Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

वर्ण व्यवस्था

varn

 

वर्ण व्यवस्था क्या है ? किन पर्  लागू होती है ?  आज के  परिपेक्ष्य मैं  इस्का क्या लाभ है?

समाज मैं सब व्यक्ति सब कार्य समान कुशल्ता से नहीं कर सक्ते हैं .इस्लिये योग्यता के अनुसार व्यवस्था चलाने के लिये भिन्नभिन्न वर्ण के लोग
वर्ण व्यवस्था केवल ग्रहस्थ  पर  लागू होती है . ब्रह्म्चारि वंप्रस्थ और सन्यासि वर्ण से बाहर है.

ग्रहस्थी में एक वर्ण  की लड़्की को   अपने वर्ण में स्वयम्वर विवाह  का आदेश्  है .

सम्पत्ति ग्रहस्थ  के पास रहेगी. अन्य वर्ण ग्रहस्थ  पर आश्रित हैं .

हर वर्ण की एक  श्रेणी होती है. उस श्रेणी की व्यवस्था  वे लोग स्वयम  देख्ते  हैं .

राजा उस में हस्तक्षेप नहीं करता .

आज कल सरकार अंग्रेज़ोन कि तरह सभी श्रेणियोन का काम   सम्भाल  रहीहै इस्लिये अव्यवस्था होरही है.

कपड़ा कैसे बुना जाए ;ये फैस्ला IAS  [अंग्रेज़ सर्कार का कलक्टर ] लेगा तो अव्यवस्था तो होगी ही.

राष्ट्र को बुनकर समाज कप्ड़ा देगा. खद्दी से दे  या  मिल से दे .ये उनका कर्तव्य है . सरकार को उस्से क्या प्रयोजन? guild socialism

कित्ना कप्ड़ा आयात होगा ये  भी बुंकर समाज  तय करे .

ऐसा ही अन्य वर्णों में सम्झो .

सरकार को विदेश नीति , रक्षा ,  दंड   एवम  वित्त विभाग ही  देखने चहिये .

आखिर संस्कृत व हिन्दी भाषा का विरोध क्यों? : शिवदेव आर्य

sanskrit

 

वर्तमान में प्रचलित संस्कृत और हिन्दी के विवाद के शब्द निश्चित ही आपके कानों में कहीं से सुनायी  दिये होगें। कुछ ही दिन पहले केन्द्र सरकार ने हिन्दी को बढ़ावा देने की बात कही थी, जिसका विपक्ष के लोगों और दक्षिणी लोगों ने विरोध किया था। आज आजादी के छः दशकों के बाद भी हमारे देश के काम-काज की भाषा हिन्दी नहीं बन पायी है, क्योंकि देश के जो भी नीति-निर्माता रहे उन्होंने हिन्दी के साथ बहुत भेदभाव किया, जिसके कारण हिन्दी आगे नहीं बढ़ पायी है।

आज भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है। सम्पूर्ण विश्व में भी हिन्दी का वर्चस्व है। लेकिन उसके पाश्चात् भी भारत के नेताओं ने कभी हिन्दी को बढ़ावा नहीं दिया। हिन्दी राजभाषा है, इसके बाद जब उसका इतना बुरा हाल हो सकता है तो फिर और भाषाओं के विकास की चर्चा करना ही व्यर्थ है। हिन्दी सप्ताह सभी सरकारी कार्यालयों में मनाना होता है। आज कार्यालयों के बाहर हिन्दी सप्ताह में भी सरकारी कर्मचारी हिन्दी में काम करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इससे ज्यादा दुर्गति इस भाषा की क्या हो सकती है?

हिन्दी की दुगति का एक और सबसे बड़ा कारण आधुनिक शिक्षा नीति है। आज प्रत्येक अमीर व गरीब व्यक्ति हिन्दी माध्यम से अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता है। उनके मन में अंग्रेजी  इतने अन्दर तक बैठ चुकी है कि वे समझते है कि अंग्रेजी के बिना तो पढ़ना ही व्यर्थ है। इसके कारण आने वाली पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति तेजी से बढ़ रही है। यह एक भयंकर समस्या है, क्योंकि अंग्रेजी से पला-बढ़ा बच्चा भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्पराओं के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। आज भारत के एक गाॅव किसान का बेटा भी हिन्दी भाषा में लिखे अंकों को न तो बोल पाता है और न ही समझ पाता है। इसके पीछे कारण हिन्दी का घटता वर्चस्व और अंग्रेजी का बढ़ता महत्त्व है।

आज भारतीय व्यक्ति हिन्दी बोलने में शर्म महसूस करता है और अंग्रेजी बोलने में वह गर्व महसूस करता है। इसके पीछे सरकार की नीतियाॅं, शिक्षा और पश्चिमी सभ्यता है। आज तक पीछे की सरकारों ने हिन्दी को दबाने का काम किया है। अगर मोदी सरकार हिन्दी को बढ़ाने का काम करती है तो इसमें इतने विरोध की क्या आवश्यकता ? अपने ही हिन्दी भाषी बहुल देश में अगर हिन्दी का विकास नहीं होगा तो फिर कहाॅं होगा? अंग्रेजी के उत्थान के लिए अनेक विकसित देश लगे हुए है पर क्या भारत की हिन्दी भाषा का विकास कोई और देश करेगा?

संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 2011 से सी-सेट का प्रश्न पत्र लगाया गया। इस प्रश्न पत्र के आते ही हिन्दी भाषी प्रान्तों के छात्र, कृषक परिवार के छात्र अर्थात् जो भी कला वर्ग से पढ़ा  हुआ छात्र है, वह इस परीक्षा से इस प्रश्नपत्र ने बाहर कर दिया, क्योंकि इस प्रश्नपत्र का विषय ही ऐसा बनाया है कि इसमें हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र आगे जा ही न सकें। यह तथ्य लगातार तीन वर्षों से आयोजित हुई परीक्षा के परिणामों से स्पष्ट है। जहाॅं पहले हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र सर्वोच्च अंक प्राप्त करते थे। आज वे प्रारम्भिक सौ छात्रों में भी नहीं आ पा रहे है। इससे सैंकड़ों हिन्दी भाषी छात्र  आई.ए.एस., आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. बनने से चूक रहे हैं। वर्ष 2011 में प्रारम्भिक परीक्षा में 9324 लोग अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण हुए, जबकि हिन्दी भाषी छात्रों का विरोध करना बिल्कुल उचित है। क्योंकि वे इस परीक्षा के पहले चरण में ही बाहर हो रहे है। यह संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय की भावना के अतिरिक्त मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार को राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन था नियुक्ति से सम्बन्धित  विषयों अवसर की समानता की गारष्टी का भी उल्लंघन है।

2011 में अलघ समिति की अनुशंसा के आधार पर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में व्यापक परिवर्तन किये गये थे पर इस समिति ने अंग्रेजी को शामिल करने की कोई बात नहीं कही थी फिर भी बिना किसी आधार के अंगे्रजी को शामिल कर दिया। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी का है। आजादी के बाद 1979 तक तो अंगे्रजी के माध्यम से ही यह परीक्षा होती थी। अनेक प्रयासों के बाद 1979 के बाद भारतीय भाषाओं के         माध्यम से उच्च पदों पर पहुॅंच सकें है। 2011 में कपिल सिब्बल की कृपा से यह सारी योजना बनी कि कैसे हिन्दी भाषियों के वर्चस्व को कम किया जाये। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये सारे नीतिनिर्माता नेता एवं उच्चपदस्थ अधिकारी विदेशों में रहकर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं, और फिर उसी विदेशी शिक्षानीति को भारत में लागू करते हैं। आज ऐसे लोगों के कारण ही हमारी भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्परायें लुप्त हो रही हैं। सबसे बड़ा आन्तरिक खतरा आज हमें इन्हीं लोगों से है। आज अगर हिन्दी भाषी छात्र मोदी सरकार से न्याय की माॅंग करती है तो गलत क्या है? हिन्दी समर्थक सरकार है तो निश्चित हिन्दी भाषी छात्रों की विजय है और होनी भी चाहिए।

1 अगस्त से 8 अगस्त तक संस्कृत सप्ताह प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष मोदी सरकार ने सभी सी.बी.एस.सी. विद्यालयों में पत्र भेजकर संस्कृत सप्ताह मनाने का अनुग्रह किया है। इस पर देश में कही पर भी       विरोध नहीं हुआ है, लेकिन तमिलनाडू में जयललिता और करुणानिधि ने इसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भेद-भाव की राजनीति बताया है। इन नेताओं से मैं पूछना चाहता हूॅं कि जब विगत सरकार अंग्रेजी को हर जगह बसा रही थी, तब करुणानिधि कहाॅं गये थे? सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इनको बहुत अच्छा उत्तर दिया कि बोलने से पहले अपने नाम बदल लो, क्योंकि जयललिता और करुणानिधि शुध्द संस्कृत के नाम है। जिस भाषा का ये नेता समर्थन कर रहे हैं। वह तमिल भाषा भी संस्कृत पर ही आश्रित है अगर तमिल भाषा को वे सुरक्षित रखना चाहते है तो उससे पहले संस्कृत की सुरक्षा करनी पडे़गी। यह प्रयास निश्चित ही संस्कृत भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि गत दिवसों में स्वयं गृहमन्त्री ने सदन में यह बताया कि संस्कृत भाषा सब भाषाओं की जननी है। इसके उच्चारण को समस्त विश्व ने वैज्ञानिक  माना है। इसका विकास होना चाहिए। सरकार का यह प्रयास नितान्त स्तुत्य है।

