Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

यह समाधि नहीं है

ashutosh maharaj

यह समाधि नहीं है

आज सुबह से ही एक खबर देख रहा हू दिव्य ज्योति जागरण संस्था के संस्थापक श्री आशुतोष जी महाराज के शरीर को फ्रीजर में रखा है और संस्था के व्यस्थापको द्वारा  कहा जा रहा है महाराज समाधि में लिन है | जब की डॉक्टरओ द्वारा कहा जा चूका  है की उनकी मस्तिष्क में कोई गति विधि नहीं है जिसे अंग्रेजी में Brain Dead कहते है | उनके हृदय में कोई गति नहीं है, उनकी नाडी भी शांत है और चमड़ी ने भी रंग बदलना शरू हो गया है इस कारण डॉक्टरी भाषा में कहा जाय तो उनकी मृत्यु हो चुकी है और डॉक्टरओ ने भी उन्हें मृत घोषित कर दिया है, पर संस्था मानने को तयार नहीं है और बस एक रट लगाये है महाराज समाधि में लिन है और वो भी फ्रीज़र के शुन्य के तापमान में क्या यही समाधि है ? या समाधि किसी अन्य अवस्था को कहते है | हम योग दर्शन के आधार पर इस सत्य या असत्य को जानने का प्रयत्न करेंगे |

जो समाधि शब्द का प्रयोग बड़े साधारण स्थर पर करते है उन्हें समाधि को समझने के लिए सर्वप्रथम योग शब्द को समझना पडेंगा | योग दर्शन के समाधिपाद का दूसरा सूत्र :-

योगश्चितवृतिनिरोध: ||१:२||

परिभाषा :- योग है चित्त की वृतियो का निरोध=रोखना | चित्त की वृतियो को रोखना योग का स्वरुप है |

सांख्य में जिसे बुद्धि तत्व के नाम से कहा गया है, योग ने उसी को चित्त नाम दिया है | योग प्रक्रिया के अनुसार-एक विशिष्ट कार्य है – अर्थ तत्व का चिंतन | योग दर्शन में अर्थ तत्व से तात्पर्य परमात्मा तत्व से है | ईश्वर का निरंतर चिंतन इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य है और यह चिंतन बुद्धि द्वारा होता है | जब मानव योग विधियों द्वारा समाधि अवस्था को प्राप्त कर लेता है ; तब वह बाह्य विषयो के ज्ञान के लिए इन्द्रियों से बंधा नहीं रहता, उस दशा में बाह्य विषयो के ज्ञान के लिए इन्द्रियों से बंधा नहीं रहता, उस दशा में बाह्य इन्द्रियों के सहयोग के विना केवल अंत:करण द्वारा बाह्य विषयों के ग्रहण करने में समर्थ रहता है |

समाधि दो प्रकार की होती है १. सम्प्रज्ञात समाधि और २. असम्प्रज्ञात समाधि

सम्प्रज्ञात समाधि उस अवस्था को कहते है जब त्रिगुणात्मक अचेतन प्रकृति और चेतन आत्मा तत्व के भेद का साक्षात्कार हो जाता है | इसी का नाम ‘प्रकृति-पुरुष विवेक ख्याति’ है | परन्तु सम्प्रज्ञात समाधि की यह दशा वृति रूप होती है | विवेक ख्याति गुणों की एक अवस्था है | रजस,तमस का उद्रेक न होने पर सत्व गुण  की धारा प्रवाहित रहती है | योगी इसका भी निरोध कर पूर्ण शुद्ध आत्म स्वरुप में अवस्थित हो जाता है | वह वैराग्य की पराकाष्टा ‘धर्ममेध-समाधि’ नाम से योग शास्त्र [४/२९] में उदृत है |अभ्यास और वैराग्य दोनों उपायों के द्वारा चित्त की वृतियो का निरोध पर सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था आती है |

असम्प्रज्ञात समाधि उन योगियों को प्राप्त होती है जिन्होंने देह और इन्द्रियों में आत्म साक्षात्कार से निरंतर अभ्यास एवं उपासना द्वारा उनका साक्षात्कार कर उनकी नश्वरता जड़ता आदि को साक्षात् जान लिया है, और उसके फल स्वरुप उनकी और से नितांत विरक्त हो चुके है | वे लंबेकाल  तक देह-इन्द्रिय आदि के संपर्क में न आकर उसी रूप में समाधि जनित फल मोक्ष सुख के समान भोग करते है |

शास्त्रों [मुंडक,२/२/८; गीता,४/१९, तथा ३७ ] में ज्ञान अग्नि से समस्त कर्मो के भस्म हो जाने का जो उल्लेख उपलब्ध होता है, वह योग की उस अवस्था को समझना चाइये, जब आत्म साक्षात्कार पूर्ण स्थिरता के स्थर पर पहुचता है | अभी तक समस्त संस्कार आत्मा में विद्यमान रहते है | कोई भी संस्कार उभरने पर योगी समाधि भ्रष्ट हो जाता है |

समाधि लाभ के लिए दो गुणों की अत्यावश्यक है १. वैराग्य २. योग सम्बन्धी क्रिया अनुष्ठान | वैराग्य की स्तिथि होने पर भी यदि योगांगो के अनुष्ठान में शिथिलता अथवा उपेक्षा की भावना रहती है, तो शीघ्र समाधि लाभ की आशा नहीं रखनी चाइये |

सम्प्रज्ञात समाधि की दशा में योगी आत्मा और चित्त के भेद का साक्षात् कर लेता है | वह इस तथ्य को स्पष्ट रूप में आंतर प्रत्यक्ष में जान लेता है, की प्राप्त विषयों के अनुसार चित्त का परिणाम होता रहता है परन्तु आत्मा अपरिणामी रहता है |

आत्म बोध के अतिरिक्त इस अवस्था में अन्य किसी विषय का किसी भी प्रकार का ज्ञान न होने से योगी इस अवस्था का नाम ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ है | इन दोनों में भेद केवल इतना है, कि पहली दशा में संस्कार उद्बुद्ध होते है, जब कि दूसरी दशा में नि:शेष हो जाते है |

समाधि अवस्था में आत्मा अपने रूप में अवस्तिथ होता है | अनुभव करना चैतन्य का स्वभाव है, वह उससे छुट नहीं सकता | फलत: जब वह केवल शुद्ध चैतन्य स्वरुप आत्मा का अनुभव करता है, तब उसे स्वरुप में अवस्थित कहा जाता है,केवल स्व का अनुभव करना ; अन्य समस्त विषयो से अछुता हो जाना | आत्मा इस अवस्था को प्राप्त कर समाधि शक्ति द्वारा परमात्मा के आनंद स्वरुप में निमग्न हो जाता है | उस आनंद का वह अनुभव करने लगता है | यही आत्मा के मोक्ष अथवा अपवर्ग का स्वरुप है |

यह हमने समाधि का संक्षिप्त में विवरण किया है और समाधि कि इस स्वरुप में मस्तिष्क कि गति, हृदय गति, नाडी का चलना अन्य सब बातें आवश्यक है | क्यों कि यह सब गति विधिया शरीर के लिए आवश्यक है और विना शरीर के समाधि अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती और शरीर को जीवित रखना है तो इन गति विधियों को होना आवश्यक है | इसलिए दिव्य ज्योति जागरण संस्था के संस्थापक श्री आशुतोष जी महाराज के शरीर कि इस अवस्था को समाधि अवस्था न कह कर इस अवस्था को मृत्यु कहा जायेंगा | और संस्था के प्रतिनिधि जो इस अवस्था को समाधि कह रहे है वह नितांत मूर्खता या पाखण्ड है | किसी भी शास्त्र में श्री आशुतोष जी महाराज कि जो अवस्था है उस अवस्था को समाधि नहीं कहा है |स्व में या परमात्मा के आनंद स्वरुप में स्तिथ रहने के लिए शरीर का जीवित अवस्था में होना आवश्यक है |

सहायता ग्रन्थ :- योग दर्शन भाष्य –भाष्यकार पंडित उदयवीर शास्त्री 

मांस भक्षण और स्वामी विवेकानंद ऋष्व आर्य

vivekanand 1

 

मांस भक्षण  और स्वामी विवेकानंद

यदी भारत के लोग चाहते हैं की में मांसाहार न करूँ तो उनसे कहो की एक रसोइय्सा                                 भेज दें और पर्त्याप्त धन सामग्री।

स्वामी विवेकानंद

विवेकानंद साहित्य , भाग -4, पृष्ठ -344

इसी भारत में कभी  ऐसा भी   समय  था जब कोई ब्राहमण बिना गौ मांस                         खाए ब्राहमण नहीं रह पाता  था। वेद  पड़कर देखो कि किस तरह जब कोई        सन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था तब सबसे पुष्ट बैल मारा             जाता था

स्वामी विवेकानंद (विवेकानंद साहित्य Vol 5 Pg 70)

अब देश के लोगों को मछली मांस खिलाकर  उद्यमशील बना डालना होगा जगाना        होगा  तत्पर बनाना होगा नहीं तो धीरे धीरे देश के सभी लोग पेड़ पत्थरों की तरह             जड़ बन जायेंगे। इसीलिये कह रहा था की मछली और मांस खूब खाना

स्वामी विवेकानंद

(विवेकानंद साहित्य भाग -6, पृष्ठ 144)

विवेकानंद द्वारा मांस भक्षण

विवेकानंद द्वारा वेदों में मांस भक्षण की मान्यता वैदिक ज्ञान के प्रति उनकी अज्ञानता , पाश्चात्य विद्वानों का उन पर प्रभाव के अतिरिक्त उनकी मांसाहार के प्रति लालायित्ता को प्रदर्शित करती है। ना केवल विवेकानंद मांस भक्षण किया करते थे अपितु इनके गुरु स्वामी राम कृष्ण परमहंस भी मांस भक्षण किया करते थे। स्वामी राम कृष्ण परम हंस को स्वामी विवेकानंद इश्वर का अवतार घोषित करते थे, लेकिन ये कैसी विडम्बना थी की वो  तथाकथित इश्वर अपने लिए स्वयं मांस का निर्माण करने में असमर्थ था और अपनी मांस खाने की लालसा को निरीह प्राणियों के जीवन लीला समाप्त करके पूरा किया करता था।वह शिष्य घोषित इश्वर जिसे हर वस्तु में काली माँ के दर्शन हुआ  करते थे उन निरीह मूक प्राणियों में  काली के दर्शन ना कर सका जिन्हें उन्होंने तथा उनकी आज्ञा अनुसार उनके शिष्यों ने रक्त पिपासा का ग्रास बना लिया । स्वामी विवेकानंद और स्वामी राम कृष्ण परमहंस शायद ये भूल गए की  जिस काली को  वे कण कण में देखते हें समस्त संसार को काली में ही व्याप्त मानते हैं वह आपकी काली मां इन प्राणियों में  भी तो वास करती  है I क्या इन निरीह प्राणियों में उस माँ का निवास नहीं है ?क्या ये प्राणी उस के बच्चे नहीं है? क्या कोई माँ अपने बच्चों पर इतनी निर्दयी हो सकती है को की वो उसके उत्तम कृति मनुष्य को दुसरे प्राणियों को मारने की आज्ञा दे दे? प्राय  यह देखा जाता है   कि  उत्तम संतान अपने से छोटे और असहाय का ध्यान रखते हैं उसी प्रकार इश्वर भी इसी नियम का पालन करता है  और मनुष्य के लिए भोजन पैदा करने से पहले वह पशुओं के लिए भोजन की व्यवस्था करता है। मनुष्य को अपने भोजन की व्यवस्था करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। अनाज उगाने के लिए भूमी का चयन करना पड़ता है फिर उसे खेती योग्य बनाना पड़ता है खेत को जोतकर पर्याप्त मात्र में उर्वरक और पाने देकर अनाज उगाया जाता है जबकी पशुओं को भोजन पाने  के लिए ये सब करने की आवश्यकता नहीं  होती है उनके लिए इश्वर खुद ही खाने की व्यवस्था करता है यहाँ तक की मनुष्य अपने लिए जिस अन्न को उगाता है उसमें भी इश्वर पशुओं का भाग पहले  ही निर्धारित कर देता है और पशुओं ने लिए खरपतवार स्वयं पैदा हो जाती है उसके लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। जो इश्वर उन प्राणियों के प्रति इतना दयालु है उसी ईश्वर के स्वघोषित भक्त उन्हीं  प्राणियों को अपनी भूख  शांत करने का साधन बनाते रहे और उन्हें इश्वर की ये दया दिखाई नहीं दी

