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HADEES : Understanding Islam through HADISH (hindi)

इस्लाम केवल एक पंथमीमांसा अथवा अल्लाह के बन्दों के साथ उसके रिश्तों का एक बयान भर नहीं है। उसमें सिद्धान्त-संबंधी और पंथ-संबंधी सामग्री के अलावा सामाजिक, दण्डनीति-विषयक, व्यावसायिक, आनुष्ठानिक और उत्सवसमारोह-संबंधी मामलों पर विचार किया गया है। वह हर विषय पर विचार करता है। यहां तक कि व्यक्ति की वेशभूषा, उसके विवाह और सहवास जैसे निजी क्षेत्रों में भी उसका दखल है। मुस्लिम पंथमीमांसकों की भाषा में, इस्लाम एक ’सम्पूर्ण‘ और ’समापित‘ मज़हब है।

 

यह मज़हब समान रूप से राजनैतिक एवं सामरिक है। शासनतंत्र से इसका बहुत ताल्लुक है और काफिरों से भरे हुए संसार के बारे में इसका एक बहुत खास नजरिया है। क्योंकि अधिकांश विश्व अभी भी काफिर है, इसलिए जो लोग मुसलमान नहीं हैं, उनके लिए इस्लाम को समझना बहुत जरूरी है।

 

इस्लाम के दो आधार हैं-कुरान और हदीस (’कथन‘ या ’परम्परा‘) जिन्हें सामान्यतः सुन्ना (रिवाज) कहा जाता है। दोनों का केन्द्र है मुहम्मद। कुरान में पैगम्बर के ’इलहाम‘ (वही) हैं और हदीस में वह सब है जो उन्होंने किया या कहा, जिसका आदेश दिया, जिसके बारे में मना किया या नहीं मना किया, जिसकी मंजूरी दी या जो नामंजूर किया। एकवचन ’हदीस‘ शब्द (बहुवचन अहादीस) पंथ की समस्त परम्परा प्राप्त प्रथाओं के लिए इकट्इे तौर पर भी इस्तेमाल होता है। यह शब्द सम्पूर्ण पवित्र पंथपरम्परा का द्योतक है।

 

मुस्लिम पंथमीमांसक कुरान और हदीस के बीच कोई भेद नहीं करते। उनके लिए ये दोनों ही इलहाम या दिव्य प्रेरणा की कृतियां हैं। इलहाम की कोटि और मात्रा दोनों कृतियों में एक समान है। सिर्फ अभिव्यक्ति का ढंग अलग है। उनके लिए ’हदीस‘ व्यवहार रूप में कुरान है। वह पैगम्बर की जीवनचर्या में उतरे इलहाम का मूर्त रूप है। ’कुरान‘ में अल्लाह मुहम्मद के मुख से बोलता है, ’सुन्ना‘ में वह मुहम्मद के माध्यम से काम करता है। इस तरह मुहम्मद की जीवनचर्या कुरान में कहे गए अल्लाह के वचनों की साक्षात अभिव्यक्ति है। अल्लाह दिव्य सिद्धांत प्रस्तुत करता है, मुहम्मद उसकी मूर्त बानगी प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए यह अचरज की बात नहीं कि मुस्लिम पंथमीमांसक कुरान और हदीस को परस्पर पूरक अथवा एक को दूसरे की जगह रखे जा सकने लायक भी मानते हैं। उनके लिए हदीस ’वही गैर मतलू‘ अर्थात् ’बिना पढ़ी गई बही‘ है। वह कुरान की तरह आसमानी किताब से नहीं पढ़ी गई, पर उसी तरह दिव्य प्रेरणा से प्राप्त है। और कुरान ”हदीस मुतवातिर“ है अर्थात् वह पंथपरम्परा जो सभी मुसलमानों द्वारा शुरू से ही प्रामाणिक और पक्की मानी गई है।

 

इस प्रकार, कुरान और हदीस, एक समान पथ-प्रदर्शन करती है। अल्लाह ने अपने पैगम्बर की मदद से हर स्थिति के लिए मार्गदर्शन प्रस्तुत किया है। मस्जिद में जा रहा हो या शय्याकक्ष में या शौचालय में, वह मैथुन कर रहा हो या युद्ध-सभी स्थितियों के लिए एक आदेश है और एक अनुकरीय बानगी दी गई है। और कुरान के मुताबिक, जब अल्लाह और उसका रसूल कोई मार्ग मुकर्रर कर दें, तो मोमिन के लिए उस मामले में अपनी किसी निजी पसंद का हक नहीं रह जाता। (33: 36)

 

इस पर भी ऐसी स्थितयां सामने आ जाती हैं जिनके बारे में मार्गदर्शन का अभाव है। इमाम इब्न हंबल (जन्म हिजरी सन् 164, मृत्यु हिजरी सन् 241/- ईस्वी सन् 780-855) के बारे में यह कहा गया है कि उन्होंने कभी भी तरबूज नहीं खाये, यद्यपि वे जानते थे कि पैगम्बर तरबूज खाते थे। कारण यह था कि इमाम तरबूजों को खाने का पैगम्बर का तरीका नहीं जानते थे। यही किस्सा उन महान सूफी बायजीद बिस्ताम के बारे में सुना जाता है, जिनकी रहस्यवादी शिक्षाएं कुरान की कट्टर मीमांसा के विरुद्ध जाती हैं।

 

यद्यपि गैर-मुस्लिम संसार सुन्ना या हदीस से उतना परिचित नहीं है, जितना कि कुरान से, तथापि इस्लामी कानूनों, निर्देशों, एवं व्यवहारों के लिए सुन्ना या हदीस कुरान से भी कहीं ज्यादा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार है। पैगम्बर के जीवनकाल से ही, करोड़ों मुसलमानों ने पोशाक और पहनावे में, खान-पान और बालों की साज-संवार में, शौच की रीति तथा यौन और वैवाहिक व्यवहार में, पैगम्बर जैसा होने की कोशिश की है। अरब में देखें या मध्य एशिया में, भारत में या मलेशिया में, मुसलमानों में कतिपय समानुरूपताएं दिखेंगी जैसे कि बुरका, बहुविवाह-प्रथा, वुजू और इस्तिंजा (गोपनीय अंगों का मार्जन)। ये सब सुन्ना से व्युत्पन्न तथा कुरान द्वारा समर्थित है। ये सभी, परिवर्तनशील सामाजिक दस्तूर के रूप में नहीं, बल्कि दिव्य विधान द्वारा विहित सुनिश्चित नैतिक आदेशों के नाते स्वीकार किये जाते हैं।

 

हदीस में विवेचित विषय बहुत से और बहुत प्रकार के हैं। उसमें अल्लाह के बारे में पैगम्बर की सूझबूझ, इहलोक और परलोक, स्वर्ग और नरक, फैसले का आखिरी दिन, ईमान, सलात, जकात, साम तथा हज जैसे मजहबी मामलों के रूप में प्रसिद्ध विषय शामिल है। फिर उसमें जिहाद, अल-अनफाल (युद्ध में लूटा गया माल) और खम्स (पवित्र पंचमांश) के बारे में पैगम्बर की घोषणाएं भी शामिल हैं। साथ ही अपराध और दंड पर, खाने, पीने, पहनावे और व्यक्तिगत साज-सज्जा पर, शिकार और कुराबानी पर, शायरों और सगुनियों पर, औरतों और गुलामों पर, भेंट-नजराना, विरासत और दहेज पर, शौच, वजू और गुस्ल पर, स्वप्न, नामकरण और दवाओं पर, मन्नतों, कसमों और वसीयतनामों पर, प्रतिमाओं और तस्वीरों पर, कुत्तों, छिपकलियों, गिरगिटों और चींटियों पर, पैगम्बर के फैसले और घोषणाएं वहां हैं।

 

हदीस का साहित्य विपुल है। उसमें पैगम्बर के जीवन के मामूली ब्यौरे तक है। उनके होंठों से निकला हर शब्द, सहमति या असहमति में उनके सिर के हिलने का हर स्पन्दन, उनकी प्रत्येक चेष्टा और व्यवहार-विधि, उनके अनुयाइयों के लिए महत्वपूर्ण था। पैगम्बर के बारे में उन्होंने सब कुछ याद रखा और पुश्त-दर-पुश्त उन यादों को संजोते गये। स्वभावतः, जो लोग पैगम्बर के अधिक सम्पर्क में आये, उनके पास उनके बारे में कहने के लिए सबसे ज्यादा था। उनकी पत्नी आयशा, उनके कुलीन अनुयायी अबू बकर और उमर, दस साल तक उनका नौकर रहा अनस बिन मालिक जो हिजरी सन 93 में 103 वर्ष की बड़ी उम्र में मरा, और पैगम्बर का भतीजा अब्दुल्ला बिन अब्बास, अनेक हदीसों के उर्वर स्रोत थे। किन्तु सर्वाधिक उर्वर स्रोत थे। अबू हुरैरा जोकि 3,500 हदीसों के अधिकारी ज्ञाता थे। वे पैगम्बर के रिश्तेदार नहीं थे। पर उन्होंने पैगम्बर के दूसरे साथियों से सुन कर हदीसों का संग्रह करने में विशेषता हासिल कर ली थी। इसी तरह, 1540 हदीस जाबिर के प्रमाण से व्युत्पन्न हैं। जाबिर तो कुरैश भी नहीं थे, वरन् मदीना के खजरज कबीले के थे जोकि मुहम्मद से सहबद्ध था।

 

हर एक हदीस का एक मूलपाठ (मत्न) है और एक संचरण-श्रंखला (इस्नाद) है। एक ही पाठ की अनेक श्रंखलाएं हो सकती हैं। मगर हर एक पाठ का स्रोत मूलतः कोई साथी (अस-हाब) होना चाहिए-कोई वह शख्स जो पैगम्बर के निजी सम्पर्क में आया हो। इन साथियों ने ये कथाएं अपने अनुयाइयों (ताबिऊन) को बतलाई, जो उन्हें अगली पीढ़ी को सौंप गये।

 

शुरू में हदीस मौखिक रूप में संचारित हुई। शुरू के वर्णन-कर्ताओं में से कुछ ने जरूर किसी तरह के लिखित विवरण रखे होंगे। फिर, जब असहाब और ताबिऊन और उनके वंशज नहीं रहे, तब लिखित रूप देने की जरूरत महसूस की गई। इसके दो अन्य कारण थे। कुरान के आदेश-निर्देश शुरू के अरब लोगों के सरल जीवन के लिए सम्भवतः पर्याप्त थे। पर जैसे-जैसे मुसलमानों की ताकत बढ़ी और वे एक विस्तृत साम्राज्य के स्वामी बने, वैसे-वैसे उन्हें नई स्थितियों और नये रीति-रिवाजों के अनुरूप प्रमाण का एक पूरक आधार खोजना पड़ा। यह आधार पैगम्बर के व्यवहार में अर्थात् सुन्ना में पाया गया, जोकि शुरू के मुसलमानों की जनर में पहले से ही बहुत ऊँचा सम्मान पा चुका था।

 

एक और भी अधिक अनिवार्य कारण था। अप्रामाणिक हदीस उभर रही थीं, जो प्रामाणिक हदीसों को अभिभूत कर रही थीं। इसके पीछे अनेक तरह के इरादे और प्रेरणाएं थीं। इन नई हदीसों में से कुछ सिर्फ पाखण्ड-पूर्ण थीं, जिनका उद्देश्य उन बातों को प्रोत्साहन देना था जो इनके गढ़ने वालों के विचार में मजहबी जीवन का मर्म थीं या फिर जो उनके विचार से सही पंथमीमांसा प्रस्तुत करती थीं।

 

साथ ही कुछ व्यक्तिगत मनसूबे भी इनके पीछे थे। हदीस अब सिर्फ शिक्षाप्रद कहानियां नहीं रह गई थीं। वे प्रतिष्ठा और लाभ का स्रोत भी बन गई थीं। अपने पुरखों का मुजाहिर या अन्सार में शुमार किया जाना, अल-अकाबा की प्रतिज्ञा के समय उनकी मौजूदगी, बद्र और उहुद की लड़ाइयों के योद्धाओं में उनका शामिल होना-संक्षेप में, पैगम्बर के प्रति वफादारी और उपयोगिता के किसी भी सन्दर्भ में उनका उल्लेख होना-बहुत बड़ी बात हो गई थी। इसलिए ऐसे मुहद्दिसों की मांग बढ़ गई थी, जो यथायोग्य हदीस प्रस्तुत कर सकें। शूरहबील बिन साद जैसे हदीस के संग्रहकर्ताओं ने अपनी क्षमता का असरदार इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने स्वार्थानुसार किसी की पीठ सहलाई, किसी को डरा-धमका कर धन हड़प लिया।

 

गुट-स्वार्थी की पूर्ति के लिए भी जाती हदीस गढ़ी गई। मुहम्मद की मौत के फौरन बाद विभिन्न गुटों में सत्ता के लिए जानलेवा भिडंतें हुईं। विशेषकर अलीवंशियों, उमैया-वंशियों और बाद में अब्बासियों के बीच। इस संघर्ष में प्रबल भावावेग उमड़ा और उसके प्रभाव में नई-नई हदीस गढ़ी गई तथा पुरानी हदीसों को उपयोगी दृष्टि से तोड़ा-मरोड़ा गया।

 

मजहबी और वीर-पूजक बुद्धि ने मुहम्मद के जीवनवृत्त के चतुर्दिक अनेक चमत्कार जोड़ दिए, जिससे मुहम्मद का मानव व्यक्तित्व पुराकथाओं के पीछे छुपने लगा।

 

इन परिस्थितियों में यह प्रयास गम्भीरतापूर्वक किया गया कि मौजूदा सभी हदीस संग्रहीत की जाएं, उनकी छान-बीन हो, अप्रामाणिक हदीस रद्द कर दी जायें और सही हदीसों को लिखित रूप दिया जाये। मुहम्मद के एक-सौ वर्ष बाद खलीफा उमर द्वितीय के शासन में ऐसे आदेश दिये गये कि सभी मौजूदा हदीसों का बकर इब्न मुहम्मद की देख-रेख में संग्रह हो। पर इसके लिए मुस्लिम संसार को और सौ साल इन्तजार करना पड़ा। मुहम्मद इस्माइल अलबुखारी (हिजरी सन् 194-256 = ईसवी सन् 810-870), मुस्लिम इब्तुल हज्जाज (हिजरी सन् 204-261 = ईसवी सन् 819-875), अबू ईसा मुहम्मद अत-तिरमिजी (हिजरी सन् 209-279 = ईसवी सन् 824-892), अबू दाउद अस-साजिस्तानी (हिजरी सन् 202-275 = ईसवी सन् 817-888), तथा अन्य हदीसकारों की विशिष्ट मंडली ने इन हदीसों की छानबीन का काम हाथ में लिया था।

 

बुखारी ने प्रामाणिकता के सिद्धान्तों का सविस्तार प्रतिपादन किया और उनको दृढ़ता से लागू किया। कहा जाता है कि उन्होंने 6 लाख हदीस संग्रहीत कीं, उन उनमें से सिर्फ सात हजार को प्रामाणिक माना। अबू दाउद ने 5 लाख संग्रहीत हदीसों में से केवल 4800 को मान्य किया। यह भी कहा जाता है कि संचरण की विभिन्न श्रंखलाओं में 40 हजार नामों का उल्लेख किया गया था, पर बुखारी ने उनमें से सिर्फ 2 हजार को प्रामाणिक माना।

 

