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डॉ अम्बेडकर के लेखन में परस्परविरोध: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर ने शंकराचार्य की आलोचना करते हुए उनके लेखन में परस्परविरोधी कथन माने हैं। उन्होंने उन परस्परविरोधों के आधार पर शंकराचार्य के कथनों को अप्रामाणिक कहकर अमान्य घोषित किया है और यह कटु टिप्पणी की है कि जिसके लेखन में परस्परविरोध पाये जाते हैं, उसे ‘‘पागल’’ ही कहा जायेगा। (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 289)

आश्चर्य का विषय है कि स्वयं डॉ0 अम्बेडकर के ग्रन्थ परस्परविरोधी कथनों से भरे पड़े हैं और पुनरुक्तियों की तो कोई गणना ही नहीं है। यह स्वीकृत तथ्य है कि परस्परविरोध नामक दोष से युक्त कथन न तो प्रमाण-कोटि में आता है, न मान्य होता है, और न आदरणीय। न्यायालय में भी उसको प्रमाण नहीं माना जाता। बुद्धिमानों में ऐसा त्रुटिपूर्ण लेखन समानयोग्य नहीं होता। ऐसे लेखन को पढ़कर पाठक जहां दिग्भ्रमित होता है वहीं उससे उसे निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता। ऐसा लेखन तब होता है जब लेखक अस्थिरचित्त हो, अनिर्णय की स्थिति में हो, अथवा भावुकताग्रस्त हो। पाठक इन बातों का निर्णय अग्रिम उल्लेखों को स्वयं पढ़कर करें।

डॉ0 अम्बेडकर के लेखन को, विशेषतः इस अध्याय में उद्धृत संदर्भों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि वे दो प्रकार की मनः- स्थिति में जीते रहे। जब उनका समीक्षात्मक मन उन पर प्रभावी होता था तो वे तर्कपूर्ण मत प्रकट करते थे, और जब प्रतिशोधात्मक मन प्रभावी होता था तो वे सारी मर्यादाओं को तोड़कर कटुतम शदों का प्रयोग करने लगते थे। उनका व्यक्तित्व बहुज्ञसपन्न किन्तु दुविधापूर्ण, समीक्षक किन्तु पूर्वाग्रहग्रस्त, चिन्तक किन्तु भावुक, सुधारक किन्तु प्रतिशोधात्मक था।

यहां परस्परिविरोधों को उद्धृत करने का मुय प्रयोजन यह भी दिखाना है कि डॉ0 अम्बेडकर ने अपने ग्रन्थों में मनुस्मृति के जिन श्लोकार्थों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है, उनमें परस्परविरोधी विधान हैं। एक श्लोकार्थ जो विधान कर रहा है, दूसरा उसके विपरीत विधान कर रहा है। डॉ0 अम्बेडकर ने दोनों तरह के श्लोकों को प्रमाण मानकर उद्धृत किया है। ऐसी स्थिति में ये प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका समाधान पाठकों को चाहिए-

  1. परस्परविरोधी श्लोकार्थ और मत, डॉ0 अम्बेडकर के लेखन में दोनों ही हैं। उनका ज्ञान डॉ0 अम्बेडकर को कैसे नहीं हुआ? उन्होंने दोनों को प्रस्तुत करते समय परस्परविरोध दोष पर ध्यान क्यों नहीं दिया? अथवा उनको स्वीकार क्यों नहीं किया?
  2. क्या कभी दोनों परस्परविरोधी वचन प्रामाणिक हो सकते हैं?
  3. क्या उनसे उनके लेखन की प्रामाणिकता नष्ट नहीं हुई है?
  4. परस्परविरोधी श्लोकार्थ मिलने पर क्या डॉ0 अम्बेडकर को मनु के किसी एक श्लोक को प्रक्षिप्त नहीं मानना चाहिए था? दोनों मौलिक कैसे माने जा सकते हैं?

यदि डॉ0 अम्बेडकर परस्परविरोध को स्वीकार कर एक को प्रक्षिप्त स्वीकार कर लेते तो उनकी मनुसबन्धी सारी आपत्तियों का निराकरण स्वतः हो जाता। न गलत निष्कर्ष प्रस्तुत होते, न उनका लेखन विद्वानों में अप्रमाणिक कोटि का माना जाता, न विरोध का बवंडर उठाना पड़ता। देखिए परस्परविरोधों के कुछ उदाहरण-

(1) क्या महर्षि मनु जन्मना जाति का जनक है?

आश्चर्य तो यह है कि इस बिन्दु पर डॉ0 अम्बेडकर के तीन प्रकार के परस्परविरोधी मत मिलते हैं। देखिए-

(अ)    मनु ने जाति का विधान नहीं बनाया अतः वह जाति का जनक नहीं

(क) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी। वह तो उसका पोषक था।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

(ख) ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है।………वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक न भी हो परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है।’’ (वही खंड 6, पृ0 43)

(आ) जाति-संरचना ब्राह्मणों ने की

(क) ‘तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राह्मणों ने जाति-संरचना की।’’ (वही, खंड 1, पृ0 29)

(ख) ‘‘वर्ण-निर्धारण करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 172)

(इ) मनु जाति का जनक है

(क) ‘‘जाति-व्यवस्था का जनक होने के कारण विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के लिए मनु को स्पष्टीकरण देना होगा।’’ (वही, खंड 6, पृ0 57)

(ख) ‘‘मनु ने जाति का सिद्धान्त निर्धारित किया है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 228)

(ग) ‘‘वर्ण को जाति में बदलते समय मनु ने अपने उद्देश्य की कहीं व्याया नहीं की।’’ (वही, खंड 7, पृ0 168)

(2) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रशंसनीय या निन्दनीय

(अ) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रशंसनीय

(क) ‘‘प्राचीन चातुर्वर्ण्य पद्धति में दो अच्छाइयां थीं, जिन्हें ब्राह्मणवाद ने स्वार्थ में अंधे होकर निकाल दिया। पहली, वर्णों की आपस में एक दूसरे से पृथक् स्थिति नहीं थी। एक वर्ण का दूसरे वर्ण में विवाह, और एक वर्ण का दूसरे वर्ण के साथ भोजन, दो बातें ऐसी थी जो एक-दूसरे को आपस में जोड़े रखती थीं। विभिन्न वर्णों में असामाजिक भावना के पैदा होने के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी, जो समाज के आधार को ही समाप्त कर देती है।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 218)

(ख) ‘‘यह कहना कि आर्यों में वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह था जिसके कारण इनकी पृथक् सामाजिक स्थिति बनी, कोरी बकवास होगी। अगर कोई ऐसे लोग थे जिनमें वर्ण के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं था, तो वह आर्य थे।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 320)

(ग) ‘‘वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों में शूद्र चौथा वर्ण है। यदि समाज केवल चार वर्णों में विभक्त मात्र रहता तो चातुर्वर्ण्यव्यवस्था में कोई आपत्ति न होती।’’ (शूद्रों की खोज, प्राक्कथन, पृ0 1)

(घ) ‘‘ब्राह्मणवाद ने समाज के आधार के रूप में वर्ण की मूल संकल्पना को किस प्रकार गलत और घातक स्वरूप दे दिया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 169)

(ङ) ‘‘ब्राह्मणवाद ने प्रमुखतः जो कार्य किया, वह अन्तर्जातीय विवाह और सहभोज की प्रणाली को समाप्त करना था, जो प्राचीन काल में चारों वर्णों में प्रचलित थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 194)

(च) ‘‘बौद्ध पूर्व समय में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी और उसमें गुंजाइश थी। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में जहां चार विभिन्न वर्गों के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था, वहां इन वर्गों में आपस में विवाह सबन्ध करने पर कोई निषेध नहीं था। किसी भी वर्ण का पुरुष विधिपूर्वक दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ विवाह कर सकता था।’’ (वही, खंड 7, पृ0 175)

(आ) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था निन्दनीय

(क) ‘‘चातुर्वर्ण्य से और अधिक नीच सामाजिक संगठन की व्यवस्था कौन-सी है, जो लोगों को किसी भी कल्याणकारी कार्य करने के लिए निर्जीव तथा विकलांग बना देती है। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 95)

(ख) ‘‘कोई व्यक्ति जो जन्मजात जड़बुद्धि या मूर्ख नहीं है, चातुर्वर्ण्य को समाज का आदर्श रूप कैसे स्वीकार कर सकता है?’’ (वही, खंड 1, ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ पृ0 263)

(ग) ‘‘चातुर्वर्ण्य के ये प्रचारक बहुत सोच-समझकर बताते हैं कि उनका चातुर्वर्ण्य जन्म के आधार पर नहीं बल्कि गुण के आधार पर है। यहां पर पहले ही मैं बता देना चाहता हूं कि भले ही यह चातुर्वर्ण्य गुण के आधार पर हो, किन्तु यह आदर्श मेरे विचारों से मेल नहीं खाता।’’ (वही, खंड 1, पृ0 81)

(3) वेदों की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था

(अ) वेदों का चातुर्वर्ण्य उत्तम और समानजनक-

(क) ‘‘शूद्र आर्यं समुदाय के अभिन्न, जन्मजात और समानित सदस्य थे। यह बात यजुर्वेद में उल्लिखित एक स्तुति से पुष्ट होती है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 322)

(ख) ‘‘शूद्र आर्य समुदाय का सदस्य होता था और वह उसका समानित अंग था।’’ (वही, खंड 7, पृ0 322)

(ग) ‘‘मैं मानता हूं कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिद्धान्त की जो व्याया की है, बुद्धिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है। ’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(घ) ‘‘चातुर्वर्ण्य की वैदिक पद्धति जाति व्यवस्था की अपेक्षा उत्तम थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 218)

(ङ) ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो।…….वह (वैदिक वर्णव्यवस्था) केवल योग्यता को मान्यता देती है। वर्ण के बारे में महात्मा (गांधी) के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मूर्खतापूर्ण बनाते हैं, बल्कि घृणास्पदाी बनाते हैं।……वर्ण और जाति दो अलग-अलग धारणाएं हैं।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(आ)   वेदों का चातुर्वर्ण्य समाज-विभाजन और असमानता का जनक-

(क) ‘‘यह निर्विवाद है कि वेदों ने चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त नाम से जाना जाता है। यह दो मूलभूत तत्त्वों को मान्यता देता है। उसने समाज के चार भागों में विभाजन को एक आदर्श योजना के रूप में मान्यता दी है। उसने इस बात को भी मान्यता प्रदान की है कि इन चारों भागों के सबन्ध असमानता के आधार पर होने चाहिएं।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 6, पृ0 105)

(ख) ‘‘जातिप्रथा, वर्णव्यवस्था का नया संस्करण है, जिसे वेदों से आधार मिलता है।’’ (वही, खंड 9, पृ0 160)

(4) वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था का सबन्ध

(अ) जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था का विकृत रूप है

(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)

(ख) ‘‘जातिप्रथा चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू का आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)

(ग) ‘‘अगर मूल वर्ण पद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)

(आ) जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था का विकास है

(क) ‘‘वर्णव्यवस्था जाति की जननी है।’’ (वही, खंड 6, ‘हिन्दुत्व का दर्शन’ पृ0 43)

(ख) ‘‘कुछ समय तक ये वर्ण केवल वर्ण ही रहे। कुछ समय के बाद जो केवल वर्ण ही थे, वे जातियां बन गईं और ये चार जातियां चार हजार बन गईं। इस प्रकार आधुनिक जाति-व्यवस्था प्राचीन वर्ण-व्यवस्था का विकास मात्र है।’’

‘‘निस्ंसदेह यह जाति व्यवस्था का ही विकास है। लेकिन वर्ण व्यवस्था के अध्ययन द्वारा कोईाी जाति-व्यवस्था के विचार को नहीं समझ सकता है। जाति का वर्ण से पृथक् अध्ययन किया जाना चाहिए।’’ (वही, खंड 6, पृ0 176)

(5) शूद्र आर्य या अनार्य?

