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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

 यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि इस संसार में मानव ऐसा प्राणी है जिसकी सर्वविध उन्नति कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। शैशवकाल में बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे पराश्रित ही रहना होता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समय-समय पर विविध माध्यमों अथवा व्यवहारों से मानव में अन्यों के द्वारा गुणों का आधान किया जाता है। यदि ऐसा न किया जाये, तो, मानव ने आज के युग में कितनी ही भौतिक उन्नति क्यों न कर ली हो, वह निपट मूर्ख और एक पशु से अधिक कुछ नहीं हो सकता -यह नितान्त सत्य है। अतः सृष्टि के आदि, वेदों के आविर्भाव से लेकर आज तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा तपोबल के आधार पर विशेष विचारमन्थन और अनुसन्धान द्वारा उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। इस जगतीतल में आज जितना बुद्धिवैभव और भौतिक उन्नति दृष्टिपथ में आती है, वह पूर्वजों की शिक्षाओं का प्रतिफल है। उसके लिए हम उन के ऋणी हैं। वे ही हमारे परोक्ष शिक्षक हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। अतः सामान्यतः कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है। जिसका वैदिक स्वरूप इसप्रकार है- जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उस को शिक्षा कहते हैं।(सत्यार्थप्रकाश के अन्त में दत्त स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में शिक्षा की परिभाषा।) ऐसे उत्कृष्ट स्वरूप वाली शिक्षा से एक व्यक्ति मानव बनता है और मानवों का समुदाय समाज कहलाता है। यदि शिक्षा समाज में रहकर दी जा रही है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ना अवश्यम्भावी है। वह वैसा ही बनता है जैसा समाज है। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। दोनों में क्या भेद है, इसको समाजों के तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा सकता है। अतः प्राचीन और आधुनिक समाज की संक्षेप में समीक्षा करते हैं, जिससे शिक्षा कहाँ और कैसे वातावरण में दी जानी चाहिए यह भी स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। ततः आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य आदि पर विचार कर उसका विकल्प सूच्य रहेगा।

प्राचीन समाज-

प्राचीन भारत की सामाजिक स्थिति को जानने के लिए तात्कालिक साहित्य ही एक मात्र शरण है। उस काल में संस्कृत ही बोलचाल और लेखन की भाषा थी, अतः उसमें उपलब्ध वेदेतर ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि वैदिकवाङ्मय और वाल्मीकिरामायण, माहाभारत आदि लौकिक साहित्य का विशाल भण्डार सहायक बनेगा। उन सभी से प्रमाणों की झड़ी लगाई जा सकती है, लेकिन दो तीन बहुश्रुत ग्रन्थों का ही उल्लेख हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने में पर्याप्त होगा। उस समय शिक्षा के केन्द्र ऋषि, मुनियों के आश्रमस्थल होते थे, जो यजुर्वेदीय मंत्र उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो ऽ अजायत।। (यजुर्वेद २6.१५) के प्रतिबिम्बरूप थे, जिसके अनुसार पर्वतों के पार्श्ववर्तीभाग और नदियों के संगम स्थान पर प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण में श्रेष्ठबुद्धि का विकास उत्तमोत्तम हुआ करता है। इसीलिए वहाँ के समाज की सर्वविध समृद्धि आज से भी उन्नत दिखाई देती है। राजा अश्वघोष की विचारोत्तेजक ये पंक्तियाँ- न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।। (छान्दोग्योपनिषद् 5.11.5) प्राचीन भारत के गौरव को डिण्डिमघोष के साथ कहती हुई समाज की उन्नत स्थिति को ही स्पष्टतः वर्णित करती है। जिसमें अश्वघोष की गर्वोक्ति है कि मेरे किसी जनपद में कोई चोर, कृपण और शराबी नहीं है। न कोई अग्निहोत्र न करने वाला और अविद्वान् है। कोई स्वेच्छाचारी मनुष्य नहीं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री कहाँ से होगी? इसी प्रकार का समाज वाल्मीकिरामायण में भी उपलब्ध है। उदाहरणार्थ- तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः। नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः।। कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्। द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः।। नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः। कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः।। (वाल्मीकिरामायणम् 1.6.6, 8, 12) अर्थात् उस श्रेष्ठ अयोध्यानगरी का असाधारण समाज था, जिसमें सभी प्रजाजन प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत विद्वान् थे। निर्लोभी, अपने-अपने धन से सन्तुष्ट रहने वाले और सत्यवादी थे। वहाँ कहीं कोई कामी, कंजूस, क्रूर व्यक्ति न था। न कोई मूर्ख और नास्तिक था। न ही अग्निहोत्र और पंच यज्ञ न करने वाला, न निम्न सोच वाला और चोर था। न ऐसा था जो सदाचारी न हो या वर्णसंकर हो।

आज के परिप्रेक्ष्य में कोई स्वप्न में भी शायद ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं कर सकता! विचारने पर एतादृश समाज की उन्नति के मूल में उत्तम शिक्षाव्यवस्था और राजव्यवस्था ही दिखाई देती है।

ऐसा ही भारत का चित्र लॉर्ड मैकाले ने भी खींचा है, साथ ही लम्बे समय तक अपने अधीन करने के लिए यहाँ की शिक्षाव्यवस्था और संस्कृति को बदलने का सुझाव दिया, जिसमें वह कामयाब हुआ“I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a thief. Such wealth I have seen in the country, such high moral values, people of such caliber; that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and therefore I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.”- Lord Macaulay in his speech on Feb 2, 1835, British Parliament (पप्पू कैसे पास हुआ नामक डॉ0 धर्मवीर का सम्पादकीय, परोपकारी पाक्षिक पत्रिका, सितम्बर (प्रथम) 2010, पृ0 514, पर उद्धृत)। परिणामतः आधुनिक हमारा समाज वैसा ही बन गया जैसा अंग्रेज चाहते थे।

आधुनिक समाज-

आज के समाज की दशा कुकृत्यों से शोचनीय है। न जाने कितने नरपिशाच अपने स्वार्थों के कारण सामाजिक व्यवस्था को तार-तार कर रहे हैं। प्रायः सर्वत्र अकर्मण्यता, स्वार्थपरायणता, निर्धनता, कामुकता, विषयासक्ति, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, परधनहरण, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, नैतिकपतन, कुटिलराजनीति इत्यादि दोष पद-पद पर देखे जा रहे हैं। अद्यतनीय शिक्षासंस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों छात्र स्वकीय शिक्षा पूर्ण कर सामाजिकक्षेत्र में आते हैं, किन्तु क्या वहाँ किंचित् मात्र भी माता पिता में भक्ति, गुरुजनों में आदरभाव, स्वदेश में अनुरक्ति, कर्त्तव्य कार्य के प्रति अनुराग है? नहीं। परन्तु केवल अर्थासक्ति है और तद्द्वारा कामनापूर्ति तथा व्यसनों में अत्यादर। यही नहीं जिस शहरी समाज में नित्य बच्चों तक के साथ बलात्कार कर गन्दे नाले में फेंक देने की वहसी निठारी, नोयडा की और किडनी बेचने की गुड़गाँव जैसी घृणित अनैतिक आचरणों की घटनाएँ हैं। लूटपाट और डकैतियाँ हैं। बच्चों के अपहरण और फिरौतियाँ हैं। दूसरों की सम्पत्तियों पर अधिकार जमाने की कोशिशे हैं। असहिष्णुता है। आत्महत्याएँ हैं। असमानता ऐसी कि एक तरफ कठोर परिश्रम है, परन्तु भर पेट पूरे परिवार के लिए रोटी नहीं, दूसरी और गगनचुम्बी कोठियाँ हैं, जिनमें भोग और विलासिता है। शराब और जूए का दुश्चक्र है। आलस्य, प्रमाद है। स्वार्थी राक्षसी वृत्ति है। अर्थासक्ति ऐसी कि उसके सामने कोई पिता, भाई, बहन आदि का सम्बन्ध कुछ नहीं। प्राणीमात्र के लिए दया का अभाव है। प्रकृति का दोहन इतना कि पर्यावरण कितना ही अशुद्ध हो उससे कुछ लेना देना नहीं। न देशप्रेम है। न दयाधर्म है। सत्यवादिता, परोपकार आदि गुण कोसों दूर हैं। राष्ट्र की सम्पत्ति को अपनी माँगो को लेकर कूड़े के ढ़ेर के समान अग्निसात् कर दिया जाता है। केवल अधिकारों की बात होती है, कर्त्तव्यभावना की नहीं। परिवार और समाज टूट रहे हैं। समाज में पनप रहे ऐसे अनेक दोष नित्य समाचार पत्रों की मुख्य पंक्तियाँ बनते हैं। आज के समाज को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है कि जितना अधिक आज की शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, घर-घर विद्यालय खुल रहे हैं, उतना ही मानव का मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है। आज के शिक्षित व्यक्तियों की गाँव के बीस वर्ष पूर्व के अनपढ़ व्यक्तियों से तुलना करें तो वे एक दूसरे से प्यार करने वाले, सुख दुःख को बाँटने वाले, परोपकारी आदि गुणों वाले थे और ये शिक्षित होकर अधिक बेईमान, छलकपटी, चोर, स्वार्थी, ईर्ष्यालु हो गये हैं। अब वहाँ भी भौतिकता के प्रभाव में नित्य नवीन अपराधों का उदय हो रहा है। इसीलिए आज की गर्हित सामाजिक स्थिति और शिक्षाव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई प्रमुखतः वर्तमान विसंगतियों का परिणाम कही जा सकती हैं- जिसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहाँ हृदयविहीन भावशून्य मशीनी मानव बनाने की शक्ति तो है, परन्तु मानवनिर्मात्री शक्ति नहीं।

आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य

उक्त सामाजिक स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति में वह शक्ति वा उद्देश्यों की पूर्ति की योग्यता प्रतीत नहीं होती जिससे मानव में मनुष्यता के बीज अर्थात् श्रेष्ठता के विचार आरोपित किये जा सकें। साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल भी बढ़ाया जा सके। वर्तमानयुगीन शिक्षा के उद्देश्य तो केवल ऐसी शिक्षा को देना है जिससे अधिक से अधिक अर्थ का आगम हो और उसी के लिए बौद्धिक विकास की परिकल्पना है। उस विकास के साधन उचित हैं अथवा अनुचित यह सोचना आज की शिक्षापद्धति के एजेण्डे में नहीं है। एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं, उसमें नैतिकता प्रभृति श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ वा नहीं -यह उनकी परिकल्पना से दूर है। आचरणहीन, स्वार्थ की पराकाष्ठा के मूर्त रूपधारी, पैसा कमाने की मशीन बने डॉक्टर, इंजीनियर आदि से कितना ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, भौतिक पर्यावरण दूषण हो -इसकी चिन्ता उन्हें नहीं। इसीप्रकार के अन्य उद्देश्यों में मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी और तद्द्वारा आजीविका को प्राप्त करना या कहिए भौतिकसंसाधनों को जुटाना मुख्य है और उसी से समस्त लोगों को सुख शान्ति प्राप्त करवाने के उपाय किये जाते हैं। भौतिक संसाधनों को जुटाने के लिए नित नये कारखाने खोले जा रहे हैं। नई-नई तकनीकों को खोजा जा रहा है। अर्थ का अधिक से अधिक आगम कैसे हो उसी की चिन्तनायें देश और विश्वस्तर पर की जा रही हैं। आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और तद्द्वारा भोजन, वस्त्र तथा मकान किंचित् सुविधा से प्राप्त हो जायें -यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। वह उसी चिन्तनधारा पर कार्य करता हुआ उसे और अधिक श्रेष्ठ और रुचिकर बनाने के उपायों पर मनःस्थिति को केन्द्रित किये है और सुधार के उपाय सुझाता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गाँव तक में विद्यालय की सुविधा सरकारी व निजी स्तर पर है अथवा की जा रही है। निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारीभरकम शुल्क (Fee) के द्वारा उससे खूब कमाई भी कर रहे हैं। किसी समय में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), महामना मदनमोहन मालवीय, सर सैयद अहमद खाँ जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षणसंस्थानों को विशेष उद्देश्यों से खोला था। आज शिक्षणसंस्थान कुकुरमुत्तों की तरह हर स्थान पर उग आयें हैं, जिनके कर्ताधर्ता ईंटभट्टे के व्यापारी या व्यवसायी हैं। उनके उद्देश्य मोटी फीस से धन कमाना है। समाज का भला करने के ऊँचे लक्ष्य नहीं? उन्हें शिक्षा से लेना देना भी क्या है, अपना व्यवसाय करना है, जिसमें वे कुशल हैं। अब सर्वशिक्षा अभियान के रूप में हमारी सरकार ने ही स्वयं शिक्षा क्षेत्र को एक व्यापारिक क्षेत्र के रूप में घोषित कर वैदेशिकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये हैं। अतः शिक्षा के उद्देश्य अर्थप्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही बतलाने की कोशिश परोक्ष और साक्षात् रूप में देखी जा सकती है। सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायप्रवनाभ्यां न प्रमदितव्यम् जैसे वाक्यों से शिक्षा देकर मानव बनाने की परिकल्पना आज की शिक्षा में नहीं है।

आधुनिक शिक्षा की पद्धति

भारतीय साम्प्रतिक शिक्षाप्रणाली में पूर्णतः पाश्चात्त्य शिक्षाव्यवस्था का अन्धा अनुकरण है। जहाँ बच्चा नित्य विद्यालय जाता है और कुछ अक्षर ज्ञान कर लौट आता है। आकर्षित करने के लिए बाह्य चमक दमक को विशेष महत्त्व प्राप्त है। विशेषकर निजी विद्यालयों (Public Schools) में अभिभावकों और बच्चों को आकृष्ट करने के लिए साजसज्जा पर विशिष्ट ध्यान दिया जाता है। बच्चों के स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र और पाठशाला की सफाई सुचारु हो इसकी चिन्ता की जाती है। बच्चों पर कितना भी बोझा विद्यालय और ट्यूशन आदि के द्वारा अक्षर ज्ञान के लिए लादना पड़े, लेकिन वे मुख्य प्रश्नों के माध्यम से या अन्य प्रकार से अधिक से अधिक अंक परीक्षा में कैसे अर्जित करें, वे उपाय अभिभावकों और अध्यापकों या स्वयं बच्चों द्वारा किये जाते हैं तथा उसी के माध्यम से आजीविका प्राप्ति के उपायों की खोज भी होती है। विद्यार्थी ने अपने अध्ययन काल में विद्यालय और ट्यूशन में धन के महत्त्व को देखा है। अतः अधिक धनलाभ कैसे, किससे और आसानी से होगा। अच्छी से अच्छी सर्विस कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए मन मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाये जाते हैं। इस स्थिति में बालक का बौद्धिक विकास किस दिशा में होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वह अपना हित छोड़कर सार्वजनिक हित नहीं करेगा, यह सिद्ध है और यदि करेगा तो आधुनिको के द्वारा मूर्ख कहा जायेगा। यही विचार कर आजकल पढ़ने हेतु मुख्य विषय विज्ञान और गणित को ही सीखने के लिए बल दिया जाता है। अन्य विषयों को भी स्पर्श किया जाता है लेकिन सब को एक साथ। भाषाओं को महत्त्व किंचित् ही दिया जाता है। ऐसे में बच्चों के कोमल मनों पर शिक्षा को लेकर कैसा प्रभाव होगा यह विचारा जा सकता है।

आधुनिक शिक्षागत समस्याएँ –

अद्यतनीया शिक्षाप्रणाली और समाज का एक ही दिशा- अर्थासक्ति में अहर्निश चिन्तन है। विशाल उदारवृत्ति यहाँ नहीं है, अतः स्वार्थीवृत्ति कार्य करती है। ऐसी स्वार्थीवृत्ति, जो खूब कमाओ और मौज उड़ाओ की संस्कृति की पोषिका है। सात पीढ़ियों तक के लिए भण्डार भरने की प्रवृत्ति यहाँ है। ऐसे में जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ समाज, राष्ट्र वा पर्यावरण गौण हो जाते हैं। जिसके प्रभाव से सामाजिक ताना बाना विखण्डित हो रहा है। समाज में रहकर दी जा रही इस शिक्षा से जन्मा यह वैचारिक प्रदूषण भौतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और सांस्कृतिक रूप से अनेकविधदूषणों का कारक है। जिससे किसी भी रूप में इस व्यवस्था के रहते बचा नहीं जा सकता, क्योंकि विकृत समाज के साथ ही शिक्षार्थी को भी रहना पड़ता है। ऐसे में यह शिक्षा अनेकविध समस्याओं का कारण बनती है, जिन्हें निम्नप्रकार समझा जा सकता है।

भौतिक समस्या – वातावरण में विष घोलने का कार्य यह शैक्षिक व्यवस्था कैसे करती है, इसे देखिए-

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रतिदिन विद्यालय जाना आना होता है, अतः आवागमन के लिए एक हजार की संख्या वाले विद्यालय में अनुमानतः चार बसों, चालीस से पचास ऑटो या अनेकों निजी वाहन विशेषों से उगले जाने वाले धुँए से वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण कितना अधिक होता है, यह वर्णनातीत है। दो से तीन, चार हजार बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते हैं वहाँ की स्थिति गुणित होकर कैसी होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है! मध्य में कहीं वाहनों का जाम लगा तो और भी समस्या। अबोध बच्चों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रतिदिन कितना धुँआ पिया जाता है, और राष्ट्र को उसके बदले में रोगादि को दूर करने में कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, वह अनुमानगम्य नहीं! यह स्थिति बाहरवीं तक के छात्रों की है। बच्चे बड़े हुए तो स्वयं अपने वाहनों से या सार्वजनिक वाहनों से ऐसी ही यात्रायें शहरों में विद्यमान महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में जाने आने के लिए बसों में लटककर या छतों के ऊपर करते हैं। इसप्रकार की व्यवस्था में प्रत्येक दिन भारत में ही नहीं, विश्व में बच्चों को विद्यालय तक पहुँचाने और लाने में अनगणित वाहन प्रयुक्त होकर वायुमण्डल को कितनी हानि देते हैं, वह विचारणीय है।

सामाजिक समस्या – समाज में अनेक विसंगतियों की जनक भी यह प्रणाली है, वे इसप्रकार हैं-