इन हदीसकारों के श्रमसाध्य कार्य के फलस्वरूप, हदीसों के अस्तव्यस्त ढेर को काटा-छांटा जा सका और उनमें कुछ सिलसिला तथा सामंजस्य लाया जा सका। 1000 से अधिक संग्रह जो प्रचलन में थे, कालक्रम में विलुप्त हो गये और सिर्फ 6 संग्रह, जो ”सिहा सित्ता“ कहे जाते हैं, प्रामाणिक “सही“ यानी संग्रह मान्य हुए। इनमें से दो को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है, ये ”दो प्रामाणिक“ कहे जाते हैं-एक इमाम बुखारी वाला और दूसरा इमाम मुस्लिम वाला। उनमें अभी भी चमत्कारिक एवं असम्भाव्य सामग्री खासी मात्रा में है, पर तब भी उनका अधिकांश तथ्यात्मक और ऐतिहासिक है। मुहम्मद की मौत के बाद तीन-सौ साल के अंदर हदीस को बहुत हद तक वह शक्ल प्राप्त हो गई थी जिसमें वह आज पाई जाती है।

 

उस काफिर को जिस की बुद्धि सही-सलामत है, हदीस किंचित् अशोभन-सी कथा-वार्ताओं का संग्रह लगती है-एक ऐसे व्यक्ति की कथा जो कुछ ज्यादा ही मानव-सुलभ स्वभाव वाला है। किन्तु मुस्लिम मानस को उसे एक अलग ही ढंग से देखना सिखाया गया है। मुसलमानों ने श्रद्धायुक्त विस्मय एवं पूजा की भावना से ही हदीस के विषय में लिखा-बोला है, उसका वाचन और अध्ययन किया है। मुहम्मद के एक सहचर और एक महान हदीसकार (जो 305 हदीसों के अधिकारी वक्ता हैं और जिनका हिजरी सन् 32 में 72 बरस की उम्र में देहावसान हुआ) अब्दुल्ला इब्न मसूद के बारे में कहा जाता है कि हदीस बांचते समय वे थरथराने लगते थे, और अक्सर उनके पूरे माथे पर पसीना छलछला उठता था। मोमिन मुसलमानों से अपेक्षा की जाती है कि वे हदीस को उसी भाव और उसी बुद्धि से पढ़ें। समय का अंतराल इस प्रक्रिया में सहायक बनता है। समय बीतने के साथ-साथ नायक उत्तरोत्तर महान दिखने लगता है।

 

अपनी इस पुस्तक के लिए हमने भी सही मुस्लिम को मुख्य मूलपाठ के रूप में चुना है। वह हमारा आधार है, यद्यपि अपने विचार-विमर्श के क्रम में हमने बहुधा कुरान से उद्धरण दिये हैं। कुरान और हदीस परस्परावलंबी एवं एक दूसरे पर प्रकाश डालने वाले हैं कुरान में मूलपाठ मिलता है, हदीस में उसका सन्दर्भ। वस्तुतः हदीस की मदद के बिना कुरान समझ में नहीं आ सकता। क्योंकि कुरान की प्रत्येक आयत का एक सन्दर्भ है, जोकि हदीस से ही जाना जा सकता है। कुरान के इलहामों को हदीस साकार-सगुण रूप देती है, उनका लौकिक अभिप्राय व्यक्त करती है और उन के ठेठ घटना-प्रसंग बतलाती है।

 

कुछ मुद्दों को स्पष्ट करने के लिए हमने यहां-वहां पर पैगम्बर की परम्परागत जीवनियों से भी उद्धरण दिये हैं। ये जीवनियाँ पैगम्बर के जीवन की घटनाओं के इर्द-गिर्द कालानुक्रम में व्यवस्थित हदीसों से अधिक कुछ नहीं। उसके पूर्व कई मगाजी किताबें (पैगम्बर के अभियानों संबंधी किताबें) मिलती हैं। पैगम्बर की प्रायः पहली प्रौढ़ जीवनी है इब्न-इसहाक की, जो मदीना में हिजरी सन् 85 में जन्में और जिनकी मृत्यु हिजरी सन् 151 (ईस्वी 768) में बगदाद में हुई। उनके बाद कई अन्य उल्लेखनीय जीवनीकार हुए जिन्होंने उनके श्रम का प्रचुर उपयोग किया। वे थे-अल-वाकिदी, इब्न हिशाम, और अत-तवरी। इसहाक की ’सीरत रसूल अल्लाह‘ का ए0 गिलौम कृत अंग्रजी अनुवाद ”द लाइफ आॅफ मुहम्मद“ (आॅक्सफोर्ड 1958) शीर्षक से उपलब्ध है।

 

इसके पहले कतिपय हदीस-संग्रहों के आंशिक अंग्रेजी अनुवाद ही उपलब्ध थे। इस कमी को पूरा करने और ”सही मुस्लिम“ का परिपूर्ण अनुवाद (लाहौर: मुहम्मद अशरफ) प्रदान करने के लिए डा0 अब्दुल हमीद सिद्दीकी को धन्यवाद मिलना चाहिए। एक प्राच्य ग्रंथ के एक प्राच्य बुद्धि द्वारा किये गये अनुवाद का एक लाभ है-उसमें मूल का आस्वाद सुरक्षित रहता है। उनकी अंग्रेजी क्वीन्स इंग्लिश भले ही न हो और जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है उन्हें यह अंग्रेजी भले ही कुछ-कुछ परदेशी सी लगे, पर यह अनुवाद अविकल है और मूल के मुहावरे को दोहराता है।

 

डा0 सिद्दीकी का काम मूल कृति के अनुवाद से कहीं ज्यादा है। उन्होंने प्रचुर मात्रा में व्याख्यात्मक टिप्पणियां दी हैं। 7190 अहादीस वाली “सही“ में उन्होंने 3081 पाद-टिप्पणियां दी हैं। अस्पष्ट मुदों और सन्दर्भों को स्पष्ट करने के अतिरिक्त, ये टिप्पणियां हमें पारम्परिक मुस्लिम विद्वत्ता का प्रामाणिक आस्वाद प्रदान करती हैं। वस्तुतः एक सुप्रतिष्ठित और विद्वज्जनोचित रीति से व्यवस्थित ये टिप्पणियां अपने-आप में विचार का एक महत्वपूर्ण विषय बन सकती हैं। इनसे यह प्रकट होता है कि इस्लाम में विद्वता की भूमिका गौण है-वह कुरान और हदीस की अनुचर हैं। उसकी स्वयं की कोई जिज्ञासा या गवेषणा नहीं है। तथापि स्पष्टीकरण और पक्ष-मंडन की जो भूमिका उसने अपने लिए चुनी है, उसकी परिधि में प्रवीणता, और यहां तक कि प्रतिभा, की सामथ्र्य भी उस विद्वता में विद्यमान है। इसलिए हमने इन टिप्पणियों से भी उदाहरण दिये हैं। लगभग 45 बार, ताकि पाठक को इस्लामी विद्वत्ता की बानगी मिल जाय।

 

अब कुछ शब्द इसके बारे में कि प्रस्तुत पुस्तक लिखी कैसे गई। जब हमने डा0 सिद्दीकी का अनुवाद पढ़ा, तो हमें लगा कि इसमें इस्लाम-विषयक महत्वपूर्ण सामग्री है, जो बहुत लोगों के लिए जानने योग्य है। कई शताब्दियों तक प्रसुप्त रहने के बाद, इस्लाम पुनः गतिशील है। योरोपीय जातियों के उत्थान से पहले दुनिया को सभ्य बनाने का भार इस्लाम ने सम्हाल रखा था। उसका यह भार ”श्वेत मानव के भार“ का ही रूपान्तर था। उसका मिशन तो और भी अधिक आडम्बर-युक्त था, क्योंकि वह खुद अल्लाह की ओर से मिला था। मुसलमानों ने बहुदेववाद को निर्मूल करने, अपने पड़ोसियों के उपास्य देवताओं को सिंहासन से हटाने और उनकी जगह अपने देवता, अल्लाह, को स्थापित करने के लिए तलवार चलाई। यह और बात है कि इस सिलसिले में उन्होंने लूट भी की और साम्राज्य भी स्थापित किये। ये तो दिव्य परलोक की साधना में तल्लीन लोगों द्वारा अनचाहे लौकिक पुरस्कार मात्र थे।

 

अरबों की नई तेल-संपदा की कृपा से पुराना मिशन पुनजीर्वित हो उठा है। जिद्दा में एक तरह का ”मुस्लिम काॅमिन्फाॅर्म“ रूपायित हो रहा है। तेल-धनिक अरब लोग हर जगह के मुसलमानों का भार अपने ऊपर ले रहे हैं, उनकी आध्यात्मिक और साथ ही दुनियावी जरूरतों की देखभाल कर रहे हैं। अरब धन मुस्लिम जगत में सर्वत्र सक्रिय है-पाकिस्तान में, बांग्लादेश में, मलेशिया में, हिन्देशिया में, और बड़ी मुस्लिम आबादी वाले भारत देश में भी ।

 

सैनिक दृष्टि से अरब अभी भी दुर्बल है और पश्चिम पर निर्भर है। लेकिन उनकी दस्तंदाजी का पूरा प्रकोप एशिया और अफ्रीका के उन देशों में दिखाई दे रहा है, जो आर्थिक रूप से गरीब और वैचारिक रूप से कमजोर हैं। इन देशों में वे निम्नतल पर भी काम करते हैं और शिखर पर भी। वे स्थानीय राजनीतिज्ञों को खरीद लेते हैं। उन्होंने गेबन एवं मध्य अफ्रीकी साम्राज्य के राष्ट्रपतियों का मतान्तरण मोल-तोल से किया है। उन्होंने ”दारूल हरब“ यानि उन देशों के मुसलमानों को गोद ले रखा है, जो अभी भी काफिर हैं और मुसलमानों द्वारा पूरी तरह अधीन नहीं किये जा सके हैं। वे इन अल्पसंख्यकों का इस्तेमाल इन देशों को ”दारूल इस्लाम“ यानि “शांति के स्थान“ में रूपांतरित करने के लिए कर रहे हैं। अर्थात् इन को ऐसे देश बना डालने के लिए जहां इस्लाम का आधिपत्य हो।

 

सर्वोत्तम परिस्थितियों में भी, मुसलमान अल्पसंख्यकों को किसी देश की मुख्य राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित कर पाना मुश्किल है। अरब हस्तक्षेप ने इस काम को और ज्यादा मुश्किल बना डाला है। फिलिपीन्स में मोरो मुसलमानों के विद्रोह के पीछे यही हस्तक्षेप था। भारत में लगातार एक मुसलमान-समस्या बनी हुई है, जिसका समाधान देश-विभाजन के बावजूद सम्भव नहीं हो पा रहा। अरब दस्तंदाजी ने मामले को और ज्यादा उलझा दिया है।

 

मुस्लिम जगत में एक नया कठमुल्लावाद पनप रहा है जिससे खुमैनी और मुअम्मर कद्दाफी जैसे नेता उभर रहे हैं। जहां भी वह विजयी होता है, वहीं उसके परिणामस्वरूप तानाशाही आ जाती है। कठमुल्लावाद और अधिनायकवाद जुड़वां संतानें हैं।

 

कतिपय विचारकों के अनुसार, यह कठमुल्लावाद मुसलमानों द्वारा की जाने वाली अपने ऐतिह्म तथा अपनी आत्मनिष्ठा की तलाश के सिवाय और कुछ नहीं है, पश्चिम की पदार्थवादी एवं पूंजीवादी आस्थाओं के खिलाफ अपनी संस्कृति में उपलब्ध प्रतीकों के सहारे आत्मरक्षा का एक अस्त्र है। किन्तु ध्यानपूर्वक देखें तो यह कुछ और भी है। यह पुराने साम्राज्यवादी दिनों के वैभव को फिर से पाने का सपना भी है। इस्लाम स्वभाव से ही कठमुल्लावादी है और यह कठमुल्लापन आक्रामक प्रकृति वाला है। इस्लाम का दावा है कि उसने हमेशा-हमेशा के लिए मनुष्य के विचार एवं आचार को निर्धारित-निरूपित कर दिया है। वह किसी भी परिवर्तन का विरोध करता है और वह अपनी आस्थाओं और आचरण-प्रणालियों को दूसरों पर थोपना उचित मानता है।

 

यह तो अपने-अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है कि इस कठमुल्लावाद को पुनरुत्थान माना जाए या प्रतिगामिता एवं एक पुराने साम्राज्यवाद के फिर से उभर आने का खतरा। किन्तु समस्या के किसी भी पहलू पर प्रकाश डालने वाली कोई भी बात बहुत सहायक समझी जायेगी।

 

हम हदीस साहित्य को इस विषय में सर्वथा उपयुक्त पाते हैं। वहां हमें इस्लाम के उद्गम-स्रोतों का और इस्लाम के निर्माणकाल का अन्तरंग चित्र मिलता है जिससे कि उन तत्त्वों के साथ घनिष्ट परिचय हो जाता है, जो प्रारम्भ से ही इस्लाम के अवयव रहे हैं। दरअस्ल, इस्लाम के ये तत्त्व ही मुसलमानों को सर्वाधिक सम्मोहक लगते हैं और इस प्रकार, अपने पूर्वजों जैसा बनने को बाध्य कर देने वाली प्रचंड प्रेरणा से भरकर, बारम्बार उन तत्त्वों का आह्वान करते हैं और उधर ही लौटते रहते हैं।

 

इसीलिए हमने सही मुस्लिम को मार्गदर्शक के रूप में चुना है। उसका अंग्रेजी अनुवाद भी सुलभ है। क्योंकि ज्यादातर हदीस संग्रहों की सार-सामग्री एक ही है, इसलिए हमारा यह चुनाव भ्रान्तिकारक नहीं है। दूसरी ओर, यह चुनाव हमारे अध्ययन एवं हमारी जिज्ञासा के क्षेत्र का सार्थक सीमांकन कर देता है।

 

इस चुनाव में एक कमी है जिसके लाभ भी हैं, और हानियां भी। इस रीति से यद्यपि हमने बहुत से मुद्दों पर चर्चा की है, किन्तु विस्तृत वर्णन एक का भी नहीं हो सका है। कुछ महत्वपूर्ण मसले इसीलिए अधिक विवेचन किये बिना छोड़ दिये गये और कुछेक का तो इस लिए विचार ही नहीं बन पड़ा कि वे मसले सही मुस्लिम में उठाये ही नहीं गये हैं। हमने सही मुस्लिम को ही सामने रखते हुए विवेचना की है। इसलिए यह स्थिति अपरिहार्य थी। तब भी हमने यत्र-तत्र इस सही की सीमाओं से परे जाकर स्थिति से पार पाने की कुछ कोशिश की है।

 