(अ) शूद्र मनुमतानुसार आर्य थे

(क) ‘‘धर्मसूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धान्त मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 42)

(ख) ‘‘आर्य जातियों का अर्थ है चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। दूसरे शदों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते हैं।’’….[ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः’’ (मनु0 10.04)] यह श्लोक दो कारणों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसमें शूद्रों को दस्यु से भिन्न बताया गया है। दूसरे, इससे पता चलता है कि शूद्र आर्य हैं।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 217)

(आ) शूद्र मनुमतानुसार अनार्य थे

(क) ‘‘मनु शूद्रों का निरूपण इस प्रकार करता है, जैसे वे बाहर से आने वाले अनार्य थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 319)

(6) शूद्रों का वेदाध्ययन-अधिकार

(अ) वेदों में समानपूर्वक शूद्रों का अधिकार था

(क) ‘‘वेदों का अध्ययन करने के बारे में शूद्रों के अधिकारों के प्रश्न पर ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ उल्लेखनीय है।…….एक समय ऐसा भी था, जब अध्ययन के सबन्ध में शूद्रों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था।’’ (वही, खंड 7, पृ0 324)

(ख) ‘‘केवल यही बात नहीं थी कि शूद्र वेदों का अध्ययन कर सकते थे। कुछ ऐसे शूद्र थी थे, जिन्हें ऋषि-पद प्राप्त था और जिन्होंने वेदमन्त्रों की रचना की। कवष एलूष नामक ऋषि की कथा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वह एक ऋषि था और ऋग्वेद के दसवें मंडल में उसके रचे हुए अनेक मन्त्र हैं।’’ (वही, खंड 7, पृ0 324)

(ग) ‘‘शतपथ ब्राह्मण में ऐसा प्रमाण मिलता है कि शूद्र सोम यज्ञ कर सकता था।’’ (वही, खंड 7, पृ0 324)

(घ) ‘‘ऐसेाी प्रमाण हैं कि शूद्र स्त्री ने ‘अश्वमेध’ नामक यज्ञ में भाग लिया था।’’ (वही, खंड 7, पृ0 325)

(ङ) ‘‘जहां तक उपनयन संस्कार और यज्ञोपवीत धारण करने का प्रश्न है, इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता कि यह शूद्रों के लिए वर्जित था। बल्कि ‘संस्कार गणपति’ में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है और कहा गया है कि शूद्र उपनयन के अधिकारी हैं।’’ (वही, खंड 7, पृ0 325-326)

(आ) वेदों में शूद्रों का अधिकार नहीं था

(क) ‘‘वेदों के ब्राह्मणवाद में शूद्रों का प्रवेश वर्जित था, लेकिन भिक्षुओं के बौद्ध धर्म के द्वार शूद्रों के लिए खुले हुए थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 197)

(7) शूद्र का सेवाकार्य स्वेच्छापूर्वक

(अ) शूद्र सेवाकार्य में स्वतन्त्र है

(क) ‘‘ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक ही व्यवसाय नियत किया है-विनम्रता पूर्वक तीन अन्य वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना [मनु0 1.91]।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 318, 201, 231; खंड 6, पृ0 62, 142; खंड 9, पृ0 105, 109, 177, खंड 13, पृ0 30 आदि)

(ख) ‘‘यदि कोई शूद्र (जो ब्राह्मणों की सेवा से अपना जीवन-निर्वाह नहीं कर पाता है) जीविका चाहता है तब वह क्षत्रिय की सेवा करे या वह किसी धनी वैश्य की सेवा कर अपना जीवन-निर्वाह करे (मनु0 10.121)।’’ (वही, खंड 9, पृ0 116, 177; खंड 6, पृ0 152;)

(आ) शूद्र को केवल ब्राह्मण की सेवा करनी है

(क) ‘‘परन्तु शूद्र को ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए [10.122]।’’ (वही, खंड 6, पृ0 61, 152; खंड 9, पृ0 177)

(ख) ‘‘ब्रह्मा ने ब्राह्मणों की सेवा के लिए ही शूद्रों की सृष्टि की है [मनु0 8.413]।’’ (वही, खंड 7, पृ0 200; खंड 9, पृ0 177,)

(ग) ‘‘ब्राह्मणों की सेवा करना शूद्र के लिए एकमात्र उत्तम कर्म कहा गया है क्योंकि इसके अतिरिक्त वह जो कुछ करेगा, उसका उसे कोई फल नहीं मिलेगा (मनु0 10.123)।’’ (वही, खंड 9, पृ0 113, 177; खंड 6, पृ0 98; खंड 7, पृ0 234)

(8) शूद्र वेतनभोगी सेवक या पराधीन?

(अ) शूद्र को उचित वेतन और जीविका दें

(क) ‘‘शूद्र की क्षमता, उसका कार्य तथा उसके परिवार में उस पर निर्भर लोगों की संया को ध्यान में रखते हुए वे लोग उसे अपनी पारिवारिक संपत्ति से उचित वेतन दें (मनु0 10.124)।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 6, पृ0 62, 152; खंड 7, पृ0 201, 234, 318; खंड 9, पृ0 116, 178)

(ख) ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(आ) शूद्र गुलाम था

(क) ‘‘मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है। परन्तु उसने उसे शूद्र तक ही सीमित रखा।’’ (वही, खंड 6, पृ0 45)

(ख) ‘‘अपने अन्न का शेष भाग और उसके साथ ही पुराने कपड़े अनावश्यक अनाज और अपने घर का साज-सामान उसे देना चाहिए (मनु0 10.125)।’’ (वही, खंड 6, पृ0 62, 152; खंड 7, पृ0 201, 234, 318; खंड 9, पृ0 116, 178)

(ग) ‘‘प्रत्येक ब्राह्मण शूद्र को दास कर्म करने के लिए बाध्य कर सकता है, चाहे उसने उसे खरीद लिया हो अथवा नहीं, क्योंकि शूद्रों की सृष्टि ब्राह्मणों का दास बनने के लिए ही की है [मनु0 8.413]।’’ (वही, खंड 7, पृ0 318)

(घ) ‘‘उनका (शूद्रों का) भोजन आर्यों के भोजन का उच्छिष्ट अंश होगा (मनु0 5.140)।’’ (वही, खंड 9, पृ0 113)

(9) मनु की दण्डव्यवस्था कौन-सी है?

(अ) ब्राह्मण सबसे अधिक दण्डनीय और शूद्र सबसे कम

‘‘यदि पिता, शिक्षक, मित्र, माता, पत्नी, पुत्र, घरेलू पुरोहित, अपने-अपने कर्त्तव्य का दृढ़ता व सच्चाई के साथ निष्पादन नहीं करते हैं तो इनमें से किसी को भी राजा द्वारा बिना दंड के नहीं छोड़ा जाना चाहिए।’’ (मनु0 8.335,336) (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 6, पृ0 61, 156 तथा खंड 7, 250)

(ख) ‘‘चोरी करने पर शूद्र को आठ गुना, वैश्य को सोलह गुना, और क्षत्रिय को बत्तीस गुना पाप होता है। ब्राह्मण को चौंसठ गुना या एक सौ गुना या एक सौ अठाईस गुना तक, इनमें से प्रत्येक को अपराध की प्रकृति की जानकारी होती है [मनु0 8.337, 338]।’’ (वही, खंड 7, पृ0 163)

(आ) ब्राह्मण दण्डनीय नहीं है, शूद्रादि अधिक दण्डनीय

(क) ‘‘पुरोहित वर्ग के व्यभिचारी को प्राणदंड देने की बजाए उसका अपकीर्तिकर मुंडन करा देना चाहिए तथा इसी अपराध के लिए अन्य वर्गों को मृत्युदंड तक दिया जाए (मनु0 8.379)।’’ (वही, खंड 6, पृ0 49)

(ख) ‘‘(राजा) किसी भी ब्राह्मण का वध न कराए, चाहे उस ब्राह्मण ने साी अपराध क्यों न किए हों, वह ऐसे (अपराधी को) अपने राज्य से निष्कासित कर दे और उसे (अपनी) समस्त सपत्ति और अपना (शरीर) सकुशल ले जाने दे (मनु0 8.380)। (अम्बेडकर वाङ्मय खंड 9, पृ0 115 तथा खंड 6, पृ0 49, 150 तथा खंड 7, पृ0 161)’’

(ग) ‘‘लेकिन न्यायप्रिय राजा तीन निचली जातियों (वर्णों) के व्यक्तियों को आर्थिक दंड देगा और उन्हें निष्कासित कर देगा, जिन्होंने मिथ्या साक्ष्य दिया है, लेकिन ब्राह्मण को वह केवल निष्कासित करेगा (मनु0 8.123, 124)।’’ (वही खंड 7, पृ0 161, 245)

(घ) ‘‘कोई भी ब्राह्मण जिसने चाहे तीनों लोकों के मनुष्यों की हत्याएं क्यों न की हों, उपनिषदों के साथ-साथ ऋक्, यजु या सामवेद का तीन बार पाठ कर साी पापों से मुक्त हो जाता है। (मनु0 11.261-262)।’’ (वही, खंड 7, पृ0 158)

(10) शूद्र का ब्राह्मण बनना

(अ) आर्यों में शूद्र ब्राह्मण बन सकता था

(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, ये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जब कि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 170)

(ख) ‘‘अन्य समाजों के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था।…….इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि आरंभ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसीलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी।’’ (वही, खंड 1, पृ0 31)

(ग) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रियत्व और वैश्यत्व को प्राप्त होता है (मनुस्मृति 10.65)’’ (वही, खंड 13, पृ0 85)

(घ) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है (मनु0 9.335)’’ (वही, खंड 9, पृ0 117)

(आ) आर्यों में शूद्र ब्राह्मण नहीं बन सकता था

(क) ‘‘आर्यों के समाज में शूद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नहीं बन सकता था।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 93)

(ख) ‘‘वैदिक शासन में शूद्र ब्राह्मण बनने की कभी आकांक्षा नहीं कर सकता था।’’ (वही, खंड 7, पृ0 197)

(ग) ‘‘उच्च वर्ण में जन्मे और निम्न वर्ण में जन्मे व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण ही है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 146)

(11) ब्राह्मण कौन हो सकता था?

(अ) वेदों का विद्वान् ब्राह्मण होता था

(क) ‘‘स्वयंभू मनु ने ब्राह्मणों के कर्त्तव्य वेदाध्ययन, वेद की शिक्षा देना, यज्ञ करना, अन्य को यज्ञ करने में सहायता देना और अगर वह धनी है, तब दान देना और अगर निर्धन है, तब दान लेना निश्चित किए (मनु0 1.88)।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 230; खंड 6, पृ0 142; खंड 9, पृ0 104; खंड 13, पृ0 30)

(ख) ‘‘वेदों का अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ करना, अन्य को यज्ञ करने में सहायता देना, यदि पर्याप्त सपत्ति है तब निर्धनों को दान देना, यदि स्वयं निर्धन है तब पुण्यशील व्यक्तियों से दान लेना, ये छह कर्त्तव्य प्रथम उत्पन्न वर्ण (ब्राह्मणों) के हैं (मनु0 10.75)।’’ (वही, खंड 7, पृ0 160, 231; खंड 6, पृ0 142; खंड 9, पृ0 113)

(ग) ‘‘वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नहीं हो सकता। ब्राह्मण के मूढ़ होने की संभावना तभी हो सकती है, जब वर्ण जाति बन जाता है, अर्थात् जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 173)

(आ) वेदाध्ययन से रहित मूर्खाी ब्राह्मण होता था

(क) ‘‘कोई भी ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण है अर्थात् जिसने न तो वेदों का अध्ययन किया है और न वेदों द्वारा अपेक्षित कोई कर्म किया है, वह राजा के अनुरोध पर उसके लिए धर्म का निर्वचन कर सकता है अर्थात् न्यायाधीश के रूप में कार्य कर सकता है, लेकिन शूद्र यह कभीाी नहीं कर सकता, चाहे वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो (मनु0 8.20)।’’ (वही, खंड 7, पृ0 317; खंड 9, पृ0 109, 176; खंड 13, 30)

