गुरुकुल

गुरुकुल

– तपेन्द्र कुमार

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को योग-दर्शन में योगांगों के प्रथम अंग ‘यम’ के रूप में स्वीकार किया गया है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के उपासना विषय में यमों का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं, ‘‘इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ द्वितीय अंग नियमों-शौच, सन्तोष, तप, स्वध्याय, ईश्वरप्रणिधान-को महर्षि यमों का सहकारी कारण लिखते हैं। यम-नियमों के पालन के बिना साधना में उन्नति नहीं हो सकती तथा सामाजिक उन्नति भी इनके बिना समभव नहीं है। इनकी पालना व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार से की जाती है। यमों का समबन्ध मुखयतः समाज से है तथा नियमों का समबन्ध मुखयतः व्यक्ति से है। इनका समबन्ध शरीर व मन दोनों से है। व्यवहार-काल में तथा व्यक्तिगत रूप से कई बार करणीय व अकरणीय का निर्णय करने में दुविधा हो जाती है, परन्तु यम-नियमों को सही रूप से समझने वाले को स्थिति स्पष्ट रहती है। जिसकी जितनी स्पष्टता होगी, उसकी प्रगति साधना में उतनी ही अधिक होगी व सामान्य जन का व्यवहार उतना ही स्पष्ट व योगाभिमुख होगा।

जीवन के लमबे प्राशासनिक काल में अनेकों ऐसे अवसर आये, जहाँ सामान्यतः व्यक्ति अपने सिद्धान्तों से पतित हो सकता है, परन्तु परमात्मा की कृपा से अनुत्तीर्ण नहीं हुए, हाँ उत्तीर्ण के प्रतिशत में अन्तर तो आया। प्राशासनिक कार्य करते हुए भी यम-नियमों के पालन की प्रतिबद्धता बनी रही, फिर चाहे कितनी भी हानि की संभावना हुई हो, या हानि हुई हो। यह प्रतिबद्धता तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण कहाँ से प्राप्त हुआ? जब विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि गुरुकुलीय जीवन का ही सर्वाधिक योगदान है।

गुरुकुल शुक्रताल के प्रथम प्रवेशित छात्रों में मैं भी था। मन में गुरुकुल शिक्षा के प्रति एक उत्साह था तथा अधिक से अधिक तप करने की भावना थी, तप करने में आनन्द आता था।

गंगा किनारे, प्रकृति की मनोरम छटा, थोड़े से मन्दिरों व धर्मशालाओं के पास गुरुकुल का भवन था, गाँव में अधिकतर झोंपडियाँ थी। गंगा के पार तरबूज, खरबूजे, ककड़ी, लौकी आदि फल-सबजियाँ उगायी जाती थीं। जंगली जानवर, भेड़िये आदि जंगल में घूमते थे। एकान्त व नीरव स्थान था। गंगा दशहरा व कार्त्तिक पूर्णिमा पर मेला लगता था, गुरुकुल का उत्सव भी होता था, जिसमें हजारों नर-नारी सत्संग व यज्ञ का लाभ उठाते थे। पौराणिकों के गढ़ में एक मात्र वैदिक संस्थान था।

मनु महाराज ने कहा है-

ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत, धर्मार्थौ चनुचिन्तयेत्।

कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।

ब्राह्म मूहूर्त में-उठना ही आज असमभव दिखायी पड़ता है। धर्म-चिन्तन आदि की तो बात ही कहाँ? केवल अर्थ चिन्तन ही चलता रहता है। गुरुकुल में रहते हुए छोटी आयु में यह श्लोक स्मरण नहीं था, परन्तु अर्थचिन्तन को छोड़कर शेष सब की पालना अनायास ही होती थी तथा लमबे समय तक दिनचर्या की आवृत्ति रहने से परिपक्व हो गयी, आदत सी बन गयी और आगे के जीवन का आधार बन गयी। प्रातःकाल जागरण, मन्त्रों का पाठ, शौच के लिए दूर जंगल में जाना, हाथ व पात्र की शुद्धि, स्वास्थ्य के लिए आसन, प्राणायाम, व्यायाम, ठण्डे पानी से खुले में स्नान, मन की शुद्धि के लिए सन्ध्या व यज्ञ तथा तदुपरान्त प्रातराश-यह दिनचर्या का अंग था। प्रातःकालीन मन्त्रों का अर्थ पता नहीं था, पुस्तक में पढ़ने बाद इतना तो ध्यान था कि परमपिता परमात्मा की उपासना कर रहे हैं। तब के स्मरण किये मन्त्र आज भी स्मरण हैं तथा उनका पाठ भी होता है। गुरुकुल में व्यायाम की ऐसी आदत पड़ गयी कि अब तक के जीवन काल में आसन, प्राणायाम, व्यायाम नहीं छूटे।