  • विद्यालय में आवागमन को सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें राष्ट्र के अर्थ और समय के अपव्यय का कोई मूल्य नहीं। अर्थहानि और समयहानि इस दृष्टि से कि प्रत्येक प्रातः शहरों में बच्चों को माता पिता विद्यालय में भेजने के लिए तैयार करते हैं, उसमें समय लगाते हैं, फिर विद्यालय में जाने के लिए बस स्थानकों पर वाहनों की प्रतीक्षा में न्यून से न्यून पन्द्रह मिनट से आधा घण्टा या अधिक, बच्चे के विद्यालय जाने और आने के समय अभिभावक ही प्रतिदिन नष्ट करते हैं। बच्चों के समय की हानि भी आवागमन में कई घण्टों में प्रत्येक दिन होती है। कई माता पिता स्वयं बालक को विद्यालय में छोड़ने और लाने का कार्य करते हैं। इसप्रकार प्रतिदिन के समय की हानि एक राष्ट्र के लिए कितनी महंगी पड़ती है! इसके अतिरिक्त विद्यालय की फीस का खर्च, वाहनों का खर्च और उनसे होने वाला वायु और ध्वनि प्रदूषण प्रतिदिन की दृष्टि से एक ही छोटे से शहर में ही लाखों का पड़ता है, मास और वर्षों की गणना अरबों, खरबों में होगी जिसका सही अनुमान लगाना भी कष्टसाध्य है।
  • अपने वाहनों तथा सार्वजनिक वाहनों से विद्यालय में आने जाने वाले छात्रों की अनेक बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, जिसमें हर वर्ष न जाने कितनी जानें जाती हैं और कितने अपंग होते हैं। समाज को यह असह्य क्षति प्रायः उठानी पड़ती है।
  • विद्यालयों की मोटी फीस, जिसे सभी नहीं दे सकते उससे समाज में समरसता नहीं होती। कोई बड़ी गाड़ी में आ रहा है तो कोई साइकिल द्वारा ऐसे में ऊँच नीच का भाव समाज में पनपता है। उच्च शिक्षा भी मोटी फीस के द्वारा खरीदी गई होती है, अतः पैसे का ही मूल्य है यह कोमल मनों पर आज की शिक्षा पद्धति के कारण छाया रहता है और वे बड़े होकर स्वयं वैसा ही व्यवहार करते हैं।
  • आज की शिक्षाव्यवस्था में समानता और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न होने से सैंकड़ों वर्षों से दबे कुचले सामाजिकजन वहीं के वहीं उसी दुरवस्था में जी रहे हैं। क्योंकि वे अच्छे कहे जाने वाले पब्लिक विद्यालयों में धनाभाव के कारण अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज नहीं सकते या शिक्षा के महत्त्व को वे जानते नहीं। आजीविका के लिए नित्य बाहर निकल जाने के बाद उनके बच्चों का भगवान् ही मालिक होता है, अतः उनके बालक गलियों में खेलते रहते हैं। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो शीघ्र ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और बालमजदूरी (Child Labour) के चंगुल में फँस जाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें पढ़ने के लिए शक्ति से आदेश नहीं दिया जाता। इस व्यवस्था में सम्पत्तिशाली तो आगे निकल जाते हैं और निर्धन साधनों के अभाव में वहीं के वहीं, गली सड़ी जिन्दगी गुजारने को मजबूर रह जाते हैं। परम्परया उनके बच्चों को भी उन्हीं के साथ रहने से वैसा ही वातावरण मिला होता है, अतः पूर्ववत् निम्नसमाज में बने रहने के अतिरिक्त कुछ परिवर्तन उनमें नहीं आ पाता। साथ ही बच्चों के घर में रहने से बालस्वभाव के कारण नित्य कोई माँग बच्चों की होती है। माँ बाप भी अपने कार्यों को निश्चिन्त हो ठीक से नहीं कर पाते जिससे घर की आय पर भी गलत प्रभाव पड़ता है।
  • इस शिक्षापद्धति के अनुसार आज का विद्यार्थी पाँच, छः घण्टे विद्यालय में रहकर शेष पूरा दिन अपने घर में रहता है। गृहस्थ अपने कार्यों में व्यापृत रहते हैं। ऐसे में बच्चों का संरक्षण करने वाला कोई नहीं। घर में अब वे स्वतत्र है, चाहे तो कुछ भी करें। मन का स्वभाव चंचल है। एक स्थान पर बंध कर कदाचित् पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़ना भी चाहेगा तो महापुरुषों की जीवनी या सही दिशा देने वाली अच्छी पुस्तकें नहीं, अपितु मन को अच्छी लगने वाली किस्से कहानियों की पुस्तकें। ऐसे में समाज को अच्छे नागरिक मिलेंगे यह परिकल्पना नहीं करनी चाहिए।
  • इस व्यवस्था में पढ़ने वाले बच्चों का गृहस्थियों के साथ घर में अधिक समय व्यतीत होता है। घर में जो कुछ भी अच्छा या बुरा हो रहा है उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्रायः चाय, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन प्रत्येक घर में होता है। केवल शराब की ही बात करें तो दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अल्कोहल उत्पादों पर कर से साल 2007-08 के दौरान राज्य सरकारों को करीब 26 हजार करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी।….बेंगलूर स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज (नीमहंस) के एक अध्ययन में पता चला है कि देश में अल्कोहल की बिक्री से हर साल 216 अरब रुपये के राजस्व की उगाही होती है। जबकि इसके ठीक विपरीत अल्कोहल के घातक दुष्परिणामों से हर साल करीब 244 अरब रुपये की क्षति उठानी पड़ती है। (दैनिक जागरण समाचार पत्र (हरिद्वार संस्करण), दिनांक 15 फरवरी, 2010, पृ0 2) ये आँकड़े समाज के शराबी होने की सत्यता को प्रमाणित कर रहे हैं। सरकार को राजस्व की चिन्ता है। समाज गर्त में गिर रहा है तो उसकी चिन्ता नहीं। ऐसे में शराब पीने से हानियाँ भी पाठ्य पुस्तकों में पढाई जाती हैं तो उसका प्रभाव होने वाला नहीं, क्योंकि बच्चे उसी समाज के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं। अतः बड़ों को देखते हुए वे गलत आदतें शनैः शनैः उनमें भी घर कर जाती हैं और वह भी वैसा ही बन जाता है। बाद में स्वभाव में आने से रोकने से नहीं रुकतीं। ऐसे ही अन्य बुराइयों के नित्य प्रत्यक्ष होने से मन की अनुकूलता के आते ही बच्चा बड़ा होते-होते उसे स्वीकार कर लेता है। अतः निरन्तर पीढ़ी दर पीढ़ी ये बुराइयाँ समाज में आती रहती हैं।
  • जातिवाद समाज के लिए एक अभिशाप है, भयंकर रोग है, मानव-मानव के बीच विद्वेष और ऊँच नीच का विष घोलने का कार्य करता है, जिसे इस शिक्षाव्यवस्था के रहते समाज से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि आरक्षण और वोटबैंक की राजनीति का कुचक्र भी इसी जातिप्रथा की धुरि पर चक्कर लगा रहा है। नित्य बच्चे उसी समाज में रहते हैं जहाँ प्रतिदिन उन शब्दों का प्रयोग होता है और अब विद्यालयों में जाति का लिखना अनिवार्य हो गया है। इस व्यवस्था में जाति विशेष के लिए आगे बढ़ने के लिए तो आरक्षण है, लेकिन अन्य जातियों में भी गरीबों की कोई कमी नहीं। आरक्षित जातियों में भी उसका लाभ वे ही लोग उठा रहे हैं, जो पहले से लाभ ले कर स्वयं में राजनीति, प्रशासन, शिक्षाक्षेत्र या विविधप्रकार के उच्च पदों पर पहले से होने से सामर्थ्यशाली हैं, जिन्हें आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं। साठ वर्षों से ग्रामीणों अथवा शहरों की झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की सुध लेने वाला कौन है? प्रथम तो वे बेचारे आरक्षण के महत्त्व को ही नहीं समझते होंगे। यदि जानते होंगे तो बच्चों को पढ़ाने के लिए वह योग्यता और धन कहाँ से लायें? क्योंकि घरों में पढ़ाने के बिना आजकल की पढ़ाई में आगे निकलना सम्भव नहीं, जिसे वे कर नहीं सकते!

वैयक्तिक समस्या – व्यक्तिगत दोष को देने वाली भी यह प्रणाली है। यथा-

  • इस प्रणाली में यह व्यक्तिगत दोष है कि घर में रहने वाले छात्र की किसी प्रकार की कोई दिनचर्या बहुत से कारणों से नहीं बन पाती। कभी वह प्रातः पाँच बजे बिस्तर छोड़ता है तो कभी सात और आठ बजे। रविवार को तो वह उठना ही नहीं चाहता और जहाँ शरीर को बलिष्ठ होना चाहिए था, वह रोगग्रस्त होता चला जाता है। न शारीरिक व्यायाम, प्राणायाम या आत्मचिन्तन में कोई रुचि हो पाती। परिणामस्वरूप मानसिक, शारीरिक बीमारियों को नित्य निमंत्रण। दिनचर्या न होने की यह बीमारी बड़े छात्रों के छात्रावासों में और भी अधिक है।
  • प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ट्यूशन की बीमारी भी इस शिक्षापद्धति की एक बहुत भयंकर देन है। ऐसे में बच्चे विद्यालय और ट्यूशन के बीच में कितना समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं, वह किसी से छुपा नहीं। ऐसे बच्चों का बचपन भी नष्टप्रायः हो जाता है, उनका ठीक से शारीरिक और मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, युवा होते-होते बूढ़े हो जाते हैं।
  • अधिकांश में देखा जाता है कि गलत संगत के कारण बच्चे विद्यालयों में न जाकर आवारागर्दी करते रहते हैं और माता पिता सोचते हैं, वह विद्यालय या ट्यूशन में पढ़ने गया है। पॉकेट मनी भी गलत आदतों को पालने में एक कारण बनती है। उसी से बच्चे चाऊमीन, बर्गर, चॉकलेट आदि खाकर अपनी आदतों को बिगाड़ते हैं और टॉफी या मीठी वस्तुएँ खाकर अपने दान्तों तथा पेट को।
  • स्वावलम्बन का अभाव इस शिक्षाप्रणाली में बच्चों में इतना अधिक देखने को मिलता है कि वे स्वयं कुछ कार्य करना नहीं चाहते। यहाँ तक कि बनियान आदि छोटे वस्त्र भी स्नानागार में दूसरों के लिए प्रक्षालित करने हेतु छोड़ देते हैं। कालान्तर में पूर्णतः पराश्रित हो जाते हैं।
  • यह सब जानते हैं कि सभी के घर विलासिता के  आगार भी होते हैं। घरों में कुछ झगड़ा भी होता है। इन सब का साथ में रहने वाले बच्चों के कोमल मन पर गलत गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। वे विलासिता के रंग में भी रंगते हैं, जिसकी अभी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं, जिससे कुण्ठाग्रस्त होते जाते हैं।
  • जो माता पिता अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते उनके बच्चे घर पर टी0 वी0, वीडियो आदि के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। जो नहीं देखा सुना जाना चाहिए वह सब उसके माध्यम से अबोध बालक जानने लगते हैं। जिससे पढ़ाई में विशेष ध्यान नहीं दे पाते और उसी में सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
  • प्रकृति के प्रति किसी प्रकार का कोई प्रेम आज की इस पद्धति के कारण नहीं बन पाता, क्योंकि वैसे वातावरण में वे रहते ही नहीं। ईंट, पत्थरों के जंगलों में रहते-रहते उनमें प्रकृति के प्रति सम्वेदनशीलता नहीं आ पाती।

सांस्कृतिक समस्या – भारतीयसंस्कृति से सम्बन्धित जीवन आधायक गुणों का नितान्त अभाव का दोष इस व्यवस्था में है। यथा-

  • इस शिक्षा पद्धति में भारतीय जीवन मूल्यों से द्वेष सा है, अतः वहाँ त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य, अध्यात्म का स्पर्श भी जीवन में नहीं करवाया होता, अतः सामान्य से कष्टों के आने मात्र से ही आत्महत्या की भावना आती है। सहिष्णुता का अभाव वहाँ मुख्य होता है। इसीलिए आर्थिक दृष्टि से सुखद भविष्य की सम्भावना होते हुए भी आई0 आई0 टी0, आई0 आई0 एम0 जैसे संस्थानों के छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। कहीं परस्पर ईर्ष्या, द्वेष के कारण अपने साथियों का संहार करने तक का जघन्य कार्य भी कर डालते हैं। ऐसे कृत्य पूर्ण विकसित कहे जाने वाले समृद्धिशाली जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में भी देखे जाते हैं। 11 मार्च, 2009 को दक्षिण जर्मनी के विन्नण्डन (Winnenden) नगर के अल्बर्टविले (Albertville) स्कूल में ही एक 17 वर्ष के बच्चे ने विद्यालय के तीन अध्यापकों, नौ लड़कियों सहित 15 जनों को गोलियों से भून डाला था। बचपन में ही ऐसी उग्रता समाज के लिए घातक है जो नैतिक मूल्यों से ही दूर की जा सकती है और उसके लिए इस पद्धति में अवकाश नहीं।
  • हजारों की संख्या में शिक्षार्थी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों से निकलते हैं, परन्तु सभी अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। किसी में माता, पिता, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र के प्रति कोई भक्तिभाव नहीं, उदारता नहीं। कारण आदर, सम्मान, सौहार्द, सहानुभूति, सम्वेदना आदि का अभाव। विद्यालयों में केवल गणित, विज्ञान, इतिहास अथवा कला-सम्बन्धी विचारों को बच्चे में सम्प्रेषित करने का अधिकतम कार्य किया जाता है, जबकि बच्चों का अधिक समय तो पाठशालाओं से बाहर आराम की जिन्दगी के सान्निध्य, गलियों में खेलने या टी0 वी0, वीडियोगेम, अथवा नेट पर चैट आदि में व्यतीत होता है। जीवन जीने की कला की शिक्षा इस मध्य में लुप्त हो जाती है। इन नकारात्मक भावों से विपरीत श्रेष्ठ भावों का बीजारोपण करने के लिए आन्तरिकभावों को जागृत करना होता है, जो आध्यात्मिकता में निहित हैं, वे आचार व्यवहार से सिखाए जा सकते हैं और उनके लिए आज की शिक्षाव्यवस्था में किसी के पास समय नहीं।
  • भाषा का अध्ययन अध्यापन मानसिक भावों को जागृत करता है, विचारों की नई स्फूर्ति जीवन में लाता है, लेकिन आज कल की शिक्षा प्रणाली में भाषा की मुख्यता न होने से इसका भी अभाव देखा जा रहा है, अतः नई पीढ़ी भावशून्य हो रही है। दया, परोपकार, सत्यवादिता जैसे भाव गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। अपनी राष्ट्र भाषा या संस्कृति पर किसी को गौरव नहीं। यही कारण है कि एक पब्लिक स्कूल का बच्चा शुद्ध हिन्दी भी नहीं लिख पाता। संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा को तो आज का छात्र विषधर की भांति हेय मानता है।
  • कामवासना ऐसा रोग है, जो प्रत्येक को पीड़ित करता है, लेकिन आजकल की शिक्षाव्यवस्था में उस पर काबू पाने का कोई उपाय ब्रह्मचर्य आदि के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया जाता। अतः युवावस्था आने पर सहशिक्षा के कारण थोड़े से भी अनुकूल वातावरण के मिलते ही बच्चों को बहकने का खुला आमंत्रण मिलता है। भारतीय समाज में संस्कारों के कारण कुछ उस से बच जाते हैं तो कुछ नीचे ही नीचे संलिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों के विकास की गति देखिए, जहाँ सोलह वर्ष की शायद ही कोई लड़की गर्भपात करवाने से बचती हो। अब ऐसा ही प्रभाव भारतीय समाज के बड़े-बड़े शहरों में भी देखने को मिल रहा है। यह भारतीय संस्कृति को शिक्षाप्रणाली में महत्त्व न देने का ही परिणाम है।
  • आज की परिस्थितियों में ऐसा कौन सा घर है जहाँ भारतीय संस्कृति में मानव के आन्तरिक षड्रिपु कहे जाने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसे कीटाणुओं का प्रवेश न हो। जन्म जन्मान्तर की वासनाओं से ये दोष बच्चों में भी अनुकूल अवसर पाकर घरों और समाज के सान्निध्य में रहने के कारण प्रविष्ट होते हुए देर नहीं लगाते। जिससे अध्ययन में बाधा आती है और जो उपलब्धि होनी चाहिए वह नहीं हो पाती।
  • अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान रूप पाँच नियम- ये दोनों मनुष्य के इन्द्रियघोड़ों में लगाम का कार्य करते हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं। अतः मानव बेलगाम घोड़े के समान अर्थ के पीछे दौड़ लगा रहा है। ये जानते हुए भी कि यह सब यहीं रह जाना है और अनैतिक कार्यों में मानो प्रतिस्पर्धा करके जुटा है।

अन्य अनेक दोष भी विचार करने पर इस शिक्षा पद्धति में संकेतित किये जा सकते हैं, जिनके चलते आज स्थिति यह हो गई है कि साधन साध्य हो गया है। विश्व के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में आज प्रायः इसी की अन्धी दौड़ है और उसी का परिणाम है कि मानव अर्थलिप्सु हुआ येन केन प्रकारेण शिक्षित कहलाता हुआ भी भ्रष्टाचार, अनैतिक आचरणों के दलदल में आकण्ठ डूबा जा रहा है। सुख शान्ति यदि धन ऐश्वर्य में होती तो विश्व के चोटी के धनाढ्यों में अशान्ति देखने को न मिलती। लेकिन, आज की शिक्षा व्यवस्था इसी धुरी पर चक्कर लगा रही है, जो मानव की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख की अवाप्ति का साधन नहीं। ऐसी स्थिति में आज की सामाजिक विसंगतियों, स्थितियों को देखते हुए प्रश्न खड़ा होता है कि क्या आज की शिक्षाव्यवस्था उचित है? कोई भी विचारक उत्तर में नहीं ही कहेगा और उसको सुधारने की बात करेगा। 20 फरवरी 2010 के दैनिक जागरण समाचारपत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री राजीव शुक्ला (राज्यसभा सदस्य) के लेख में भी मैकाले की दी हुई शिक्षा पद्धति को बहुत पुराना कहा है और उसमें बदलाव पर बल दिया है। जिसकी आज नितान्त आवश्यकता है।

समस्याओं के जाल से निकलने का विकल्प आश्रमव्यवस्था

          उक्त विकट समस्यारूप तमःपुंज को ध्वस्त करने की एकमात्र प्रकाशज्योति भारतीय आश्रमव्यवस्था में निहित है, जो वेदादिशास्त्रों के आविर्भाव से लेकर रामायणकाल तक समृद्धि को प्राप्त हुई दिखाई देती है तथा महाभारत काल के आते-आते क्षीण हो गई और आज प्रायः लुप्त है। जिसे आधुनिक काल में पूरे विश्व के कल्याण की इच्छा रखने वाले महान् शिक्षाशास्त्री दयानन्द ने अपने उपदेशों और ग्रन्थों से पुनः स्थापित करने की कोशिश की। उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनेक गुरुकुलों ने आश्रमव्यवस्था को अपनाया और आज भी समाज के द्वारा प्राप्त करवाये गये स्वल्प संसाधनों के बीच कार्य कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। प्रमुखतः प्राच्य संस्कृत ग्रन्थों के ही अध्ययन अध्यापन में पूर्ण निष्ठा से ये संस्थान कार्य कर रहे हैं, यदि उन पाठ्यक्रमों के साथ अर्वाचीन ज्ञान विज्ञान को भी पठन पाठन का अंग बना दिया जाये तो संसार में इनसे उत्तमकोटि का कोई शिक्षण संस्थान सम्भवतः न होगा। ग्रामों और नगरों से दूर होने के कारण समाज में पनप रहा दूषण भी वहाँ नहीं है और यही दूषण मानव मस्तिष्क से हटाने का उद्देश्य लिए वे कार्य कर रहे हैं, उसमें सफलता भी किसी हद तक प्राप्त हो रही है, क्योंकि यहाँ जीवन के अन्तरंग स्वरूप शारीरिक, मानसिक और आत्मिक को प्रबलता प्रदान करवाते हुए जीने की कला भी है और अध्ययन अध्यापन के द्वारा बौद्धिक विकास का भी पूर्ण प्रबन्ध। इन्हीं गुणों के कारण स्वामी श्रद्धानन्द की तपःस्थली गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपने शैशव काल में ही विश्व में कीर्ति अर्जित की थी। अब भी यदि इस आश्रमव्यवस्था को निकट से देखना चाहें तो तीरन्दाजी में ओलम्पिक तक भारत की ध्वजा को उत्तोलित करने वाले, लड़कों के गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ और लड़कियों के गुरुकुल चोटीपुरा, अमरोहा को देख लीजिए, जो विना किसी सरकारी सहायता के देश की सेवा कर रहे हैं और अपनी संस्कृति के आराधक हैं। गत दो तीन वर्षों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित संस्कृत में NET/JRF परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने वाले यहीं के सर्वाधिक विद्यार्थी रहे हैं। शायद किसी एक संस्था के इतने बच्चों की इस परीक्षा में सफलता आश्रमव्यवस्था की ही उत्कृष्टता को स्पष्टतः कह रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में ऐसे अनेकों लड़के, लड़कियों के अलग- अलग गुरुकुलस्थल हैं, जिनमें समर्पणभाव और अच्छी मानसिकता से बच्चों का निर्माण प्राच्यपद्धति से किया जा रहा है। यदि यहाँ अच्छे साधन उपलब्ध करवाये जायें, सरकारी सहयोग भी हो तो आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों को भी नई दिशाएँ दी जा सकती हैं। थोड़े प्रयास से भी बच्चों को बहुत उन्नत अवस्था तक पहुँचाया जा सकता है।