हमारे द्वारा अपनायी गई विवेचना-पद्धति की सीमाओं के बावजूद, सही मुस्लिम इस्लामी विश्वासों एवं व्यवहारों पर एक अत्यधिक व्यापक जानकारी देने वाला स्रोत तो है ही। और हमने उसमें से यथातथ और बड़े पैमाने पर उद्धरण दिये हैं। उसमें 7,190 अहादीस हैं, जो 1243 पर्वों में विभक्त हैं। कई बार एक ही पाठ अनेक पर्वो में थोड़े रूप-भेद से किन्तु भिन्न संरचरण-श्रंखलाओं के माध्यम से आया है। इसीलिए, कई मामलों में, एक हदीस अनके अहादीस की प्रतिनिधि जैसी है और ऐसी एक हदीस को उद्धृत करना यथार्थतः एक पूरे पर्वकों उद्धृत करने के समान है। इस पुस्तक में हमने ऐसे प्रतिनिधि रूप वाली लगभग 675 अलग-अलग हदीसों को उद्धृत किया है। हमारे द्वारा उद्धृत अन्य 700 अहादीस समूह-अहादीस या उनका सार-संक्षेप है। वे अंश जो सिर्फ रस्मों और अनुष्ठानों से सम्बद्ध हैं तथा गैर-मुसलमानों के लिए कोई विशेष महत्व नहीं रखते, हमने पूरी तरह छोड़ दिये हैं। पर हमने ऐसी हर हदीस जिसका साथ ही कोई गहरा तात्पर्य हो, सहर्ष शामिल की है। यद्यपि ऐसे उदाहरण विरले ही हैं। उदाहरणार्थ, तीर्थयात्रा से सम्बद्ध ”किताब अलहज्ज“ एक लंबी किताब है। उसमें 583 हदीस हैं। पर उनमें एक भी ऐसी नहीं, जो उस ”आंतरिक तीर्थयात्रा“ की ओर किसी भी तरह इंगित करती हो, जिसके बारे में रहस्यवादियों ने इतना अधिक कहा है। इसी तरह ”जिहाद और सैनिक अभियानों की किताब“ में 180 हदीस हैं। पर वहां भी बमुश्किल कोई बात मिलेगी, जो ”जिहाद-अल-अकबर“ अर्थात् अपनी खुद की अधोगामी प्रवृत्तियों (नफ्स) के विरुद्ध ”महान संग्राम“ की भावना का संकेत करती हो। अधिकांश विचार-विमर्श अन्र्तमुखी भाव से रहित है।

 

अन्य हदीस-संग्रहों की ही भांति, सही-मुस्लिम भी पैगम्बर की जिन्दगी की अत्यन्त अन्तरंग झलकें प्रस्तुत करती हैं। पैगम्बर की जो छवि यहां उभरती है वह उन की विधिवत् लिखी गई जीविनयों में चित्रित उन के रूप की अपेक्षा अधिक मूर्त और मानवीय है। उसमें उनको दम्भपूर्ण विचारों और व्यवहारों के माध्यम से नहीं बल्कि उनकी सहज-साधारण जीवनचर्या के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। कोई साज-सज्जा नहीं, कोई कांतिवर्धक अवलेप नहीं, भावी पीढ़ियों के लिए कोई विशेष दिखावा नहीं। उसमें पैगम्बर के जीवन की साधारण चर्या की यथार्थ प्रस्तुति है। वहां वे हमें सोते हुए, खाना खाते हुए, मैथुन करते हुए, इबादत करते हुए, नफरत करते हुए, फैसले करते हुए, दुश्मनों के खिलाफ सैनिक अभियानों की और बदला लेने की योजनाएं बनाते हुए, मिलते हैं। इस प्रकार जो तस्वीर बनती है, उस को मनोहर तो नहीं माना जा सकता। हम विस्मय से भर कर अव्वल तो यह सोचने लगते हैं कि ये बातें आखिर लिखी-बताई ही क्यों गई और फिर यह कि ये बातें उनके प्रशंसकों ने लिखी हैं या विरोधियों ने। यह भी विस्मय का ही विषय रह जाता है कि मोमिनों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कथा इतनी प्रेरणापूर्ण क्यों लगती आई है ?

 

इसका उत्तर यही है कि मोमिनों को इन सारी बातों को श्रद्धा की दृष्टि से देखना सिखाया गया है। एक काफिर अपनी आधारभूत अन्धता के कारण पैगम्बर को इन्द्रियासक्त तथा क्रूर समझ सकता है-और निश्चित ही उनके बहुत-से कार्य नैतिकता के साधारण सूत्रों से सुसंगत नहीं हैं-पर ईमान वाले तो सारे वाकयात को अलग ही नजरिये से देखते हैं। उनके लिए नैतिकता का उद्गम ही पैगम्बर की चर्या से होता। पैगम्बर ने जो किया, वही नैतिक है। पैगम्बर के आचरण का नियमन नैतिकता द्वारा नहीं होता, वरन् उनके आचरण से ही नैतिकता निर्धारित और परिभाषित होती है।

 

इस रीति एवं इस तर्क से ही मुहम्मद के मतामत इस्लाम के धर्म-सिद्धान्त बन गये तथा उनकी निजी आदतें और स्वभावगत विलक्षणताएं नैतिक आदेश मान ली गई। वे सभी ईमानवालों के लिए सभी समय और सभी देशों में अल्लाह का आदेश मान्य हुई।

 

इस पुस्तक के शीर्षक के सम्बन्ध में भी कुछ कहना है। यह हदीस पैगम्बर का ऐसा सहज और यथार्थ चित्रण करती है कि इसे ”हदीस (सही मुस्लिम) के शब्दों में मुहम्मद“ कहना सर्वथा सम्यक् होता। पर क्योंकि इस्लाम का अधिकांश मोहम्मदवाद है, इसलिए उतने ही न्यायोचित रूप में इसे ”हदीस के शब्दों में इस्लाम“ भी कहा जा सकता है।

 

श्रद्धापरायण इस्लामी साहित्य में जब भी पैगम्बर के नाम या उनकी उपाधि का उल्लेख होता है, तो बार-बार दोहराए गए इस आर्शीवचन के साथ होता है कि ”उन्हें शांति प्राप्त हो“। इसी तरह उनके अधिक महत्वपूर्ण साथियों के उल्लेख के साथ यह दोहराया जाता है कि ”अल्लाह उन पर प्रसन्न हों।“ हमने निर्बाध पाठ की सुविधा के लिए, हदीस साहित्य से उद्धरण देते समय इन वचनों को छोड़ दिया है।

 

श्री लक्ष्मीचन्द जैन, डा0 शिशिरकुमार घोष, श्री ए.सी. गुप्त, श्री केदारनाथ साहनी और श्रीमती फ्रैन्सीन एलिसन कृष्ण ने क्रमशः पाण्डुलिपि पढ़ी और कई सुझाव दिये। श्री एच. पी. लोहिया एवं श्री सीताराम गोयल इस रचना के प्रत्येक चरण से जुड़े रहे हैं। अंग्रेजी संस्करण का सारा श्रेय दो भारतीय मित्रों को जाता है-एक बंगाल के हैं, दूसरे आन्ध्र के। दोनों अब अमेरिकावासी हैं। वे अनाम रहना चाहते हैं। श्री पी. राजप्पन आचार्य ने अंग्रेजी की पाण्डुलिपि टंकित की। श्री पंकज ने प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद किया है।

 

मैं इन सब के प्रति कृतज्ञ एवं आभारी हूँ।

रामस्वरूप

गुरुकुल

गुरुकुल

– तपेन्द्र कुमार

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को योग-दर्शन में योगांगों के प्रथम अंग ‘यम’ के रूप में स्वीकार किया गया है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के उपासना विषय में यमों का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं, ‘‘इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ द्वितीय अंग नियमों-शौच, सन्तोष, तप, स्वध्याय, ईश्वरप्रणिधान-को महर्षि यमों का सहकारी कारण लिखते हैं। यम-नियमों के पालन के बिना साधना में उन्नति नहीं हो सकती तथा सामाजिक उन्नति भी इनके बिना समभव नहीं है। इनकी पालना व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार से की जाती है। यमों का समबन्ध मुखयतः समाज से है तथा नियमों का समबन्ध मुखयतः व्यक्ति से है। इनका समबन्ध शरीर व मन दोनों से है। व्यवहार-काल में तथा व्यक्तिगत रूप से कई बार करणीय व अकरणीय का निर्णय करने में दुविधा हो जाती है, परन्तु यम-नियमों को सही रूप से समझने वाले को स्थिति स्पष्ट रहती है। जिसकी जितनी स्पष्टता होगी, उसकी प्रगति साधना में उतनी ही अधिक होगी व सामान्य जन का व्यवहार उतना ही स्पष्ट व योगाभिमुख होगा।

जीवन के लमबे प्राशासनिक काल में अनेकों ऐसे अवसर आये, जहाँ सामान्यतः व्यक्ति अपने सिद्धान्तों से पतित हो सकता है, परन्तु परमात्मा की कृपा से अनुत्तीर्ण नहीं हुए, हाँ उत्तीर्ण के प्रतिशत में अन्तर तो आया। प्राशासनिक कार्य करते हुए भी यम-नियमों के पालन की प्रतिबद्धता बनी रही, फिर चाहे कितनी भी हानि की संभावना हुई हो, या हानि हुई हो। यह प्रतिबद्धता तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण कहाँ से प्राप्त हुआ? जब विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि गुरुकुलीय जीवन का ही सर्वाधिक योगदान है।

गुरुकुल शुक्रताल के प्रथम प्रवेशित छात्रों में मैं भी था। मन में गुरुकुल शिक्षा के प्रति एक उत्साह था तथा अधिक से अधिक तप करने की भावना थी, तप करने में आनन्द आता था।

गंगा किनारे, प्रकृति की मनोरम छटा, थोड़े से मन्दिरों व धर्मशालाओं के पास गुरुकुल का भवन था, गाँव में अधिकतर झोंपडियाँ थी। गंगा के पार तरबूज, खरबूजे, ककड़ी, लौकी आदि फल-सबजियाँ उगायी जाती थीं। जंगली जानवर, भेड़िये आदि जंगल में घूमते थे। एकान्त व नीरव स्थान था। गंगा दशहरा व कार्त्तिक पूर्णिमा पर मेला लगता था, गुरुकुल का उत्सव भी होता था, जिसमें हजारों नर-नारी सत्संग व यज्ञ का लाभ उठाते थे। पौराणिकों के गढ़ में एक मात्र वैदिक संस्थान था।

मनु महाराज ने कहा है-

ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत, धर्मार्थौ चनुचिन्तयेत्।

कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।

ब्राह्म मूहूर्त में-उठना ही आज असमभव दिखायी पड़ता है। धर्म-चिन्तन आदि की तो बात ही कहाँ? केवल अर्थ चिन्तन ही चलता रहता है। गुरुकुल में रहते हुए छोटी आयु में यह श्लोक स्मरण नहीं था, परन्तु अर्थचिन्तन को छोड़कर शेष सब की पालना अनायास ही होती थी तथा लमबे समय तक दिनचर्या की आवृत्ति रहने से परिपक्व हो गयी, आदत सी बन गयी और आगे के जीवन का आधार बन गयी। प्रातःकाल जागरण, मन्त्रों का पाठ, शौच के लिए दूर जंगल में जाना, हाथ व पात्र की शुद्धि, स्वास्थ्य के लिए आसन, प्राणायाम, व्यायाम, ठण्डे पानी से खुले में स्नान, मन की शुद्धि के लिए सन्ध्या व यज्ञ तथा तदुपरान्त प्रातराश-यह दिनचर्या का अंग था। प्रातःकालीन मन्त्रों का अर्थ पता नहीं था, पुस्तक में पढ़ने बाद इतना तो ध्यान था कि परमपिता परमात्मा की उपासना कर रहे हैं। तब के स्मरण किये मन्त्र आज भी स्मरण हैं तथा उनका पाठ भी होता है। गुरुकुल में व्यायाम की ऐसी आदत पड़ गयी कि अब तक के जीवन काल में आसन, प्राणायाम, व्यायाम नहीं छूटे।

सर्दियों के दिनों में कई बार दौड़ लगाते जाते व गंगा जी में स्नान कर वापस दौड़ते गुरुकुल आ जाते। हरिद्वार में रहते गंगा जी में स्नान होता, ठण्ड का पता ही नहीं चलता था। 1998 में एक वर्ष इग्लैण्ड रहने का अवसर मिला, वहाँ सर्दी थी, पर गुरुकुल की आदत ऐसी कि पूरे वर्ष ठण्डे पानी से स्नान होता रहा। अहंकार तो था ही नहीं। गंगा जी को तैरकर पार करते, पलेजों से लौकी आदि सजियाँ माँगकर लाते तथा सभी कई दिनों तक खाते रहते। सन्ध्या व यज्ञ तो घर पर भी होता था, परन्तु घर पर सन्ध्या में निरन्तरता नहीं थी। गुरुकुल में सन्ध्या की निरन्तरता मिली तथा कुछ व्यवधानों सहित आज तक चल रही है। यज्ञ तो आज भी घर में दोनों समय होता है। यदि कोई यज्ञ-विरोधी मुझसे यज्ञ के विषय में शास्त्रार्थ करे तो मैं संभवतः आज भी उसे पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं कर पाऊँ, परन्तु गुरुकुल में तथा घर में यज्ञ की निरन्तरता से संस्कारों की परिपक्वता के कारण मन में कभी यज्ञ के प्रति विपरीत भाव नहीं आया।

शारीरिक तपस्या तो सीखी ही गुरुकुल से। कटिवस्त्र व चादर तो पूर्ण वस्त्र थे। रजाई नहीं ओढ़ी, तत पर गद्दा नहीं बिछाया। तकिये तो थे ही नहीं। गर्मी में खुले आसमान तले रेत के ऊपर दरी बिछाकर निश्चिन्तता से सोते थे। जूते नहीं पहने जाते थे। हैण्डपमप दो थे, जो हम खुद ही ठीक कर लेते थे। गुरुकुल की सफाई, पाकशाला की लकड़ियाँ फाड़ना आदि कार्य प्रसन्नता से किया जाता था। अब तो आर्यों में भी कई जगह सरनेम पूछकर जाति का पता लगाने का प्रयास होता दिखाई दे जाता है, परन्तु गुरुकुल में आचार्य से लेकर ब्रह्मचारियों व पाकशाला के सेवकों आदि की कोई जाति ही नहीं थी। पाकशाला-सेवक ब्रह्मचारियों के साथ प्रथमावृत्ति पढ़ता था। कोई ऊँच-नीच नहीं थी, सभी एक-दूसरे की सहायता करते थे। अपनी पढ़ाई की चिन्ता किये बिना बीमार ब्रह्मचारी की सेवा करना कर्त्तव्य था- मजबूरी नहीं।

नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।

दाता समः सत्यपरः दयावान् आप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।

चरक संहिता में तो अरोग रहने के इतने उपाय बता दिये, परन्तु पिज्जा-बर्गर के युग में मॉल्स में, पिक्चर हाल में जाना ही विहार है, बस जल्दी-जल्दी वे शबद रट लिये जा रहे हैं, जिनसे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके। विषयों में आसक्ति इतनी कि हाथ से मोबाइल छूटता ही नहीं तथा अपनी उम्र से पूर्व ही सभी विषयों का पता छात्र कर लेते हैं। आप्त के नाम पर पीढ़ी-परिवर्तन की दुहाई दी जाती है तथा अनुभव तो पुरातन पन्थी हो गया है। ऐसे में सत्य, क्षमा आदि कहाँ से जीवन में सीखने को मिलेगें, जब सिखाने वाले स्वयं ही इनसे अछूत हों। परन्तु गुरुकुल के प्रत्येक ब्रह्मचारी को चरक संहिता की अरोग रहने की यह कला व्यवहार से अनायास सिखाई जाती रही थी। प्रातराश में दुग्ध व दलिया सभी को मिलता था, गरीब और अमीर नहीं दे भी  जाता था, मात्रा भी लगभग नियत थी। दोपहर और साँय का भोजन दाल-सजी-चपाती के साथ पौष्टिक होता था। सांसारिक विषय तो कहीं दूर तक देखने को नहीं मिलते थे। मेले के अवसर पर भी ब्रह्मचारी मेले में घूमने जाने के उत्सुक नहीं होते थे, न हि उसके प्रति ज्यादा आकर्षण होता था। वृत्तियों का निरोध कैसे होता है, यह तो नहीं जानते थे, परन्तु गुरुकुल के परिवेश में वृत्तियों का निरोध स्वभावतः होता रहता था, दर्शन के सिद्धान्त पढ़े बिना भी।