सर्दियों के दिनों में कई बार दौड़ लगाते जाते व गंगा जी में स्नान कर वापस दौड़ते गुरुकुल आ जाते। हरिद्वार में रहते गंगा जी में स्नान होता, ठण्ड का पता ही नहीं चलता था। 1998 में एक वर्ष इग्लैण्ड रहने का अवसर मिला, वहाँ सर्दी थी, पर गुरुकुल की आदत ऐसी कि पूरे वर्ष ठण्डे पानी से स्नान होता रहा। अहंकार तो था ही नहीं। गंगा जी को तैरकर पार करते, पलेजों से लौकी आदि सजियाँ माँगकर लाते तथा सभी कई दिनों तक खाते रहते। सन्ध्या व यज्ञ तो घर पर भी होता था, परन्तु घर पर सन्ध्या में निरन्तरता नहीं थी। गुरुकुल में सन्ध्या की निरन्तरता मिली तथा कुछ व्यवधानों सहित आज तक चल रही है। यज्ञ तो आज भी घर में दोनों समय होता है। यदि कोई यज्ञ-विरोधी मुझसे यज्ञ के विषय में शास्त्रार्थ करे तो मैं संभवतः आज भी उसे पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं कर पाऊँ, परन्तु गुरुकुल में तथा घर में यज्ञ की निरन्तरता से संस्कारों की परिपक्वता के कारण मन में कभी यज्ञ के प्रति विपरीत भाव नहीं आया।

शारीरिक तपस्या तो सीखी ही गुरुकुल से। कटिवस्त्र व चादर तो पूर्ण वस्त्र थे। रजाई नहीं ओढ़ी, तत पर गद्दा नहीं बिछाया। तकिये तो थे ही नहीं। गर्मी में खुले आसमान तले रेत के ऊपर दरी बिछाकर निश्चिन्तता से सोते थे। जूते नहीं पहने जाते थे। हैण्डपमप दो थे, जो हम खुद ही ठीक कर लेते थे। गुरुकुल की सफाई, पाकशाला की लकड़ियाँ फाड़ना आदि कार्य प्रसन्नता से किया जाता था। अब तो आर्यों में भी कई जगह सरनेम पूछकर जाति का पता लगाने का प्रयास होता दिखाई दे जाता है, परन्तु गुरुकुल में आचार्य से लेकर ब्रह्मचारियों व पाकशाला के सेवकों आदि की कोई जाति ही नहीं थी। पाकशाला-सेवक ब्रह्मचारियों के साथ प्रथमावृत्ति पढ़ता था। कोई ऊँच-नीच नहीं थी, सभी एक-दूसरे की सहायता करते थे। अपनी पढ़ाई की चिन्ता किये बिना बीमार ब्रह्मचारी की सेवा करना कर्त्तव्य था- मजबूरी नहीं।

नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।

दाता समः सत्यपरः दयावान् आप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।