प्रिय पाठकगण! हिन्दी और संस्कृत भाषा आज तक उपेक्षा का परिणाम यह हो रहा है कि लोग हिन्दी भाषी व संस्कृतभाषी को हीन समझ रहे हैं। अंग्रेजी भाषी लोग अपने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझ रहे हैं। चारों तरफ अंग्रेजी का ऐसा आतंक मच गया है कि लोग यह समझने लग गये है कि अंग्रेजी के विना तो जीवन व्यर्थ है। यह भावना हमें समाज से हटानी होगी। आज सरकार यदि संस्कृत और हिन्दी के संरक्षण का प्रयास करती है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मेरा मानना है कि जो भी वास्तविक देशभक्त हैं, जिसके अन्दर देशहित की भावना है, वह व्यक्ति कभी भी हिन्दी और संस्कृत का विरोध करेगा  ही नहीं । भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अगर हम जीवित रखना चाहते हैं तो हमें निश्चित ही इन दोनों भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। इन्हीं भाषाओं के बाद अन्य भाषाओं की रक्षा सम्भव है। शुध्द हिन्दी पूर्णतः संस्कृत पर आधारित है। संस्कृत की सुरक्षा में सभी की सुरक्षा है। इसीलिए हम सबको अपने अपने प्रयासों से इन भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। हमारा एक अल्प प्रयास भी इन भाषाओं के लिए संजीवनी का काम करेगा। आप सबके विचारों की प्रतीक्षा में…….

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

नास्तिकों के दावों का खण्डन

 

– ओउम् –
नमस्ते प्रिय पाठकों, नास्तिक मत भी एक विचित्र मत है जो इस सृष्टि के रचियता और पालनहार यानि ईश्वर को स्वीकार नहीं करते और उसे केवल आस्तिकों की कल्पना मात्र बताते हैं। परंतु वे यह भूल जाते हैं कि हर चीज के पीछे एक कारण होता है। बिना कर्ता कोई क्रिया नहीं हो सकती। यही सृष्टि के लिये भी लागू होता है।
ईश्वर ही इस सृष्टि के उत्पन्न होने का कारण है। परंतु यह बात नास्तिक स्वीकार नहीं करते और तरह-तरह के तर्क देते हैं। अपने मत के समर्थन में कितने सार्थक हैं उनके तर्क आइये देखते हैं।
हम यहाँ नास्तिकों के दावों का खण्डन करेंगे। महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” में नास्तिकों के तर्कों का खण्डन पहले ही कर दिया है। हम नास्तिकों द्वारा हाल ही में किये दावों का खण्डन करेंगे।
नास्तिकों के दावे और उनकी समीक्षा:
दावा – नास्तिकों के अनुसार ईश्वर हमारा रचियता नहीं है क्योंकि ईश्वर हमें पैदा नहीं करता अपितु हमारे माता पिता के समागम से हम जन्म लेते हैं। इसलिये ईश्वर हमारा रचियता नहीं है।
समीक्षा – केवल इतना कह देने से ईश्वर की सत्ता और उसका अस्तित्व अस्वीकार कर देना मूर्खता होगी। माता पिता के समागम से बच्चा पैदा होता है क्योंकि ईश्वर ने ऐसा ही विधान दिया है। एक माता को यह नहीं पता होता की उसके गर्भ में पल रहा शिशु लड़का है या लड़की, न ही उसे यह पता होता है कि उस शिशु के शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं। न ही उन्हें यह पता होता है कि बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है या नहीं अर्थात बच्चे को कोई आन्तरिक रोग तो नहीं है? यदि माता पिता ही सब कुछ जानने वाले होते तो वे बच्चे भी अपनी मर्जी से पैदा करते अर्थात लड़का चाहते तो लड़का और लड़की चाहते तो लड़की। इससे पता चलता है कि माता पिता का समागम केवल शिशु उत्पन्न करता है। शिशु कौन होगा और कैसा होगा यह उनको नहीं पता होता। केवल ईश्वर ही यह बात जानता है और मनुष्य नहीं, क्योंकि ईश्वर ने उन्हें ऐसा बनाया है।
दावा – कुछ बच्चे बीमार भी पैदा होते हैं और कुछ पैदा होती ही मर भी जाते हैं। कुछ को पैदा होती ही ऐसे रोग भी लग जाते हैं जो जिंदगी भर उनके साथ रहते हैं। यदि ईश्वर है तो उसने इन बच्चों को ऐसा क्यों बनाया अर्थात इन्हें रोग क्यों दिये इनको स्वस्थ पैदा क्यों नहीं किया?
समीक्षा – क्योंकि ईश्वर की सत्ता में कर्मफल का विधान है। ये बच्चे भी उसी का परिणाम हैं। और बाकि उसके माता पिता पर भी निर्भर करता है कि उनका आचरण कैसा है। माता पिता यदि उच्च आचरण वाले होंगे तो उनकी सन्तान भी स्वस्थ पैदा होगी। यदि माता पिता का आचारण नीच होगा तो सन्तान भी नीच और विकारों वाली पैदा होगी। और बाकि उस शिशु के पूर्वजन्म के कर्मों पर भी निर्भर करता है। ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करता। जैसे जिसके कर्म होंगे वैसा ही उसे फल मिलेगा, चाहे शिशु हो या चाहे व्यस्क। यही कर्मफल का सिद्धांत है।
दावा – ईश्वर की बनाई यह सृष्टि परिशुद्ध अर्थात परफेक्ट नहीं है क्योंकि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह परफेक्ट नहीं है। इसमें कहीं समुद्र है, कहीं रेगिस्तान, कहीं द्वीप, कहीं ज्वालामुखी और कहीं पर्वत। अगर ईश्वर परिशुद्ध होता तो अपनी पृथ्वी को भी वैसा ही बनाता परंतु ऐसा नहीं है। पृथ्वी परफेक्ट नहीं है और इससे यह पता चलता है कि ईश्वर भी परफेक्ट नहीं है।
समीक्षा – चलिये आपने माना तो कि ईश्वर है। अब वह परिशुद्ध है या नहीं इसका निर्णय भी हो जायेगा। पृथ्वी पर विभिन्न जगह विभिन्न चीज़े ईश्वर ने दी हैं। तो क्या इससे यह मान लिया जाये कि पृथ्वी परफेक्ट नहीं है? कदापि नहीं। ईश्वर ने किसी कारण से ही इसको ऐसा रूप दिया है। यदि वह इसको पूर्णतः गोल और चिकनी बना देता, तो न तो यहाँ समुद्र होते जिसके कारण वर्षा न होती और वर्षा न होती तो खेती न हो पाती, और अगर खेती न हो पाती तो मनुष्य को भोजन न मिलता और वह भूखा मर जाता। यदि पृथ्वी पर ज्वालामुखी न होते तो पृथ्वी के अंदर का लावा धरती को क्षती पहुँचाकर बाहर निकलता जिससे मानव और जीव दोनों की हानि होती। अब इनको पृथ्वी पर बनाने में ईश्वर की परफेक्टनेस न कहें तो और क्या कहें!? जिसने सभी जीव, जन्तु, वनस्पति का ध्यान रखते हुए इस पृथ्वी को रचा। केवल मूर्ख ही इस बात को अब अस्वीकार करेंगे।
दावा – हम केवल ब्रह्म अर्थात चेतना को सत्य मानते हैं और यह जगत केवल मिथ्या है। इसका कोई रचियता नहीं है। जो हम देखते हैं अपने आस पास वह केवल हमारी चेतना द्वारा किया गया एक चित्रण है।
समीक्षा – यदि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत केवल मिथ्या तब इस जगत में जीव दुःख, सुख, क्रोध आदि भौतिक भाव क्यों अनुभव करता है? क्या हमारी चेतना केवल सुख का संसार ही नहीं बना सकती थी? यदि यह जगत मिथ्या है तो मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी जीवात्मा (जानवर, जन्तु) का इस जगत में क्या प्रयोजन है? यह जगत को मिथ्या मानना केवल मूर्खता है। ईश्वर ने यह जगत किसी प्रयोजन से रचा है ताकि जीवात्मा ईश्वर द्वारा दिये वेदों को जानकर, उनका अनुसरण कर मोक्ष को प्राप्त हो सके। जैसे एक इंजीनियर ही अपने द्वारा बनाई गयी प्रणाली को भली भाँति जानता है, उसी प्रकार केवल ईश्वर ही इस सृष्टि को जानता है।
वेदों में नास्तिकता के विषय में कहा है:
अवंशे द्यामस्तभायद् बृहन्तमा रोदसी अपृणदन्तरिक्षम् | स धारयत्पृथिवी पप्रथच्च सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार || ऋग 2.15.2
कोई नास्तिकता को स्वीकार कर यदि ऐसे कहें कि जो ये लोक परस्पर के आकर्षण से स्थिर हैं इनका कोई धारण करने वा रचनेवाला नहीं हैं उनके प्रति जन ऐसा समाधान देवें कि यदि सूर्यादि लोकों के आकर्षण से ही सब लोक स्थिति पाते हैं तो सृष्टि के आगे कुछ नहीं है वहाँ के लोकों के आकर्षण के बिना आकर्षण होना कैसे सम्भव है ? इससे सर्वव्यापक परमेश्वर की आकर्षण शक्ति से ही सूर्यादि लोक अपने रूप और अपनी क्रियाओं को धारण करते हैं | ईश्वर के इन उक्त कर्मों को देख धन्यवादों से ईश्वर की प्रशंसा सर्वदा करनी चाहिए ||
आगे ईश्वर उपदेश करता है:
असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम॥ (ऋग्वेद 1.9.4)
जिस ईश्वर ने प्रकाश किये हुए वेदों से जाने अपने-अपने स्वभाव, गुण और कर्म प्रकट किये हैं, वैसे ही वे सब लोगों को जानने योग्य हैं, क्योंकि ईश्वर के सत्य स्वभाव के साथ अनन्तगुण और कर्म हैं, उनको हम अल्पज्ञ लोग अपने सामर्थ्य से जानने को समर्थ नहीं हो सकते। तथा जैसे हम लोग अपने-अपने स्वभाव, गुण और कर्मों को जानते हैं, वैसे औरों को उनका यथावत जानना कठिन होता है, इसी प्रकार सब विद्वान् मनुष्यों को वेदवाणी के बिना ईश्वर आदि पदार्थों को यथावत् जानना कठिन होता है। इसलिए प्रयत्न से वेदों को जानके उनके द्वारा सब पदार्थों से उपकार लेना तथा उसी ईश्वर को अपना इष्टदेव और पालन करनेहारा मानना चाहिए।
जड़ पदार्थों के विषय में लिखा है:
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति॥ (ऋग्वेद 1.18.7)
व्यापक ईश्वर सब में रहनेवाले और व्याप्त जगत् का नित्य सम्बन्ध है वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सब की बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःखरूप फल देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभाव मात्र से सिद्ध होनेवाला, अर्थात् जिस का कोई स्वामी न हो ऐसा संसार नहीं हो सकता क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती॥
अब पाठक गण स्वंय निर्णय लेंवे और सत्य को स्वीकार और असत्य का परित्याग करें। और सदा उस परमपिता परमात्मा का ही गुणगान करें जिसने हमें यह अमूल्य जीवन दिया है।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽआसीत् | स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम || (यजुर्वेद 13.4)