(ख) ‘‘जिस प्रकार शास्त्रविधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि दोनों ही श्रेष्ठ देवता हैं, उसी प्रकार चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान्, दोनों ही रूपों में श्रेष्ठ देवता है (मनु0 9.317)।’’ (वही, खंड 7, पृ0 230; खंड 6, पृ0 155; 101)

(12) मनुस्मृति विषयक मान्यता

(अ) मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीतिशास्त्र है

(क) ‘‘इस प्रकार मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है…….चूंकि इसमें जाति का विवेचन है जो हिन्दू धर्म की आत्मा है, इसलिए यह धर्मग्रन्थ है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 226)

(ख) ‘‘मनुस्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।’’ (वही, खंड 7, पृ0 228)

(ग) ‘‘अगर नैतिकता और सदाचार कर्त्तव्य है, तब निस्संदेह मनुस्मृति नीतिशास्त्र का ग्रन्थ है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 226)

(आ) मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीतिशास्त्र नहीं है

(क) ‘‘यह कहना कि मनुस्मृति एक धर्मग्रन्थ है, बहुत कुछ अटपटा लगता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 226)

(ख) ‘‘हम कह सकते हैं कि मनुस्मृति नियमों की एक संहिता है। यह कथन अन्य स्मृतियों के बारे मेंाी सच है। यह न तो नीतिशास्त्र है और न ही कोई धार्मिक ग्रन्थ है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 224)

(13) समाज में पुजारी की आवश्यकता

(अ) पुजारी आवश्यक था बौद्ध धर्म के लिए

(क) बौद्ध धर्म के समर्थन में डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं-‘‘धर्म की स्थापना केवल प्रचार द्वारा ही की जा सकती है। यदि प्रचार असफल हो जाए तो धर्म भी लुप्त हो जाता है। पुजारी वर्ग, वह चाहे जितना भी घृणास्पद हो, धर्म के प्रवर्तन के लिए आवश्यक होता है। धर्म, प्रचार के आधार पर ही रह सकता है। पुजारियों के बिना धर्म लुप्त हो जाता है। इस्लाम की तलवार ने (बौद्ध) पुजारियों पर भारी आघात किया। इससे वह या तो नष्ट हो गया या भारत के बाहर चला गया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 108)

(आ) हिन्दू धर्म में पुजारी नहीं हो

हिन्दू धर्म का विरोध करते हुए वे लिखते हैं-

(क) ‘‘अच्छा होगा, यदि हिन्दुओं में पुरोहिताई समाप्त की जाए।’’ (वही, खंड 1, पृ0 101)

डा. अम्बेडकर द्वारा मनु के श्लोकों के अशुद्ध अर्थ करके उनसे विरोधी निष्कर्ष निकालना : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अम्बेडकर द्वारा मनु के श्लोकों का अशुद्ध अर्थ करना और उन अशुद्ध अर्थों के आधार पर अशुद्ध और मनु-विरोधी निष्कर्ष प्रस्तुत करना, इन दोनों ही कारणों से डॉ0 साहब के लेखन की प्रामणिकता नष्ट हुई है। वे अर्थ, चाहे अनजाने में किये गये हैं अथवा जान बूझकर, वे संस्कृत भाषा और उसके व्याकरण के अनुसार अशुद्ध हैं। संस्कृत भाषा का साधारण ज्ञाता भी तुरन्त समझ लेता है कि वे अर्थ गलत हैं। बुद्धिमानों में अशुद्ध लेखन कभी मान्य नहीं होता। यद्यपि डॉ0 अम्बेडकर कृत अशुद्ध अर्थ पर्याप्त संया में हैं, तथापि यहां स्थालीपुलाक न्याय से कुछ ही श्लोकार्थ उद्घृत करके उनका सही अर्थ और समीक्षा दी जा रही है। इस लेखन से दो संकेत मिलते हैं-या तो दूसरों के अनुवादों पर निर्भरता के कारण और स्वयं संस्कृत ज्ञान न होने कारण ये अशुद्धियां हुई हैं, या राजनीतिक लक्ष्य से विरोध करने के लिए जान-बूझकर कर उन्होंने अशुद्ध अर्थ किये हैं। पाठक देखें-

(1)    अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बौद्ध-विरोधी सिद्ध करना :-

(क)    पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान्।      

       हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ (4.30)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे) को समान न दे।’’ ‘‘मनुस्मृति में बौद्धों और बौद्ध धर्म के विरुद्ध स्पष्ट व्यवस्थाएं दी गई हैं।’’(अम्बेडकर वाङ्मय, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0 153)

    शुद्ध अर्थ :-‘पाखण्डियों, विरुद्ध कर्म करने वालों अर्थात् अपराधियों, बिल्ली के समान छली-कपटी जनों, धूर्तों, कुतर्कियों, बगुलाभक्त लोगों का, अपने घर आने पर, वाणी सेाी सत्कार न करे।’

    समीक्षा-इस श्लोक में आचरणहीन लोगों की गणना है और उनका वाणी से भी आतिथ्य न करने का निर्देश है। यहां ‘विकर्मी अर्थात् विरुद्ध कर्म करने वालों’ का बलात् विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बौद्ध कर लिया है। विकर्मी का ‘विधर्मी’ अर्थ किसी भी प्रकार नहीं बनता। ऐसा करके सभी भाष्यकार और डॉ. अम्बेडकर , मनु को बौद्धों से परवर्ती और बौद्ध-विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं। यह कितनी बेसिरपैर की कल्पना है!! बुद्ध से हजारों पीढ़ी पूर्व उत्पन्न मनु की स्मृति में परवर्ती बौद्धों की चर्चा कैसे हो सकती है? ऐसे अशुद्ध अर्थ बुद्धिमानों में कभी मान्य नहीं हो सकते।

(ख) या वेदबाह्याः स्मृतयः याश्च काश्च कुदृष्टयः।

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः॥ (12.95)

अर्थ-डॉ0 अम्बेडकर कृत जो वेद पर आधारित नहीं हैं, मृत्यु के बाद कोई फल नहीं देतीं, क्योंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अंधकार पर आधारित हैं। ‘‘मनु के शदों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलबी हैं।’’ (वही, पृ0 158)

शुद्ध अर्थ-‘वेदोक्त’ सिद्धान्तों के विरुद्ध जो मान्यताएं, ग्रन्थ हैं (असुरों, नास्तिकों आदि के बनाये हुए), और जो कोई कुसिद्धान्त हैं, वे सब श्रेष्ठ फल से रहित हैं। वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्धकार एवं दुःख में फंसाने वाले हैं।’

समीक्षा-इस श्लोक के किसी शद से यह भासित नहीं होता कि इसमें बौद्ध धर्म का खण्डन है। जब मनु के समय में ही वर्णबाह्य अनार्य, असुर आदि लोग थे, तो उनकी भिन्न विचारधाराएं भी थीं, जो वेद विरुद्ध थीं। उनको छोड़कर इसे बौद्धों से जोड़ना अपनी अज्ञानता और पूर्वाग्रह को दर्शाना है। ऐसा करके साी लेखक, चाहे वे पाश्चात्य हैं या भारतीय, मनु के स्थितिकाल के विषय में भ्रम फैला रहे हैं और मनुस्मृति के भावों को स्वेच्छाचारिता एवं दुर्भावना-पूर्वक विकृत कर रहे हैं। इसे कहते हैं विरोध के लिए सत्य को तिलांजलि देना!

(ग)    कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान्।

       विकर्मस्थान् शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात्। (9.225)

    डॉ. अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘जो मनुष्य विधर्म का पालन करते हैं……. राजा को चाहिए कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे।’’(वही, खंड 7, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0152)

    शुद्ध अर्थ :-‘जुआरियों, अश्लील नाच-गान करने वालों, अत्याचारियों, पाखण्डियों, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालों, शराब बेचने वालों को राजा अपने राज्य से शीघ्रातिशीघ्र निकाल दे।’

समीक्षा :- संस्कृत पढ़ने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म,विकर्म, दुष्कर्म, अकर्म इन शदों में कर्म ‘क्रिया’ या ‘आचरण’ का अर्थ देते है। इस श्लोक में ‘‘विकर्मस्थ’’ का अर्थ है-विपरीत, या विरुद्ध कर्म करने वाले लोग अर्थात् बुरे या निर्धारित कर्मों के विपरीत कर्म करने वाले लोग। इसमें कर्म का ‘धर्म’ अर्थ नहीं है। किन्तु डॉ0 अम्बेडकर ने यहा बलात् ‘धर्म’ अर्थ करके ‘विधर्मी’ यह अनर्थ किया है। ऐसा करके अनर्थकर्त्ता का प्रयोजन यह है कि वह विधर्मी से ‘बौद्धधर्मी’ मनमाना अर्थ लेना चाहता है और फिर मनु तथा मनुस्मृति को बौद्ध धर्म के बाद का ग्रन्थ बताकर मनु को बौद्धविरोधी सिद्ध करना चाहता है, जबकि पूर्वप्रदत्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि ‘मनुस्मृति’ बौद्धकाल से बहुत पहले की रचना है। क्या मनुविरोधियों का यही तटस्थ और कथित ऐतिहासिक एवं सत्य अनुसन्धान है?

(2)    अशुद्ध अर्थ करके मनु को ब्राह्मणवादी कहकर बदनाम करना

(क) सैनापत्यं च राज्यं च दण्डेनतृत्वमेव च।

         सर्वलोकाघिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥ (12.100)

डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘राज्य में सेनापति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है।’’ (वही, पृ0 148)

    शुद्ध अर्थ :-‘सेनापति का कार्य, राज्यप्रशासन का कार्य, दण्ड और न्याय करने का कार्य, चक्रवर्ती सम्राट् होना, इन कार्यों को भली-भांति करने की योग्यता वेदशास्त्रों का विद्वान् ही रखता है। अर्थात् वही इन पदों के योग्य है।’

    समीक्षा :-पाठक देखें कि मनु ने इस श्लोक में कहीं भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नहीं किया है। वेद-शास्त्रों के विद्वान् तो क्षत्रिय और वैश्य भी होते थे। मनु स्वयं राजर्षि था और अपने समय का सर्वोच्च वेदशास्त्रज्ञ था [द्रष्टव्य मनु0 1.4]। यहां भी क्षत्रिय की योग्यता वर्णित की है। ब्राह्मण शद बलात् श्लोकार्थ में जोड़ लिया है। इसका लक्ष्य यह है कि इससे मनुस्मृति को ब्राह्मणवादी शास्त्र कहकर बदनाम करने का अवसर मिले। इसमें ‘वेदशास्त्रविद्’ शद है जिसका अर्थ स्पष्टतः ‘वेदशास्त्रों का विद्वान्’ होता है मनु की व्यवस्था के अनुसार ये क्षत्रिय के कार्य हैं (देखिए 1.89 श्लोक)। अतः यहां ‘वेदशास्त्रों का विद्वान् क्षत्रिय’ अर्थ है। ब्राह्मण अर्थ करना मनुमत के विरुद्ध भी है क्योंकि मनुमतानुसार ये ब्राह्मण के कार्य हैं ही नहीं। इस प्रकार पक्षपातपूर्ण और अशुद्ध अर्थ करना किसी भी लेखक व समीक्षक के लिए उचित नहीं है।

(ख) कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

         तत्र राजाावेद्दण्ड्यःसहस्रमिति   धारणा॥ (8.336)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘जहां निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दण्डनीय है, उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्र पण से दण्डनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फेंक दे, यह शास्त्र का नियम है।’’ (वही, हिन्दू समाज के आचार-विचार पृ0 250)

शुद्ध अर्थ :- जिस अपराध में साधारण मनुष्य एक कार्षापण (= पैसा) से दण्डित किया जाये, उसी अपराध में राजा को एक हजार पैसा (हजार गुणा) दण्ड होना चाहिए। यह दण्ड का मान्य सिद्धान्त है।