स्वामी विवेकानंद को  मांस भक्षण में  होने  वाली बर्बरता और क्रूरता का पूर्ण ज्ञान था लेकिन फिर भी वो मांस भक्षण किया करते थे ये उनकी मांस खाने के लिए ललक को ही प्रदर्शित करता है जिसके लिए वो सारे सिद्धांतों  एवम संस्कारों को तिलाजंली देने को तत्पर रहा करते थे। प्राणियों को अपना बंधुगण बताते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हें की मुझे पता है की ये गलत है कि अपने स्वार्थ के लिए किसी  के प्राण लिए लिए जाएँ लेकिन में इसके लिए विवश हो जाता हूँ।

I myself may not be a very strict vegetarian, but I understand the ideal. When I eat meat I know it is wrong. Even if I am bound to eat it under certain circumstances, I know it is cruel. I must not drag my ideal down to the actual and apologise for my weak conduct in this way. The ideal is not to eat flesh, not to injure any being, for all animals are my brothers. If you can think ofthem as your brothers, you have made a little headway towards the brotherhood of all souls

–          The complete work of swamee vivekanand , Vol – 2- Pg 298

में  स्वयं एक कट्टर शाकाहारी न भी  होऊं किन्तु में उस आदर्श को समझता हूँ जब में मांस खाता हूँ तब जानता हूँ की यह ठीक नहीं है। परिस्थितिवश उसे खाने को बाध्य होने पर भी में यह जानता हूँ के यह क्रूरता है। आदर्श नीचा करके अपनी दुर्बलता का समर्थन मुझे नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है। मांस न खाया जाए। किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाए क्यूंकि पशुगन भी हमारे भाई हैं।

विवेकानंद साहित्य , भाग -8, पृष्ठ -9

 स्वामी विवेकानंद जीव हत्या में होने वाली बर्बरता क्रूरता को स्वीकार भी करते हें उसे गलत और त्याज्य भी मानते हैं वही दुसरे संदर्भो में मांस भक्षण को मनुष्य मात्र का अधिकार भी मानते हैं। जब उनसे पूछा गया की आप मांस भक्षण क्यूँ करते हैं तो वो उत्तर देते हुए कहते हैं की मेरे गुरुदेव कहा करते की थे संसार में कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है। स्वामी विवेकानंद को सम्बोधित  करते हुए स्वामी राम कृष्ण परमहंस कहते हैं की तुम मांस भक्षण त्यागने का प्रयास क्यूँ करते हो संसार की हर वस्तु मनुष्य मात्र के उपभोग के लिए बनी हुयी है इसलिए किसी भी वस्तु को त्यागना व्यर्थ है। दोनों बातों में अन्तर्विरोध स्वामी विवेकानंद का प्राणी मात्र के प्रति दोहरेपन को ही दर्शाता है।

I am always asked the question: “Shall I give up meat?” My Master said, “Why should you give up anything? It will give you up.” Do not give up anything in nature. Make it so hot for nature that she will give you up.

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 519

मुझसे बराबर यह प्रश्न किया जाता है – ” में मांस खान छोड़ दूँ ?” मेरे गुरुदेव ने कहा था – कोई चीज छोड़ने का पर्यंत तुम क्यों करते हो ? वही तुम्हीं  को छोड़ देगी। प्रकृती का कोई पदार्थ त्याज्य नहीं  है

विवेकानंद साहित्य , भाग -4, पृष्ठ -165

 स्वामी विवेकानंद जीव हत्या में होने वाली पीड़ा को अनुभव करते हुए कहते हैं कि मनुष्यों और पशुओं को सुख दुःख का आभास सामान रूप से होता है जबकि पशु में सुख एवं दुःख को अनुभव करने की प्रवित्ती मानव मात्र से अधिक होती है। स्वामी विवेकानंद जब  जीव हत्या को न्यायसंगत ना सिध्ध कर सके तो उन्होंने उसे माया का नाम दे दिया की जो हम पशुओं को उनको होने वाले कष्ट को नजरअंदाज करके मारते हैं वो माया है। ये तर्क कुछ ऐसा ही अनर्गल है जो जीव और ब्रह्म की एकता को सिध्ध न कर  पर अद्वैतवादी दिया करते हैं । जिस प्रकार  अद्वैतवादियों  अपने तर्क की सिद्धी  के लिए  माया की शरण में जाना पड़ता है उसी प्रकार स्वामी विवेकानंद को भी मांसाहार को न्यायसंगत सिध्ध करने के लिए  माया की शरण में जाना पड़ा। यह माया के शरणागत होगा स्वामी विवेकानंद का मांसाहार के प्रति लगाव ही कहा जा सकता है जो उन्हें  उन निरीह प्राणियों मार्मिक चीख पुकार न सुनने के लिए विवश कर देता है।

यदि पशु  मनुष्य की अपेक्षा इतनी तीव्रता से सुख का अनुभव करते हैं तो यह भी सत्य है की उनके दुःख का अनुभव भी उतना ही तीव्र होता है – मनुष्य की अपक्षा तीव्रतर होता है। अतएव  मनुष्य को मरने में जो कष्ट होता हैउसकी अपेक्षा सहस्त्र गुना अधिक कष्ट उन पशुओं को मरने में होता है । फिर भी हम उनके कष्ट की कोई चिंता ना करते हुए उन्हें मार डालते हैं। यही माया है।

विवेकानंद साहित्य , भाग -2, पृष्ठ -68

 मांसाहारी को मांस खाने से अवश्य सुख  मिलता है , पर जिसका मांस खाया जाता है उसके लिए तो भयानक कष्ट ही है ।

विवेकानंद साहित्य , भाग -2, पृष्ठ -135

 The eating of meat produces pleasure to a man, but pain to the animal which is eaten. There has never been anything which gives pleasure to all alike.

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 2- Pg 177

स्वामी  विवेकानंद स्वयं मांस  भक्षण किया करते थे जब कुछ लोगों को इस बारे में पता चला तो उन्होंने उनसे इस बारे में पत्र लिखकर पूछा तो स्वामी जी अपने विचार इस प्रश्न  के उत्तर में 9th  sepetember  को Paris  से ALasinga को लिखे पत्र में  हुए लिखते हें की यदी भारत के लोग चाहते हैं की में मांसाहार न करूँ तो उनसे कहो की एक रसोइय्सा भेज हैं और पर्त्याप्त धन सामग्री।

. If the people in India want me to keep strictly to my Hindu diet, please tell them to send me a cook and money enough to keep him. This silly bossism without a mite of real help makes me laugh.

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 5- Pg 95

अगर भारत वासी मुझे नियमपूर्वक हिन्दू भोजन के सेवन पर बल देते हैं तो उनसे एक रसोइया एवं उसको रखने के लिए पर्त्याप्त रुपये का प्रबंध करने के लिए कह देना। एक पैसे की सहायता करने का तो सामर्थ्य नही किन्तु आगे बढकर उपदेश झाड़ते हैं

विवेकानंद साहित्य , भाग -4, पृष्ठ -344

 स्वामी विवेकानंद को मांस भक्षण में  पशुओं पर   होने वाली निर्दयता का पूर्ण ज्ञान था और वो इसे महसूस  भी करते थे लेकिन उनका यह ज्ञान केवल कहने भर का था उन्होंने इसे जीवन में कभी नहीं उतरा बल्कि इस प्रपंच को समाज में प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वो मांसाहार को शक्ती का साधन और आवश्यकता बताते रहे। मांस प्राप्ती में होने वाली असहाय पशु की हत्या के बारे में निर्दयता का उनका यह ज्ञान  मील के उस पत्थर की भांती था जो रास्ता  तो जानता  था लेकिन उस पर चला कभी नहीं। स्वामी विवेकानंद स्वयं इस बार में अपने विचार प्रगट करते हैं कि:

 

I myself may not be a very strict vegetarian, but I understand the ideal. When I eat meat I know it is wrong. Even if I am bound to eat it under certain circumstances, I know it is cruel. I must not drag my ideal down to the actual and apologise for my weak conduct in this way. The ideal is not to eat flesh, not to injure any being, for all animals are my brothers. If you can think of them as your brothers, you have made a little headway towards the brotherhood of all souls

 

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 2- Pg 298

में  स्वयं एक कट्टर शाकाहारी न भी  होऊं किन्तु में उस आदर्श को समझता हूँ जब में मांस खाता हूँ तब जानता हूँ की यह ठीक नहीं है। परिस्थितिवश उसे खाने को बाध्य होने पर भी में यह जानता हूँ के यह क्रूरता है। आदर्श नीचा करके अपनी दुर्बलता का समर्थन मुझे नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है। मांस न खाया जाए। किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाए क्यूंकि पशुगन भी हमारे भाई हैं।

विवेकानंद साहित्य , भाग -8, पृष्ठ -9

 वैदिक धर्म के ऊपर उनके व्याख्यान  को उद्धरित  करते हुए समाचार पत्र प्रकाशित करता है कि  वैदिक काल में ब्राह्मन मांस खाया करते थे और अतिथियों को प्रसन्न करने के लिए बछड़े मारे जाते थे।

The Brahmins at one time ate beef and married Sudras. [A] calf was killed to please a guest.

Madura Mail on 28th Jan 1893

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 9- Pg 523

 

पुनः इस सन्दर्भ में विरोधाभासी विचार स्वामी विवेकानंद ने उद्धृत किये। News Paper  Daily Lowa Capital,  November 28th, 1893  को प्रकाशित करता है की स्वामी विवेकानंद कहते हैं की भारत में गाय को पूजा जाता है और हिन्दू जानवरों के वध का विरोध करते हैं

He said that the Hindus were altogether opposed to the destruction of the life of any animal. He admitted the worship of the sacred cow.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 9- Pg 438

स्वामी विवेकानंद द्वारा पशु बलि

Sister Christine को बेलुरे मठ हावड़ा से 12th November 1901 को Sister Christine को लिखे अपने पत्र में लिखते हैं की हमने काली मां  की पूजा की और बकरे की बली दी।  स्वामी जी जहाँ वैदिक धर्म पर  बली का आरोप जड़ते हैं वही खुद वो ही निंदनीय कर्म करने मे संलग्न होते हैं।

We had an image, too, and sacrificed a goat and burned a lot of fireworks.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 9- Pg 169

 

हालाँकि स्वामी विवेकानंद वाम मार्ग के विरोधी रहे हें लेकिन स्वयं भी उसी मार्ग पर अनुसरण करते हैं . भारत  में पशु बलि का द्योतक वाम मार्ग ही हैं। क्या ईश्वर  इस समस्त ब्रह्माण्ड का सृजेता वह सर्वशक्तिमान न्यायकारी परोपकारी परमपिता परमेश्वर  इतना निर्बल है कि स्वयं के भोजनार्थ उसे अपने ही बच्चों को खाने के लिए निर्भर रहना पड़ता है। यदी ऐसा है तो उसके सर्वशक्तिमान न्यायकारी परोपकारी  आदि गुणों का क्या  अर्थ रह जाता है? यह कुलसित  मानसिकता वाले मनुष्यों का इश्वर के ऊपर दोषारोपण ही है जो वह उस परम दयालु न्यायकारी सर्वशक्तिमान इश्वर को उन मांसाहारी जीवों की श्रेणी में खड़ा करने का षण्यंत्र रचते हैं जो अपने बच्चों को जन्म देखर भूख लगने पर खा जाते हैं। वह इस मांसाहारियों  को पशुओ को ही खाने के लिए क्यूँ कहता है? वह इनसे इन मांस भक्षियों के मांस की इच्छा क्यूँ जाहिर नहीं करता ?यह इन मांसाहारियों का स्वयं का स्वार्थ है जिसका ये दोषारोपण ये इश्वर पर किया करते हैं ।