 

हे मनुष्यों! तुमको योग्य है कि सब प्रसिद्ध सृष्टि के रचने से प्रथम परमेश्वर ही विद्यमान था, जीव गाढ़ा निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत का कारण अत्यन्त सूक्ष्मावस्था में आकाश के समान एकरस स्थिर था, जिसने सब जगत् को रचके धारण किया और अन्त्य समय में प्रलय करता है, उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो ||

अम्बेडकर की वेदों के विषय में भ्रान्ति

मित्रो अम्बेडकर और उनके अनुयायी वेदों के कुप्रचार में लगे रहते है ,,ये लोग पुर्वग्रस्त हो कर वेदों के वास्तविक स्वरुप को पहचान ने का प्रयास न कर उसके कुप्रचार और आक्षेप लगाते रहते है …
अम्बेडकर जी की पुस्तक riddle in hinduism में वेदों पर लगाये गए आरोप का खंडन पिछली इस पोस्ट पर हमारे इस ब्लॉग पर किया गया था..http://nastikwadkhandan.blogspot.in/
अब यहाँ अम्बेडकर की बुद्ध और उनका धम्म नामक पुस्तक में वेदों पर लगाये आक्षेप या अम्बेडकर के वेदों के बारे में फैलाये गये भ्रम का खंडन किया जा रहा है :-
सबसे पहले वेदों के विषय में अम्बेडकर ने किया लिखा वो देखे :-

अम्बेडकर जी वेदों को ईश्वरीय नही मानते है बल्कि ऋषि कृत मानते है उनकी इस बात का जवाब पिछली पोस्ट में दिया जा चूका है ..लेकिन यहाँ भी थोडा सा दे देते है :-“ऋषियों मन्त्रद्रष्टारः।ऋषिदर्शनात् स्तोमन् ददर्शेत्यौपन्यवः।तद् यदेना स्तपस्यस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यानर्षत् तदृषीणाम् ऋषित्वमिति विज्ञायते।-निरुक्त २.११.
ऋषि वेदमंत्रो के अर्थद्रष्टा होते है,ओप्मन्व्य आचार्य ने भी कहा है कि वेदों में प्रयुक्त स्तुति इत्यादि विषयक मंत्रो के वास्तविक अर्थ का साक्षात्कार करने वालो को ऋषि के नाम से प्रकाश जाता है ,,तपस्या व ध्यान करते हुए जो इनको स्वयंभु नित्य वेद के अर्थ का भान हुआ इसलिए ऋषि कहलाय …
अत:यहाँ स्पष्ट कहा है ऋषि मन्त्र कर्ता नही बल्कि अर्थ द्रष्टा थे …
कुछ नास्तिक वेदों में प्रजापति,भरद्वाज,विश्वामित्र,आदि नाम दिखा कर इन्हें ऋषि बताते है और इन्हें मन्त्र कर्ता ,,लेकिन वास्तव में ये किसी व्यक्ति विशेष के नाम नही है ,,बल्कि योगिक शब्द है जिनके वास्तविक अर्थ शतपत आदि ब्राह्मण ग्रंथो में उद्र्रत किये है..इन्ही नामो के  आदार पर ऋषियों ने अपने उपाधि स्वरुप नाम रखे ..जैसे भरद्वाज नाम वेदों के भारद्वाज नाम से रखा गया ..फिर उनके पुत्र ने भारद्वाज नाम रखा…
शतपत में भारद्वाज ,वशिष्ट आदि नामो के अर्थ :-
” प्राणों वै वशिष्ट ऋषि (शतपत ८ /१/१/६ )”
वशिष्ट का अर्थ प्राण है ,,
“मनो वै भारद्वाज ऋषि” (शतपत ८/१/१/९ )
भारद्वाज का अर्थ मन है ,,
“श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषि: “(शतपत ८/१/२/६)
विश्वामित्र का अर्थ कान है ..
“चक्षुर्वे जमदाग्नि:” (शतपत १३/२/२/४)
जमदाग्नि का अर्थ चक्षु है ..
“प्राणों वै अंगीरा:”(शतपत ६/२/२/८ )
अंगिरा का अर्थ प्राण है ..
“वाक् वै विश्वामित्र ऋषि: ” (शतपत ८/१/२/९)
विश्वामित्र का अर्थ वाणी है ..
अत: दिय गये नाम ऋषियों के नही है …
अम्बेडकर लिखते है कि मन्त्र देवताओ की प्राथना के अतिरिक्त कुछ नही है ।
अम्बेडकर जी को वैदिक दर्शन का शून्य ज्ञान था ,,वेदों में अग्नि सोम आदि नामो द्वारा ईश्वर की उपासना ओर देवताओ के द्वारा विज्ञानं और प्रक्रति के रहस्य उजागर किये है ..
अम्बेडकर देवताओ को कोई व्यक्ति समझ बेठे है शायद जबकि देवता प्राक्रतिक उर्जाये ओर प्राक्रतिक जड़ वस्तु विशेष है ..
मनु स्म्रति के एक श्लोक से अग्नि,इंद्र आदि नामो से परमात्मा का ग्रहण होता है :-
“प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्भाम स्वपनधीगम्य विद्यात्तं पुरुषम् परम् ।।
एतमग्नि वदन्त्येके मनुमन्ये प्रजापतिम् ।
इन्द्र्मेके परे प्राणमपरे ब्रहम शाश्वतम् ।।(मनु॰ १२/१२२,१२३ )
स्वप्रकाश होने से अग्नि ,विज्ञानं स्वरूप होने से मनु ,सब का पालन करने से प्रजापति,और परम ऐश्वर्यवान होने से इंद्र ,सब का जीवनमूल होने से प्राण और निरंतर व्यापक होने से परमात्मा का नाम ब्रह्मा है ..
अत स्पष्ट है कि इंद्र,प्रजापति नामो से ईश्वर की उपासना की है ..
वेदों में वैज्ञानिक रहस्य के बारे में जान्ने के लिए निम्न लिंक देखे :-http://www.vaidicscience.com/video.html
अम्बेडकर जी का कहना है कि वेदों में दर्शन नही है ,,लगता है कि उन्होंने वेदों के अंग्रेजी भाष्य को ही प्रमाण स्वरुप प्रस्तुत किया जबकि वेदों में अनेक मंत्रो में जीवन ,ईश्वर ,अंहिसा ,योग,आयुर्वेद ,विज्ञान द्वारा हर सत्य विद्याओ का दार्शनिक व्याख्या की है जिसके बारे में आगे के लेखो में स्पष्ट किया जाएगा ..
इसके अलावा वेदों में राष्ट्र ,गुरु ,अतिथि आदि के प्रति सम्मान करने का भी उपदेश है ..
बाकि पुत्र ,पुत्री ,पत्नी ,माँ ,पिता ,शिक्षक .विद्यारथी आदि के कर्तव्यो का भी उलेख है …
इससे पता चलता है कि अम्बेडकर जी ने वेदों को दुर्भावना और कुंठित मानसिकता के तहत देखा था ,,,
अम्बेडकर जी वेदों पर आरोप करते है कि इसमें देवताओ को शराब और मॉस भेट का उलेख है ,,इससे लगता है कि अम्बेडकर जी maxmuller के भाष्य के कारण सत्य  न जान सके और अन्धकार में ही भटकते रहे ..
वेदों में सोम नाम से एक लेख हमने इसी ब्लॉग पर डाल उनकी इस बात का खंडन किया था ..अब मासाहार वाली बात को देखे तो अम्बेडकर जी ने यहाँ कोई संधर्भ नही दिया नही तो उन बातो का खंडन प्रस्तुत किया जाता ..लेकिन वेदों में अंहिंसा के उपदेशो का कुछ उलेख यहाँ किया जा रहा है :-
“कृत्यामपसुव “(यजु॰ ३५ /११)”
हिंसा को तू छोड़ दे ..
“मा हिंसी: पुरुष जगत”(यजु॰ १६ /३)”
तू मानव और मानव के अतिरिक्त अन्य की हिंसा न कर ..
मा हिंसी: तन्वा प्रजाः (यजु॰ १२ /३२ )
है मनुष्य तू देह से किसी प्राणी की हिंसा न कर ..
अत स्पष्ट है कि वेदों में अंहिसा का उपदेश है तो ऐसे में मॉस भेट जो हिंसा बिना प्राप्त नही हो सकती है का सवाल ही नही उठता है ..यदि यज्ञ में हिंसा मानते है तो उस पर अलग से पोस्ट के द्वारा स्पष्ट कर दिया जाएगा ..
अम्बेडकर अपनी इसी पुस्तक में कहते है कि वेदों में मानवता का उपदेश नही है इसी कारण बुद्ध ने वेदों को मान्यता नही दी थी ।
लेकिन यहाँ भी अम्बेडकर की अज्ञानता ही है वेदों में कई जगह मानवता का उपदेश है ,,देखिये वेदों का ही यही वाक्य है “आर्य बनो ” और मनुर्भव मतलब मनुष्य बनो “..अर्थात वेद मनुष्य को श्रेष्ट बनने का उपदेश देता है ।
“जन विभ्रति बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं प्रथिवी यथोकसम् ।
सहस्त्रं धारा द्रविणस्य में दुधं ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरंती ।।(अर्थव॰ १२/१/८४)”
विशेष वचन सामर्थ वाले ,अनेक प्रकार के कर्तव्य करने वाले व्यक्तियों को मिल जुल कर रहना चाहिए ।तब प्रथ्वी सभी को धन धान से पूरित करती है ।अर्थात मिलजुल कर रहने पर ही प्रथ्वी पर धन धान सुख का उचित दोहन कर सकते है ..जैसे की गाये से दुध का ..
अत स्पष्ट है कि वेद मानवता का ही उपदेश देते है ..
अब अम्बेडकर जी के अनुसार बुद्ध ने वेदों को अमान्य माना तो लगता है कि अम्बेडकर जी ने ठंग से बौद्ध साहित्य भी नही पढ़े थे ..
इसके बारे में भी आगे पोस्ट की जायेगी ..
देखिये सुतनिपात में बुद्ध ने क्या कहा है :-
“विद्वा च वेदेही समेच्च धम्मम् ।
न उच्चावचम् गच्छति भूरिपञ्चो ।।(सुतनिपात २९२ )”
जो विद्वान वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है ,वह कभी विचलित नही होता है ।
उपरोक्त सभी प्रमाणों से स्पष्ट है की अम्बेडकर जी वेदों पर अनर्गल और कुंठित ,दुर्भावना ,आक्रोशित मानसिकता के कारण आरोप करते थे ..शायद वे ऐसा जानबूझ कर करते थे ..

