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महात्मा बुद्ध ओर गौ संरक्षण

अम्बेडकर वादी खुद को बुद्ध का अनुयायी कहते है लेकिन खुद बुद्ध के ही उपदेशो की धजिय्या उठाते है |
सनातन धर्म पर अपनी कुंठित मानसिकता के कारण ये कभी वेद आदि आर्ष ग्रंथो पर अपनी खुन्नस उतारते है | तो कभी कभी महापुरुषों को गालिया देंगे जैसे की मनु को ,श्री राम ,कृष्ण ,दुर्गा आदि को ..
अपने इसी मानसिकता के चलते ये कभी रावन शाहदत दिवस, महिषासुर शाहदत दिवस आदि मानते रहते है |
अपनी इसी विरोधी मानसिकता के चलते ये गौ मॉस की मांग करने लगे है जिसे आप इस लिंक पर देख सकते है :- http://m.bhaskar.com/article/referer/521/NAT-tiss-campus-become-the-latest-battleground-of-food-politics-4708256-PHO.html?pg=2
ये लोग खुद को बुद्ध का अनुयायी कहते है लेकिन बुद्ध की अंहिसा ,शाकाहार,गौ संरक्षण आदि सिधान्तो को एक ओर कर अपनी विरोधी ओर कुंठित मानसिकता का परिचय दिया है| जबकि बुद्ध के गौ संरक्षण पर निम्न उपदेश है :-
उन्होंने गो हत्या का विरोध किया और गो पालन को अत्यंत महत्व दिया ।
यथा माता सिता भ्राता अज्ञे वापि च ज्ञातका ।
गावो मे परमा मित्ता यातु जजायंति औषधा ॥
अन्नदा बलदा चेता वण्णदा सुखदा तथा ।
एतवत्थवसं ज्ञत्वा नास्सुगावो हनिं सुते ॥
माता, पिता, परिजनों और समाज की तरह गाय हमें प्रिय है । यह अत्यंत सहायक है । इसके दूध से हम औषधियाँ बनाते हैं । गाय हमें भोजन, शक्ति, सौंदर्य और आनंद देती है । इसी प्रकार बैल घर के पुरुषों की सहायता करता है । हमें गाय और बैल को अपने माता-पिता तुल्य समझना चाहिए । (गौतम बुद्ध)
गोहाणि सख्य गिहीनं पोसका भोगरायका ।
तस्मा हि माता पिता व मानये सक्करेय्य च् ॥ १४ ॥
ये च् खादंति गोमांसं मातुमासं व खादये ॥ १५ ॥
गाय और बैल सब परिवारों को आवश्यक और यथोचित पदार्थ देते हैं । अतः हमें उनसे सावधानी पूर्वक और माता पिता योग्य व्यवहार करना चाहिए । गोमांस भक्षण अपनी माता के मांस भक्षण समान है । (लोकनीति ७)
गाय की समृद्धि से ही राष्ट्र की समृद्धि होगी । (सम्राट अशोक)

अत: पता चलता है की नव बुद्ध अम्बेडकरवादी बुद्ध मत के अनुयायी नही है ये नस्तिक्वादी केवल अम्बेडकर के ही अनुयायी है अपनी सुविधा अनुसार कभी बुद्ध के उपदेशो का इस्तेमाल करते है तो कभी खूटे पर टांग देते है| अगर बुद्ध के वास्तविक अनुयायी होते तो गौ मॉस तो क्या किसी भी प्राणी के मॉस की मांग न करते|

मैक्समुलर के सफ़ेद झूठ…….

maxmuller

जिज्ञासा – समाधान

जिज्ञासा –( जिज्ञासु- अनिरुद्ध आर्य, दिल्ली ) कुछ विद्वान वेदों का काल पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर २००० या ३००० ईसा पूर्व हि मानते है, क्या यह ठीक है ? और मैक्समुलर ऋग्वेद को दुनिया के पुस्तकालय की सबसे पुरानी पुस्तक मानता है , क्या यह मैक्समुलर की मान्यता ठीक है ? क्या हम आर्यो को भी इसी के अनुसार मानना चाइये | कृपया मार्गदर्शन करे |

समाधान – ( समाधान करता – आचार्य सोमदेव,ऋषि उद्यान, अजमेर)  वेदों का काल जब से मानव उत्पति हुई है तभी से है | आज इस काल को महर्षि दयानंद के अनुसार १ अरब ९६ करोड़ ५३ हज़ार ११५ वा वर्ष चल रहा है | पाश्चात्य विद्वानों की, की गयी काल गणना ठीक नहीं है | क्यों की इनके द्वारा की गयी काल गणना निर्धन और पक्षपात पूर्ण कपोल कल्पना मात्र है | इस गणना की लिए इन विद्वानों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है |जब हमे हमारा लाखो वर्ष पुराना इतिहास सप्रमाण प्राप्त हो रहा है, तब हम इनकी कुछ हज़ार वर्ष पुरानी बात कैसे स्वीकार कर ले | हा इनकी बात पर वे विश्वास कर सकते है  जिन्हें अपने ऋषियों, महापुरषो से प्रभावित न होकर, पाश्चात्य संस्कृति व विद्वानों से प्रभावित रहा हो |

कुछ लोगो का निराधार व अल्पज्ञान भरी बात है की ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई और इसके बाद अन्य वेदों की | ऐसी मान्यता वाले लोग अथर्ववेद को तो ऋग्वेद के बहोत बाद का मानते है | इस बात का भी उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है |

हमारे ऋषियों के अनुसार चारो वेदों का काल एक हि है, एक हि साथ एक हि समय परमेश्वर ने ४ ऋषियों के हृदय मे चारो वेदों का अलग-अलग ज्ञान दिया अर्थात अग्नि ऋषि को ऋग्वेद का, वायु ऋषि को यजुर्वेद का, आदित्य ऋषि को सामवेद का, और अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया | ऋषियों ने ऐसा कही नहीं लिखा की चारो वेदों की उत्पति अलग-अलग समय मे हुई | हमे वेद व ऋषियों के अनेक प्रमाण प्राप्त है की जिनसे ज्ञात होता है की चारो वेद एक हि समय मे उत्पन्न होते है |

जैसे –

yasmin

rushayo

इन दो मंत्रो मे वेद शब्द का बहुवचनान्त वेदा: शब्द प्रयुक्त हुआ है | यह वेदा: शब्द चार वेदों का संकेतक है |

tasma

इत्यादि अनेक वेद व ऋषियों के प्रमाण सिद्ध करते है की चारो वेदों का काल एक हि है |

आप मैक्समुलर की मान्यता के विषय मे भी जानना चाहते है कि उनकी मान्यता ठीक है या नहीं | मैक्समुलर ने तथाकथित भाषा शास्त्र के आधार पर वेदों के रचना काल कि सम्भावना सर्वप्रथम १८५९ ई. मे प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ ए हिंदी ऑफ एंशियट संस्कृत लिटरेचर’ मे कि थी | उनकी यह कालावधि किसी तथ्य पर आश्रित न होकर विशुद्ध कल्पना पर आधारित थी किन्तु यह मान्यता इतनी बार दुहरायी गई कि परवर्ती समय मे आधुनिक इतिहासकारों मे बिना सोचे-समझे स्थापित सी माने जाने लगी | लेकिन स्वयं मैक्समुलर ने १८८९ मे ‘ जिफोर्ड व्याख्यानमाला ‘ के अंतर्गत अपने इस मात् पर संदेह प्रकट किया था और हृटनी जैसे पाश्चात्य व प्रो. कुंजन राजा प्रभूति भारतीय इतिहासकारों ने भी मैक्समुलर के भाषा शास्त्र के आधार पर वेदों के काल सम्बन्धी मात् का जोर्धर खंडन किया था | दूसरा जो मैक्समुलर ऋग्वेद को दुनिया कि सबसे पुरानी पुस्तक कहता है | उसकी यह बात वेदों कि रचना के सम्बन्ध मे भ्रम फैलाने के उद्देश्य से कही गयी प्रतीत होती है | ऋषियों-महर्षियो के आधार पर आर्य समाज कि दृढ़ मान्यता के विपरीत ये वेदों का क्रमिक विकास सिद्ध करती है, जिससे वेद ईश्वरीय रचना न सिद्ध होकर मानवीय रचना सिद्ध हो सके |

इस सारे प्रसंग को मैक्समुलर कि इन मान्यताओ के सन्दर्भ मे भी देखा जाना चाइये कि वह वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी का मानता है |कैथोलिक कॉमनवैल्थ के दिए गए साक्षात्कार मे पूछे जाने पर कि विश्व मे कौनसा धर्म ग्रन्थ सर्वोतम है, तो मैक्समुलर ने कहा था –

“There is no doubt, however, that ethical teachings are far more prominent in the old and New Testament than in any sacred book.” He also said “It may sound prejudiced, but talking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its moral teachings is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow…. According to my opinion, the old Testament, the Southern Buddhist Tripitika……The Veda and the Avesta.” (LLMM, vol.II, Pg. 322-323)

अर्थात “इसमें कोई संदेह नहीं कि यद्यपि किसी भी अन्य ‘पवित्र पुस्तक’ कि अपेक्षा ( ईसाइयों के धर्म ग्रन्थ ) ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट मे नैतिक शिक्षाये प्रमुखता से विद्यमान है | उसने यह भी कहा भले हि यह पक्षपातपूर्ण लगे लेकिन सभी दृष्टियों से मै कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट (सर्वोत्तम है ) | इसके बाद मै कुरान को कहूँगा जो कि अपने नैतिक शिक्षाओ मे न्यू टेस्टामेंट के नविन संस्करण के लगभग समीप है | उसके बाद…..मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट ( यहूदियों का धर्मग्रन्थ ), दी सदर्न बुद्धिस्ट त्रिपिटी का, ( बौद्धों का धर्म ग्रन्थ ) फिर वेद और अवेस्ता ( पारसियो का ग्रन्थ ) है |”

अत: आर्यो को वेद के सन्दर्भ मे मैक्समुलर जैसे लोगो के मात् को उध्दृत करने से बचना चाइये | इसके स्थान पर ऋषि-महर्षियो के मात् को रखना चाइये | लेकिन अगर कोई आर्य वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने लिए मैक्समुलर को इस रूप मे उध्दृत करता है कि ‘मैक्समुलर’ भी वेदों कि प्राचीनता के प्रसंग मे एक सत्य को अस्वीकार न कर सका, उसे भी ऋग्वेद को प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार करना पड़ा’ इस रूप मे बात रखी जा सकती है |

