हिन्दुओं के साथ विश्वासघात

हिन्दुओं के साथ विश्वासघात

– चन्द्रिका प्रसाद

आह! क्या हृदय है? धर्म के स्थान में अधर्म, पुण्य के स्थान में पाप, सदाचार के स्थान पर दुराचार, ज्ञान के स्थान में मूर्खता, सत्यता के स्थान में छल-कपट, प्रेम और समाज-संगठन के स्थान में द्वेष और कलह! हा भारत! तुझे कैसेायङ्कर रोगों ने आ घेरा! जिस जाति में कभी व्यास जैसे ऋषि ने एक ईश्वर की पूजा का वेदोक्त उपदेश सुनाया हो, जिस जाति में राम और जनक जैसे सच्चे ईश्वर-भक्त रहे हों, आज उसमें एक ओर से ‘‘अहम्ब्रह्म’’ ध्वनि आ रही है तो दूसरी ओर से ‘‘नास्तिकता’’ का अलाप सुनाई पड़ता है। आज कहीं यह वितण्डा खड़ा है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों में कौन बड़ा और कौन छोटा है और इनकी धर्म पत्नियों की शक्तियाँ एक-दूसरे से कितनी बढ़-चढ़कर हैं। कहीं लोग पशु-पक्षी, पर्वत, नाले और चौराहे पर माथा रगड़ रहे हैं। हा! 33 करोड़ देवता मानती हुई आज वह जाति विधर्मियों के ताजिया, मदार, फकीरों और कब्रों पर भक्तिभाव से रेवड़ियाँ माँगती फिरती है। भोली-भाली स्त्रियाँ अपने बीमार बच्चों का इलाज न करके मुसलमानों से फुकवाती फिरती हैं। मुसलमान इन स्त्रियों को ठगते हैं और समय पाकर उठा ले जाते हैं।

जहाँ विद्वान्, ब्रह्मवेत्ता, ऋषि-मुनि यज्ञ व अग्निहोत्र से भारत को स्वर्गमय बना रहे थे, आज वही आलसी, मूर्ख, पाखण्डी, संन्यासी बनकर व्यभिचार और गाँजा-चरस आदि का प्रचार कर दरिद्र भारत का मटियामेट करने पर तुले हैं। जिन देव-स्थानों में महात्माओं के उपदेश और धर्मकार्य होते थे, आज वहाँ लपट, गँवार व्यभिचार और अत्याचार कर रहे हैं। अहिंसाव्रतधारी कृष्णगोपाल का नाम लेने वाली जाति आज गौओं को कसाइयों के हाथ बेच पेट पाल रही है। आज वह नित सहस्रों गाय, भैंसे, बकरे और शूकर के रक्त की नदी बहा रही है। प्यारे भारत! तुझ में भयङ्कर परिवर्तन आ गया। जहाँ विद्या और धन प्राप्त कर लोग परोपकार करते थे, आज वह उसके द्वारा दूसरों को ठगने और सर्वस्व छीन लने का यत्न करते हैं। आज विद्या के ठेकेदार चोरी, जारी और दुष्कर्म के लिये शुभ घड़ी और जाप बताते फिरते हैं, तमबाकू, गाँजा, चरस, मदिरा, माँस आदि के दोषों को संस्कृत के श्लोकों से ढाँप देते हैं।

सीता, सरस्वती जैसी विदुषि स्त्रियों को नित स्मरण करने वाली जाति ने आज अपने समाज की शोभा बढ़ाने वाली स्त्रियों को विद्या-लाभ से वञ्चित करके उन्हें पशु संज्ञा में मिला दिया है। युवतियों, निर्बल बालकों और छोटी-छोटी बालिकाओं को मनचले वृद्धों के हाथ पशु समान बेचा जा रहा है। हा! आज इस जाति में छोटे-छोटे बालक बालिकायें गृहस्थाश्रम को कलंकित कर रही हैं। एक-दो वर्ष की बालिकायें वैधव्य की अग्नि में जल रही हैं। यही विधवायें बहकाने से निकल भागती हैं। भागे भी क्यों नहीं? जब आप उनको समान की दृष्टि से नहीं देखते तो वे चट मुसलमान और ईसाई हो जाती हैं, क्योंकि वहाँ उनका आदर है। इनकी रक्षा के लिये विधवा आश्रम खुल जाना चाहिये। बाल-विधवाओं का विवाह तो अवश्य ही कर देना चाहिये।