समीक्षा :-अर्थ में काले अक्षरों में अंकित वाक्य मनमाने ढंग से कल्पित हैं, जो श्लोक के किसी पद से नहीं निकलते। यह अनर्थ मनु को ब्राह्मणवादी होने का भ्रम फैलाने के लिए या फिर नदी में फैंकने की बात कहकर उसे मूर्ख और अन्धविश्वासी दिखाने के लिए किया गया है। एक ऊंचे आदर्शात्मक विधान को भी किस प्रकार निम्न स्तर का दिखाने की कोशिश है! पाठक इस रहस्य पर विचार करें।

(ग)    शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते।

       द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते॥       (8.348)

    डॉ. अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात् विघ्न होता हो, तब द्विज शस्त्रास्त्र ग्रहण कर सकते हैं,और तब भी जब किसी समय द्विज वर्ग पर कोई भंयकर विपत्ति आ जाए।’’ (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृ0 250)

    शुद्ध अर्थ :-‘जब द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों) के धर्मपालन में बाधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या किसी परिस्थिति के कारण उनमें विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजों को भी शस्त्रधारण कर लेना चाहिए।’

समीक्षा :-पाठक ध्यान दें, इस श्लोक के अर्थ में ब्राह्मण शद बलात् प्रक्षिप्त किया है क्योंकि इस श्लोक में ब्राह्मण शद है ही नहीं। बहुवचन में स्पष्टतः तीनों द्विजातियों का उल्लेख है। यहां भी वही पूर्वाग्रह है मनु को ब्राह्मणवादी सिद्ध करने का। ‘‘विप्लवे’’ का यहां ‘विपत्ति’ अर्थ अशुद्ध है, सही अर्थ ‘विद्रोह’ है।

(3)    अशुद्ध करके शूद्र के वर्णपरिर्वतन के सिद्धान्त को झुठलाना।

(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः   मृदुवागानहंकृतः।

         ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥    (9.335)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकार रहित है और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, (अगले जन्म में) उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (वही, खंड 9, अराजकता कैसे जायज है,पृ0117)

    शुद्ध अर्थ :-‘जो शूद्र तन-मन से शुद्ध-पवित्र है, अपने से उत्कृष्टों की संगति में रहता है, मधुरभाषी है, अहंकाररहित है और जो सदा ब्राह्मण आदि उच्च तीन वर्णों के सेवाकार्य में रहता है, वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’

    समीक्षा :-यह मनु का वर्णपरिर्वतन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है जिसमें शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का वर्णन है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था गुण ,कर्म, योग्यता पर आधारित है जो पूर्णतः आपत्तिरहित है। डॉ. अम्बेडकर ने इतने आदर्श सिद्धान्त का भी अनर्थ करके उसे विकृत कर दिया। इसमें दो अनर्थ किये गये हैं, एक-श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का वर्णन है, अगले जन्म का कहीं उल्लेख नहीं है। डॉ0 अम्बेडकर ने उच्चजाति की प्राप्ति अगले जन्म में वर्णित की है जो असंभव और मनमानी कल्पना है। दूसरा-श्लोक में ‘ब्राह्मण आदि’ तीन वर्णों के आश्रय का कथन है किन्तु उन्होंने केवल ब्राह्मणों का नाम लेकर इस सिद्धान्त को भी ब्राह्मणवादी पक्षपात में घसीटने की कोशिश की है। इतना उत्तम सिद्धान्त भी उन्हें नहीं सुहाया, महान् आश्चर्य है !!

(4)    अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना

(क) ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः द्विजातयः।    

         चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः॥ (10.4)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्वर्ण्य का विस्तार नहीं चाहता था और इन समुदायों को मिलाकर पंचम वर्ण की व्यवस्था के पक्ष में नहीं था, जो चारों वर्णों से बाहर थे।’’(वही खंड 9, ‘हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृ0 157-158)

    शुद्ध अर्थ :-‘आर्यों की वर्णव्यवस्था में विद्यारूपी दूसरा जन्म होने के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। विद्याध्ययन रूपी दूसरा जन्म न होने के कारण ‘एकमात्र जन्मवाला’ चौथा वर्ण शूद्र है। पांचवां कोई वर्ण नहीं है।’

    समीक्षा :-गुण, कर्म, योग्यता पर अधारित मनु की वर्णव्यवस्था की परिभाषा देने वाला और शूद्र को आर्य तथा सवर्ण सिद्ध करने वाला यह सिद्धान्ताी डॉ0 अम्बेडकर को नहीं भाया। दुराग्रह एवं कुतर्क के द्वारा उन्होंने इसको भी विकृत करने की कोशिश कर डाली। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा विचारित अर्थ इस श्लोक में दूर-दूर तक भी नहीं है। मनु का यह आग्रह कहीं भी नहीं रहा कि आर्येतर जन वर्णव्यवस्था में समिलित न हों। उन्होंने तो ‘‘एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥’’ (2.20) श्लोक में पृथ्वी के साी वर्गो के लोगों का आह्वान किया है कि वे यहां आयें और अपने-अपने योग्य चरित्र-कर्त्तव्यकर्म की शिक्षा प्राप्त करें। अतः डॉ0 अम्बेडकर का कथन मनु की मान्यता और व्यवस्था के विपरीत है। इस श्लोक में मनु ने केवल आर्यों की वर्णव्यवस्था के चार समुदायों को परिभाषित किया है। अन्य कोई आग्रह या निषेध नहीं है। आश्चर्य है कि इस श्लोक की आलोचना करते समय डॉ0 अम्बेडकर अपने दूसरे स्थान पर किये प्रशंसात्मक अर्थ को भी भूल गये और परस्पर विरोधी लेखन पर बैठे। वहां उन्होंने इस श्लोक के आधार पर शूद्रों को आर्य माना है (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 226; उद्धृत इस पुस्तक के पृ0 219 पर) सरकार की नौकरी व्यवस्था में चार समुदाय हैं- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। इस पर कोई आपत्ति करे कि ‘इसका मतलब सरकार पांचवें वर्ग को नौकरी ही नहीं देना चाहती,’ तो ऐसा ही बालपन का तर्क डॉ0 अम्बेडकर का है। चार वर्णों में जब विश्व के सभी जन समाहित हो जायेंगे तो पांचवें वर्ण की आवश्यकता ही कहां रहेगी?

(5) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री-विरोधी कहना

(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः।

         होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा॥ (11.36)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नहीं करेगी।’’ (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृ0333)

    शुद्ध अर्थ :-‘कन्या, युवती, अल्पशिक्षित, मूर्ख, रोगी और संस्कारों से हीन व्यक्ति, ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक् बनने के अधिकारी नहीं हैं।’

    समीक्षा :-इस श्लोक का इतना अनर्थ कर दिया कि डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ में इसका न अर्थ है और न भाव। यहां केवल कन्या और युवती को ऋत्विक्=‘यज्ञ कराने वाली’ न बनाने का कथन है, अग्निहोत्र-निषेध का नहीं। न ही सारी स्त्री जाति के लिए यज्ञ का निषेध है। यह अनर्थ मनु को स्त्री-विरोधी सिद्ध करने के लिए किया गया है। इसको निष्पक्ष और सत्य शोध कैसे कहा जा सकता है?

(ख)     पित्राार्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद्विरहमात्मनः।

         एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले॥ (5.149)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘स्त्री को अपने पिता, पति या पुत्रों से अलग रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, इनको त्यागकर वह दोनों परिवारों (उसका परिवार और पति का परिवार) को निंदित कर देती है। स्त्री को अपना पति छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता।’’ (वही पृ 203)

    शुद्ध अर्थ :-‘स्त्री को अपने पिता,पति या पुत्रों से अलग रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इनसे पृथक् बिल्कुल अकेली रहने से (बलात्कार, अपहरण आदि अपराध की आशंका होने से) दोनों कुलों की निन्दा होने का भय रहता है।’

    समीक्षा :-इस श्लोक में कहीं नहीं लिखा कि ‘‘स्त्री को अपना पति छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता।’’ श्लोक में स्त्रियों के लिए परामर्श- मात्र है कि स्त्रियां पिता, पति, पुत्र से अलग न रहें’’ श्लोकार्थ में उक्त निष्कर्ष स्वेच्छा से बलात् निकाला गया है जो श्लोक के विपरीत और मनुविरुद्ध है। मनु ने विशेष परिस्थितियों में पति-पत्नी को पृथक् हो जाने का अधिकार दिया है (9.74-81; द्रष्टव्य पृ0 167-168)। इस अनर्थ के द्वारा मनु को स्त्री-निन्दक सिद्ध करने का प्रयास है।

(ग) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।

         सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥       (5.150)

    डॉ. अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘उसे सर्वदा प्रसन्न, गृह कार्य में चतुर, घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिए।’’ (वही, पृ0 205)

    शुद्ध अर्थ :-‘पत्नी को सदा प्रसन्नमन रहना चाहिए, गृहकार्यों में चतुर, घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ-सुन्दर रखने वाली और खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिए।’

    समीक्षा :-‘‘सुसंस्कृत-उपस्करया’’ का ‘‘बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली’’ अर्थ अशुद्ध है। ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नहीं होता। यह संकीर्ण अर्थ करके स्त्री के प्रति मनु की संकीर्ण मनोवृत्ति दिखाने का प्रयास है। यहां ‘संपूर्ण घर व सारा घरेलू सामान’ अर्थ है, जो पत्नी के निरीक्षण में हुआ करता है।

(6) अशुद्ध अर्थों से विवाह-विधियों को विकृत करना

(क)(ख)    आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।

          आहूय दानं कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः॥ (3.27)

          यज्ञे तु वितते सयगृत्विजे कर्म कुर्वते।

          अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते॥(3.28)

          एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः।

          कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्मः स उच्यते॥ (3.29)

    डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘ब्राह्म विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी। दैव विवाह था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था॥ आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधू के पिता को उसका मूल्य चुका कर प्राप्त करता था।’’ (वही, खंड 8, उन्नीसवीं पहेली पृ0 231)

    शुद्ध अर्थ :-‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् को कन्या द्वारा स्वयं पसन्द करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ब्राह्म विवाह’ कहाता है॥’

‘आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज् कर्म करने वाले विद्वान् को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘दैव विवाह’ कहाता है॥’

‘एक अथवा दो जोड़ा गायों का धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्या प्रदान करना ‘आर्ष विवाह’ है।’ आगे 3.53 में गाय का जोड़ा लेना मनु मतानुसार वर्जित है॥

    समीक्षा :-वैदिक व्यवस्था में विवाह एक प्रमुख संस्कार है और प्रत्येक संस्कार यज्ञीय विधिपूर्वक सपन्न होता है। मनु ने 5.152 में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है। संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी के रूप में ससमान प्रदान किया जाता है। इन श्लोकों में उन्हीं विवाहविधियों का निर्देश है। डॉ0 अम्बेडकर ने उन सभी विधियों को अर्थ से निकाल दिया और कन्या को ‘उपहार’, ‘दक्षिणा’, ‘मूल्य’ में देने का अशुद्ध अर्थ करके समानित नारी से एक ‘वस्तु-मात्र’ बना दिया। श्लोकों में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नहीं बनता। आर्ष विवाह में गाय का जोड़ा वैदिक संस्कृति में एक श्रद्धापूर्ण प्रतीक मात्र है। उसे वर और कन्या का मूल्य बता दिया गया है। क्या वर व कन्या का मूल्य ‘एक जोड़ा गाय’ ही है? कितना अनर्थ किया है!!

अनुवादक को जब भाषा, शैली, उसकी गभीरता और परपरा का सटीक ज्ञान नहीं होता तो उससे इसी प्रकार की भूलें हो जाती हैं। ‘कन्यादान’ का अर्थ तो आज भी ‘विवाह संस्कार करके कन्या देना’ परपरा में है। यह परपरा संस्कृत के इन्हीं श्लोकों से आयी है। पता नहीं डॉ0 अम्बेडकर ने उनकोाी गलत क्यों प्रस्तुत किया?

