नास्तिकों के दावों का खण्डन

 

– ओउम् –
नमस्ते प्रिय पाठकों, नास्तिक मत भी एक विचित्र मत है जो इस सृष्टि के रचियता और पालनहार यानि ईश्वर को स्वीकार नहीं करते और उसे केवल आस्तिकों की कल्पना मात्र बताते हैं। परंतु वे यह भूल जाते हैं कि हर चीज के पीछे एक कारण होता है। बिना कर्ता कोई क्रिया नहीं हो सकती। यही सृष्टि के लिये भी लागू होता है।
ईश्वर ही इस सृष्टि के उत्पन्न होने का कारण है। परंतु यह बात नास्तिक स्वीकार नहीं करते और तरह-तरह के तर्क देते हैं। अपने मत के समर्थन में कितने सार्थक हैं उनके तर्क आइये देखते हैं।
हम यहाँ नास्तिकों के दावों का खण्डन करेंगे। महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” में नास्तिकों के तर्कों का खण्डन पहले ही कर दिया है। हम नास्तिकों द्वारा हाल ही में किये दावों का खण्डन करेंगे।
नास्तिकों के दावे और उनकी समीक्षा:
दावा – नास्तिकों के अनुसार ईश्वर हमारा रचियता नहीं है क्योंकि ईश्वर हमें पैदा नहीं करता अपितु हमारे माता पिता के समागम से हम जन्म लेते हैं। इसलिये ईश्वर हमारा रचियता नहीं है।
समीक्षा – केवल इतना कह देने से ईश्वर की सत्ता और उसका अस्तित्व अस्वीकार कर देना मूर्खता होगी। माता पिता के समागम से बच्चा पैदा होता है क्योंकि ईश्वर ने ऐसा ही विधान दिया है। एक माता को यह नहीं पता होता की उसके गर्भ में पल रहा शिशु लड़का है या लड़की, न ही उसे यह पता होता है कि उस शिशु के शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं। न ही उन्हें यह पता होता है कि बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है या नहीं अर्थात बच्चे को कोई आन्तरिक रोग तो नहीं है? यदि माता पिता ही सब कुछ जानने वाले होते तो वे बच्चे भी अपनी मर्जी से पैदा करते अर्थात लड़का चाहते तो लड़का और लड़की चाहते तो लड़की। इससे पता चलता है कि माता पिता का समागम केवल शिशु उत्पन्न करता है। शिशु कौन होगा और कैसा होगा यह उनको नहीं पता होता। केवल ईश्वर ही यह बात जानता है और मनुष्य नहीं, क्योंकि ईश्वर ने उन्हें ऐसा बनाया है।
दावा – कुछ बच्चे बीमार भी पैदा होते हैं और कुछ पैदा होती ही मर भी जाते हैं। कुछ को पैदा होती ही ऐसे रोग भी लग जाते हैं जो जिंदगी भर उनके साथ रहते हैं। यदि ईश्वर है तो उसने इन बच्चों को ऐसा क्यों बनाया अर्थात इन्हें रोग क्यों दिये इनको स्वस्थ पैदा क्यों नहीं किया?
समीक्षा – क्योंकि ईश्वर की सत्ता में कर्मफल का विधान है। ये बच्चे भी उसी का परिणाम हैं। और बाकि उसके माता पिता पर भी निर्भर करता है कि उनका आचरण कैसा है। माता पिता यदि उच्च आचरण वाले होंगे तो उनकी सन्तान भी स्वस्थ पैदा होगी। यदि माता पिता का आचारण नीच होगा तो सन्तान भी नीच और विकारों वाली पैदा होगी। और बाकि उस शिशु के पूर्वजन्म के कर्मों पर भी निर्भर करता है। ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करता। जैसे जिसके कर्म होंगे वैसा ही उसे फल मिलेगा, चाहे शिशु हो या चाहे व्यस्क। यही कर्मफल का सिद्धांत है।
दावा – ईश्वर की बनाई यह सृष्टि परिशुद्ध अर्थात परफेक्ट नहीं है क्योंकि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह परफेक्ट नहीं है। इसमें कहीं समुद्र है, कहीं रेगिस्तान, कहीं द्वीप, कहीं ज्वालामुखी और कहीं पर्वत। अगर ईश्वर परिशुद्ध होता तो अपनी पृथ्वी को भी वैसा ही बनाता परंतु ऐसा नहीं है। पृथ्वी परफेक्ट नहीं है और इससे यह पता चलता है कि ईश्वर भी परफेक्ट नहीं है।
समीक्षा – चलिये आपने माना तो कि ईश्वर है। अब वह परिशुद्ध है या नहीं इसका निर्णय भी हो जायेगा। पृथ्वी पर विभिन्न जगह विभिन्न चीज़े ईश्वर ने दी हैं। तो क्या इससे यह मान लिया जाये कि पृथ्वी परफेक्ट नहीं है? कदापि नहीं। ईश्वर ने किसी कारण से ही इसको ऐसा रूप दिया है। यदि वह इसको पूर्णतः गोल और चिकनी बना देता, तो न तो यहाँ समुद्र होते जिसके कारण वर्षा न होती और वर्षा न होती तो खेती न हो पाती, और अगर खेती न हो पाती तो मनुष्य को भोजन न मिलता और वह भूखा मर जाता। यदि पृथ्वी पर ज्वालामुखी न होते तो पृथ्वी के अंदर का लावा धरती को क्षती पहुँचाकर बाहर निकलता जिससे मानव और जीव दोनों की हानि होती। अब इनको पृथ्वी पर बनाने में ईश्वर की परफेक्टनेस न कहें तो और क्या कहें!? जिसने सभी जीव, जन्तु, वनस्पति का ध्यान रखते हुए इस पृथ्वी को रचा। केवल मूर्ख ही इस बात को अब अस्वीकार करेंगे।