जो जाति कभी संसार की गुरु थी, आज वह अन्धकार अन्धविश्वास में मर रही है। जिसकी विद्या और कला कभी उन्नति के शिखर पर पहुँची थी, आज वह बेचारी दियासलाई और सुई के लिये दूसरों का मुँह तकती है। हाँ! जिस जाति में सामर्थ्यवान् दुर्बलों की रक्षा, सहायता करते थे, आज वह उनका रक्त चूस-चूस आनन्द मना रहे हैं। जहाँ शबरी जैसी भीलनी तप करती रही हों, जाबालि आदि ऋषिपद को प्राप्त हुये हों, वहाँ आज शूद्रों को अधिकार से वञ्चित कर प्रभु राम की शरण से निकाल स्वयम् ही यीशू व मुहमद की भेंट कर पीछे ‘‘हाय दादा’’ और ‘‘हाय गोमाता’’ कहकर सर पीटना होता है।

जिस जाति में कभी हरिश्चन्द्र जैसे वीर दानी थे, जो कि चील कौओं तक को प्रेम से आहार देती थी, आज वह अपने अनाथबालकों को कलेजे से लगा नहीं सकती, आज वह निर्दयी, निर्लज्ज होकर उन्हें विधर्मियों को सौंप रही है। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि हम अनाथों की रक्षा न कर सके और उनकी रक्षा ईसाई और मुसलमानों की हाथ से होवे। सहस्रों शिखा-सूत्र-धारी अपने पवित्र धर्म को तिलाञ्जलि दे प्रभु यीशू और मुहमद की गोद में चले जा रहे हैं। जो शेष हैं उन्हें भी पश्चिमी सभयता छैल-छबीली बनकर मोहित कर रही है। भगवन्। क्या अब ऋषि मुनियों की सन्तान अन्य जातियों के समान संसार पृष्ठ से लोप हुआ चाहती है। ऐ राम नाम लेवा जाति! यदि अपनी इस दुर्दशा व इस अधोगति को देख तेरे नेत्रों से अश्रुधारा न बह निकली, तो हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि तेरी रगों में मानों उनके वंश का रक्त ही नहीं रहा। भला कौन ऐसा भारत-जननी का लाल होगा जो ऐसे समय में यह न चाहता हो कि कोई हमारी कुप्रथाओं एवं कुरीतियों को रोक हमें धर्म-पथ पर लगा दे। हम इसे अनुभव करते हैं पर किसी में इतनी विद्या, इतना आत्मबल नहीं कि हर प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट इस जाति की बिगड़ी को बनाने का साहस कर सके। हम तो स्वार्थ के वश फँसे हैं, हाँ में हाँ मिलाने वाले हैं, बन्दर-भभकी में आ जाने वाले, किञ्चित लाभ के लिये आत्मघात करने वाले, अपने नाम और प्रशंसा के गीत सुनने वाले हैं। यह कार्य तो हमारे जैसों का नहीं। यह तो किसी बाल ब्र्रह्मचारी, सत्यव्रतधारी, महात्यागी, अद्वितीय वेदवेत्ता, धर्म के नेता, ईश्वर के पूर्णविश्वासी, सच्चे तपस्वी का है, जो सुख-दुःख निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, प्रतिष्ठा व तिरस्कार, किसी ओर ध्यान न देकर परोपकारार्थ अपने सर्वस्व को तिलांजलि दे दे। ऋषि दयानन्द का नाम आज संसार में कौन नहीं जानता। ईश्वर के सच्चे भक्त ऋषि ने बाल्यावस्था से मृत्युपर्यन्त यदि कोई विचार किया तो केवल मनुष्यमात्र के कल्याण का, अपनी जाति के सुधार का, भारत के उद्धार का। इस धुन में ऋषि ने महान् कष्ट सहा, बड़ा परिश्रम किया, सहस्रों ग्रन्थों की छानबीन की, बड़ा तप किया। अन्त में ईश्वरीय ज्ञान के भण्डार वेदों के अमृतमय बूटी द्वारा उन्हें शान्ति प्राप्त हुई। इस संजीवन बूटी को लेकर दयानन्द संसार के प्राणीमात्र को अमृतपान कराने आये। वेदों के कर्म को जानकर ऋषि ने सिंहनाद से सोती हुई जाति को जगा दिया।

