मनु स्मृति का वैदिक साहित्य में प्रमाण : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

मानव धर्मशास्त्र का वैदिक साहित्य में बहुत गोरव है । आयर्य जाति की सम्यता का मानव धर्मशास्त्र के मनुस्मृति का वैदिक साथ एक घनिष्ट संबंध हो गया है । हम चाहे मनु तथा मनुस्मुति के विषय में पुछे गये अनेको प्रश्नो का समाधान न कर सके तो भी यह अवश्य मानना पडता है कि मनु अवश्य ही कोई महा पुरूष था जिसके उपदेश आयर्य सभ्यता के निमार्ण तथा जीवन – स्थिति के लिए बडे भारी साधक सिद्ध हुए और उन पर विद्वानों की अब तक श्रद्धा चली आती है ।

निरूक्तकार यास्क ने दायभाग के विषय में मनु को प्रमाण माना है:-

अविशेषेण मिथुनाः पुत्रा दायादा इति तदेतद झक श्लोकभ्याम्भ्यक्त । अगादंगात्सम्भवसि हदयाधिजायते । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम । अविशेषण पु़त्राण दाये भवति धर्मतः मिथुनानां विसर्गादो मनुः स्वायम्भुवोब्रवीत

बिना भेद के स्त्री और पुमान दोनो प्रकार के पुत्र (अर्थात लडकी और लडका दोनो ) दायाभाग के अधिकारी होते है यह बात ऋचा और श्लोक से कही गई । अंग अंग से उत्पन होता है हद्रय से उत्पन होता है इसलिए पुत्र आत्मा ही है वह सौ वर्ष तक जीवे (यह ऋचा हुई )। धर्म अर्थात कानून की दृष्टि से दोनो प्रकार के पुत्रो (अर्थात लडका और लडकी दोनो ) के दाया भाग मिलता है ऐसा सृष्टि की आदि मे स्वायभुव मनु ने कहा मनु ने कहा है (यह श्लोक हुआ )

निरूत्तकार को यहाॅ प्रमाण देना था कि दायभाग का अधि-कारी जैसा लडका है वैसा ही लडकी । उनहोने पुत्र शब्द दोनो के लिए प्रयोग किया है । इसमे उनहोने दो प्रमाण दिये है एक श्रुति का और दूसरा स्मृति का । अंग शतम श्रुति है । अवि शेषेणा बव्रवीत तक श्लोक है । और श्लोक मे स्वसयंभुवो मनु   उल्लेख है । आयर्यो के लिए श्रुति और स्मृति यही दोनो मुख्य प्रमाण। यही बात कवि कालिदास ने रधुवशमें उपमा के रूप मे दी है

श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत अर्थात स्मृति श्रुति का अनुकरण करती है । मेधातिति ने मनु-माघ्य के आरम्भ में लिखा है:-

ऋचो यूजूषि सामानि मन्त्रा आथर्वण्श्चये ।

महषिभिस्तु तत प्रोक्त स्मातं तु मनुरब्रवीत ।।

अर्थात ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तथा अर्थवेद का उपदेश ऋषियो ने किया था परन्तु स्मृति धर्म (का) उपदेश मनु ने किया । महाभारत शान्ति पर्व मे लिखा है कि

ऋषीनुवाच तान सर्वानदश्य: पुरूषोत्तम:

कृत शत-सहस्त्र हि श्लोकानामिदमृमतमम ।।

लोकतन्त्रस्य कत्स्नस्य यस्माद धर्म:प्रवर्तते।

 

तस्मात प्रवश्रयते धर्मान मनुः स्वायंभुव। स्वयं

 

स्वयंभुवेषु धर्मषु शास्त्रे चैशनसे कुते ।

बृहस्पतिमते चैव लोकेषु प्रतिचारिते ।।,

अर्थात निराकार परमात्मा ने उन ऋषियो को शत-सहस्त्र श्लोक का उत्तम ज्ञान दिया जिस पर कि संसार का समस्त धर्म स्थित है । स्वंय इन धर्मो का उपदिेश किया । और मनु के उस उपदेश के आधार पर ब्रहस्पति और उशनस ने अपनी अपनी स्मृतियाॅ बनाई ।,

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