उपर्युक्त उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया गया है कि भाषा, शदशैली और वैदिक परपरा की वास्तविकता के ज्ञान के अभाव में कैसी-कैसी भयंकर भूलें डॉ0 अम्बेडकर से हुई हैं, और कैसे गलत निष्कर्ष प्रस्तुत हुए हैं। इन श्लोकों में मनु बिल्कुल ठीक थे, किन्तु उन्हें गलत रूप में प्रस्तुत किया गया है। डॉ0 अम्बेडकर के साहित्य में ऐसी दर्जनों भूलें या दुराग्रह और भी हैं। विस्तारभय से यहां उनकी समीक्षा नहीं की जा रही है। यदि उक्त अनर्थ नहीं किये जाते तो डॉ0 अम्बेडकर की आलोचना वस्तुतः निष्पक्ष मानी जा सकती थी, किन्तु अब वह अशुद्ध, दुराग्रहपूर्ण और अप्रामाणिक हो गयी है।

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुमत का समर्थन: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर र वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को दास के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने प्रमाण के रूप में मनु के निनलिखित श्लोकार्थ उद्धृत किये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मनु के मतानुसार वेतन ओर जीविका पाने वाला नौकर या सेवक कभी दास नहीं होता। यदि इनके विरुद्ध वर्णन वाले श्लोक मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे परस्परविरोधी होने से प्रक्षिप्त हैं। डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा प्रस्तुत प्रमाण हैं-

(क) डॉ0 अम्बेडकर र मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्थाओं में आये श्लोकों में पठित ‘दास’ शद का अर्थ सेवक ही करते हैं, जो सर्वथा सही है। पूर्व पंक्तियों में उद्धृत नामकरण संस्कार-सबन्धी श्लोक पर –‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ (2.6-7[2.31-32]) में दास का अर्थ उन्होंने सेवक किया है-

‘‘नाम दो भागों का होना चाहिए….शूद्रों के लिए दास (सेवा)।’’ तथा ‘‘शूद्र का (नाम) ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 58; खंड 7, पृ0 201)

(ख) ‘‘ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपने परिवार (की संपत्ति) में से उसे (शूद्र को) उसकी योग्यता, उसके परिश्रम तथा उन व्यक्तियों की संया के अनुसार, जिनका उसे (शूद्र को) भरण-पोषण करना है, उचित जीविका निश्चित करें(मनुस्मृति 10.124)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 318)

(ग) ‘‘(संन्यासी) मरने या जीने की चाह न करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करता रहे (मनुस्मृति 6.45)।’’ (वही, खंड 8, पृ0 214)

(घ) ‘‘यह सत्य है कि ऋग्वेद में शूद्र का दस्यु या सेवक के अर्थ में उल्लेख हुआ है।……जब तक यह सिद्ध नहीं होता कि ये दोनों (शूद्र, दास) एक ही थे, तब तक ऐसा निर्णय करना कि शूद्र दास बनाए गए, मूर्खता होगी। यह ज्ञात तथ्यों के विरुद्ध भी होगा।’’ (वही, खंड 13, पृ0 86)

जब मनुस्मृति में इतने स्पष्ट वचन हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शूद्र ‘दास’ नहीं थे, फिर केवल प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर मनु का विरोध क्यों? डॉ0 अम्बेडकर र जब उक्त श्लोकार्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत कर रहे हैं तो उसका अभिप्राय है कि उनको वे प्रमाण मान्य हैं जिनमें शूद्रों के दास=गुलाम न होने का कथन है। एकमत होने पर भी मनु का विरोध क्यों? इसका उत्तर अपेक्षित है।

(

मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु ने शूद्रों को निन या अछूत नहीं माना है। उनका शूद्रों के प्रति महान् मानवीय दृष्टिकोण है। ये आरोप वे लोग लगाते हैं जिन्होंने मनुस्मृति को ध्यान से नहीं पढ़ा, या जो केवल ‘विरोध के लिए विरोध करना’ चाहते हैं। कुछ प्रमाण देखें-

(अ) मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं

मनुस्मृति में शूद्रों को कहीं अछूत नहीं कहा है। मनु की शूद्रों के प्रति समान व्यवहार और न्याय की भावना है। मनुस्मृति में वर्णित व्यवस्थाओं से मनु का यह दृष्टिकोण स्पष्ट और पुष्ट होता है कि शूद्र आर्य परिवारों में रहते थे और उनके घरेलू कार्यों को करते थे-

(क) शूद्र को अस्पृश्य (=अछूत), निन्दित मानना मनु के सिद्धान्त के विरुद्ध है। महर्षि मनु ने शूद्र वर्ण के व्यक्तियों के लिए ‘‘शुचि’’ = पवित्र, ‘‘ब्राह्मणाद्याश्रयः’’ = ‘ब्राह्मण आदि के साथ रहने वाला’ जैसे विशेषणों का उल्लेख किया है। ऐसे विशेषणों वाला और द्विजों के मध्य रहने वाला व्यक्ति कभी अछूत, निन्दित या घृणित नहीं माना जा सकता। निनलिखित श्लोक देखिए-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः   मृदुवाक्-अनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘शुचिः= स्वच्छ-पवित्र और उत्तमजनों के संग में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों के आश्रय में रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम जाति=वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ तीनों वर्णों के सान्निध्य में रहने वाला और उनके घरों में सेवा=नौकरी करने वाला कभी अछूत, घृणित या निन्दित नहीं हो सकता।

    (ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन- इस श्लोक का अर्थ डॉ0 अम्बेडकर र ने भी उद्धृत किया है अर्थात् वे इसे प्रमाण मानते हैं-

‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है। (मनु0 9.335)’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 117)

मनु के वर्णनानुसार शूद्र शुद्ध-पवित्र थे, वे ब्राह्मणादि द्विजों के सेवक थे और उनके साथ रहते थे। इस प्रकार वे अस्पृश्य नहीं थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है शूद्र आर्य परिवारों के अंग थे क्योंकि वे आर्य वर्णों के समुदाय में थे। इस श्लोकार्थ के उद्धरण से यह संकेत मिलता है कि डॉ0 अम्बेडकर र यह स्वीकार करते हैं कि मनुमतानुसार शूद्र अस्पृश्य नहीं है। अस्पृश्य होते तो मनु उनको आर्य परिवारों का सेवक या साथ रहने वाला वर्णित नहीं करते।

(ग) शूद्रवर्णस्थ व्यक्ति अशिक्षित होने के कारण ब्राह्मणों सहित सभी द्विजवर्णों के घरों में सेवा या श्रम कार्य करते थे। घर में रहने वाला कभी अछूत नहीं होता। मनु ने कहा है-

    विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्

    शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥ (9.334)

    अर्थ-वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी कर्त्तव्य है।

डॉ0 अम्बेडकर द्वारा शूद्रों के आर्यत्व का समर्थन-डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर र मनु की मान्यता को उद्धृत करते हुए दृढ़ता से शूद्रों को आर्य तथा सवर्ण मानते हैं। उन्होंने उन लेखकों का जोरदार खण्डन किया है जो शूद्रों को अनार्य औेर ‘बाहर से आया हुआ’ मानते हैं। यह मत उन्होंने दर्जनों स्थानों पर व्यक्त किया है। यहां कुछ प्रमुख मत उद्धृत किये जा रहे हैं-

(क) ‘‘दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गयी है कि शूद्र अनार्य थे। किन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में इस सबन्ध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 319)

(ख) ‘‘धर्मसूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धान्त मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 42)

(ग) ‘‘शूद्र आर्य ही थे अर्थात् वे जीवन की आर्य पद्धति में विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में उन्हें आर्य कहा गया है। शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न जन्मजात और समानित सदस्य थे।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 322)

(घ) ‘‘आर्य जातियों का अर्थ है चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। दूसरे शदों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते हैं।’’ (वही, खंड 8 पृ0 217)

(ङ) ‘‘मनुस्मृति 10.4 श्लोक (ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः …जो इसी अध्याय के आरभ में उद्धृत है) दो कारणों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसमें शूद्रों को दस्यु से भिन्न बताया गया है। दूसरे, इससे पता चलता है कि शूद्र आर्य हैं।’’ (वही, खंड 8, पृ0 217 पर टिप्पणी)

(च) ‘‘शूद्र सूर्यवंशी आर्यजातियों के एक कुल या वंश थे। भारतीय आर्य-समुदाय में शूद्र का स्तर क्षत्रिय वर्ण का था।’’

(वही, खंड 13, पृ0 165)

(छ) ‘‘सवर्ण का अर्थ है चारों वर्णों में से किसी एक वर्ण का होना। अवर्ण का अर्थ है चारों वर्णों से परे होना। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सवर्ण हैं।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 15)

(ज) ‘‘जो चातुर्वर्ण्य के अन्तर्गत होते थे, उच्च या निन, ब्राह्मण या शूद्र, उन्हें सवर्ण कहा जाता था अर्थात् वे लोग जिन पर वर्ण की छाप होती थी।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय खंड 6, पृ0 181)

महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र आर्य और सवर्ण थे, शूद्र सबन्धी इन सिद्धान्तों में डॉ अम्बेडकर र ने मनु का नाम लेकर उनके मत का समर्थन किया है, फिर भी मनु का विरोध क्यों? मनुस्मृति-विरोधियों से इस प्रश्न का उत्तर अपेक्षित है।

डॉ अम्बेडकर का जाति उद्भव सबन्धी मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ अम्बेडकर बुद्ध (550 ईसा पूर्व) के लगभग जन्मना जातिव्यवस्था का उदव मानते हैं। यद्यपि तब तक व्यवहार में लचीलापन था किन्तु असमानता का भाव आ चुका था। जातिवादी कठोरता का समय वे पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0पू0) नामक ब्राह्मण राजा के काल को मानते हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था महाभारत काल तक प्रचलित थी, इसके प्रमाण और उदाहरण महाभारत और गीता तक में मिलते हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने शान्तनु क्षत्रिय और मत्स्यगंधा शूद्र-स्त्री के विवाह का उदाहरण देकर इस तथ्य को स्वीकार किया है (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 175, 195)। उससेाी आगे बौद्ध काल तक भी अन्तर-जातीय विवाह और अन्तर-जातीय भोजन का प्रचलित होना उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘‘जातिगत असमानता तब तक उभर गयी थी’’ (वही, पृ0 75)। डॉ0 अम्बेडकर यह भी मानते हैं कि ‘‘तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी’’ (वही, पृ0 75)। उनके मत ध्यानपूर्वक पठनीय हैं-

(क) ‘‘बौद्धधर्म-समय में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी और उसमें गुंजाइश थी………किसी भी वर्ण का पुरुष विधिपूर्वक दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता था। इस दृष्टिकोण की पुष्टि में अनेक दृष्टान्त उपलध हैं’’ (वही, खंड 7, पृ0 175)।

(ख) ‘‘इन दो नियमों ने जातिप्रथा को जन्म दिया। अन्तर-विवाह और सहभोज का निषेध दो स्तंभ हैं, जिन पर जातिप्रथा टिकी हुई है’’ (वही, खंड 7, पृ0 178)।

(ग) ‘‘वास्तव में जातिप्रथा का जन्म भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिलने के बहुत बाद में हुआ’’(वही, खंड 1, पृ0 67)

(घ) ‘‘बुद्ध ने जातिप्रथा की निंदा की। जातिप्रथा उस समय (550 ई0पू0) वर्तमान रूप में विद्यमान नहीं थी। अन्तर्जातीय भोजन और अन्तर्जातीय विवाह पर निषेध नहीं था। तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी। किन्तु असमानता का सिद्धान्त, जो कि जातिप्रथा का आधार है, उस समय सुस्थापित हो गया था और इसी सिद्धान्त के विरुद्ध बुद्ध ने एक निश्चयात्मक और कठोर संघर्ष छेड़ा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 75)

(ङ) ‘‘जिज्ञासु सहज ही यह पूछेगा कि (185 ई0 पूर्व पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद) ब्राह्मणवाद ने विजयी होने के बाद क्या किया?……….’’ (3) इसने वर्ण को जाति में बदल दिया।………(6) इसने वर्ण-असमानता की प्रणाली को थोप दिया और इसने सामाजिक व्यवस्था को कानूनी और कट्टर बना दिया, जो पहले पारंपरिक और परिवर्तनशील थी।’’ (वही खंड 7, पृ0 157)