 

जिस काली को आप इश्वर की संज्ञा देते हो तो क्या वह इश्वर जिसने इस संसार का सृजन किया है जो इस संसार का सृजन स्तित्थी पालन और प्रलय करता है संसार में लोगों को कर्मों का फल देता है क्या वो इश्वर इतना  लाचार है की अपने खाने के लिए मानव मात्र के भरोसे रहता है। क्या जिन पशुओं की जान लेकर वह मांस व खून उसके लिए चढ़ाया  वे क्या उसके बालक नहीं हैं क्या वो मूक और असहाय उस परम पिता की दया के अधिकारी नहीं हें। इसे इश्वर को अपने खाने के लिए  इन असहाय जीवों पर आश्रित माना जाए या इन धर्म के तथाकथिक धर्म के ठेकेदारों की रक्त पिपासा ।

महर्षी दयानंद सरस्वती  तो  दूसरों के दुखो और हानि को ना समझने वाले मनुष्य को मनुष्य की संज्ञा से ही विमुख कर देते हैं। महर्षी कहते हैं की दूसरों के सुख दुःख  हानि लाभ को समझना मनुष्य धर्म है, महर्षि इस  में बारे में लिखते हुए स्वमंताव्यामंताव्यप्रकाश में  हैं लिखते हैं की  मनुष्य उसी को कहना की मननशील हो कर स्वात्मवत अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी  से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं अपितु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वो महा अनाथ निर्बल और गुण रहित  क्यूँ ना हो उनकी रक्षा उन्नति और प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ महाबलवान और गुणवान भी हो तथापी उसका नाश अवनति और अपिरयाचरण सदा किया करे अर्थात जहाँ तक हो सके वहाँ तक अयाय्कारियों के बल की हानि और न्याय्कारियों के बल की उन्नति सदा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो परन्तु इस मनुष्य रूप धर्म से पृथक कभी न होवे।

स्वमंताव्यामंताव्यप्रकाशः Papagpag पृष्ठ – 728

 

  Mrs Ole Bull को Alambazar Math Calcutta (Darjelling )  से  26th March 1897 को लिखे अपने पत्र में अपनी बीमारी से ग्रस्त होने को बयां करते हुए स्वामी विवेकानंद लिखते हैं की केवल मांस खाना ही लम्बी आयु का राज है

Admitting about the diabetes problem he said that Eating only meat and drinking no water seems to be the only way to prolong life

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 9- Pg 93

 

 Sister Christine को  12th December 1901 को Belur Math Hawrah से लिखे पत्र में अपनी गिरते स्वास्थ्य के बारेमेंलिखते हुए कहते हैं की चिकित्सक ने मुझे आरामकी सलाहदी है और मुझे मांस खानेसे मनाकर दिया है अब मुझे मॉस  चखने तककी मनाहीहै 

The doctors have put me to bed; and I am forbidden to eat meat, to walk or even stand up, to read and write. I am prevented from the taste of meat.

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 9- Pg 172

 

R.M.S. Brittannic  से अपने पत्र में अपने भोजन के बारे में लिखते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं की कुछ दिनों से में केवल मांस ही मांस खा रहा हूँ मुझे सब्जियां खाने को नहीं मिल रही

Writing on continuous eastin meat he wrote from R.M.S. Brittannic to his blessed and beloved that  So far the journey has been very beautiful. The purser has been very kind to me and gave me a cabin to myself. The only difficulty is the food — meat, meat, meat. Today they have promised to give me some vegetables.

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 8- Pg 358

 

Marry  की  28th April 1897  को अपने स्वास्थय के बारे में लिखते हुए स्वामी विवेकानंद लिखते हें की  मेरे बाल भूरे हो गए हें चहरे पर झुर्रियां पड़ने लगी हैं और में अपनी उम्र से 20 वर्ष ज्यादा का दिखने लगा हूँ। मेरा शरीर कमजोर हो रहा है। में मांस खाने के लिए ही बना हूँ ना रोटी ना आलू ना राइस ना ही शक्कर

My hair is turning grey in bundles, and my face is getting wrinkled up all over; that losing of flesh has given me twenty years of age more. And now I am losing flesh rapidly, because I am made to live upon meat and meat alone — no bread, no rice, no potatoes, not even a lump of sugar in my coffee!! I

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 391

 

Pramada Sas Mirtra को  Almora  से  39th May 1897 को स्वामी जी लिखते हें की में  मलेच्छ हूँ शुद्र हूँ क्योंकि में  कुछ भी खा लेते हूँ और किसी के साथ भी कुछ भी खा लेता हूँ 

I m a Mlechcha, shurdra and so foth I eat anything and everything and with anybody and everybody

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 393

प्रारम्भिककालमेंअन्ननहींहोनेकी  सेमांसखाननैतिकथा

मद्रास 1892 -93  में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समय के साथ विचार बतलाते रहते हैं। गाय का मांस खाना एक समय नैतिक था। वातावरण ठंडा था और अन्नों के बारे में  जानकारी नहीं थी। मांस सुगमता  से मिल जाता था उस काल और  वातावरण के हिसाब से मॉस खाना आवश्यक था।लेकिन मांस खान अब अनैतिक माना जाता है

Every man, in every age, in every country is under peculiar circumstances. If the circumstances change, ideas also must change. Beef-eating was once moral. The climate was cold, and the cereals were not much known. Meat was the chief food available. So in that age and clime, beef was in a manner indispensable. But beef-eating is held to be immoral now.

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 09

स्वामी जी के यह विचार की अन्नों के बारे में पहले जानकारी नहीं थे इससे बात का द्योतक है की उन्होंने वेदाध्यन नहीं किया और वो वेदों के बारे में पाश्चात्य विचारधार के पोषक थे अन्यथा वो यह नहीं कहते। परमपिता परमात्मा हमें वेदों में आदेश देते हुए कहता है की तुम अन्न खाओ। वेदों में अन्नों खाने का उपदेश होना हमारी सभ्यता के सभ्य एवं विकसित होने को प्रदर्शित करता है लेकिन  वेदों के बारे में पाश्चात्य विचारधार के पोषक गुलाम स्वामी विवेकानंद  इस तथ्य को ना पहचान सके. वेद  ना केवल हमें शाकाहार  की आज्ञा देता है अपितु कृषि  कैसे  की जाए इसके बारे में भी विस्तृत जानकारी हमें वेदों में प्राप्त होती है  अथर्वेद के तृतीय अध्याय के निम्नलिखित  मंत्र हमें कृषी की पध्धिती के बारे में जानकारी देते हुए स्वामी विवेकानंद के इस कथन की कि  पहले अन्नों के बारे में ज्ञान नहीं था का पुरजोर विरोध करते हैं। आर्यों ने जीवन के प्रधान अंग भोजन की शुध्दी पर विशेष ध्यान दिया है। हमारे ऋषियों का यह विश्वास रहा है की ” आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि: सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: अर्थात आहार की  शुधि से सत्व की शुद्धि होती है और सत्व की शुध्दि से  स्मरण शक्ति निश्छल होती है परन्तु अशुध्द आहार से सत्व और स्मृति भी अशुध्द हो जाती है

व्रीहिमत्तम यवमत्तम्थो मापमथो तिलम।

ऐश वो भागो निहितो रत्नधेयाय दांतों मा हिसिश्ठं पितरे  मातरे च।।

बालक को अन्नप्राशन कराने का उपदेश – हे बालक के प्रथम उत्त्पन्न दांतों तुम  भात खाओ जौ खाओ  और माप उड़द की दाल और तिल  खाओ

अथर्वेद षष्ठम   काण्डम अध्याय 140 मंत्र 2 पृष्ठ – 306 SC (ii)

 

अजस्त्रमिन्दुमरुषम भुरंद्युमाग्निमीदे पुर्वचित्तम नमोभि ।

स पर्वमि रितुशः कल्प्मानो गाम  मा हि सीरदिति विराजिम।।

यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 43 पृष्ठ 606  SC S SC (i)

अहिंसक और अविनाषी ऐश्वर्यवान जल के सामान शीतल और शुध्ध रोष रहित सब के पोषक पूर्ण ज्ञानवान शानवान  परमेश्वर या राजा को में नमस्कारों द्वारा में स्तुति करता हूँ अन्नों द्वारा पूर्व ही संग्रह करने वाले धनाड्य पुरुष को में प्राप्त करूँ। वह तू पालनकारी सामर्थ्यों से सुर्य जिस प्रकार अपने ऋतु  से सबको चलाता है उसी प्रकार राज अपने राज सभा के सदस्यों से सामर्थ्यवान होता है। वह तू विविध पदार्थों गुणों से प्रकाशित गौ और पृथ्वी को मत विनष्ट कर

सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि  तन्वते पृथक।

धीरा देवेपुम सुम्नयौ।। अथर्वेद 3/17/1  पृष्ठ 348

विद्वान पुरुषों में सुखों के प्राप्त करने वाले आत्मा रूप क्षेत्र में विद्वान् दूरदर्शी लोग  रुप हेलॉन को युक्त करते हें  और धीर बुध्धिमान  पुरुष योग के अंगों रूप जुओं को पृथक पृथक प्राण रूप  के कन्धों पर  रखते हें   उसी प्रकार हे पुरुषो   तुम भी करो।

युनक्त सीरा वि युगा तनोत कते वपतेह वीजम ।

विराजः श्रुष्टि: साभार सभरा  असन्नो नेदीय इति सनय कक्वमान यवन।।

अथर्वेद 3/17/2 पृष्ठ 350

कृषी कर्म का उपदेश करते हैं हलों  को जोत लो। बैल के जोड़ों को हल के जुओं में लगाओ और हल चलाओ और बीज उत्पत्ति के स्थान क्षेत्र के   योग्य हो जाने  पर उसमें बीज जो बोओ। और     जब अन्न की बालें अन्न  से पूर्ण हो जाएँ तब उसके कुछ काल बाद ही अन्न दरांती काटने के हथियार हसुओं  से काटकर प्राप्त करो।

लाङ्गल  पवीरवत सुशीम सोम सत्सरू ।

उदिद वपतु गामवि प्रस्थावद रथवाहनम पीवरी च प्रफवर्यम।V।

अथर्वेद 3/17/3  पृष्ठ 350

कृषी से कितने कितने पदार्थ उत्पन्न होते हें इसका उपदेश करते हें सीता   या फली से युक्त हल उत्तम सुख का उत्पादक और सोम बीज रूप अन्न के स्थापन करने के लिए को हल चलाया जाता है वह अर्थात कृषी ही गौओं को भेड़ों को और दूर देश में प्रस्थान करने में समर्थ रथों और बैलों और घोड़ों को और हष्ट पुष्ट शरीर वाली स्तिर्यों को भी उन्नत  किया करता है

 

शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमि शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान।

शुनाशीरा हविषा तोशमाना  सुपिप्पला औषधी कर्त मस्मै।।

अर्थर्वेद 3/17/5

उत्तम तीक्ष फालियें हल के नीचे लगी लोहे की तीक्ष हलियें खूब तेजी से सुख पूर्वक भूमि को खोदें और किसान लोग सुखपूर्वक अपने हल के वाहने वाले बैलों के पीछे पीछे चलें। हे सुन और शीर! वायु और  सूर्य तुम दोनों प्रिथ्वीस्थ जल से पृथ्वी को ही सिंचित करते हुए इस आत्मा के लिए या इस संसार के लिए या हमारे लिए उत्तम फलों से संपन्न अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न करो।

शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं क्रिपतु लाङ्गलम।

शुनं वरत्रा : वध्यन्ताम शुनम मुश्तामुदी अङ्गय ।।

अर्थर्वेद 3/17/6

वाहन बैल और घोड़े सुख पूर्वक हल को  खींचे  हांकने वाले किसान लोग सुख पूर्वक हल चलाए और हल भी सुख पूर्वक उत्तम रूप से खेद को खोदे। रस्सियाँ भी सुख पूर्वक बांधी जाएँ और खूब उत्तम चाबुक को ऊपर उठा उठा कर चलाओ।

 

घ्रितेन सीता मधुना समक्ता विश्व दैवै रनुमता मरुद्भि: ।

सा नः सीते पयसाभ्या वव्रि त्स्वोज्स्वती घ्रितवत पिन्वमाना ।।

 अर्थर्वेद 3/17/9

हल में लगी  फली घृत और मधु से  चुपड़ी गयी और विद्वान् वैश्वगन और सभी विद्वतजनों से उपयोगी रूप से स्वीकृत है।  हे सीते वह तू पुष्टिकारक अन्न देनेहारी और घी दूध आदि  पदार्थों से सब को तृप्त करती हुयी पुष्टिकारक अन्न और जल के सहित    हमारे पास विद्यमान रह।

उर्जम वहन्तरिम्रित घृतं पयः कीलाल परिस्त्रुतम।

स्वधा स्थ तर्पयत में प्रितन।।

 यजुर्वेद 2/34

आप उत्तम अन्न रस रोगहारी जीवनप्रद तेजोदायक घृत पुष्टिकारक दुग्ध अन्न और सब  प्रकार से स्त्रवित रस से युक्त पके फल एवं औषधि विधी से तैयार किये उत्तम रसायन आदि इन सब को धारण करते हुए मेरे पाकल वृध्ध जानो  को तृप्त करो। आप अब स्वयं अपने  और अपने वृध्ध पालक सत्कार योग्य पुरुषों को भी अपने बल पर  धारण पोषण करने में समर्थ हो।.

वैदिककलामेंमांसभक्षण

 Rakhal को 1895 में  लिखतेहुएस्वामीविवेकानंदलिखतेहैंकीवैदिककलामेंअश्वमेधसबसे  घृणित कर्म था। सभी ब्राह्मण ने ऐसा लिखा है और माना भी है ये गलत कैसे हो सकता है

And in the Vedic Ashvamedha sacrifice worse things would be done…. All the Brâhmanas mention them, and all the commentators admit them to be true. How can you deny them?

-The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 318

 

The old gods were found to be incongruous — these boisterous, fighting, drinking, beef-eating gods of the ancients — whose delight was in the smell of burning flesh and libations ofstrong liquor. Sometimes Indra drank so much that he fell upon the ground and talked unintelligibly. These gods could no longer be tolerated.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 2- Pg 109

 

प्राचीन देवताओं में चंचल लड़ाकू शराबी गौ मांसहारी देवताओं में जिनको जले हुए मांस की गंध और तीव्र सुरा की आहुती ही से परम आनंद  मिलता था – कुछ असंगति देखने लगे। कभी कभी इंद्र इतना मद्य पान कर लेता था की वह बेहोश होकर गिर् पड़ता था और अंड बंड  बकने लगता था

विवेकानंद साहित्य , भाग -2, पृष्ठ -68

अश्वमेध के बारे में ऐसी मान्यता रखना स्वामी जी के ऊपर सायन महीधर Max Muller के वेदभाष्य का प्रभाव और वेदों के बारे में उनकी अज्ञानता को ही प्रदर्शित करता है।

स्वामी दयानंद ने अश्वमेध का अर्थ करते हुए लिखते हें की  राष्ट्रं वा अश्वमेध: – राष्ट्र पालेन क्षत्रियानाम अश्वामेधाख्यो यज्ञो भवति। नाश्चम हटवा तदंगानाम होम्करनम चेति ।

और जो न्याय  से राज्य का पालन करना है वही क्षत्रियों का अश्वमेघ  है।अश्व   को मार के उसके  का होम करना यह अश्वमेघ नहीं है

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ 180

यदि स्वामी विवेकानंद अश्वमेघ यज्ञ का अर्थ पशु हत्या लेते हैं तो क्या पित्र यज्ञ में माता पिता की हत्या कर उनके मांस से हवन करना सिध्ध करेंगे और अतिथी यज्ञ में  क्या अतिथियों की हत्या करके उसके रक्त और मांस से हवन करने का उपदेश अपने भक्तों  को प्रदान करेंगे। यदि यह  हो जाये तो संसार में मानवता का क्या होगा। यह  तो पतन की पराकाष्ठ होगी। यज्ञ से तो परोपकार की सिध्धी होती है।  यदी यज्ञ का यह अर्थ ले लिया जाये तो यह तो यज्ञ के शाब्दिक अर्थ के साथ भी  अत्याचार ही होगा।  परोपकार का यह धर्म वेदों ने ही समस्त संसार को पढाया  है उसके उस  उपदेश का क्या अर्थ रह जाएगा।

महर्षी दयानंद  लिखते हें  की जो सायन आचार्य और महीधर आदि अल्प्बुध्धि लोगों के झूठे व्याख्यानों को देख के आजकल के आर्यावर्त और युरोप्देश के निवासी लोग जो वेदों के ऊपर अपनी अपनी देश भाषाओँ में व्याख्यान करते हैं वे ठीक ठीक नहीं हैं और उन अनर्थयुक्त  व्याख्यानों के  मानने से मानुषों को अत्यंत दुःख  होता है।   इससे बुध्धिमानो को प्रमाण करना योग्य नहीं है।

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पृष्ठ -58

पंडित गुरुदुत्त अर्थ का अनर्थ करने वालों के वालों के प्रति यह रोष ही था जिसकी वजह से वो लिखते हैं की  यूरोपियन विद्वानों में  पांडित्य की न्यूनता वैदिक भाषा और तत्वज्ञान से उनकी पूर्ण अनिभिज्ञता ही हमारे देश में भी इतने कुसंस्कार और पक्षपात का कारनहै

मुनिवर गुरुदुत्त  विद्यार्थी – पृष्ठ 142

 

मांसाहार शक्ती का साधन और भारत की गुलामी का कारण

स्वामी विवेकानंद की यह अवधारणा थी की मांसाहार शक्ति प्रदान करने का साधन है और मांसाहार मानव जीवन का आवश्यक अंग है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार जीवन में मांसाहार की अनुपर्स्थिति शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता को जन्म देती है एवं मनुष्य एवं समाज को  शारीरिक बौध्धिक उन्नति के रास्ते से पृथक कर देती है ।

स्वामी विवेकानंद के मांसाहार के इतने प्रबल समर्थक थे की उन्होंने भारतवर्ष की गुलामी का कारण भारतवासियों का मांसाहारी न होना घोषित कर दिया। स्वामी विवेकानंद कहते हें की यदि भारतवासी मांसाहारी होते तो अंग्रेज कभी भारतवर्ष पर राज्य न कर पाते। स्वामी विवेकानंद यहीं नहीं रुके अपितु जापान के विकास के पीछे  भी जापान वासियों का मांसाहारी होना घोषित कर दिया। स्वामी विवेकानंद का विचार था की जो लोग कहते हैं की मांसाहार स्वाश्थ्य के लिए ठीक नहीं है वो बकवास करते हें। स्वामी विवेकानंद के अनुसार  मांसाहार न केवल शारीरिक शक्ती प्रदान करने का स्त्रोत है अपितु बौद्धिक शक्ती का भी हेतु है, भारत ने यदि पूर्वकाल में उन्नति की थी तो वह  की  भारत में ऋषी मुनि मांसाहार पर आश्रित थे परन्तु स्वामी जी की यह दलील एक निरर्थक तर्क ही साबित होता है क्योंकि भारत वर्ष में ना तो कभी मांसाहार  लोगों में  प्रचलित रहा, नहीं वैदिक शाश्त्रों में ऐसा करने का कोई विधान मिलता है अपितु पशु रक्षा एवं संवर्धन हेतु अनेकों उपदेश वेद मन्त्रों और शाश्त्रों ने दिए हैं। भारतवर्ष में तो  आहार शुध्धी पर विशेष ध्यान दिया  है जैसा आहार होगा वैसी ही बुध्धी होगी और मांसाहार इत्यादि को तो पूर्णतया त्याज्य एवं निंदनीय कर्म कहा गया है। योगीराम श्री कृष्ण भी गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए  फल आहार की ही शिक्षा देते हैं :

विविक्तसेवी लाध्वाशी यात्वाकक्यायमानसः ।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।। .

गीता 18/52

ब्रह्म की प्राप्ती में  योगीराज श्री कृष्ण एकांत सेवी हल का आहार करने का उपदेश देते हैं श्री कृष्ण बल का साधन सात्विक आहार ही बताते हैं।

आयुः सत्व बलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना।

रस्या: स्निग्धा: स्थिर हृघ्या आहारा: सात्विकप्रियाः।।

गीता 17/8

आयु सत्व बल आरोग्य सुख तथा रसास्वादन की शक्ति बदने वाले रसयुक्त चिकने स्थिरता प्रदान करने वालेह्रदय शक्ति वर्धक आहार सात्विक लोगों के प्रिय हैं ।

 

स्वामी विवेवाकंद शक्ती का राज मांस खाने को बताते हुए कहते हैं की यदि भारत में क्षत्रिय शक्ती होती तो की अंग्रेज भारत पर राज कर सकते थे? भारत को यदि क्षत्रिय शक्ती का विकास करना है तो उन्हें मांस खाना चाहिए

“Do you think that a handful of Englishmen could rule India if we had a militant spirit? I teach meat-eating throughout the length and breadth of India in the hope that we can build a militant spirit!”

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 318

हिन्दुओं और चीन देश के निवासियों को देखो वो कितने कमजोर हैं वो मांस नहीं खाते और किसी तरह थोड़ा खा के सब्जियों और चावल पर जीवित रहते हैं। उनकी दयनीय हालत देखो। जापान वासी भी उसी दयनीय हालत में थे लेकिन वो अब बदल गए हैं उनहोंने मांस खान प्रारंभ कर दिया है भारतीय सेना में देखो कितने सैनिक शाकाहारी हैं। उनमें से श्रेष्ट गोरखा और सिख शाकाहारी नहीं हैं। कुछ कहते हें की मांसाहार स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है। कुछ कहते हैं की या बकवास है। सबसे ज्यादा शाकाहारी पेट की समस्या से ग्रस्त रहते हैं हो सकता है की शाकाहारी भोजन पेट को ठीक रखता हो लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है की आप पुरे संसार पर इसको थोपें ।

“Look at the Hindus and the Chinamen, how poor they are. They do not take meat, but live somehow on the scanty diet of rice and all sorts of vegetables. Look at their miserable condition. And the Japanese were also in the same plight, but since they commenced taking meat, they turned over a new leaf. In the Indian regiments there are about a lac and a half of native sepoys; see how many of them are vegetarians. The best parts of them, such as the Sikhs and the Goorkhas, are never vegetarians”.

One party says, “Indigestion is due to animal food”. The other says, “That is all stuff and nonsense. It is mostly the vegetarians who suffer from stomach complaints.” Again, “It may be the vegetable food acts as an effective purgative to the system. But is that any reason that you should induce the whole world to take it?”

