रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से उत्पत्ति का क्रम लिखा जाता है। इसमें संदेह यह है कि पहले जड़ की उत्पत्ति होती वा चेतन की और चेतनों में पशु, पक्षी, कीट, पतगदि वा मनुष्य इनमें कौन पहले उत्पन्न होते हैं ? तथा पांच तत्त्वों में आकाश की उत्पत्ति कैसे संभव होती है इत्यादि सैकड़ों विरोध सृष्टि-प्रक्रिया में हैं, उनको हटाने के लिए यहां संक्षेप में लिखते हैं।

पहले जड़ वस्तु उत्पन्न होते हैं किन्तु चेतन नहीं। जड़ों में पृथिव्यादि भूतों की रचना के पश्चात् मनुष्यादि के भक्ष्य ओषधि आदि पदार्थ और उसके पश्चात् मनुष्यादि चर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु शरीरधारियों में छोटे कीट पतगदि, तिस पीछे पशु-पक्षी आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं और सबसे पीछे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मनुष्य से नीचे योनि के सब प्राणी मनुष्य के उपकारार्थ हैं, इसलिये सुख के वा दुःख के साधन पहले बनाये जाते हैं। तथा कीट-पतग् आदि सूक्ष्म जन्तु हैं, स्थूल से पहले प्रायः सूक्ष्म की उत्पत्ति न्यायानुकूल माननी चाहिये। क्योंकि कारण सदा सूक्ष्म और कार्य सदा स्थूल होता है। यही क्रम प्रायः सभी शिष्ट लोगों के सम्मत है। ऐसा मान करके ही तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि- “उस परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं।”१ तथा सांख्य में लिखा है कि- “सत्त्व, रजस् और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति कहाती है, उससे द्वितीय कक्षा में महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसको कोई लोग हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसी को कोई विधि-विधाता वा ब्रह्मा कहते हैं कि कार्यरूप संसार की वृद्धि होने का वह पहला परिणाम है और ब्रह्मा शब्द का अर्थ भी यही है कि जिससे वृद्धि हो। तृतीय कक्षा में अहटार उत्पन्न होता है, अहटार से पांच सूक्ष्म भूत और उनसे इन्द्रिय इत्यादि।”२ इन प्रमाणों से स्पष्ट निश्चय होता है कि- आकाशादि क्रम से जड़ तत्त्व पहले उत्पन्न होते हैं। यदि आधारस्वरूप, आकाशादि तत्त्व पहले न हों तो उत्पन्न हुए प्राणी किसके आश्रय से ठहरें और क्या खाकर के जीवित रहें ? और चेतन शरीरों के कारण भी पृथिव्यादि तत्त्व हैं, उन कारणरूप तत्त्वों की उत्पत्ति हुए बिना प्राणियों के शरीर उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता। इसलिये सब वस्तुओं के कारणभूत द्रव्य पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे कार्यवस्तु होते हैं। सूक्ष्म प्रकृतिरूप अन्तिम कारण की अपेक्षा यद्यपि तन्मात्रादि सूक्ष्मभूत भी कार्य ही हैं, तो भी स्थूल भूतों की अपेक्षा से वे कारण ही समझे जाते हैं। यद्यपि कार्यरूप अग्नि, वायु का कार्य है, तो भी जल की उत्पत्ति की अपेक्षा से अग्नि कारण भी है। इस प्रकार कार्य-कारण व्यवस्था सापेक्ष है। अर्थात् जो कारण है वह किसी की अपेक्षा से कार्य और ऐसे ही कार्य कारण हो जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले प्रकाश उत्पन्न होता है, तब सृष्टि करने को उद्यतरूप से परमात्मा जागता है।