अम्बेडकर के वेदों पर आक्षेप

भीम राव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “सनातन धर्म में पहेलियाँ” (Riddles In Hinduism) में वेदों पर अनर्गल आरोप लगाये हैं और अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। अब चुंकि भीम राव को न तो वैदिक संस्कृत का ज्ञान था और न ही उन्होनें कभी आर्ष ग्रंथों का स्वाध्याय किया था, इसलिये उनके द्वारा लगाये गये अक्षेपों से हम अचंभित नहीं हैं। अम्बेडकर की ब्राह्मण विरोधी विचारधारा उनकी पुस्तक में साफ झलकती है।
इसी विचारधारा का स्मरण करते हुए उन्होनें भारतवर्ष में फैली हर कुरीति का कारण भी ब्राह्मणों को बताया है और वेदों को भी उन्हीं की रचना बताया है। अब इसको अज्ञानता न कहें तो और क्या कहें? अब देखते हैं अम्बेडकर द्वारा लगाये अक्षेप और वे कितने सत्य हैं।
अम्बेडकर के अनुसार वेद ईश्वरीय वाणी नहीं हैं अपितु इंसाने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा रचित हैं। इसके समर्थन में उन्होनें तथाकथित विदेशी विद्वानों के तर्क अपनी पुस्तक में दिए हैं और वेदों पर भाष्य भी इन्हीं तथाकथित विद्वानों का प्रयोग किया है। मुख्यतः मैक्स मुलर का वेद भाष्य।
उनके इन प्रमाणों में सत्यता का अंश भर भी नहीं है। मैक्स मुलर, जिसका भाष्य अपनी पुस्तक में अम्बेडकर प्रयोग किया है, वही मैक्स मुलर वैदिक संस्कृत का कोई विद्वान नहीं था। उसने वेदों का भाष्य केवल संस्कृत-अंग्रेजी के शब्दकोश की सहायता से किया था। अब चुंकि उसने न तो निरुक्त, न ही निघण्टु और न ही अष्टाध्यायी का अध्यन किया था, उसके वेद भाष्य में अनर्गल और अश्लील बातें भरी पड़ी हैं। संस्कृत के शून्य ज्ञान के कारण ही उसके वेद भाष्य जला देने योग्य हैं।
अब बात आती है कि वेद आखिर किसने लिखे? उत्तर – ईश्वर ने वेदों का ज्ञान चार ऋषियों के ह्रदय में उतारा। वे चार ऋषि थे – अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा। वेदों की भाषा शैली अलंकारित है और किसी भी मनुष्य का इस प्रकार की भाषा शैली प्रयोग कर मंत्र उत्पन्न करना कदापि सम्भव नहीं है। इसी कारण वेद ईश्वरीय वाणी हैं।
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः | ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्य्याय च | स्वाय चारणाय च प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुपमादो नमतु|| (यजुर्वेद 26.2)
परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिये मैनें उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्त्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ | ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होगें ||
डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में दर्शन ग्रंथों से भी प्रमाण दिये हैं जिसमें उन्होनें वेदों में आंतरिक विरोधाभास की बात कही है। अम्बेडकर के अनुसार महर्षि गौतम कृत न्याय दर्शन के 57 वे सुत्र में वेदों में आंतरिक विरोधाभास और बली का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार महर्षि जैमिनी कृत मिमांसा दर्शन के पहले अध्याय के सुत्र 28 और 32 में वेदों में जीवित मनुष्य का उल्लेख किया गया है। ऐसा अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में वर्णन किया है परंतु ये प्रमाण कितने सत्य हैं आइये देखते हैं।
पहले हम न्याय दर्शन के सुत्र को देखते हैं। महर्षि गौतम उसमें लिखते हैं:
तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः |58|
(पूर्वपक्ष) मिथ्यात्व, व्याघात और पुनरुक्तिदोष के कारण वेदरूप शब्द प्रमाण नहीं है।
न कर्मकर्त साधनवैगुण्यात् |59|
(उत्तर) वेदों में पूर्व पक्षी द्वारा कथित अनृत दोष नहीं है क्योंकि कर्म, कर्ता तथा साधन में अपूर्णता होने से वहाँ फलादर्शन है।
अभ्युपेत्य कालभेदे दोषवचनात् |60|
स्वीकार करके पुनः विधिविरुद्ध हवन करने वाले को उक्त दोष कहने से व्याघात दोष भी नहीं है।
अनुवादोपपत्तेश्च |61|
सार्थक आवृत्तिरूप अनुवाद होने से वेद में पुनरुक्ति दोष भी नहीं है।
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है और अम्बेडकर के न्याय दर्शन पर अक्षेप पूर्णतः असत्य हैं।
अब मिमांसा दर्शन के सुत्र देखते हैं जिन पर अम्बेडकर ने अक्षेप लगाया है:
अविरुद्धं परम् |28|
शुभ कर्मों के अनुष्ठान से सुख और अशुभ कर्मों के करने से दुःख होता है।
ऊहः |29|
तर्क से यह भी सिद्ध होता है कि वेदों का पठन पाठन अर्थ सहित होना चाहिये।
अपि वा कर्तृसामान्यात् प्रमाणानुमानं स्यात् |30|
इतरा के पुत्र महिदास आदि के रचे हुए ब्राह्मण ग्रंथ वेदानुकुल होने से प्रमाणिक हो सकते हैं।
हेतुदर्शनाच्च |31|
ऋषि प्रणीत और वेदों की व्याख्या होने के कारण ब्राह्मण ग्रंथ परतः प्रमाण हैं।
अपि वा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन् |32|
यदि ब्राह्मण ग्रंथ स्वतः प्रमाण होते तो वेदरूप कारण के बिना वे बिना वेद स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त प्रतीत होने चाहिये थे, परंतु ऐसा नहीं है।
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में कहीं भी किसी जीवित मनुष्य का उल्लेख नहीं किया गया है। अतः यह अक्षेप भी अम्बेडकर का असत्य साबित होता है।
प्रिय पाठकों, अम्बेडकर ने न तो कभी आर्ष ग्रंथ पढ़े थे और न ही उन्हें वैदिक संस्कृत का कोई भी ज्ञान था। अपनी पुस्तक में केवल उन्होनें कुछ तथाकथित विदेशी विद्वानों के तर्क रखे थे जो कि पूर्णतः असत्य हैं। अम्बेडकर ने ऋग्वेद में आये यम यमी संवाद पर भी अनर्गल आरोप लगाये हैं जिनका खण्डन हम यहाँ कर चुके हैं: यम यमी संवाद के विषय में शंका समाधान
अब पाठक गण स्वंय निर्णय लेवें और असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें और हमेशा याद रखें:
वेदेन रूपे व्यपिबत्सुतासुतौ प्रजापतिः| ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानम् शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु || (यजुर्वेद 19.78)