(च) ‘‘ब्राह्मणवाद अपनी विजय के बाद मुय रूप से जिस कार्य में जुट गया, वह था वर्ण को जाति में बदलने का कार्य, जो बड़ा ही विशाल और स्वार्थपूर्ण था।’’ (वही खंड 7, पृ0 168)

(छ) डॉ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना है कि ‘‘तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राह्मणों ने जाति-संरचना की।’’ (वही, खंड 1, पृ. 29)

(ज) ‘‘उपनयन के मामले में ब्राह्मणवाद ने जो मुय परिवर्तन किया, वह था उपनयन कराने का अधिकार गुरु से लेकर पिता को देना। इसका परिणाम यह हुआ कि चूंकि पिता को अपने पुत्र का उपनयन करने का अधिकार था, इसलिए वह अपने बालक को अपना वर्ण देने लगा और इस प्रकार उसे वंशानुगत बना दिया। इस प्रकार वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’

(वही, खंड 7, पृ0 172)

इससे यह निष्कर्ष निकला कि बौद्धकाल तकाी जाति-व्यवस्था नहीं पनप पायी थी। तब तक प्राचीन वर्णव्यवस्था का ही समाज पर अधिक प्रभाव था। इससे एक निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सामने आता है कि हजारों पीढ़ी पूर्व जो आदिपुरुष मनु हुए हैं, उनके समय में जाति-पांति व्यवस्था का नामो-निशानाी नहीं था। उस समय विशुद्ध गुण-कर्म पर आधारित वैदिक वर्ण-व्यवस्था थी, जिसकी डॉ. अम्बेडकर ने गत उद्धरणों में प्रशंसा की है। अतः मनु पर जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का आरोप किंचित् मात्र भी नहीं बनता। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

मनुस्मृति के सन्दर्भ में डॉ भीमराव अम्बेडकर और आर्यसमाज

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने मनुस्मृति का कटु विरोध क्यों किया ? इस प्रश्न को गहराई से समझने के लिए उन अपमान जनक घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जो अस्पृश्य समाज को स्पृश्य समाज की ओर से समय-समय पर सहन करनी पड़ीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1927 के अन्त में मनुस्मृति जलाई गई, उसी वर्ष के मार्च महीने में महाराष्ट्र के ’महाड़‘ (जिला-रायगढ़) नामक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकरजी के नेतृत्व में एक तालाब पर सामूहिक रूप में पानी पीने का साहसी सत्याग्रह किया गया। परिणामस्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज क्षुब्ध हो उठा। ’ज्ञानप्रकाश‘ समाचार पत्र के 27/3/1927 के अंक में दिये गये समाचार के अनुसार 21 मार्च 1927 को वह तालाब तथाकथित वेदोक्त विधि से शुद्ध किया गया। उसी समय सवर्ण समाज द्वारा अस्पृश्य समाज की प्रतिशोधात्मक भावना से मारपीट भी की गई। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनुभूत इस प्रकार की घटनाओं से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अतिशय दुःखी थे। उन्हें इस बात का दुःख था कि अस्पृश्य समाज को एक सामान्य मनुष्य के नाते जो जीवन जीने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए, वह भी उसे मिला नहीं है।

 

डॉ0 अम्बेडकरजी की यह धारणा बनी कि समाज में प्रचलित विषमतायुक्त धारणाओं की पृष्ठभूमि में ’मनुस्मृति‘ है, अतः उन्होंने 24 दिसम्बर 1927 को महाड़ सत्याग्रह परिषद के अवसर पर रात 9 बजे प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृति जलवाई थी। मनुस्मृति चातुर्वण्र्य के सिद्धान्त का समर्थन करती है और डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार जन्मना चातुर्वण्र्य का सिद्धान्त विषमता की नींव पर आधारित है, इसलिए उन्होंने ’असमानता‘ का समर्थन करनेवाली मनुस्मृति के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए उसे जलवाना आवश्यक समझा।

तत्पश्चात् आठ वर्ष की कालावधि में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं क डॉ0 अम्बेडकरजी ने विवश होकर धर्मान्तर की घोषणा कर दी। नासिक (महाराष्ट्र) के जिस कालाराम मन्दिर में स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिसम्बर 1874 में व्याख्यान हुए थे, उसी कालाराम मन्दिर में प्रवेश पाने के लिए माननीय डॉ0 अम्बेडकर के मार्गदर्शन में 3 मार्च 1930 से अक्टूबर 1934 तक लगभग 6 साल सत्याग्रह किया गया, फिर भी अस्पृश्य समाज को मन्दिर में प्रवेश नहीं मिल पाया। डॉ0 अम्बेडकरजी ने नासिक जिले के ही येवला नगर में जो धर्मान्तर करने की घोषणा की, उसकी पृष्ठभूमि में भी 6 साल तक चली कालाराम मन्दिर की सत्याग्रह की घटना रही है। 13 अक्टूबर 1935 को येवला में दिये अपने भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने घोषणा की कि-’मैं हिन्दू के रूप में जन्मा जरूर हूँ, पर हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।

सामान्य और भक्त कोटि के अनुयायियों को ध्यान में रखकर तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति का विरोध किया, अतः आज उनके अनुयायी भी मनुस्मृति का विरोध कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे स्वामी दयानन्द ने वेदानुकूल मनुस्मृति का समर्थन किया तो उनके आर्यसमाजी अनुयायी भी ˗प्रक्षिप्त श्लोक विरहित विशुद्ध मनुस्मृति का समर्थन करते हुए दिखलाई देते हैं। अनुयायियों का मत अनुयायितव पर आधारित होता है। ज्ञान की गहराई में बैठकर अपने मत को नेता के वैचारिक निष्कर्ष तक या उससे और आगे ले जाना सामान्य सामथ्र्यवाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए आठ प्रमाणों में से एक प्रमाण आप्त प्रमाण की शरण लेनी पड़ती है। दोनों भी समाज सुधारकों के अनुयायी सैद्धान्तिक तौर पर जन्मना वर्ण व्यवस्था, जातिगत भेद-भाव और अस्पृश्यता के विरोधी हैं। दोनों भी पक्षों को अपने-अपने ढंग से कार्य करते हुए क्या-क्या हानि-लाभ हुआ ? इन सब तथ्यों का विश्लेषण तो एक स्वतन्त्र पुस्तक का विषय होगा। आर्यसमाज के मनुस्मृति विषयक दृष्टिकोण को पौराणिक रूढ़िवादी प्रवृत्ति का आम हिन्दू आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

समाज-सुधार के पथ पर चलना वस्तुतः एक तपस्या है। हम अपने नेताओं की जय-जयकार तो करने के लिए तैयार है, पर उनके तपोमय संघर्षशील पथ का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि हम सुख-सुविधा भोगी हैं। जय लगाना तो आसान है, पर सिद्धान्तों को व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतार पाना बड़ा कठिन है। सामान्य समाज तो एकदम नहीं, धीरे-धीरे बदलता है। जो द्विज वेदाध्ययन हेतु परिश्रम के लिए तैयार नहीं है, वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है। मनु के इस वचन (2.1.43) को स्वामी दयानन्द ने भी उद्धृत किया है। स्वामीजी ने संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण में लिखा है –

”सब संस्कारों में मधुर स्वर से वैदिक मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे, न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्यभाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने (‘ईश्वर स्तुति, प्रार्थना, उपासना’, ’स्वस्तिवाचन‘, ’शांतिकरण‘ और ’हवन‘ के) मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकत्र्ता, जड़, मंदमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करे और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावे।“(-सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक-पृ0 37)

स्वामीजी के उपरोक्त कथन का सार यह है कि ’संस्कारविधि‘ के सामान्य प्रकरण में निर्दिष्ट और संग्रहीत चारों वेदों से चुने हुए मन्त्रों का जो सामान्य पाठ नहीं कर सकता, वह शूद्र है। स्वामीजी की इस कसौटी पर आर्यसमाज के सदस्यों को कसा जाए तो अनेक आर्यसमाजियों की गणना तो शूद्र कोटि में ही करनी होगी। आर्यसमाज में चारों वेदों के सस्वर मन्त्रोच्चारण करनेवाले बड़ी मुश्किल से हाथ की उंगली पर गिने जाने योग्य कुछ विरले ही वेदपाठी होंगे।

आर्यसमाज के संस्थापक के उदात्त सपनों को साकार करने के सम्बन्ध में आर्यसमाज के सदस्यों का कद भी बौना साबित हो रहा है। व्यक्तित्व के बौने होने पर भी प्रगति की दिशा में अग्रसर होने के लिए ध्येय का उदात्त होना बहुत जरूरी है, उसे बौना करने की आवश्यकता नहीं है। जब आर्यसमाजी ही वैदिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में असमर्थ साबित हो रहा है, तो आम हिन्दू या सामान्य व्यक्ति द्वारा आर्यसमाज की मान्यताओं को स्वीकार करने की बात तो अभी कोसों दूर है। हाँ, कुछ सीमा तक आर्यसमाज की बात को हिन्दुओं ने ही नहीं, अपितु समाज के अन्य मत मतान्तर के लोगों ने भी निश्चित रूप से स्वीकार किया है।

लगभग एक दशक से राजनीति में ’मनुवाद‘ शब्द बहुत अधिक ˗प्रचलित हुआ है। राजनीति में जिन्होंने इसका ˗प्रचलन किया है। वे मनुवाद को प्रगतिशीलता के अर्थ में नहीं, अपितु ˗प्रतिगामीपन के पक्ष में प्रचलित करने में जुटे हुए हैं। जो यह मानकर चलते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षिप्त हुआ है, वे प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर मनुस्मृति स्वीकार करने योग्य मानते हैं और मनुवाद का अर्थ ˗प्रगतिशीलता के पक्ष में ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार मनु महाराज की दृष्टि में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु गुण कर्म-स्वभाव के अनुसार है। महिलाओं के साथ शूद्रों की भी शिक्षा और मान-सम्मान के मनु पक्षधर हैं। आर्यसमाज के क्षेत्र में मनुवाद का अर्थ प्रगतिशीलता ही है।

मनु समर्थक पक्ष

24 जुलाई, 1875 को महाराष्ट्र की विद्यानगरी पुणे में इतिहास विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था-’अब मनुजी का धर्मशास्त्र कौन-सी स्थिति में है, इसका विचार करना चाहिए। जैसे-ग्वाले लोग दूध में पानी डालकर उस दूध को बढ़ाते हैं और मोल लेनेवाले को फँसाते हैं। उसी प्रकार मानव धर्मशास्त्र की अवस्था हुई है। उसमें बहुत से दुष्ट क्षेपक (˗प्रक्षिप्त) श्लोक हैं, वे वस्तुतः भगवान् मनु के नहीं हैं। मनुस्मृति की पद्धति से मिलाकर देखने से वे श्लोक सर्वथैव अयोग्य दिखते हैं। मनु सदृश श्रेष्ठ पुरुष के ग्रन्थ में अपने स्वार्थ साधन के लिए चाहे जैसे वचनों को डालना बिलकुल नीचता दिखलाना है।˗‘ (उपदेश मंजरी, सम्पादक, राजवीर शास्त्री: पृष्ठ-57)। स्वामीजी के इस वक्तव्य की व्याख्या करते हुए पं0 गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने लिखा है कि ’पानी अगर गंदला है तो उसके छानने का उपाय सोचना चाहिए। गंदलेपन को देखकर पानी से असहयोग करना तो मूर्खता होगी। विद्वानों को चाहिए कि अपने ग्रन्थों को शोधें, क्षेपकों को दूर करें, और जनता को फिर मनुरूपी भेषज (औषधि) से लाभ उठाने का अवसर देवें। (सार्वदेशिक: अगस्त-1948 पृष्ठ 259-60)।