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 484

कोई कुछ भी कहे लेकिन वास्तविकता यह है की जिस देश में मांसाहार किया जाता है वो बहादुर शक्तिशाली और दयालु होते हैं। जिन देशों में मांसाहार किया जाता है वो कहते हैं की जिन दिनों में भारत वर्ष में यज्ञ होता था और पशुओं की बली दी जाती थे उस समय भारत वर्ष में महान धार्मिक बुध्धिमान पुरुष उत्पन्न हुए। लेकिन जब से भारत में ये शाकाहारी बाबाओं का आंदोंलन चला है जब से एक भी व्यकी उनकी बीच में ऐसा व्यक्ती उनकी बीच में पैदा नहीं हुआ

Whatever one or the other may say, the real fact, however, is that the nations who take the animal food are always, as a rule, notably brave, heroic and thoughtful. The nations who take animal food also assert that in those days when the smoke from Yajnas used to rise in the Indian sky and the Hindus usedto take the meat of animals sacrificed, then only great religious geniuses and intellectual giants were born among them; but since the drifting of the Hindus into the Bâbâji’s vegetarianism, not one great, original man arose midst them. Taking this view into account, the meat-eaters in our country are afraid to give up their habitual diet.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 484

 

मांस खाना बर्बरता है और शाकाहारी भोजन शुध्द उसे कौन झुठला सकता है। जो केवल आद्यात्मिक जीवन जीना चाहता है उसके लिए यह आवश्यक भी है। लेकिन व्यक्ती जिसे अपनी जीवन की नौका को कठिनतम श्रम से  जीवन मृत्यु के संघर्ष एवं इस संसार के संघर्ष से निकालनी है उसे मांस खान चाहिए जब तक संसार में कमाजोर्र पर शक्तिशाली की विजय की भावना रहेगी तब तक पशुओं का मांस खान आवश्यक है अन्यथा कमजोर शक्तिशालियों के पैरों तले कुचले जाते रहेंगे। यह सही नहीं है कि  किसी के शरीर पर शाकाहार से होने वाले  लाभों का वर्नन किया जाये    आवश्यकता इस बात की है दो देशों का तुलानात्मन अध्ययन करके नतीजा निकाला जाए।

To eat meat is surely barbarous and vegetable food is certainly purer — who can deny that? For him surely is a strict vegetarian diet whose one end is to lead solely a spiritual life. But he who has to steer the boat of his life with strenuous labour through the constant life-and-death struggles and the competition of this world must of necessity take meat. So long as there will be in human societsuch a thing as the triumph of the strong over the weak, animal food is required; otherwise, the weak will naturally be crushed under the feet of the strong. It will not do to quote solitary instances of the good effect of vegetable food on some particular person or persons: compare one nation with another and then draw conclusions.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 485

 

सभ्यता के विकास पर बोलते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं की  देवता अन्न  और शब्जियों पर जीते थे सभ्य थे और गाँव कस्बों और बागों  में रहते थे और बुने हुए कपडे पहनते थे। असुर पहाड़ों पर  पठारों  पर रेगिस्तान में और समुद्र के किनारे जंगली जानवरों पर फलों पर और देवताओं से जो उनकी गायों और भेड़ों के बदले मिला उस पर जीवित रहे और पशुओं की खाल को ही पहनते थे। देवता कमजोर थे और कठिन परिश्रम नहीं कर सकते थे असुर उनकी अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली थे

The Devas lived on grains and vegetables, were civilised, dwelt in villages, towns, and gardens, and wore woven clothing. The Asuras (The terms “Devas” and “Asuras” are used here in the sense in which they occur in the Gitâ (XVI), i.e. races in which the Daivi (divine) or the Âsuri (non-divine) traits preponderate.) dwelt in the hills and mountains, deserts or on the sea-shores, lived on wild animals, and the roots and fruits of the forests, and on what cereals they could get from the Devas in exchange for these or for their cows and sheep, and wore the hides of wild animals. The Devas were weak in body and could not endure hardships; the Asuras, on the other hand, were hardy with frequent fasting and were quite capable os suffering all sorts of hardships.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 523

 

स्वामी विवेकानंद के एक शिष्य ने उनसे पूछा  की ” क्या मांस मछली खाना  ठीक है  ” स्वामी जी ने उत्तर दिया की – खूब खाओ भाई अगर इसमें कुछ गलत भी है तो वह मेरा है, भारत की जनता की तरफ देखो उनके चहरे पर कितनी दयनीयता है बड़े बड़े पेट शक्तीविहीन हाथ पैर  और ह्रदय में साहस और कुछ कर जाने की इच्छा। डरे हुए कायर

 

Disciple: Is it proper or necessary to take fish and meat?

Swamiji: Ay, take them, my boy! And if there be any harm in doing so, I will take care of that. Look at the masses of our country! What a look of sadness on their faces and want of courage and enthusiasm in their hearts, with large stomachs and no strength in their hands and feet — a set of cowards frightened at every trifle!

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 5- Pg 401

 

शिष्य : क्या मछली और मांस शक्ती प्रदान करते हैं? बौध्ध और वैष्णव क्यूँ कहते हैं की अहिंसा ही परम धर्म है

स्वामी विवेकानंद: बौध्ध और वैष्णव अगल अलग नहीं हैं बौद्ध समाज का अहिंसा का सिध्धांत बहुत अच्छा है लेकिन इसे बिना लोगों की सामर्थ्य और आवश्यकता को समझे थोपना ठीक नहीं है। बौध्धों ने भारत को बर्बाद कर दिया है।

 

Disciple: Does the taking of fish and meat give strength? Why do Buddhism and Vaishnavism preach ” — Non-killing is the highest virtue”?

Swamiji: Buddhism and Vaishnavism are not two different things. During the decline of Buddhism in India, Hinduism took from her a few cardinal tenets of conduct and made them her own, and these have now come to be known as Vaishnavism. The Buddhist tenet, “Non-killing is supreme virtue”, is very good, but in trying to enforce it upon all by legislation without paying any heed to the capacities of the people at large, Buddhism has brought ruin upon India. I have come across many a “religious heron”!* in India, who fed ants with sugar, and at the same time would not hesitate to bring ruin on his own brother for the sake of “filthy lucre”!

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 5- Pg 401

 

पूर्वी बंगाल के निवासी मछली और कछुए खाते हैं वे बंगाल के इस भाग के निवासियों से ज्यादा स्वस्थ हैं

Just see — the people of East Bengal eat much fish, meat, and turtle, and they are much healthier than those of this part of Bengal.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 5- Pg 402

स्वामी विवेकानंद मांसाहार के बारे में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं की जितना खान है उतना खाओ और किसी निंदा की चिंता न करो। आज देश में शाकाहारी बाबाओं की बाड़  आ गयी है

 

Swamiji: Yes, take as much of that as you can, without fearing criticism. Thecountry has been flooded with dyspeptic Bâbâjis living on vegetables only.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 5- Pg 402

आज राजस तत्व की अत्यधिक आवश्यकता है। जिन लोगों को आप  सात्विक तत्व का समझते हो उनमें से 90 प्रतिशत से अधिक गहन तामस में डूबे हुए हैं। पर्याप्त होगा यदी उनमें से 1/16 भी सात्विक हों। हमें अभी अत्यधिक राजस शक्ती की आवश्यकता है इस देश को राजस शक्ती से परिपूर्ण करना है। इस देश के लोगों को खाने और कपड़ों की आवश्यकता है उन्हें और कारगर बनाना है अन्यथा और पेड़ों और निर्जीव पत्थरों की भांती हो जायेंगे। इसलिए में कहता हूँ मेरे बच्चों जितना हो सके मछली और मांस का सेवन करो

Swamiji: That is what I want you to have. Rajas is badly needed just now! More than ninety per cent of those whom you now take to be men with the Sattva, quality are only steeped in the deepest Tamas. Enough, if you find one-sixteenth of them to be really Sâttvika! What we want now is an immense awakening of Râjasika energy, for the whole country is wrapped in the shroud of Tamas. The people of this land must be fed and clothed — must be awakened — must be made more fully active. Otherwise they will become inert, as inert as trees and stones. So, I say, eat large quantities of fish and meat, my boy!

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 5- Pg 402

भक्ती योग पर भाषण देते हुए स्वामी जी कहते हें जो मांस खाता है वह खुद ही पशुओं को मारे। मांस खान उनको लिए आवश्यक है कठिन परिश्रम करते हैं और जिन्हें भक्त  नहीं बनाना है।

That It would be better if every amn who eats meat killed the animal himself Eating meast is only allowable for the people who do very hard work and who are not going to be bhakts

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 4- Pg 4-5

 

प्राम्भ में मेरे गुरु शाकाहारी थे लेकिन यदी मांस काली माँ को चड़ाया जाए तो वह उसे मस्तक से लगा लिया करते थे। किसी की ह्त्या करना निःसंदेह ही पाप कर्म है लेकिन लेकिन  रसायनशाश्त्र  की खोज ने यह साबित किया है की शाकाहार मानव शरीर के लिए उपयुक्त नहीं है इसलिए मॉस खाने के अलावा कोई नहीं है। यदी मनुष्य को संक्रिय रहना है तो मांस खान ही एक साधन है। यह सत्य है की सम्राट अशोक ने अनोंको जानवरों का जीवन तलवार की धार से बचाया था लेकिन हजारों सालों की गुलामी उससे कही अधिक बुरी है। कुछ बकरियों की जान लेना या फिर अपनी पत्नी बेटियों की रक्षा करने में असमर्थ रहना अपने पुत्र के हाथों से खाने को लुटते हुए बचाना में असमर्थ रहना इसमें से कोनसा  अधिक पाप कर्म है। जो कठिन परिश्रम नहीं करते हैं  लिए शाकाहार पर जीना ठीक है लेकिन जो परिश्रम करके अपनी जीविका चलाते हैं उनके लिए मासाहार आवश्यक है। सभी के ऊपर शाकाहार को थोपना ठीक नहीं है और ये ही  देश के गुलाम होने का  कारण है। जापान इसका उदाहरण है की  भोजन क्या कर सकता है

 

About vegetarian diet I have to say this — first, my Master was a vegetarian; but if he was given meat offered to the Goddess, he used to hold it up to his head. The taking of life is undoubtedly sinful; but so long as vegetable food is not made suitable to the human system through progress in chemistry, there is no other alternative but meat-eating. So long as man shall have to live a Râjasika (active) life under circumstances like the present, there is no other way except through meat-eating. It is true that the Emperor Asoka saved the lives of millions of animals by the threat of the sword; but is not the slavery of a thousand years more dreadful than that? Taking the life of a few goats as against the inability to protect the honour of one’s own wife and daughter, and to save the morsels for one’s children from robbing hands — which of these is more sinful? Rather let those belonging to the upper ten, who do not earn their livelihood by manual labour, not take meat; but the forcing of vegetarianism upon those who have to earn their bread by labouring day and night is one of the causes of the loss of our national freedom. Japan is an example of what good and nourishing food can do.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 4- Pg 487

 

मांसशक्तीकासाधननहींअपितुरोगयुक्तजीवनकाआवाहन

 

मांस खाना शक्ती का साधन  अपितु बीमारियों को दावत देने के सामान है। 12 March,2012 को The New York Times, प्रकाशित करता है कि मांस खाने से केंसर और ह्रदय संबंधी रोगों का खतरा अधिक बड़ जाता है। जितना आप मांस खाते हैं उतना ही रोग ग्रस्त होने  का खतरा बढता जाता है।

1980 से 2006 तक 121342 लोगों पर किये  गए प्रयोग के आधार पर Archeivesof  Internal Medicines में प्रकाशित रिपोर्ट कहती है की इस समूह में 23926 मौते हुईं  जिनमें से 5910 केंसर की वजह से और 9464 ह्रदय रोग की वजह से थीं।

रिपोर्ट आगे कहती है की जो लोग ज्यादा मांस काहते हैं वो शारीरिक रूप से कम क्रियाशील होते हैं और उनमें धुम्रपान की लत ज्यादा  पायी जाती है। प्रतिदिन मांस खान इस खतरे को और बड़ा देता है