जब हम पश्चिमी सभयता की गोद में पल रहे थे, जब हमें लोग उपदेश दे रहे थे कि हमारे पूर्वज शराब पीने वाले, जुआ खेलने वाले, और हमारे वेद गड़रियों की गीत हैं, तब ऋषि ने आकर दर्शाया कि नहीं, हमारे वेद संसार की समस्त विद्याओं के भण्डार और ईश्वरीय ज्ञान हैं और हम ऋषि मुनियों की सन्तान हैं। हमारे राम और सीता जैसी महान् आत्माएँ संसार की किसी अन्य जाति ने आज तक उत्पन्न नहीं की। इस प्रकार ऋषि ने दिखला दिया कि प्राचीन इतिहास गौरवशाली था। ऋषि ने हमारा मुख पश्चिम से पूरब की ओर फेर दिया। आज हम में वेदों के लिये श्रद्धा उत्पन्न हो गई, आज हम में आत्म-समान का भाव उत्पन्न हो गया और यह किसी जाति के जागने का पहला चिह्न है। ऋषि दयानन्द ने बतलाया कि वेदों के पठन-पाठन के बन्द होने तथा उनकी व्याखया की शुद्ध-प्रणाली के क्षय होने से यह अन्धकार भारत और संसार में छाया। यह परमात्मा की वाणी मनुष्यमात्र के कल्याण के लिये है। इनका प्रचार करो, इनकी शिक्षा का सारे भूमण्डल में विस्तार करो। बालक-बालिकाओं को ब्रह्मचर्य धारण करा गुरुकुलों में भेजो। एक ईश्वर की पूजा करो। नित्य संध्या-हवन आदि पंचयज्ञ करो, वेदपाठ करो। अपनी जातीयता व संगठन के लिये एक अपनी लिपि देवनागरी का प्रचार करो। अपने साहित्य और इतिहास को सँभालो। इसी से अशान्ति और अन्धकार का नाश और आनन्द व सभयता का प्रकाश होगा। यही तुहारी मानसिक , शारीरिक, सामाजिक, सर्वप्रकार की उन्नति का मूल मन्त्र है। इसी से बालविवाह बन्द होकर वैधव्य दूर होगा। यही नहीं, ऋषि ने वेदों से बाल-विधवा विवाह को सिद्ध कर अबलाओं के विलाप की आग में तपते हुए भारत पर शान्ति का पानी छिड़का व ‘‘शुद्धि’’ को सिद्ध कर राम के भक्त बढ़ा दिये। पण्डे, पुजारी, साधु, मठधारी, नये मत-मतान्तर खड़े कर गुरु बन-बनकर लूटने वालों की पोल खोल और वेश्यानाच, मदिरापान, दुर्व्यसनों आदि कुरीतियों में धन लगाने का निषेध कर गौओं, अनाथों की रक्षा में, विद्या व धर्म-प्रचार में तन, मन, धन अर्पण करना सिखलाया। ऋषि ने आग को आग और राख को राख कहना सिखलाया। ब्रह्मण से लेकर शूद्र और विधर्मियों तक के लक्षण वेदों में दिखाकर मनुष्य के परखने की कसौटी हमें दे ऋषि ने हमें अपने सच्चे हितैषी और दमभी, स्वार्थी को पहचान लेने का अवसर दिया। अहा! लोग अपने हिताहित को पहचानने लगे। पर सत्य का प्रकाश होते ही स्वार्थी पाखण्डी घबराने लगे। उन्होंने जान लिया कि यदि सत्य का प्रचार और विद्या का विस्तार इसी प्रकार हुआ, तो हमारी दाल न गलेगी। चारों ओर से ऋषि के विरुद्ध स्वार्थियों ने चिल्लाना आरमभ किया। उन्हें कृष्टानों का दूत प्रसिद्ध किया, नास्तिक कहा, गाली बकने वाला धूर्त कहा। हाँ! आज कुछ व्यक्ति कहते हैं कि दयानन्द ने हमारे देवी-देवताओं की निन्दा कर हमसे उनकी पूजा छुड़ाई। हमारी जात-पांत की बनी बनाई लकीर मिटा दी। हमारी स्त्रियों के कोमल हृदय में मिथ्या अधिकार का बीज बो हमारे घरों की शान्ति का नाश किया। पितरों के समान तथा तीर्थ-यात्रा के लाभ से हमें वञ्चित किया। अजी बड़ी गड़बड़ी मचा दी।