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भगवान मनु ओर दलित समाज

मित्रो ओम |
मै जो लेख लिख रहा हु उससे सम्बंधित अनेक लेख आर्य विद्वान अपने ब्लोगों पर डाल चुके है| कई तरह की पुस्तके भी लिखी जा सकती है | जिसमे सबसे महत्वपूर्ण योगदान सुरेन्द्र कुमार जी का है| जिन्होंने मह्रिषी मनु के कथन को स्पष्ट करने का ओर मनु स्म्रति को शुद्ध करने का प्रसंसिय कार्य किया है| इस सम्बन्ध में आपने जितने भी लेख जैसे मनु और शुद्र,मनु और महिलायें आदि विभिन्न blogger द्वारा लिखे पढ़े होंगे |वे सब इन्ही की किताबो ओर शोधो से लिए गये है |हमारा भी ये लेख इन्ही की किताब से प्रेरित है|
मह्रिषी मनु को कई प्राचीन विद्वान ओर ब्राह्मणकार कहते है की मनु के उपदेश औषधि के सामान है लेकिन आज का दलित समाज ही मनु का कट्टरता से विरोध करता है | ओर बुद्ध मत को श्रेष्ट बताते हुए मनु को गालिया देता है ओर उनकी मनुस्म्र्ती को भी जलाते है | इसके निम्न कारण है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था को बताना ..
(२) मनु पर जाति व्यवस्था को बनाने का आरोप
(३) मनु द्वारा स्त्री के शोषण का आरोप .
उपरोक्त आरोपों पर विचार करने से पहले हम बतायेंगे की मनु को हिन्दू विद्वानों ने ही नही बल्कि बुद्ध विद्वानों ने भी माना है | बौद्ध महाकवि अश्वघोस जो की कनिष्क के काल में था अपने ग्रन्थ वज्रकोपनिषद में मनु के कथन ही उद्दृत करता है| इसी तरह बुद्ध ने भी धम्म पद में मनु के कथन ज्यो के त्यों लिखे है..इनमे बस भाषा का भेद है मनुस्म्र्ती संस्कृत में है ओर धम्मपद पाली में ..देखिये मनुस्म्रती के श्लोक्स धम्मपद में :

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:|

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्||मनुस्मृति अध्याय२ श्लोक १२१||
अभिवादन सीलस्य निञ्च वुड्दा पचभिनम्|
खतारी धम्मावड््गत्ति आनुपवणपीसुलम्||धम्मपद अध्याय ८:१०९||
न तेन वृध्दो भवति,येनास्य पलितं शिर: |
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविंर विदु:||मनुस्मृति अध्याय२:१५६||
न तेन चेरो सीहोती चेत्तस्य पालितं सिरो|
परिपक्को वचो तस्यं पम्मिजितीति बुध्दवति||धम्मपद ९:१२०||

iइन निम्न श्लोको को आप देख सकते है ,और धम्मपद के भी निम्न वाक्य देख सकते है जो काफी समानता दर्शाते है ..इससे पता चलता है की बुद्ध ओर अन्य बौद्ध विद्वान मनुस्म्रती से प्रभावित थे|
मनु द्वारा धर्म के १० लक्षणों में से एक अंहिसा को जैन ओर बुद्धो ने अपने मत का आधार बनाया था ..
अब मनु पर लगाये आरोपों की  संछेप में यहाँ विवेचना करते है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था चलाना :
मह्रिषी मनु वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन वे जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के नहीं बल्कि कर्म आधरित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जो की मनुस्म्र्ती के निम्न श्लोक्स से पता चलता है :-
शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्|

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च||
(मनुस्मृति १०:६५)
गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन जाता है| ओर शूद्र ब्राह्मण|
इसी प्रकार क्षत्रिए ओर वैश्यो मे भी वर्ण परिवरितन समझने चाहिअ|

ओर महात्मा बुद्ध भी कर्माधारित वर्ण व्यवस्था को समर्थन करते थे ..वर्ण व्यवस्था का विरोध उन्होंने भी नही किया था|इस बारे में अलग से ब्लॉग पर एक नया लेख आगे लिखा जायेगा |
(२) मनु पर जातिवाद लाने का आरोप :-
ये सत्य है की मनु ने जाति शब्द का प्रयोग किया लेकिन ये इन लोगो का गलत आरोप है की मनु ने जाति व्यवस्था की नीव डाली ..मनु ने जाति शब्द का अर्थ जन्म के लिए किया है न की ठाकुर ,ब्राह्मण ,भंगी आदि जाति के लिए ..देखिये मनुस्म्रती से :-
 जाति अन्धवधिरौ(१:२०१)=जन्म से अंधे बहरे|

जाति स्मरति पौर्विकीम्(४:१४८)=पूर्व जन्म को स्मरण करता है|
द्विजाति:(१०.४)=द्विज ,क्युकि उसका दूसरा जन्म होता है|
एक जाति:(१०.४) शुद्र क्युकि विद्याधरित दूसरा जन्म नही होता है|

अत स्पष्ट है मनु जातिवाद के जनक नही थे …
(३) मनु पर नारी विरोधी का आरोप :-
मनुस्मृति में निम्न श्लोक आता है :-
पुत्रेण दुहिता समा(मनु•९.१३०)
पुत्र पुत्री समान है|वह आत्मारूप है,अत: पैतृक संपति की अधिकारणी है|
इससे पता चलता है कि मह्रिषी मनु पुत्र ओर पुत्री को समान मानते है |
मनु के कथन को निरुक्त कार यास्क मुनि उदृत कर कहते है :-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मत:|
मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवोsब्रवीत्(निरूक्त३:१.४)
सृष्टि के आरंभ मे स्वायम्भुव मनु का यह विधान है कि दायभाग = पैतृक भाग मे पुत्र पुत्री का समान अधिकार है|
अत स्पष्ट है कि मनु पुत्री को पेतर्क सम्पति में पुत्र के सामान अधिकार देने का समर्थन करते थे ..
मनु से भारत ही नही विदेश में भी कई प्रभावित थे चम्पा दीप (दक्षिण वियतनाम ) के एक शीला लेख में निम्न मनु स्मरति का श्लोक मिला है :-
वित्तं बन्धुर्वय: कर्म विद्या भवति पञ्चमी|
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यत्तरम्||[२/१३६|
इसी तरह वर्मा,कम्बोडिया ,फिलिपीन दीप आदि जगह मनु और उनकी स्मृति की प्रतिष्टा देखी जा सकती है|
लेकिन भारत में ही एक वर्ग विशेष उनका विरोधी है जिसका कारण है मनुस्म्रती में प्रक्षेप अर्थात कुछ लोभी लोगो द्वारा अपने स्वार्थ वश जोड़े गये श्लोक जिनके आधार पर अपने वर्ग को लाभ पंहुचाया जा सके ओर दुसरे वर्ग का शोषण कर सके ..
मनुस्मर्ती में कैसे और कोन कोनसे प्रक्षेप है इसे जानने के लिए निम्न लिंक पर जा कर विशुद्ध मनुस्मर्ती डाउनलोड कर पढ़े :
वही इस चीज़ को अपने वोट बैंक के लिए कुछ दलित नेता भी बढ़ावा देते है ताकि ब्राह्मण विरोध को आधार बना कर अपना वोट पक्का कर सके इसके लिए वै आर्ष ग्रंथो को भी निशाना बनाते है | एक दलित साहित्यकार स्वप्निल कुमार जी अपनी एक पुस्तक में लिखते है की मनु शोषितों ओर किसानो का नेता था|(भारत के मूल निवाशी और आर्य आक्रमण पेज न ६१) इनके इस कथन पर हसी आती है कि कभी मनु को मुल्निवाशी नेता तो कभी विदेशी आर्य ये लोग अपनी सुविधा अनुसार बनाते रहते है |
मनुस्म्रति से सम्बंदित इसी तरह के आरोपों के निराकरण के लिए निम्न पुस्तक मनु का विरोध क्यूँ अवश्य पढ़े जो की इसी ब्लॉग के ऊपर होम के पास दिए गये लिंक में है …
अंत में यही कहना चाहूँगा की प्रक्षेपो के आधार पर मनु को गाली न देवे इसमें महाराज मनु का कोई दोष नही है ..सबसे अच्छा होगा की मनुस्मर्ती से प्रक्षेप को हटा मूल मनु स्मृति का अनुशरण किया जाये जैसे की सुरेन्द्र कुमार जी की विशुद्ध मनुस्मृति ….
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) मनु का विरोध क्यूँ ?- सुरेन्द्र कुमार 
(२) विशुद्ध मनुस्मृति -डा सुरेन्द्र कुमार 
(३) निरुक्त -यास्क मुनि 
(४) वृहत भारत का इतिहास भाग ३-आचार्य रामदेव 
                                              (५) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नेष्ठिक जी  

वर्ण व्यवस्था

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वर्ण व्यवस्था क्या है ? किन पर्  लागू होती है ?  आज के  परिपेक्ष्य मैं  इस्का क्या लाभ है?

समाज मैं सब व्यक्ति सब कार्य समान कुशल्ता से नहीं कर सक्ते हैं .इस्लिये योग्यता के अनुसार व्यवस्था चलाने के लिये भिन्नभिन्न वर्ण के लोग
वर्ण व्यवस्था केवल ग्रहस्थ  पर  लागू होती है . ब्रह्म्चारि वंप्रस्थ और सन्यासि वर्ण से बाहर है.

ग्रहस्थी में एक वर्ण  की लड़्की को   अपने वर्ण में स्वयम्वर विवाह  का आदेश्  है .

सम्पत्ति ग्रहस्थ  के पास रहेगी. अन्य वर्ण ग्रहस्थ  पर आश्रित हैं .

हर वर्ण की एक  श्रेणी होती है. उस श्रेणी की व्यवस्था  वे लोग स्वयम  देख्ते  हैं .

राजा उस में हस्तक्षेप नहीं करता .

आज कल सरकार अंग्रेज़ोन कि तरह सभी श्रेणियोन का काम   सम्भाल  रहीहै इस्लिये अव्यवस्था होरही है.

कपड़ा कैसे बुना जाए ;ये फैस्ला IAS  [अंग्रेज़ सर्कार का कलक्टर ] लेगा तो अव्यवस्था तो होगी ही.

राष्ट्र को बुनकर समाज कप्ड़ा देगा. खद्दी से दे  या  मिल से दे .ये उनका कर्तव्य है . सरकार को उस्से क्या प्रयोजन? guild socialism

कित्ना कप्ड़ा आयात होगा ये  भी बुंकर समाज  तय करे .

ऐसा ही अन्य वर्णों में सम्झो .

सरकार को विदेश नीति , रक्षा ,  दंड   एवम  वित्त विभाग ही  देखने चहिये .