 

वेदों को जाननेवाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं ||

क्या बुद्ध तर्कवादी ओर जिज्ञासु थे

अम्बेडकरवादी दावा :-

बुद्ध तर्क वादी ओर जिज्ञासा को शांत करने वाले व्यक्ति थे….अपने शिष्यों को भी तर्क करने ओर जिज्ञासु बनने का उपदेश देते थे …

दावे का भंडाफोड़ :-

एक समय मलयूक्ष्य पुत्त नामक किसी व्यक्ति ने महात्मा गौत्तम बुध्द से प्रश्न किया- भगवन क्या यह संसार अनादी व अन्नत है? यदि नही तो इसकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई?
लेकिन बुध्द ने उत्तर दिया – है मलयूक्ष्य पुत्त तुम आओ ओर मेरे शिष्य बन जाऔ,मै तुमको इस बात की शिक्षा दुंगा कि संसार नित्य है या नही|”
मलयूक्ष्य पुत्त ने कहा ” महाराज आपने ऐसा नही कहा|”(कि शिष्य बनने पर ही शंका दूर करोगे)
तो बुध्द बोले- तो फिर इस प्रश्न को पूछने का मुझसे साहस न करे| -(मझिम्म निकाय कुल मलूक्य वाद)
इससे निम्न बात स्पष्ट है कि बुध्द का सृष्टि ज्ञान शुन्य था …उनका मकसद केवल अपने अनुयायी बनाना था ..इसके अलावा पशु सुत्त ओर महा सोह सुत्त से पता चलता है कि वे अपने शिष्यो को भी जिज्ञासा प्रकट करने का उत्साह नही देते थे..
एक ओर बुध्दवादी कहते है कि बौध्द मत तर्को को प्राथमिकता देता है लेकिन यहा मलुक्य को बुध्द खुद चुप कर रहे है|
अत स्पष्ट है की बुध तर्कवादी ओर जिज्ञासा शांत करने वाले व्यक्ति नही थे ….

साईँ भक्ति अर्थात लाश की उपासना !

sai

 

