प्रत्युत्तर- ‘‘अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर’’

प्रत्युत्तर– ‘‘अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर’’

– शिवनारायण उपाध्याय

परोपकारी अक्टूबर (प्रथम) 2016 में आचार्य दार्शनेय लोकेश के लेख ‘प्रत्युत्तर-अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल’ का उत्तर इस लेख द्वारा दिया जा रहा है। श्री दार्शनेय लोकेश लिखते हैं कि ऋग्वेदादिभाष्याभूमिका-वेदोत्पत्ति विषय (प्रकाशक-आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट पेज 16) में ‘ते चेकस्मिन ब्राह्मदिने 14 चतुर्दशाुक्ता भोगा भवन्ति’ जो लिखा है तो उसका ये अर्थ नहीं है और न हो सकता है कि एक ब्राह्म दिन में 14 मन्वन्तर का काल ही भोगकाल होता है। वस्तुतः ऐसा कहने से स्वामी जी का तात्पर्य है कि ‘पूरे और व्यतीत भाग के साथ 7 वें वर्तमान तक बीत चुके हैं’ [फिर आप मेरे लेख में त्रुटि निकालते हुए लिखते हैं ‘भुक्त ना कि भुक्ता जैसा कि उपाध्यायजी ने लिखा है’] श्रीमान् मेरा लेख जो अगस्त द्वितीय 2016 में परोपकारी में प्रकाशित हुआ है, उसमें भुक्त ही प्रकाशित हुआ है ना किाुक्ता। आप एक बार परोपकारी के पृष्ठ 15 पर देखें। उसमें प्रकाशित है ‘ते चैकस्मिन् ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्त भोगा भवन्ति’  साथ ही हिन्दी अनुवाद में भी प्र्रकाशित है अर्थात् 14 मन्वन्तर का काल भुक्त भोग काल है। लेखन त्रुटि तो आपके इस लेख में ही है। आठवीं पंक्ति में लिखा है ‘ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्ता भोगा भवन्ति।’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसी त्रुटियों पर ध्यान नहीं देते थे। उन्होंने लिखा है कि ‘लेखन त्रुटि निकालना तो प्राइमरी विद्यालय के अध्यापक का कार्य है।’ इसलिए मैं आप द्वारा की गई अशुद्धि पर ध्यान देना उचित नहीं मानता हूँ।

‘ते चैकस्मिन् ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्ताोगा भवन्ति।’ का स्वामी जी ने यही अर्थ किया है कि 14 मन्वन्तराभूक्त भोग काल है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि यह जो वर्तमान ब्राह्मदिन है, इसके 1960852976 वर्ष इस सृष्टि को तथा वेदों की उत्पत्ति में व्यतीत हुए हैं और 2333227024 वर्ष सृष्टि को भोग करने के बाकी रहे हैं। इन दोनों संखयाओं का योग 1960852976

+2333227024=4294080000 वर्ष आता है जो 14 मन्वन्तरों की आयु के तुल्य है। साथ ही उन्होंने यहा भी  लिखा है कि ‘एक सहस्त्र 1000 चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणंावति। ब्राह्म्यारात्रेरपि तावदेव परिमाणं विज्ञेयम्’ मैं तो उनकी दोनों मान्यताओं को स्वीकार करता हूँ। मैं तो वेदाध्ययन के सबसे नीचे के पायदान (उपाध्याय) पर हूँ। इसलिए उनका विरोध करने को पूर्णरूप से असमर्थ हूँ। आप आचार्य हैं, मननशील विद्वान् हैं, आप उनका विरोध करने में समर्थ हैं अतः आप स्वामी दयानन्द का विरोध करते हैं तो करते रहें।

फिर आप लिखते हैं कि श्री शिवनारायण का यह लिखना गलत है कि ‘अर्थात् 14×71=994 चतुर्युगी ही भोग काल है। स्वामीजी ने सृष्टि उत्पत्ति की गणना उस समय से की है जब मनुष्य उत्पन्न हुआ।’ यही नहीं पूर्ण विरोधाभास के साथ लिखते रहे हैं ‘मनुष्य के उत्पन्न होने के साथ ही चार ऋषियों के द्वारा परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया। परन्तु सृष्टि उत्पत्ति प्रारमभ होने से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति होने तक के व्यतीत काल को उन्होंने गणना में नहीं लिया है।’ मेरा यह लिखना गलत कैसे हो सकता है कि स्वामी जी ने सृष्टि उत्पत्ति काल की गणना उस समय से की है जब मनुष्य उत्पन्न हुआ। सोचो जब मनुष्य उत्पन्न हुआ और यज्ञ करने लगा तो उसने संकल्प-मंत्र में पहला दिन गिना। जब मनुष्य उत्पन्न ही नहीं हुआ था तो संकल्प-मन्त्र कैसे बोला जा सकता था? फिर इसमें विरोधाभास कैसे है कि सृष्टि उत्पत्ति होने से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति का समय उन्होंने नहीं गिना। श्रीमान् जी आपको मेरे लिखने में सन्देह इसलिए है कि आपने क्वान्टम सिद्धान्त के भाग probability के अनुसार सृष्टि के भूक्त भोग-काल को 994 चतुर्युगी तथा सृष्टि की कुल आयु 1000 चतुर्युगी स्वीकार की है। ‘एके मनकस्तथा सावर्ण्यादय आगामिनः सप्त चैते मिलित्वा 14 चतुर्दशैवावन्ति। तत्रैकसप्ततिश्चतुर्युगानि ह्येकैकस्य मनोः परिमाणंावति। ते चैकस्मिन्ब्राह्मदिने 14 चतुर्दश भुक्तभोगाावन्ति। एक सहस्त्रं 1000  चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणंावति।’ (ऋ.भा.ाू. पृष्ठ 20)