चरक संहिता में तो अरोग रहने के इतने उपाय बता दिये, परन्तु पिज्जा-बर्गर के युग में मॉल्स में, पिक्चर हाल में जाना ही विहार है, बस जल्दी-जल्दी वे शबद रट लिये जा रहे हैं, जिनसे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके। विषयों में आसक्ति इतनी कि हाथ से मोबाइल छूटता ही नहीं तथा अपनी उम्र से पूर्व ही सभी विषयों का पता छात्र कर लेते हैं। आप्त के नाम पर पीढ़ी-परिवर्तन की दुहाई दी जाती है तथा अनुभव तो पुरातन पन्थी हो गया है। ऐसे में सत्य, क्षमा आदि कहाँ से जीवन में सीखने को मिलेगें, जब सिखाने वाले स्वयं ही इनसे अछूत हों। परन्तु गुरुकुल के प्रत्येक ब्रह्मचारी को चरक संहिता की अरोग रहने की यह कला व्यवहार से अनायास सिखाई जाती रही थी। प्रातराश में दुग्ध व दलिया सभी को मिलता था, गरीब और अमीर नहीं दे भी  जाता था, मात्रा भी लगभग नियत थी। दोपहर और साँय का भोजन दाल-सजी-चपाती के साथ पौष्टिक होता था। सांसारिक विषय तो कहीं दूर तक देखने को नहीं मिलते थे। मेले के अवसर पर भी ब्रह्मचारी मेले में घूमने जाने के उत्सुक नहीं होते थे, न हि उसके प्रति ज्यादा आकर्षण होता था। वृत्तियों का निरोध कैसे होता है, यह तो नहीं जानते थे, परन्तु गुरुकुल के परिवेश में वृत्तियों का निरोध स्वभावतः होता रहता था, दर्शन के सिद्धान्त पढ़े बिना भी।

आचार्यों एवं सन्यासियों का आगमन होता रहता था। उनकी सेवा का अवसर लेने की होड़ लगी रहती थी। स्वामी वेदानन्द जी महाराज को स्नान करने का बहुत शौक था, कई बाल्टी पानी से स्नान करते थे। हम हैण्डपमप की हत्थी को पकड़ कूद-कूद कर बाल्टी भरते रहते थे, थकने पर दूसरा ब्रह्मचारी तैयार रहता था। आशीर्वाद मिलता था, जीवन जीने के रहस्य प्राप्त होते थे। देने का भाव, सुख-दुःख में समानता का भाव, सत्य के प्रति झुकाव तो जैसे दिनचर्या का अंग थे। यह अलग बात है कि उनमें गति अलग-अलग थी, परन्तु महत्त्वपूर्ण यह था कि ये विचार जन्म लेकर मन में पनपने लगे थे। परिग्रह के नाम पर दो-तीन जोड़ी कपड़े, किताबें, आवश्यक बिस्तर के अलावा कुछ नहीं होता था। सत्य की पालना भी सामान्य विद्यालयों से कहीं ज्यादा थी। मुखय कार्य ही अध्ययन था, सांसारिक विषयों की पुस्तकों-शाकुन्तलम्-आदि की पढ़ाई तो थी नहीं।

व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक क्षमता से उसमें निडरता आती है-यह माना जाता है, सही भी है, परन्तु अभय का कारण तो आत्मिक बल ही होता है और वह प्राप्त होता है ईश्वर प्रणिधान से। गुरुकुल में रहते किसी प्रकार कााय मन में व्याप्त नहीं था, क्योंकि परमपिता परमात्मा पर श्रद्धा थी एवं आस्था थी कि ईश्वर के रास्ते चलने वाले का बुरा नहीं हो सकता। सिद्धान्त तो उस समय स्पष्ट नहीं थे, परन्तु जीवन में जिये जा रहे थे। अहिंसा की परिभाषा सामान्यतया यह बना दी गयी है कि किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा नहीं करना, जो हानि पहुँचा रहा है उसका भी विरोध नहीं करना-उसके प्रति भी हिंसा की भावना नहीं रखना। गुरुकुल में अहिंसा की विभिन्न परिभाषाओं का तो पता नहीं था, परन्तु प्रातः भ्रमण के समय, रात को सोते समय सभी ब्रह्मचारी कान तक लमबी लाठी रखते थे तथा यह भावना नहीं थी कि रास्ते चलते कोई कुत्ता काटने आवे तो उससे अपना पैर बचाया ही न जावे व कटवा लिया जावे, बल्कि दण्ड का प्रयोग करके उसे भगाया जावे व अपनी हानि नहीं होने दी जावे। यदि कोई चोरादि आ जावे तो उसके सामने समर्पण नहीं करके उसे दण्ड से रोका जावे। कुत्ते व चोर के प्रति सुधार की भावना मन में रखनी है यह पता तो नहीं था, यह तो बाद में स्वाध्याय से पता चला, परन्तु मोटे रूप में अहिंसा का जो रूप गुरुकुलीय पद्धति में अनायास सीखा जा रहा था, वह जीवन जीने के लिए महत्त्वपूर्ण था, संभवतः सिद्धान्त के नितान्त विपरीत भी नहीं था।