जिस  दिन ज्योतिर्पीठ  के  शकराचार्य  स्वरूपानन्द  सरस्वती  ने  हिन्दुओं द्वारा शीरडी  के फ़क़ीर ” साईँ  बाबा ” की उपासना के बारे में आपत्ति  उठाई   है  .तबसे  मीडिया  और साईं के भक्तों  ने स्वरूपानंद  के  खिलाफ  एक जिहाद  सी  छेड़  राखी  है.. कुछ लोग  साइन भक्ति को निजी और  आस्था  या श्रद्धा का मामला   बता  रहे  हैं   . लेकिन अधिकांश  हिन्दुओं  में  साईँ  बारे में  कुछ  ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं  , जिनका प्रामाणिक  और शास्त्रानुसार   उत्तर  देना  जरुरी  हो  गया  है  ,  कुछ  प्रश्न  इस  प्रकार  हैं  , 1 क़्या  साइ कोई  हिन्दू  संत था  , जिसके  लिए उसकी हिन्दू विधि  से  आरती  और पूजा होती  है. 2 . क्या साइ के आचरण  और शिक्षाओं  से हिन्दू  समाज सशक्त  हो  रहा  है ? क्या साईँ   में दैवी शक्तियां  थीं ? क्या  साईं धूर्त मुस्लिम  नहीं   था ,जिसका उद्देश्य हिन्दू  धर्म  मजबूत  नीव  को  खोखला  करना   था  . और  साईं  भक्त  धर्म   के  बहाने  जो अधर्म  कर  रहे हैं  वह वैदिक सनातन  हिन्दू  धर्म का अपमान  नहीं  माना  जाये  ?
हम इस लेख  के माध्यम  से    प्रमाण सहित इन प्रश्नों  के उत्तर  दे रहे  हैं ,ताकि हिन्दू अपने  सनातन वैदिक धर्म पर आस्था  बना रखें  और किसी  पाखंडी के जाल में फ़सने  से बच सकें
1-साईं  एक धूर्त  कट्टरपंथी  मुसलमान
शीरडी  के  साईं  के  बारे में पहली   प्रामाणिक किताब अंगरेजी में  “डाक्टर मेरिअन वारेन – Dr. Marianne Warren Ph.D (University of Toronto, Canada  “ने  लिखी  थी  . जो सन 1947  में  प्रकाशित  हुई  थी   . और जिसके प्रकाशक का नाम   ” Sterling Paperbacks; ISBN 81-207-2147-0.   ” है .और  इस किताब  का  नाम   ”  Unravelling The Enigma – Shirdi Sai Baba”  है  . जिसका  अर्थ   है साईं की  पेचीदा  पहेली   का पर्दाफाश “वारेन  ने अपनी किताब साईं  के ख़ास  सेवक अब्दुल द्वारा मराठी मिश्रित उर्दू  में भाषा ( जिसे दक्खिनी उर्दू  भी कहते  हैं )एक नोट बुक  के आधार पर लिखी  है .लेकिन  शिर्डी  के साईं ट्रस्ट  ने  जानबूझ  कर  न  तो मूल पुस्तक  को प्रकाशित  किआ और  न ही भारत  की  किसी  भाषा में  अनुवाद  करवाया  . अब्दुल की  हस्त लिखित किताब ( Manuscript ) में  साइ  केबारे में सन 1870  से  1889  तक  की घटनाओं  का  विवरण  है  , सब  साइ क्षद्म रूप  से  हिन्दू बन कर  महाराष्ट्र के अहमद नगर  जिले  के शिरडी गाँव  आया  था  . उस  समय शिर्डी में सिर्फ  10  प्रतिशत  मुसलमान  थे  . चूँकि  हिन्दू मुसलमानों  कोपसंद नहीं  करते  थे  . इसलिए  साईं  ने अपने रहने के लिए  एक  मस्जिद  को चुन  लिया  था  . साईं  ने   हिन्दुओं  को धोखा देने के लिए  उसमस्जिद का नाम  द्वारका माई  रख  दिया  .साईं का सेवक अब्दुल साईं  के अंतिम समय  तक रहा  . और उसने अपनी  पुस्तक  में साईं  के बारे में कुछ ऐसी  बातें  लिखी  हैं ,जो काफी चौंकाने  वाली  हैं ,जैसे साईं  खुद  को मुसलमान बताता था  . और अब्दुल के सामने   कुरान पढ़ा  करता  था ( पेज 261 ) . साईं इस्लाम  के सूफी पंथ  और इस्माइली पंथ से प्रभावित  था (पेज 333 )  . साईं  दूसरे  धर्म  की किताबों  को बेकार  बताता था  ,और हमेशा अपने पास एक कुरान रखता था  ( पेज 313 ) . यही  नहीं  साइ हिन्दू  धर्म  का सूफी करण  करना  चाहता  था (पेज 272) .  डाक्टर मेरियन वारेन ( Dr. Marianne Warren ) अब्दुल द्वारा साईं  बारे  में  हस्तलिखित पुस्तक  को पूरा पढ़ा  था  . और इस नतीजे  पर पहुंचा  कि साईं “एक छद्म दार्शनिक, छद्म आदर्शवादी छद्म नीतिज्ञ और धूर्त   कट्टरपंथी था .(a pseudo-philosopher, pseudo-moralist and Findhorn fanatic).अर्थात  साईं  एक  सूफी  जिहादी  था ,जिसका  उद्देश्य  हिन्दुओं  में अपने प्राचीन सनातन धर्म के प्रति अनास्था  और अरुचि पैदा  करना  था  . ताकि जब  मुसलमान  बहुसंख्यक  हो  जाएँ  तो ऐसे धर्म हिन्दुओं  को आसानी  से  मुसलमान  बनाया  जा सके जिन्हें  अपने धर्म  से पूरी   आस्था  नहीं  हो  . क्योंकि जिस भवनकी नींव  कमजोर  हो जाती  है ,उसे आसानी  से गिराया   जा  सकता  है  .
मेरियन वारेन   की पूरी  किताब  के लिए इस  लिंक  को खोलिए
2-श्री साईं  चरित्र
इसके आलावा  साईं बारे में  एक  पुस्तक उसके भक्त ” गोविन्द राव रघुनाथ दामोलकर ”  ने मराठी  में  लिखी  है  ,जिसका नाम  “साईँ सत चरित्र  ”  है  . इसमे कुल 51  अध्याय  हैं  . इस  किताब  का अनुवाद  कई  भाषाओं  में  किया  गया है  . और ‘ श्री साईँ बाबा संस्थान शिरडी ”  द्वारा इसका प्रकाशन  किया गया  है  . यद्यपि इस् किताब में साईं  की दैवी शक्तिओं और चमत्कारों  की बातों  की  भरमार  है  ,फिरभी  लेखक ने साईं  केबारे में कुछ  ऐसी  बातें  भी लिख दी हैं  जो  साईं का भंडा  फोड़ने के  लिए पर्याप्त  हैं  , उदहारण  के  लिए   देखिये ,
1 . जवानी में  साईं  पहलवानी  करता  था  , और मोहिउद्दीन तम्बोली  ने  साईं  को कुश्ती में पछाड़  दिया  था  . अध्याय 5
2 . साईं  हर  बात पर  अल्लाह मालिक  कहा  करता  था  .  अध्याय 5
3.साईं हिन्दुओं  से कहता था कि  प्राचीन  वैदिक ग्रन्थ  ,जैसे न्याय ,मीमांसा आदि अनुपयोगी  हो गए  हैं , इसलिए उन्हें पढ़ना बेकार  है . अ -10
 4.साईं कहता  था कि यदि  कोई कितना भी दुखी हो और वह  जैसे ही मस्जिद में पैर  रखेगा दुःख समाप्त  हो जायेगा  . अ -13
5.साइ तम्बाखू  खाता  था और बीड़ी पीता  था  . अ -14
6.बाबा ने एक बीमार और दुर्बल बकरे की कुर्बानी करवाई थी  . अ -15
7.बाबा कहता था कि मैं अपनी मस्जिद  से जो भी कहूँगा  वही सत्य  और प्रमाण  समझो  . अ -18 -19
8.बाबा  कहता था कि योग औरप्राणायाम  कठिन   और  बेकार  हैं  . अ 23
9.बाबा को  किसी  की  बुरी  नजर लग गयी  थी , यानि वह अंध विश्वासी  था   . अ 28
10.बाबा अपनी मस्जिद से बर्तन  मंगा  कर उसमे गोश्त पकवाता  था  , और उस पर फातिहा पढ़ा कर प्रसाद के रूप  में लोगों  को बंटवा  देता था  . अ -38
11.बाबा  दमे के कारण  72  घंटे तक खांस खांस  कर  तड़प  कर मर  गया था  . अ -43 -44
अब हमारे  भोले भले साईं  भक्त हिन्दू बताएं कि हम ऐसे व्यक्ति  को संत , दैवी पुरष  या अवतार  कैसे  मान सकते  हैं ?
3-साईँ  की समाधि  नहीं  कबर  है
साईँ  दमे  की  बीमारी  से पीड़ित  था ,और  उसी बीमारी  से  मंगलवार  15  अक्टूबर  सन 1918  को  मर  गया था  . उसकी लाश को बुट्टीवाङा  में  इस्लामी विधि से दफना दिया  गया  था  . और आज के अज्ञानी  साईं भक्त  हिन्दू  साईँ  की  कबर   को  समाधि  कहते हैं  , और उसकी पूजा  आरती   करते  हैं  . साइ की कबर  की तस्वीर के  लिए  यह  लिंक  खोलिए ,
इस से स्पष्ट  हो जाता है कि  अज्ञानी  हिन्दू साईं  की समाधी की  पूजा  करके उसके अंदर  की  साईं  की  लाश  की पूजा  करते  हैं ,
4-साईं  पूजा हिन्दू धर्म  का अपमान
शिर्डी के साईं बाबा जो इस समय हजारो मुर्ख हिन्दुओ द्वारा पूजे जा रहे है और ये आज के समय का सबसे बड़ा इस्लामिक षड्यंत्र बन चूका है जिसे कुछ मुस्लिम गायक और इस्लामिक संगठन हिन्दुओ का भगवान् बना कर जमकर प्रचारित कर रहे है साईं जो मूलतः एक मुसलमान है उसका भगवाकरण करके हिन्दुओ को मुर्ख बनाया जा रहा है और हिन्दू अपनी कुंठित बुद्धि और गुलाम मानसिकता के कारण इसे पहचानने की जगह उल्टा इसकी तरफ आकर्षित हो रहा है, यही नहीं इस यवनी(मुसलमान) की तुलना सनातनी इश्वरो जैसे राम कृष्ण या शिव से करके सनातन धर्म का मखोल उड़ाया जा रहा है, जबकि किसी ग्रन्थ या किसी महापुरुष द्वारा साईं जैसा कोई अवतार या महापुरुष होने की कोई भविष्यवाणी नहीं है, साईं सत्चरित्र के कुछ अध्यायों से भी यह प्रमाणित हो चुका है की साईं एक मुसलमान था और केवल अल्लाह मालिक करता था ऐसे में एक यवनी को सनातनी इश्वर का दर्जा देना न केवल पाखण्ड की पराकाष्ठा है बल्कि सनातन धर्म का घोर अपमान है
5-हिन्दुओं   का इस्लामीकरण
अक्सर देखा गया  है कि  कुछ खास मौकों  पर शिरडी में क़व्वालिओं    का आयोजन  किया  जाता  है  ,जिसमे मुस्लिम कव्वाल अल्लाह ,रसूल  की बड़े और तारीफ़  बखानते है  , और हिन्दू भी बड़ी संख्या में  सुनने  को आते  हैं , यह भी एक प्रकार  इस्लाम  का प्रचार  ही  है , जिसका उद्देश्य  हिन्दुओं  में  इस्लाम के प्रति आस्था  और  हिन्दू  धर्म  से अरुचि पैदा  करना  है  , जैसा की इस कव्वाली में कहा जारहा है  ,
How this muslim making fool of hindus on the name of shirdi sai
6-साईँ  गायत्री  मन्त्र
साईं  कैसा  था और उसका क्या उद्देश्य  था  , यह  स्पष्ट  हो  गया  ,  साईं  तो  मर गया  है  ,लेकिन उसके अंधे चेले साईं भक्ति के नशे में ऐसे चूर होगये कि  वेद  मन्त्र  के  साथ  भी खिलवाड़  करने  लगे  , इन पापियों  ने  वैदिक  गायत्री मन्त्र  में हेराफेरी  करके “साईं गायत्री मन्त्र ” बना डाला। जो की एक दंडनीय  अपराध है  . यह साईं के चेले अपनी  खैर  मनाएं  कि हिन्दुओं में अल कायदा जैसा  कोई कट्टर  हिन्दू  संगठन  नहीं  है  , वरना  सभी साईं के चेलों को मत के घाट उतार  देते  . हमें  ख़ुशी हैकि  अदालत में इस अपराध के लिए  मुक़दमा  दर्ज  हो चूका  है   . फिर भी  पाठकों  की  जानकारी   के  लिए साईं गायत्री  यहाँ  दी  जा रही  है ,
“ॐ  शीरडी  वासाय विद्महे ,सच्चिदानन्दाय धीमहि  तन्नो साई  प्रचोदयात “
“Om Shirdi Vasaaya Vidmahe
Sachchidhaanandaaya Dhimahee
Thanno Sai Prachodayath”.
इस  साइ गायत्री   को  48  बार पाठ   करने  के लिए  कहा  जाता  है ,यह यू ट्यूब   में भी  मौजूद   है  , इस लिंक  से आप इस साईँ  गायत्री  को  सुन  सकते  हैं  .
7-साईं भक्त हिन्दू जवाब दें
जिन हिन्दुओं  को खुद के हिन्दू  होने पर गर्व  है  , और जो भगवान कृष्ण  की पूजा  करते   हैं ,और भगवद्गीता  में उनके दिए गए वचनों  को सत्य और प्रमाण  मानते हैं  . और  जो वेद  को  ईश्वरीय आदेश  समझते  हैं , वह  यहाँ   गीता में  दिए कृष्ण  के वचन और  वेद  कर मात्र को पढ़ें ,और बताएं ,
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥18:62
भावार्थ :  हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा॥18:62
“प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ॥ 17:4
भावार्थ-तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं.17:4
“यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ 16:23
भावार्थ : जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है, वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है। 16:23
(देवताओं को पूजने वालों का निरुपण)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ 7:20
भावार्थ : जिन मनुष्यों का ज्ञान सांसारिक कामनाओं के द्वारा नष्ट हो चुका है, वे लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूर्व जन्मों के अर्जित संस्कारों के कारण प्रकृति के नियमों के वश में होकर अन्य देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। 7:20
“अन्धं  तमः प्रविशन्ति  ये अविद्यामुपासते “यजुर्वेद 40 :9
अर्थात  -जो  लोग अविद्या यानी पाखण्ड  की उपासना  करते  हैं  अज्ञान  के अंधे  कुएं  में पड़  जाते  हैं “
 