इस आश्रमव्यवस्था में मुख्यता आचार्य की होती है। आचार्य एक समर्पित व्यक्तित्व का नाम है, जो सत्यनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी, अपरिग्रही हो और जिसमें उत्कृष्टता का बीजारोपण करने वाले ज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ विद्वानों और ईश्वर की उपासना, शम, दम, दया आदि गुण हों- ज्ञानकर्मोपासनाभिर्देवताराधने रतः। शान्तो दान्तो दयालुश्च ब्राह्मणश्च गुणैः कृतः।। (शुक्रनीतिसार 1.40) आचार्य संज्ञा से भी स्पष्ट है आचार्य अपने आचरण व्यवहार से बच्चों को अधिक शिक्षित करता है, जिसका मूल संकेत अथर्ववदीय मंत्र- आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (अथर्ववेद 11.5.3) देता है, जिसका ऐसा उत्कृष्ट तात्पर्य है, जिसकी संसार में तुलना नहीं की जा सकती । जिसके अनुसार ब्रह्मचारी को उपनीत कर आचार्य अपने गर्भ में धारण करता है। गर्भ में धारण करने का निर्देश दे वेदभगवान् यह संकेत देना चाहते हैं कि आचार्य के कुल में उपनीत ब्रह्मचारी किसी भी और कैसे भी उच्च राजा, महाराजा अथवा निम्न निर्धन कुल से आया हो उसके साथ आचार्य वैसा ही व्यवहार करे जैसा माता गर्भस्थ शिशु का लालन, पालन करते हुए करती है अर्थात् माता उदरस्थ शिशु कैसा और क्या है? ऐसा भेद न रखते हुए समान दृष्टि से स्नेह की वर्षा करते हुए परिपालना करती है और सम्पूर्ण निर्मिति होने पर वह शिशु बाह्य जगत् का दर्शन करने के लिए बाहर आता है। ऐसे ही आचार्य कुल में विद्यार्थी समानरूप से गुरु के स्नेहिल छत्र के नीचे विद्यार्जन से हर प्रकार के तमस् को दूर करता हुआ आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, भौतिक विभिन्न प्रकार की उन्नतियाँ कर सम्पूर्णता को प्राप्त हो समाज में पदार्पण करे। ऐसे में देवजन उसका स्वागत करते हैं। वेद के इन निर्देशों की परिपालना कठिन नहीं है। सभी स्वीकार भी करेंगे कि इससे उत्कृष्ट, मानव के निर्माण के लिए शायद कुछ नहीं हो सकता। अतः केन्द्र और राज्य सरकारों को आगे आकर इसकी पहल करनी चाहिए।

सरकारों और सामाजिक संगठनों के लिए करणीय

भारत को स्वतत्र हुए छः दशक से अधिक का काल हो गया। कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतने लम्बे समय के बाद भी हमारा कहने को कुछ नहीं। न अपनी राष्ट्रभाषा, न संस्कृति, न संविधान, न शिक्षाव्यवस्था, जिसे भारतीय कहा जा सके। सब उधार का माल है। मैं समझता हूँ कि इन मामलों में वे हमारे से श्रेष्ठ भी नहीं हैं। हाँ, यदि हों तो स्वीकार करने में भी किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमारी अपनी मान्यता है विषादपि अमृतं ग्राह्यम् अर्थात् विष से भी अमृत मिले तो ले लेना चाहिए। वेद भी कहता है- नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः (यजुर्वेद 25.14) सभी और से कल्याणकारक बुद्धिबल अर्थात् जो भी बुद्धिग्राह्य हो वह हमें प्राप्त हो। योग्य नहीं, फिर भी यदि हम उसे ढ़ोये चले जा रहे हैं तो उसके दो कारण हो सकते हैं। प्रथम ये कि हमें अपनी श्रेष्ठता की जानकारी नहीं और द्वितीय ये कि हम जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। द्वितीय सम्भवतः होना नहीं चाहिए, क्योंकि हम ऐसे कृतघ्न नहीं। प्रथम के अनुसार जानकारी नहीं, तो हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने को पहचानें। भारतवर्ष का अपना गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति है। साथ ही संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा हमारी अपनी कही जाती है और उसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए अथाह ज्ञानसम्पत्ति है, जिसका दोहन होना चाहिए। प्राकृतिक सम्पदा भी ऐसी कि विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं, लेकिन दुःखद है उसको समझा नहीं गया और समुचित उपयोग नहीं किया। प्रत्येक क्षेत्र में परमुखापेक्षी रहे। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए यहाँ की आश्रम व्यवस्था और वर्णव्यवस्था की विश्व में कोई तुलना नहीं। संक्षेप में कह सकते हैं कि किस आयुवर्ग के व्यक्ति को कहाँ पर रहकर अपने जीवन का योगदान समाज के लिए देना है यह बतलाना आश्रमव्यवस्था का कार्य है और सब आलस्य प्रमादों को छोड़कर कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (यजुर्वेद 40.2) मंत्र के अनुरूप श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म करने की सदिच्छा के साथ समाज में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा का नाम वर्णव्यवस्था है। उस प्रतिस्पर्धा में समान अवसर होते हुए जो व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल के अनुसार जिस कर्म पर आकर ठहर जाता है, उस कर्म के अनुसार उसका वर्ण निर्धारण हो जाता है। इसप्रकार वर्णव्यवस्था में कर्म की ही तो प्रधानता है किसी को समाज में हीन दिखाने का कार्य नहीं। जो कर्म नहीं करता वह दस्यु है और दस्यु को सत्प्रेरणाओं से समाज की निर्मल धारा में लाना उपदेशकों का या दण्ड के द्वारा रास्ते पर लाना राजा का दायित्व है। बचपन से कोई दस्यु बने ही नहीं कर्मकौशल से, पुरुषार्थ से सब प्राप्य प्राप्त करे, यह बतलाना शिक्षा का कार्य है। ऐसी उत्कृष्ट शिक्षा के बीजारोपण समाज की भागदौड़ से दूर आश्रमव्यवस्था में निहित हैं, जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्राप्त अबोध बच्चे की वैदिकी संज्ञा है। यही उसमें मुख्य केन्द्रबिन्दु होता है, जिसका सदुपदेशों से कच्चे घड़े के समान निर्माण करना होता है। उसे आचार्य अपने सान्निध्य में रखते हुए अपनी ज्ञानाग्नि से जैसा स्वरूप देता है वैसा ही मजबूत बनकर गुरुकुलरूपी तप की भट्टी से वह बाहर आता है। निषेधात्मक सोच लिए हुए जैसे आजकल उग्रवादी जेहादी तैयार करते हैं वैसे ही सकारात्मक सोच के साथ समाज के लिए अपना सब कुछ आहुत कर देने वाले सदाचरणशील, कर्त्तव्यनिष्ठ, समर्पितव्यक्तित्व के धनी आचार्य या गुरु यदि समाज को बदलना चाहें तो वास्तव में बदल सकते हैं। बस, आवश्यकता है उत्तम वातावरण बनाने की। फिर वे भी जेहादी मानव का निर्माण कर फौज खड़ी कर सकते है, लेकिन यह जेहाद समाज को दिशा देने वाले सत्कर्मों के लिए होगा विध्वंस के लिए नहीं। ऐसे व्यक्तित्व की धनी यह फौज अनेक कष्टों के आने पर भी कदाचित् उचित सत्यनिष्ठ मार्ग से विचलित न होगी। यही ध्येय प्राचीन काल में आश्रमों का होता था। जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का निर्माण किया। अधुनातन उदाहरण देश के  पिछड़े प्रदेश बिहार की राजधानी पटना का है, जहाँ एक Super 30 के नाम से ऐसा संस्थान चल रहा है जिसकी गत तीन वर्षों की उपलब्धि है कि वह निर्धन तीस बच्चों को, जो IIT-JEE की कोचिंग को पैसा देकर नहीं खरीद सकते, उन्हें निःशुल्क समर्पणभाव से शिक्षण देता है। बच्चों की श्रद्धा और गुरुओं के समर्पण व विश्वास से लगातार तीसरी बार तीस के तीस बच्चों ने IIT की कठिनतम परीक्षा को उत्तीर्ण करने का अनुकरणीय कार्य किया है, द्र0 (The Times Of India, New Delhi, Page 01, May 27, 2010)। बस, यह समर्पण का नमूना है, यही शिक्षा के क्षेत्र में होना चाहिए। तुच्छ धन के बदले अमूल्य शिक्षा के विक्रय से बचना चाहिए। यही सन्देश Super 30 ने शिक्षा का बाजारीकरण करने वालों को जोर का झटका देकर दिया है। अब ऐसी व्यवस्थाओं को मूर्तरूप देने के लिए शासन को आगे आना चाहिए और निम्नलिखित योजनाओं को कार्यान्वित करवाकर समाज को सुसमृद्ध और सुसंगठित करने में योगदान देना चाहिए।

  • सर्वप्रथम यदि सरकार वा अन्य सामाजिक संस्थाएँ मानव मात्र का कल्याण चाहती हैं। गरीब से गरीब के बच्चे को पढ़ाई कर सम्मानित जीवन जीने के लिए प्रेरित करना चाहती है। जातिप्रथा के अभिशाप को निर्मूल कर समाज के लिए कैन्सर बने आरक्षण को समाप्त करने का ध्येय रखती है। मानसिक और भौतिक प्रदूषण से समाज को छुटकारा दिलाना चाहती है, तो उन्हें तुरन्त आश्रमव्यवस्था के द्वारा विद्या अध्ययन को लागू करवाना चाहिए। ऐसा होते ही आधुनिक शिक्षाव्यवस्था में दिखाए उपर्युक्त दोष पलायन करने में देर नहीं लगायेंगे।
  • यह प्रकृति सिद्ध है कि उत्कृष्ट वस्तु का निर्माण श्रेष्ठ शिल्पी के ही हाथों द्वारा होता है। आप श्रेष्ठ मानव बनाना चाहें तो उसके लिए सिद्धहस्त को ढ़ूँढना होगा। शिक्षा के लिए सामान्य या आरक्षण से कार्य नहीं चलेगा। आज की व्यवस्था में प्रायः समस्त बुद्धि का वैभव अन्य क्षेत्रों में जा रहा है और यहाँ शिक्षा का कार्य विशेषकर प्राथमिकस्तर पर कामचलाऊ शिक्षकों से चलाया जाता है। जब कि होना विपरीत चाहिए। शिक्षकों से ही उनकी योग्यता से विपरीत चुनाव कार्य, जनगणना, पशुगणना इत्यादि सामाजिक कार्य करवाये जाते हैं। अतः प्रथम त्यागी, तपस्वी समर्पणभाव वाले योग्यतम शिक्षकों का चयन अपेक्षित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षकों का चयन आज कल की जल, थल और वायु सेना के अधिकारियों की चयन प्रक्रिया के अनुरूप अनेकों परीक्षणों और बाधाओं को पार करने वाले सबसे अधिक बुद्धिमान् का किया जाना चाहिए, जिससे वे अपना श्रेष्ठतम योगदान मनुष्यता के निर्माण में दे सकें। ये शिक्षक मातृवत् वात्सल्यभाव, सदाचारी, आध्यात्मिक, विभिन्न विद्याओं में निष्णात, कर्त्तव्यनिष्ठ, बहुभाषाविद् आदि गुणों से युक्त हों तथा इन्हें देश या समाज के अन्य दायित्वों से पूर्णतः मुक्त कर चौबीस घण्टे बच्चों के निर्माण में ही समर्पित करना चाहिए। इन्हें सब अभीष्ट सुविधाएँ भी प्राप्त करवाई जानी चाहिए। समाज उन पर पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखे। प्राचीन समय में शिक्षा देने का कार्य गृहस्थधर्म के समस्त दायित्वों से निर्मुक्त हुए वानप्रस्थी निर्वहन करते थे, अतः शिक्षा विना किसी शुल्क के दी जाती थी। अब भी ये व्यवस्था बनाई जा सकती है, इससे बच्चों को वृद्धजनों के जीवन का पूर्ण अनुभव और प्यार शिक्षा के साथ प्राप्त हो सकेगा। बच्चे भी उनकी सेवा शुश्रूषा कर सकेंगे। एक दूसरे को परस्पर सम्बल प्राप्त हो सकेगा। वृद्धजन अपनी योग्यता के अनुसार इन आश्रमों में कुछ भी सेवायें दे सकते हैं।
  • साम्प्रतिक काल में भी उक्त निर्देशों के अनुसार ग्राम और शहरों से दूर प्रकृति की गोद में छात्रावास, क्रीडास्थल आदि सब सुविधाओं से सुसज्जित आश्रम/विद्यालय/गुरुकुल जो भी नाम दें, स्थापित किये जाने चाहिए। इन का निर्माण जनसहयोग और सरकार द्वारा हो सकता है। इन आश्रमों में बच्चे के खान, पान और पढ़ने की हर प्रकार की चिन्ता श्रेष्ठ, निःस्पृह, समर्पित शिक्षकों के द्वारा की जायेगी, अतः माता पिता निर्द्वन्द्व हो अपने गृहस्थ जीवन को सुन्दरतम बना सकते हैं। आश्रम में रहने वाले बच्चों आदि के भोजन आदि की व्यवस्था भी जरा सी उदारता पर साल भर के लिए फसल के समय दिए गए एक-एक बोरी अन्न से ही सम्भव हो सकती है। जनसंख्या के अनुसार वह अनेक ग्रामों या एक ग्राम वा नगर का हो सकता है।
  • आश्रम में गरीब और धनवान् का अन्तर किये बगैर समानरूप से बच्चे का प्रवेश पाँच से आठ वर्ष की आयु में अनिवार्यरूप से हो जाये यह राजनियम होना चाहिए। जो माता पिता ऐसा न करें वे समाज या शासन के द्वारा दण्डनीय हों। गाँवों में यह दायित्व पंचायत को सौंपा जा सकता है और नगरों में नगरपालिका को, जिससे किसी का बच्चा घर में न रहने पाये। बच्चे माता, पिता और समाज में साक्षात् मोह न रखें जब तक पूर्ण शिक्षा न हो, इससे विना किसी घर आदि की चिन्ता के निरन्तर अध्ययन करना और करवाने का उद्देश्य पूर्ण होगा, विद्यार्जन में किसी प्रकार की बाधा न आने पायेगी। यह सबको शिक्षित करने का सीधा और सरल उपाय है। सभी को पढ़ाई करने और आगे निकलने के समान अवसर उपलब्ध करवा देने से समाज में किसी को आरक्षण देने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। न समाज में विद्वेष फैलेगा। समाज से दूर आश्रमों में बच्चों के होने से बालश्रम (Child Labour) जैसे कलंक का प्रश्न ही नहीं उठेगा। बच्चे भी समाज में पनपने वाले अनेक प्रकार के रोगों से बचे रह सकेंगे।
  • इस आश्रम व्यवस्था में राजा या रंक, सम्प्रदाय आदि के भेद के विना सब बच्चों के साथ समान व्यवहार, खान-पान, वस्त्र आदि से पोषण होने से वास्तविक साम्यवाद अनायास ही आयेगा। जातिवाद का दुश्चक्र भी समाज से शनैः शनैः समाप्त हो जायेगा।
  • समयानुसार नियमित दिनचर्या की परिपालना करवाना भी बच्चों के भविष्य और स्वास्थ्य आदि के लिए उत्तम होगा। ऐसे स्थल पर स्वयं कार्य करने की प्रवृत्ति का भी उदय होगा और बच्चा स्वावलम्बी बनेगा।
  • शारीरिक बल की उन्नति और विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित करवाने के भी आश्रम स्थल साधन बन सकते हैं। क्योंकि क्रीड़ायें सामूहिक रूप में प्रातः सायम् ही की जाया करती हैं।
  • नित्य प्रातः सायं आसन प्राणायाम, खेलकूद के द्वारा शारीरिक पोषण और मन, आत्मा की प्रबलता के लिए सन्ध्योपासना द्वारा अध्यात्म का पाठ पढ़ाना तथा वातावरण की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र करना करवाना अपेक्षित होगा। अग्निहोत्र इसलिए कि अग्नि में पड़ी हुई आहुतियाँ इदन्न मम के द्वारा त्यागभावना को सिखाती हुईं सूक्ष्म हो सम्पूर्ण प्रकृति को सुवासित कर नई ऊर्जा का संचार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने में करती हैं। वस्तुतः गोघृत और प्रकृतिप्रदत्त वनस्पतियों में वह शक्ति मालूम होती है जो यज्ञीय अग्नि के माध्यम से प्रदूषण को समूल नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वाल्मीकिरामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ इसकी पुरजोर वकालत करते हैं। आधुनिक विचारक दयानन्द भी पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ को ही उत्तम मानते हैं, वे सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में क्या होम न करने से पाप होता है? के उत्तर में लिखते हैं- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर में जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु और जल में फैलाना चाहिये। प्रत्येक को अग्निहोत्र करने के लिए प्रेरित करते हुए पुनः वहीं अन्य प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। इन विचारों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ के धूम से वातावरण सुगन्धित होता है और यह अनुभव सिद्ध भी है। यदि यह आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी निरीक्षित हो योग के समान प्रचार प्रसार पा जाए तो सम्भव है, भौतिक प्रदूषणों से और विभिन्न प्रकार के रोगों से मानव समाज मुक्त हो जाए। अतः इस दिशा में अनुसन्धान करने के लिए आधुनिक वैज्ञानिकों और याज्ञिकों के सम्मिलित प्रयास होने चाहिए, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।
  • साथ ही प्रातः सायं के समय सदुपदेशों के द्वारा विभन्न विषयों जैसे धर्म वास्तव में किसे कहते हैं? ईश्वर, जीव, प्रकृति क्या हैं? इत्यादि पर चर्चाएँ श्रेष्ठ मानव का निर्माण करने में सहयोगी होंगी। ब्रह्मचर्य आदि का पाठ पढ़ा कर विषय वासना और विलासिता के रोगों से समाज को दूर किया जा सकता है। इसप्रकार एक स्थान पर रहने वाले बच्चों का एक साथ चहुँमुखी विकास होना सम्भव है। जिसे परिवारों में प्राप्त करना कथमपि सम्भव नहीं।
  • एक स्थान पर रहने और नियम बना देने से विभिन्नभाषाओं को भी थोड़े ही परिश्रम से बच्चे जान सकते हैं, क्योंकि भाषा बोलने और व्यवहार से आती है। ऐसे में बच्चे का विकास भी सही तरीके से होगा और श्रवण परम्परा से कथाओं के साथ श्रेष्ठ सूक्तियों आदि का स्मरण करवाना भावी जीवन के लिए फलदायक।
  • पाठ्यविषयों में भी शैशव काल के प्रथम तीन चार वर्ष में भाषाओं का पूर्ण ज्ञान करवाना ही उपयोगी हुआ करता है। जिससे समझ विकसित होने पर विषयों को बाद में ठीक से जाना जा सकता है। अन्य विषयों को आनुपूर्वीक्रम से एक-एक विषय को पढ़ाना उत्तम रहेगा। जिससे समय की उपलब्धि होने से अन्य मानसिक और आत्मिक उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त होंगे।
  • आश्रमों में श्रेष्ठ, आचारवान्, अध्यात्मनिष्ठ गुरुओं के सान्निध्य में रहकर उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने का यथासमय अवसर मिलता है और शिक्षा कkeo परम उद्देश्य श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना सम्भव होता है। फिर कार्य कुशलता और योग्यता के अनुरूप बच्चे स्वयं या आचार्य के निर्देशानुसार अपनी आजीविका ग्रहण कर सकते हैं।
  • यहाँ यह भी अवधेय है कि कन्याओं के लिए आश्रम अलग और लड़कों के लिए अलग होना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से शीघ्र उन्नति करने में लाभदायक सिद्ध होगा। परस्पर आसक्ति में नहीं पड़ेंगे। दिखावा करने का भूत सवार नहीं होगा। जिससे अनेक प्रकार की असहज प्रवृत्तियों से बचा जा सकता है।
  • पहाड़ों पर तो आश्रम व्यवस्था में पढ़ाना आर्थिक आदि सभी पहलुओं में और भी उपयोगी है। सुना जाता है उत्तराखण्ड जैसे प्रान्त में सोलह ऐसे महाविद्यालय हैं, जहाँ प्रत्येक में सौ सौ की भी छात्र संख्या नहीं है। ऐसे में आश्रम व्यवस्था बहुत उपयोगी होगी।