१ इस प्रकार उस परमेश्वर का सृष्टि करने को उद्यत होना ही प्रकाश की उत्पत्ति है। उसको कोई अन्य जगाता नहीं किन्तु वह स्वयमेव उद्यत होता है। इसीलिये वह स्वयम्भू कहाता है। यही बात मनुस्मृति के छठे श्लोक में (प्रादुरासीत्तमोनुद०) इत्यादि प्रकार कही है। उस परमेश्वर से द्वितीयावस्था में आकाश उत्पन्न होता है, जो सब वस्तुओं का आधार, जिसमें सूर्यादि ज्योति नियम पूर्वक तपते, घूमते और प्रकाशित होते हैं। और उसके अवकाश देने स्वरूप होने से नित्य होना कह सकते हैं, फिर उसकी उत्पत्ति क्यों दिखायी जाती है ? इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि- घड़ा आदि के तुल्य आकाश उत्पन्न नहीं होता। यदि कभी किसी प्रकार तैजस वस्तुओं का सर्वथा अभाव होने से अन्धकार हो जावे। कोई कहीं जा भी न सके तो अवकाश के रहने पर भी कार्यसिद्धि का हेतु न होने से उसका अभाव जैसे कह सकते हैं। और प्रकाश रहने पर कार्यसिद्धि का हेतु होने से आकाश उत्पन्न होता ऐसा व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार आकाश शब्द दीप्ति अर्थ वाले काश धातु से यौगिक पक्ष में परमात्मा का नाम है। और योगरूढ़ दशा में शब्दगुण वाले आकाश तत्त्व का नाम है। अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है इसलिये सर्वविध प्रकाश के आधार का नाम आकाश है। इसी से सूर्यादि ज्योंतियों के प्रकाश से रहित प्रलय दशा में   अन्धकार रूप शून्य की आकाश संज्ञा नहीं कह सकते, इसी से आकाश नहीं है ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। और सृष्टि के आरम्भ में फिर व्यवहार होता है कि आकाश हो गया। यह भी उस आकाश की उत्पत्ति है। तथा अवकाश अनन्त है। जहां सृष्टि नहीं है, वहां भी शून्यरूप पोल है, उसमें से जितने अवकाश में ब्रह्माण्ड रचा गया, सृष्टि के आरम्भ में उसकी आकाश संज्ञा धरी गयी, क्योंकि सूर्यादि ज्योतियों के वहां रहने से ब्रह्माण्डस्थ ही शून्य प्रकाश युक्त होता उसी में वायु आदि साधनों के विद्यमान रहने से शब्द की भी उत्पत्ति हो सकती है इसलिये वही आकाश है अन्य शून्य आकाश नहीं, यह भी आकाश की उत्पत्ति दिखाने का आशय है। इस प्रकार आकाश की उत्पत्ति होती है, पर घटादि के तुल्य नहीं। आकाश का शब्द गुण है, उस शब्द की उत्पत्ति में वायु भी सहयोगी कारण है। वायु के बिना केवल आकाश से शब्द का श्रवण नहीं हो सकता। पर तो भी शब्द का मूल कारण आकाश है। तथा संयोग-विभाग से शब्द की उत्पत्ति होती (अर्थात् ताल्वादि स्थानों के संयोग से वा भेरी-दण्डादि के संयोग से शब्द की उत्पत्ति होती है वे संयोग-विभाग बिना अवकाश के नहीं हो सकते) इससे भी शब्द का मूल कारण आकाश होता है। तथा उस आकाश का शब्द गुण सहित होना प्रलयदशा में नहीं घटता ऐसा मानकर सृष्टि के आरम्भ में शब्द का आश्रय बनने से आकाश की उत्पत्ति अर्थात् प्रादुर्भाव मानना पड़ता है।