आचार्यों एवं सन्यासियों का आगमन होता रहता था। उनकी सेवा का अवसर लेने की होड़ लगी रहती थी। स्वामी वेदानन्द जी महाराज को स्नान करने का बहुत शौक था, कई बाल्टी पानी से स्नान करते थे। हम हैण्डपमप की हत्थी को पकड़ कूद-कूद कर बाल्टी भरते रहते थे, थकने पर दूसरा ब्रह्मचारी तैयार रहता था। आशीर्वाद मिलता था, जीवन जीने के रहस्य प्राप्त होते थे। देने का भाव, सुख-दुःख में समानता का भाव, सत्य के प्रति झुकाव तो जैसे दिनचर्या का अंग थे। यह अलग बात है कि उनमें गति अलग-अलग थी, परन्तु महत्त्वपूर्ण यह था कि ये विचार जन्म लेकर मन में पनपने लगे थे। परिग्रह के नाम पर दो-तीन जोड़ी कपड़े, किताबें, आवश्यक बिस्तर के अलावा कुछ नहीं होता था। सत्य की पालना भी सामान्य विद्यालयों से कहीं ज्यादा थी। मुखय कार्य ही अध्ययन था, सांसारिक विषयों की पुस्तकों-शाकुन्तलम्-आदि की पढ़ाई तो थी नहीं।

व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक क्षमता से उसमें निडरता आती है-यह माना जाता है, सही भी है, परन्तु अभय का कारण तो आत्मिक बल ही होता है और वह प्राप्त होता है ईश्वर प्रणिधान से। गुरुकुल में रहते किसी प्रकार कााय मन में व्याप्त नहीं था, क्योंकि परमपिता परमात्मा पर श्रद्धा थी एवं आस्था थी कि ईश्वर के रास्ते चलने वाले का बुरा नहीं हो सकता। सिद्धान्त तो उस समय स्पष्ट नहीं थे, परन्तु जीवन में जिये जा रहे थे। अहिंसा की परिभाषा सामान्यतया यह बना दी गयी है कि किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा नहीं करना, जो हानि पहुँचा रहा है उसका भी विरोध नहीं करना-उसके प्रति भी हिंसा की भावना नहीं रखना। गुरुकुल में अहिंसा की विभिन्न परिभाषाओं का तो पता नहीं था, परन्तु प्रातः भ्रमण के समय, रात को सोते समय सभी ब्रह्मचारी कान तक लमबी लाठी रखते थे तथा यह भावना नहीं थी कि रास्ते चलते कोई कुत्ता काटने आवे तो उससे अपना पैर बचाया ही न जावे व कटवा लिया जावे, बल्कि दण्ड का प्रयोग करके उसे भगाया जावे व अपनी हानि नहीं होने दी जावे। यदि कोई चोरादि आ जावे तो उसके सामने समर्पण नहीं करके उसे दण्ड से रोका जावे। कुत्ते व चोर के प्रति सुधार की भावना मन में रखनी है यह पता तो नहीं था, यह तो बाद में स्वाध्याय से पता चला, परन्तु मोटे रूप में अहिंसा का जो रूप गुरुकुलीय पद्धति में अनायास सीखा जा रहा था, वह जीवन जीने के लिए महत्त्वपूर्ण था, संभवतः सिद्धान्त के नितान्त विपरीत भी नहीं था।

ब्रह्मचारी बलदेव जी नैष्ठिक का बलिष्ठ शरीर एवं दबंग आवाज हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती थी। जब वे गुरुकुल के उत्सव पर हजारों की संखया में उपस्थित श्रोताओं को अपने सारगर्भित उपदेश देते थे तो पंडाल में हर कोई शान्ति से उन्हें व केवल उन्हें ही सुनता था। उनको देखकर गृहस्थियों के मन में अपने पुत्रों को गुरुकुल में भेजने-ब्रह्मचारी बनाने की भावना जग आती थी। यही कारण था कि सैकड़ों की संखया में गुरुकुल में ब्रह्मचारी पढ़ते थे। ब्रह्मचारी जी सबके प्रेरणा स्रोत थे तथा अधिकांश छात्र उन जैसा बलिष्ठ शरीर व भाषण कला प्राप्त करना चाहते थे।

रात्रिकालीन भोजन के बाद श्लोक-पाठ होता था, कुछ के अर्थ स्मरण थे, कुछ के नहीं थे। एक श्लोक गाते थे-

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्या,

सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला,

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।

– भर्तृ. वैराग्य.

सचमुच गुरुकुल में जो पहनते थे, जो पढ़ते थे, जो खाते थे, जो सोचते थे, जो व्यवहार करते थे-संसार की नजरों में वह प्रशंसनीय हो या न हो-उन सब से सन्तुष्ट ही नहीं थे, अपितु उससे अन्य को हेय दृष्टि से देखते थे। आत्महीनता की भावना नहीं थी, बल्कि आत्मसमान था, गर्व था। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो यह परितोष पूरे जीवन में नजर आता है। मेरे पास दूसरे अधिकारियों की तरह धन-सपत्ति आदि तो नहीं है, मेरा रहन-सहन भी तथाकथित उच्च स्तरीय नहीं रहा है, परन्तु गुरुकुल से प्राप्त प्रेरणा से जीवन में सन्तोष तो रहा ही, चमक-दमक के प्रति आकर्षण नहीं रहा तथा आत्मसमान का भाव रहा। कभी ऐसा भी महसूस नहीं हुआ कि हमें भी दूसरों के रास्ते पर चलना चाहिये था, बल्कि यह भाव आया कि परमपिता परमात्मा की कृपा से यथासंभव पाप भी जानबूृझकर नहीं कमाया तथा संस्कारों को भी दूषित होने से बचाया।

कमियाँ व्यक्तियों में हो सकती हैं, संस्थाओं में हो सकती हैं, परन्तु ऋषियों की बतायी गुरुकुल शिक्षा-पद्धति में कमियाँ नहीं हो सकतीं। यह पद्धति व्यक्ति में मानवीय गुणों का समावेश कर उसका निर्माण करती है, जिससे परिवार, समाज व राष्ट्र का सही निर्माण होता है। आज की शिक्षा-पद्धति जो केवल धन कमाने तक सीमित हो गयी है, अक्षर-ज्ञान जिसका ध्येय है, उससे नैतिकता का विकास नहीं हो सकता, फलतः व्यक्ति व समाज का सर्वांगीण विकास करने में यह सक्षम नहीं है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार का समानान्तर विकास ही उच्च आदर्शयुक्त समाज का निर्माण कर सकता है जो गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के उज्ज्वल पक्ष को अंगीकार कर ही संभव है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो जिस गति से समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, उसे रोका जाना असमभव होगा तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का उद्घोष मात्र उद्घोष ही रह जावेगा। श्रेष्ठ व्यक्ति चिन्तित हैं, अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार गुरुकुल पद्धति का प्रसार कर रहे हैं, परन्तु अर्थकरी विद्या की अवधारणा हो जाने से उनके प्रयास पूर्ण सफल नहीं हो पा रहे हैं। अतः गुरुकुल पद्धति की पुनर्स्थापना के लिए समाज के सहयोग के साथ-साथ सरकार का संरक्षण नितान्त आवश्यक है।

कुरान समीक्षा : कुरान में जन्नत के नजारे

कुरान में जन्नत के नजारे

कुरान में जन्नत के नजारों को क्या सही साबित किया जा सकता है या ये नासमझ अय्याश अरबी लोगों को फुसला कर इस्लाम में भरती करने का फर्जी लालच की बातें हैं?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

उलाइ-क लहुम् जन्नातु अदनिन्…………।।

(कुरान मजीद पारा १५ सूरा कहफ रूकू ४ आयत ३१)

यही लोग है जिनके रहने के लिए जन्नत में बाग हैं इन लोगों के मकानों के नीचे नहरें बह रहीं होंगी। वहाँ सोने के कंगन पहनाये जायेंगे और वह महीन और मोटे रेश्मी हरे कपड़े पहनेंगे। वहाँ तख्तों पर तकिये लगाये बैठेंगे। क्या खूब बदला है और क्या खूब आरामगाह है?

इन्-न ल-क अल्ला तजू-अ…………।।

(कुरान मजीद पारा १६ सूरा ताहा रूकू ५ आयत ११८)

और यहाँ (जन्नत में) तुमको ऐसा सुख है कि न तो तुम भूखे रहोगे न नंगे।

व अन्न-क ला तअ्मउ फीहा व ला…………।।

(कुरान मजीद पारा १६ सूरा ताहा रूकू ५ आयत ११९)

और यहां न तुम प्यासे होवोगे और न धूप में रहोगे ।

फवाकिहु व हुम् मुक्रमून………..।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साफ्फात रूकू २ आयत ४२)

खाने को मेवे और इनकी इज्जत होगी।

अला सुरूरिम्-मु-त-कालिबिलीन……………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साफ्फात रूकू २ आयत ४४)

नेतम के बागों में आमने सामने होंगे।

बैजा-अ लज्जतिल्-लिश्शारिबीन………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साफ्फात रूकू २ आयत ४६)

सफेद रेग वाली शराब पीने वालों को मजा देगी।

ला फीहा गौलुं व्-व ला हुम्…………..

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साफ्फात रूकू २ आयत ४७)

न उससे सर घूमते हैं और उसको पीने के बाद बकते हैं।

व अिन्दहुम् कासिरातुत्तर्फि………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साफ्फात रूकू २ आयत ४८)

उनके पास नीची निगाह वाली बड़ी-बड़ी आँखों वाली औरतें (हूरें) होंगी।

क-अन्नहुन्-न बैजुम्-मक्नून्…………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साफ्फात रूकू २ आयत ४९)

………गोया वह छिपे अण्डे रखे हैं

जन्नाति अद्निम्-मुफत्त-तल्……….।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साद रूकू ४ आयत ५०)

हमेशा रहने को जन्नत के बाग जिनके दरवाजे उनके लिए खुले होंगे।

मुत्तकिई-न फीहा यद्अू-न फीहा………..।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साद रूकू ४ आयत ५१)

उनमें तकिया लगाकर बैठेंगे, वहाँ जन्नत के नौकरों से बहुत मेवे और शराब मंगावेंगे।

व अिन्दहुम् कासिरातुत-तर्फि…………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा साद रूकू ४ आयत ५२)

उनके पास नीची नजर रखने वाली हूरें होंगी और हम उम्र होंगी।

उद्खुलुल्-जन्न-त अन्तुम् व……….।।

(कुरान मजीद पारा २५ सूरा जुरूरूफ रूकू ४ आयत ७०)

तुम और तम्हारी बीबियाँ जन्नत में दाखिल हों ताकि तुम्हारी इज्जत की जावे।

युताफु अलैहिम् बिसिहाफिम्……….।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा जुरूरूफ रूकू ४ आयत ७१)

उन पर सोने की रकाबियाँ चलेंगी और जिस चीज को उनका जी चाहे और नजर में भली मालूम हो जन्नत में होंगी और तुम हमेशा यहीं रहोंगे।

कजालि-क जव्वज्-नाहुम………..।।

(कुरान मजीद पारा २५ सूरा दुखान रूकू ३ आयत ५४)

ऐसी ही होगा बड़ी-बड़ी आंखों वाली हूरों से हम उनका ब्याह कर देंगे।

म-सलुल्-जन्नतिल्लती बुअिदल्……….।।

(कुरान मजीद पारा २६ सूरा माहम्मद रूकू २ आयत १५)

(जन्नत में) ऐसी पानी की नहरें हैं जिनका स्वाद नहीं बदला और शराब की नहरें हैं जो पीने वालों को बहुत ही मजेदार मालूम होंगी और साफ शहद की नहरें हैं और उनके लिए वहां हर तरह के मेवे होंगे।

मुत्तकिई-न अला सुरूरिम्………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा तूर रूकू १ आयत २०)

हमने बड़ी-बड़ी आँखों वाली हूरें उनको ब्याह दी हैं।

व अम्द द्नाहुम् विफाकिह तिंव……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा तूर रूकू १ आयत २२)

जिस मेवे और मांस को उनका जी चाहेगा हम उनको देंगे।

य-त-नाज अू-न फीहा कअ्-………….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा तूर रूकू १ आयत २३)

वह वहाँ आपस में शराब के प्यालों की छीना झपटी करेंगे, उनमें उसे पीने से न बकवाद लगेगी और न कोई गुनाह होगा।

व यतू फु अलैहिम् गिल्मानुल………….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा तूर रूकू १ आयत २४)

और लड़के अर्थात! गिलमें उनके पास आयेंगे जायेंगे, गोया यत्न से रखे हुए मोती के मानिन्द हैं।

मुत्तकिई-न अला फुरूशिम्………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान रूकू २ आयत ५४)

फरशों पर तकिये लगाये बैठे होंगे। ताफ्ते और उनके अस्तर होंगे। और दोनों बागों के फल झुके होंगे।

फीहिन-न कासिरातुत्तर्फि………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान रूकू २ आयत ५६)

उनमें पाक हूरें होंगी जो आँख उठाकर भी नहीं देखेंगी और जन्नत वासियों से पहले न तो किसी आदमी ने उन पर हाथ डाला होगा और न जिन्न ने।

फी हिन्-न खैरातुन् हिसान………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान रूकू २ आयत ७०)

उनमें अच्छी खूबसूरत औरतें होंगी।

हुरूम्-मक्सूरातुन् फिल- खियामि……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान रूकू २ आयत ७२)

हूरें जो खेमों में बन्द हैं।

मुत्तकिई-न अला रफरफिन्……….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान रूकू १ आयत ७६)

जन्नती लोग वहाँ सब्ज कालीनों और उम्दा उम्दा फर्शों पर तकिये लगाये बैठे होंगे।

अला सुरूरिम्-मौजूनतिम्…………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा वाकिआ रूकू २ आयत १५)

जड़ाऊ तख्तों के ऊपर।

युतुफु अलैहिम् विल्दानुम-मु………….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा वाकिआ रूकू २ आयत १७)

उनके पास लड़के हैं जो हमेशा लड़के ही बने रहेंगे।

बि-अक्वाबिंव्-व अबारी-क…………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा वाकिआ रूकू २ आयत १८)

उनके पास आबखोरे और लोटे और साफ शराब के प्याले लाते और ले जाते होंगे।

व हूरून् अीनुन्……………।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा वाकिआ रूकू २ आयत २२)

और हूरें बड़ी-बड़ी आँखों वाली जैसे छिपे हुए मोती।

इन्ना अन्शअ्नाहुन्-न इन्शा-अन्…………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा वाकिआ रूकू २ आयत ३५)

हम हूरों की एक खास सृष्टि बनाई है।

फ-ज-अल्नाहुन-न अब्कारन्………..।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान वाकिआ २ आयत ३६)

फिर इनको क्ंवारी बनाया है।

अरूबन् अत्राबल………….।।

(कुरान मजीद पारा २७ सूरा रहमान वाकिआ २ आयत ३७)

प्यारी-प्यारी समान अवस्था वाली।

लाकिनिल्-लजीनत्तकों रबहुम्………..।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा जुमर रूकू २ आयत २०)

जन्नत में खिड़कियों पर खिड़कियाँ बनी होती हैं

मुत्तकिई-फीहाअलल्-अराइकि ला…………..।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह रूकू १ आयत १३)