मांस है ही सड़ी हुयी वस्तु। जब तक वो जीवित शरीर के अन्दर है तब तक को ठीक है जैसे ही उसे मारकर रखा जाए कुछ समय पश्चात् उसमें से दुर्गन्ध आने लगती है। कोई व्यक्ती दो दिन पुरानी  लाश के पास बैध भी नहीं सकता। यही वो कारण है की जिस के कारण कोई मांसाहारी जीवित पशु को मारकर ही मांस खाता है  भी स्वयं मरे हुए जीव का मांस नहीं खाता क्यूंकि उसमें प्राण निकलने के साथ ही दुर्गन्ध होने लगती है और यही रोगों का कारण है।

 

 

 स्वामी विवेकानंद स्वयं को 31   तरह की बीमारियां

स्वामी विवेकानंद स्वयं 31   तरह की बीमारियों से ग्रसित  थे।  The Indian Express 6  Jan,2012 को  प्रकाशित करता है कि  स्वामी विवेकानंद को 31 तरह की बीमारियां  थीं।  पत्र   की वो Insomnia ,Liver ,Kidney ,Malaria ,Migraine, Diabetes और Heart जैसी बीमारियों से ग्रसित  थे।बंगाली   लेखक ने  विवेकानंद को बीमारियों के मंदिर की संज्ञा दे डाली  है।

 

 

डॉक्टर जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक “स्वास्थय के शत्रु अंडे व मांस” में पाश्चात्य विद्वानों की इस बारे में निम्नलिखित टिप्पड़ियां दी हैं:

Appendicites is practically unknown among vegetarians – Dr. Lucas Champoniere

शाकाहारियों में अपेंडीसाईतीज का रोग नहीं होता है

Cancer are caused by diseased meat- Dr. Lefenwill

केंसर का रोग दूषित मांस खाने के कारण होता है

There is more suicide in England where most meast is eaten and beer is drunk and less in scotland where less meat is taken…. suicides is believed to be increasing in England and so is the meat eaten per head of population – Uric Acid – Dr. Heg

अर्थात इंग्लेंड में मांस और शराब का अधिक प्रयोग होत्ता है अतः इंग्लेंड में आत्महत्या अधिक होती है। स्काटलैंड में कम है इसलिए कम। इंग्लैंड में मास  अधिक खाया जाता है परिणामस्वरूप आत्महत्या बड़  रही है।

Mil bread butter vegetables and scotch broth ( mixed barley and other vegetables) are the very best of all foods for children and they should be given in abundance …. Flesh eating chldre are often nervous thin. Dr. T.S> Clouston

दूध रोटी मख्खन तरकारी और दलिया बच्चों के लिय सब भोजनों में सर्वश्रेष्ठ है और पर्याप्त मात्रा में देने चाहिए। मांस खानेवाले बच्चे  धैर्यहीन और दुर्बल होते हैं

As a medical man I desire to add my tesimoney both from the result of my personal experience and from observation through many years of hospital and private practice I ascertain that flesh eating is unnecessary un antural and unwholesome Dr. Jaanwood M. P.

अर्थात एक डॉक्टर के रूप में अपने वैयक्तिक तथा सार्वजनिक अनुभव जोकि अस्पताल तथा निजी व्यवसाय में हुए हैं के आधार पर में बल पूर्वक घोषणा करता हु नकी मांस भोजन अनावश्यक अस्वाभाविक तथा स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है

 

स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती लिखते हैं कि  मांस खाने से शक्ति और वीरता आती है यह विचार भ्रमपूर्ण एवं मूर्खतापूर्ण है। शक्ति शाक और फलों में है मांस में नहीं मांस का खाना तो नाना प्रकार की बीमारियाँ लाता है। मांस अस्वाभाविक भोजन है इसके भक्षण से भगन्दर क्षय और अंतड़ियों में कीड़े पढ़ना आदि अनेक व्याधियां उत्पनन हो जाती हैं। मांस भक्षण से प्राय कब्ज की बीमारी हो जाती है। कब्ज से अन्य रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मांस भक्षण की जिव्ह्या मैली रहती है मुखमंडल का रंग फीका रहता है। आँखों के इर्द गिर्द झिल्लियाँ पद जाती हैं। साँस और पसीने में बदबू उत्पन्न हो जाती है। स्वभाव में चंचलता और चिडचिडापन आता है। डॉक्टर टर्नर जो बने के स्वस्थाध्यक्ष थे ने एक बार लिखा था की क्षय रोग पशुओं में बहुत फैला हुआ है। पक्षियों में इस रोग की मात्रा और भी अधिक है विशेषकर मुर्गियों और हंसों में। वन्य पशु भी इस रोग से बहुत पीड़ित होते हैं। सूअर का सारा शरीर इस रोग के कीटाणुओं से भरा रहता है। ये पशु तो केवल सफाई कर्मचारी का काम दे सकते हैं। कदाचित ही किसी सूअर का मॉस स्वास्थ्यदायक हो, क्योकि इसका स्वाभाव ही गन्दगी खाना है। जो जानवर ऐसी घृणित वास्तु खाता है उसका मांस कदापि नहीं खाना चाहिए

इसी सन्दर्भ में अग्नीव्रत नैष्ठिक लिखते हैं की कुछ दिन पूर्व मैड काऊ नामक बीमारी उरोप में फ़ैली जिससे गोभक्षक पापी मरे। यह बीमारी उन गायों का मांस खाने से फ़ैली थी जिन्हें यह रोग था। गायों में यह रोग उन्हें मांस उत्पादनार्थ मोटा करने के लिए मांस खिलाने से फैला और गाय मरने लगी। जब उनसे यह रोग मनुष्यों में  फ़ैलने लगा तो नर पिशाचों ने निर्दोष गायों को जीवित जला दिया। जब शाकाहारी पशुओं को अप्राकृतिक आहार मांस खिलाने से यह समस्या उत्पन्न हई तब क्या शाकाहारी मनुष्य को अप्रकृत आहार मान खिलाने से रोग नहें फैलेंगे? वर्ष 1997 में हांगकांग में मुर्गी के मांस व अण्डों को खाने से बर्ड फ्लू नामक बीमारी फ़ैली थी जिसमें 12 लाख मुर्गियों को जला कर मार डाला था तब से यह बीमारी आम हो गयी है और प्राय दो चार साल बाद फैलती ही रहती है

विदेशीराज्यफैलने  काकारण

 

स्वामी दयानंद सरस्वती लिखते हैं की विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण – आपस की फूट  मतभेद ब्रम्हचर्य का सेवन न करना विद्या न पड़नी ना पडानी बाल्यावस्था में अस्व्यम्वर  विवाह विषयासक्ति मिथ्याभाशानादी  कुलक्षण वेदविद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं। जब आपस में भाई भाई लड़ते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। क्या तुम महाभारत की बाते जो पाच सहस्त्र वर्ष के पहले हुयीथी उनको भूल गए? देखो! महाभारत युध्ध में सब लोग लड़ाई में सवारियों पर खाते पीते थे। आपस की फुट से कौरव पांडव और यादवों का सत्यानंश हो गया सो तो हो गया परुन्तु अब भी वही रोग पीछे लगा है न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छुटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर  दुखसागर में  डूबा मरेगा? उसी दुष्ट दुर्योधन गोत्र हत्यारे स्वदेश विनाशक नीच के दुष्ट मार्ग में आर्य लोग अब तक बी चल कर दुःख बडा  रहे हैं परमेश्वर कृपा करे की यह महाराज रोग हम आर्यों में  नष्ट हो जाए

सत्यार्थ प्रकाश : दशम सम्मुलास

 

श्राध्धमेंपशुबलीऔरमनुपरपशुहत्याकादोषारोपण

एक स्थान पर शाश्त्र कहते हैं की यज्ञ मे कि  यज्ञ में पशुओं को मारो दुसरे  पर ये कहते हैं की किसी की जान मत  लो। हिन्दू सोचते हैं की यज्ञ के अलावा किसी की भी जान लेना पाप है लेकिन यज्ञ में बली   देकर कोई बिना पाप का भागी बने मांस का स्वाद ले सकता है। वास्तवमेंकुछगृहस्थके लिए कुछ  नियमहैंजहाँउसेकुछअवसरोंपरपशुओंकोमारनाआवश्यकहैजैसेकीश्राध्धइत्यादि। यदि वह इस अवसरों पर बली नहीं देता है तो पाप का   माना जाता हैमनुकहतेहैंकीजिनकोश्राध्धनिमंत्रणदियागयाहैऔरदुसरेआयोजनोंमेंजहाँपशुओंकामानपरोसाजाताहैयदिवोवहमांसनहींखातेहैंतोअगलेजन्ममेंपशुओंकीश्रेणीमेंजन्मलेतेहैं।

In one place the Shastra dictates, “Kill animals in Yajnas”, and again, in another place it says, “Never take away life”. The Hindus hold that it is a sin to kill animals except in sacrifices, but one can with impunity enjoy the pleasure of eating meat after the animal is sacrificed in a Yajna. Indeed, there are certain rules prescribed for the householder in which he is required to kill animals on occasions, such as

Shraddha and so on; and if he omits to kill animals at those times, he is condemned as a sinner. Manu says that if those that are invited to Shraddha and certain other ceremonies do not partake of the animal food offered there, they take birth in an animal body in their next.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 6- Pg 481

 

स्वामी विवेकानंद गृहस्थों के लिए कुछ नियम बताते हुए कहते हैं कि  उनके लिए कुछ नियम के पालन हेतु जीव हत्या करना एवं मांस खान अनिवार्य है लेकिन यहाँ ना तो वे उन नियमों का जिक्र करते हैं की वे कौनसे ऐसे नियम हैं जो जीव हत्या और मांसाहार को ग्राहस्थ्य के लिए आवश्यक बताते हैं ना ही किसी धर्म शाश्त्र का ही उद्धरण देते हैं। एक श्राध्द का नाम उन्होंने अवश्य दिया है की गृहस्थ को इसमें जीव हत्या करना बली देना आवश्यक था।

स्वामी दयानंद सरस्वती श्राद्ध शब्द की बड़ी ही अच्छी  व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि जो विद्वान् देव ऋषी और पितरों की श्रध्दा पूर्वक सेवा करना है उसी को श्राद्ध जानना चाहिए। (रिग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ट 197) यहाँ कहीं भी जीव ह्त्या का विधान नहीं है।

मनु के बारे में यह दोषारोपण करना कि मनु कहते हैं की जिनको श्राध्ध में निमंत्रण दिया गया है और दुसरे आयोजनों में जहाँ पशुओं का मांस परोसा जाता है यदि वो वह मांस नहीं खाते हैं तो अगले जनम में पशुओं    के रूप  में जन्म लेते हैं   वो ही कह सकता है जिसने कभी मनु को पडा ही  नहीं या फिर वो प्रक्षिप्त श्लोकों  में भेद ना   कर  सका। मानवमात्र  के  लिए कानून के रचियता महर्षि मनु ने मासाहार के सम्बन्ध में एक नहीं  आठ प्रकार के पाप एवं दोशारोपियो का वर्णन किया है

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी

संस्कर्ता चोपहर्ता  खादकश्चेति घटका। ।  मनुस्मृति 5/51

अर्थात मांसाहार की अनुमति  देने  वाला खरीदने बेचने वाला मांस काटने वाला पशु मारने वाला पकाने परोसने वा खाने वाला ये आठ घोर पापी हैं। ऐसा प्रतीत होता है की स्वामी विवेकानंद ने महर्षि मनु के ये श्लोक पड़े नहीं थे। जो मांसाहार के बारे में इतनी विस्तृत व्याख्या करने वाले महर्षी मनु पर मांसाहार का आरोप लगना महर्षी की छवि पर कुठाराघात का एक असफल प्रयास ही है।

महर्षि मनु ने   मांस को    वर्जित किया है

वर्जयेन्मधु मासं। मनु 6/14

ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा मान्स्मुत्पध्यते क्वचित ।

न च प्रानिवध: स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसम विवर्जयेत। ।  मनु 5/48

प्राणियों की हिंसा किये बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हत्या करना सुखदायक नहीं है इस कारण मांस नहीं खाना चाहिए