विष ही महर्षि की मृत्यु का कारण डा. अशोक आर्य

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महर्षि दयानंद सरस्वती जी के देहावसान का कारण जहाँ जोधपुर राज्य सहित अनेक कुचक्र गामी रहे, वहां दूध में विष भी उनके बलिदान का मुख्य कारण रहा | जब से महर्षि का देहावसान हुआ है , तब से ही जोधपुर के राज परिवार का यह प्रयत्न रहा है कि किसी प्रकार से जोधपुर राजघराने से एक ऋषि की हत्या का दोष हटाया जा सके | इस कड़ी में अनेक प्रयास हमारे सामने आते है जो उस राज परिवार के द्वारा हुए हैं तथा हो रहे हैं | इन पंक्तियों में मैं उन प्रयासों का तो वर्णन नहीं करने जा रहा किन्तु इस प्रयास के किसी न किसी रूप में जो आर्य ही सहभागी बनते हुए दिखाई देते हैं , समय समय पर ऐसे आर्यों की कलम से आर्यों के ही विरोध में किये जा रहे कुप्रयास को दूर करने का यतन आर्य समाज के महान लेखकों ने किया है , इन पंक्तियों में मैं भी कुछ एसा ही प्रयत्न करने का साहस कर रहा हूँ |
लगभग चालीस वर्ष पूर्व एसा ही एक प्रयास श्री लक्ष्मीदत दीक्षित जी ने किया था, जिसका मुंह तोड़ उत्तर अबोहर से प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने अनेक लेखों के माध्यम से देते हुए यह सप्रमाण सिद्ध किया था कि महर्षि के देहांत का कारण विष ही था | इस अवसर पर उन्हों ने एक पुस्तक भी तैयार की थी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | यह पुस्तक आर्य युवक समाज अबोहर ने प्रकाशित की थी | इस का प्रकाशन उस समय हुआ था , जब मैं आर्य युवक समाज अबोहर के प्रकाशन विभाग का मंत्री होता था अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ही किया था | इस पुस्तक में स्वामी जी के देहावसान का करण विषपान सटीक रूप से सिद्ध किया गया था तथा इससे पंडित लक्ष्मी दत दीक्षित जी की बोलती ही बंद हो गई थी | वह इस आधार पर जो पुस्तक लिखने जा रहे थे , उसे लिखने का विचार ही उनहोंने त्याग दिया | हमारे विचार में इतने सटीक प्रमाण आने के बाद आर्य समाज में यह विवाद खड़ा करने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए था किन्तु आर्य जगत दिनांक २५ मई से ३१ मई २०१४ के पृष्ट ९ पर श्री कृष्ण चन्द्र गर्ग पंचकुला का लेख जगन्नाथ ने महर्षि को दूध में विष दिया – एक झूठी कहानी के अंतर्गत यह लिखने का यत्न किया है कि महर्षि को विष देने की कथा झूठी है , के माध्यम से एक बार फिर यह विवाद खड़ा करने का यत्न किया है | मैं नहीं जानता कि गर्ग जी ने किस पूर्वाग्रह के कारण यह लिखा है किन्तु मैं बता देना चाहता हूँ कि इस लेख के लेखक को संभवतया या तो महर्षि के देहावसान के समबन्ध में कुछ ज्ञान ही नहीं है , या फिर वह जान बूझ कर इस विवाद को बनाये रखना चाहते हैं ताकि कुछ उल्लू सीधा किया जा सके |
लेखक ने स्वामी जी के रसोइये के नाम का विवाद पैदा करने का यत्न किया | स्वामी जी को दूध देने वाला जगन्नाथ था , धुड मिश्र था या कोई अन्य | नाम के विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है | नाम चाहे कुछ भी हो , प्रश्न तो यह है कि क्या स्वामी जी को विष दिया गया या नहीं ? लेखक ने बाबू देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जी ,पंडित लेखराम जी , पं. गोपालराव हरि जी द्वारा लिखित स्वामी जी के जीवन चरितों का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन सब ने स्वामी जी को दूध पी कर सोते हुए दिखाया है किन्तु इस दूध में विष था या नहीं , यह स्पष्ट किये बिना ही लिख दिया कि यह दूध था न कि विष अथवा कांच | लेखक को शायद यह पता ही नहीं कि राजस्थान में विष को कांच भी कहते हैं तथा दूध में भी विष हो सकता है |
जोधपुर के उस समय के राजा की कुटिलता को देखते हुए स्वामी जी को यह कहा भी गया था कि वह जोधपुर न जावें क्योंकि वहां का राजा कुटिल है , कहीं एसा न हो कि स्वामी जी को कोई हानि हो जावे | इससे भी स्पष्ट होता है कि जोधपुर जाने से पूर्व ही स्वामी जी की हानि होने की आशंका अनुभव की जा रही थी | अभी अभी प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने एक पुस्तक अनुवाद की है | पुस्तक का नाम है महर्षि दयानंद सरस्वती सम्पूर्ण जीवन चरित्र लेखक पंडित लक्षमण जी आर्योपदेशक | यह विशाल काय पुस्तक मूलरूप में उर्दू में लिखी गई थी तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इसका अनुवाद कर सन २०१३ में ही दो भागों में प्रकाशित की है | इस पुस्तक में जिज्ञासु जी ने वह सामग्री भी जोड़ दी है , जो अब तक अनुपलब्ध मानी जाती थी | इस के साथ ही इस पुस्तक के अंत में महर्षि का विषपान अमर बलिदान नामक पुस्तक भी जोड़ दी है | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु इस काल के आर्य समाज के सब से प्रमुख शोध कर्ता हैं , इस पर कहीं कोई दो राय नहीं है | इसलिए जब वह लिख रहे हैं महर्षि का विषपान अमर बलीदान तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी के देहावसान का कारण , बलिदान का कारण विषपान ही था | जिज्ञासु जी की पुस्तक के इस शीर्षक मात्र को देख कर ही कहीं अन्य किसी प्रकार की संभावना नहीं रह जाती | तो भी मैं यहाँ कुछ् प्रमाण देकर स्पष्ट करना चाहूँगा कि स्वामी जी के बलिदान का कारण केवल और केवल विष ही तो था अन्य कुछ नहीं |
स्वामी जी को मृत्यु का भय न था
महर्षि का विषपान अमर बलीदान के आरम्भ के दूसरे पहरे में जिज्ञासु जी लिख रहे हें कि स्वामी जी मृत्यु से डरते न थे | वह मरना ओर जीना समान जानते थे | प्रसंग दिया है कि विष दिए जाने से थोडा समय पहले ही एक महाराजा की रानी का देहांत हो गया | कुछ व्यक्ति दूरदर्शिता दिखाते हुए प्रेमपूर्वक कहते हैं कि आप भी थोडा शौक प्रकट करने चले जाएँ | ऋषि कहते हैं कि मैं इस समय सांसारिक बंधन अपने पर कैसे लाद लूँ ? मेरे लिए जीवन व मृत्यु एक सामान है |
इतने वर्ष कैसे जी पाए ?
सत्य का प्रचार करते हुए ऋषि के अनेक विरोधी बन गए | अनेक बार उन्हें विष दिया गया , पत्थर फैंके गए, सांप फैंके गए और न जाने क्या क्या हुआ किन्तु फिर भी वह इतने वर्ष तक जीवित रहे , यह भी एक आश्चर्य है | स्वामी जी को म्रत्यु से लगभग दो वर्ष पूर्व ही अपनी मृत्यु का पूवानुमान हो गया था इस सम्बन्ध में उनहोंने एक पात्र के माध्यम से बारम्बार कर्नाला अल्काट को मेरठ में कहा था कि मैं सन १८८४ का वर्ष कदापि नहीं देख सकता |
जोधपुर का स्वागत
जोधपुर जाते समय २८ मई १८८३ को शाह्पुराधिश को पात्र में लिखा था किबिचके स्टेशनों पर पुकारने पर भी कोई गाड़ीवान अथवा सिपाही नहीं था | यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो राजकाज की हनी होगी | स्वामी जी के साथ चारण अमरदास थे | पं. कमलनयन का कथन है कि जाते समय किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने स्वामी जी को सचेत करते हुए कहा भी था कि महाराज वहां कुछ नरमी से उपदेश करना क्योंकि वह क्रूर देश है |
गर्ग जी ध्यान से पढ़िए यहाँ लक्षमण जी की कृति का अनुवाद करते हुए जिज्ञासु जी भी लिख रहे हैं कि प्रतिश्याय हो गया था | २९ सितम्बर अर्थात चतुर्दशी की रात्री को धौड मिश्र रसोइये से ( जो शाहपुरा का रहने वाला था ) दूध पीकर सोये | उसी रात उदर शूल तथा जी मिचलाने लगा ……………३० सितम्बर को बहुत दिन निकले उठे | उठते ही पुन: वमन व जोर का शूल होने लगा , दस्त भी होने लगे | संदेह होने पर अजवायन का काढा पीया | वैद्यक वाले बताते हैं कि अजवायन विष का प्रभाव दूर करने के लिए होती है | …..सत्यरूपी अमृत की चर्चा करते करते महर्षि को सांसारिक मनुष्यों से विषपान करना पडा | आह ! वह २९ की रात्री वाला दूध क्या था , मृत्यु का सन्देश था | दूध में चीनी के साथ संखिया को बारीक पिस कर दिया गया था | इस रोग का जुयों ज्यों उपचार किया गया त्यों त्यों बढ़ता गया | गर्ग जी क्या आपने कभी एसा प्रतिश्याय देखा है जो वामन, दस्त व पेट शूल का कारण हो ? नहीं तो फिर एसा झूठ क्यों घड रहे हो ?
इस रोग की जानकारी मिलने पर अच्छे चिकित्सक होते हुए भी अली मरदान खान को चिकित्सा का कार्य सौंप दिया गया | कहते हैं कि वह भी शत्रुओं की टोली का ही भाग था | ……जो ओषध दी गई उसके लिए बताया गया था कि तीन चार दस्त आवेंगे किन्तु रात्री भर तीस से भी अधिक दस्त आ गए तथा दिन में भी आते रहे | दस्तों से स्वामी जी इतने क्षीण हो गए कि उन्हें मूर्च्छा आने लगी | पाच अक्तूबर तक अवस्था यहाँ तक पहुँच गई कि श्वास के साथ हिचकियाँ भी आने लगी | जब स्वामी जी ने छः अक्तूबर को कहा कि अब तो दस्त बंद होने चाहियें तो डाक्टर ने कहा कि दस्त बंद होने से रोग बढ़ने का भय है | बार बार कहने पर भी दस्त बंद न होने दिए गए | इस प्रकार अली मरदान खान की चिकित्सा १६ अक्तूबर तक चली | इस मध्य दस्तों के कारण स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया | मुख , कंठ, जिह्वा, तालू,शिर तथा माथे पर छाले पड़ गए | बोलने में भी कष्ट होने लगा | बिना सहायता के करवट लेना भी कठिन हो गया | चिकित्सा काल में उसका प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ते रहना किसी बिगाड़ उत्पन्न करने वाले पदार्थ का काम था तथा वह किस संयोग से श्री महाराज की काया में जो पूर्ण ब्रह्मचर्य ताप व सुधारणाओं सुघथित था , प्रविष्ट हुआ ?
देश हितैषी पत्र अजमेर
यह पत्र लिखता है कि ”भ्रात्रिवृन्द ! यह विचारने का स्थान है | ण जाने यह किस प्रकार का विरेचन तथा ओषधि थी | इस पर बहुधा मनुष्य कई प्रकार की शंका करते हैं और कहते हैं कि स्वामी जी ने भी कई पुरुषों और महाराजा प्रताप सिंह जी से इस विषय में स्पष्ट कह दिया था , परन्तु अब क्या हो सकता है ? लाख यत्न करो | स्वामी जी महाराज अब नहीं आ सकते | जो हुआ, सो हुआ परन्तु हम को इतनाही शोक है कि स्वामी जी महाराज ने किसी आर्य समाजको सूचित न किया | यदि यह वृत्तांत उस समय जाना जाता तो यह रोग इतनी प्रबलता को प्राप्त न होता |”