बताइये  गीता  में  कहे गए भगवान  कृष्ण  के यह वचन  और वेद  का मन्त्र सभी झूठे हैं ?या साईं भगवान कृष्ण  से भी बड़ा  हो गया ?  या साईं की फर्जी चमत्कार की कथाएं  वेद मन्त्र  से भी  अधिक प्रामाणिक हो  गयीं  हैं  ? यदि  हिन्दू ऐसे ही होते  हैं  , तो उनको  लाश पूजक (dead body worshippers) क्यों  न  कहा  जाये ?

कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य

 

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शास्त्रों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने वाले श्लोक अथवा मंत्र,जिनका गलत अर्थ लगा कर पाखण्डी जाति प्रथा का समर्थन करते हैं (भाग १):-

 

प्रिय पाठकगण, इस लेख शृङ्खला को शुरु करने के पीछे लेखक का उद्देश्य है आपके सामने वेदादि सत्य शास्त्रों से ऐसे प्रमाणों को प्रस्तुत करना जो कि स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और साथ ही यह भी दिखाना कि किस प्रकार जातिवादी पाखण्डी उनका गलत अर्थ करके  अपना मतलब साधते  हैं। जहां तक ईशवर प्रदत्त चारों वेदों का सवाल है,उसके मन्त्रों का गलत अर्थ विगत ३००० वर्षों में अनेक लोगों ने अज्ञानवश अथवा स्वार्थसिद्धी के लिए किया है और जहां तक ऋषि मुनियों द्वारा रचित ग्रन्थों जैसे मनुस्मृति इत्यादि का सवाल है वहां पर तो श्लोकों का गलत अर्थ करने के साथ साथ कुछ कुछ नये श्लोक मनमाने तरीके से अपना मतलब साधने के लिए मिला दिये हैं। ऐसे नये मिलाए गये श्लोकों को प्रक्षिप्त श्लोक कहा जाता है। इस लेख शृङ्खला में ऐसे श्लोकों का सही अर्थ किया जाएगा जिनके गलत अर्थ से जातिवाद की सिद्धी की जाती है तथा प्रक्षिप्त श्लोकों को भी युक्तिपूर्वक प्रक्षिप्त सिद्ध किया जाएगा।

मनुस्मृति में गुणकर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला ऐसा ही एक श्लोक निम्नलिखित है:-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रतां।

क्षत्रियाज्जात्मेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। ।  (मनु १०:६५)

इस श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार है :- शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन है। मगर जातिवाद के समर्थक इसका गलत अर्थ निम्नलिखित तरीके से लगाते हैं:-

अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी। और अगर ब्राह्मण का शूद्रा से कोई पुत्र उत्पन्न हो और उस पुत्र का ब्याह शूद्रा से हो और उनका भी पुत्र उत्पन्न हो और उसका ब्याह भी शुद्रा से किया जाए तो इस तरह से सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी। यही विधान क्षत्रिय और वैश्य के साथ भी समझना चाहिए ।

और इस अर्थ की सिद्धी के लिए उपर दिए गये श्लोक (१०:६५) से पहले एक प्रक्षिप्त श्लोक भी मनुस्मृति में मिलाया हुआ है जो कि निम्नलिखित है:-

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातःश्रेयसा चेत्प्रजायते।

अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमाद्युगात् ।  । (मनु १०:६४)

जिसका अर्थ वे इस प्रकार लगाते हैं:-अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी।

और इसी के साथ मिला कर के अगले श्लोक (शूद्रो ब्राह्मणतामेति १०:६५) का अर्थ लगाते है कि शुद्र (ब्राह्मण से शूद्रा में उत्पन्न पुत्री को ब्राह्मण से उपर्युक्त विधि से ब्याह्ने से सातवीं पीढी में उत्पन्न पुत्र )जैसे ब्राह्मणता को प्राप्त करता है वैसे ब्राह्मण भी शूद्रता को प्राप्त करता है (अगर ब्राह्मण द्वारा शूद्रा में पुत्र हो और उसका विवाह भी शूद्रा से हो तो इस प्रकार सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी) । वैसे ही क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र छठी पीढी में शूद्रता को प्राप्त करता है और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र पाचवी पीढी में शूद्रता प्राप्त करता है इत्यादि।

यहां गौरतलब है कि प्रक्षेपक महोदय ने श्लोकों का अर्थ बिगाडने का काम बहुत ही चतुराई से किया है । मगर हम ध्यानपूर्वक दोनो श्लोकों की समीक्षा करें तो सारी कलै खुल के सामने आ जाती है।

सर्वप्रथम तो हम श्लोक संख्या १०:६५ के शाब्दिक अर्थ को देखें :-शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

अब हमें सर्वप्रथम ये विचार करना चाहिए कि मनु महाराज ने शूद्र अथवा ब्राह्मण किनको कहा है? अगर मनुस्मृति का अध्ययन किया जाय तो ह्म पाएंगे कि प्रथम तो शूद्र या ब्राह्मण शब्द या तो उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो सक्ता है जो कि स्वयं शूद्र अथवा ब्राह्मण वर्ण का हो । दूसरा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र द्वारा समान वर्णों की स्त्रियों में उत्पन्न सन्तानो को भी क्रमशः  ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र जाति से जाना जाता है(मनु १०: ५)।  यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त जातियों का आशय सिर्फ़ उपनयन संस्कार इत्यादि की आयु निर्धारण करने से है ना कि जन्म के आधार पे बालक का वर्ण निर्धारण करने से।

मगर हम १०:६५ श्लोक के जातिवादियों द्वारा लगाए गये अर्थ की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि “शुद्रो ब्राह्मणतामेति ” मे शूद्र का अर्थ उन्होने लगाया है ब्राह्मण पुरुष की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुइ पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर और फ़िर उनकी पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर इस प्रकार सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी । उसी प्रकार ‘ब्राह्मणश्चैति शूद्रतां ‘ मे ब्राह्मण शब्द का अर्थ उन्होने लगाया है कि ब्राह्मण पुरुष द्वारा शूद्रा स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शूद्रा से ब्याह कर फ़िर उनसे उत्पन्न पुत्र को पुनः शूद्रा से ब्याह्कर इस प्रकार जो सातवीं पीढी में सन्तान उत्पन्न हो। अब भला शूद्र और ब्राह्मण शब्द का इतना विचित्र अर्थ ये लोग किस व्याकरण के नियम के अनुसार लगाते हैं ये तो यही लोग जानते होंगे। इसी प्रकार क्षत्रियाज्जातः का अर्थ होता है कि जो क्षत्रिय पिता के द्वारा उत्पन्न हो । मगर इस श्लोक में जातिवादी इस शब्द का अर्थ लगाते हैं क्षत्रिय द्वारा शुद्रा में उपर्युक्त विधी से उत्पन्न छठी पीढी की सन्तान ।   अब यहां विचारणीय है कि अगर छ्ठी पीढी की सन्तान को ‘क्षत्रियाज्जातः’बोलेंगे तो ५वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मानना पडेगा  ।  अब जबकि जातिवादी लोग क्षत्रिय द्वारा शूद्रा में उत्पन्न पहली पीढी की सन्तान( जिसको उग्र बोला जाता है) को भी क्षत्रिय नहीं मानते हैं तो ५ वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मान लेना क्या सिर्फ़ मतलब साधने वाली बात नहीं है?