पीछे आकाश से वायु उत्पन्न होता है और वह वायु गतिवाला होता है। सब वस्तु की गति अवकाश होने पर ही हो सकती है। वायु इधर-उधर चलने से शरीर में लगता और तृणादि को इधर-उधर चलाता है, इससे अनुमान होता है कि वायु है। यदि आकाश न हो तो वायु का भी चलना न हो सके। वह शून्यरूप पोल तो सदा ही है किन्तु तैजस प्रकाश से युक्त आकाश प्रलयावस्था में नहीं रहता, इसी कारण उस समय वायु का भी अभाव है। तैजस कारणरूप प्रकाश के फैलने रूप आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है। और वह शब्दगुणवाले आकाश से उत्पन्न हुआ वायु स्वयं स्पर्श गुण वाला होता है। और उसमें कारण का गुण भी आता है इसीलिये शब्द और स्पर्श दो गुणों वाला वायु अपने कारणरूप सूक्ष्म आकाश से स्थूल उत्पन्न होता है। आकाश के होने पर वायु का होना और उसके न होने पर वायु का न होना, इस प्रकार वायु और आकाश का कार्यकारण सम्बन्ध है। कार्य-कारणों की एकता कई प्रकार से मानी जाती है। उनमें यहां अस्तित्व सामान्य वा कारण की सत्ता में कार्य का होना अर्थात् जिसकी विद्यमानता में जो रहे और जिसके न रहने पर जो न रहे, वह उसका कारण कहाता है। इस प्रकार यहां दोनों कार्य-कारण की एकरूपता है। इसी प्रकार वायु का भी शब्द गुण है यह वायु के कारण आकाश के सम्बन्ध से कह सकते हैं। इसीलिये वर्णोच्चारणशिक्षा में शब्द की उत्पत्ति में कहा है कि- “आकाश और वायु दोनों से शब्द उत्पन्न होता है”।१

तथा वायु से अग्नि उत्पन्न होता है। यहां सब स्थलों में प्रभव अपादान के तुल्य कारकपन मान वा विचार के आकाश वायु आदि शब्दों में पञ्चमी विभक्ति की गयी है। जैसे कहा जाता है कि “हिमालय से गग निकलती वा प्रकट होती है”२ इसी प्रकार यहां भी निकलना वा प्रकट होना अर्थ है। और (सम्भूतः) यह पद उत्पत्ति के कारण को जताता है। इससे वायु का आकाश अथवा अग्नि का वायु, घड़ा का मिट्टी के समान उपादान कारण नहीं अर्थात् जैसे मिट्टी स्वयं घड़ारूप बन जाती है वैसे आकाश वायुरूप और वायु अग्निरूप नहीं बन जाता। घड़े का उपादान कारण मिट्टी है पर वायु का उपादान आकाश और अग्नि का उपादान वायु नहीं है। और जहां घड़े के उपादान मिट्टी के तुल्य साक्षात् कार्य का उपादान कारण होता है वहां विशेष कर कार्यकारण की एकरूपता अपेक्षित होती है। इसी प्रकार यहां साक्षात् उपादान कारण न होने से वायु के साथ अग्नि का सारूप्य अपेक्षित नहीं होता, किन्तु वायु की विद्यमानता में अग्नि की उत्पत्ति होती है, इसलिये अग्नि का कारण वायु माना जाता है। जैसे वायु के होने पर अग्नि और दीपक जलते हैं, न होने पर नहीं। इसी से जहां वायु का आना-जाना घड़ा आदि से रोक दिया जाता है, वहां दीपादि नहीं जल सकता। जैसे जलते हुए दीपक को एक घड़े में धरके घड़े का मुख बन्द कर दिया जावे जिससे उसमें किञ्चित् भी वायु न पहुंचे तो उसी क्षण भर में दीपक बुझ जायेगा। ऐसा होने पर स्थूल वायु के आने-जाने से अग्नि जलता है अन्यथा नहीं। इससे अग्नि का कारण वायु है, यह कथन सम्भव है। तथा कहीं अग्नि भी वायु का कारण होता है। उसमें भेद यह है कि सूक्ष्म बिजली आदि कारणरूप अग्नि वायु का कारण है। और यही कारण अग्नि सबसे पहले उत्पन्न होता है, इसी के सम्बन्ध से शून्य का आकाश नाम पड़ता है, इसी की व्याप्ति से वायु चलता है, इसलिये इसी को वायु का कारण मानते हैं, पर स्थूल अग्नि का स्थूल वायु ही कारण है, यह पूर्व से सिद्ध हो चुका।