न वहां धूप देखेंगे न ठण्ड।

व दानि -य-तन् अलैहिम् जिला…………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह्र रूकू १ आयत १४)

वहां वृक्षों की छाया होगी उनके फल भी नजदीक झुके होंगे।

व युताफु अलैहिम् बिआनि-यतिम्…………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह्र रूकू १ आयत १५)

वहां चांदी के बर्तनों और गिलासों का दौर चल रहा होगा कि वह शीशे की तरह होंगे।

व युस्कौ-न फीहा कअ्-सन्……….।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह्र रूकू १ आयत १७)

वहां उनको शराब के ऐसे प्याले पिलाये जायेंगे, जिसमें सौंठ मिली होगी।

व यतुफ् अलैहिम् विल्दानुम्………..।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह्र रूकू १ आयत १९)

और उनके नजदीक नौजवान लड़के फिरते हैं।

आलि-यहुम् सियाबु सुन्दुसिन्…………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह्र रूकू १ आयत २१)

और उनका परवरदिगार उन्हें निहायत पाक शराब पिलावेगा।

इन्नल्-अब्रा-र यश रबू…………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा दह्र रूकू १ आयत २५)

निःसन्देह सुकर्मी ऐसी शराब के प्याले पीवेंगे जिनमें कपुर की मिलावट होगी।

व कवाअि-ब अत-राबत्……..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा नबा रूकू २ आयत ३३)

और नौजवान औरतें हमउम्र।

व कअ्-सन् दिहांका……….।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा नबा रूकू २ आयत ३४)

और शराब के छलकते हुए प्याले।

युस्कौ-न मिर्रहीकिम्-मखतूम………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुतफ्फिफीन (तत्फीफ) रूकू १ आयत २५)

उनको खालिस शराब मुहरबन्द अर्थात शील लगी हुई पिलाई जायेगी।

खितामुहू मिस्क व फी जालि-क……..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुतफ्फिफीन (तत्फीफ) रूकू १ आयत २६)

जिस (बोतल) की मुहर कस्तूरी की होगी और इच्छा करने वालों को चाहिये कि उसी की इच्छा करें।

जन्नत में हूरों का बाजार होगा

हजरत अब्दुल्लाबिनउमर ने फरमाया कि स्वर्ग में रहने वालों में से अदना (सबसे छोटे) दर्जे का वह आदमी होगा जिसके पास ६० हजार सेवक होंगे और सेवक का काम अलग-अलग होगा। हजरत ने फरमाया कि हर जन्नति ५०० हूरें, ४००० क्ंवारी औरतें और ८००० ब्याहता औरतों से ब्याह करेगा। कुरान पश्चिम तथा                                                       (सही बुखारी)

जन्नत (स्वर्ग) में एक बाजार है जहाँ पुरूषों और औरतों के हुस्न का व्यापार होता है। पस! ज्ब कोई व्यक्ति किसी सुन्दर स्त्री की ख्वाहिश करेगा तो वह उस बाजार में आवेगा जहाँ बड़ी- बड़ी आँखों वाली हूरें जमा हैं। वे कहेंगी कि-

‘‘मुबारिक है वह शख्स जो हमारा है और हम उसकी हैं।’’

(मिर्जा हैरत देहलवी कृत तफसिरूल कुरान सफा ८३ व ८४)

हजरत अंस ने फरमाया‘‘ हूरें गाती हैं, हम सुन्दर दासियाँ हैं, हम प्रतिष्ठित पुरूषों के लिए सुरक्षित हैं।’’

(कुरान परिचय पृष्ठ ११७ तथा मुकद्दमाये तफसीरूल्कुरान पृष्ठ ८३)

ह-दाइ-क व अअ्-नाबंव………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा नबा रूकू २ आयज ३२)

खाने को अंगूर और मेवे होंगे।

व कवाअि-ब अत-राबव्………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा नबा २ आयज ३३)

भौगने को नौजवान औरतें हम उम्र।

फीहा अैनुन् जारियः…………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा गाशियः रूकू १ आयत १२)

वहाँ चश्में बह रहे होंगे।

फीहा सुरूरूम्-मर्फूअतुव्……………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा गाशियः रूकू १ आयत १३)

उससे ऊँचे तख्त होंगे।

व अक्वा-बुम्-मौजूअतु व्…………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा गाशियः रूकू १ आयत १४)

उसमें आबखोरे रखे होंगे।

व नमारिकु मस्फू फतुं व…………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा गाशियः रूकू १ आयत १५)

गाव तकिये एक पंक्ति में लगे होंगे।

व जरा बिय्यु मब्सूस………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा गाशियः रूकू १ आयत १६)

और उम्दा मसनद व कालीन बिछे होंगे।

दर मुख्तार हदीस जिल्द २ सफा १०६ पर लिखा है-

जन्नत में अप्राकृतिक व्यभिचार अर्थात् गुदा मैथुन करना जायज है।

समीक्षा

अरब के लोगों में अप्राकृतिक व्यभिचार लड़को से करने का रिवाज था यह कुरान में मौजूद है जहाँ हजरत लूत के यहाँ आये दो खूगसूरत लड़को (फरिश्तों) को देखकर सारी बस्ती के लोगों को उनसे सम्भोग करने को एकत्रित होने की घटना से स्पष्ट है जो कि कुरान में जगह-जगह पर आता है-

व लूतन इज् का-ल लिकौमिही…………..।।

(कुरान मजीद पारा ८ सूरा आराफ रूकू १० आयत ८१)

………तुम ऐसा बेहयाई का काम क्यों करते हो, जिससे तुमसे पहले किसी ने नहीं किया।

इन्नकुम् ल-तअ्तनर्रिजा-ल शह्……………।।

(कुरान मजीद पारा ८ सूरा आराफ रूकू १० आयत ८१)

यानी अपने मजे की खातिर औरतों को छोड़कर लौड़ों पर गिरते हो अर्थात लौंडेबाजी करते हो।

व जा- अहू कौमुह युह्रअू-न इलैहि………।।

(कुरान मजीद पारा ११ सूरा हूद रूकू ७ आयत ७८)

जैसे लूत की कौम के लोग उनके पास से बे-तहाशा दौड़ते हुए आये, और ये लोग पहले ही से ये गन्दा काम (लौंडे बाजी) किया करते थे। लूत ने कहा कि ऐ कौम !

यह मेरी लड़कियां जो पाक और जायज हैं, ये तुम्हारें लिये हैं, पर आप लोग खुदा से ड़रो और मेरे मेहमानों में मेरी आबरू न खोओ, क्या तुमसे से कोई भला आदमी नहीं है?

का-ल-हाउल्लाह बनाती इन् कुन्तुत्………।।

(कुरान मजीद पारा १४ सूरा हिज्र रूकू ५ आयत ७१)

(उन्होनें) कहा कि अगर तम्हें (सम्भोग) करना ही है तो यह मेरी (कौम की) लड़कियां हैं इनसे शादी कर लो।

ल अम्रू-क इन्नहुम् लफी सक……………।।

(कुरान मजीद पारा १४ सूरा हिज्र रूकू ५ आयत ७२)

(ऐ मुहम्मद) तुम्हारी जान की कसम! वे अपनी मस्ती में मदहोश थे और मेरी बेआबरू अर्थात् गुदा मैथुन करने पर उतारू थे।

व लूतन् इज् का-ल लिकौमिही………..।।

(कुरान मजीद पारा १९ सूरा नम्ल रूकू ४ आयत ५४)

और लूत को याद करो जब उन्होंने अपनी कौम से कहा कि तुम बेहयाई अर्थात् लौंडेबाजी के काम क्यों करते हो?

अ-इन्नकुम ल-तअ्तूनर्-रिजा-ल…………..।।

(कुरान मजीद पारा १९ सूरा नम्ल रूकू ४ आयत ५५)

क्या तुम औरतों को छोड़कर लज्जत हासिल करने के लिए मर्दों अर्थात् लौंड़ों की तरफ मायल होते हो? सच तो यह है कि तुम लोग लौंडेबाजी करने के कारण जाहिल लोग हो।

व लूतन् इज् का-ल लिकौमिही………..।।

(कुरान मजीद पारा २० सूरा अंकबूत रूकू ३ आयत २८)

और लूत ने जब अपनी कौम से कहा कि तुम बेहयाई अपनाते हो, तुमसे पहले दुनिया वालों में से किसी ने ऐसा (गन्दा) काम नहीं किया।

व इन्नकुम् ल- तअ्तूनर-रिजा-ल……….।।

(कुरान मजीद पारा २० सूरा अंकबूत रूकू ३ आयत २९)

क्या तुम अपने मजे के लिए लौंडों की तरफ भागते रहते हो और मुसाफिरों की लूटमार करते रहते हो और अपनी मजलिसों में नापसन्दीदा काम करते रहते हो।

यह सुनकर उनकी कौम के लोग बोले-अगर मुम सच्चे (पैगम्बर) हो तो हमारे ऊपर कोई अजाब (दुख) लाकर दिखाओ।

का-ल रब्बिन्सुर्नी अ- लल्कौमिल्………….।।

(कुरान मजीद पारा २० सूरा अंकबूत रूकू ३ आयत ३०)

हजरत लूत ने कहा कि-

ऐ मेंरे परवरदिगार! इन फसादी लोगों के मुकाबले में मुझे नुसरत इनायत फरमा।

पारा २० सूरा अनाबूत रूकू ३ आयत २८ व २९ के वर्ण से स्पष्ट है-

बेशुमार औरतों से विवाह करना, रखेलें, बाँदियों से व्यभिचार करना अरब में जायज था।

शराबखोरी वहां पर आम थी। उनकी आदतों को देखकर मुहम्मद साहब ने उनको उपने नये मजहब में लाने के लिए जन्नत अर्थात् स्वर्ग में शराबें, औरतें अर्थात् हूरें वे गिलमें अर्थात् खूबसूरत लोंडों का लालच दिया था जिसके चक्कर में फंसकर सैकड़ों ही अय्याश लोग इस्लाम में शामिल हो गये थे। डकैत व बदमाशों को लूट का लालच देकर इस्लाम में खींचा था उसका वर्णन भी इसी पुस्त में दिया गया है।

गैर मुस्लिमों को कत्ल करने या इस्लाम स्वीकार कराने का हुक्म भी दिया गया था और कत्ल करने वालों को जन्नत मिलने का प्रलोभन दिया गया था। जन्नत अर्थात् स्वर्ग की इस कल्पना का केवल यही रहस्य है।

वास्तव में इस प्रकार की जन्नत अर्थात् स्वर्ग का होना स्म्भव नहीं जहाँ खुदा मनुष्यों को व्यभिचार के अलावा कोई ऊँची शिक्षा न दे सके।

शराब, गोश्त व लोंडे और औरतों की भरमार के अतिरिक्त अरबी खुदा की जन्नत में और कुछ भी नहीं है।

इस कुरानी बहिश्त की कल्पना पर इस्लाम के सुप्रसिद्ध विद्वान ‘‘मौलाना सर सैय्यद अहमद खाँ’’ ने अपनी पुस्तक ‘‘तफसीरूल्कुरान भाग १ पृष्ठ ३३’’ पर लिखा है, जो कुरानी जन्नत की असलियत का पर्दाफाश कर देता है।

देखिए- मौलाना सर सैय्यद अहमद खाँ की राय-

‘‘यह समझना कि स्वर्ग एक बाग के रूप में उत्पन्न किया हुआ है और संगमरमर और मोती के जड़ाऊ महल हैं तहां शरसब्ज (हरे भेर) पेड़ हैं, दूध शराब और शहद की नहरें बह रही हैं हर तरह के मेवा खाने को मौजूद हैं।

साकी व साकनीन (शराब देने वाली) अत्यन्त खूबसूरत चाँदी के गहने पहने कंगन पहने हुए जो हमारे यहाँ घोसिनें पहनती हैं, शराब पिला रही हैं और एक जन्नती (स्वर्ग) निवासी एक हूर के गले में हाथ डाले पड़ा है, एक ने रान (उसकी जांघ) पर सर रखा है, एक छाती से लपिट रहा है, एक ने बख्श (प्राणदायी) अधर होठ का बोसा लिया है, कोई किसी कोने में अय्याशी की हालत में पड़ा हुआ है, वहां कु़छ ऐसा बेहूदापन है जिस पर आश्चर्य होता है।

यदि यही बहिश्त (स्वर्ग) है तो बिना मुबालिगा अर्थात् बिना सोचे समझे हम यह कह सकते हैं कि-

‘‘हमारे खराबात अर्थात् वेश्यालय इससे हजार गुना बेहतर हैं।’’

देखिये जन्नत के बारे में मशहूर शायर गालिब ने भी कहा था कि-

हम खुब जानते हैं, जन्नत की हकीकत, गालिब। दिल के बहलाने को मगर ये ख्याल अच्छा है।।

।। समाप्त।।

हिन्दुओं के साथ विश्वासघात

हिन्दुओं के साथ विश्वासघात

– चन्द्रिका प्रसाद

आह! क्या हृदय है? धर्म के स्थान में अधर्म, पुण्य के स्थान में पाप, सदाचार के स्थान पर दुराचार, ज्ञान के स्थान में मूर्खता, सत्यता के स्थान में छल-कपट, प्रेम और समाज-संगठन के स्थान में द्वेष और कलह! हा भारत! तुझे कैसेायङ्कर रोगों ने आ घेरा! जिस जाति में कभी व्यास जैसे ऋषि ने एक ईश्वर की पूजा का वेदोक्त उपदेश सुनाया हो, जिस जाति में राम और जनक जैसे सच्चे ईश्वर-भक्त रहे हों, आज उसमें एक ओर से ‘‘अहम्ब्रह्म’’ ध्वनि आ रही है तो दूसरी ओर से ‘‘नास्तिकता’’ का अलाप सुनाई पड़ता है। आज कहीं यह वितण्डा खड़ा है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों में कौन बड़ा और कौन छोटा है और इनकी धर्म पत्नियों की शक्तियाँ एक-दूसरे से कितनी बढ़-चढ़कर हैं। कहीं लोग पशु-पक्षी, पर्वत, नाले और चौराहे पर माथा रगड़ रहे हैं। हा! 33 करोड़ देवता मानती हुई आज वह जाति विधर्मियों के ताजिया, मदार, फकीरों और कब्रों पर भक्तिभाव से रेवड़ियाँ माँगती फिरती है। भोली-भाली स्त्रियाँ अपने बीमार बच्चों का इलाज न करके मुसलमानों से फुकवाती फिरती हैं। मुसलमान इन स्त्रियों को ठगते हैं और समय पाकर उठा ले जाते हैं।

जहाँ विद्वान्, ब्रह्मवेत्ता, ऋषि-मुनि यज्ञ व अग्निहोत्र से भारत को स्वर्गमय बना रहे थे, आज वही आलसी, मूर्ख, पाखण्डी, संन्यासी बनकर व्यभिचार और गाँजा-चरस आदि का प्रचार कर दरिद्र भारत का मटियामेट करने पर तुले हैं। जिन देव-स्थानों में महात्माओं के उपदेश और धर्मकार्य होते थे, आज वहाँ लपट, गँवार व्यभिचार और अत्याचार कर रहे हैं। अहिंसाव्रतधारी कृष्णगोपाल का नाम लेने वाली जाति आज गौओं को कसाइयों के हाथ बेच पेट पाल रही है। आज वह नित सहस्रों गाय, भैंसे, बकरे और शूकर के रक्त की नदी बहा रही है। प्यारे भारत! तुझ में भयङ्कर परिवर्तन आ गया। जहाँ विद्या और धन प्राप्त कर लोग परोपकार करते थे, आज वह उसके द्वारा दूसरों को ठगने और सर्वस्व छीन लने का यत्न करते हैं। आज विद्या के ठेकेदार चोरी, जारी और दुष्कर्म के लिये शुभ घड़ी और जाप बताते फिरते हैं, तमबाकू, गाँजा, चरस, मदिरा, माँस आदि के दोषों को संस्कृत के श्लोकों से ढाँप देते हैं।