परन्तु ऐ हिन्दू जाति! विचार दृष्टि से तो देख! निःसन्देह ऋषि दयानन्द ने तुझसे एक नहीं 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा छुड़वाई, पर इनके स्थान में क्या एक अपार अनन्त ब्रह्म की भक्ति का रस पान नहीं कराया, क्या वेदोक्त सन्ध्योपासन, हवन आदि यज्ञों की महिमा नहीं दर्शाई? निःसन्देह उन्होंने जात-पांत को तोड़ा, पर व्यभिचार के कारण तो यह वैसे ही निर्मूल हो गई है। इसके स्थान में गुण-कर्म-स्वभाव अनुसार वैदिक वर्णव्यवस्था का पता देकर कूड़ा-कर्कट व स्वार्थी अभिमानी को हटा उच्च पद पर सुयोग्य और देश-भक्त नियत करने का अवसरा दे क्या उन्नति का मार्ग ठीक नहीं कर दिया? स्त्री-जाति को निज-अधिकार का ज्ञान ऋषि ने दिया, परन्तु इसलिये कि वह विदुषी और इस योग्य बन सकें कि हमारे प्रत्येक कार्य में हमारी सहायक बनें न कि इसलिए कि हमारी शान्ति का नाश करें। मरे हुए पितरों का श्राद्ध उन्होंने छुड़ाया, परन्तु साथ ही जीवित माता-पिता, श्रेष्ठ साधु-संन्यासी, महात्माओं की सच्ची फलदायक पूजा की ओर क्या हमारा ध्यान बलपूर्वक नहीं आकर्षित किया? पर हा? प्यारी जाति! तू ऋषि के इन उपकारों के बदले उन्हें बुरा कहती है। ऐ हिन्दू जाति! क्या इसी प्रकार एक महान् सुधारक का स्वागत करना तूने सीखा है?

सोच तो! यदि तुझे मूर्तिपूजा बन्द करने की आवश्यकता नहीं, यदि तुझे यह वेदानुकूल प्रतीत नहीं होती है तो देवस्थानों में व्यभिचार और गँवार पण्डे-पुजारी, साधु और गुरुघण्टालों द्वारा जो अनर्थ हो रहा है या ताजिया व कब्रों पर राम नाम लेवा जाति जो रेवड़िया माँगती फिरती है, उसे तो बन्द करने की आवश्यकता है। यह तो वेदानुकूल नहीं। इसके बन्द करने का यत्न क्यों नहीं करती? यदि आर्य शबद वेद-विरुद्ध नहीं तो इस श्रेष्ठ नाम को तू क्यों नहीं स्वीकार करती, यदि विधवा विवाह तुझे बुरा लगता है तो बालविवाह, बेमेल शादी बाजी और विधवाओं के कारण व्यभिचार और गर्भपतन, यह सब तुझे कैसे रुचता है? यदि मृतक-श्राद्ध खण्डन दुःख देता है, पुराण  की विधि का विरोध और श्राद्धों में होने वाली छीछालेदर तुझे कैसे रुचती है? या मुष्टण्डों को दान देना रुचता है तो अनाथों विधवाओं गौओं आदि की रक्षा-सहायता और देशहित कार्यों के लिये धन देना क्यों नहीं रुचता?