आधुनिक शिक्षा में इसप्रकार के परिवर्तन कर समाज को वर्तमानकालिक नीतिनिर्धारक बहुत सारी विसंगतियों से बचा सकते हैं। आशा है इस दारुण स्थिति में उक्त महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार और अन्य ऐसे ही समर्थ तथा सशक्त एन॰ जी॰ ओ॰, डी॰ ए॰ वी॰ संस्थान आदि सामाजिक संगठन आगे आयेंगे। भारत के सोये स्वाभिमान को जगायेंगे और भारतीय उच्च आदर्शों और परम्पराओं की पुनः स्थापना शिक्षाव्यवस्था के माध्यम से करवा कर भारतवर्ष के खोए हुए गौरव को प्राप्त करवाने में यथाशक्ति योगदान देंगे। क्योंकि शिक्षा ऐसा माध्यम है, जिससे शीघ्र और उचित दिशा में उन्नति होने में विलम्ब नहीं हुआ करता।

निष्कर्ष-

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति अनेक समस्याओं की जड़ है। जिसका मूलोच्छेद जब तक नहीं किया जायेगा तब तक समस्त समाज को शिक्षित और मानवोचित गुणों का उसमें आधान करवाना कथमपि सम्भव नहीं होगा। मनुष्य के केवल बाह्य स्वरूप को सुधारने का कार्य आज की शिक्षा का है। जबकि बाह्य से आन्तरिक स्वरूप अधिक महत्त्व रखता है परन्तु बाह्य और आन्तरिक समुदित हुए चार चाँद लगाने में समर्थ हैं। प्राचीन आश्रम व्यवस्था विचार शक्ति को शुद्ध कर उभयविध उन्नतियों को सिद्ध करती है। इसलिए यदि समाज में मानवता लानी है, प्रकृति के प्रदूषण को बचाना है, बच्चों के विद्यालय में आवागमन हेतु लगने वाले समय को बचाना है तो प्राच्य और अर्वाच्य दोनों के मेल से एक नई शिक्षापद्धति लागू करनी होगी जो सम्पूर्ण समाज को चाहे वह निर्धन से निर्धन हो या मध्यम या बहुत धनाढ्य सब को अध्ययन का समान अवसर देवे। जिससे समाज में स्वाभाविक साम्यवाद आयेगा, जातिवाद निर्मूल होगा, कर्त्तव्यकर्म को महत्त्व दिया जायेगा, आरक्षण की आवश्यकता न होगी। गुरुकुलीय शिक्षापद्धति में प्रकृति की गोद में पढ़ने से भौतिक संसाधनों के प्रति अधिक अनुराग न होगा, आसक्ति न होगी, दिखावा न होगा। विनयभाव आयेगा और व्यक्ति वित्त, बन्धु, वय, कर्म और विद्या को क्रमशः महत्त्वशाली समझेगा, जबकि अब केवल वित्त को ही महत्त्व दिया जा रहा है। आश्रमव्यवस्था में किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्ध न होने से केवल मनुर्भव (ऋग्वेद 10.53.6) अर्थात् मानव बन का पाठ पढ़ाया जायेगा। प्रातः सायं सन्ध्याकाल में शरीर को पूर्ण मानसिक और शारीरिकरूप से स्वस्थ रखने के लिए अग्निहोत्र और कुछ प्राणायामों के साथ अन्तर्ध्यान करवाना अपेक्षित होगा जिससे स्वदुर्गुण यदि हैं तो उन्हें दूर करने के लिए दृढ़संकल्प शक्ति तैयार की जा सकती है। इसप्रकार जीवन स्वयमेव धार्मिक बन जायेगा, क्योंकि धर्म पूजा पाठ का नाम नहीं है। न वह मन्दिरों में है, न गुरुद्वारों में, न मस्जिदों वा चर्चों में। वस्तुतः सही से कर्त्तव्य कर्मों को करना ही धर्म है। या जिससे समाज, प्रकृति की सम्यक् संस्थिति और मोक्षरूप परम आनन्द की प्राप्ति हो, वह धर्म है।

अन्त में संक्षेप में यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण देश में नवोदय विद्यालयों की तरह छात्रावासों में रहकर ही पढ़ाई करवाना सुनिश्चित कर दिया जाये तो भी प्रतिदिन करोड़ों रूपये के पर्यावरण प्रदूषण, समयहानि, जनहानि, धनहानि से बचा जा सकता है और उक्तव्यवस्था मूर्तरूप धारण कर लेवे तो देश पुनः प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में देर नहीं लगायेगा और कालिदास के रघुवंश के शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।जैसे वाक्य पुनः भारत के भाल का शृंगार बन जायेंगे।

(डॉ0 ब्रह्मदेवसंस्कृत-विभागगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयहरिद्वार)

सम्पर्क सूत्र- 09412307123,               E-mail : brahma63@gmail.com

 

कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य

 

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शास्त्रों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने वाले श्लोक अथवा मंत्र,जिनका गलत अर्थ लगा कर पाखण्डी जाति प्रथा का समर्थन करते हैं (भाग १):-

 

प्रिय पाठकगण, इस लेख शृङ्खला को शुरु करने के पीछे लेखक का उद्देश्य है आपके सामने वेदादि सत्य शास्त्रों से ऐसे प्रमाणों को प्रस्तुत करना जो कि स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और साथ ही यह भी दिखाना कि किस प्रकार जातिवादी पाखण्डी उनका गलत अर्थ करके  अपना मतलब साधते  हैं। जहां तक ईशवर प्रदत्त चारों वेदों का सवाल है,उसके मन्त्रों का गलत अर्थ विगत ३००० वर्षों में अनेक लोगों ने अज्ञानवश अथवा स्वार्थसिद्धी के लिए किया है और जहां तक ऋषि मुनियों द्वारा रचित ग्रन्थों जैसे मनुस्मृति इत्यादि का सवाल है वहां पर तो श्लोकों का गलत अर्थ करने के साथ साथ कुछ कुछ नये श्लोक मनमाने तरीके से अपना मतलब साधने के लिए मिला दिये हैं। ऐसे नये मिलाए गये श्लोकों को प्रक्षिप्त श्लोक कहा जाता है। इस लेख शृङ्खला में ऐसे श्लोकों का सही अर्थ किया जाएगा जिनके गलत अर्थ से जातिवाद की सिद्धी की जाती है तथा प्रक्षिप्त श्लोकों को भी युक्तिपूर्वक प्रक्षिप्त सिद्ध किया जाएगा।

मनुस्मृति में गुणकर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला ऐसा ही एक श्लोक निम्नलिखित है:-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रतां।

क्षत्रियाज्जात्मेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। ।  (मनु १०:६५)

इस श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार है :- शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन है। मगर जातिवाद के समर्थक इसका गलत अर्थ निम्नलिखित तरीके से लगाते हैं:-

अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी। और अगर ब्राह्मण का शूद्रा से कोई पुत्र उत्पन्न हो और उस पुत्र का ब्याह शूद्रा से हो और उनका भी पुत्र उत्पन्न हो और उसका ब्याह भी शुद्रा से किया जाए तो इस तरह से सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी। यही विधान क्षत्रिय और वैश्य के साथ भी समझना चाहिए ।

और इस अर्थ की सिद्धी के लिए उपर दिए गये श्लोक (१०:६५) से पहले एक प्रक्षिप्त श्लोक भी मनुस्मृति में मिलाया हुआ है जो कि निम्नलिखित है:-

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातःश्रेयसा चेत्प्रजायते।

अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमाद्युगात् ।  । (मनु १०:६४)

जिसका अर्थ वे इस प्रकार लगाते हैं:-अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी।

और इसी के साथ मिला कर के अगले श्लोक (शूद्रो ब्राह्मणतामेति १०:६५) का अर्थ लगाते है कि शुद्र (ब्राह्मण से शूद्रा में उत्पन्न पुत्री को ब्राह्मण से उपर्युक्त विधि से ब्याह्ने से सातवीं पीढी में उत्पन्न पुत्र )जैसे ब्राह्मणता को प्राप्त करता है वैसे ब्राह्मण भी शूद्रता को प्राप्त करता है (अगर ब्राह्मण द्वारा शूद्रा में पुत्र हो और उसका विवाह भी शूद्रा से हो तो इस प्रकार सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी) । वैसे ही क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र छठी पीढी में शूद्रता को प्राप्त करता है और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र पाचवी पीढी में शूद्रता प्राप्त करता है इत्यादि।

यहां गौरतलब है कि प्रक्षेपक महोदय ने श्लोकों का अर्थ बिगाडने का काम बहुत ही चतुराई से किया है । मगर हम ध्यानपूर्वक दोनो श्लोकों की समीक्षा करें तो सारी कलै खुल के सामने आ जाती है।

सर्वप्रथम तो हम श्लोक संख्या १०:६५ के शाब्दिक अर्थ को देखें :-शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

अब हमें सर्वप्रथम ये विचार करना चाहिए कि मनु महाराज ने शूद्र अथवा ब्राह्मण किनको कहा है? अगर मनुस्मृति का अध्ययन किया जाय तो ह्म पाएंगे कि प्रथम तो शूद्र या ब्राह्मण शब्द या तो उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो सक्ता है जो कि स्वयं शूद्र अथवा ब्राह्मण वर्ण का हो । दूसरा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र द्वारा समान वर्णों की स्त्रियों में उत्पन्न सन्तानो को भी क्रमशः  ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र जाति से जाना जाता है(मनु १०: ५)।  यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त जातियों का आशय सिर्फ़ उपनयन संस्कार इत्यादि की आयु निर्धारण करने से है ना कि जन्म के आधार पे बालक का वर्ण निर्धारण करने से।

मगर हम १०:६५ श्लोक के जातिवादियों द्वारा लगाए गये अर्थ की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि “शुद्रो ब्राह्मणतामेति ” मे शूद्र का अर्थ उन्होने लगाया है ब्राह्मण पुरुष की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुइ पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर और फ़िर उनकी पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर इस प्रकार सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी । उसी प्रकार ‘ब्राह्मणश्चैति शूद्रतां ‘ मे ब्राह्मण शब्द का अर्थ उन्होने लगाया है कि ब्राह्मण पुरुष द्वारा शूद्रा स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शूद्रा से ब्याह कर फ़िर उनसे उत्पन्न पुत्र को पुनः शूद्रा से ब्याह्कर इस प्रकार जो सातवीं पीढी में सन्तान उत्पन्न हो। अब भला शूद्र और ब्राह्मण शब्द का इतना विचित्र अर्थ ये लोग किस व्याकरण के नियम के अनुसार लगाते हैं ये तो यही लोग जानते होंगे। इसी प्रकार क्षत्रियाज्जातः का अर्थ होता है कि जो क्षत्रिय पिता के द्वारा उत्पन्न हो । मगर इस श्लोक में जातिवादी इस शब्द का अर्थ लगाते हैं क्षत्रिय द्वारा शुद्रा में उपर्युक्त विधी से उत्पन्न छठी पीढी की सन्तान ।   अब यहां विचारणीय है कि अगर छ्ठी पीढी की सन्तान को ‘क्षत्रियाज्जातः’बोलेंगे तो ५वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मानना पडेगा  ।  अब जबकि जातिवादी लोग क्षत्रिय द्वारा शूद्रा में उत्पन्न पहली पीढी की सन्तान( जिसको उग्र बोला जाता है) को भी क्षत्रिय नहीं मानते हैं तो ५ वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मान लेना क्या सिर्फ़ मतलब साधने वाली बात नहीं है?

ये तो थी १०:६५ नं० श्लोक के इनके द्वारा किए गये अर्थ (अनर्थ) की समीक्षा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ६४ वे श्लोक से ६५ वे श्लोक का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि ६४ वे श्लोक से प्रासङ्गिक तालमेल बैठाने के लिए शूद्र,ब्राह्मण,क्षत्रिय इत्यादि शब्द का किस प्रकार व्याकरण विरुद्ध अर्थ लगाना पड रहा है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, अपितु अगर ६४ वें श्लोक के अर्थ की भी समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि “शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः” यह पद तो पुल्लिङ्ग है मगर इसका प्रयोग पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनो के लिए न होकर सिर्फ़ स्त्री सन्तान के लिए हुआ है। भला ऐसा विचित्र प्रकार का श्लोक परम विद्वान महर्षि मनु का कैसे हो सकता है? इससे सिद्ध हॊता है कि यह श्लोक (१०:६४)  अगले (१०:६५) श्लोक का अर्थ बिगाडने के हेतु से किसी धूर्त व्यक्ति द्वारा मिलाया गया है। अतः श्लोक संख्या  १०:६४ को प्रक्षिप्त मानना ही उचित है।

अब तक की समीक्षा से हम इस निष्कर्ष पे पहुंचे हैं कि मनु १०:६५ का जातिवादियों के द्वारा किया गया अर्थ गलत है  और उसका सही अर्थ गुण कर्मानुसार वर्ण वयवस्था का ही पोषक है जो कि इस प्रकार है :-

कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों कर असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए ।

प्रिय पाठकगण हमें आशा है कि यह लेख सत्य और असत्य का विवेक करने में आपके लिए सहायताप्रद सिद्ध होगा। त्रुटियों के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं.

अगले भाग में फ़िर इसी तरह एक नये श्लोक,सूत्र अथवा मन्त्र की समीक्षा की जाएगी ।

(क्रमशः)

National Planning in Rig Veda

national planning

National Planning in Rig Veda

By Subodh Kumar

Email- subodh1934@gmail.com

If one were to identify the problems being faced by our Nation today and list out in order of priority, the tasks facing us, following would be considered as a reasonable blue print for future action:

1.  Education System Overhaul to teach future generations to grow in to responsible, fearless, confident, energetic, self motivated,  honest good citizens in the service of society and  provide Good teachers and mind motivators.

2.  Water conservation and rain water harvesting.

  1. Measures to control Global Warming and repair of damaged ozone
  2. cover.( to avert Natural disasters like Tsunami and Draughts)

5   Sustainable disposal of Sanitation, Sewage and Pollution

6   Organic Agriculture, for healthy disease, poverty free society

7   Honesty and transparency in public life, underpinning the role of

Teachers, Governments, leaders and the media, for educating

Cultivation of proper non exploitative mental attitudes in

Society

7.  Eradicate Corruptions and Parallel Economy.

8.  Bio technology research to work on systems in a cow, which converts

Fodder (uneatable agriculture waste) to probiotic nutrition for     Humans, and maintains soil health.

9.  Promote transparency economy and check on ‘Black money’

10. Tackle the socially deviant behaviour

It may come as a big surprise that this agenda is found given in the same order of priority as the actions of the Prime Minister of the Country, and in this chronological order, are the subject explained in Rig Veda 2.14..

 

RigVeda 2-14  Rishi-Gritsamda Devta-Indra

Sub: Adhwaryu   

Introductory note: –  The term Adhwaryu has traditionally, come to designate a person responsible for making arrangements for carrying out a Karmakand Yagna.

According to Monier Williams, Adhwaryu is a person,

  1. who measures the ground. First of all he has to make the project note for all the facilities, which will be required for the Yagna. They could range in sizes from small agnihotra to a large community Yagnas. Obviously he has to first survey the required size of. Land. Then only he can proceed to acquire, level and make it fit for the Yagna.
  2.  He has to build the altar. For the building of altar he has to have command on civil engineering /architectural skills to specify and estimate the quality and quantity of construction material like bricks and mortar from which the altar will be made. He must have materials management skills to arrange for delivery at the Yagna site. He should also have civil construction skills to carry out the construction of the Altar.
  3. He has to prepare the sacrificial vessels and implements.  This means, he also has to specify correct materials of which these implements will be made of. He has to specify the design of these vessels and the implements, which will be required for the specific Yagna. This means he should also have engineering skills involving material science and fabrication techniques.
  4.  He has to fetch wood and water. Thus he also has to make an estimate of the quantities, which will be required for the Yagna, and ensure proper quality and quantity of fuel wood and water to be available at hand. He should have knowledge and awareness about natural resources.
  5.  He has to light the fire. He is also expected to know the art of creating a sustainable fire. An engineer to develop sustainable source of Energy.
  6.  He has to bring the animals for the Yagna. Thus he has to be a practicing veterinarian to know and care for the various animals. And their role in society.- and so on.

Considering that the Yagnas happened to be often very large community based activities, it is reasonable to submit that to day an Adhwaryu, will be a highly trained and skilled General Manager CEO, Educator, Engineer, Veterinarian, a Materials Manager, an Environmentalist, a Multidiscipline well educated project Manager. In fact an Adhwaryu acts as the Prime Minister presiding over the activities and the planning of the YAGYA. Running of the Nation is also a Yagna. Indeed Adhwaryu has been translated as a Prime Minister in many writings.