जब स्वामी जी का स्वास्थ्य गिरता ही चला गया तो पं. देवदत लेखक तथा लाला पन्नालाल अध्यापक जोधपुर ने स्वामी जी से कहा की यह स्थान छोड़ देना चाहिए | स्वामी जी ने इस संबंधमें महाराज को लिखा | महाराज ने कहा की इस दिशा में यहाँ से जाने से जोधपूर की अपकीर्ति होगी किन्तु स्वामी जी के न मानने पर वह चुप हो गया | स्वामी जी की चिकित्सा शुश्रुषा करने वाले लोग तो वाही जो उनकी मौत ही चाहते थे | यदि जेठमल न जाते तो स्वामी जी का देहांत तो जोधपुर में ही हो जाता और संस्कार की सूचना भी आर्यों को न होती | जेठमल जी ने अजमेर जा कर सभासदों को सूचित किया | पीर जी हकीम को सब बताया , उनहोंने कुछ औशध दि तथा बताया की स्वामी जी को संखिया दिया गया है | (देखें महर्षि का विषपान अमर बलिदान ) पीर जी की ओषध से कुछ लाभ मिला | मूर्छा और हिचकी कम हो गई | हस्ताक्षर करने लगे | आबू में डा. लक्षमण दास जी के उपचार स्वे भी लाभ हुआ | हिचकिया व दस्ता बंद हो गए किन्तु २३ अक्तूबर को त्यागा पत्र देने पर भी कड़ी बरतते हुए अजमेर भेज दिया | मार्ग में मिलाने वालों को आप सजल नेत्रों से स्वामी जी का हाल सुनाते थे | यहाँ से स्वामी जी को अजमेर लाया गया | स्वामी जीके पुरे शारीर पर छले पद गए थे तथा सर्दी में भी गर्मी अनुभव करते थे |
अजमेर आने पर पीर जी ने जांच करके स्पष्ट कहा कि विष दिया गया है | स्वामी जी ने जल पीया , कटोरे में मूत्र किया जो कोयले के सामान काला था | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी इस जीवन चरित्र के इतिहा दर्पण के अंतगत पृष्ट ६५५ पर लिखते हैं कि
१. ऋषि जब जोधपुर जाने लगे तो सभी शुभचिंतकों ने वहां जाने से रोका | प्राणों के निर्मोही दयानंद ने किसी की एक न सुनी | शीश तली पर रखकर जोधपुर जानेकी ठान ली|
२. ऋषि के जोधपुर पहुँचाने के २६ दिन बाद जसवंतासिह महाराजा जोधपुर दर्शनार्थ पधारे | यह भी एक समझाने वाला तथ्य है |
३. शाहपुरा के श्री नाहर सिंह तथा अजमेर के कई भक्तों ने कहा कि आप वहां जा रहे हैं | वेश्यागमन ,व्यभिचार का खंडन मत करना | यह तथ्य भी सामना रखना होगा |
तथा ऋषि ने इन्हें जो उतर दिया वह भी ध्यान में लाना होगा |
४. महाराजा प्रताप सिंह के जीवन चरित्र में भी स्वामी जी का कहीं वर्णन तक न होना भी इस बात को बल देता है | यहाँ तक कि उनके किसी लेख मेंस्वामी जी का नाम तक नहीं मिलता |
५. सर प्रताप सिंह अंग्रेज का पिट्ठू था , ऋषि भक्त नहीं | अन्ग्रेजने अपने सब से बड़े चाटुकार निजाम हैदराबाद से भी कहीं अधिक उपाधियाँ सर प्रताप सिंह को दीं | ऋषि भक्त पर तो अंग्रेज मोहित नहीं हो सकता था |
६. राजा के सब चाकर आज्ञाकारी और विश्वस्त होते हैं | मह्रिषी तो शाहपुरा के दिए सब चाकरों को निकम्मा बताते हैं | (यह बात ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन के पृष्ट ४२२-४२३ पर अंकित है |
७. जिस डा. अलीमर्दान खान से जोधपुर में उपचार कराया गया था , वह चाटुकार तथा तृतीय श्रेणी का सहायक डाक्टर था | उसने जान बुझ कर एसा उपचार किया कि स्वामी जी बच न सकें |
८. ऋषि की रुग्णता का समाचार बाहर न निकालने देना भी उनके दोष का कारण रहा | महर्षि की साड़ी योजना बनाने वाला राजपरिवार मजे से महलों में सोता रहा | स्वामी जी को रोग शैय्या पर छोड़ महाराज प्रताप सिंह घुड दौड़ के लिए पूना चले गए |
९. स्वामी जी को अंतिम समय अजमेर लाने वाले जेठमल जी ने कविता में लिखा रोम रोम में विष व्याप्त हो गया | यह तो साक्षात सत्य है जिसने अपनी आँखों से देखा उसका ही लिखा है |
१०. जब पंडित लेखराम जी स्वामी जी के जीवन की खोजा में जोधपुर गए तो राजा के गुप्तचर छाया की तरह पंडित जी के पोइछे क्यों रहे ? खोज में बाधाक्यों डाली ?
११. सर प्रताप सिह स्वयं कहते थे …….. कोई नन्हीं को भगतन व वैष्णव बताकर सिद्ध्कराने में लगा है तो कोई जोधपुर में विष देने की घटना को सिरे से खारिज कर रहा है | राजपरिवार का एक ट्रस्ट है | उनहोंने मुठ्ठी में कई लेखक कर रखे है | एसा सुनाने में आया है | एक दैनिक में विषपान की घटनाक प्रचारित करने का दोष पंजाब के महात्मा दल पर लगाया गया | लिखा गया की पंडित लेखराम जी का ग्रन्थ छपने लाहौर मांस पार्टी के स्तम्भ प्रताप सिंह की निंदा के लिए यह प्रचार किया गया |
झूठ झूठ ही होता है
जब राजस्थान के एक दैनिक में यह लेख छापा तो राजस्थान के किसी व्यक्ति ने इस मिथ्या कथन का प्रतिवाद नहीं किया | तब प्र. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा की पं. ल्लेख्रम जी का ग्रन्थ छपने से पूर्व जोधपुर में अकाल पड़ा था | तब लाला लाजपत राय जी ने लाला दीवानचंद को जोधपुर सहायता कार्य के लिए भेजा | उस समय सर प्रताप सिंह ने स्वयं जोधपुर में ऋषि जी को विष देने की घटना पर बड़ा दू:ख प्रकट किया था | यह बात लाला दीवानचंद जी की आत्मकथा मानसिक चित्रावली में दी गयी है |इस दीवान चाँद ने दुनिया के नोऊ महापुरुष नामक उर्दू पुस्तक में ऋषि को जोधपुर में विष दिए आने की चर्चा की है नन्हीं को भी वैश्य लिखा है |
१२ राजस्थान के यशस्वी इतिहासकार गौरिश्नकर हिराचंद ओझा ने भी ऋषि के बलिदान का कारण विषपान ही माना है | यह सब दयानंद क्मेमोरेश्ना वाल्यूम के पृष्ट ३७० पर देखें | राधास्वामी मत दयालबाग के गुरु हुजुर जी महाराज भी लिखते हैं कि जसवंत सिंह की बद्खुला तवायफ नन्ही जान |…… नन्ही जान के प्रतिशोध का परिणाम था कि दयानंद के दूध में विष पिस कर शक्कर डाल कर दिया गया और वह घातक सिद्ध हुआ |
१२. अजमेर के हकीम पीर अमाम अली जी ने स्पष्ट कहा था की संखिया दिया गया है |
१३. राजस्थान के तत्कालीन इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत, मुंशी देवी प्रसाद , नैनुरम ब्रह्म्भात्त आदि सब एक स्वर से ऋषि के बलिदान का कारण विष मानते हैं } चाँद के प्रसिद्द मारवाड़ अंक से ऋषि के विषपान के प्रमाण जिज्ञासु जी ने दिए थे |
१४. ऋषि को मारने के षड्यंत्र में कई व्यक्ति सम्मिलित थे | इन में से एक व्यक्ति खुल्लामाखुक्का ऋषि की हलाकत ( हत्या ) का श्रेय लेते हुवे गर्व से लिखता है कि उसे तो अल्लाह से ऋषि के मारे जाने की पहले से जानकारी मिल चुकी थी | मिर्जई मत का पैगम्बर मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ऋषि की हकालत को अपनी नुब्बुवत का आसमानी निशाँ प्रमाण आ था | उसने अपनी आसमानी किताब “हकीकत उल वाही “ के ५१-५२ पृष्ठों की निर्देशिका के पृष्ट २४ पर दो बार मह्रिषी के मरवाने का श्रेय बड़ी शान से लेता है | इस पंथ का पालन पौषण अंग्रेज सर्कार ने किया |
१५. वारहट क्रिशन सिंह जी का जीवन और राजपुताना इतिहास अभी छपा है इस में इस प्रकार लिखा है : ब्राह्मणों ने इनके रसोइदर को मिला कर स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर दिलाया |……
१६. डा.भवानी लाल भारतीय जी ने नन्ही को महाराज की उप पत्नि कहा है | यदि इसे सत्य मान लें तो भी जोधपुर महाराज की उपपत्नी के इसा अपराध में शामिल होना सिद्ध होता है क्योंकि सब ने माना है कि एक मुख्य पात्र सबने माना है तो राजपरिवार विष दिए जाने के षड्यंत्र से अलिप्त कैसे हो गया ? यदि वह उप पत्नी थी तो सर प्रताप सिंह ने उसे जसवंत सिंह के निधन पर राजभवनों से उसे क्यों निकलवाया |
१७. श्री राम शर्मा ने कुतर्क दिया की गोपालराव हरी ने ऋषि जीवन में विष देने की चर्चा नहीं की | क्या इससे एक सरकारी अधिकारी किविवाश्ता नहीं दिखाती , जबकि मौके के इतिहासकार जो उस समय जोधपुर व अजमेर में थे , की साक्षी असत्य हो जाती है क्या ?
१८. लाखों की सम्पदा रखने वाली नन्ही पर जब विष देने का आरोप लगाया गया , इस आरोप लगाने वालों में महात्मा मुंशी राम, मास्टर आत्माराम , लक्षमण जी, महाशय क्रिअष्ण जी अदि पर उसने मानहानि का अभियोग क्यों न किया ?
१९. भक्त अमिन्चंद को यह क्यों लिखना पडा :
अमिन्चंद एसा होना कठिन है , धर्म न हारा
कष्ट उठाए , ण घबराये , उय्दी वश खाई ||
महर्षि का विषपान अमर बलिदान में दि कविता की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है :
दियो विष हा हा हा स्वामी हमारो चली बसों ||
२० बम्बई की एक मेडिकल संस्था ने भारत सरकार के अनुदान से डा. सी के पारिख का एक ग्रन्थ सिम्पलिफाईड टेक्स्ट बुक आफ मेडिकल ज्युरुपुदेंस एंड टेक्नोलॉजी प्रकाशित करवाया है उसके पृष्ट ६४३,६७३,६७४ पर बड़े विस्तार से विष दिए जाने पर शारीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं का वर्णन किया गया है | कोई भी सत्यान्वेषी उन्हें पढ़ कर यही निर्णय देगा कि मह्रिषी जी महाराज के अंतिम दिनोंमें जीना शारीरिक व्याधियों का कष्ट भोगना पड़ा वे सब विष दिए जाने के करण उतपन्न हुईं |
विस्वबंधू शास्त्री तथा श्रीराम शर्मा ,दोनों ही मूलराज को अपना गुरु मानते हैं किन्तु मूलराज जैसे कुटिल ऋषि द्रोही ने मरते दम तक कभी यह नहीं कहा व लिखा कि ऋषि को विष नहीं दिया गया | यहाँ तक कि मह्रसी को विष देने के विरोधी श्रीराम शर्मा द्वारा शोलापुर से प्रकाशित प्री. बहादुर मॉल की एक पुस्तक से विष दिए जाने के प्रमाण प्रकाशित किया| इससे भी उनके दोहरे चरित्र का पता चलता है | होश्यारपुर के विश्वबंधु, सूर्यभान कुलपति की पुस्तकों में भी विषपान की घटना निकला आई | महात्मा हंसराज की एक पुस्तक से भी इस सम्बन्ध में प्रमाण मिला |
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्य जगत के एक सर्वोतम शोध करता हैं | उन्होंने पुस्तक लिखी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | इस पुस्तक तथा इससे पूर्व लिखे लेखों के आधार पर श्रीराम शर्मा , लक्शामिदत दीक्षित आदि टिक न सके तो फिर अब गर्ग जी को यह विवादित कार्य फिर से आरम्भ करने की आवश्यकता क्यों हुई तथा इस झूठ को फिर से फैलाने का प्रयास क्यों किया गया तथा यह भी पुन: आर्य जगत में ही क्यों प्फकाषित किया गया ? , इस के पीछे अवश्य कोई साजिश है , इस साजिश का पर्दाफाश होना आवश्यक है ताकि भविष्य में कोई एसा अनर्गल प्रलाप पुन: लाने का साहस न कर सके | ऊपर मैंने जो कुछ लिखा है , वह्सब जिज्ञासु जी की पुस्तक के आधार पर ही लिखा है यदि विस्तार से जानाना चाहें तो इस पुस्तक तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुवाद की गई लक्षमण जी वाली ऋषि जीवन का अनिम भाग अवश्य पढ़ें | यह भी जाने की विष किसने दिया , उसके नाम का निर्णय करना हमारा काम नहीं है , हमारा काम है की वास्तव में विष दिया गया या नहीं | मुद्दे से न भटकते हुए विषपान तक ही सिमित रहते हुए जाने तो पता चलता हैकि स्वामी जी की म्रत्यु का कारण वास्तव में विषपान ही था जो जोधपुर राजघराने में एक साजिश के तहत दिया गया और इस साजिश में बहुत से लोग यहाँ तक कि अंग्रेज भी शामिल था |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, २०१०१० गाजियाबाद
दूरभाष 01202773400 , 09718528068