यो बंधन वध्क्लेशान प्राणिनाम न चिकीर्षति ।

स सर्वस्य हित्प्रेप्शु: सुख मत्यंत मंश्रुते । । मनु 5/46

जो व्यक्ति प्राणियों को बंधन में डालने वध करने उनको पीड़ा पहुंचाने की इच्छा नहीं करता वह सब प्राणियों का हितैषी बहुत अधिक सुख को प्राप्त करता है

समुत्पत्ति च मांसस्य वध्बन्धौ च देहिनात।

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्व मांसस्य भक्षणात । मनु 4/49

मांस की उत्पत्ति जैसे होती है असको प्राणियों की हत्या और बंधन के  कष्टों को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण से दूर रहे

यो हिन्सकानि भूतानि हिन्सत्यात्म्सुखेच्या ।

स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वाचित्मेधते । । मनु 5/45

जो मनुष्य अपने सुख के लिए अहिंसक प्राणियों की ह्त्या करता है वह न इस जीवन में सुख पाता है न जीवांतर में

शाश्त्रोंमेंमांसभक्षणकानिषेध

सुरां  मत्सयान्मधु मांसमान्सवक्रिसरौदनम ।

धुर्तः  प्रवर्तितं ह्ये तन्नैतद वेदेषुकल्पितम। । शांतिपर्व 264/9

सुरा मछली मद्य आसव आअदि खाना धूर्तों ने प्रचलित किया ही वेद में इन पदार्तों के खाने पीने का विधान नहीं है

अधिम्सा परमो धर्मः सर्व्प्रन्भ्रितम वर।   आदि पर्व 11/13

किसी भी प्राणी को न मारना ही परम धर्म है

प्रानिनाम्वधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।

अनृतम वा वादेद्वाचं न तू हिस्यात्काथ्प्राप्त। । कर्ण पर्व 69/23

में प्राणियों का न मरना ही सबसे उत्तम मानता हूँ। झूठ चाहे बोल दे पर किसी की हिंसा ना करे।

जीवितुम यह स्वयं चेच्छेत  कथं सॊन्यम प्रघात्येतु ।

यद्यदात्मनि  चेच्छेत  तत्परस्यापि  चिन्तयेत। ।  शांती पर्व 259/22

जो स्वयं जीने की इच्छा करता है वह दूसरों को कैसे मारता है ? प्राणी जैसा अपने लिए चाहता है वैसा दूसरों के लिए भी वह चाहे। कोई मनुष्य यह नहीं कहता की कोई हिंसक पशु वा मनुष्य मुझे मेरे बल बच्चों इष्टमित्रों व सगे सम्बन्धियों को किसी प्रकार का कष्ट दे वा हानि  पहुंचाए अथवा प्राण ले वा इनका मांस खाए। एक कसाई जो प्रतिदिन सैकड़ों वा सहस्त्रों प्राणियों के गले पर छुरी चलता है आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूरी चुभोएँ तो वह इसे कभी सहन नहीं करता। फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे कहाँ से मिल गया। प्राणियों का हिंसक कसाई महा पापी होता है ।

घातकः खडकी वापि तथा य्श्चानुमंयते ।

यावन्ति तस्य रोमानी तावडू वर्षानी मज्जति। । अनुशाशन पर्व

मारने वाला खाने वाला सम्मति देने वाला ये सब उतने दुःख में दुबे रहते हैं जितने के मरने वाले पशु के रोम होते हैं। अर्थात मांसाहारी धातकी आदि लोग बहतु जन्मों तक भयंकर दुखों को भोगते रहते हैं।

धर्मशीलो नरो विद्वानीह्को नहॆकॉपि वा ।

आत्मभूतः सदालोके चरेद भुतान्यहिसया। । शांति पर्व 264/8

धार्मिक स्वभाव वालापुरुष इस लोक को चाहता हो व न चाहता हो सबको सामान समझकर किसी की हिंसा न करता हुआ संसार यात्रा करे किसी को ना सताए

 

बुध्धकीविचारधाराऔरस्वामीविवेकानंद

 

जिस बुध्ध को स्वामी विवेकानंद इश्वर का अवतार बताते हैं उनके मांस भक्षण के विरुध्ध किये कार्य को व्यक्त करते हुए Francisco on march 18th 1900  में “विश्व को बुध्द का सन्देश” पर बोलते हुए कहते हें की बुध्द  ने केवल कहा ही नहीं बल्कि वो विश्व के लिए अपनी जान देने तक तैयार थे। बुध्ध ने कहा की यदी पशुओं को मारना अच्छा है तो मनुष्य को मारना उससे बेहतर है।

बुध्ध को आत्मा का अस्तित्व मान्य नहीं था लेकिन फिर भी उन्होंने बौध्ध भिक्षुओं को उपदेश देते हुए परोपकार धर्म को ही अपनाने को ही बल दिया। बुध्ध कहते हैं कि  जैसा में वैसे ही  ये जैसे ये वैसा  ही  में इस प्रकार अपनी उपमा समझ कर न तो किसी को मारे और न मरवाए।

यथा अहम् तथा एते यथा एते तथा अहम् ।

अत्तानाम उपमं कत्वा न हनेय्यम न घातये ।।

बुध्ध आगे उपदेश देते हैं कि  जो अपने सुख के लिए जो दुसरे प्राणियों की हिंसा करता है उसे मरने पर सुख नहीं मिलता

सुख्कामानी भूतानि यो दन्देन विहिंसती ।

अत्तनो सुखमेसानो पेच्य सो न लभते सुखं। धमम्पद 131

अफसोस है की जिस बुध्ध के  जीव रक्षा के सन्देश को वो जन जन तक पहुचाने का काम कर रहे थे और जिनकी कथनी और करनी को एक जैसा होने का उन्हें ज्ञान था उसी बुध्ध को इश्वर का अवतार बताने वाले स्वामी विवेकानंद अपनी कथनी और करनी में एकरसता नहीं ला सके और पता नही कितने बेजबान पशुओं को अपनी मांस भक्षण की लालासाका ग्रास बना बैठे।

This was what Buddha taught. And he did not merely talk; he was ready to give up his own life for the world. He said, “If sacrificing an animal is good, sacrificing a man is better”,

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 8- Pg 98

 योगेश्वरश्रीकृष्णऔरविवेकानंद

स्वामी विवेकानंद से 1898 में बैलुर मैथ निर्वाण के समय एक शिष्य ने प्रश्न किया की मछली तथा मॉस क्या  उचित तथा आवश्यक है। स्वामी जी  देते हैं कि –  खूब   खाओ भाई  जो पाप होगा वह मेरा।   देश के  की और एक बार ध्यान से देखो तो मुंह पर मलीनता की छाया छाती में न साहस न उल्लास पेट बड़ा  हाथ  पैरों में   शक्ती नहीं – डरपोक और कायर (विवेकानंद के  में –  पृष्ठ – 179 )

कर्म के सिध्धांत के बारे में वही व्यक्ती ऐसा कह सकता है जिसने श्री कृष्ण को ना पड़ा  हो लेकिन श्री कृष्ण को ईश्वर का अवतार बताने वाले एवं गीता पर उपदेश देने वाले स्वामी विवेकानंद  ऐसी बात कहे तो आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है। योगेश्वर श्री कृष्ण गीता के पांचवे अध्याय के पंद्रहवे श्लोक में कहते हें कि:

नादुत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: ।

अग्यानेंवृतम ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।

वह परमात्मा न तो किसी के पापों को अपने ऊपर लेता है न किसी के पुण्य को छीनता है फिर भी लोग परमात्मा हमारे पापों के बदले अवतार लेकर कष्ट भोगेगा अथवा हमारे अमुक मंत्रोच्चार से अमुक पुण्यात्मा के पुण्य नष्ट होकर वह भी नष्ट हो जाएगा इस प्रकार के मिथ्याविश्वास में पड़े रहतेहैं . हमारे सब पाप पुण्य का फल हमको ही भोगना है। परन्तु यह ज्ञान अज्ञान से थका हुआ है इसलिए प्राणी   मोह जाल में फंस जाते हैं ( श्रीमद्भागवद्गीता – पृष्ठ 126)

एक व्यक्ती के कर्म दुसरे व्यक्ती के सुख दुःख का कारण कैसे बन सकते हैं। व्यक्ती को स्वयं के किये हुए पाप कर्मों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। यदी किसी के किये हुए का फल दुसरे को मिलने लगे तो ईश्वरीय नियमों में  नित्यता का क्या अर्थ रह जाएगा। महाभारत के शांती पर्व में भी यही कहा है की –

यथा धेनु सहश्त्रेशु वत्सो विन्दते मातरम ।

तथा पूर्व कृतं कर्म कर्तारमनु गच्छति  । । 5/15

अर्थात जैसे बछड़ा हजारों गायों के बीच में अपनी माँ को ढूंड  लेता है वैसे ही किया हुआ कर्म अपने करने वाले को जा पकड़ता है।

वेद भी इसी तत्थ्य की पुश्टी करते हुए कहते हैं कि  “स्वयं य्जस्व स्वयं जुशस्व  महिमा ते नान्येन सनशे यजुर्वेद 23/15” मनुष्य स्वयं ही कर्म करे और स्वयं ही फल भोगे

 

योगेश्वर श्री कृष्ण समस्त प्राणियों में सम दृष्टी रखने का एवं सभी के सुख दुःख को अपना सुख दुःख समझकर समद्रिष्टी रखने का  उपदेश देते हुए कहते हैं कि

 

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो अर्जुन ।

सुखं वास यदि वा दुखम स योगी परमो मतः ।

हे अर्जुन जो अपने आपको उपमान रखकर अर्थात जैसा दुःख मुझे होता है ऐसा ही  होता है यह समझकर समभाव से सबकी सेवा करता है उसे परम योगी माना जाता है। शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है की जो मनुष्य यह समझ जाता है की जैसे मुझे अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख का अनुभव होता है वैसे ही दूसरों को भी अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख होता है वह कभी किसी के प्रतिकूल आचरण नहीं करता है।

जयदयाल इसी का भाष्य करते हुए तत्वाविवेचनी में लिखते हैं की सर्वत्र आत्मदर्शी  हो जाने के कारण समस्त विराट विश्व उसका स्वरुप बन जाता है। जगत में उसके लिए दूसरा कुछ रहता ही नहीं। इसलिए जैसे मनुष्य अपने आपको कभी किसी प्रकार ज़रा भी दुःख पहुंचाना नहीं चाहता तथा स्वाभाविक ही निरंतर सुख पाने के लिए ही अथक चेष्टा करता रहता है ऐसा करके न वह कभी अपने पर अपनेको कृपा करने वाला मानकर बदले में कृतज्ञता चाहता है न कोई अहसान करता है और न अपने को कर्त्तव्य परायण समझकर अभिमान ही करता है वह अपने सुख की चेष्टा इसीलिये करता है की उससे वैसा किये बिना रहा ही नहीं जाता यह उसका सहज स्वभाव होता है ठीक वैसे ही वह योगी समस्त विश्व को कभी किसी प्रकार किंचित भी दुःख न पहुंचाकर सदा उसके लिए सहज स्वभाव ही चेष्टा करता है।

योगेश्वर श्री कृष्ण समस्त  में सम भाव रखने और सबके साथ शाश्त्रानुकुल व्यवहार करने का  देते हुए कहते हैं की सर्व्भुतास्थ्स्थितम यो मां भज्त्यॆक्त्वमस्थित:. सर्वथा वर्त्मानोअपी स योगी मयि वर्तते। (गीता 6/31)   प्राणी मात्र को सुख दुःख का अनुभव एक सा होता है इस एकता को समझकर जो मुझे प्राणी मात्र की सेवा समझकर मेरा ही अनुकरण करता है वह ही सच्चा योगी है।