दावा – हम केवल ब्रह्म अर्थात चेतना को सत्य मानते हैं और यह जगत केवल मिथ्या है। इसका कोई रचियता नहीं है। जो हम देखते हैं अपने आस पास वह केवल हमारी चेतना द्वारा किया गया एक चित्रण है।
समीक्षा – यदि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत केवल मिथ्या तब इस जगत में जीव दुःख, सुख, क्रोध आदि भौतिक भाव क्यों अनुभव करता है? क्या हमारी चेतना केवल सुख का संसार ही नहीं बना सकती थी? यदि यह जगत मिथ्या है तो मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी जीवात्मा (जानवर, जन्तु) का इस जगत में क्या प्रयोजन है? यह जगत को मिथ्या मानना केवल मूर्खता है। ईश्वर ने यह जगत किसी प्रयोजन से रचा है ताकि जीवात्मा ईश्वर द्वारा दिये वेदों को जानकर, उनका अनुसरण कर मोक्ष को प्राप्त हो सके। जैसे एक इंजीनियर ही अपने द्वारा बनाई गयी प्रणाली को भली भाँति जानता है, उसी प्रकार केवल ईश्वर ही इस सृष्टि को जानता है।
वेदों में नास्तिकता के विषय में कहा है:
अवंशे द्यामस्तभायद् बृहन्तमा रोदसी अपृणदन्तरिक्षम् | स धारयत्पृथिवी पप्रथच्च सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार || ऋग 2.15.2
कोई नास्तिकता को स्वीकार कर यदि ऐसे कहें कि जो ये लोक परस्पर के आकर्षण से स्थिर हैं इनका कोई धारण करने वा रचनेवाला नहीं हैं उनके प्रति जन ऐसा समाधान देवें कि यदि सूर्यादि लोकों के आकर्षण से ही सब लोक स्थिति पाते हैं तो सृष्टि के आगे कुछ नहीं है वहाँ के लोकों के आकर्षण के बिना आकर्षण होना कैसे सम्भव है ? इससे सर्वव्यापक परमेश्वर की आकर्षण शक्ति से ही सूर्यादि लोक अपने रूप और अपनी क्रियाओं को धारण करते हैं | ईश्वर के इन उक्त कर्मों को देख धन्यवादों से ईश्वर की प्रशंसा सर्वदा करनी चाहिए ||
आगे ईश्वर उपदेश करता है:
असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम॥ (ऋग्वेद 1.9.4)
जिस ईश्वर ने प्रकाश किये हुए वेदों से जाने अपने-अपने स्वभाव, गुण और कर्म प्रकट किये हैं, वैसे ही वे सब लोगों को जानने योग्य हैं, क्योंकि ईश्वर के सत्य स्वभाव के साथ अनन्तगुण और कर्म हैं, उनको हम अल्पज्ञ लोग अपने सामर्थ्य से जानने को समर्थ नहीं हो सकते। तथा जैसे हम लोग अपने-अपने स्वभाव, गुण और कर्मों को जानते हैं, वैसे औरों को उनका यथावत जानना कठिन होता है, इसी प्रकार सब विद्वान् मनुष्यों को वेदवाणी के बिना ईश्वर आदि पदार्थों को यथावत् जानना कठिन होता है। इसलिए प्रयत्न से वेदों को जानके उनके द्वारा सब पदार्थों से उपकार लेना तथा उसी ईश्वर को अपना इष्टदेव और पालन करनेहारा मानना चाहिए।
जड़ पदार्थों के विषय में लिखा है:
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति॥ (ऋग्वेद 1.18.7)
व्यापक ईश्वर सब में रहनेवाले और व्याप्त जगत् का नित्य सम्बन्ध है वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सब की बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःखरूप फल देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभाव मात्र से सिद्ध होनेवाला, अर्थात् जिस का कोई स्वामी न हो ऐसा संसार नहीं हो सकता क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती॥
अब पाठक गण स्वंय निर्णय लेंवे और सत्य को स्वीकार और असत्य का परित्याग करें। और सदा उस परमपिता परमात्मा का ही गुणगान करें जिसने हमें यह अमूल्य जीवन दिया है।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽआसीत् | स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम || (यजुर्वेद 13.4)

 

हे मनुष्यों! तुमको योग्य है कि सब प्रसिद्ध सृष्टि के रचने से प्रथम परमेश्वर ही विद्यमान था, जीव गाढ़ा निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत का कारण अत्यन्त सूक्ष्मावस्था में आकाश के समान एकरस स्थिर था, जिसने सब जगत् को रचके धारण किया और अन्त्य समय में प्रलय करता है, उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो ||

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