भावनाओं का स्वरूप : शिवदेव आर्य

feelings

भावनाएं बड़ी विशाल होती हैं। भावनाओं के आधार पर ही हम प्राणी परस्पर व्यवहार करते हैं। जो भावनाओं के महत्व को समझ गया वह समझो इस बन्धरूपी संसार से मुक्त हो गया। इसलिए हम समझने का प्रयास करेंगे कि भावनाओं में आखिर क्या शक्ति है, जो इस संसार में हमें किसी का प्रिय बना देती हैं, किसी का अप्रिय, किसी का मित्र, किसी का दुश्मन आदि-आदि। संसार में ऐसा भी देखा गया है कि कोई किसी की भावनाओं में इतना ज्यादा आकृष्ट हो जाता है कि वह अपने बारे में सोचता तक नहीं।

यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जैसा भाव हमारे मन में सामने वाले के प्रति होता है वैसा ही सामने वाले के मन में भी होता है। यदि हम किसी के प्रति दुष्टता का विचार अपने मन में लायेंगे तो वैसा ही विचार वह भी हमारे लिए अपने मन मे लायेगा। इसलिए दुसरों के प्रति हितकर भावों को जागृत करें। इस प्रसंग में एक आख्यान स्मरण हो उठता है-कहते है कि एकबार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा ने उसे देखते ही उनके मन में आया  कि इसका सब कुछ छीन लिया जाना चाहिये।

व्यापारी के जाने के बाद राजा ने सोचा-मैं प्रजा को हमेशा न्याय देता हूॅं। आज मेरे मन में यह कालुष्य  क्यों आ गया कि व्यापारी की सम्पत्ति छीन ली जाय? उसने अपने मन्त्री को पास आहुत कर पूछा कि ये विचार मेरे मन में ये  कैसे आ गये? मन्त्री ने कहा कि- इसका सही उत्तर मैं कुछ समय के पश्चात् दूॅंगा।

मन्त्री विलक्षण बुध्दि का था। वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाॅंठने के लिए पहुॅंच गया । व्यापारी से मित्रता करके पूछा कि तुम इतने चिन्तित क्यों हो? तुम तो भारी मुनाफे वाले चन्दन के व्यापारी हो।

व्यापारी बोला-धारा नगरी सहित अनेक नगरों में चन्दन की गाडि़याॅं भरे फिर रहा हॅूॅं, पर चन्दन नहीं बिक रहा। बहुत सारा धन इसमें फॅंसा पड़ा है। अब नुकसान से बच पाने का कोई उपाय नहीं है। व्यापारी की बातें सुनकर मन्त्री ने पूछा-क्या कोई रास्ता नहीं बचा? व्यापारी हॅंसकर बोला-अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाये तो उनके दाह-संस्कार के लिये सारा चन्दन बिक सकता है।

मन्त्री को राजा का उत्तर देने की सामग्री मिल चुकी थी। अगले ही दिन मन्त्री ने व्यापारी से कहा-तुम प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए एक मन चन्दन दे दिया करो और नगद पैसे भी उसी समय ले लिया करो। व्यापारी मन्त्री के आदेश को सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह मन-ही-मन राजा को शतायु ;लम्बी आयुद्ध होने की कामना करने लगा।

एक दिन राजा की सभा चल रही थी। व्यापारी दोबारा राजा को वहाॅं दिखायी  दे गया  तो राजा सोचने लगा कि कितना आकर्षक व्यक्ति है, बहुत परिश्रमी है।  इसे कुछ उपहार देना चाहिए।

राजा ने पुनः मन्त्री को बुलाकर कहा कि हे मन्त्रीवर! यह व्यापारी प्रथम बार आया था, उस दिन मैंने   सवाल किया था, उसका उत्तर तुमने अभी तक नहीं दिया। आज इसे देखकर मेरे मन की भावनाएॅं परिवर्तित हो गई हैं, जिससे मेरे मन में अनेको प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं। इसे दूसरी बार देखा तो मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?

मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा – महाराज! दोनो ही प्रश्नों के उत्तर आज ही दे रहा हूॅं। यह पहले आया था तब आपकी मृत्यु के विषय में सोच रहा था। अब यह आपके जीवन की कामना करता है, इसीलिए आपके मनमें इसके प्रति दो प्रकार की भावनाओं को उदय हुआ है। इससे सिध्द होता है कि हम जैसी भावना किसी के प्रति रखेंगे वैसी ही भावना वह व्यक्ति हमारे प्रति रखेगा।

-गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून

 

आखिर संस्कृत व हिन्दी भाषा का विरोध क्यों? : शिवदेव आर्य

sanskrit

 

वर्तमान में प्रचलित संस्कृत और हिन्दी के विवाद के शब्द निश्चित ही आपके कानों में कहीं से सुनायी  दिये होगें। कुछ ही दिन पहले केन्द्र सरकार ने हिन्दी को बढ़ावा देने की बात कही थी, जिसका विपक्ष के लोगों और दक्षिणी लोगों ने विरोध किया था। आज आजादी के छः दशकों के बाद भी हमारे देश के काम-काज की भाषा हिन्दी नहीं बन पायी है, क्योंकि देश के जो भी नीति-निर्माता रहे उन्होंने हिन्दी के साथ बहुत भेदभाव किया, जिसके कारण हिन्दी आगे नहीं बढ़ पायी है।

आज भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है। सम्पूर्ण विश्व में भी हिन्दी का वर्चस्व है। लेकिन उसके पाश्चात् भी भारत के नेताओं ने कभी हिन्दी को बढ़ावा नहीं दिया। हिन्दी राजभाषा है, इसके बाद जब उसका इतना बुरा हाल हो सकता है तो फिर और भाषाओं के विकास की चर्चा करना ही व्यर्थ है। हिन्दी सप्ताह सभी सरकारी कार्यालयों में मनाना होता है। आज कार्यालयों के बाहर हिन्दी सप्ताह में भी सरकारी कर्मचारी हिन्दी में काम करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इससे ज्यादा दुर्गति इस भाषा की क्या हो सकती है?

हिन्दी की दुगति का एक और सबसे बड़ा कारण आधुनिक शिक्षा नीति है। आज प्रत्येक अमीर व गरीब व्यक्ति हिन्दी माध्यम से अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता है। उनके मन में अंग्रेजी  इतने अन्दर तक बैठ चुकी है कि वे समझते है कि अंग्रेजी के बिना तो पढ़ना ही व्यर्थ है। इसके कारण आने वाली पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति तेजी से बढ़ रही है। यह एक भयंकर समस्या है, क्योंकि अंग्रेजी से पला-बढ़ा बच्चा भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्पराओं के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। आज भारत के एक गाॅव किसान का बेटा भी हिन्दी भाषा में लिखे अंकों को न तो बोल पाता है और न ही समझ पाता है। इसके पीछे कारण हिन्दी का घटता वर्चस्व और अंग्रेजी का बढ़ता महत्त्व है।

आज भारतीय व्यक्ति हिन्दी बोलने में शर्म महसूस करता है और अंग्रेजी बोलने में वह गर्व महसूस करता है। इसके पीछे सरकार की नीतियाॅं, शिक्षा और पश्चिमी सभ्यता है। आज तक पीछे की सरकारों ने हिन्दी को दबाने का काम किया है। अगर मोदी सरकार हिन्दी को बढ़ाने का काम करती है तो इसमें इतने विरोध की क्या आवश्यकता ? अपने ही हिन्दी भाषी बहुल देश में अगर हिन्दी का विकास नहीं होगा तो फिर कहाॅं होगा? अंग्रेजी के उत्थान के लिए अनेक विकसित देश लगे हुए है पर क्या भारत की हिन्दी भाषा का विकास कोई और देश करेगा?

संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 2011 से सी-सेट का प्रश्न पत्र लगाया गया। इस प्रश्न पत्र के आते ही हिन्दी भाषी प्रान्तों के छात्र, कृषक परिवार के छात्र अर्थात् जो भी कला वर्ग से पढ़ा  हुआ छात्र है, वह इस परीक्षा से इस प्रश्नपत्र ने बाहर कर दिया, क्योंकि इस प्रश्नपत्र का विषय ही ऐसा बनाया है कि इसमें हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र आगे जा ही न सकें। यह तथ्य लगातार तीन वर्षों से आयोजित हुई परीक्षा के परिणामों से स्पष्ट है। जहाॅं पहले हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र सर्वोच्च अंक प्राप्त करते थे। आज वे प्रारम्भिक सौ छात्रों में भी नहीं आ पा रहे है। इससे सैंकड़ों हिन्दी भाषी छात्र  आई.ए.एस., आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. बनने से चूक रहे हैं। वर्ष 2011 में प्रारम्भिक परीक्षा में 9324 लोग अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण हुए, जबकि हिन्दी भाषी छात्रों का विरोध करना बिल्कुल उचित है। क्योंकि वे इस परीक्षा के पहले चरण में ही बाहर हो रहे है। यह संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय की भावना के अतिरिक्त मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार को राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन था नियुक्ति से सम्बन्धित  विषयों अवसर की समानता की गारष्टी का भी उल्लंघन है।

2011 में अलघ समिति की अनुशंसा के आधार पर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में व्यापक परिवर्तन किये गये थे पर इस समिति ने अंग्रेजी को शामिल करने की कोई बात नहीं कही थी फिर भी बिना किसी आधार के अंगे्रजी को शामिल कर दिया। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी का है। आजादी के बाद 1979 तक तो अंगे्रजी के माध्यम से ही यह परीक्षा होती थी। अनेक प्रयासों के बाद 1979 के बाद भारतीय भाषाओं के         माध्यम से उच्च पदों पर पहुॅंच सकें है। 2011 में कपिल सिब्बल की कृपा से यह सारी योजना बनी कि कैसे हिन्दी भाषियों के वर्चस्व को कम किया जाये। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये सारे नीतिनिर्माता नेता एवं उच्चपदस्थ अधिकारी विदेशों में रहकर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं, और फिर उसी विदेशी शिक्षानीति को भारत में लागू करते हैं। आज ऐसे लोगों के कारण ही हमारी भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्परायें लुप्त हो रही हैं। सबसे बड़ा आन्तरिक खतरा आज हमें इन्हीं लोगों से है। आज अगर हिन्दी भाषी छात्र मोदी सरकार से न्याय की माॅंग करती है तो गलत क्या है? हिन्दी समर्थक सरकार है तो निश्चित हिन्दी भाषी छात्रों की विजय है और होनी भी चाहिए।

1 अगस्त से 8 अगस्त तक संस्कृत सप्ताह प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष मोदी सरकार ने सभी सी.बी.एस.सी. विद्यालयों में पत्र भेजकर संस्कृत सप्ताह मनाने का अनुग्रह किया है। इस पर देश में कही पर भी       विरोध नहीं हुआ है, लेकिन तमिलनाडू में जयललिता और करुणानिधि ने इसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भेद-भाव की राजनीति बताया है। इन नेताओं से मैं पूछना चाहता हूॅं कि जब विगत सरकार अंग्रेजी को हर जगह बसा रही थी, तब करुणानिधि कहाॅं गये थे? सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इनको बहुत अच्छा उत्तर दिया कि बोलने से पहले अपने नाम बदल लो, क्योंकि जयललिता और करुणानिधि शुध्द संस्कृत के नाम है। जिस भाषा का ये नेता समर्थन कर रहे हैं। वह तमिल भाषा भी संस्कृत पर ही आश्रित है अगर तमिल भाषा को वे सुरक्षित रखना चाहते है तो उससे पहले संस्कृत की सुरक्षा करनी पडे़गी। यह प्रयास निश्चित ही संस्कृत भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि गत दिवसों में स्वयं गृहमन्त्री ने सदन में यह बताया कि संस्कृत भाषा सब भाषाओं की जननी है। इसके उच्चारण को समस्त विश्व ने वैज्ञानिक  माना है। इसका विकास होना चाहिए। सरकार का यह प्रयास नितान्त स्तुत्य है।

प्रिय पाठकगण! हिन्दी और संस्कृत भाषा आज तक उपेक्षा का परिणाम यह हो रहा है कि लोग हिन्दी भाषी व संस्कृतभाषी को हीन समझ रहे हैं। अंग्रेजी भाषी लोग अपने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझ रहे हैं। चारों तरफ अंग्रेजी का ऐसा आतंक मच गया है कि लोग यह समझने लग गये है कि अंग्रेजी के विना तो जीवन व्यर्थ है। यह भावना हमें समाज से हटानी होगी। आज सरकार यदि संस्कृत और हिन्दी के संरक्षण का प्रयास करती है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मेरा मानना है कि जो भी वास्तविक देशभक्त हैं, जिसके अन्दर देशहित की भावना है, वह व्यक्ति कभी भी हिन्दी और संस्कृत का विरोध करेगा  ही नहीं । भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अगर हम जीवित रखना चाहते हैं तो हमें निश्चित ही इन दोनों भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। इन्हीं भाषाओं के बाद अन्य भाषाओं की रक्षा सम्भव है। शुध्द हिन्दी पूर्णतः संस्कृत पर आधारित है। संस्कृत की सुरक्षा में सभी की सुरक्षा है। इसीलिए हम सबको अपने अपने प्रयासों से इन भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। हमारा एक अल्प प्रयास भी इन भाषाओं के लिए संजीवनी का काम करेगा। आप सबके विचारों की प्रतीक्षा में…….

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

Family in Veda

pariwar
Atharv Ved Sookt 12.3 is a very interesting and big Sookt containing 60 mantras.
Among many other topics I have been studying thisSookt also. I take the opportunity to share my interpretation of the first ten mantras of this Sookt.
I shall be obliged and honoured to hear comments of Vedic scholars on my understanding of this Sookt. Family AV12.3 ऋषि: -यम: , देवता:-स्वर्ग;, ओदन: ,अग्नि:

 लेखक – सुबोध कुमार 

गृहस्थाश्रम का आरम्भ. Start of Married Life

1.  पुमान्पुंसोऽधि तिष्ठ चर्मेहि तत्र ह्वयस्व यतमा प्रिया ते ।

यावन्तावग्रे प्रथमं समेयथुस्तद्वां वयो यमराज्ये समानं  । । AV12.3.1

शक्तिशालियों में भी शक्तिशाली स्थान  पर स्थित होवो ।(ब्रह्मचर्याश्रम के पूर्ण होने पर सब प्रकार की शक्ति और कुशलता प्राप्त कर गृहस्थाश्रम में स्थित होवो)

जो तुझे सब से प्रिय हो उस को  अपनी  जीवन साथी बना । प्रथम तुम दोनों द्वारा अलग अलग जैसे ब्रह्मचर्याश्रम का पालन किया अब दोनों सन्युक्त हो कर समान रूप से व्यवस्था चला कर सन्यम पूर्वक गृहस्थाश्रम का धर्म  निर्वाह  करो ।

दाम्पत्य  जीवन Sex Life

2.  तावद्वां चक्षुस्तति वीर्याणि तावत्तेजस्ततिधा वाजिनानि ।

अग्निः शरीरं सचते यदैधोऽधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः  । । AV12.3.2

कामाग्नि जब तुम्हारे  शरीर को   ईंधन की तरह जलाने लगे तब अपने परिपक्व सामर्थ्य से संतानोत्पत्ति के लिए मैथुन करो   परंतु यह  ध्यान रहे कि  कामाग्नि में शरीर  ईंधन की तरह जलने पर भी (गृहस्थाश्रम में ) तुम्हारी दृष्टि, समस्त उत्पादक सामर्थ्य, तेज और बल वैसे ही  बने रहें जैसे पहले (ब्रह्मचर्याश्रम में थे )

संतान पालन Bringing up Children

3.  सं अस्मिंल्लोके सं उ देवयाने सं स्मा समेतं यमराज्येषु ।

पूतौ पवित्रैरुप तद्ध्वयेथां यद्यद्रेतो अधि वां संबभूव  । । AV12.3.3

इस संसार में  तुम दोनों दम्पति यम नियम का पालन करते हुए संयम से सब लौकिक काम एक मन से करते हुए देवताओं के  मार्ग पर चलो। पवित्र जीवन शैलि और शुभ संस्कारों द्वारा प्राप्त संतान को अपने समीप  रखो।

(जिस से  वह  तुम्हारे आचार व्यवहार  से अपने जीवन के लिए  सुशिक्षा  प्राप्त करे और तुम्हारे प्रति उस  की  भवनाएं जागृत हो सकें  ) ।

आहार Food for the family

4. आपस्पुत्रासो अभि सं विशध्वं इमं जीवं जीवधन्याः समेत्य ।

तासां भजध्वं अमृतं यं आहुरोदनं पचति वां जनित्री  । । AV12.3.4

तुम स्वयं परमेश्वर की संतान हो , अपना जीवन धन धान्य से सम्पन्न बनाओ जिस से अपनी  संतान के समेत अपने सब कर्त्तव्यों के पालन कर सको और  इन्हें सुपच, अमृत तुल्य भोजन)   दो जिस के सेवन से संतान अमृतत्व को प्राप्त करे। (शाकाहारी  कंद मूल फल  वनस्पति इत्यादि जिसे  प्रकृति पका रही  है

5. यं वां पिता पचति यं च माता रिप्रान्निर्मुक्त्यै शमलाच्च वाचः ।

स ओदनः शतधारः स्वर्ग उभे व्याप नभसी महित्वा  । । AV12.3.5

वह अन्न  जिसे आकाश से सहस्रों जल धाराओं से सींच बनाया जाता है जिसे  द्युलोक रूप पिता भूमि  माता बनाते  हैं और फिर जिसे  माता पिता भोजन के लिए पकाते  हैं वह शरीर से मल को  मुक्त करके  निरोगी बनाने  वाला और मस्तिष्क की पुष्टि से वाणी को  शांत बनाने  वाला हो । सौ वर्षों तक स्वर्गमय दोनों लोकों में यश प्राप्त कराने वाला हो ।

सन्युक्त परिवार वृद्धावस्था Joint family Old age care

6. उभे नभसी उभयांश्च लोकान्ये यज्वनां अभिजिताः स्वर्गाः ।

तेषां ज्योतिष्मान्मधुमान्यो अग्रे तस्मिन्पुत्रैर्जरसि सं श्रयेथां  । । AV12.3.6

(उभे नभसी) द्यावा पृथिवी के अपने परिवारके  वातावरण सात्विक  आहार और  यज्ञादि की जीवन शैलि से (ज्योतिष्मान मधुमान) प्रकाशमान और माधुर्य वाला  बना कर (स्वर्गा: ) तीनों स्वर्ग प्राप्त प्राप्त करो. जिस में संतान, दम्पति माता पिता, और जरावस्था को प्राप्त  तीनो मिल कर मधुरता से  आश्रय पाएं ।

No divorce

7.  प्राचींप्राचीं प्रदिशं आ रभेथां एतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते ।

यद्वां पक्वं परिविष्टं अग्नौ तस्य गुप्तये दंपती सं श्रयेथां  । । AV12.3.7

श्रद्धा से गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए,  पके अन्न की यज्ञ (बलिवैश्वदेव यज्ञ)में  आहुति  से यज्ञशेष ग्रहण करने वाले  हुए दम्पति पति  पत्नी जीवन में उन्नति करते हुए  साथ साथ मिल् कर रहो।

8. दक्षिणां दिशं अभि नक्षमाणौ पर्यावर्तेथां अभि पात्रं एतत् ।

तस्मिन्वां यमः पितृभिः संविदानः पक्वाय शर्म बहुलं नि यछात् । । AV12.3.8

(दक्षिणं दिशम्‌ अभि) दक्षिण दिशा निपुणता से प्रगति करने की दिशा है। ( इस  प्रगति के मार्ग पर चलते हुए लोग प्राय: भोगमार्गावलम्बी  हो जाते हैं) । गृहस्थ में प्रगति के  मार्ग पर चलते हुए  तुम दोनो ( एतत् पात्रम्‌ अभि पर्यावर्त्तेथाम्‌ ) इस रक्षक देवमार्ग की ओर लौट  आओ । देवमार्ग में तुम्हारा (यम: ) नियंता (पितृभि: ) घर के बुज़ुर्ग (सं विदान) से सलाह (पक्वाय) mature दूरदर्शी विवेक पूर्ण  मार्ग  दर्शन द्वारा अत्यंत सुखी जीवन प्रदान करेगी ।