डॉ0 सोमदेव शास्त्री के अनुसार-’श्री मेधातिथि (नौंवी शताब्दी) की टीका से कुल्लूक भट्ट (बारहवीं शताब्दी) की टीमा में 170 श्लोक अधिक हैं। तीन सौ वर्षों के समय में इन श्लोकों की मिलावट हो गई है। श्री मेधातिथि के समय पाँच सौ पाठभेद तथा श्री कुल्लूक भट्ट के समय के 650 पाठभेदों से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति में समय-समय पर प्रक्षेप होता रहा है।‘ (स्मृति सन्देश: पृष्ठ-7)। पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के अनुसार कुछ श्लोक मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट आदि के भाष्यों में नहीं हैं, पर वर्तमान मनुस्मृति में हैं। (मनुस्मृति: भूमिका और अनुवाद-पृष्ठ 24)।

मनुस्मृति आदि ग्रन्थों की तुलना में वेदों की प्रामाणिकता स्वामी दयानन्द की दृष्टि में सर्वोपरि थी। मनुस्मृति का प्रक्षिप्त भाग छोड़ने के बाद जो विशुद्ध वेदानुकूल भाग शेष रह जाता है, उसे ही उन्होंने प्रमाण योग्य माना है। स्वलिखित ग्रन्थों में उन्होंने मनुस्मृति के 514 श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। महर्षि दयानन्द का अनुसरण करते हुए आर्य विद्वानों ने भी अपनी-अपनी समालोचनाओं के साथ मनुस्मृति के अनेक संस्करण प्रकाशित किये-पं0 भीमसेन शर्मा, पं0 आर्यमुनि, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 हरिश्चन्द्र विद्यालंकार ने क्रमशः ’मानव धर्म शास्त्रम्‘ (1893-99) मानवाय्र्य भाष्य (1914) ’मनुस्मृति‘ (द्वितीय संस्करण-1959) ’मनुस्मृति भाषानुवाद‘ (?) आदि टीकात्मक ग्रन्थों की रचना की। श्री जगन्नाथदास, महात्मा हंसराज, महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), डॉ0 सोमदेव शास्त्री आदि ने छात्रों एवं सामान्य जनता की दृष्टि में ’मानव-धर्म-विचार‘ (1883) ’मानव-धर्म-सार‘ (1890) ’वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति‘ (1911) ’स्मृति सन्देश‘ (1996) आदि मनुस्मृति के संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किये। पं0 बुद्धदेवजी विद्यालंकार, महात्मा मुंशीरामजी, पं0 जगदेव सिंहजी सिद्धान्ती, पं0 भगवद्दत्त रिसर्च स्कासॉलर तथा डॉ0 सुरेन्द कुमार जी ने मनुस्मृति से सम्बन्धित मनु और मांस (1916) ’मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धतियाँ‘ (1917) ’मनु को स्वीकार करना होगा‘ (1951) ’मनुष्य मात्र का परम मित्र स्वायम्भुव मनु‘ (1962) तथा ’मनु का विरोध क्यों‘ (1995) और ’महर्षि मनु तथा डॉ0 अम्बेडकर‘ ( ) नामक रचनाएँ लिखीं।

 

मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने का उल्लेखनीय कार्य पं0 तुलसीराम स्वामी, पं0 चन्द्रमणि विद्यालंकार, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं0 सत्यकाम सिद्धान्त शास्त्री और डॉ0 सुरेन्द्र कुमारजी ने क्रमशः ’मनुस्मृति भाष्य‘ (1908’1922) ’आर्ष मनुस्मृति‘ (1917) ’मनुस्मृतिः भूमिका और भाष्य‘ (1937) वैदिक मनुस्मृति (1948) और ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ (1981) के माध्यम से किया। डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ में प्रक्षिप्त श्लोकों को विशेष चिह्न के साथ प्रकाशित किया है और ’विशुद्ध मनुस्मृति‘ (1981) में प्रक्षिप्त समझे गये श्लोकों को प्रकाशित करना ही आवश्यक समझा है। उनके द्वारा सम्पादित ’मनुस्मृति‘ (संस्करण 1995) के अनुसार मनुस्मृति के कुल श्लोकों की संख्या 2685 है, इनमें मौलिक श्लोक 1214 और ˗प्रक्षिप्त श्लोक 1471 हैं। उन्होंने विषय विरोध, प्रसंग विरोध, अन्तर् (परस्पर) विरोध, पुनरुक्तियाँ, शैली विरोध, अवान्तर विरोध, वेद विरोध नामक सात आधारों पर 1471 श्लोकों को स˗प्रमाण प्रक्षिप्त सिद्ध किया है। डॉ0 भवानीलाल भारतीय के अनुसार मनुस्मृति के विस्तृत भाष्य में डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी ने प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करने के लिए विशिष्ट तार्किक प्रक्रिया को अपनाया है। डॉ0 सोमदेव शास्त्री के शब्दों में ’मनुस्मृति‘ का तलस्पर्शी अध्ययन करनेवाले डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से उसमें विद्यमान प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करके मनुस्मृति का यथार्थ स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का श्लांघनीय कार्य किया है। पं0 राजवीर शास्त्री की दृष्टि में-’यदि मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त निकालने का कार्य महूष के भक्त आर्यों के द्वारा पहले से सम्पन्न हो जाता तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश का संविधान बनानेवाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे व्यक्तियों को भी इस ग्रन्थ के प्रति अपनी मिथ्या धारणा को अवश्य ही बदलना पड़ता। इस उपेक्षावृत्ति के लिए हम आर्यबंधु भी कम दोषी नहीं है।‘ (विशुद्ध मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली: 26 दिसम्बर, 1871: पृष्ठ-3-7)।

 

मनु विरोधी पक्ष

माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले की त्रिमूर्ति का शिष्यत्व स्वीकार कर उन्हें अपना गुरु माना है। फुलेजी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर मनुस्मृति का विरोध किया है। वे अपने ’तृतीय रत्न‘ (लेखनकाल सन् 1855 तथा प्रकाशन काल 1879) नाटक में रूढ़िवादी ब्राह्मणों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-’आपके ही पूर्वज मनु के कानून दिखाकर हमें यह कहते रहे कि आप लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं है, फिर क्या वे लोग मनु का कानून तोड़कर अपने बच्चों को स्कूल भेजते ? तब आप लोगों ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया, अब उन्हीं के वंशजों में ऐसे लोग उत्पन्न हो रहे हैं, जो मनु के कानून की उपेक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं। (महात्मा फुले समग्र वाड्.मय-पृ0 28)। महात्मा फुलेजी का दूसरा ग्रन्थ हैं-’गुलामगिरी‘ (1873) इसमें ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‘ मन्त्र पर फुलेजी ने अपनी ग्राम्य शैली में व्यंग्य किया है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मण को जन्म देनेवाला ब्रह्मा का मुख ऋतु (आर्तव) काल में चार दिन अलग-थलग बैठता था या भस्म लगाकर घर के काम-काज करता था, इस विषय में मनु ने कुछ लिखा है या नहीं। (तत्रैव-पृ0 142)।‘ ’शेतकर्याचा आसूड‘ (अर्थात्-किसान का चाबुक) (1883) नामक ग्रन्थ में महात्मा फुलेजी ने लिखा है-ब्राह्मणों ने मनु संहिता जैसा मतलबी ग्रन्थ लिखकर शूद्र किसानों के विद्याध्ययन पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें लूटा है। (तत्रैव-पृष्ठ 265)। इसी प्रकार अपने ’सत्सार‘ (1885) नामक ग्रन्थ में तो उन्होंने यह प्रतिपादित करने की कोशिश की है कि ’मनुस्मृति‘ ने शूद्रातिशूद्रों का किस प्रकार सर्वनाश किया है ? (तत्रैव-354)। अपने अन्तिम ग्रन्थ ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ (1891) में वे लिखते हैं-”यदि शूद्रातिशूद्रों ने भट्ट ब्राह्मणों के साथ मनुसंहिता के समान उसी प्रकार का नीचतापूर्ण व्यवहार करना शुरु कर दिया, जैसा वे आज तक उनके साथ करते  आये हैं, तो उन्हें कैसा प्रतीत होगा ?“ (तत्रैव-451)।

महात्मा फुलेजी की शैली में ही डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने अपने ’मनु एण्ड द शूद्राज‘ लेख के अन्त में लिखा है कि ’ब्राह्मण को शूद्र के स्थान पर बिठलाया जाएगा, तभी मनुप्रणीत निर्लज्ज तथा विकृत मानवधर्म का निवारण हो सकता है।‘ (राइटिंग्ज एण्ड स्पीचेस ऑफ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर-पृ0 719)। ‘रिडलस इन हिन्दूइज्म‘ के तृतीय खण्ड का ’ मॉडल ऑफ द हाउस‘ नामक प्रकरण मनुस्मृति पर आधारित है। उसमें डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं, ’मनु प्रणीत वर्ण व्यवस्था में विद्रोह करने का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को है, शूद्र को नहीं, किन्तु समझ लो यदि क्षत्रिय शस्त्रों की सहायता से इस व्यवस्था को मिटाने क लिए विद्रोह करने के वास्ते खड़ा हो जाए तो उन्हें दण्डित करने के लिए मनु ने ब्राह्मण को शस्त्र उठाने की अनुमति दी है। वर्ण-व्यवस्था को अबाधित रखने के लिए मनु ने अपनी मूलभूत नीति में परिवर्तन किया है, अर्थात् ब्राह्मण को शस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। मनु प्रणीत वर्ण-व्यवस्था से त्रिवर्ण ही लाभान्वित है। उससे शूद्र को कोई लाभ नहीं। त्रिवर्णों में भी ब्राह्मण सर्वाधिक लाभान्वित है। डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में मनु पक्षपाती हैं, अतः विषमता फैलानेवाली मनुस्मृति का विरोध वे अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी मानते हैं।‘

शुद्धि का योग्य समय:किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए:डॉ अम्बेडकर

देश विभाजन और हैदराबाद मुक्ति संग्राम के विकट काल में डॉ0

अम्बेडकरजी उत्सुकता से आर्यसमाजी नेताओं की प्रतीक्षा में थे ।

शुद्धि का योग्य समय:

किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए

जातिभेद व विषमता की उपेक्षा करके शुद्धि अभियान के पाखण्डी पक्ष पर आक्षेप होते हुए भी अन्य परिस्थितियों में इच्छानुसार शुद्धि अथवा धर्मांतर करने के विषय में बाबासाहब को आपत्ति होने का कोई कारण नहीं था, प्राचीन काल में हिन्दू धर्म यह मिशनरी धर्म था, इन शब्दों में उन्होंने उसकी प्रशंसा ही की थी (5-423)। स्वयं उन्होंने धर्मान्तर का निर्णय घोषित किया था, तब शुद्धि अथवा धर्मांतर के प्रति वे सरसरी तौर पर नफरत की दृष्टि से नहीं देखते, अपितु उसकी गुणवत्ता के आधार पर उसका विचार करते हैं, जब शुद्धि की, अर्थात् धर्मांतरित व्यक्तियों को अपने मूल धर्म में लाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तब उन्होंने उसका समर्थन ही किया था। देश-विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान के अस्पृश्यों को जबर्दस्ती मुस्लिम बनाया जा रहा था। वैसी ही दुर्दशा निजाम के हैदराबाद रियासत में शुरु हो गई थी। दिनांक-18 नवम्बर 1947 को परिपत्र निकालकर बाबासाहब ने इन सबको भारत में या हिन्दू प्रान्त में आने का आह्वान किया था, इन सबकी शुद्धि कर फिर से हिन्दू धर्म में मिलाने की व्यवस्था करने की व पूर्ववत् उनके साथ आचरण करने का आश्वासन भी उन्होंने उन्हें दिया था (9-349)।

सन् 1947 में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के, हिन्दुओं की मार से बचने के लिए मुसलमान चोटी रखने लगे, माथे पर तिलक लगाने लगे, तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री सोहनलाल शास्त्री से बाबासाहब ने कहा था-”किसी एक आर्यसमाजी नेता को मेरे पास ले आइए। मैं उन्हें समझाकर बतलाऊँगा कि, अब ऐसा समय आ गया है कि उन्हें (मुसलमानों को) हिन्दुओं में शामिल कर लेना चाहिए, वे बेचारे बच जाएँगे और हिन्दुओं की संख्या भी बढ़ेगी“ (41-172)।

