याय में “महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः…”2 वर्णन किया गया है। इत्यादि प्रकार वेदानुकूल ही यहां सृष्टि का वर्णन है।

न्याय-मीमांसा और सांख्यादि शास्त्रों में कहीं-कहीं सृष्टि का वर्णन परस्पर विरुद्ध जैसा प्रतीत होता है। वहां भी वास्तविक विरोध नहीं। उस एक-एक में अपने-अपने अभीष्ट व्याख्येय कारण की प्रधानता दिखायी है। वे सब शास्त्रों में माने हुए सब कारण सृष्टि प्रक्रिया में उपयोगी होते हैं। काल, कर्म, उपादान और निमित्त शब्द वाच्यों की ही मुख्यकर शास्त्रों में कारणबुद्धि से प्रधानता दिखायी है। इन्हीं कालादि सृष्टि के कारणों की वेद में भी मुख्यता दीखती है। सो अथर्ववेद में भी “कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत।। कालादापः समभवन्कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः।।3 इत्यादि अनेक मन्त्र काल को ही सृष्टि का कारण कहते हैं कि काल से ही सृष्टि हुई। इसी प्रकार के मन्त्रों का आश्रय लेकर शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से काल की महिमा का वर्णन किया है। और ठीक-ठीक तो यह है कि उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयों में काल ही प्रथम कारण है क्योंकि कभी आधी रात में सूर्य का उदय नहीं हो सकता अथवा न मध्याह्न में अस्त हो सकता है। इसी प्रकार अनियत समय में सृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु अपने-अपने समय में सब उत्पन्न होते, समय आने पर नष्ट होते और अपने समय में सब वस्तु स्थिर रहते हैं। समय पर वृक्ष फूलते-ह्ल लते, समय पर मेघ वर्षता है। इसी प्रकार सब पदार्थ अपने-अपने समय पर उत्पन्न होते हैं। इसीलिये कहा गया कि काल प्रजाओं को उत्पन्न करता है। अर्थात् प्रलय के पश्चात् जब उत्पत्ति का समय आता है तभी परमेश्वर भी जगत् को रचता है किन्तु समय के नियम को परमेश्वर भी नहीं तोड़ता वा तोड़ सकता। तात्पर्य यह है कि प्रलय दशा के भीतर परमेश्वर भी सृष्टि रचने में असमर्थ है। इसीलिये कहा है कि काल ने ही प्रथम सृष्टि होने से पूर्व परमेश्वर को सृष्टि रचने के लिये प्रेरित किया। जैसे प्रातःकाल में सूर्य का उदय होना मनुष्यों को प्रेरणा कर निद्रा से उठाता वा उद्योग कराता है। तथा कश्यप नाम सबको दिखाने वाला, सर्वज्ञ, सर्वाधार, सबकी स्थिति का हेतु, सर्वरक्षक, सर्वसाक्षी परमेश्वर किसी मनुष्य की सहायता के बिना रचना का उद्योग करता है। इसीलिये उसको स्वयम्भू कहते हैं। वह परमेश्वर ऐसा होने पर भी काल की प्रेरणा से ही स्वाभाविक शक्ति के साथ सब करता है। तप नाम सृष्टि रचना का ज्ञान भी काल से ही होता है कि काम मुझको इस प्रकार करना चाहिये। मनुष्य भी अपने शरीर से हो सकने वाली प्रत्येक रचना को काल से ही जानता है कि अमुक काम का समय आ गया, वह अब करना चाहिये। काल से ही जल वा प्राण उत्पन्न हुए। वेदज्ञान और दिशा भी काल से ही उत्पन्न होती हैं, काल से सूर्य का उदय और अस्त होता है। यह सब अथर्ववेद के मन्त्रों का आशय है। इसी प्रकार काल की प्रधानता वैशेषिकशास्त्र में भी विशेषकर कही है।

तथा वेद में कर्मादि को भी सृष्टि के कारण ठहराने वाले बहुत मन्त्र हैं, उनका संग्रह खोजने से हो सकता है। कर्म की प्रधानता मीमांसा और न्याय में कही है। सांख्यशास्त्र में जगत् के उपादान कारण का और वेदान्त ब्रह्मसूत्रों में जगत् के निमित्त कारण का विशेषकर व्याख्यान किया है। वे अपने-अपने अवसर पर सब प्रधान हैं। इसलिये सृष्टि में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है।