सज्जनों! सच तो यह है कि ऋषि का उद्देश्य किसी का दिल दुखाना था ही नहीं। पर क्या किया जाए, दुर्व्यसनों में फँसे लोगों को बिना उनका दोष दर्शाये यह कैसे उनसे छुड़ाया जाए। अरे, यदि धार्मिक सज्जन ऋषि दयानन्द धर्म रूपी पीव भरे फोड़े में नश्तर न चुभोते, खण्डन द्वारा सबके नाक के फोड़े न दुखाते, तो पाँच-पाँच सहस्र वर्षों से सोती हुई जाति क्या धोती झाड़ इतनी शीघ्र खड़ी हो जाती? यह उन्हीं महर्षि का प्रताप है कि बाज यह जानने की चेष्टा कर रहे हैं कि धर्म किस चिड़िया का नाम है। यह उन्हीं का प्रताप है कि लोग अपने ग्रन्थों से कूड़ा-कर्कट की छानबीन में लगे हैं, अर्थों की खैंचातानी कर रहे हैं। ऋषि के सोटे की चोट न पड़ती तो क्या यह धर्म की सभायें कभी देखने-सुनने में आतीं? पर हा दुर्भाग्य! लोग चेते भी तो उसी अत्याचार और स्वार्थ साधन के लिये, जिससे बचाने के लिये ऋषि ने इतना कष्ट सहन किया। आज लोग ऋषि दयानन्द को गाली देने में, ऋषि के स्थापित किये आर्य समाज जैसे हितैषी सेवक को जली-कटी सुनाने में, उनके शुभ कार्यों में रोड़ा डालने में आनन्द मना रहे हैं। भारतवर्ष में कितनी कुप्रथायें जारी हैं, कैसी घिनौनी कुरीतियों की लकीर पिट रही है। समय था कि इनके निवारणार्थ बल और लगाया जाता, पर नहीं। हिन्दू जाति तेरे गुरुघण्टालों की विद्या और बल तो धर्म का अखाड़ा रचकर तुझे ठगने के लिये है। तेरे विद्वान् सत्य तो जानते हैं, दिल में मानते हैं, पर हा! ‘‘स्वार्थ और अभिमान के वश में हो धन संचय करने और श्याम गीत सुनने की धुन में तेरे चित्त प्रसन्न करने को तेरी सीस कहकर अपना कार्य सिद्ध कर रहे हैं। जाप और पाठ के आश्रय रहते कलियुग महाराज की दुहाई देते। जहाँ चारा ज्यादा मिला, पहुँचकर हाथ मारा। यह हैं तेरे गुरुघण्टाल। यही लोग पहिले आयरें के वेद, स्त्री-शिक्षा, सन्ध्या, हवन, शुद्धि, बालविवाह के विरोधी ्रब्रह्मचर्य के प्रचार की हँसी उड़ाते थे, पर जब देखा कि इनकी सच्चाई तेरे मन भायी और तू आर्यों से सहमत हो चली, झट उन्होंने इन बातों का विरोध त्याग-गीत गाना आरा कर दिया। अरे हिन्दू जाति, तू जिनके हाथ में कठपुतली बन रही है, वह तुझे अन्धकार में रखकर तुझसे लाभ उठा रहे हैं। तुझ पर सत्य को प्रकाशित नहीं किया जाता। तुझसे वाक्छल किया जाता है। देख, तेरे साथ विश्वासघात किया जा रहा है।’’