Simple living High thinking –Good company

9. प्रतीची दिशां इयं इद्वरं यस्यां सोमो अधिपा मृडिता च  ।

तस्यां श्रयेथां सुकृतः सचेथां अधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः  । । AV12.3.9

(इयं प्रतीची) = पीछे (प्रति अञ्च ) यह प्रत्याहार –इ न्द्रियों  को विषय्पं से वापस लाने की दिशा –पीछे  जाने की दिशा ही(दिशाम्‌ इत वरम्‌ ) दिशाओं  में निश्चय ही श्रेष्ठ है। सोम – शांत स्वभाव से प्रेरित आचरण  रक्षा करने वालाऔर सुखी करने वाला है । (तस्यां  श्रेयाम ) उस प्रत्याहार  की  दिशाका आश्रय लो, (सुकृत: सचेथाम्‌) –पुण्य कर्म करने वाले लोगों से ही मेल  करो, (पक्वात्‌ मिथुनां संभवाथ:) परिपक्व वीर्य से ही  संतान उत्पन्न करो ।

Virtuous Nation

10. उत्तरं राष्ट्रं प्रजयोत्तरावद्दिशां उदीची कृणवन्नो अग्रं ।

पाङ्क्तं छन्दः पुरुषो बभूव विश्वैर्विश्वाङ्गैः सह सं भवेम  । । AV12.3.11

उत्कृष्ट राष्ट्र प्रकृष्ट   संतानों  से  ही   उत्कृष्ट  होता है । इस उन्नति की  दिशा में प्रत्येक मनुष्य पञ्च महाभूतों “पृथ्वी,जल,तेज,आकाशऔर वायु” से (पांक्तम्‌ ) पांचों कर्मेद्रियों से , पांचों ज्ञानेंद्रियों से , पांचों प्राणों  “पान , अपान,व्यान, उदान और  समान” से पांच  भागों में विभक्त “ मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार और हृदय” मे बंटे अन्त:करण  से ,   यह सब पांच मिल कर जो जीवन का (छन्द) का संगीत हैं, विश्व के लिए सब अङ्गों  से  पूर्ण  समाज का निर्माण करते हैं।

नास्तिकों के दावों का खण्डन

 

– ओउम् –
नमस्ते प्रिय पाठकों, नास्तिक मत भी एक विचित्र मत है जो इस सृष्टि के रचियता और पालनहार यानि ईश्वर को स्वीकार नहीं करते और उसे केवल आस्तिकों की कल्पना मात्र बताते हैं। परंतु वे यह भूल जाते हैं कि हर चीज के पीछे एक कारण होता है। बिना कर्ता कोई क्रिया नहीं हो सकती। यही सृष्टि के लिये भी लागू होता है।
ईश्वर ही इस सृष्टि के उत्पन्न होने का कारण है। परंतु यह बात नास्तिक स्वीकार नहीं करते और तरह-तरह के तर्क देते हैं। अपने मत के समर्थन में कितने सार्थक हैं उनके तर्क आइये देखते हैं।
हम यहाँ नास्तिकों के दावों का खण्डन करेंगे। महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” में नास्तिकों के तर्कों का खण्डन पहले ही कर दिया है। हम नास्तिकों द्वारा हाल ही में किये दावों का खण्डन करेंगे।
नास्तिकों के दावे और उनकी समीक्षा:
दावा – नास्तिकों के अनुसार ईश्वर हमारा रचियता नहीं है क्योंकि ईश्वर हमें पैदा नहीं करता अपितु हमारे माता पिता के समागम से हम जन्म लेते हैं। इसलिये ईश्वर हमारा रचियता नहीं है।
समीक्षा – केवल इतना कह देने से ईश्वर की सत्ता और उसका अस्तित्व अस्वीकार कर देना मूर्खता होगी। माता पिता के समागम से बच्चा पैदा होता है क्योंकि ईश्वर ने ऐसा ही विधान दिया है। एक माता को यह नहीं पता होता की उसके गर्भ में पल रहा शिशु लड़का है या लड़की, न ही उसे यह पता होता है कि उस शिशु के शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं। न ही उन्हें यह पता होता है कि बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है या नहीं अर्थात बच्चे को कोई आन्तरिक रोग तो नहीं है? यदि माता पिता ही सब कुछ जानने वाले होते तो वे बच्चे भी अपनी मर्जी से पैदा करते अर्थात लड़का चाहते तो लड़का और लड़की चाहते तो लड़की। इससे पता चलता है कि माता पिता का समागम केवल शिशु उत्पन्न करता है। शिशु कौन होगा और कैसा होगा यह उनको नहीं पता होता। केवल ईश्वर ही यह बात जानता है और मनुष्य नहीं, क्योंकि ईश्वर ने उन्हें ऐसा बनाया है।
दावा – कुछ बच्चे बीमार भी पैदा होते हैं और कुछ पैदा होती ही मर भी जाते हैं। कुछ को पैदा होती ही ऐसे रोग भी लग जाते हैं जो जिंदगी भर उनके साथ रहते हैं। यदि ईश्वर है तो उसने इन बच्चों को ऐसा क्यों बनाया अर्थात इन्हें रोग क्यों दिये इनको स्वस्थ पैदा क्यों नहीं किया?
समीक्षा – क्योंकि ईश्वर की सत्ता में कर्मफल का विधान है। ये बच्चे भी उसी का परिणाम हैं। और बाकि उसके माता पिता पर भी निर्भर करता है कि उनका आचरण कैसा है। माता पिता यदि उच्च आचरण वाले होंगे तो उनकी सन्तान भी स्वस्थ पैदा होगी। यदि माता पिता का आचारण नीच होगा तो सन्तान भी नीच और विकारों वाली पैदा होगी। और बाकि उस शिशु के पूर्वजन्म के कर्मों पर भी निर्भर करता है। ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करता। जैसे जिसके कर्म होंगे वैसा ही उसे फल मिलेगा, चाहे शिशु हो या चाहे व्यस्क। यही कर्मफल का सिद्धांत है।
दावा – ईश्वर की बनाई यह सृष्टि परिशुद्ध अर्थात परफेक्ट नहीं है क्योंकि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह परफेक्ट नहीं है। इसमें कहीं समुद्र है, कहीं रेगिस्तान, कहीं द्वीप, कहीं ज्वालामुखी और कहीं पर्वत। अगर ईश्वर परिशुद्ध होता तो अपनी पृथ्वी को भी वैसा ही बनाता परंतु ऐसा नहीं है। पृथ्वी परफेक्ट नहीं है और इससे यह पता चलता है कि ईश्वर भी परफेक्ट नहीं है।
समीक्षा – चलिये आपने माना तो कि ईश्वर है। अब वह परिशुद्ध है या नहीं इसका निर्णय भी हो जायेगा। पृथ्वी पर विभिन्न जगह विभिन्न चीज़े ईश्वर ने दी हैं। तो क्या इससे यह मान लिया जाये कि पृथ्वी परफेक्ट नहीं है? कदापि नहीं। ईश्वर ने किसी कारण से ही इसको ऐसा रूप दिया है। यदि वह इसको पूर्णतः गोल और चिकनी बना देता, तो न तो यहाँ समुद्र होते जिसके कारण वर्षा न होती और वर्षा न होती तो खेती न हो पाती, और अगर खेती न हो पाती तो मनुष्य को भोजन न मिलता और वह भूखा मर जाता। यदि पृथ्वी पर ज्वालामुखी न होते तो पृथ्वी के अंदर का लावा धरती को क्षती पहुँचाकर बाहर निकलता जिससे मानव और जीव दोनों की हानि होती। अब इनको पृथ्वी पर बनाने में ईश्वर की परफेक्टनेस न कहें तो और क्या कहें!? जिसने सभी जीव, जन्तु, वनस्पति का ध्यान रखते हुए इस पृथ्वी को रचा। केवल मूर्ख ही इस बात को अब अस्वीकार करेंगे।
दावा – हम केवल ब्रह्म अर्थात चेतना को सत्य मानते हैं और यह जगत केवल मिथ्या है। इसका कोई रचियता नहीं है। जो हम देखते हैं अपने आस पास वह केवल हमारी चेतना द्वारा किया गया एक चित्रण है।
समीक्षा – यदि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत केवल मिथ्या तब इस जगत में जीव दुःख, सुख, क्रोध आदि भौतिक भाव क्यों अनुभव करता है? क्या हमारी चेतना केवल सुख का संसार ही नहीं बना सकती थी? यदि यह जगत मिथ्या है तो मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी जीवात्मा (जानवर, जन्तु) का इस जगत में क्या प्रयोजन है? यह जगत को मिथ्या मानना केवल मूर्खता है। ईश्वर ने यह जगत किसी प्रयोजन से रचा है ताकि जीवात्मा ईश्वर द्वारा दिये वेदों को जानकर, उनका अनुसरण कर मोक्ष को प्राप्त हो सके। जैसे एक इंजीनियर ही अपने द्वारा बनाई गयी प्रणाली को भली भाँति जानता है, उसी प्रकार केवल ईश्वर ही इस सृष्टि को जानता है।
वेदों में नास्तिकता के विषय में कहा है:
अवंशे द्यामस्तभायद् बृहन्तमा रोदसी अपृणदन्तरिक्षम् | स धारयत्पृथिवी पप्रथच्च सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार || ऋग 2.15.2
कोई नास्तिकता को स्वीकार कर यदि ऐसे कहें कि जो ये लोक परस्पर के आकर्षण से स्थिर हैं इनका कोई धारण करने वा रचनेवाला नहीं हैं उनके प्रति जन ऐसा समाधान देवें कि यदि सूर्यादि लोकों के आकर्षण से ही सब लोक स्थिति पाते हैं तो सृष्टि के आगे कुछ नहीं है वहाँ के लोकों के आकर्षण के बिना आकर्षण होना कैसे सम्भव है ? इससे सर्वव्यापक परमेश्वर की आकर्षण शक्ति से ही सूर्यादि लोक अपने रूप और अपनी क्रियाओं को धारण करते हैं | ईश्वर के इन उक्त कर्मों को देख धन्यवादों से ईश्वर की प्रशंसा सर्वदा करनी चाहिए ||
आगे ईश्वर उपदेश करता है:
असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम॥ (ऋग्वेद 1.9.4)
जिस ईश्वर ने प्रकाश किये हुए वेदों से जाने अपने-अपने स्वभाव, गुण और कर्म प्रकट किये हैं, वैसे ही वे सब लोगों को जानने योग्य हैं, क्योंकि ईश्वर के सत्य स्वभाव के साथ अनन्तगुण और कर्म हैं, उनको हम अल्पज्ञ लोग अपने सामर्थ्य से जानने को समर्थ नहीं हो सकते। तथा जैसे हम लोग अपने-अपने स्वभाव, गुण और कर्मों को जानते हैं, वैसे औरों को उनका यथावत जानना कठिन होता है, इसी प्रकार सब विद्वान् मनुष्यों को वेदवाणी के बिना ईश्वर आदि पदार्थों को यथावत् जानना कठिन होता है। इसलिए प्रयत्न से वेदों को जानके उनके द्वारा सब पदार्थों से उपकार लेना तथा उसी ईश्वर को अपना इष्टदेव और पालन करनेहारा मानना चाहिए।
जड़ पदार्थों के विषय में लिखा है:
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति॥ (ऋग्वेद 1.18.7)
व्यापक ईश्वर सब में रहनेवाले और व्याप्त जगत् का नित्य सम्बन्ध है वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सब की बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःखरूप फल देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभाव मात्र से सिद्ध होनेवाला, अर्थात् जिस का कोई स्वामी न हो ऐसा संसार नहीं हो सकता क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती॥
अब पाठक गण स्वंय निर्णय लेंवे और सत्य को स्वीकार और असत्य का परित्याग करें। और सदा उस परमपिता परमात्मा का ही गुणगान करें जिसने हमें यह अमूल्य जीवन दिया है।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽआसीत् | स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम || (यजुर्वेद 13.4)