अर्थात् ये स्वायम्भवादि सात मनु और आगामी सात मनु ये सब 14 ही होते हैं। एक मनु में 71 चतुर्युगियां होती हैं और एक ब्राह्म दिन में 14 मनुओं का भुक्त भोग काल होता है। एक हजार चतुर्युगियों का ब्राह्म दिन का परिमाण होता है। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्म दिन में 14 मन्वन्तरों का काल भुक्त भोग काल है।

ऋग्वेद भाषा-भाष्कर में एक प्रश्न पृष्ठ 30 पर उठाया गया है।

प्रश्नसृष्टि की आयु की शेष 6 चतुर्युगियों के विषय में आपका क्या मत है? इनकी गणना के विषय में क्या महर्षि ने कुछ स्पष्ट निर्देश दिया है?

उत्तरवेद तथा सृष्टि के ऐतिहासिक संवत् निर्णय होने पर जो शेष समय है वह सृष्टि की रचना का समय है। इसमें महर्षि के निम्न वचन प्रमाण स्वरूप दिये जाते हैं।

(1) सृष्टि की उत्पत्ति करके हजार चतुर्युगी पर्यन्त ईश्वर इसको बनाये रखता है। हजार चतुर्युगी पर्यन्त सृष्टि मिटाकर प्रलय अर्थात् कारण में लीन रखता है।

– ऋ.भाष्य भूमिका.

इससे स्पष्ट है कि सृष्टि रचना में जो समय लगता है वह सृष्टि का है और प्रलय होने में जो समय लगता है वह प्रलय का समय है।

(2) जब सृष्टि का समय आता है, तब परमात्मा उन सूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 7)

इससे भी स्पष्ट है कि सृष्टि रचना में प्रथम परमाणु संयोग से लेकर मानव रचना तक जो भी समय लगता है वह सृष्टि का समय है किन्तु उसको मानव ने नहीं गिना, अतः महर्षि ने उसे ऐतिहासिक समय में नहीं जोड़ा।

(3) सृष्टि और प्रलय के लक्षणों से भी स्पष्ट है कि संसर्गकाल सृष्टि का होता है और वियोगकाल प्रलय का होता है। पं. सुदर्शनदेव तथा पं. राजवीर शास्त्री का लेख है ‘मयासुर का सूर्य सिद्धान्त सन्धि काल की मान्यता का आधार है।’ यह ग्रन्थ अनार्ष पौराणिक मान्यताओं से ओत-प्रोत होने से महर्षि को मान्य नहीं है। उन्होंने सन्धि के विषय में एक शबद भी नहीं लिखा है। सन्धिकाल एवं सन्धांशकाल को शबद भी नहीं लिखा है। सन्धिकाल एवं सन्धांश काल को पहले ही युगों की आयु में ले लिया गया है। फिर प्रत्येक मन्वन्तर के पूर्व 1728000 वर्ष (सतयुग का काल) जोड़ना व्यर्थ है। क्या प्रत्येक मन्वन्तर में पहले दो युग सतयुग के होंगे?

आदित्य पाल सिंह ने तो वेदों के ऋषियों को मूर्ख तक लिखा है। स्वामी दयानन्द द्वारा निर्दिष्ट सन्ध्या की खिल्ली उड़ाई है। उनके लेख को प्रमाणित नहीं माना जा सकता है। संकल्प मन्त्र में गणना मनुष्य के होने पर आरमभ हुई है। इसलिए स्वामी दयानन्द की गणना उचित है।