ये तो थी १०:६५ नं० श्लोक के इनके द्वारा किए गये अर्थ (अनर्थ) की समीक्षा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ६४ वे श्लोक से ६५ वे श्लोक का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि ६४ वे श्लोक से प्रासङ्गिक तालमेल बैठाने के लिए शूद्र,ब्राह्मण,क्षत्रिय इत्यादि शब्द का किस प्रकार व्याकरण विरुद्ध अर्थ लगाना पड रहा है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, अपितु अगर ६४ वें श्लोक के अर्थ की भी समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि “शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः” यह पद तो पुल्लिङ्ग है मगर इसका प्रयोग पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनो के लिए न होकर सिर्फ़ स्त्री सन्तान के लिए हुआ है। भला ऐसा विचित्र प्रकार का श्लोक परम विद्वान महर्षि मनु का कैसे हो सकता है? इससे सिद्ध हॊता है कि यह श्लोक (१०:६४)  अगले (१०:६५) श्लोक का अर्थ बिगाडने के हेतु से किसी धूर्त व्यक्ति द्वारा मिलाया गया है। अतः श्लोक संख्या  १०:६४ को प्रक्षिप्त मानना ही उचित है।

अब तक की समीक्षा से हम इस निष्कर्ष पे पहुंचे हैं कि मनु १०:६५ का जातिवादियों के द्वारा किया गया अर्थ गलत है  और उसका सही अर्थ गुण कर्मानुसार वर्ण वयवस्था का ही पोषक है जो कि इस प्रकार है :-

कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों कर असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए ।

प्रिय पाठकगण हमें आशा है कि यह लेख सत्य और असत्य का विवेक करने में आपके लिए सहायताप्रद सिद्ध होगा। त्रुटियों के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं.

अगले भाग में फ़िर इसी तरह एक नये श्लोक,सूत्र अथवा मन्त्र की समीक्षा की जाएगी ।

(क्रमशः)

Sai baba was a muslim, a orthodox muslim, exposed in Sai satcharitra,

मित्रो आज हम उन प्रशनो के उत्तर दे रहे है जिनके विषय में बहुत से साईं भक्त इधर उधर भटकते रहते है, उन्हें उत्तर कुछ सूझता नहीं और वे साईं के विषय में काफी भ्रमित भी रहते है,
आज हम लाये है साईं के मुस्लिम होने के कुछ प्रमाण जो की शिर्डी साईं संस्थान, शिर्डी महाराष्ट्र में स्थित है के द्वारा प्रकाशित व् प्रमाणित पुस्तक साईं सत्चरित्र से लिए गये है ,

Friends today we are giving some facts which proved that sai baba was a muslim. Devotees of sai are confused and they dont know what was the real character of Sai but today we are giving evidence on the basis of Sai Satcharitra Officially published by Shirdi Sai Sansthaan, Shirdi Maharashtra.

Sources: http://shirdisaiexpose.wordpress.com/2014/01/31/sai-baba-was-a-muslim-a-orthodox-muslim-exposed-in-sai-satcharitra

सबसे पहले अध्याय 4 से प्रमाण :

वे निर्भय होकर सम्भाषण करते, भाँति-भाँति के लोंगो से मिलजुलकर रहते, नर्त्तिकियों का अभिनय तथा नृत्य देखते औरगजन-कव्वालियाँ भी सुनते थे । इतना सब करते हुए भी उनकी समाधि किंचितमात्र भी भंग न होती थी । अल्लाह का नाम सदा उलके ओठों पर था । जब दुनिया जागती तो वे सोते और जब दुनिया सोती तो वे जागते थे । उनका अन्तःकरण प्रशान्त महासागर की तरह शांत था । न उनके आश्रम का कोई निश्चय कर सकता था और न उनकी कार्यप्रणाली का अन्त पा सकता था । कहने के लिये तो वे एक स्थान पर निवास करते थे, परंतु विश्व के समस्त व्यवहारों व व्यापारों का उन्हें भली-भाँति ज्ञान था । उनके दरबार का रंग ही निराला था । वे प्रतिदिन अनेक किवदंतियाँ कहते थे, परंतु उनकी अखंड शांति किंचितमात्र भी विचलित न होती थी । वे सदा मसजिद की दीवार के सहारे बैठे रहते थे तथा प्रातः, मध्याहृ और सायंकील लेंडी और चावड़ी की ओर वायु-सोवन करने जाते तो भी सदा आत्मस्थ्ति ही रहते थे ।

He had no love for perishable things, and was always engrossed in self-realization, which was His sole concern. He felt no pleasure in the things of this world or of the world beyond. His Antarang (heart) was as clear as a mirror, and His speech always rained nectar. The rich or poor people were the same to Him. He did not know or care for honour or dishonour. He was the Lord of all beings. He spoke freely and mixed with all people, saw the actings and dances of Nautchgirls and heard Gajjal songs. Still, He swerved not an inch from Samadhi (mental equilibrium). The name of Allah was always on His lips. While the world awoke, He slept; and while the world slept, He was vigilant. His abdomen (Inside) was as calm as the deep sea. His Ashram could not be determined, nor His actions could be definitely determined, and though He sat (lived) in one place, He knew all the transactions of the world. His Darbar was imposing. He told daily hundreds of stories, still He swerved not an inch from His vow of silence. He always leaned against the wall in the Masjid or walked morning, noon and evening towards Lendi (Nala) and Chavadi; still He at all times abided in the Self.

sai baba was a muslim proved by sai satcharitra
sai baba was a muslim proved by sai satcharitra

अब अध्याय 5 से प्रमाण :

बाबा दिनभर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे । इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों और लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे । सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो । हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे । पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहिनते थे । केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था । वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे । वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्च कुविचारों की उसमें आहुति दिया करते थे । वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे । जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे । सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ । पुरानी मसजिद का जीर्णोद्धार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया । मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे । वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे ।

Baba was surrounded by His devotees during day; and slept at night in an old and dilapidated Masjid. Baba’s paraphernalia at this time consisted of a Chilim, tobacco, a “Tumrel” (tin pot), long flowing Kafni, a piece of cloth round His head, and a Satka (short stick), which He always kept with Him. The piece of white cloth on the head was twisted like matted hair, and flowed down from the left ear on the back. This was not washed for weeks. He wore no shoes, no sandals. A piece of sack-cloth was His seat for most of the day. He wore a coupin (waist-cloth-band) and for warding off cold he always sat in front of a Dhuni (sacred fire) facing south with His left hand resting on the wooden railing. In that Dhuni, He offered as oblation; egoism, desires and all thoughts and always uttered Allah Malik (God is the sole owner). The Masjid in which He sat was only of two room dimensions, where all devotees came and saw Him. After 1912 A.D., there was a change. The old Masjid was repaired and a pavement was constructed. Before Baba came to live in this Masjid, He lived for a long time in a place Takia, where with GHUNGUR (small bells) on His legs, Baba danced beautifully sang with tender love.

अध्याय – 7

ईद के दिन वे मुसलमानों को मसजिद में नमाज पढ़ने के लिये आमंत्रित किया करते थे । एक समय मुहर्रम के अवसर पर मुसलमानों ने मसजिद में ताजिये बनाने तथा कुछ दिन वहाँ रखकर फिर जुलूस बनाकर गाँव से निकालने का कार्यक्रम रचा । श्री साईबाबा ने केवल चार दिन ताजियों को वहाँ रखने दिया और बिना किसी राग-देष के पाँचवे दिन वहाँ से हटवा दिया ।

He allowed Mahomedans to say their prayers (Namaj) in His Masjid. Once in the Moharum festival, some Mahomedans proposed to contruct a Tajiya or Tabut in the Masjid, keep it there for some days and afterwards take it in procession through the village. Sai Baba allowed the keeping of the Tabut for four days, and on the fifth day removed it out of the Masjid without the least compunction.

अल्लाह मालिक सदैव उनके होठों पर था ।

He always walked, talked and laughed with them and always uttered with His tongue ‘Allah Malik’ (God is the sole owner).

हाथ जल जाने के पश्चात एक कुष्ठ-पीडित भक्त भागोजी सिंदिया उनके हाथ पर सदैव पट्टी बाँधते थे । उनका कार्य था प्रतिदिन जले हुए स्थान पर घी मलना और उसके ऊपर एक पत्ता रखकर पट्टियों से उसे पुनः पूर्ववत् कस कर बाँध देना । घाव शीघ्र भर जाये, इसके लिये नानासाहेब चाँदोरकर ने पट्टी छोड़ने तथा डाँ. परमानन्द से जाँच व चिकित्सा कराने का बाबा से बारंबार अनुरोध किया । यहाँ तक कि डाँ. परमानन्द ने भी अनेक बार प्रर्थना की, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए टाल दिया कि केवल अल्लाह ही मेरा डाँक्टर है । उन्होंने हाथ की परीक्षा करवाना अस्वीकार कर दिया ।

Mr. Nanasaheb Chandorkar solicited Baba many a time to unfasten the Pattis and get the wound examined and dressed and treated by Dr. Parmanand, with the object that it may be speedily healed. Dr. Parmanand himself made similar requests, but Baba postponed saying that Allah was His Doctor; and did not allow His arm to be examined. Dr. Paramanand’s medicines were not exposed to their air of Shirdi, as they remained intact, but he had the good fortune of getting a darshana of Baba.

दिए गये प्रमाणों को आप साईं सत्चरित्र से मिलान कर सकते है,  इसके लिए आप शिर्डी की प्रमाणित साईट से इसका मिलान कर सकते है जिसका लिंक नीचे दिया है, मिलान करके आप स्वयं सोचे की क्या ऐसे व्यक्ति को पूजन सही है,

http://www.shrisaibabasansthan.org/shri%20saisatcharitra/Hindi%20SaiSatcharit%20PDF/hindi.html