सीता, सरस्वती जैसी विदुषि स्त्रियों को नित स्मरण करने वाली जाति ने आज अपने समाज की शोभा बढ़ाने वाली स्त्रियों को विद्या-लाभ से वञ्चित करके उन्हें पशु संज्ञा में मिला दिया है। युवतियों, निर्बल बालकों और छोटी-छोटी बालिकाओं को मनचले वृद्धों के हाथ पशु समान बेचा जा रहा है। हा! आज इस जाति में छोटे-छोटे बालक बालिकायें गृहस्थाश्रम को कलंकित कर रही हैं। एक-दो वर्ष की बालिकायें वैधव्य की अग्नि में जल रही हैं। यही विधवायें बहकाने से निकल भागती हैं। भागे भी क्यों नहीं? जब आप उनको समान की दृष्टि से नहीं देखते तो वे चट मुसलमान और ईसाई हो जाती हैं, क्योंकि वहाँ उनका आदर है। इनकी रक्षा के लिये विधवा आश्रम खुल जाना चाहिये। बाल-विधवाओं का विवाह तो अवश्य ही कर देना चाहिये।

जो जाति कभी संसार की गुरु थी, आज वह अन्धकार अन्धविश्वास में मर रही है। जिसकी विद्या और कला कभी उन्नति के शिखर पर पहुँची थी, आज वह बेचारी दियासलाई और सुई के लिये दूसरों का मुँह तकती है। हाँ! जिस जाति में सामर्थ्यवान् दुर्बलों की रक्षा, सहायता करते थे, आज वह उनका रक्त चूस-चूस आनन्द मना रहे हैं। जहाँ शबरी जैसी भीलनी तप करती रही हों, जाबालि आदि ऋषिपद को प्राप्त हुये हों, वहाँ आज शूद्रों को अधिकार से वञ्चित कर प्रभु राम की शरण से निकाल स्वयम् ही यीशू व मुहमद की भेंट कर पीछे ‘‘हाय दादा’’ और ‘‘हाय गोमाता’’ कहकर सर पीटना होता है।

जिस जाति में कभी हरिश्चन्द्र जैसे वीर दानी थे, जो कि चील कौओं तक को प्रेम से आहार देती थी, आज वह अपने अनाथबालकों को कलेजे से लगा नहीं सकती, आज वह निर्दयी, निर्लज्ज होकर उन्हें विधर्मियों को सौंप रही है। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि हम अनाथों की रक्षा न कर सके और उनकी रक्षा ईसाई और मुसलमानों की हाथ से होवे। सहस्रों शिखा-सूत्र-धारी अपने पवित्र धर्म को तिलाञ्जलि दे प्रभु यीशू और मुहमद की गोद में चले जा रहे हैं। जो शेष हैं उन्हें भी पश्चिमी सभयता छैल-छबीली बनकर मोहित कर रही है। भगवन्। क्या अब ऋषि मुनियों की सन्तान अन्य जातियों के समान संसार पृष्ठ से लोप हुआ चाहती है। ऐ राम नाम लेवा जाति! यदि अपनी इस दुर्दशा व इस अधोगति को देख तेरे नेत्रों से अश्रुधारा न बह निकली, तो हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि तेरी रगों में मानों उनके वंश का रक्त ही नहीं रहा। भला कौन ऐसा भारत-जननी का लाल होगा जो ऐसे समय में यह न चाहता हो कि कोई हमारी कुप्रथाओं एवं कुरीतियों को रोक हमें धर्म-पथ पर लगा दे। हम इसे अनुभव करते हैं पर किसी में इतनी विद्या, इतना आत्मबल नहीं कि हर प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट इस जाति की बिगड़ी को बनाने का साहस कर सके। हम तो स्वार्थ के वश फँसे हैं, हाँ में हाँ मिलाने वाले हैं, बन्दर-भभकी में आ जाने वाले, किञ्चित लाभ के लिये आत्मघात करने वाले, अपने नाम और प्रशंसा के गीत सुनने वाले हैं। यह कार्य तो हमारे जैसों का नहीं। यह तो किसी बाल ब्र्रह्मचारी, सत्यव्रतधारी, महात्यागी, अद्वितीय वेदवेत्ता, धर्म के नेता, ईश्वर के पूर्णविश्वासी, सच्चे तपस्वी का है, जो सुख-दुःख निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, प्रतिष्ठा व तिरस्कार, किसी ओर ध्यान न देकर परोपकारार्थ अपने सर्वस्व को तिलांजलि दे दे। ऋषि दयानन्द का नाम आज संसार में कौन नहीं जानता। ईश्वर के सच्चे भक्त ऋषि ने बाल्यावस्था से मृत्युपर्यन्त यदि कोई विचार किया तो केवल मनुष्यमात्र के कल्याण का, अपनी जाति के सुधार का, भारत के उद्धार का। इस धुन में ऋषि ने महान् कष्ट सहा, बड़ा परिश्रम किया, सहस्रों ग्रन्थों की छानबीन की, बड़ा तप किया। अन्त में ईश्वरीय ज्ञान के भण्डार वेदों के अमृतमय बूटी द्वारा उन्हें शान्ति प्राप्त हुई। इस संजीवन बूटी को लेकर दयानन्द संसार के प्राणीमात्र को अमृतपान कराने आये। वेदों के कर्म को जानकर ऋषि ने सिंहनाद से सोती हुई जाति को जगा दिया।

जब हम पश्चिमी सभयता की गोद में पल रहे थे, जब हमें लोग उपदेश दे रहे थे कि हमारे पूर्वज शराब पीने वाले, जुआ खेलने वाले, और हमारे वेद गड़रियों की गीत हैं, तब ऋषि ने आकर दर्शाया कि नहीं, हमारे वेद संसार की समस्त विद्याओं के भण्डार और ईश्वरीय ज्ञान हैं और हम ऋषि मुनियों की सन्तान हैं। हमारे राम और सीता जैसी महान् आत्माएँ संसार की किसी अन्य जाति ने आज तक उत्पन्न नहीं की। इस प्रकार ऋषि ने दिखला दिया कि प्राचीन इतिहास गौरवशाली था। ऋषि ने हमारा मुख पश्चिम से पूरब की ओर फेर दिया। आज हम में वेदों के लिये श्रद्धा उत्पन्न हो गई, आज हम में आत्म-समान का भाव उत्पन्न हो गया और यह किसी जाति के जागने का पहला चिह्न है। ऋषि दयानन्द ने बतलाया कि वेदों के पठन-पाठन के बन्द होने तथा उनकी व्याखया की शुद्ध-प्रणाली के क्षय होने से यह अन्धकार भारत और संसार में छाया। यह परमात्मा की वाणी मनुष्यमात्र के कल्याण के लिये है। इनका प्रचार करो, इनकी शिक्षा का सारे भूमण्डल में विस्तार करो। बालक-बालिकाओं को ब्रह्मचर्य धारण करा गुरुकुलों में भेजो। एक ईश्वर की पूजा करो। नित्य संध्या-हवन आदि पंचयज्ञ करो, वेदपाठ करो। अपनी जातीयता व संगठन के लिये एक अपनी लिपि देवनागरी का प्रचार करो। अपने साहित्य और इतिहास को सँभालो। इसी से अशान्ति और अन्धकार का नाश और आनन्द व सभयता का प्रकाश होगा। यही तुहारी मानसिक , शारीरिक, सामाजिक, सर्वप्रकार की उन्नति का मूल मन्त्र है। इसी से बालविवाह बन्द होकर वैधव्य दूर होगा। यही नहीं, ऋषि ने वेदों से बाल-विधवा विवाह को सिद्ध कर अबलाओं के विलाप की आग में तपते हुए भारत पर शान्ति का पानी छिड़का व ‘‘शुद्धि’’ को सिद्ध कर राम के भक्त बढ़ा दिये। पण्डे, पुजारी, साधु, मठधारी, नये मत-मतान्तर खड़े कर गुरु बन-बनकर लूटने वालों की पोल खोल और वेश्यानाच, मदिरापान, दुर्व्यसनों आदि कुरीतियों में धन लगाने का निषेध कर गौओं, अनाथों की रक्षा में, विद्या व धर्म-प्रचार में तन, मन, धन अर्पण करना सिखलाया। ऋषि ने आग को आग और राख को राख कहना सिखलाया। ब्रह्मण से लेकर शूद्र और विधर्मियों तक के लक्षण वेदों में दिखाकर मनुष्य के परखने की कसौटी हमें दे ऋषि ने हमें अपने सच्चे हितैषी और दमभी, स्वार्थी को पहचान लेने का अवसर दिया। अहा! लोग अपने हिताहित को पहचानने लगे। पर सत्य का प्रकाश होते ही स्वार्थी पाखण्डी घबराने लगे। उन्होंने जान लिया कि यदि सत्य का प्रचार और विद्या का विस्तार इसी प्रकार हुआ, तो हमारी दाल न गलेगी। चारों ओर से ऋषि के विरुद्ध स्वार्थियों ने चिल्लाना आरमभ किया। उन्हें कृष्टानों का दूत प्रसिद्ध किया, नास्तिक कहा, गाली बकने वाला धूर्त कहा। हाँ! आज कुछ व्यक्ति कहते हैं कि दयानन्द ने हमारे देवी-देवताओं की निन्दा कर हमसे उनकी पूजा छुड़ाई। हमारी जात-पांत की बनी बनाई लकीर मिटा दी। हमारी स्त्रियों के कोमल हृदय में मिथ्या अधिकार का बीज बो हमारे घरों की शान्ति का नाश किया। पितरों के समान तथा तीर्थ-यात्रा के लाभ से हमें वञ्चित किया। अजी बड़ी गड़बड़ी मचा दी।

परन्तु ऐ हिन्दू जाति! विचार दृष्टि से तो देख! निःसन्देह ऋषि दयानन्द ने तुझसे एक नहीं 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा छुड़वाई, पर इनके स्थान में क्या एक अपार अनन्त ब्रह्म की भक्ति का रस पान नहीं कराया, क्या वेदोक्त सन्ध्योपासन, हवन आदि यज्ञों की महिमा नहीं दर्शाई? निःसन्देह उन्होंने जात-पांत को तोड़ा, पर व्यभिचार के कारण तो यह वैसे ही निर्मूल हो गई है। इसके स्थान में गुण-कर्म-स्वभाव अनुसार वैदिक वर्णव्यवस्था का पता देकर कूड़ा-कर्कट व स्वार्थी अभिमानी को हटा उच्च पद पर सुयोग्य और देश-भक्त नियत करने का अवसरा दे क्या उन्नति का मार्ग ठीक नहीं कर दिया? स्त्री-जाति को निज-अधिकार का ज्ञान ऋषि ने दिया, परन्तु इसलिये कि वह विदुषी और इस योग्य बन सकें कि हमारे प्रत्येक कार्य में हमारी सहायक बनें न कि इसलिए कि हमारी शान्ति का नाश करें। मरे हुए पितरों का श्राद्ध उन्होंने छुड़ाया, परन्तु साथ ही जीवित माता-पिता, श्रेष्ठ साधु-संन्यासी, महात्माओं की सच्ची फलदायक पूजा की ओर क्या हमारा ध्यान बलपूर्वक नहीं आकर्षित किया? पर हा? प्यारी जाति! तू ऋषि के इन उपकारों के बदले उन्हें बुरा कहती है। ऐ हिन्दू जाति! क्या इसी प्रकार एक महान् सुधारक का स्वागत करना तूने सीखा है?

सोच तो! यदि तुझे मूर्तिपूजा बन्द करने की आवश्यकता नहीं, यदि तुझे यह वेदानुकूल प्रतीत नहीं होती है तो देवस्थानों में व्यभिचार और गँवार पण्डे-पुजारी, साधु और गुरुघण्टालों द्वारा जो अनर्थ हो रहा है या ताजिया व कब्रों पर राम नाम लेवा जाति जो रेवड़िया माँगती फिरती है, उसे तो बन्द करने की आवश्यकता है। यह तो वेदानुकूल नहीं। इसके बन्द करने का यत्न क्यों नहीं करती? यदि आर्य शबद वेद-विरुद्ध नहीं तो इस श्रेष्ठ नाम को तू क्यों नहीं स्वीकार करती, यदि विधवा विवाह तुझे बुरा लगता है तो बालविवाह, बेमेल शादी बाजी और विधवाओं के कारण व्यभिचार और गर्भपतन, यह सब तुझे कैसे रुचता है? यदि मृतक-श्राद्ध खण्डन दुःख देता है, पुराण  की विधि का विरोध और श्राद्धों में होने वाली छीछालेदर तुझे कैसे रुचती है? या मुष्टण्डों को दान देना रुचता है तो अनाथों विधवाओं गौओं आदि की रक्षा-सहायता और देशहित कार्यों के लिये धन देना क्यों नहीं रुचता?