विद्वानों ने परमेश्वर के जो काम स्वीकार किये हैं, उनको वह मनुष्य के तुल्य नहीं करता, किन्तु जैसे सूर्य के उदय होने के पश्चात् बहुत कार्य सूर्य के निमितमात्र वर्तमान रहने से होते हैं। सूर्य के होने पर उन कार्यों का वैसा होना और न होने पर वैसा न होना ही सूर्य का निमित्त कारण होना जताता है। वैसे ही परमेश्वर के प्रकट होने पर सृष्टि उत्पन्न होती है (जैसे कि स्वामी के उपस्थित सम्मुख रहने पर सेवक लोग अपना-अपना काम यथावत् करते हैं, स्वामी को कुछ कहने तक की आवश्यकता नहीं होती। पर वह चाहता है कि ये सेवक जन ऐसा करें और सेवक भी चाहते हैं कि हम स्वामी की इच्छानुसार करें) किन्तु वह कुम्हार के तुल्य हाथ से काम नहीं करता। इसी आशय को लेकर कोई लोग सृष्टि करने में परमेश्वर की अपेक्षा नहीं समझते उनको यह भ्रान्ति ही है। क्योंकि निमित्त कारण के बिना वे लोग सृष्टि-प्रक्रिया का प्रतिपादन नहीं कर सकते। अर्थात् जड़ वस्तुओं के संयोगमात्र से ईक्षण पूर्वक सृष्टि नहीं हो सकती। इसलिये श्रौतस्मार्त्त सिद्धान्त के अनुसार सर्वज्ञ चेतन कोई इस जगत् का कर्त्ता है, ऐसा सब शिष्ट विद्वानों का सम्मत हमको भी मान्य है।

उन अवान्तर प्रलयों में जिस प्रकार वा जो सृष्टि उत्पन्न होती है, उसका यहां वर्णन नहीं है किन्तु ब्राह्म कल्प में होने वाली सृष्टि का वर्णन है। और अवान्तर प्रलय ब्रह्म के एक ही दिन में (प्रत्येक मन्वन्तर के आदि-अन्त में जैसा कि सूर्यसिद्धान्त में विशेषकर वर्णन किया गया है) कई बार होते हैं उनमें भूतसृष्टि का सर्वथा प्रलय नहीं होता, किन्तु प्रायः प्राणियों का प्रलय होता है। किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में अवान्तर प्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन है, उसके साथ इस ब्राह्मदिन की सृष्टि का कुछ विरोध हो तो वह विरोध नहीं जानना चाहिये, क्योंकि उन दोनों सृष्टियों में देशकालादि के भेद से विषय में भेद हो गया और विषय भेद में विरोध होता नहीं, किन्तु एक ही विषय में विरोध होता है। उन प्रलय और सृष्टि के भेदों के व्याख्यान का यहां अवसर नहीं, किन्तु यहां तो इस वर्त्तमान ब्राह्मदिन के प्रारम्भ में कैसे सृष्टि हुई ऐसा विचार किया जाता है।

उसमें अन्य भाष्यकारों का यह सिद्धान्त है कि प्रलय दो प्रकार का है एक महाप्रलय और द्वितीय अवान्तर प्रलय। महाप्रलय में ब्रह्मा भी नहीं रहता क्योंकि महाप्रलय का समय आने तक ब्रह्मा की आयु भी पूर्ण हो जाती है और अवान्तर प्रलयों में वही एक ब्रह्मा स्थित रहता वा सोता है। महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन करने में ब्रह्मा की भी उत्पत्ति कहनी पड़ती है। सो यहां मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में ब्रह्मा की उत्पत्ति मानते हैं इससे महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन मनुस्मृति में बतलाना बनता है। ऐसा माना जावे तो इन लोगों के कथनानुसार ब्राह्म महाकल्प का यह प्रथम दिन हुआ और इस हिसाब से ब्रह्मा अभी एक दिन का नहीं हुआ। परन्तु प्रचरित पञ्चाग् और सटल्प की प्रक्रिया से यह कथन विरुद्ध प्रतीत होता है। क्योंकि पञ्चागें के लेखानुसार सटल्प में भी यह पढ़ा जाता है- “समस्तजगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणस्य कमलासनस्य स्वमानेन परमायुर्वर्षशतं तस्यार्द्धं पञ्चाशद् गतमथ ब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे प्रथमवर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वितीययामे- इत्यादि पञ्चाग्ेषु दृश्यते।” इसका तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाले ब्रह्मा की अपने दिन आदि के परिमाण से सौ वर्ष की अवस्था है उसका आधा ५० वर्ष बीत गया अब ब्रह्मा के द्वितीय उत्तरार्द्ध के प्रथम वर्ष के प्रथम मास के प्रथम पक्ष के प्रथम दिन में यह द्वितीय प्रहर है इत्यादि। पाठकों को इससे स्पष्ट विरोध प्रतीत हो जायगा। और परस्पर विरुद्ध पक्ष कदापि ठीक नहीं होते, यह विद्वानों का सिद्धान्त है। और वह ब्रह्मा अपने वर्षों से नियत सौ वर्ष जीवता है। यही महाप्रलय के अन्त में ह्लि र उत्पन्न होकर और अवान्तर प्रलयों में जाग-जाग कर सृष्टि रचता है। इत्यादि प्रकार शरीरधारी की असम्भव आयु स्वीकार करते हैं।