फिर आप लिखते हैं, ‘श्रीमान् उपाध्यायजी से यह जानना जरूरी है कि वेद मनुष्य की शतवर्षीय आयु बताता है तो क्या ये मानना होगा कि र्गभ काल के 280 दिन काटने के बाद बच्चे 99 वर्ष 2 माह 20 दिन ही (भोगकाल अर्थात् वास्तविक जीवन्तता का समय) शतायर्भूव का तात्पर्य है? ऐसा कदापि नहीं हैं। इस पर मेरा कहना है कि जिस प्रकार भुक्तभोग काल में सृष्टि के निर्माण काल को नहीं जोड़ा गया है। सृष्टि के पूर्ण होने पर वेदोत्पत्ति और मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद से समय की गणना की है, इसी प्रकार शिशु के गर्भ में निर्माण का काल नहीं जोड़ा जायेगा। ऐतिहासिक काल की दृष्टि से माता के गर्भ से जन्म लेने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ होगी। आप अपनी मान्यता को छलपूर्वक लागू करना चाहते हैं। ब्रह्मा की आयु तो निश्चित रूप से 1000 चतुर्युगी ही है, क्योंकि भुक्तभोग काल के अतिरिक्त सृष्टि निर्माण काल में भी वह सक्रिय रहता है। आप जब यह कहते हैं कि सृष्टि उत्पत्ति, वेदोत्पत्ति और मानव उत्पत्ति सब एक साथ होती हैं, तब मुझे कहना पड़ा कि ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति में समय लगता है।

फिर वैदिक वाङ्मय का स्पष्ट मानना है कि सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति हुई है। क्रमिक उत्पत्ति में समय तो लगेगा ही। मैं इस विषय में प्रमाण देता हूँ।

(1) तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीयोऽन्नम्। अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। (तैत्ति. उप. ब्रह्मानन्द वल्ली प्रथमोऽनुवाकः)

इस श्लोक में मनुष्य 6 क्रमिक परिवर्तनों के बाद आया है।

(2) सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिदं किञ्च। तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्चाऽभवत्। निरुक्तञ्चानिरुक्तञ्च। निलयनञ्चानिलयञ्च। विज्ञानञ्चाविज्ञानञ्च। सत्यञ्चानृतञ्च। सत्यमभवत्। यदिदं किञ्च तत्सत्यमित्याचक्षते।। (तैत्ति.उप.ब्रह्मानन्दवल्ली षष्ठोऽनुवाकः।।)

यह श्लोक भी सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति बता रहा है। फिर यह श्लोक तो वर्तमान विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण मान्यता की घोषणा भी कर रहा है कि संसार में प्रत्येक उपपरमाण्विक कण का एक विलोम कण भी है। इसी प्रकार सांखय दर्शन भी क्रमिक उत्पत्ति बता रहा है।

(3) तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः स तपोऽप्यत, स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते। रयिञ्च प्राणञ्चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति।। प्रश्नोपनिषद् के प्रथम प्रश्न के उत्तर में यह कण्डिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें भी सृष्टि उत्पत्ति के लिए तप द्वारा रयि और प्राण का जोड़ा उत्पन्न किया गया है। महात्मा नारायण स्वामी ने इस पर लिखा है कि यहाँ प्राण उसी ईश्वर प्रदत्त गति को कहते हैं, जिसका नाम वैज्ञानिकों ने शक्ति energy रखा है और उसी गति से विकृत हुई प्रकृति रयि कहलाती है। विज्ञान में इसे matter  कहा जाता है। आगे की कण्डिकाओं में सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति का ही वर्णन है।

(4) देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत।

 तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि।।

– ऋ. 10.72.3

देवों के निर्माण के इस प्रथम युग में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से यह आकृति वाला जगत् उत्पन्न हुआ है। इन लोकों के उत्पन्न होने के बाद दिशाएं उत्पन्न हुईं। उसके बाद ऊर्ध्व गति वाले वृक्ष वनस्पति उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार देवयुग के बाद वनस्पति युग आया।

(5) देवयुग अर्थात् सूर्य-चन्द्र आदि की उत्पत्ति निम्न ऋचा में है-

देवानां नु वयं जाना प्र वोचाम विपन्यया।

उक्थेषु शस्यमानेषु यः पश्यादुत्तेर युगे।।

– ऋ. 10.72.1

अब हम वेद-वाणी रूप प्रशस्त वाणी से चन्द्र, तारे, सूर्य, पृथ्वी आदि देवों के जन्मों को प्रतिपादित करते हैं। इसलिए इन वेदमन्त्रों के स्रोतों के उच्चरित होने पर जो उपस्थित होता है, वह आगे के आने वाले युगों में इस सृष्टि की उत्पत्ति को देखता है।

(6) अघमर्षण मन्त्र भी सृष्टि की क्रमिक उत्पत्ति बताते हैं-

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽर्णवः।।

ऋ.10.190.1

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोअजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।

– ऋ.10.190.2

सूर्याचन्दमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।

ऋ.10.190.3

इन ऋचाओं में ‘ततः’ शबद का अर्थ है-इसके बाद। इतना ही नहीं, वेद में भी सृष्टि की उत्पत्ति महान् विस्फोट big bang से ही मानी गई है।

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सदजायत।।

– ऋ.10.72.2

ज्ञान का स्वामी परमात्मा इन सूर्यादि देवों की आकृतियों को, प्रकृति पिण्ड संतप्त कर ढालता था। इन देवों के निर्माण वाले प्रथम युग में अव्यक्त-प्रायः प्रकृति से व्यक्त-जगत् उत्पन्न हुआ है।

 

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