‘‘जो हमारे दोषों को हमारे सामने ही प्रकाशित कर दे, वही हमारा सच्चा मित्र’’ इस सिद्धान्त को सामने रख ऋषि के उपदेशों को सुन उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर, एकान्त में बैठकर देश की आधुनिक दुर्दशा पर आठ आँसू रो। तब तू ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के उद्देश्य को समझेगी। संसार की छोटी-छोटी जातियां अपने आत्म-बलिदान करने वालों के प्रताप से उन्नति के शिखर पर चढ़ गई, पर ऐ हिन्दू जाति। तेरे विश्वासघाती गुरु-घण्टालों ने तुझे सहस्रों बार उठने से रोका, पर विचार के देख ले! इस बार यदि तू ऋषि दयानन्द के दर्शाये उन्नति के पथ पर न लगेगी तो तेरा भी पता न लगेगा। 33 करोड़ से घटते-घटते अब 20 करोड़ भी तो शेष न रही, जो रह गई उसे हड़पने को एक ओर पश्चिमी छैलछबीली सभयता और यीशू-मुहमद की मुक्ति-सेना है तो दूसरी ओर घर का विश्वासघाती धूर्तमण्डल और अनेक कुप्रथायें और कुरीतियाँ। चेत रे प्यारी हिन्दू जाति, चेत! नहीं तो तू इनमें पिस मरेगी। विश्वासघातियों को पहचान, देश की दुर्दशा के कारण और उनके विचारणार्थ साधनों को विचार और इन्हीं पर माला खटाखट फेर। वैदिक धर्म के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द की शरण ले। अपने हितैषी आर्यसमाज के काम में हाथ बंटा। देख, वह तेरी बुराई की जड़ खोदने और भलाई के बीज बोने में अपना तन, मन, धन तुझ पर न्योछावर कर रहा है। नित अनेक गुरुकुल, पाठशाला, गौशाला, अनाथालय, विधवा-आश्रम आदि स्थापित करता-वेद, सन्ध्या-हवन आदि पंचयज्ञ, वैदिक-संस्कार, शुद्धि, एकता, एकलिपि आदि का प्रचार करता है। इसी के काम में हाथ बंटा। इसी में तेरा कल्याण है।

ऐ हिन्दू जाति! चारों ओर से तेरे ऊपर आपदायें आ रही हैं। मुसलमान और ईसाई तुझको हड़प जाने की सोच रहे हैं। अब भी जाग जा, नहीं तो वैदिक प्राचीन सभयता, हमारी आर्य सभयता इस पृथ्वी से लोप हो जायेगी। हिन्दू-जाति की अवनति होते हजारों वर्ष बीत गये। पर घर की कलह अबादी वर्तमान है। तूने मिलकर काम करना नहीं सीखा है। तेरे घरेलू झगड़े तुझको आपस में मिलने से रोकते हैं। और इसका लाभ तेरे शत्रु उठाते हैं। यह आपस में लड़ने का समय नहीं है। यह समय है कि हम सब मिल कर के अपनी जाति की रक्षा करें। हमको संगठन करना होगा। और संगठन करना होगा हिन्दू-जाति के बिखरे टुकड़े का, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, आर्यसमाजी तथा सनातन-धर्मियों का। ये सभी हिन्दू जाति के हैं। हमको चाहिये कि थोड़े से समय के लिये भेद भावों को भूल जावें और सब मिलकर जाति की रक्षा करें। लड़ने का समय आपस में तभी होता है जबकि किसी शत्रु का डर न हो।

हिन्दू! भूल मत कर और अपने हितैषी को पहचान। आर्यसमाज ही तेरा हित करने वाला है। उससे मिलकर कार्य कर, उसे द्वेष की दृष्टि से न देख। आर्यसमाज का जन्म हिन्दू-जाति की रक्षा और भारतवर्ष की प्राचीन आर्यसयता को स्थापित करने के लिये ही हुआ है। ऋषि दयानन्द को वैदिक सभयता से बढ़कर और कोई सभयता प्रिय नहीं थी। वह वैदिक सभयता ही प्राचीन हिन्दू-सभयता थी, जिस पर हम सब हिन्दुओं को इतना गर्व है।

 

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