’जाति विनाशक हिन्दू संगठन‘ को महत्त्व न देकर शुद्धि करनेवाले लोगों पर डॉ0 बाबासाहब टूटकर पड़ते हैं, दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ऐसे लोगों को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं-”संगठन व शुद्धि, अर्थात् संभाव्य लफंगेगिरी है“ (244)।“ स्पष्ट विरोध करनेवाले पुराण-मतवादी सह्म हैं, परन्तु शुद्धि संगठनवाले ढोंगी इनसे अधिक भयंकर हैं“ ऐसा वे उन पर आक्षेप करते हैं। ये ही (ढोंगी लोग) सम्प्रति संगठन में घुस गये हैं। स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन को इन ढोंगियों ने विकृत कर दिया है-उन्हें लात मारकर बाहर निकालने के सिवाय इस शुद्धि आन्दोलन में वास्तविक जोर नहीं आ पाएगा (244)। 4, नवम्बर, 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ’आर्यसमाज व हिन्दू महासभेची गट्टी‘ (मित्रता) नामक बाबासाहब की टिप्पणी इस सन्दर्भ में पठनीय है। ”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एकवर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह ही शुद्धि अभियान के पीछे लगा है।“ इस प्रकार की जो उसमें उन्होंने आलोचना की है, वह अत्यन्त मुखर और स्पष्ट है (112)। एकवर्णी हिन्दू समाज से उनका तात्पर्य हिन्दू संगठन से है। यह उनका समीकरण-सामंजस्य प्रत्येक पाठक को हरेक स्थान पर दिखलाई देगा।

सन्दर्भः- लेखक-श्री शेषराव मोरे: डॉ0 आम्बेडकरांचे सामाजिक धोरण-एक अभ्यास। प्रकाशक-राजहंस प्रकाशन 1025, सदाशिव पेठ, पुणे-411030, मराठी ग्रन्थ, प्रथमावृत्ति, जून-1998, मूल्य-350।

गुण श्रेष्ठ है या जाति श्रेष्ठ?

(डॉ अम्बेडकर जी द्वारा डी. ए. वी. कॉलेज-लाहौर के संचालकों का अभिनन्दन)

”एक बार की बात है, नागपुर कॉलेज में पढ़ रहा एक ’महार‘ विद्यार्थी प्रधानाचार्य के पास गया तथा अपने घर की ओर लौट जाने की अनुमति माँगते हुए उसने उनसे कहा कि-’ब्राह्मण से हमारा झगड़ा हो गया है और मैं एकाध ब्राह्मण की हत्या कर सका तो यह समझूँगा कि मेरा जन्म सार्थक हो गया है।‘ यह इस बात का प्रमाण है कि पददलित, पीड़ित, व्यथित, युवा दलित सुशिक्षित हो तो उसके मन में क्या-क्या और कैसे-कैसे भाव उत्पन्न हो जाते हैं, यह उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट और सिद्ध है।

लाहौर स्थित एक चमार जाति के लड़के का भी इसी प्रकार का अपमान हुआ और इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं कि उसके भी मन में उक्त ’महार‘ छात्र की तरह ही विचार उत्पन्न हुए हों। पर यह आनन्द की बात है कि उसकी क्रोधाग्नि पर शीघ्र ही साम-दण्ड के जल का सिंचन हो जाने से वह शांत हो गया। यह चमार-विद्यार्थी विगत जून महीने में मॅट्रिक्युलेशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ व अग्रिम अध्ययन के लिए लाहौर स्थित दयानन्द कॉलेज में उसने अपना नाम प्रविष्ट कराया। किसी कारणवश प्रस्तुत कॉलेज से संलग्न छात्रावास में रहना उसके लिए अनिवार्य हो गया। पर ˗प्रस्तुत छात्रावास के (सभी) सौ पाचकों ने शिकायत सी करते हुए कहा कि-’चमार लड़के को न तो हम खाना परोसेंगे और न ही उसके झूठे बर्तन उठाएँगे।‘ कॉलेज के प्रधानाचार्यजी ने इन तिलमिलाए, बदहवास हुए ’ब्राह्मण्यग्रस्त‘ रसोइयों को यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि-’यह कॉलेज आर्यसमाज का है तथा आर्यसमाज जातिभेद जन्य ऊँच-नीच युक्त भेदभाव को बिलकुल भी नहीं मानता है।‘ इत्यादि तथ्यों द्वारा बहुत ही समझाने की कोशिश की, पर विविध ˗प्रकार के उपाय करने के बावजूद भी रसोइयों को प्रधानाचार्य की बात समझ में नहीं आ रही थी। वे सब हड़ताल पर उतर आये और उन्होंने यह धमकी दे डाली कि-’चमार लड़के को निकालो, अन्यथा हम सब अपना काम छोड़कर चले जाएँगे।‘ इस प्रकार संघर्ष पर उतारू हुए रसोइयों की समस्या प्राचार्यजी ने छात्रावासीय समिति के सामने प्रस्तुत की और समिति ने रसोइयों को ही सेवा कार्य से मुक्त करने का निर्णन ले लिया। इस निर्णय के कारण हम दयानन्द कॉलेज लाहौर के तत्त्वनिष्ठ, सिद्धान्त प्रिय संचालकों का अभिनन्दन करना अत्यावश्यक समझते हैं।

हिन्दू धर्म की जो लघु व्यवसाय करनेवाली कुछ शूद्र जातियाँ हैं, उनके अपने आन्तरिक, ’ब्राह्मण्यत्त्व‘ का इतना घमण्ड है कि दलित जाति के व्यक्तियों का पैसा लेकर भी उनका काम करने से वे बिलकुल इंकार कर देती हैं। धोबी कहता है-मैं कपड़े नहीं धोऊंगा, नाई कहता है-मैं हजामत नहीं करूंगा, नगाड़ेवाला कहता है-मैं बाजे नहीं बजाऊंगा। इस सबके पीछे पैसे न मिलने का कारण नहीं है, अपितु यह मिथ्या धारणा है कि दलितों की सेवा करने से हमारी प्रतिष्ठा भंग हो जाएगी।

इन लोगों को किसी न किसी ने, कभी न कभी तो यह सीख देनी ही चाहिए थी कि-’सम्मान केवल गुणों पर आश्रित है, जाति पर नहीं।‘ अच्छा हुआ कि यह शिक्षा दयानन्द कॉलेज लाहौर के व्यवस्थापकों ने दी। कुल के मिथ्याभिमान का आश्रय लेकन गुणवान् को तिरस्कृत करने की कामना रखने वाले गुणहीनों के दिलो-दिमाग को इस प्रकार ठिकाने लगाना तो अत्यन्त ही योग्य है।

हमें यहाँ इतना ही बुरा प्रतीत होता है कि ये बेचारी, नासमझ, नादान, बावली, पागल जातियाँ ’ब्राह्मण्य‘ की उपासक होने की वजह से थोथी, पाखण्डों, साम्प्रदायिक धारणाओं के कारण अपने जीवन की सार्थकता को खो रहीं हैं। जीवन के वास्तविक तात्पर्य से वंचित हो रही हैं। पथभ्रष्ट होकर अपने सही जीवनानन्द को गवाँ रही हैं, पर इन निराधार हुए रसोइयों की किसी को भी किसी प्रकार चिन्ता करने का कोई कारण हमारी दृष्टि में शेष नहीं है। कहते हैं कि स्वार्थ की परवाह न करते हुए (तथाकथित) धर्म की रक्षा करने के कारण उन रसोइयों की पीठ थपथपानेवाले ’भाला‘ पत्र के सम्पादक (श्री भास्कर बलवंत भोपटकर) उनका आजन्म पालन-पोषण करने वाले हैं।“

सन्दर्भ:- (1) पाक्षिक पत्र ’बहिष्कृत भारत‘, दिनांक 15 जुलाई, 1927, वर्ष प्रथम, अंक-81। (2) डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर आणि अस्पृश्चांची चलवल अभ्यासाची साधने। खंडदोन। डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकरांचे ’बहिष्कृत भारत‘ (1927-1929) आणि ’मूकनायक‘ (1920)। सम्पादक-वसंत मून। प्रकाशक-एज्युकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ महाराष्ट्र। संस्करण-1990। पृष्ठ 62/17, 68/6। अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।

पं. रघुनाथप्रसाद पाठक और डॉ. अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

आर्यसमाज की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था-’सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा‘ के मुखपत्र ’सार्वदेशिक‘ का उसके जन्म काल (1927) से ही सम्पादन कर रहे, पं0 रघुनाथ प्रसाद पाठक (1901-1985) ने श्री डॉ0 अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन पर अपनी सम्पादकीय टिप्पणी अंकित करते हुए उन्हें अपने निश्चय पर पुर्नविचार करने का सुझाव दिया था। श्री पाठकजी की टिप्पणी का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-

’गत अक्टूबर (1956) में श्रीयुत डॉ0 अम्बेडकर ने दो लाख दलितों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। इस समाचार में हिन्दू जगत् में सनसनी फैल जाना स्वाभाविक था। और सनसनी फैली भी। डॉ0 अम्बेडकर पढ़े-लिखे, समझदार और देश के एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। यदि वे अकेले बौद्धमत से प्रभावित होकर उसमें दीक्षित होते, तो समाज को कोई विशेष चिन्ता न होती, परन्तु उनके साथ वे अधिकांश व्यक्ति दीक्षित हुए हैं, जिन्हें बौद्धमत का थोड़ा भी परिज्ञान नहीं है, इसलिए उनके धर्म परिवर्तन में हृदय की प्रेरणा न होने से वह स्वेच्छया धर्म परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।‘

हमें भय है कि कहीं यह धर्म परिवर्तन राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रयुक्त न हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो बौद्ध धर्म बने हुए ये लोग बौद्ध मत के अपयश का कारण बन जाएँगे। एक भय और भी है और वह यह कि उन नव बौद्धों के साथ अब भी मुख्यतया ग्रामों में अस्पृश्यों जैसा ही व्यवहार होगा। उनकी स्थिति में सुधार होना तो एक ओर उल्टे बौद्ध मत को जात-पाँत की एक नई बीमारी लग जाएगी।

अस्पृश्यता के निवारण का उपाय यह है कि सवर्णों के हृदयों में से प्रशिक्षण तथा समय की गति की पहचान के द्वारा अस्पृश्यता की भावना निकल जाए, और अस्पृश्यों के हृदयों में अपने को हेय समझने की मनोवृत्ति नष्ट हो जाए, इसलिए धर्म और विवके से काम लेने की आवश्यकता है। यह कार्य धीरे-धीरे हो रहा है और दोनों की ही मनोवृत्तियों में उत्तम परिवर्तन हो रहा है। आर्यसमाज इस कार्य में मार्ग-दर्शन कर रहा है। कांग्रेस ने अस्पृश्यता को कानूनी अपराध ठहरा दिया है।

इस प्रकार के सामूहिक परिवर्तन से न तो हिन्दुओं की मनोवृत्ति बदल सकती है और न अस्पृश्यों की स्थिति ठीक हो सकती है, अतः इनसे लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक आशंका है, अस्पृश्य कहे जाने वाले भाइयों को अपने हित-अहित के प्रति सावधान रहना चाहिए, और अपने को भेड़-बकरी न बनने देना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चाल का मुहरा बन जाने से उन्हें पहले ही लाभ की अपेक्षा सामूहिक हानि अधिक हुई है, और यदि वे सावधान न रहें तो और भी भयंकर हानि हो सकती है।

अन्त में हम यह प्रार्थना और आशा कर रहे हैं कि डॉ0 अम्बेडकर अपने निश्चय पर पुनर्विचार करेंगे। वे हिन्दुओं के हृदय परिवर्तन का ही काम हाथ में ले लें, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व और विद्वता के प्रति सवर्ण हिन्दुओं में आदर है। (सार्वदेशिक: मासिक, दिसम्बर 1956: पृष्ठ 511-512)