सज्जनों! सच तो यह है कि ऋषि का उद्देश्य किसी का दिल दुखाना था ही नहीं। पर क्या किया जाए, दुर्व्यसनों में फँसे लोगों को बिना उनका दोष दर्शाये यह कैसे उनसे छुड़ाया जाए। अरे, यदि धार्मिक सज्जन ऋषि दयानन्द धर्म रूपी पीव भरे फोड़े में नश्तर न चुभोते, खण्डन द्वारा सबके नाक के फोड़े न दुखाते, तो पाँच-पाँच सहस्र वर्षों से सोती हुई जाति क्या धोती झाड़ इतनी शीघ्र खड़ी हो जाती? यह उन्हीं महर्षि का प्रताप है कि बाज यह जानने की चेष्टा कर रहे हैं कि धर्म किस चिड़िया का नाम है। यह उन्हीं का प्रताप है कि लोग अपने ग्रन्थों से कूड़ा-कर्कट की छानबीन में लगे हैं, अर्थों की खैंचातानी कर रहे हैं। ऋषि के सोटे की चोट न पड़ती तो क्या यह धर्म की सभायें कभी देखने-सुनने में आतीं? पर हा दुर्भाग्य! लोग चेते भी तो उसी अत्याचार और स्वार्थ साधन के लिये, जिससे बचाने के लिये ऋषि ने इतना कष्ट सहन किया। आज लोग ऋषि दयानन्द को गाली देने में, ऋषि के स्थापित किये आर्य समाज जैसे हितैषी सेवक को जली-कटी सुनाने में, उनके शुभ कार्यों में रोड़ा डालने में आनन्द मना रहे हैं। भारतवर्ष में कितनी कुप्रथायें जारी हैं, कैसी घिनौनी कुरीतियों की लकीर पिट रही है। समय था कि इनके निवारणार्थ बल और लगाया जाता, पर नहीं। हिन्दू जाति तेरे गुरुघण्टालों की विद्या और बल तो धर्म का अखाड़ा रचकर तुझे ठगने के लिये है। तेरे विद्वान् सत्य तो जानते हैं, दिल में मानते हैं, पर हा! ‘‘स्वार्थ और अभिमान के वश में हो धन संचय करने और श्याम गीत सुनने की धुन में तेरे चित्त प्रसन्न करने को तेरी सीस कहकर अपना कार्य सिद्ध कर रहे हैं। जाप और पाठ के आश्रय रहते कलियुग महाराज की दुहाई देते। जहाँ चारा ज्यादा मिला, पहुँचकर हाथ मारा। यह हैं तेरे गुरुघण्टाल। यही लोग पहिले आयरें के वेद, स्त्री-शिक्षा, सन्ध्या, हवन, शुद्धि, बालविवाह के विरोधी ्रब्रह्मचर्य के प्रचार की हँसी उड़ाते थे, पर जब देखा कि इनकी सच्चाई तेरे मन भायी और तू आर्यों से सहमत हो चली, झट उन्होंने इन बातों का विरोध त्याग-गीत गाना आरा कर दिया। अरे हिन्दू जाति, तू जिनके हाथ में कठपुतली बन रही है, वह तुझे अन्धकार में रखकर तुझसे लाभ उठा रहे हैं। तुझ पर सत्य को प्रकाशित नहीं किया जाता। तुझसे वाक्छल किया जाता है। देख, तेरे साथ विश्वासघात किया जा रहा है।’’

‘‘जो हमारे दोषों को हमारे सामने ही प्रकाशित कर दे, वही हमारा सच्चा मित्र’’ इस सिद्धान्त को सामने रख ऋषि के उपदेशों को सुन उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर, एकान्त में बैठकर देश की आधुनिक दुर्दशा पर आठ आँसू रो। तब तू ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के उद्देश्य को समझेगी। संसार की छोटी-छोटी जातियां अपने आत्म-बलिदान करने वालों के प्रताप से उन्नति के शिखर पर चढ़ गई, पर ऐ हिन्दू जाति। तेरे विश्वासघाती गुरु-घण्टालों ने तुझे सहस्रों बार उठने से रोका, पर विचार के देख ले! इस बार यदि तू ऋषि दयानन्द के दर्शाये उन्नति के पथ पर न लगेगी तो तेरा भी पता न लगेगा। 33 करोड़ से घटते-घटते अब 20 करोड़ भी तो शेष न रही, जो रह गई उसे हड़पने को एक ओर पश्चिमी छैलछबीली सभयता और यीशू-मुहमद की मुक्ति-सेना है तो दूसरी ओर घर का विश्वासघाती धूर्तमण्डल और अनेक कुप्रथायें और कुरीतियाँ। चेत रे प्यारी हिन्दू जाति, चेत! नहीं तो तू इनमें पिस मरेगी। विश्वासघातियों को पहचान, देश की दुर्दशा के कारण और उनके विचारणार्थ साधनों को विचार और इन्हीं पर माला खटाखट फेर। वैदिक धर्म के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द की शरण ले। अपने हितैषी आर्यसमाज के काम में हाथ बंटा। देख, वह तेरी बुराई की जड़ खोदने और भलाई के बीज बोने में अपना तन, मन, धन तुझ पर न्योछावर कर रहा है। नित अनेक गुरुकुल, पाठशाला, गौशाला, अनाथालय, विधवा-आश्रम आदि स्थापित करता-वेद, सन्ध्या-हवन आदि पंचयज्ञ, वैदिक-संस्कार, शुद्धि, एकता, एकलिपि आदि का प्रचार करता है। इसी के काम में हाथ बंटा। इसी में तेरा कल्याण है।

ऐ हिन्दू जाति! चारों ओर से तेरे ऊपर आपदायें आ रही हैं। मुसलमान और ईसाई तुझको हड़प जाने की सोच रहे हैं। अब भी जाग जा, नहीं तो वैदिक प्राचीन सभयता, हमारी आर्य सभयता इस पृथ्वी से लोप हो जायेगी। हिन्दू-जाति की अवनति होते हजारों वर्ष बीत गये। पर घर की कलह अबादी वर्तमान है। तूने मिलकर काम करना नहीं सीखा है। तेरे घरेलू झगड़े तुझको आपस में मिलने से रोकते हैं। और इसका लाभ तेरे शत्रु उठाते हैं। यह आपस में लड़ने का समय नहीं है। यह समय है कि हम सब मिल कर के अपनी जाति की रक्षा करें। हमको संगठन करना होगा। और संगठन करना होगा हिन्दू-जाति के बिखरे टुकड़े का, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, आर्यसमाजी तथा सनातन-धर्मियों का। ये सभी हिन्दू जाति के हैं। हमको चाहिये कि थोड़े से समय के लिये भेद भावों को भूल जावें और सब मिलकर जाति की रक्षा करें। लड़ने का समय आपस में तभी होता है जबकि किसी शत्रु का डर न हो।

हिन्दू! भूल मत कर और अपने हितैषी को पहचान। आर्यसमाज ही तेरा हित करने वाला है। उससे मिलकर कार्य कर, उसे द्वेष की दृष्टि से न देख। आर्यसमाज का जन्म हिन्दू-जाति की रक्षा और भारतवर्ष की प्राचीन आर्यसयता को स्थापित करने के लिये ही हुआ है। ऋषि दयानन्द को वैदिक सभयता से बढ़कर और कोई सभयता प्रिय नहीं थी। वह वैदिक सभयता ही प्राचीन हिन्दू-सभयता थी, जिस पर हम सब हिन्दुओं को इतना गर्व है।

 

कुरान समीक्षा : खुदा क्या ईमानदार परीक्षक था?

खुदा क्या ईमानदार परीक्षक था?

क्या इससे खुदा ईमानदार परीक्षक साबित किया जा सकता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व अल-ल-म-आदम ल अस्मा………..।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ४ आयत ३१)

और (हमने) आदमी ‘‘आदम’’को सब (चीजों के) नाम बता दिये। फिर उन चीजों को फरिश्तों के सामने पेश करके कहा कि अगर सच्चे हो तो हमको इन चीजों के नाम बताओ।

कालू सुब्हान-क ला इल्-म……………….।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ४ आयत ३२)

फरिश्ते-बोले-तू पाक है जो तूने हमको बता दिया है। उसके सिवाय हमको कुछ नहीं मालूम सचमुच तू ही जानने वाला और पहचानने वाला है।

का-ल या आदमु अम्बिअ्हुम्……….।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ४ आयत ३३)

तब खुदा ने हुक्म दिया कि ऐ आदम! तुम फरिश्तों को इनके नाम बता दो, फिर जब आदम ने फरिश्तों को उन (चीजों) के नाम बता दिए तो खुदा ने फरिश्तों से कहा, क्यों हमने तुमसे नहीं कहा था कि हमको सब पोशिदा बातें मालूम हैं।

समीक्षा

जब एक परीक्षक एक विद्यार्थी को पूछें जाने वाले प्रश्नों के उत्तर बता दे और दूसरों को न बतावे। फिर परीक्षा में वे ही प्रश्न सभी से पूछे और उस एक को पास व दूसरों को फेल कर दे तो क्या उसे ‘‘बेईमान परीक्षक’’नहीं कहा जायेगा? इस प्रकार की परीक्षा लेकर खुदा ने आदम को ‘‘पास’’ व फरिश्तों को ‘‘फेल’’कर दिया। क्या यह खुदा की ईमानदारी का सबूत था?

प्रत्युत्तर- ‘‘अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर’’

प्रत्युत्तर– ‘‘अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर’’

– शिवनारायण उपाध्याय

परोपकारी अक्टूबर (प्रथम) 2016 में आचार्य दार्शनेय लोकेश के लेख ‘प्रत्युत्तर-अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल’ का उत्तर इस लेख द्वारा दिया जा रहा है। श्री दार्शनेय लोकेश लिखते हैं कि ऋग्वेदादिभाष्याभूमिका-वेदोत्पत्ति विषय (प्रकाशक-आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट पेज 16) में ‘ते चेकस्मिन ब्राह्मदिने 14 चतुर्दशाुक्ता भोगा भवन्ति’ जो लिखा है तो उसका ये अर्थ नहीं है और न हो सकता है कि एक ब्राह्म दिन में 14 मन्वन्तर का काल ही भोगकाल होता है। वस्तुतः ऐसा कहने से स्वामी जी का तात्पर्य है कि ‘पूरे और व्यतीत भाग के साथ 7 वें वर्तमान तक बीत चुके हैं’ [फिर आप मेरे लेख में त्रुटि निकालते हुए लिखते हैं ‘भुक्त ना कि भुक्ता जैसा कि उपाध्यायजी ने लिखा है’] श्रीमान् मेरा लेख जो अगस्त द्वितीय 2016 में परोपकारी में प्रकाशित हुआ है, उसमें भुक्त ही प्रकाशित हुआ है ना किाुक्ता। आप एक बार परोपकारी के पृष्ठ 15 पर देखें। उसमें प्रकाशित है ‘ते चैकस्मिन् ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्त भोगा भवन्ति’  साथ ही हिन्दी अनुवाद में भी प्र्रकाशित है अर्थात् 14 मन्वन्तर का काल भुक्त भोग काल है। लेखन त्रुटि तो आपके इस लेख में ही है। आठवीं पंक्ति में लिखा है ‘ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्ता भोगा भवन्ति।’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसी त्रुटियों पर ध्यान नहीं देते थे। उन्होंने लिखा है कि ‘लेखन त्रुटि निकालना तो प्राइमरी विद्यालय के अध्यापक का कार्य है।’ इसलिए मैं आप द्वारा की गई अशुद्धि पर ध्यान देना उचित नहीं मानता हूँ।

‘ते चैकस्मिन् ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्ताोगा भवन्ति।’ का स्वामी जी ने यही अर्थ किया है कि 14 मन्वन्तराभूक्त भोग काल है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि यह जो वर्तमान ब्राह्मदिन है, इसके 1960852976 वर्ष इस सृष्टि को तथा वेदों की उत्पत्ति में व्यतीत हुए हैं और 2333227024 वर्ष सृष्टि को भोग करने के बाकी रहे हैं। इन दोनों संखयाओं का योग 1960852976

+2333227024=4294080000 वर्ष आता है जो 14 मन्वन्तरों की आयु के तुल्य है। साथ ही उन्होंने यहा भी  लिखा है कि ‘एक सहस्त्र 1000 चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणंावति। ब्राह्म्यारात्रेरपि तावदेव परिमाणं विज्ञेयम्’ मैं तो उनकी दोनों मान्यताओं को स्वीकार करता हूँ। मैं तो वेदाध्ययन के सबसे नीचे के पायदान (उपाध्याय) पर हूँ। इसलिए उनका विरोध करने को पूर्णरूप से असमर्थ हूँ। आप आचार्य हैं, मननशील विद्वान् हैं, आप उनका विरोध करने में समर्थ हैं अतः आप स्वामी दयानन्द का विरोध करते हैं तो करते रहें।

फिर आप लिखते हैं कि श्री शिवनारायण का यह लिखना गलत है कि ‘अर्थात् 14×71=994 चतुर्युगी ही भोग काल है। स्वामीजी ने सृष्टि उत्पत्ति की गणना उस समय से की है जब मनुष्य उत्पन्न हुआ।’ यही नहीं पूर्ण विरोधाभास के साथ लिखते रहे हैं ‘मनुष्य के उत्पन्न होने के साथ ही चार ऋषियों के द्वारा परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया। परन्तु सृष्टि उत्पत्ति प्रारमभ होने से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति होने तक के व्यतीत काल को उन्होंने गणना में नहीं लिया है।’ मेरा यह लिखना गलत कैसे हो सकता है कि स्वामी जी ने सृष्टि उत्पत्ति काल की गणना उस समय से की है जब मनुष्य उत्पन्न हुआ। सोचो जब मनुष्य उत्पन्न हुआ और यज्ञ करने लगा तो उसने संकल्प-मंत्र में पहला दिन गिना। जब मनुष्य उत्पन्न ही नहीं हुआ था तो संकल्प-मन्त्र कैसे बोला जा सकता था? फिर इसमें विरोधाभास कैसे है कि सृष्टि उत्पत्ति होने से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति का समय उन्होंने नहीं गिना। श्रीमान् जी आपको मेरे लिखने में सन्देह इसलिए है कि आपने क्वान्टम सिद्धान्त के भाग probability के अनुसार सृष्टि के भूक्त भोग-काल को 994 चतुर्युगी तथा सृष्टि की कुल आयु 1000 चतुर्युगी स्वीकार की है। ‘एके मनकस्तथा सावर्ण्यादय आगामिनः सप्त चैते मिलित्वा 14 चतुर्दशैवावन्ति। तत्रैकसप्ततिश्चतुर्युगानि ह्येकैकस्य मनोः परिमाणंावति। ते चैकस्मिन्ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्तभोगाावन्ति। एक सहस्त्रं 1000  चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणंावति।’ (ऋ.भा.ाू. पृष्ठ 20)

अर्थात् ये स्वायम्भवादि सात मनु और आगामी सात मनु ये सब 14 ही होते हैं। एक मनु में 71 चतुर्युगियां होती हैं और एक ब्राह्म दिन में 14 मनुओं का भुक्त भोग काल होता है। एक हजार चतुर्युगियों का ब्राह्म दिन का परिमाण होता है। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्म दिन में 14 मन्वन्तरों का काल भुक्त भोग काल है।

ऋग्वेद भाषा-भाष्कर में एक प्रश्न पृष्ठ 30 पर उठाया गया है।

प्रश्नसृष्टि की आयु की शेष 6 चतुर्युगियों के विषय में आपका क्या मत है? इनकी गणना के विषय में क्या महर्षि ने कुछ स्पष्ट निर्देश दिया है?

उत्तरवेद तथा सृष्टि के ऐतिहासिक संवत् निर्णय होने पर जो शेष समय है वह सृष्टि की रचना का समय है। इसमें महर्षि के निम्न वचन प्रमाण स्वरूप दिये जाते हैं।

(1) सृष्टि की उत्पत्ति करके हजार चतुर्युगी पर्यन्त ईश्वर इसको बनाये रखता है। हजार चतुर्युगी पर्यन्त सृष्टि मिटाकर प्रलय अर्थात् कारण में लीन रखता है।

– ऋ.भाष्य भूमिका.

इससे स्पष्ट है कि सृष्टि रचना में जो समय लगता है वह सृष्टि का है और प्रलय होने में जो समय लगता है वह प्रलय का समय है।

(2) जब सृष्टि का समय आता है, तब परमात्मा उन सूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 7)

इससे भी स्पष्ट है कि सृष्टि रचना में प्रथम परमाणु संयोग से लेकर मानव रचना तक जो भी समय लगता है वह सृष्टि का समय है किन्तु उसको मानव ने नहीं गिना, अतः महर्षि ने उसे ऐतिहासिक समय में नहीं जोड़ा।

(3) सृष्टि और प्रलय के लक्षणों से भी स्पष्ट है कि संसर्गकाल सृष्टि का होता है और वियोगकाल प्रलय का होता है। पं. सुदर्शनदेव तथा पं. राजवीर शास्त्री का लेख है ‘मयासुर का सूर्य सिद्धान्त सन्धि काल की मान्यता का आधार है।’ यह ग्रन्थ अनार्ष पौराणिक मान्यताओं से ओत-प्रोत होने से महर्षि को मान्य नहीं है। उन्होंने सन्धि के विषय में एक शबद भी नहीं लिखा है। सन्धिकाल एवं सन्धांशकाल को शबद भी नहीं लिखा है। सन्धिकाल एवं सन्धांश काल को पहले ही युगों की आयु में ले लिया गया है। फिर प्रत्येक मन्वन्तर के पूर्व 1728000 वर्ष (सतयुग का काल) जोड़ना व्यर्थ है। क्या प्रत्येक मन्वन्तर में पहले दो युग सतयुग के होंगे?