इसका उत्तर यह है कि किसी शरीरधारी की इतनी अवस्था हो नहीं सकती क्योंकि अन्य प्राणियों के तुल्य उसका शरीर भी मिट्टी आदि के परमाणुओं से मिलकर बना है। वे संयोगी पदार्थ कोई ऐसे नहीं जो अर्बों वर्ष चल जावें। सौ वर्ष की अवस्था वाला पुरुष है वा ‘मैं सौ वर्ष तक देखूं’ इत्यादि प्रकार वेद में भी कहा है जिससे सिद्ध है कि मनुष्य का आयु सौ वर्ष का है। और सौ शब्द से दैव वा ब्राह्म कोई सौ वर्ष लिये जावें सो नहीं, किन्तु मानुष ही लिये जावेंगे, क्योंकि वेदसम्बन्धी सब ही नियम वा आज्ञा मनुष्य पर ही घटती हैं। कोई कहे कि वेद में तो “भूयश्च शरदः शतात्” इस प्रमाण के अनुसार अधिक भी आयु हो सकती है। तो भी कोटिगुण अधिक नहीं हो सकती। संयेाग से उत्पन्न होने वाले वस्तु की ऐसी अवधि हो यह कौन बुद्धिमान् मान लेगा ?

तथा संयोग से उत्पन्न हुआ परिच्छिन्न- जिसकी लम्बाई-चौड़ाई आदि की अवधि है, ऐसा मनुष्य अचिन्त्य शक्ति से युक्त और अनन्तशक्ति नहीं हो सकता। सर्वशक्तिमान् परमेश्वर यदि अपने तुल्य अन्य ब्रह्मा को उत्पन्न करे तो जानो यह स्वयं जगत् को नहीं बना सकता। और जब जगत् को नहीं रच सकता तो उसका सर्वशक्तिमान् होना भी सिद्ध होना दुस्तर है। और ऐसा मानने से अनेक ईश्वर माननेरूप दोष भी उनके मत में आता है। और हमको ऐसा कोई प्रयोजन भी नहीं जान पड़ता कि जो प्राणियों की रचना के लिये किसी देहधारी पुरुषविशेष ब्रह्मादि को परमेश्वर बनाये। तिससे यह पक्ष श्रेष्ठ नहीं है।

कोई मेधातिथि आदि भाष्यकार इस प्रसग् में प्रचरित सांख्य के मतानुसार सृष्टि का वर्णन करते हैं तथा इस मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में कोई कुल्लूक भट्ट आदि परमेश्वर ही जगत् का उपदानकारण है ऐसे आधुनिक वेदान्त मत को स्वीकार करके सृष्टिप्रक्रिया का वर्णन करते हैं। और वेदान्त तथा सांख्य के सिद्धान्त में परस्पर विरोध मानते हैं, वह उन लोगों का केवल भ्रममात्र है, किन्तु सांख्य-वेदान्त में सृष्टिप्रक्रिया में मतभेद नहीं है। इस कार्य जगत् का उपादानकारण जड़ कारण ही हो सकता है। कार्य-कारण की विरूपता वा विरुद्धता किसी प्रकार सिद्ध करना ठीक नहीं हो सकता। अर्थात् वेदान्त का यह सिद्धान्त नहीं है कि जगत् का उपादानकारण चेतन आत्मा है। और सांख्य में भी किसी परमात्मा के बिना स्वतन्त्र जड़ स्वरूप प्रकृति विचार पूर्वक होने वाली सृष्टि को नहीं बना सकती। इसलिये दोनों का विरोध न होना ही ठीक है। वेदान्त में निमित्त कारण का तथा सांख्य में उपादान का प्रधानता के साथ वर्णन होने से लोगों को भ्रान्ति हो गई होगी कि सांख्यवादी तो केवल प्रकृति को ही जगत् का कारण मानते हैं, और वेदान्त में भी ब्रह्म को ही कारण माना है, ऐसा अनुमान से भ्रम होना सम्भव जान पड़ता है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर सृष्टि बनाने के पूर्वकल्प सम्बन्धी प्रकार को सोचता है, इसी का नाम ईक्षण, इसी का नाम तप और यही उसका प्रादुर्भाव है, यही उसकी प्रकटता है और इसी से वह स्वयम्भू कहाता है। इन वाक्यों से अन्य किसी देहधारी की उत्पत्ति होती हो ऐसा विचार न करना चाहिये। इस सब कथन से एक ही परमेश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारणरूप है, यह कथन सिद्ध होता है। वाद-विवाद तो बने ही रहते हैं।