 

Rig Vedic interpretations available to day, from Sayan/ MaxMuller to later day Swami Dayanand Saraswati, Shri Damodar Satawlekarji, Swami Satya Prakash Saraswati and Shri Aurobindo , give very deep poetical interpretations of  this Sukta. Wilson and Griffith also make significant addition to the vast scholarship.  However with the traditional concepts which see the role of an Adhwaryu as limited to only the Karmakand Yagna, the full significance of this Rigvedic Sukta remains at best, spiritually and poetically masked.

But the same RigVedic Sukta lays bare its entire context, when the full life sized concepts behind terms like Adhwaryu, Indra, Soma are given interpretations like Swami Dayanand and Yogi Aurobindo.

 

(This interpretation is based largely on the RigVed Bhashya of Swami Dayanand Saraswati)

RV2.14

इस सूक्त की विशेषता और महत्व.

Significance of this VED Sookt

(Subodh Kumar)

Shows most modern scientific civilized social concepts from Rig Ved

  1. 1.  This sookt  is addressed to Adhwaryu . He is one who adopts nonviolent-(Democratic) strategies for implementing all projects , but operates on war footing – Always highly charged in his actions.
  2. 2.  The Sookt  sets out to describe the duties of a King/governor of a nation. And sets down topics in order of priorities for governance/life style for a sustainable prosperous welfare state.
  3. 3.  It Starts with Global warming and Ozone layer protection.
  4. 4.  Proceeds to define roles of a good governance – Education, Social welfare rehabilitation after natural calamities,  Rain water Harvesting,  Food safety & security, IPM ( integrated Pest Management) dealing with hoarders and black marketers, Responsible media.
  5. 5.  Maharshi Dayanand’s incisively modern interpretations are very clearly evident here.  He just only falls short of by a hair breadth in making use of modern scientific terminology in Vedas.    

 

  1. ऋषि: =   गृत्समद (आङ्गिरस: शौनहोत्र: पश्चाद्) भार्गव: शौनक: , प्रथम में

भार्गव: शौनक: था , भार्गव: भृगु पुत्र होने से भार्गव कहलाया था अर्थात खूब तपस्वी था, और ‘शौनक:’ = ( शुन्‌ गतौ) खूब क्रिया शील था .  जो पश्चाद्‌  बना, गृत्समद: = ‘गृणाति इति गृत्स:’ ‘माद्यतीति मद:’=प्रभु की स्तुति करता है, सदैव प्रसन्न रहता है ।आंगिरस=अंगों की शक्ति से सम्पन्न है, । शौनहोत्र: = (शौनं सुखं जुहोति) लोक सुख के लिए अपने सुख की आहुति देता है । 

  1. देवता:- इन्द्र: = जन कल्याण हेतु कर्मठ सदैव विजयी उत्साहपूर्ण क्रियाशील देवत्वधारण किये  हुवा व्यक्तित्व   

छन्द- त्रिष्टुप्

            Rigveda 2-14 (STAFF FUNCTIONS)

1.First Priority

सर्वोच्च प्राथमिकता

उत्तम शिक्षा व्यवस्था

Creation of excellent education system to provide the society with self motivated ,creative talent for its all round welfare and progress.

( महर्षि दयानंद अन्वयार्थ आधारित ) O Managers (Adhvayavo)! Provide (Sinchata) for Entrepreneurship (Indraya) sufficient (Bharat) knowledge (Somam) and exhilarating (Maddham) resource- that motivates one in single minded pursuit like a blind person- (Andhah) from well cultivated -filled vessels- resources stores (Amatrabhi).

That (Asya=Indra=Entrepreneurship) is empowered (Veerah) and always (Sadam) having a temperament  of being desirous (Kami) of consumption (Peetim)

(of Soma=knowledge & Maddham anna= exhilarating resource).  by performing action -Yajna (Juhota) to this provider of  benefits (Vrashne) by the active persons. These -benefits- (Eshah)  he (Entrepreneur=Indra) desired (Vashti).

  1. समाज में सोम के विस्तार प्रसार के लिए उच्चतम शिक्षा प्राप्त कराने हेतु गुरुकुल,उत्तम शिक्षक गण और अनुसंधान की सुविधान की सुविधाएं  उपलब्ध कराओ.

अध्वर्यवो भरतेन्द्राय सोममामत्रेभि: सिञ्चतामद्यमन्ध: ।

कामी हि वीर: सदमस्य पीतिं जुहोत वृष्णे तदिदेष वष्टि ।। 2.14.1.

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे (अध्वर्यव: ) अपने को यज्ञ कर्म की चाहना करने वाले मनुष्यो ! तुम जो (एष: ) यह (कामी) कामना करने के स्वभाव वाला (वीर:) वीर ( वृष्णे) बल बढ़ाने के लिए (अस्य)  इस सोम रस के (पीतिम्‌) पान को (वष्टि) चाहता है, (तत्‌ इत्‌) उसे (सदम्‌) पाने योग्य सोम (हि) को निश्चय से तुम (जुहोत) ग्रहण करो (इन्द्राय) और परमैश्वर्य  के लिए (अमत्रेभि:) उत्तम पात्रों से (मद्यम्‌) हर्ष देने वाले  (अन्ध: ) अन्न को तथा (सोमम्‌) सोम रस को (सिञ्चत) सींचो और बल को (आ, भरत) पुष्ट करो ॥1॥

परमैश्वर्य, अन्न, सुख, साधनोंं, बल, पौरुष की कामना  करने के स्वभाव  की वृद्धि के लिए उत्तम शिक्षा देने और उत्तम शिक्षक गण तैयार करने की औरअनुसंधान की व्यवस्था करो ।

Adhvaryus should provide good appropriate Soma – knowledge and technology in good measure for the Indras for self  motivation of individuals to ensure   achievement of abundance and prosperity, by good  nutrition, health and peace for the land and  those living off it. Adhvaryus – Govt./Establishment should create knowledge institutions to develop Motivated , creative minds and mental attitudes by creating and developing knowledge  enabling institutions, schools, colleges for education , training of students and teachers.

द्वितीय प्राथमिकता

उत्तम जल संरक्षण नीति

  1. 2.   अध्वर्यवो यो अपो वव्रिवांसंवृत्रं जघानाशन्येव वृक्षम् ।

तस्मा एतं भरत तद्वशायँएष इन्द्रो अर्हति पीतिमस्य ।। 2.14.2

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) अपने को अहिंसा की इच्छा करने  वालो ! (य: ) जो सूर्य (वब्रिवांसं ) आवरणकरने वाले (वृत्रम्‌) मेघ को (अशन्येव) बिजुली के समान(वृक्षम्‌) वृक्षको (जघान) मारता है अर्थात दहशक्ति से भस्मकरदेता है और (आप: )  जलों को वर्षाता तथा जो (एष: )  यह (इन्द्र: )

ऐश्वर्यवान्‌जन (अस्य) सोमलतादि रस के (पीतिम्‌) पीने को (अर्हति) योग्य होता है इस कारण (तद्वशाय) उन उन पदार्थों को कामना करनेवाले के लिए  (यतम्‌) उक्त पदार्थ द्वय को धारण करो  अर्थात्‌ उन के गुणों को अपने मन में निश्चित करो ॥2॥

वर्षा के जल सब से उत्तम जल होता है. इस  के संग्रह और सदुपयोग की व्यवस्था द्वारा जैविक  कृषि की उत्तम व्यवस्था करो.

Harness those waters of rains, which are released by the actions of lightening, that strikes the trees and sets them on fire. Thus work for the creation of bounties of fertilized soil by rich biomass feeds and prosperity of vegetation, as the gifts provided by Indra.

(All the futuristic strategies are for conservation of our water resources. Rain water harvesting is the most significant item on not only Global level, but is of utmost importance for India, particularly, when it is realized that the total water requirements of entire India are just about 5% of the total rain fall in our coastal regions. And almost 100% of that rainfall just flows in to the sea.)

  1. तृतीय प्राथमिकता

पर्यावरण संरक्षण  वन सम्पदा का महत्व    

अध्वर्यवो यो दृभीकं जघान यो गा उदाजदप हि वलं व: ।

तस्मा एतमन्तरिक्षे न वातमिन्द्रं सोमैरोर्णतजूर्णवस्त्रै: ।। 2.14.3

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) यज्ञ संपादन करने  वाले  जनों ! (य: ) जो (दृभीकम्‌) भयङ्कर प्राणी को (जघान्‌) मारता है किस को कि (य: ) जो (गा: ) गौओं को (उदाजत्‌) विविध प्रकार से फैंके अर्थात  उठाय उठाय पटके और मारे और (बलम्‌) बल को (अप, व: ) अपवरण करें रोकें ( तस्मै) उस के लिए (हि) ही (एतम्‌) इस यज्ञ को (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वातम्‌) पवन के ( न) समान वा(इन्द्रम्‌) मेघों के धारण करने  वाले सूर्य को (वस्त्रै: ) वस्त्रों से (जू: ) बुड्ढे के(न) समान(सोमै: ) ओषधियों वा ऐश्वर्यों से (आ, उर्णुत्‌)  |  आच्छादित  करो अर्थात्‌ अपने यज्ञ धूम से सूर्य को  ढापो.

हमारी पृथ्वी पर एक पुराने वस्त्र  का आवरण है,( यह आवरण घने  बादलों जैसा होता है. इस मे छिद्र नहीं होने चाहियें , यह नीचे दिए चित्र से स्पष्ट हो जाएगा ) इस आवरण के द्वारा हि  पृथ्वी पर ओषधि वनस्पति  अन्न इत्यादि सम्भव हो पाए  हैं ।  परंतु इस आवरण  के छिद्रो के कारण अंतरिक्ष मे पवन और मेघों द्वारा ऐसे विनाशकारी बलशाली उत्पात होते  है  जो गौओं और सब नगरीय व्यवस्थाओं को  बार  बार  उठा उठा कर पटक देते हैं इस  आवरण के छिद्रों को यज्ञादि कार्यों से ढको. ( वेदो का स्पष्ट संकेत सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं की ओर है, जो पर्यावरण के संरक्षण पर ध्यान न देने के  कारण विश्वस्तर पर जलवायु का तपमान बढने  से उत्पन्न हो रहा है ।)

This phenomenon mentioned in Vedas was discovered by modern science only in 1985, as described below.

Joe Farman, ozone hole discoverer, dies at 82

Farman not only revealed the atmospheric leak above Antarctica in 1985, but also helped coax humanity into rallying against a global environmental threat.

Mon, May 20 2013 at 2:42 PM

A 3-D image of the ozone hole over Antarctica, produced with a mapping spectrometer.

Joe Farman, a British scientist who discovered manmade damage to Earth’s ozone layer in the 1980s, has died at age 82. On top of exposing the leak, Farman also helped set the stage for the 1987 Montreal Protocol, an ozone-saving treaty that showed humanity can right environmental wrongs without economic collapse, even on a global scale.

Farman studied natural sciences at England’s Corpus Christi College, then served in the British Army and worked for an aircraft company before he found his calling. He answered an ad in 1956 seeking scientists to work in Antarctica, and soon joined what’s now known asthe British Antarctic Survey. Then, after 30 years of dogged and often unappreciated research, he published one of the most important scientific papers of the 20th century.

The sky is failing

Scientists had already begun to grasp the complex nature of ozone — a pollutant at ground level but a life-saving shield in the atmosphere — and even knew it may be vulnerable to chlorofluorocarbons (CFCs), chemicals used in aerosol sprays and refrigeration systems. But with no solid evidence that CFCs were actually hurting the ozone layer, there seemed little urgency to rein in their widespread use around the world.

The ozone layer begins roughly 10 kilometers (6 miles) above the Earth’s surface.

Farman left Antarctica in 1959 to take a management role in England, but he continued to oversee the survey’s ozone research through the 1960s and ’70s. This work came under fire in the early ’80s amid budget cuts, though, and the New York Times reports Farman’s superiors mocked his insistence that decades of ozone data would be useful. But Prime Minister Margaret Thatcher eventually came to the British Antarctic Survey’s rescue, the Guardian points out, as the former chemist saw its scientific potential as well as its strategic importance in Britain’s struggle with Argentina over the Falkland Islands.

Then, in 1982, Farman’s career-defining breakthrough began. Using an outdated spectrometer to measure ozone levels, he initially thought his instrument must be broken. He was seeing a dramatic drop in Antarctic ozone, and since not even NASA satellites had detected this, he ordered new equipment. But the new one also “went haywire,” as he described it, and he began to realize he was on to something. Along with co-authors Brian Gardiner and Jonathan Shanklin, he published a groundbreaking study in 1985 that shocked the world and launched a new era of international eco-politics.

The 1985 study showed a 40 percent drop in ozone above Antarctica, creating a soft spot in the ozone layer — not literally a hole — that let in ultraviolet (UV) radiation from the sun. This not only embarrassed NASA and other scientists who had missed the leak, but also sparked a frenzy to minimize its effects on public health. According to calculations by the U.S. Environmental Protection Agency, the excess UV exposure could trigger 40 million cases of skin cancer and 800,000 cancer deaths in the U.S. alone.

Spectrometer images show the ozone hole grow during the 1980s and ’90s. Dark blue indicates the thinnest ozone, while light blue, green and yellow represent progressively thicker layers. (Images: NASA)

Ozone defense

Many environmental crises of the ’60s and ’70s were mostly local — like toxic waste dumping and wildlife declines — but the ozone hole represented a serious danger to life across the planet. And despite chemical industry protests that phasing out CFCs would cripple economic growth, the unprecedented rehab effort proved them wrong.

Leaders from around the world met in Montreal in September 1987, eventually producing a treaty to curtail CFCs called the Montreal Protocol on Substances that Deplete the Ozone Layer. Eventually ratified by all 197 members of the United Nations, the Montreal Protocol has undergone several revisions in the past 25 years but is still widely considered a model for environmental treaties of all kinds. Former U.N. Secretary General Kofi Annan has called it “perhaps the single most successful international agreement to date.”

The Montreal Protocol has also had pitfalls, though: CFCs were sometimes replaced with hydrofluorocarbons (HFCs), which later turned out to be heat-trapping greenhouse gases even more potent than carbon dioxide. But safer alternatives also emerged, and despite some missteps, the treaty is expected to help Earth’s ozone layer fully recover by 2080. That’s far from a quick fix, but according to the Guardian, “without the work of Farman the effects could have been catastrophic.”

The treaty also remains a beacon to world leaders and diplomats trying to strike a meaningful global pact on climate change. Carbon-emitting fossil fuels are much more deeply embedded in the economy than CFCs were, but the Montreal Protocol at least serves as a precedent demonstrating how humanity can tackle a broad environmental threat by banding together and following scientists’ advice.

An animation of projected ozone over North America if the Montreal Protocol had failed.

Although several scientists won a Nobel Prize for their work on CFCs, Farman never received that honor. He was granted many other scientific awards, though, including the U.K. Polar Medal, the Society of Chemical Industry’s environmental medal, the Appleton (formerly Chree) medal and prize, and membership in the United Nations Global 500 honor roll. He conducted research in Antarctica until his retirement in 1990, and remained active well into his later years, the Guardian reports, growing his own vegetables at home and biking to work until he suffered a stroke in February.

Farman died May 11 in Cambridge, England, according to a statement released by the British Antarctic Survey. He is survived by Paula, his wife of 42 years.

“Joe was an excellent physicist and his work changed the way that we view the natural world,” says Alan Rodger, interim director of the British Antarctic Survey, in a press release. “After making the discovery of the ozone hole he became an energetic ambassador for our planet. Our thoughts are with his wife, Paula.”

ओज़ोन आवरण के छिद्र को समझने के लिए  चित्र

Ozone cover representation  with   hole in it

Exercise control over natural calamities like the violent storms, which with immense forces, play havocs like demons tossing all cattle and life in to air and smashing on to the ground, which cause great upheavals by disrupting life and property.  These are brought about by the holes in the protective garment, which covers the earth in the space. These holes are like holes in a worn out old garment. Heal and repair the holes in the covering, by actions of rain making clouds and atmosphere helped by green vegetation and herbs by grace of Indra.

Quoted thankfully from “the secret life of GERMS” by Philip M. Tierno)

(According to modern science during the period of formation of Earth’s History, intense volcanic activity was producing oxygen by releasing it from Earth’s interior. In the primordial soup, ancient blue green algae lived by photosynthesis, and also produced Oxygen. Over the course of perhaps three  billion years, the Oxygen produced by algae and the Oxygen spewed by the volcanoes changed the Earth’s atmosphere , creating an Oxygen blanket that allowed higher life forms to evolve from germs. Oxygen in upper atmosphere came in contact with UV (Ultra Violet) Rays and electrical discharges. This converted Oxygen in upper atmosphere in to ozone that can more strongly absorb UV rays. In this way Earth’s Ozone layer was formed.  If land dwelling organisms had to face the full force of Sun’s UV rays, all life on Earth would have eventually destroyed. This Ozone layer in the upper atmosphere prevents this by acting as a protective shield.)1

Earth’s Atmosphere

The total global environment consists of four major realms: a gaseous atmosphere, liquid hydrosphere, solid lithosphere, and living biosphere.

From space, Earth’s atmosphere looks like a blue sphere  with gaseous envelopes ..  This fragile, nearly transparent envelope of gases supplies the air that we breathe each day. It also regulates the global temperature and filters out dangerous levels of solar radiation. In recent years, scientific research has shown that the chemical composition of the atmosphere is changing because of both natural and human induced causes. There is growing concern over the impact of human activities. Mankind may be increasing levels of heat absorbing gases, thereby contributing to global warming and destroying ozone, the fragile atmospheric ingredient that shields the planet from ultraviolet (UV) radiation.

Ozone and the Atmosphere

Earth is an extraordinary planet. Complex interactions between the land, oceans, and atmosphere created conditions that are favorable for life. One species, man, has managed to alter the environment on a global scale. In order to fully comprehend the impact of our actions, we must view the planet as a whole and understand the relationship between its basic components; land, water, and air.

This web site discusses the chemical composition and evolution of Earth’s atmosphere, focusing on the protective layer of ozone in the stratosphere. The destructive properties of troposphere ozone are also presented. Diagrams and animation sequences are used to visually depict the delicate structure of the ozone molecule and the chemical reactions involved in its formation and destruction. Ozone destroying pollutants were first identified in 1973.Since that time there has been a considerable amount of controversy surrounding the subject of ozone depletion. More than 20 years of ozone-related scientific studies, international meetings, and global industrial agreements are summarized in the last section of this site.

Historical Atmosphere

Earth is believed to have formed about 5 billion years ago. In the first 500 million years a dense atmosphere emerged from the vapor and gases that were expelled during degassing of the planet’s interior. These gases may have consisted of hydrogen (H2), water vapor, methane (CH4), and carbon oxides. Prior to 3.5 billion years ago the atmosphere probably consisted of carbon dioxide (CO2), carbon monoxide (CO), water (H2O), nitrogen (N2), and hydrogen.

The hydrosphere was formed 4 billion years ago from the condensation of water vapour, resulting in oceans of water in which sedimentation occurred.