अग्नि के पश्चात् जल उत्पन्न होता है, इसी कारण ग्रीष्म ऋतु के तपने के पश्चात् वर्षा ऋतु होता है, अर्थात् ग्रीष्म ऋतु का अच्छे प्रकार तपना ही वर्षा का कारण है। तथा अन्य समय में भी जब-जब वर्षा होती है, तब-तब उष्णता की उत्तेजना पूर्वक ही होती है, इससे भी जलों की उत्पत्ति का कारण अग्नि आता है। यदि जगत् में अग्नि न हो तो जल में बहनारूप द्रवगुण रहना भी असम्भव है। तथा किसी यन्त्र से जल में व्याप्त अग्नि निकाल लिया जावे तो जलाकार की कठिनता हो जाने से जल का अपने रूप में ठहरना ही सम्भव नहीं (जल में से अग्नि का भाग निकाल लेने पर ही बरफ बन जाता है, वही अग्नि वायु के सम्बन्ध से फिर जलरूप होकर बहने लगता है) और जिसके अभाव में जिसका अभाव होता है, वह उसका कारण हो यह भी न्याय से सिद्ध ही है, जैसे तैल के न रहने पर दीपक नहीं जलता। तथा जल से पृथिवी उत्पन्न होती है। इसी कारण जब वर्षादि द्वारा पृथिवी को जल प्राप्त होता है, तभी पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुएं ठहरती हैं। जल न रहे तो संयोग से बने पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुओं के अवयवों का वियोग होकर विनाश हो जावे। इससे पृथिवी का कारण जल सिद्ध होता है। जहां-जहां जल की प्रवृत्ति है, वहां-वहां पृथिवी की ठीक दशा है। पृथिवी के सम्बन्ध से फल पकते समय स्वरूप से सूखने वा नष्ट होने वाली ओषधियां, उन ओषधियों से उनका फलरूप अन्न तथा खाये हुए अन्न से साररूप रसादि धातु उत्पन्न होते, और उन धातुओं का परस्पर विपरिणाम होते-होते वीर्य धातु उत्पन्न होता है, वह वीर्य प्राणियों के शरीरों का उपादान कारण है। इस प्रकार ओषधियों से अन्न उत्पन्न होने पर प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है। अन्नादि भोग्य वस्तुओं के होने पर भी भोक्ताओं के बिना रसादि धातु न होने से प्राणियों के शरीर नहीं उत्पन्न होते। इसलिये अन्न और ओषधि की रचना के अनन्तर सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने वैसे ही सूक्ष्म कारण से प्राणियों के शरीर उत्पन्न किये। उनके द्वारा खाये अन्न से फिर वीर्यादि धातु होकर मैथुनी सृष्टि हुई। स्थूल स्त्री-पुरुषों के संयोग के बिना अद्भुत शिल्पयुक्त प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति की है, इससे उस परमेश्वर का सर्वज्ञ होना सिद्ध है। फिर भी सृष्टि के आरम्भ में प्रथम बुद्धि में दो भेद कल्पित किये। उनका नाम स्त्री-पुरुष रखा गया, पीछे स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों से युक्त परमाणुओं के संयोग से सबको उत्पन्न किया। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों के संयोग से सब उत्पन्न होता है, यह आशय निकलता है। अथवा पुरुष नाम परमात्मा सृष्टि का निमित्त है और प्रकृति उपादानरूप स्त्री उन दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुई सृष्टि भी मैथुनी कहाती है। इस प्रकार यहां सृष्टिप्रक्रिया में उत्पत्ति का क्रम तथा अन्य भी यथासम्भव कहा। अब इस विषय में अधिक लिखना समाप्त करते हैं। आगे प्रथमाध्याय की समीक्षा लिखी जायेगी।

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