ब्रह्मचारी बलदेव जी नैष्ठिक का बलिष्ठ शरीर एवं दबंग आवाज हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती थी। जब वे गुरुकुल के उत्सव पर हजारों की संखया में उपस्थित श्रोताओं को अपने सारगर्भित उपदेश देते थे तो पंडाल में हर कोई शान्ति से उन्हें व केवल उन्हें ही सुनता था। उनको देखकर गृहस्थियों के मन में अपने पुत्रों को गुरुकुल में भेजने-ब्रह्मचारी बनाने की भावना जग आती थी। यही कारण था कि सैकड़ों की संखया में गुरुकुल में ब्रह्मचारी पढ़ते थे। ब्रह्मचारी जी सबके प्रेरणा स्रोत थे तथा अधिकांश छात्र उन जैसा बलिष्ठ शरीर व भाषण कला प्राप्त करना चाहते थे।

रात्रिकालीन भोजन के बाद श्लोक-पाठ होता था, कुछ के अर्थ स्मरण थे, कुछ के नहीं थे। एक श्लोक गाते थे-

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्या,

सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला,

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।

– भर्तृ. वैराग्य.

सचमुच गुरुकुल में जो पहनते थे, जो पढ़ते थे, जो खाते थे, जो सोचते थे, जो व्यवहार करते थे-संसार की नजरों में वह प्रशंसनीय हो या न हो-उन सब से सन्तुष्ट ही नहीं थे, अपितु उससे अन्य को हेय दृष्टि से देखते थे। आत्महीनता की भावना नहीं थी, बल्कि आत्मसमान था, गर्व था। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो यह परितोष पूरे जीवन में नजर आता है। मेरे पास दूसरे अधिकारियों की तरह धन-सपत्ति आदि तो नहीं है, मेरा रहन-सहन भी तथाकथित उच्च स्तरीय नहीं रहा है, परन्तु गुरुकुल से प्राप्त प्रेरणा से जीवन में सन्तोष तो रहा ही, चमक-दमक के प्रति आकर्षण नहीं रहा तथा आत्मसमान का भाव रहा। कभी ऐसा भी महसूस नहीं हुआ कि हमें भी दूसरों के रास्ते पर चलना चाहिये था, बल्कि यह भाव आया कि परमपिता परमात्मा की कृपा से यथासंभव पाप भी जानबूृझकर नहीं कमाया तथा संस्कारों को भी दूषित होने से बचाया।

कमियाँ व्यक्तियों में हो सकती हैं, संस्थाओं में हो सकती हैं, परन्तु ऋषियों की बतायी गुरुकुल शिक्षा-पद्धति में कमियाँ नहीं हो सकतीं। यह पद्धति व्यक्ति में मानवीय गुणों का समावेश कर उसका निर्माण करती है, जिससे परिवार, समाज व राष्ट्र का सही निर्माण होता है। आज की शिक्षा-पद्धति जो केवल धन कमाने तक सीमित हो गयी है, अक्षर-ज्ञान जिसका ध्येय है, उससे नैतिकता का विकास नहीं हो सकता, फलतः व्यक्ति व समाज का सर्वांगीण विकास करने में यह सक्षम नहीं है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार का समानान्तर विकास ही उच्च आदर्शयुक्त समाज का निर्माण कर सकता है जो गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के उज्ज्वल पक्ष को अंगीकार कर ही संभव है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो जिस गति से समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, उसे रोका जाना असमभव होगा तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का उद्घोष मात्र उद्घोष ही रह जावेगा। श्रेष्ठ व्यक्ति चिन्तित हैं, अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार गुरुकुल पद्धति का प्रसार कर रहे हैं, परन्तु अर्थकरी विद्या की अवधारणा हो जाने से उनके प्रयास पूर्ण सफल नहीं हो पा रहे हैं। अतः गुरुकुल पद्धति की पुनर्स्थापना के लिए समाज के सहयोग के साथ-साथ सरकार का संरक्षण नितान्त आवश्यक है।

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