The most important feature of the ancient environment was the absence of free oxygen. Evidence of such an anaerobic reducing atmosphere is hidden in early rock formations that contain many elements, such as iron and uranium, in their reduced states. Elements in this state are not found in the rocks of mid-Precambrian and younger ages, less than 3 billion years old

Formation of the Ozone Layer

One billion years ago, early aquatic organisms called blue-green algae began using energy from the Sun to split molecules of H2O and CO2 and recombine them into organic compounds and molecular oxygen (O2).This solar energy conversion process is known as photosynthesis. Some of the photo synthetically created oxygen combined with organic carbon to recreate CO2 molecules. The remaining oxygen accumulated in the atmosphere, touching off a massive ecological disaster with respect to early existing anaerobic organisms.As oxygen in the atmosphere increased, CO2 decreased.

High in the atmosphere, some oxygen (O2) molecules absorbed energy from the Sun’s ultraviolet (UV) rays and split to form single oxygen atoms. These with remaining oxygen (O2) to form ozone (O3) molecules, are very effective at absorbing UV rays. The thin layer of ozone that surrounds Earth acts as a shield, protecting the planet from irradiation by UV light.

The amount of ozone required to shield Earth from biologically lethal UV radiation, wavelengths from 200 to 300 nanometers (nm), is believed to have been in existence 600 million years ago. At this time, the oxygen level was approximately 10% of its present atmospheric concentration. Prior to this period, life was restricted to the ocean. The presence of ozone enabled organisms to develop and live on the land. Ozone played a significant role in the evolution of life on Earth, and allows life as we presently know it to exist.

Present Day Atmosphere

The atmosphere we breathe is a relatively stable mixture of several hundred types of gases from different origins. This gaseous envelope surrounds the planet and revolves with it. It has a mass of about 5.15 x 10E15 tons held to the planet by gravitational attraction. The proportions of gases, excluding water vapor, are nearly uniform up to approximately 80 kilometers (km) above Earth’s surface. The major components of this region, by volume, are oxygen (21%), nitrogen (78%), and argon (0.93%).Small amounts of other gases are also present. These remaining trace gases exist in such small quantities that they are measured in terms of a mixing ratio. This ratio is defined as the number of molecules of the trace gas divided by the total number of molecules present in the volume sampled. For example, O3, CO2, and chlorofluorocarbons (CFCs) are measured in parts per million by volume (ppmv), parts per billion by volume (ppbv) or parts per trillion by volume (pptv).

Atmospheric temperature and chemistry are believed to be controlled by the trace gases.There is increasing evidence that the percentages of environmentally significant trace gases are changing because of both natural and human factors. Examples of man-made gases are the chlorofluorocarbons CFC-11 and CFC-12 and halons. Carbon dioxide, nitrous oxide, and methane (CH4) are produced by the burning of fossil fuels, expelled from living and dead biomass, and released by the metabolic processes of microorganisms in the soil, wetlands, and oceans of our planet.

4. ओज़ोन आवरण के संरक्षण  में वन सम्पदा  और जीवन शैलि का मह्त्व

Veda is clearly referring to the green house gases causing the damage to Ozone    

अध्वर्यवो य उरणं जघान नव चख्वांसंनवतिं च बाहून् ।

यो अर्बुदमव नीचा बबाधे तमिन्द्र सोमस्य भृथेहिनोत ।। 2.14.4

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: )  सब के प्रिय चरणों  को करने वाले विद्वानों ! तुम (य: ) जो जन (उरुणम्‌) आच्छादन करने वाले (चख्वांसम्‌) मारने वाले के प्रति  मारने  वाले को ( जघान्‌) मारे और ( नव, नवितम्‌) न्यन्यानवे (बाहून्‌) बाहुओं के समान सहाय करने वालों को (च) भी मारे (य: ) जो (अर्बुदम्‌ ) दश क्रोड़ (नीचा) नीचों को (अव, बबाधे) बिलोता है (तम्‌) उस (इन्द्रम्‌) बिजुलीके समान सेनापति को (सोमस्य) ऐश्वर्य के (भृथे) धारण करने माइं (हिनोत्‌) प्रेरणा देओ॥4॥

इस आच्छादन को क्षति पहुंचाने वाले सीमित श्रेणियों के तत्वों पर नियंत्रण करो ,तथा इस आवरण की सुरक्षा करने वाले असंख्य वनस्पतियों और व्यवस्थित जीवनशैलि की आवश्यकता को युद्ध स्तर पर एक कुशल सेनापति की तरह कार्यान्वित करो  ( वनसम्पदा का संरक्षण और वृक्षारोपण का महत्व और सात्विक जीवन शैलि को अपना कर ही ऐसा होगा. ) पर्यावरण में व्यवस्था ठीक होने से वर्षा यथा समय होगी, आंधी तूफान तंग नहीं करेंगे.

Agents causing damage to Ozone layer (limited in No) .

ओज़ोन आवरण नष्ट करने वाले भिन्न भिन्न श्रेणी के कार्य.

Ozone layer protecting actions are in very large numbers, starting with saving forest cover, tree plantation and change in human life style to more simple living habits as shown in diagram here.

ओज़ोन आवरण की रक्षा करने वाले असंख्य स्वप्रेरित वनस्पति वृक्षारोपण से ले कर सादा जीवनशैलि कितने  असंख्य हैं । जैसा इस मानचित्र से दिखाया गया है.

This protective garment is like the fleece of a sheep. There are trillions of hands on the ground, which supports the actions to prevent damage to this garment (in the space) and to keep it in good repair like new. These trillions of hands-ting with promotion of  green cover on ground- to a change in human life style to simpler plain living habits , brings orderliness in environments  with  greenery and controlled atmospheric disturbances to disarm the attackers of the fleece like protective cover. Like a good leader of armies, motivate these ‘GREEN’ actions on the lands to bring prosperity to all.

(The scientific evidence clearly indicates that reduced green cover causes increased levels of carbon dioxide in our air are enhancing the global greenhouse effect and throwing the Earth’s energy equation out of balance. That means more energy for storms in all seasons, for more extreme weather, for more droughts and floods, for changing climate patterns. We’re heading into uncharted territory and we need to reverse course and bring CO2 back to 350 ppm or our children and grandchildren will scorn our selfish stupidity. It is long past time for us to take action.)

On this subject reference to such remedial actions is also given in Yajurveda3.45  as ;

पर्यावरण सुरक्षा पर यजुर्वेद 3.45  में भी निम्न उपदेश प्राप्त होता है.

 Yaju Veda 3-45 Environmental Repair

यद्ग्रामे यदर्ण्ये यत्सभायां यदिनन्द्रिये यदेनश्चकृमा वयमिदं तदवयजामहे स्वाहा।। यजु  345।।

Whatever wrong actions we have done in habitations, forests, and in communities, we want to rectify that wrong.

5. जमाखोरों काले धन के व्यापारियों ,भ्रष्ट  तत्वों को नष्ट कर के  दरिद्रता  दुर्भिक्ष से मुक्त समाज स्थापित करो

Take strong action against the corrupt, hoarders  & black marketers to eradicate poverty and prevent famines and starvation deaths.

अध्वर्यवो य: स्वश्नं जघान य: शुष्णमशुषं यो व्यंसम्।

य: पिप्रुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत ।। 2.14.5

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) अपने को यज्ञ कर्म की चाहना करने वाले वा )  सब के प्रिय चरणों  को करने वालो  ! तुम (य: )  जो जन सूर्य जैसे(स्वश्णम्‌) सुन्दर मेघ को वैसे शत्रु को (जघान्‌) मारता है वा (य: ) जो (शुष्णम्‌)  सूखे पदार्थ को (अशुषम्‌) गीला वा (य: ) जो (व्यंसम्‌) शत्रु को निर्भुज करता वा (य: ) जो (नमुचिम्‌) अधर्मात्मा (पिप्रुम्‌) प्रजापालक अर्थात्‌ राजाको वा (य: ) जो ( रुधिक्राम्‌) राज्य व्यवहारो को रोकने वलों को निरन्तर गिराता है (तस्मै) उस ( इन्द्राय) सूर्य के समान सेनापति के लिये (अन्धस: )अन्न (जुहोत्‌) देओ ॥5॥

पिप्रुम वे स्वार्थी जन जो केवल अपना ही पेट भरते हैं , और नमुचि – कर न देने वाला,दुर्भिक्ष कालिक मेघ के समान प्रजा के निमित्त कुछ भी सुख न देने वाला क्षमाके अयोग्य होते हैं ।  उन्हें किसी भी अवस्थामें (रुधिक्रा)  राज्य शासन दण्ड व्यवस्था द्वारा क्षमा नहीं करना चाहिए.

Oh men desirous of positive roles, deal like the sun, which hunts down even the beautiful clouds to shed the rains, which wet the earth to disarm the enemies such as  draught, by bringing wetness. With pipram पिप्रुम  the selfish ones’ who only fill their own belly, the namuchiनमुची  being  those who do not help in times of social distress such as famines should never be pardoned, by rudhikra रुधिक्रा the stern law enforcement  agency should deal sternly  to ensure equitable justice  food and nutrition for all.

6. आपदाओं के उपरान्त युद्धस्तरीय पुनर्वास योजना  

Rehabilitation of society on war footing

अध्वर्यवो य: शतं शम्बरस्य पुरो बिभेदाश्मनेव पूर्वी:।

यो वर्चिन: शतमिन्द्रो सहस्रमवावपद्  भरता सोममस्मै ।। 2.14.6

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे ( अध्वर्यव: ) युद्धरूप यज्ञ को सिद्ध करने वालो!  तुम लोगों में से (य: ) जो (शम्बर्स्य) जिस से स्वीकार किया जाता उस मेघ के (शतम्‌) सौ (पुर: ) पुरों को जैसे घोड़ों को (अश्मनैव: ) पत्थर से वैसे (विभेद) छिन्न भिन्न करता है (य: ) जो (इन्द्र: ) ऐश्वर्यवान्‌  ( वर्चिन्: ) प्रदीप्त अपने सर्व बल से दैदीप्यमान राजा के (शतम्‌) सौ और (सहस्रम्‌) हज़ार (पूर्वी: ) पहले हुइ प्रजाओं को (अपावपत्‌) नीचा करता है (अस्मै) इस सेनेश के लिए (सोमम्‌) ऐश्वर्यको (भरत) धारण करो ॥6॥

(सुदूर भूतकाल के समय से)  जो आवरण  उपयुक्त समय पर वर्षा इत्यादि की व्यवस्था प्रदान करता है उस आवरण की क्षति  से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं द्वारा आए संकट एवं विनाश  को तत्काल  युद्धस्तर पर निदान करने  की व्यवस्था स्थापित करें ।

Like the mobilization on war footing, when the clouds were destroyed to smithereens of rain drops by the forces of Indra to bring bounties of plenty to the people, get activated to restore the earlier prosperity, of abundance for all.

7. सातवीं प्राथमिकता. 7th Priority  

खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता

Food Safety & Security

7. Food Safety and Security (This is a very clear directive on what the modern agriculture science is involved with, Organic agriculture, better Seeds & IPM- Integrated pest management)  

अध्वर्यवो य: शतमा सहस्रं भूभ्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।

कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान् न्यावृणग् भरता सोममस्मै ।। 2.14.7

महर्षि दयानंद पदार्थ- हे (अध्वर्यव: ) युद्ध-यज्ञरूप सिद्धि के करने  वाले  जनो ! तुम (य: )  जो सूर्य के समान (भूम्या: )  भूमि के (उपस्थे ) ऊपर (  शतम्‌) सेकड़ों वा ( सहस्रम्‌) सहस्रों वीरों को (आ, अपवत्‌) बोता अर्थात गिरा देता दुष्टों को (जघन्वान्‌ ) मारता  वा (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होने वाले (आयो:) और प्राप्त हुए (कुत्सस्य) बाण आदि फैंकने वाले प्रजापति के (वीरान्‌) शत्रु बलों को व्याप्त होते वीरों को (नि,आवृणक्‌) निरंतर वर्जता है (अस्मै) इस के लिए (सोमम्‌) ऐश्वर्य को (भरत) पुष्टकरो ॥7॥

कृषक एक योद्धा के समान  उर्वरक भूमि में  जो अन्नोत्पादन  के लिए प्रयत्न   करता है, उसे सहस्रों खड़ पतवार, कीटाणु इत्यादि शत्रु नष्ट करने के प्रयास करते हैं. इन से निपटने के लिए उत्तम वीर स्थापित करो.

( इस विषय को जैविक खेती में अत्यंतमहत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है.गौ माता के गोबर मूत्र इत्यादि से भूमि मे कृषि उत्पादन और जैविक खड़ पतवार कीट नियंत्रण विषय एकीकृत ( समन्वित) कीट प्रबंधन के नाम से आधुनिक कृषि विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अनुसंधान का काम है )

Along with the innumerable crops being cultivated by the farmers for feeding the nation, the guests and dependents, innumerable enemies in the form of weeds, pests, etc also get in to the land. The Adhwaryus should work on war footing to provide sustainable herbal/organic remedies to help the growth of healthy agriculture crops to ensure health and prosperity to the people.

(Modern agriculture science calls it IPM –Integrated Pest Management.)

  1. अपव्यय निषेध एवं प्रतीकार

Stop wasteful expenditure of public money

 

अध्वर्यवो यन्नर: कामयाध्वे श्रुष्टी वहन्तो नशथातदिन्द्रे ।

गभस्तिपूतंभरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवोजुहोत ।।2.14.8

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) सब  का हित  चाहने वाले (नर: ) नायक मनुष्यो !  तुम (यत्‌) जिस राज्य या धन को (श्रुष्टी) शीघ्र (वहन्त: ) प्राप्त करते हुए (कामयाध्वे) उस की कामना करो ( नशथ)  वा छिपाओ (तत्‌) उस (गभस्तिपूतम्‌) किरणों वा बाहुओं से पवित्र करे हुए  को (इन्द्रे) सभापति के निमित्त (भरत) धारण करो । हे ( यज्यव: ) सङ्ग करनेवाले जनों ! तुम   (श्रुताय)जिस का प्रशंसित श्रुति विषय है उस (इन्द्राय)सभापति के लिये(सोमम्‌) ओषधियों के रस को वा ऐश्वर्य को (जुहोत्‌) ग्रहण करो ॥8॥

सामाजिक संसाधनों एवं धन का अनावश्यक, अनुपयोगी, अनुत्तरदायी, अनुत्पादक उपयोग रोकने एवं उन्हें समाजोपयोगी पशंसा योग्य उपयोग के लिये बचाने की व्यवस्था करें ।

Stop wasteful expenditure of public money and save it for use in praise worthy social welfare projects.

  1. राज्य के हित में किन विषयों को गोपनीय रखना है, इस पर अधिकारी वर्ग संयम स्वनियंत्रण और मर्यादा का पालन करना चाहिए

Official Secrets Action /Importance

राज्याधिकारी वर्ग को राज्य हित में गोपनीयता का पालन करना चाहिए

For the leaders and persons holding senior policy making responsibilities, when some strategies for public good are being contemplated, the deliberations should be held confidential, till they are totally worked out. It is only for the well thought out plans to be made available for general public to debate and consider sustainability.

9. प्रदूषण नियंत्रण

Pollution Control

(Waste water treatment strategy suggested by Yajurved 17.6 by root zone treatment, and energy crops similar to what NASA scientists have proposed )

अध्वर्यव: कत्तर्ना  श्रुष्टिमस्मै वनेनिपूतंवनउन्नयध्वम् ।

जुषाणो हस्त्यमभि वावशे व इन्द्राय सोमं मदिरंजुहोत ।। 2.14.9

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) पुरुषार्थी जनों ! तुम (अस्मै) इस सभापति के लिये (वने) किरणों में (श्रुष्टिम्‌) शीघ्र (निपूतम्‌) निर न्तर पवित्र और दुर्गंध वा प्रमादपन से रहित पदार्थ (कर्त्तन) करो (वने) और किरणों में (उन्नयध्वम्‌) उत्कर्ष देओ जो (हस्त्यम्‌) हस्तों में उत्तम हुए पदार्थ को (जुषाण: ) प्रीति करता वा सेवन करता हुआ (मदिरम्‌) आनन्द देने वाली (सोमम्‌) सोमलतादिरस को ( अभि,वावशे) प्रत्यक्ष चाहता (तस्मै) उस सभापति के लिए और (व: ) तुम लोगोंको (इ न्द्राय) ऐश्वर्यवान जन के लिए उक्त पदार्थ को (जुहोत्‌) देओ.॥9॥

वैज्ञानिक विद्वतजन दुर्गंधित प्रदूषित जलों को सूर्य की किरणों द्वारा, लताओं इत्यादि के द्वारा दुर्गंध रहित और प्रदूषणमुक्त करें ।

It is for the technically knowledgeable community and the establishment to decide and implement, the handling of sewage, pollution and foul smell creating situations, by using solar photo remediation, natural vegetative filtration and the winning of the desirable components out of the system by the strategy of using wetlands and lagoons, for making the waste disposal a pleasant, acceptable and sustainable activity.

इस विषय पर यजुर्वेद 17.6 में निम्न  विस्तृत  उपदेश मिलता है. जो इस विषय को विस्तार पूर्वक  बताता है.

On this subject very detailed directive is given in  Yajurved  and  is  placed below .

“उपज्मन्नुप वेतसेऽवतर नदीष्वा । अग्ने पित्तमपामसि मण्डूकि

ताभिरागहि सेमं नो यज्ञं पावकावर्णं शिवं कृधि।। Yajurved 17।6।।

अग्ने पित्तं आपसि—— pitta and agni i.e. fever in water is

polluted water

मण्डूकि ताभिरागहि—–marine life like frogs & fish family,

get at that

उपज्मन्नुप  वेतसेऽवतर नदीष्वा —-growing plants of cane reed

family which are secondary crops ( crops not fit for direct human

consumption, but use as biomass and if fit cattle fodder etc.) in the

beds of streams of such water .

सा इमं अस्माभि यज्ञं पावकवर्णं शिव: भव —–may provide us

with means to purify the polluted water for our welfare.

Modern Science researches initiated by NASA in USA finally developed the most environments friendly process to treat pollutes waters called grey waters by process almost identical to what this Ved Mantra has prescribed.

The grey water is fist led in to wet lands with plenty of marine life to digest the organic pollutants. Next this water is led in to lagoons in which reed family of plants purify this water by photo remediation, subsequently this water is led through lagoons with ‘energy crops’. These are special plant species that harvest specific variety of heavy metal pollutants like ‘Lead’, ‘Cadmium’ , mercury and Magnesium  etc.

This happens to be the most recent modern strategy to treat

sewage and polluted waters The Polluted water is run in to ponds

with frogs, fish like marine life, and then this marine life treated

water is run in to streams. On the beds of these streams plants of cane

& reed family are grown. The final run off water is clean water.

This technology has been known as ‘root zone treatment’ and

was first promoted by NASA scientists, and is described in his book

“Growing Clean Waters” by the NASA scientist Dr Wolverton.

Modern science is also growing special plants in polluted waters, for harvesting to extract specific minerals 

  1. गो दुग्ध खाद्यान्न की पौष्टिकता

Probiotics and Prebiotics. 