 

हे मनुष्यों! तुमको योग्य है कि सब प्रसिद्ध सृष्टि के रचने से प्रथम परमेश्वर ही विद्यमान था, जीव गाढ़ा निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत का कारण अत्यन्त सूक्ष्मावस्था में आकाश के समान एकरस स्थिर था, जिसने सब जगत् को रचके धारण किया और अन्त्य समय में प्रलय करता है, उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो ||

अम्बेडकर की वेदों के विषय में भ्रान्ति

मित्रो अम्बेडकर और उनके अनुयायी वेदों के कुप्रचार में लगे रहते है ,,ये लोग पुर्वग्रस्त हो कर वेदों के वास्तविक स्वरुप को पहचान ने का प्रयास न कर उसके कुप्रचार और आक्षेप लगाते रहते है …
अम्बेडकर जी की पुस्तक riddle in hinduism में वेदों पर लगाये गए आरोप का खंडन पिछली इस पोस्ट पर हमारे इस ब्लॉग पर किया गया था..http://nastikwadkhandan.blogspot.in/
अब यहाँ अम्बेडकर की बुद्ध और उनका धम्म नामक पुस्तक में वेदों पर लगाये आक्षेप या अम्बेडकर के वेदों के बारे में फैलाये गये भ्रम का खंडन किया जा रहा है :-
सबसे पहले वेदों के विषय में अम्बेडकर ने किया लिखा वो देखे :-

अम्बेडकर जी वेदों को ईश्वरीय नही मानते है बल्कि ऋषि कृत मानते है उनकी इस बात का जवाब पिछली पोस्ट में दिया जा चूका है ..लेकिन यहाँ भी थोडा सा दे देते है :-“ऋषियों मन्त्रद्रष्टारः।ऋषिदर्शनात् स्तोमन् ददर्शेत्यौपन्यवः।तद् यदेना स्तपस्यस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यानर्षत् तदृषीणाम् ऋषित्वमिति विज्ञायते।-निरुक्त २.११.
ऋषि वेदमंत्रो के अर्थद्रष्टा होते है,ओप्मन्व्य आचार्य ने भी कहा है कि वेदों में प्रयुक्त स्तुति इत्यादि विषयक मंत्रो के वास्तविक अर्थ का साक्षात्कार करने वालो को ऋषि के नाम से प्रकाश जाता है ,,तपस्या व ध्यान करते हुए जो इनको स्वयंभु नित्य वेद के अर्थ का भान हुआ इसलिए ऋषि कहलाय …
अत:यहाँ स्पष्ट कहा है ऋषि मन्त्र कर्ता नही बल्कि अर्थ द्रष्टा थे …
कुछ नास्तिक वेदों में प्रजापति,भरद्वाज,विश्वामित्र,आदि नाम दिखा कर इन्हें ऋषि बताते है और इन्हें मन्त्र कर्ता ,,लेकिन वास्तव में ये किसी व्यक्ति विशेष के नाम नही है ,,बल्कि योगिक शब्द है जिनके वास्तविक अर्थ शतपत आदि ब्राह्मण ग्रंथो में उद्र्रत किये है..इन्ही नामो के  आदार पर ऋषियों ने अपने उपाधि स्वरुप नाम रखे ..जैसे भरद्वाज नाम वेदों के भारद्वाज नाम से रखा गया ..फिर उनके पुत्र ने भारद्वाज नाम रखा…
शतपत में भारद्वाज ,वशिष्ट आदि नामो के अर्थ :-
” प्राणों वै वशिष्ट ऋषि (शतपत ८ /१/१/६ )”
वशिष्ट का अर्थ प्राण है ,,
“मनो वै भारद्वाज ऋषि” (शतपत ८/१/१/९ )
भारद्वाज का अर्थ मन है ,,
“श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषि: “(शतपत ८/१/२/६)
विश्वामित्र का अर्थ कान है ..
“चक्षुर्वे जमदाग्नि:” (शतपत १३/२/२/४)
जमदाग्नि का अर्थ चक्षु है ..
“प्राणों वै अंगीरा:”(शतपत ६/२/२/८ )
अंगिरा का अर्थ प्राण है ..
“वाक् वै विश्वामित्र ऋषि: ” (शतपत ८/१/२/९)
विश्वामित्र का अर्थ वाणी है ..
अत: दिय गये नाम ऋषियों के नही है …
अम्बेडकर लिखते है कि मन्त्र देवताओ की प्राथना के अतिरिक्त कुछ नही है ।
अम्बेडकर जी को वैदिक दर्शन का शून्य ज्ञान था ,,वेदों में अग्नि सोम आदि नामो द्वारा ईश्वर की उपासना ओर देवताओ के द्वारा विज्ञानं और प्रक्रति के रहस्य उजागर किये है ..
अम्बेडकर देवताओ को कोई व्यक्ति समझ बेठे है शायद जबकि देवता प्राक्रतिक उर्जाये ओर प्राक्रतिक जड़ वस्तु विशेष है ..
मनु स्म्रति के एक श्लोक से अग्नि,इंद्र आदि नामो से परमात्मा का ग्रहण होता है :-
“प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्भाम स्वपनधीगम्य विद्यात्तं पुरुषम् परम् ।।
एतमग्नि वदन्त्येके मनुमन्ये प्रजापतिम् ।
इन्द्र्मेके परे प्राणमपरे ब्रहम शाश्वतम् ।।(मनु॰ १२/१२२,१२३ )
स्वप्रकाश होने से अग्नि ,विज्ञानं स्वरूप होने से मनु ,सब का पालन करने से प्रजापति,और परम ऐश्वर्यवान होने से इंद्र ,सब का जीवनमूल होने से प्राण और निरंतर व्यापक होने से परमात्मा का नाम ब्रह्मा है ..
अत स्पष्ट है कि इंद्र,प्रजापति नामो से ईश्वर की उपासना की है ..
वेदों में वैज्ञानिक रहस्य के बारे में जान्ने के लिए निम्न लिंक देखे :-http://www.vaidicscience.com/video.html
अम्बेडकर जी का कहना है कि वेदों में दर्शन नही है ,,लगता है कि उन्होंने वेदों के अंग्रेजी भाष्य को ही प्रमाण स्वरुप प्रस्तुत किया जबकि वेदों में अनेक मंत्रो में जीवन ,ईश्वर ,अंहिसा ,योग,आयुर्वेद ,विज्ञान द्वारा हर सत्य विद्याओ का दार्शनिक व्याख्या की है जिसके बारे में आगे के लेखो में स्पष्ट किया जाएगा ..
इसके अलावा वेदों में राष्ट्र ,गुरु ,अतिथि आदि के प्रति सम्मान करने का भी उपदेश है ..
बाकि पुत्र ,पुत्री ,पत्नी ,माँ ,पिता ,शिक्षक .विद्यारथी आदि के कर्तव्यो का भी उलेख है …
इससे पता चलता है कि अम्बेडकर जी ने वेदों को दुर्भावना और कुंठित मानसिकता के तहत देखा था ,,,
अम्बेडकर जी वेदों पर आरोप करते है कि इसमें देवताओ को शराब और मॉस भेट का उलेख है ,,इससे लगता है कि अम्बेडकर जी maxmuller के भाष्य के कारण सत्य  न जान सके और अन्धकार में ही भटकते रहे ..
वेदों में सोम नाम से एक लेख हमने इसी ब्लॉग पर डाल उनकी इस बात का खंडन किया था ..अब मासाहार वाली बात को देखे तो अम्बेडकर जी ने यहाँ कोई संधर्भ नही दिया नही तो उन बातो का खंडन प्रस्तुत किया जाता ..लेकिन वेदों में अंहिंसा के उपदेशो का कुछ उलेख यहाँ किया जा रहा है :-
“कृत्यामपसुव “(यजु॰ ३५ /११)”
हिंसा को तू छोड़ दे ..
“मा हिंसी: पुरुष जगत”(यजु॰ १६ /३)”
तू मानव और मानव के अतिरिक्त अन्य की हिंसा न कर ..
मा हिंसी: तन्वा प्रजाः (यजु॰ १२ /३२ )
है मनुष्य तू देह से किसी प्राणी की हिंसा न कर ..
अत स्पष्ट है कि वेदों में अंहिसा का उपदेश है तो ऐसे में मॉस भेट जो हिंसा बिना प्राप्त नही हो सकती है का सवाल ही नही उठता है ..यदि यज्ञ में हिंसा मानते है तो उस पर अलग से पोस्ट के द्वारा स्पष्ट कर दिया जाएगा ..
अम्बेडकर अपनी इसी पुस्तक में कहते है कि वेदों में मानवता का उपदेश नही है इसी कारण बुद्ध ने वेदों को मान्यता नही दी थी ।
लेकिन यहाँ भी अम्बेडकर की अज्ञानता ही है वेदों में कई जगह मानवता का उपदेश है ,,देखिये वेदों का ही यही वाक्य है “आर्य बनो ” और मनुर्भव मतलब मनुष्य बनो “..अर्थात वेद मनुष्य को श्रेष्ट बनने का उपदेश देता है ।
“जन विभ्रति बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं प्रथिवी यथोकसम् ।
सहस्त्रं धारा द्रविणस्य में दुधं ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरंती ।।(अर्थव॰ १२/१/८४)”
विशेष वचन सामर्थ वाले ,अनेक प्रकार के कर्तव्य करने वाले व्यक्तियों को मिल जुल कर रहना चाहिए ।तब प्रथ्वी सभी को धन धान से पूरित करती है ।अर्थात मिलजुल कर रहने पर ही प्रथ्वी पर धन धान सुख का उचित दोहन कर सकते है ..जैसे की गाये से दुध का ..
अत स्पष्ट है कि वेद मानवता का ही उपदेश देते है ..
अब अम्बेडकर जी के अनुसार बुद्ध ने वेदों को अमान्य माना तो लगता है कि अम्बेडकर जी ने ठंग से बौद्ध साहित्य भी नही पढ़े थे ..
इसके बारे में भी आगे पोस्ट की जायेगी ..
देखिये सुतनिपात में बुद्ध ने क्या कहा है :-
“विद्वा च वेदेही समेच्च धम्मम् ।
न उच्चावचम् गच्छति भूरिपञ्चो ।।(सुतनिपात २९२ )”
जो विद्वान वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है ,वह कभी विचलित नही होता है ।
उपरोक्त सभी प्रमाणों से स्पष्ट है की अम्बेडकर जी वेदों पर अनर्गल और कुंठित ,दुर्भावना ,आक्रोशित मानसिकता के कारण आरोप करते थे ..शायद वे ऐसा जानबूझ कर करते थे ..