आदित्य पाल सिंह ने तो वेदों के ऋषियों को मूर्ख तक लिखा है। स्वामी दयानन्द द्वारा निर्दिष्ट सन्ध्या की खिल्ली उड़ाई है। उनके लेख को प्रमाणित नहीं माना जा सकता है। संकल्प मन्त्र में गणना मनुष्य के होने पर आरमभ हुई है। इसलिए स्वामी दयानन्द की गणना उचित है।

फिर आप लिखते हैं, ‘श्रीमान् उपाध्यायजी से यह जानना जरूरी है कि वेद मनुष्य की शतवर्षीय आयु बताता है तो क्या ये मानना होगा कि र्गभ काल के 280 दिन काटने के बाद बच्चे 99 वर्ष 2 माह 20 दिन ही (भोगकाल अर्थात् वास्तविक जीवन्तता का समय) शतायर्भूव का तात्पर्य है? ऐसा कदापि नहीं हैं। इस पर मेरा कहना है कि जिस प्रकार भुक्तभोग काल में सृष्टि के निर्माण काल को नहीं जोड़ा गया है। सृष्टि के पूर्ण होने पर वेदोत्पत्ति और मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद से समय की गणना की है, इसी प्रकार शिशु के गर्भ में निर्माण का काल नहीं जोड़ा जायेगा। ऐतिहासिक काल की दृष्टि से माता के गर्भ से जन्म लेने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ होगी। आप अपनी मान्यता को छलपूर्वक लागू करना चाहते हैं। ब्रह्मा की आयु तो निश्चित रूप से 1000 चतुर्युगी ही है, क्योंकि भुक्तभोग काल के अतिरिक्त सृष्टि निर्माण काल में भी वह सक्रिय रहता है। आप जब यह कहते हैं कि सृष्टि उत्पत्ति, वेदोत्पत्ति और मानव उत्पत्ति सब एक साथ होती हैं, तब मुझे कहना पड़ा कि ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति में समय लगता है।

फिर वैदिक वाङ्मय का स्पष्ट मानना है कि सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति हुई है। क्रमिक उत्पत्ति में समय तो लगेगा ही। मैं इस विषय में प्रमाण देता हूँ।

(1) तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीयोऽन्नम्। अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। (तैत्ति. उप. ब्रह्मानन्द वल्ली प्रथमोऽनुवाकः)

इस श्लोक में मनुष्य 6 क्रमिक परिवर्तनों के बाद आया है।

(2) सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिदं किञ्च। तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्चाऽभवत्। निरुक्तञ्चानिरुक्तञ्च। निलयनञ्चानिलयञ्च। विज्ञानञ्चाविज्ञानञ्च। सत्यञ्चानृतञ्च। सत्यमभवत्। यदिदं किञ्च तत्सत्यमित्याचक्षते।। (तैत्ति.उप.ब्रह्मानन्दवल्ली षष्ठोऽनुवाकः।।)

यह श्लोक भी सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति बता रहा है। फिर यह श्लोक तो वर्तमान विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण मान्यता की घोषणा भी कर रहा है कि संसार में प्रत्येक उपपरमाण्विक कण का एक विलोम कण भी है। इसी प्रकार सांखय दर्शन भी क्रमिक उत्पत्ति बता रहा है।

(3) तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः स तपोऽप्यत, स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते। रयिञ्च प्राणञ्चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति।। प्रश्नोपनिषद् के प्रथम प्रश्न के उत्तर में यह कण्डिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें भी सृष्टि उत्पत्ति के लिए तप द्वारा रयि और प्राण का जोड़ा उत्पन्न किया गया है। महात्मा नारायण स्वामी ने इस पर लिखा है कि यहाँ प्राण उसी ईश्वर प्रदत्त गति को कहते हैं, जिसका नाम वैज्ञानिकों ने शक्ति energy रखा है और उसी गति से विकृत हुई प्रकृति रयि कहलाती है। विज्ञान में इसे matter  कहा जाता है। आगे की कण्डिकाओं में सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति का ही वर्णन है।

(4) देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत।

 तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि।।

– ऋ. 10.72.3

देवों के निर्माण के इस प्रथम युग में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से यह आकृति वाला जगत् उत्पन्न हुआ है। इन लोकों के उत्पन्न होने के बाद दिशाएं उत्पन्न हुईं। उसके बाद ऊर्ध्व गति वाले वृक्ष वनस्पति उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार देवयुग के बाद वनस्पति युग आया।

(5) देवयुग अर्थात् सूर्य-चन्द्र आदि की उत्पत्ति निम्न ऋचा में है-

देवानां नु वयं जाना प्र वोचाम विपन्यया।

उक्थेषु शस्यमानेषु यः पश्यादुत्तेर युगे।।

– ऋ. 10.72.1

अब हम वेद-वाणी रूप प्रशस्त वाणी से चन्द्र, तारे, सूर्य, पृथ्वी आदि देवों के जन्मों को प्रतिपादित करते हैं। इसलिए इन वेदमन्त्रों के स्रोतों के उच्चरित होने पर जो उपस्थित होता है, वह आगे के आने वाले युगों में इस सृष्टि की उत्पत्ति को देखता है।

(6) अघमर्षण मन्त्र भी सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति बताते हैं-

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽर्णवः।।

ऋ.10.190.1

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोअजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।

– ऋ.10.190.2

सूर्याचन्दमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।

ऋ.10.190.3

इन ऋचाओं में ‘ततः’ शबद का अर्थ है-इसके बाद। इतना ही नहीं, वेद में भी सृष्टि की उत्पत्ति महान् विस्फोट big bang से ही मानी गई है।

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सदजायत।।

– ऋ.10.72.2

ज्ञान का स्वामी परमात्मा इन सूर्यादि देवों की आकृतियों को, प्रकृति पिण्ड संतप्त कर ढालता था। इन देवों के निर्माण वाले प्रथम युग में अव्यक्त-प्रायः प्रकृति से व्यक्त-जगत् उत्पन्न हुआ है।

 

कुरान समीक्षा : खुदा बिना कारण रोजी कम या ज्यादा करता है

खुदा बिना कारण रोजी कम या ज्यादा करता है

इस आयत के होते हुए खुदा को मुन्सिफ अर्थात् न्यायकत्र्ता साबित करें।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

अल्लाहु यब्सुतुर्रिज-क लिमंय्यशाउ…………।।

(कुरान मजीद पारा २० सूरा अकंबूत रूकू ६ आयत ६२)

अल्लाह ही अपने बन्दों में से जिसको चाहे रोजी देता है और जिसको चाहे नपी तुली कर देता है और जिससे चाहे छीन भी लेता है बेशक! अल्लाह हर चीज से जानकार है।

व मा अर्सल्ना मिर्रसूलिन् इल्ला…………..।।

(कुरान मजीद पारा १३ सूरा इब्राहीम रूकू १ आयत ४)

खुदा जिसको चाहता है भटकाता है और जिसे चाहता है राह दिखा देता है।

समीक्षा

खुदा का हर काम किसी न किसी आधार पर होता है। बिना कारण किसी को ज्यादा या कम देना, किसी को सजा या इनाम दे तो यह खुदा को बे-इन्साफ साबित करता है। तो जब खुदा ही बेइन्साफी करेगा तो दुनियां में उसकी देखा-देखी बेइन्साफी व धांधलेबाजी क्यों न चलेगी?

कुरान की यह आयत खुदा को दोषी स्वेच्छाचारी अन्यायी घोषित करती है। यदि ऐसा ही कोई मजिस्ट्रेट यहाँ भी करने लगे तो उसे क्या कहा जावेगा? वही खुदा के बारे में भी समझ लेवें। उसका तबादला तुरन्त दूसरी जगह करा दिया जावेगा।

कुरान समीक्षा : खुदा बहुत ऊँचा है

खुदा बहुत ऊँचा है

खुदा दिन में तथा रात में किस दिशा में बहुत ऊंचाई पर रहता है सप्रमाण यह स्पष्ट किया जावे?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

फ-त- आलल्-लाहुल-मालिकुल्………….।।

(कुरान मजीद पारा १८ सूरा मुअ्मिनून रूकू ६ आयत ११६)

जो खुदा सच्चा बादशाह बहुत ऊँचा है। उसके सिवाय कोई पूजित नहीं, वही बड़े तख्त का मालिक है।

समीक्षा

जमीन हर समय घूमती रहती है दोपहर को जो तारे हमारे ऊपर होते हैं वे शाम को हट जाते हैं और रात को वे विपरीत दिशा में होते है। अतः स्पष्ट किया जावे कि ऊपर से तात्पर्य किस दिशा से है खुदा जब ऊपर रहता है तो यहाँ पर तथा नीचे की दिशा में वह नहीं रहता है यह स्पष्ट है, न वह हाजिर नाजिर अर्थात् सर्वव्यापक ही है।

यह मनु कौन थे: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह मनु कौन थे यह कहना कठिन है । जिस प्रकार उपनिषत कारो तथा दर्शनकारो के विषय में बहुत कम ज्ञात है उसी प्रकार मनु के विषय में हम कुछ नही जानते । कही कही तो मनु को केवल धर्म शास्त्र का रचियता बताया गया है और कही कही समस्त सृष्टि की उत्पति ही मनु से बताइ्र्र गई है । आघ्र्य जैसी प्राचीन जाति क साहित्य मे इस प्रकार की कठिनाइयो का होना स्पाभाविक है । इसी शताब्दी के भीतर दयानन्द नाम मे दो व्यक्ति हुये एक आयर्य समाज के संस्थापक और दूसरे सनातमर्ध मंडल के कायर्यकर्ता । इन दोनो के विचारो में आकाश पाताल का भेद है । परन्तु यह बहुत ही संभव है कि कुछ दिनो पश्चात एक के वचन दूसरे के समझ लिये जाॅये । इसी प्रकार प्रतीत ऐसा होता है कि कही तो मनु शब्द ईश्वर का वाचक था कही वेदिक ऋषि का कही धर्मशास्त्र के रचियता का और कही संभव है अन्य किसी का भी । इन सब को किसी प्रकार समय की प्रगति ने मिला – जुला दिया और आगे आने वाले लोगो के लिए विवेक  करना कठिन हो गया । जितने भाष्य मनुस्मृति क इस समय प्राप्य है वह सब मेधातिथि से लेकर आज तक के आधुनिक या पौराणिक युग के ही समझने चाहिए । इसीलिए इनके आधार किसी विशेष निष्चय तक पहुॅचना दुस्तर है । शतपथ ब्राह्मण (13।4।3।3) में आता है

मनुर्वेपस्वतो राजेत्याह तस्य मनुष्या विशः

अर्थात मनु वैवस्वत राजा है और मनुष्य उसकी प्रजा है इससे प्रतीत होता है कि मनु वैवस्वत कोई राजा था । या यह भी संभव है कि राजा को ही यहाॅ विशेष गुणों के कारण मनुवैवस्वत कहा है ।

मेधातिथि ने अपने भाष्य के आरंभ मे मनु के विषय में लिखा है:-

मनुर्नाम कश्चित पुरूष विशेषोअनके वेद शाखा अघ्ययन विज्ञानानुष्ठान तथा स्मृति -परंपरा के लिए प्रसिद्ध हो गया।

यह एक हानि -शून्य कथन है और इतना मानने मे किसी को भी संकोच नही हो सकता । क्योकि जिस मनु की इतनी प्रसिद्धि है वह अवश्य ही कोई विद्वान पुरूष रहा होगा और उसने वेदाचार और लोकाचार का पूर्ण ज्ञान पा्रप्त कर लिया होगा।

मनु स्मृति का वैदिक साहित्य में प्रमाण : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

मानव धर्मशास्त्र का वैदिक साहित्य में बहुत गोरव है । आयर्य जाति की सम्यता का मानव धर्मशास्त्र के मनुस्मृति का वैदिक साथ एक घनिष्ट संबंध हो गया है । हम चाहे मनु तथा मनुस्मुति के विषय में पुछे गये अनेको प्रश्नो का समाधान न कर सके तो भी यह अवश्य मानना पडता है कि मनु अवश्य ही कोई महा पुरूष था जिसके उपदेश आयर्य सभ्यता के निमार्ण तथा जीवन – स्थिति के लिए बडे भारी साधक सिद्ध हुए और उन पर विद्वानों की अब तक श्रद्धा चली आती है ।

निरूक्तकार यास्क ने दायभाग के विषय में मनु को प्रमाण माना है:-

अविशेषेण मिथुनाः पुत्रा दायादा इति तदेतद झक श्लोकभ्याम्भ्यक्त । अगादंगात्सम्भवसि हदयाधिजायते । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम । अविशेषण पु़त्राण दाये भवति धर्मतः मिथुनानां विसर्गादो मनुः स्वायम्भुवोब्रवीत

बिना भेद के स्त्री और पुमान दोनो प्रकार के पुत्र (अर्थात लडकी और लडका दोनो ) दायाभाग के अधिकारी होते है यह बात ऋचा और श्लोक से कही गई । अंग अंग से उत्पन होता है हद्रय से उत्पन होता है इसलिए पुत्र आत्मा ही है वह सौ वर्ष तक जीवे (यह ऋचा हुई )। धर्म अर्थात कानून की दृष्टि से दोनो प्रकार के पुत्रो (अर्थात लडका और लडकी दोनो ) के दाया भाग मिलता है ऐसा सृष्टि की आदि मे स्वायभुव मनु ने कहा मनु ने कहा है (यह श्लोक हुआ )

निरूत्तकार को यहाॅ प्रमाण देना था कि दायभाग का अधि-कारी जैसा लडका है वैसा ही लडकी । उनहोने पुत्र शब्द दोनो के लिए प्रयोग किया है । इसमे उनहोने दो प्रमाण दिये है एक श्रुति का और दूसरा स्मृति का । अंग शतम श्रुति है । अवि शेषेणा बव्रवीत तक श्लोक है । और श्लोक मे स्वसयंभुवो मनु   उल्लेख है । आयर्यो के लिए श्रुति और स्मृति यही दोनो मुख्य प्रमाण। यही बात कवि कालिदास ने रधुवशमें उपमा के रूप मे दी है

श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत अर्थात स्मृति श्रुति का अनुकरण करती है । मेधातिति ने मनु-माघ्य के आरम्भ में लिखा है:-

ऋचो यूजूषि सामानि मन्त्रा आथर्वण्श्चये ।

महषिभिस्तु तत प्रोक्त स्मातं तु मनुरब्रवीत ।।

अर्थात ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तथा अर्थवेद का उपदेश ऋषियो ने किया था परन्तु स्मृति धर्म (का) उपदेश मनु ने किया । महाभारत शान्ति पर्व मे लिखा है कि

ऋषीनुवाच तान सर्वानदश्य: पुरूषोत्तम:

कृत शत-सहस्त्र हि श्लोकानामिदमृमतमम ।।

लोकतन्त्रस्य कत्स्नस्य यस्माद धर्म:प्रवर्तते।

 

तस्मात प्रवश्रयते धर्मान मनुः स्वायंभुव। स्वयं

 

स्वयंभुवेषु धर्मषु शास्त्रे चैशनसे कुते ।

बृहस्पतिमते चैव लोकेषु प्रतिचारिते ।।,

अर्थात निराकार परमात्मा ने उन ऋषियो को शत-सहस्त्र श्लोक का उत्तम ज्ञान दिया जिस पर कि संसार का समस्त धर्म स्थित है । स्वंय इन धर्मो का उपदिेश किया । और मनु के उस उपदेश के आधार पर ब्रहस्पति और उशनस ने अपनी अपनी स्मृतियाॅ बनाई ।,