अध्वर्यव: पयसोधर्यथा गो: सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम् ।

वेदाहमस्य निभृतं म एतद् दित्सन्तंभूयोयजतश्चिकेत ।। 2.14.10

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) बड़ी बड़ी ओषधियों को सिद्ध करने वाले जनो ! तुम (यथा) जैसे (गो: ) गौ के (पयसा) दूध से (ऊध: ) ऐन बरा होता है वैसे (सोमेभि: ) खाई हुइ सोमादि ओषधियों के साथ (ईम्‌) जलको पी के (पृणत) तृप्त होवो जैसे (भोजम्‌) भोजन करनेवाले (इ न्द्रम्‌) ऐश्वर्यवानको (अहम्‌) मैं (व्द) जानूं (अस्य) इस की (निभृतम्‌) निश्चित पुष्टिको  जानूं वैसे इस विषय को (भूय:: )  बार  बार  जो (चिकेत) जाने उस को तृप्त करो ॥10॥

वनस्पतियों ,ओषधियों और गो दुग्ध जल के पौष्टिक तत्वो को अनुसंधान द्वारा अधिक  गुणों से  परिपूर्ण करो. इन विषयों पर अनुसंधान  अविरल गति से चलता रहे ।

It is a subject of continuous study to learn from the processes taking place in a cow and her udders, how while feeding on herbal greens and water, she provides the immensely medicinally, nutritionally beneficial milk for the humanity.

 11. पारदर्शिता से धनोपार्जन और जीवन शैलि को महत्व दो

Clear role of society and media for the development of transparency and proper mental attitudes in society is stressed in this mantra.

 अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वोय: पार्थिवस्यक्षम्यस्यराजा ।

तमूर्दरंन पृणता यवेनेन्द्रं सोमेभिस्तदपो वो अस्तु ।। 2.14.11

महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: )राजसम्बन्धी विद्वानजनों ! (य: ) जो (दिव्यस्य ) प्रकाश में उत्पन्न  हुए  (वस्व: ) धन को वा (य: ) जो (पार्थिवस्य) पृथिवी मे विदित (क्षम्यस्य) सहनशीलता में उत्तम उस के बीच (व: ) तुम्हारे लिए  ( राजा)  राजा  (अस्तु) हो. (तम्‌) उस  (इन्द्रम्‌ ) ऐश्वर्यवान को (यवेन्) यव अन्न से जैसे(ऊर्दरम्‌) मटका को वा डिहरा को (न) वैसे) (सोमेभि: ) सोमादि ओषधियों से पृणत) पूरो परि पूर्ण  करो (तत्‌) उस (अप: ) कर्म को प्राप्त हू ॥11॥

प्रकृति से कृषि से जैविक अन्न से,ओषदि युक्त वनस्पतियों पारदर्शिता और सहनशीलता की शिक्षा का उपदेश ग्रहण करो और सब से बिना स्वार्थ के बांटो ।

It is the responsibility of the establishment to allow the wealth created in the nation by transparently open like in broad day light, methods of learning, such as from nature’s resources like agriculture.  Promote in the society the mental attitudes, for acceptance of only this mode of honest livelihood.

12. इस प्रकार एक सम्पन्न वैभव शाली राष्ट्र निर्माण करो

Immense bounties of nature always flow on us for welfare health and wealth of all, by the continuous pursuits of knowledge based transparent activities by our well-meaning gifted people.

अस्मभ्यं तद् वसो दानाय राध: समर्थयस्व बहु ते वसव्यम् ।

इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून् बृहद्वदेम विदथे सुवीरा: ।। 2.14.12

हे (वसो) धन देने वाले (इन्द्र)  परमैश्वर्ययुक्त ! (सुवीर:)  सु न्दर वीरों  वाले हम लोग जो (ते) तुम्हारा (बहु) बहुत ( चित्रम्‌) अद्‌भुत (वसव्यम्‌) पृथिवी आदि वसुओंसेसिद्ध हुए ( बृहत्‌ ) बहुत (राध: ) समृद्धि करने वाले धन को (श्रवस्या: ) अन्नों के लिए हित करने वाली पृथिवीके  बीच (अनु द्यून्‌) प्रति दिन (विदथे ) विज्ञान रूपी संग्राम यज्ञ में (वदेम) कहें  उस को हमारे लिए देने को आप (समर्थयस्य ) समर्थ करो ॥12॥

इस प्रकार एक अद्‌भुत सम्पन्न वैभव शाली राष्ट्र निर्माण करो ।

In this manner, create a prosperous welfare nation.

 ( It is for paucity of space that the detailed method and reasoning to arrive at the above Vedic interpretations have not been provided here.)

 

 

CAN QURAN BE A WORD OF GOD?

quran word of god

Author – Aryavir

The Scholars of Islam claim Quran to be a word of GOD (Allah) and they bring forward some verses from Quran to support their claims. In this Short article, we will analyze one such claim and will prove that Quran is not a word of God in just three simple steps. The English translation of Quranic verses has been taken from reliable and authentic Islamic sources like www.quran.com and anybody who feels that the English translation of Quran is not correct  should actually question these Islamic sources from where the translation has been taken.

 

STEP NO 1:

 

It is written in Quran Chapter 4 – Surat An-Nisā’ (The Women) verse 82 which says –

 

Then do they not reflect upon the Qur’an? If it had been from [any] other than Allah , they would have found within it much contradiction.

 

So here in this verse there is a very strong claim given by the Author of Quran that if it had been from anybody other than God (Allah) then we would have found  many contradictory statements in Quran and no Muslim can refuse this statement in fact they very proudly mention this verse of Quran and challenge Non Muslims to prove one single contradiction in Quran. So if we find a single contradiction in Quran then it cannot be called as a word of God.

 

STEP NO 2:

 

Now let us have at look on some other verse of Quran-

 

Chapter 6(Surah Al-anam) verse 114 says-

 

[Say], “Then is it other than Allah I should seek as judge while it is He who has revealed to you the Book explained in detail?” And those to whom We [previously] gave the Scripture know that it is sent down from your Lord in truth, so never be among the doubters.

 

Chapter 68 (Surah Al Qalam) verse 37 –

 

Or do you have a scripture (other than Quran) in which you learn

 

Chapter 77 ( Surah Al-Mursalat ) verse 50 –

 

Then in what statement after the Qur’an will they believe?

 

 

So as per these verse Quran is a book which has explained things in detail so neither you should doubt the authenticity of Quran and nor you should follow any other book other than Quran because according to these verses Quran is a complete book and the best discourse and no Muslim can disagree with this statement.

 

STEP NO 3 –

 

Now in the first two steps we have studied that Quran claims itself to be a book from God and states that there are no contradictions and it is book which is itself complete and has been explained in detail now we will analyze a four well known practices of Islam and we will see whether they are explained in detail or not and whether they contradict the verse 114 of chapter 6.  Here are the four well known practices in the light of Quran-

 

a). FIVE TIME NAMAZ (PRAYER ) –

 

Salat (prayer) is one of the most important pillars of Islam and it is compulsory for a muslim to pray five times ( Namely Namaz fajr, Namaz zuhr, Namaz Asr, Namaz Maghrib, Namaz Isha ) in a day but surprisingly in Quran the holy book of Muslims which is book which has explained things in detail (As per Q 6:114 )  does not even mentions the number of times need to pray in a day there is not even a single verse in Quran which says that a muslim is suppose to pray 5 times a day and even more surprisingly even the names of five prayers are not mentioned in Quran, By name only Three Namaz are mentioned in Quran

 

1-      Salat Al-Fajr (Dawn Prayer)24:58

2-       Salat Al-Isha (Night Prayer)24:58

3-       Al-Salat Al-Wusta (The Middle Prayer) 2:238.

 

Chapter 2 verse238  mentions the middle prayer and also says to perform the obligatory prayers but does not mentions how many times in a day you need to perform the obligatory prayers.

So The five times of Namaz is not mentioned in Quran a book which is claimed to be explained in detail and claims no contradictions in it and does not even clearly mentions the minimum number of times one needs to perform Prayer in a day which is indeed one amongst the basic pillars of Islam. It seems like the Author of Quran got so busy in expressing his hate and intolerance for Non Muslims that he forgot to mention the minimum number of times a muslim needs to pray in a day and then the Fake story of flying donkey (Al-Burq) was created to justify the concept of Five time Namaz in a day.

 

b). Celebrating Eid on the end of Ramadan 

 

Unknown to many Muslims, the term ‘Eid’ has never been used by the Quran to mark the end of Ramadan or to celebrate the conclusion of the fasting period. For example, the requirements to fast in the month of Ramadan, to pay ‘zakat’ and to establish ‘salah’ are not learnt by ‘prophetic sunna’ or tradition. These are clear directives instituted by the Quran as are many other prescriptive laws and edicts. There is absolutely no ‘religious’ prescription to celebrate ‘Eid’ in the Quran

 

The term ‘Eid’ has only been used once in the entire Quran and possibly in the context of the Eucharist which is the Christian ceremony which commemorates the Biblical Last Supper of Prophet Jesus. According to the New Testament, the festival is celebrated by Prophet Jesus’s followers as per his instructions to remember him.

 

According to the Quran, Prophet Jesus in response to an initial request made by his disciples (5:112), prayed to Almighty God that He send from heaven a table spread (with food) as a festival (Eid). This festival would constitute a sign from God from the ‘first to the last of them’

 

In Chapter 5 verse 114 “Said Jesus the son of Mary: “O God our Lord! Send us from heaven a table spread, that there may be for us  a festival (Arabic: Eid(an)) for the first and the last of us and a sign from You; and provide for our sustenance, for You are the best Sustainer (of our needs).””

 

But  no where in Quran (a book which is claimed to be explained in detail and claims no contradictions in it) ‘Eid’ has been used to mark the end of Ramadan or to celebrate the conclusion of the fasting period.

 

 

c). PROCEDURE FOR BURIAL OF DEAD BODIES 

 

Now Burial of dead bodies is a very important concept in Islam Muslims believe that a person whose body has not been buried cannot enter heaven and Burial of the Dead in Islam as it is practiced today, deploys a rigid ritualized process which is performed in the name of ‘religion’. Depending on which school of thought one follows, the rituals can vary.

 

What is interesting to note is the fact that preparing the body in a specified manner for burial is not mentioned anywhere in the Quran . For example, the Quran states when  ‘ghusl’ (bathing) or ‘wudu’ (ablution) is required in chapter 5: verse 6 but this verse mentions no ghusl and wudu for the Dead.

 

There is complete silence on the matter regarding burial preparation and it is a matter left to society to prepare and bury the body in what is deems appropriate. There is no codified Quranic position with regards this. There is no right or wrong way to bury the dead, other than with respect and a matter to be performed with dignity.

 

d).  Circumcision 

 

Many Muslims never question whether this ritual has any basis in scripture (i.e. the Quran).  Instead, they blindly follow the traditions of their forefathers without rational thought, evidence or analysis subjecting their new born children to a part mutilation of their genitalia. The Quran on the other hand makes no mention of circumcision.

 

Instead, there are verses that indicate that God has already created the human shape in a perfected form (requiring no changes such as the removal of a male’s foreskin )

 

Chapter 95. verse 4

 

Transliteration

 

Laqad khalaqna al-insana fee ahsanitaqweem

 

“We have indeed created mankind in the best of stature (moulds ) (Arabic: taqweem)

 

The above verses beg the following question. Why then is the male incomplete and requires his foreskin to be removed if our Lord has revealed no decree for it nor hinted at it from His words which He has revealed to us?

 

In fact, the only source that  can be cited by Muslim is the ‘Sunna’, a practice carried forward from Abraham. But the question still remains. Where is the proof that this indeed was a practice instituted for humanity (men) when clearly God instructed Prophet Muhammad  to follow the commandments and warn by way of the Quran only (6:19; 50:45)?

 

At no place in the Quran does it mention that Abraham practiced circumcision and if they bring proofs from any other book than it proves that Quran cannot be called a book which is explained in detail.

 

In connection with the above, the desperation to prove this practice as a religious requirement of Islam is all too evident in Muslim thought when the Bible (which is claimed by Muslims to be a corrupted book) is used to invoke proof. It is clear that many Christians themselves do not see circumcision as a fundamental requirement of their faith and worship towards God and they posit their arguments from scripture. Jewish followers do much the same to support their particular stance for the commandment of circumcision.

 

The Quran on the other hand makes no mention of circumcision.

 

CONCLUSION –

 

Quran which as per chapter 4 verse 82 claims to be a book from Allah because by claiming itself to be free from contradictions and in another verse Quran says that it is book explained in detail (as per verse 114 of chapter 6) and Muslims require no other book then Quran (as per verse 37 of chapter 68 and verse 50 of chapter 77) as Quran in itself is a complete book for Muslims.

 

Now in step three we have analyzed that the basic and most well known practices of Islam like

 

1 Five times Namaz daily

2Celebrating Eid on the end of Ramadan

3 Procedure for Burial of dead bodies

4 Circumcision of male gentiles

 

Is not even mentioned in Quran then how can we claim this book to be a book explained in detail ? Is this not a contradiction to verse 114 of chapter 6 ? Is this not a contradiction?

 

Muslims themselves knew that Quran is an incomplete book and to justify there practices they compiled the books of Hadees, We today see that Hadees themselves are books full of contradictions Sunni Muslim reject Shia Hadees and Shia Muslim reject Sunni Hadees and the Aihl-e-Quran (Quran Aloners) reject all the Hadees. In any of the above case whether we include Hadees or not Quran itself remains an incomplete book and no justification and mention for many of the current day practices of Islam are found in Quran.

 

So the above three step analysis clearly proves that Quran is not a word of God infact it is a man made book filled with errors and contradictions.

 

[Note – To keep the length of this article short, I have briefly discussed only four well known practices of Islam which are not mentioned in Quran there are some other things also which are not mentioned in Quran and some more contradictions in Quran which will be discussed in the next part of this series CAN QURAN BE A WORD OF GOD?]

 

The Purpose of writing this article is not o hurt anybodies religious beliefs but to accept what is truth and reject what is False.

 

ॐ असतो मा सद्गमय । Aum Asto Ma Sad Gamya

( O supreme Lord, Lead me from unreal to real )

तमसो मा ज्योतिर्गमय । Tamso Ma Jyotir Gamya

( Lead me From darkness of ignorance to the light of knowledge )

मृत्योर्मा अमृतं गमय । Mrityur Ma Amritam Gamya

(Lead me from fear of death to the knowledge of Immortality)

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  Aum Shanti Shanti Shanti

(O lord, Let there be Peace, peace and peace )

 

In case of any query, suggestion or feedback feel free to write me at my email id – defenderoftruth1@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

वेदों में गुण, कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था

karma

वेदों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था:-

लेखक – विपुल प्रकाश 

अक्सर लोगो में एक भ्रान्ति देखने को मिलती है कि वेदों  में जन्माधारित वर्ण व्यवस्था है। और साथ साथ लोग ये भी कह्ते हैं कि आर्य जाति के लोगों ने शुद्र जो कि भारत के मूल निवासी थे उनको अपना मातहत बनाया और वेदाध्ययन से वञ्चित रखा । सर्वप्रथम तो हम यह विचार करे कि वेदों में आर्य शब्द गुणसूचक है अथवा जातिसूचक।

कृणवन्तो विश्वमार्यम्

अर्थात् “सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाना है” ऐसा वेदों में लिखा हुआ है। अब सवाल यह उठता है कि अगर आर्य कोई जाति विशेष है जिस प्रकार अफ़्रीकन,अमेरिकन इत्यादि,फ़िर तो इस कथन का कहना कभी सार्थक नही हो सकता है। कारण यह कि अफ़्रीकन नस्ल का व्यक्ति मृत्युपर्यन्त भी अमेरिकन नस्ल का नही बन सकता है। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य कोई जातिसूचक शब्द नही अपितु एक गुणसूचक शब्द है।

अब सवाल उठता है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र में से आर्य कौन और अनार्य कौन है ?

तो इसका उत्तर है कि वेदो में कर्मों के आधार पर  मनुष्यों का विभाजन आर्य और दस्यु के रूप में किया गया है और आर्यों (कर्म से श्रेष्ठ) के बीच गुणों के आधार पर आर्य और शूद्र के रूप में :-उत शूद्रे उतार्ये।। (अथर्व. 19.62.1)।

इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य आर्य (गुणों के आधार पर श्रेष्ठ ) हैं और शूद्र अनार्य है। अब चूकि वेदों मे कृणवन्तो विश्वमार्यम् की बात लिखी हुई है तो इससे ये स्पष्ट होता है कि शूद्रों को भी आर्य बनाया जाना सम्भव है क्योकि आर्य बनाना तो अनार्य के लिए ही सार्थक है भला जो पहले से ही आर्य है उसे फ़िर से दोबारा आर्य बनाने का क्या अर्थ रह जाता है?अतः वेद स्पष्ट रूप से ये आदेश देते है कि अगर कोइ शूद्र भी उत्तम गुण कर्मो वाला हो तो वह आर्य अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य बन सकता है।

और आर्य गुण कर्म के आधार पे ही होना सम्भव है इसिलिये कोई आर्य कुल( ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य) में पैदा हुआ व्यक्ति भी गुण कर्म से श्रेष्ठ  न होने पर अनार्य अर्थात शूद्र हो जाएगा ऐसा वेदों का आदेश है। अब अगर शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र तो फ़िर क्षत्रिय व वैश्य भी इसी प्रकार से वर्ण परिवर्तन को प्राप्त हो सकते हैं । अगर दूसरे शब्दों में बोला जाये तो किसी भी वर्ण का व्यक्ति अन्य तीनो वर्णो को प्राप्त कर सकता है। और तो और अगर  दस्यु   भी उत्तम कार्य करने लगे तो आर्य बन जाएगा।

आनन्द स्त्रोत बह रहा – प्रकाश्चन्द”कविरत्न”

saint_light

आनन्द  स्रोत  बह   रहा   पर  तू   उदास   है ।

अचरज यह जल में रह के भी मछली को प्यास है ॥

फ़ूलों   में   ज्यों  सुवास , ईख  में  मिठास  है ,

भगवान का त्यों विश्व के कण  – कण में वास है ॥ आनन्द………

 

टुक  ज्ञान   चक्षु  खोल  के तू, देख  तो  सही  ,

जिसको  तू   ढूंडता   है  सदा  तेरे   पास   है ॥ आनन्द ……….

कुछ  तो समय निकाल  आत्म शुद्धि  के  लिए  ,

नर  जन्म  का उद्देश्य  ना केवल  विलास  है   ॥ आनन्द …….

 

आनन्द मोक्ष का न पा सकेगा जब तलक ,

तू जब तलक “प्रकाश” इन्द्रियों का दास है ॥

स्वामी भास्करानंद सरस्वती

123

स्वामी भास्करानन्द सरस्वती

डा. अशोक आर्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना के लगभग दो वर्ष पश्चात जन्म लेने वाले स्वामी भगवानानन्द सरस्वती के जीवन पर महर्षि के विचारो तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव आवश्यक था । आप संस्कृत के उद्भट विद्वान थे । संस्कृत  का विद्वान होने के साथ ही साथ आप में उच्च कोटि की काव्य प्रतिभा भी थी ।
आप का जन्म जयपुर राज्यांतर्गत गांव भगवाना में सन १८७७ इस्वी को हुआ । आप का नाम भीमसेन रखा गया । अल्पायु में ही अर्थात जब आप मात्र आठ वर्ष के ही थे , आप के पिता जी का देहान्त हो गया । उन दिनों अल्पायु बालक को भारी कटिनाईयों का सामना करना पडा । किसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा पाने में सफ़ल हुए तथा फ़िर जब आप सोलह वर्ष की आयु में पहुंचे तो पारिवारिक परम्परा के अनुसार संस्क्रत का ज्ञान  आवश्यक था , जिसे ग्रहण करने के लिए काशी चले गये ।
काशी उन दिनों धर्मं  का ज्ञान  प्राप्त करने का सर्वोत्तम स्थान था । उन दिनों यहां पर पं कृपा राम जी , जो बाद में स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती के नाम से विख्यात आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वान हुए , ने एक संस्कृत  पाठशाला  स्थापित कर रखी थी । आपने इस पाठ्शाला में ही प्रवेश लेकर संस्कृत  का ज्ञान  अर्जित करना आरम्भ किया ।

इस विद्यालय में उन दिनों एक अन्य संस्कृत  के ख्याति प्राप्त विद्वान पण्डित काशी नाथ शास्त्री जी भी शिक्षा  देने के उद्देश्य से अध्यापन कार्य कर रहे थे । एसे महान विद्वानों का सानिध्य व मार्ग दर्शन भी आप को मिला तथा इन के श्री चरणों में बैट कर आपने सिद्धान्त कोमदी तथा अष्टाध्यायी जैसे संस्कृत  के आधार ग्रन्थों का अध्ययन किया । तत्पश्चात आपने बनारस संस्क्रत कालेज में प्रवेश लिया तथा महामहोपाध्याय पं भगवानाचार्य जी से आप ने संस्कृत  का अच्छा ज्ञान  अर्जित किया । इस कालेज में आप ने लगभग सात वर्ष तक निरन्तर शिक्षा  प्राप्त की तथा खूब मेहनत से आपने संस्कृत  व्याकरण , संस्क्रत साहित्य तथा दर्शन का अच्छा ज्ञान  अर्जित कर लिया ।

स्वामी दर्शनानन्द जैसे गुरु हों और आर्य समाज का प्रभाव न हो , एसा तो सम्भव ही न था । अत: आप पर प्रतिदिन आर्य समाज की छाप गहरी ही होती चली गई । काशी में इन दिनों एक संस्कृत  विद्यालय था , जिसे आर्य संस्कृत  विद्यालय भी कहा जा सकता है । इस की स्थापना आर्य समाज दिल्ली ने की थी । यहां आप की नियुक्ति संस्कृत  अध्यापक के रूप में हुई । आप ने यहां रहते हुए अत्यधिक लगन व मेहनत से कार्य करते हुए लगभग देड वर्ष तक बच्चों को संस्कृत  का शिक्षण  दिया तथा इस के पश्चात आपने अजमेर में आकर वैदिक यन्त्रालय को अपनी सेवाएं दीं । इस यन्त्रालय की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने की थी तथा यहां से आर्य समाज का साहित्य प्रकाशित होता था तथा आज भी हो रह है । आपने यहां संशोधक के पद पर रहते हुए प्रकाशित हो रही सामग्री का संशोधन आरम्भ किया , जिसे आज की भाषा में प्रूफ़ रीडिंग भी कहते हैं ।
जिन दिनों आप की नियुक्ति अजमेर के वैदिक यन्त्रालय में हुई , उन दिनों यहां चारों वेद की संहिताओं का मूल रूप में प्रकाशन का कार्य चल रहा था । वेद प्रकाशन का यह कार्य आप ही की देख रेख में हुआ तथा इन का संशोधन का सब कार्य आप ही ने किया । अब आप ने सिकन्दराबाद की और प्रस्थान किया । यहां के गुरुकुल में आपकी नियुक्ति हुई तथा यहां पर रहते हुए अनेक वर्ष तक आपने अध्यापन का कार्य किया । यहां से आपने जिला शाहजहां पुर के तिलहर में आये तथा कुछ समय यहां कार्य करने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद  सरस्वती ने आप को आग्रह किया कि आप अपनी सेवाएं गुरुकुल कांगडी को दें । इसे आपने शिरोधार्य किया तथा हरिद्वार आकर गुरुकुल कांगडी के कार्यों में हाथ बंटाने लगे । इन दिनों गुरुकुल कांगडी में अनेक उच्चकोटि के विद्वान कार्यरत थे , जिनमें पमुख रुप से पं. नरदेव शास्त्री , पं गंगादत जी शास्त्री , पं पदमसिंह शर्मा के अतिरिक्त उस समय के गुरुकुल के आचार्य व मुख्याधिष्टता प्रो. रामदेव थे । इन से उत्पन्न विवाद के कारण आप के ह्रदय को भारी टेस पहुंची तथा आपने इसे त्याग कर गुरुकुल ज्वालापुर का दामन थाम लिया ।

पण्डित जी ने इस महाविद्यालय में रहते हुए सन १९०८ से लेकर सन १९२५ तक मुख्याध्यापक स्वरुप कार्य किया तथा इस महाविद्यालय की उन्नति में अपना योग देते रहे । यह अध्यापन व्यवसाय के रुप में आप का अन्तिम कार्य रहा तथा १९२५ में आपने इस व्यवसाय को त्याग दिया । आप के सुपुत्र पं. हरिदत शास्त्री भी आप ही की भान्ति संस्कृत  के अच्छे विद्वान थे ।
महाविद्यालय को छोड आपने संन्यास की दीक्षा  ली तथा स्वामी भास्करानन्द सरस्वती आगरा वाले के नाम से समाज सेवा के कार्यों में जुट गए । आपने आर्य समाज तहा संस्कृत  कोश को अपने लेखन कार्य से भारी बल व साहित्य दिया । आप की पुस्तकों में कुछ इस प्रकार रहीं : पण्डित आत्माराम अम्रतसरी के साथ मिल कर संस्कार चन्द्रिका , आर्य सूक्ति सुधा , काव्य लतिका , संस्क्रतांकुर, योग दर्शन, व्यास भाष्य, भोजव्रति का भाषानुवद, सर्व दर्शन संग्रह टीका आदि ।
आपने आर्य समाज के लिए खूब कार्य किया , व्याख्यान दिये तथा काव्य की भी रचना की । इस प्रकार आर्य समाज की विभिन्न प्रकार से सेवा करते हुए ९ जुलई १९२८ इस्वी को सोमवार के दिन आप ने इस नश्वर चोले को छोड दिया ।

डा. अशोक आर्य

 

मुंशी केवल कृष्ण

123      

मुन्शी केवल  कृष्ण 

डा अशोक आर्य

आर्य समज के आरम्भिक विद्वनों को आर्य समज के सिधान्तों तथा ऋषि  दयानन्द  जी के विचारों पर पूरी आस्था थी । इस का यह तात्पर्य नहीं  कि आज एसे विद्वान नहीं मिलते किन्तु यह सत्य है कि उस समय के विद्वान बिना किसी किन्तु परन्तु के आर्य समाज के लिए कार्य करते थे तथा सिधान्त से किंचित भी न हटते थे । एसे ही विद्वानों , एसे ही दीवानों में मुन्शी केवल कृष्ण जी भी एक थे । मुन्शी जी का जन्म मुन्शी राधाकिशन जी के यहां अश्विन पूर्णिमा १८८५ विक्रमी तद्नुसार सन १८२८ इस्वी को हुआ । इन की विरासत पटियाला राज्य के गांव छत बनूड से थी । भाव  यह है कि इन के पूर्वज बनूड के निवसी थे । परिस्थितिवश मुसलमनी शासन कल में  यह रोहतक आ कर रहने लगे ।

उस काल में मुसलमानी प्रभाव से हमारे हिन्दु लोगो में भी अनेक बुराइयां आ गई थीं । एसी ही बुराईयों के मुन्शी जी भी गुलाम हो गये थे । यह बुराईयां जो मुन्शी जी ने अपना रखी थीं , उनमें मांसाहार करना, मदिरा पान करना । इस सब के साथ ह साथ यह वैश्गयामन तक भी करने लगे थे ।

इन बुराईयों में फ़ंसे मुन्शी जी पर एक चमत्कार हुआ । हुआ यह कि इन दिनों ही स्वामी द्यानन्द सरस्वती का पंजाब में आगमन हुआ । । इन दिनों मुन्शी जी शाहपुर मे मुन्सिफ़ स्वरुप कार्य कर रहे थे । मुन्शी जी ने स्वामी जी के उपदेश सुने । इन उपदेशों पर मनन चिन्तन करने पर इन का मुन्शी जी पर अत्यधिक प्रभाव हुआ । वह स्वामी जी के उपदेशों से धुलकर शुद्ध हो गये । स्वामी  जी के प्रभाव से उन्होंने मांसाहार का सदा के लिए त्याग कर दिया , मदिरा के बर्तन उटा कर फ़ैंक दिये तथा भविष्य मे इस बुराई को भी अपने पास न आने देने का संकल्प लिया तथा वैश्यागमन , जो कि से  बडी बुराई मानी जती है , उसे भी परित्याग कर दिया । इस प्रकार स्वांमी जी के प्रभाव से मुन्शी जी शुद्ध व पवित्र हो गये ओर आर्य समाजी बन गये ।

जब कोई व्यक्ति भयानक बुराईयों को छोड कर सुपथ गामी बन जता है तो लोगो मे उस का आदर स्त्कार बट जाता है, उस की ख्यति दूर दूर तक जती है तथा जिस सधन से उसने यह दोष त्यागे होते हैं , अन्य लोग भी उसका अनुगमन करते हुए उस  पथ के पथिक बन जाते हैं । हुआ भी कुछ एसा ही ।

मुन्शी जी  ने अपने आप को आर्य समाज के सिद्धान्तों के साथ खूब टाला तथा इन्हे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया । आप ने यत्न पूर्वक उर्दू में परंगकता प्राप्त की तथा अपने समय के उर्दू के उ च्च कोटि के कवि बन गये । आप ने आर्य समाज के सिद्धान्तो व मन्तव्यों के प्रचार के लिए अनेक कवितायें लिखीं ।

मुन्शी जी अनेक वर्ष आर्य समाज गुजरांवाला के प्रधान भी रहे । आप के ही प्रभाव  से आप के भाई नारायण  कृष्ण भी  आर्य समाज को समर्पित हो गए तथा आप के सुपुत्र  कर्ता  कृष्ण भी अपने पिता  के अनुगामी बन कर आर्य समाज के सदस्य बन गए । जिस परिवार में कभी बुराईयों के कारण सदा कलह क्लेश रहता था , वह परिवार आज उत्तमता का ,स्वर्गिक आनंद का एक उदाहरण था  ।

जब लाहोर में डी.ए.वी कालेज की स्थापना हुई , उस समय इस संस्था को चलाने के लिए धन का आभाव सा ही रहता था । इस कमीं के दिनों में आपने कालेज के सहयोगी स्वरूप एक भारी धनराशी इसे सहयोग के लिए अपनी और से दी ।

आप उर्दु के सिद्ध हस्त कवि थे किन्तु आर्य समाज मे प्रवेश से पूर्व आप ने प्रचलित परम्परा को अपनाते हुए श्रंगारिक रचनायें ही लिखीं किन्तु आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही जहां आप ने अपने जीवन की अनेक बुराईयों का त्याग किया  , वहां अपने काव्य को भी नया रूप दिया आप ने अब शृंगार रस को सदा के लिये त्याग दिया तथा इस के स्थान पर शान्त रस को अपना लिया । अब शान्त रस के माध्यम से आप उर्दू मे काव्य की रचना करने लगे । आप ने अपने काव्य में जो विशेष शब्द , जिन्हें तखलुस कहते हैं , वह उर्दू में ” उर्फ़” होता था जब कि हिन्दी मे ” केवल ” होता था ।

मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अपनी लेखनी का भी खूबह सहारा लिया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखी तथा  दिसम्बर १९०९ को इस जीवन लीला को समप्त कर चल बसे ।ध्यान मंजूम,आर्यभिविनय मंजूम, आर्य विनय पत्रिका ,संगीत सुधाकर, भजनमुक्तवली,इन पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ एसी पुस्तकें भी लिखीं जो मांसहर आदि दुर्व्यस्नों तथा इन के परिणम स्वरुप होने वले झगडों आदि पर भी प्रकाश दलती हैं । एसी पुस्तकों में विचर पत्र, राजेसरबस्ता,हारेसदाकत या जबाबुलजुबाब आदि ।

इस प्रकर जीवन प्रयन्त  आर्य समाज की सेवा करने वाला यह दीवाना आर्य समज की सेवा करते हुए अन्त में १५ दिसम्बर १९०९ इस्वी को इस चलायमान जगत से चल बसा ।

 

पंडित काशीनाथ शास्त्री

123 

ओ३म

पण्डित काशीनाथ शास्त्री
डा. आशोक आर्य
पण्डित काशीनाथ शास्त्री आर्य समाज के उच्चकोटि के लेखकों व प्रचारकों में से एक थे । आप अपने जीवन का एक एक पल आर्य समाज के प्रचार व प्रसार के लिए ही लगाया करते थे । आप का जन्म गांव कोडा जहानाबाद जिला फ़तेहपुर में दिनांक १ मई १९११ इस्वी को हुआ था । आपके पिता श्री रघुनाथ जी थे ।
पण्डित जी के पिता जी अनुरूप ही द्रट सिधान्तवादी द्रट समाजी थे । पिता के विचारों का ही आप पर प्रभाव था , जिसके कारण आप न केवल आर्य हुए बल्कि सिद्धान्त वादी आर्य समाजी हुए तथा आर्य समाज के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते थे ।
अपने व्यवसाय के निमित आप फ़तेह्पुर छोड कर गोंदिया ( महाराष्ट्र के विदर्भ क्शेत्र) में चले गये । गोंदिया में आप आर्य समाज के स्तम्भ थे तथा यहां रहते हुए आप ने चिकित्सा का कार्य आरम्भ किया तथा इस व्यवसाय में ही आजीवन निर्वहन करते रहे ।
आपके नाम के साथ जो शास्त्री शब्द जुडा है , उससे स्पष्ट है कि शास्त्री तो आप ने उतीर्ण की ही थी किन्तु गोंदिया आने के पश्चात आप ने नागपुर विश्व विद्यालय से एम. ए. की परीक्शा भी उत्तीर्ण की । इससे पता चला है कि उच्च शिक्शा प्राप्ती के लिए आप निरन्तर प्रयत्नशील रहे ।
आर्य समाज मध्य प्रदेश व विदर्भ का कार्यालय नागपुर में है तथा इस का मुख पत्र आर्य सेवक भी यहां से निकलता है । इस पत्र के सम्पादक का कार्य आर्य समाज के उच्च कोटि के आर्य रहे हैं । हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभुद्रा कुमारी चौहान के पति भी इस पत्रिका के सम्पादक रहे हैं । हमारे पण्डित काशी नाथ शास्त्री भी अपनी उच्च हिन्दी व आर्य समाज समबन्धी योग्यता के कारण इस पत्र के सम्पादक रहे तथा इस पत्र को बहुत आगे ले गये ।
आप को आर्य समाज से इतनी लगन थी कि आर्य समाज के प्रचार व प्रसार के कार्य के लिए सभा की योजना के अनुरूप तो प्रचार करने जाते ही थे , इसके अतिरिक्त भी आप संलग्न क्शेत्रों में प्रचार के ;लिए घूमते ही रहते थे तथा युवकों को उत्साहित करते ही रहते थे । इस सम्बन्ध में जब मेरे श्वसुर लाला कर्मचन्द आर्य जी ने महाराष्ट्र के विदर्भ क्शेत्र के नगर भण्डारा में आर्य समाज की स्थापना की तो आप का इस समाज मं आना जाना आरम्भ हो गया तथा कर्मचन्द जी से पारिवारिक मित्रता का सम्बन्ध जुड गया । आप ही के प्रयत्न का परिणाम था कि मेरा सम्बन्ध इस परिवार से जुड गया । यह आप ही थे जिन्होंने मेरा विवाह संस्कार करवाया । इस अवसर पर पण्डित प्रकाश चन्द कविरत्न जी का रचा गया वैवाहिक सेहरा उन्हीं के शिष्य पं. पन्ना लाल पीयूष आर्योपदेशक जी ने पटा था ।
१२ जनवरी १९७५ से १४ जनवरी १९७५ तक नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ । आप इस सम्मेलन में प्रतिनिधि स्वरुप सम्मिलित होने वाले थे । आप की प्रेरणा व प्रयत्न के परिणाम स्वरूप मुझे भी पंजाब के प्रतिनिधि स्वरूप इस सम्मेलन में सम्मिलित होने का अवसर व सौभाग्य प्राप्त हुआ । मैं जब भी भण्डारा जाता आप मुझे मिलने के लिए अवश्य ही भण्डारा आया करते थे ।
आप शुद्ध हिन्दी लेखव प्रयोग के पक्श में थे । उन्होंने मुझे बताया कि आज हम किस प्रकार से गलत टंग से हिन्दी श्ब्दों का प्रयोग कर रहे हैं कि हमें पता ही नहीं चलता । उन्होंने बताया कि आज स्कूलों में महिला अध्यापक के लिए अध्यापिका शब्द प्रयोग करते हैं किन्तु यह गल्त है । जिस प्रकार वकील की पत्नि को हम वकीलनी कहने लगते है ,जिसका भाव होता है वकील की पत्नी । इस प्रकार ही अध्यापिका का अर्थ हुआ अध्यापक की पत्नी । पटाने वालों के लिए केवल एक ही शब्द है और वह है अध्यापक , चाहे वह पुरूष हो या महिला ।
आपने आर्य समाज का प्रवचनों व लेखनी द्वारा खूब प्रचार किया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखीं । आप की पुस्तकों में वैदिक संध्या, रामायण प्रदिप मीमांसा , जल्पवाद खण्डन ,आर्यों का आदि देश , सत्य की खोज, इसाइ मत की छानबीन , वैदिक कालीन भारत , अनुपम मणिमाला आदि थीं । वैदिक कालीन भारत पुस्तक में उन्हों ने भारतीय संस्क्रति का समग्र इतिहास दिया था , यह पुस्तक मुझे भी भेंट स्वरूप दी थी ।
आप का मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में यदा कदा जाना होता ही था । एक बार जब आप होशंगाबाद गए हुए थे कि आक्स्मात दिनांक ४ आक्टूबर १९८८ इस्वी को देहान्त हो गया ।

 

ओउम नाम की माला लेकर, फूल हमेशा खिलते हैं |

भला किसी क कर न सको तो ,बुरा किसी का मत करना ।
पुष्प नहीं बन सकते तो तुम, कांटे बनाकर मत रहना ।।
बन न सको भगवान अगर तुम , कम से कम इंसान बनो ।
नहीं कभी शैतान बनो तुम, नहीं कभीहैवान बनो ।।
सदाचार अपना न सको तो , पापों में पग मत धरना ।।
सत्य वचन न बोल सको तो, झूठ कभी भी मत बोलो ।।
मौन रहो तो ही अच्छा कम से, कम,विष तो मत घोलो ।
बोली यदि पहले तुम तोलो तो , फिर मुंह को खोला कारो ।।
घर न किसी का बसा सको तो , झोंपड़ियाँ न जला देना ।
मरहम पट्टी कर न सको तो, घाव नमक न लगा देना ।।
दीपक बनाकर जल न सको तो ,अंधियारा भी मत करना ।।
अम्रात पिला सको न किसी को ,जहर पिलाते भी डरना ।
धीरज बंधा नहीं सकते तो, घाव किसी के मत करना ।।

ओउम नाम की माला लेकर , फूल हमेशा खिलते हैं ।।
सच्चाई की रह में बेशक, कष्ट अनेकों मिलते हैं ।
पर काँटों के बीच में देखो , फूल हमेशा खिलते हैं ।।
सूरज की भांति खुद जलाकर , सब जग को रोशन करना ।।पुष्प …