इश्वर भक्त के लक्ष्ण बताते हुए  योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं की ” विद्या विनय सम्पन्ने ब्रहामने गवि  हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: (गीता 5/18) प्रभु को सर्वत्र विद्यमान जानने वालाल मनुस्य्स विद्या विनय से युक्त ब्राहमण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल आदि में सम रूप से अवस्थित प्रभु का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और इन सबको सामान दृष्टी से देखता अर्थात व्यवहार करता है। जब मनुष्य हर व्यक्ती के अन्दर प्रभु का  प्रतिरूप देखता है तो उसका उन प्राणियों  के प्रति द्वेष की भावना जाती रहती है और वह समस्त प्राणियों में  श्रेष्ठ ब्राहमण से लेकर न्रिक्रिष्ठ चंडाल में तथा पशुओं में श्रेष्ठ गाय से लेकर पशुओं में  निकृष्ट कुत्ते तक को समभाव  से देखता है।

 

काश गीता पर उपदेश देने वाले स्वामी विवेकानंद ने योगेश्वर श्री कृष्ण के उपदेशों को अपने जीवन में उतारा होता।

स्वामी विवेकान्द का यह कथन की मॉस मचली खूब खाओ और पाप की चिंता मत करो चार्वाक दर्शन से ही मेल रखता है जहाँ  ऋण लेकर भी सुख पूर्वक रहने की कल्पना की गयी है ।

यावाज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

जब तक जीयें सुख पूर्वक जीयें। ऋण लेकर भी घी पी अर्थात सुख सुविधाओं का आअनन्द उठाये। इस शरीर के भस्म हो जाने पर किस का क्या लेना और किसी का क्या देना ना लेने वाला फिर कभी यहाँ आएगा और न देने वाला।

 

स्वामीविवेकानंदकेविरोधाभासीविचार

स्वामी विवेकानंद अपने विचारों पर स्थिर नहीं रहा करते थे जहाँ वो कहीं मांस भक्षण को माया और न्यायसंगत शरिरित शक्ती के लिए आवश्यक घोषित करते हैं वहीं पर वो उसे गलत भी बोलते हैं और अहिंसा का समर्थन करते हैं। स्वामी विवेकानंद जहाँ पर वेदों की पशु हिंसा को बढ़ावा देने के लिए  अनर्थंक निन्दा करते हैं वही पर न केवल स्वयं मांस भक्षण करते हैं बल्कि अपने भक्तों को मांस खाने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं की मांस खाना तो शक्ती  प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। जो मेहनत करते हैं उनके लिल्ये मांस भक्षण को अनिवार्य बताते हैं स्वामी विवेकानंद अपने विचारों में इतने परिवर्तन करते थे. स्वामी विवेकानंद के भाषणों  में परस्पर विरोधी विचारों की भरमार है। सत्यार्थ भास्कर में स्वामी विद्यानंद सरस्वती इस बारे में “Teachings of Swamee Vivekanand” के सम्पादक की भूमिका उद्धरित  की है

“ Vivekanand was the last person in the world to worry about formal consistency. He almost always spoke extempore, fired by the circumstances of the moment, addressing himself to the condition of a particular group of hearers reacting to the intent of a certain question. That was his nature and he was supremely indifferent if his words today seemed to contradict those of yesterday.

स्वामी अपनी पुस्तक राज योग के बारे में लिखते हैं के राज योग के आठ भागों में से एक है अहिंसा। योगी को चाहिए की वह तन- मन- वचन से किसी के विरुध्ध हिंसाचार न करें।  भोजन के मानव शरीर पर होने वाले प्रभाव के बारे में लिखते हैं की मानव शरीर पर प्रभाव देखा जा सकता है आप चिड़िया घर में जाके यह भली भांति समझ में आ जायेगा हाथी बड़ा भारी प्राणी है परन्तु उसकी प्रकृति बड़ी शांत है और यदि तुम सिंह या बाघ के पिंजड़े की और जाओ तो देखोगे की वो बड़े चंचल है इससे समझ में आ जाता है की आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है हमारे शरीर  के अन्दर जितनी शक्ती कार्यशील है  वो आहार से पैदा हुयी है।

योग को अहिंसा का आवश्यक तत्व बत्ताने वाले विवेकानंद इसकी वकालत तो करते हैं लेकिन न वो इसे अपने जीवन में उतारते हैं आना दूसरों को इसे अपनाने पर जोर देते हैं अपितु इसके विरुध्ध उपदेश देते हुए कहते हें की यदी संसार में जीना है तो मांस खान चाहिए। स्वामी विद्यानंद सरस्वती के शब्दों में यदि कहें तो स्वामी विवेकानंद उस मील के पत्थर की भांती थे जो रास्ता तो जानता है लेकिन उस पर चला कभी नहीं

राजयोग के बारे में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं की यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा  ध्यान और समाधि ये राजयोग के विभिन्न अंग या सोपान हैं।यमका अर्थ है अहिंसा सत्य अस्तेय  ब्रह्मचर्य औरअपरिग्रह । इस यम से चित्त शुध्धि होती है। शरीर मन और वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें क्लेश न देना – यह अहिंसा कह्ताला है/ अहिंसा से बढकर और धर्म नहीं। मनुष्य के लिए जीव के प्रति यह अहिंसा  भाव रखने से अधिक और कोई उच्चतर सुख नहीं है

विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 101

जो योगी होने की इच्छा करते हैं और कठोर अभ्यास करते हें, उन्हें पहली अवस्था में आहार के सम्बंध में कुछ विशेष सावधानी रखनी होगी । जो शीघ्र  उन्नति करने की इच्छा करते हैं , वे यदि कुछ  केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सके तो उन्हें साधना में बड़े सहायता मिलेगी।

“प्रत्याहार  और धारणा” विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 88

 

सभी नीति संहिताओं में एक ही भाव भिन्न भिन्न रूप प्रकाशित हो हुआ है और वह है – दूसरों का उपकार करना। मनुष्यों के  , प्रति सारे  प्राणियों के प्रति दया ही मानव जाती के समस्त सत्कर्मों का पथ प्रदर्शक प्रेरक है

मनुष्य  का यथार्थ स्वरुप

विवेकानंद साहित्य भाग -2, पृष्ठ 15

सर्वशाश्त्रपुरानेशु व्यासस्य वचनद्वयम।

परोपकरास्तु पुण्याय पापाय परपीडनम।।

सब शाश्त्रों और पुराणों  में व्यास के ये दो वचन हैं – परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़ा से पाप

विवेकानंद साहित्य भाग -2, पृष्ठ 337

अहिंसा का सदा पालन करो

अमेरिका में स्वामी जी द्वारा लिखाया हुआ नारद भक्ति सूत्र का मुक्त अनुवाद

विवेकानंद साहित्य भाग -3, पृष्ठ 292

मन की   शक्ती के  में स्वामी विवेकानंद कहते हैं की “जो नैतिक है वह संभवतः किसी प्राणी या व्यक्ति की हिंसा नहीं करेगा। जो मुक्त होना चाहे उसे अहिंसक बनाना पड़ेगा। जिसमें अहिंसा का भाव है उससे बढकर शक्तिशाली कोई नहीं है।  उसकी उपस्थिति में न तो कोई लड़ सकता है और न झगडा कर सकता है हाँ वह जहाँ कहीं होगा वहीं उसकी उपस्थिति मात्र से शांति और प्रेम उद्भूत होगा दूसरी किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उसकी उपस्थिति में न तो कोई क्रुद्ध होगा न लडेगा। उसके सामने पशु – हिंसक पशु तक भी शांत रहेंगे

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 182

To every man, this is taught: Thou art one with this Universal Being, and, as such, every soul that exists is your soul; and every body that exists is your body; and in hurting anyone, you hurt yourself, in loving anyone, you love yourself. As soon as a current of hatred is thrown outside, whomsoever else it hurts, it also hurts yourself; and if love comes out from you, it is bound to come back to you.

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 389-90

 हर मनुष्य  को  यह शिक्षा दी जाती है की तुम उस विश्वात्मा से एक हो अतः हर जीवात्मा  तुम्हारी ही आत्मा है हर शरीर तुम्हारा ही शरीर है इसलिए दूसरों को चोट पहुँचाना अपने ही को ही चोट पहुंचाना है और दूसरों को प्रेम करना अपने आप से प्रेम करना है

विवेकानंद साहित्य भाग -9, पृष्ठ 119

Upanishads condemn all rituals, especially those that involve the killing of animals. They declare those all nonsense

 

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 452

उपनिषदों द्वारा सभी अनुष्ठानों की निंदा विशेषकर उनकी जिनमें पशुओं का वध किया जाता है। वे उन सबसे अनर्गल घोषित करते हैं।

विवेकानंद साहित्य भाग -7, पृष्ठ 288

Sâttvika people are very thoughtful, quiet, and patient. They take food in small quantities, and never anything bad.

 

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 519

 

सात्विक प्रकृती वाले अत्यंत विचारशील स्तर एवम शांत प्रकृति के होते हैं। वह मिताहारी होते हैं और कभी भी दूषित आहार ग्रहण नहीं करते हैं।

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 165

There is, however, only one idea of duty which has been universally accepted by all mankind, of all ages and sects and countries, and that has been summed up in a Sanskrit aphorism thus: “Do not injure any being; not injuring any being is virtue, injuring any being is sin.”

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 64

 सभी   युगों में समस्त  सम्प्रदायों और देशों के मनीषियों द्वारा मान्य यदि कर्त्तव्य का कोई एक सार्वभौमिक  भाव रहा है तो वह है – परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम  अर्थात परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुःख पहुंचाना ही पाप है

विवेकानंद साहित्य भाग -3, पृष्ठ 39

Certain regulations as to food are necessary; we must use that food which brings us the purest mind. If you go into a enagerie, you will find this demonstrated at once. You see the elephants, huge animals, but calm and gentle; and if you go towards the cages of the lions and tigers, you find them restless, showing how much difference has been made by food. All the forcesthat are working in this body have been produced out of food

The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 136

भोजन  के सम्बन्ध में  कुछ नियम आवश्यक हें जिससे मन खूब पवित्र रहे ऐसा भोजन करना चाहिए तुम यदि किसी अजायबघर में जाओ तो भोजन के साथ जीव का क्या समबन्ध  है यह भली भांति समझ में आ जायेगा हाथी बड़ा भारी प्राणी है परन्तु उसकी प्रकृति बड़ी शांत है और यदि तुम सिंह या बाघ के पिंजड़े की और जाओ तो देखोगे की वो बड़े चंचल है इससे समझ में आ जाता है की आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है हमारे शरीर  के अन्दर जितनी शक्ती कार्यशील है  वो आहार से पैदा हुयी है

विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 46

Râja-Yoga is divided into eight steps. The first is Yama — non-killing, truthfulness, non-stealing, continence, and non-receiving of any gifts.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 137

राज योग आठ अंगों में विभक्त है पहला है  यम अर्थात अहिंसा सत्य असते ( चोरी का अभाव ) ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह

विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 48

A Yogi must not think of injuring anyone, by thought, word, or deed. Mercy shall not be for men alone, but shall go beyond, and embrace the whole world.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 137

 

योगी को चाहिए की वह तन- मन- वचन से किसी के विरुध्ध हिंसाचार न करें।  दया मनुष्य – जाति  में ही आबध्ध ना रहे वरन उसके परे भी वह जायेगी और सारे संसार का आलिंगन कर लेगी

विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 48

Non-killing being established, in his presence all enmities cease (in others).

If a man gets the ideal of non-injuring others, before him even animals which are by their nature ferocious will become peaceful. The tiger and the lamb will play together before that Yogi. When you have come to that state, then alone you will understand that you have become firmly established in non-injuring.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 262

अहिन्सप्रतिष्ठायाम तसन्निधौ वैरत्यागः

भीतर अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर उसके निकट सब प्राणी अपना स्वाभाविक वैर – भाव त्याग देते हैं

यदि कोई व्यक्ति अहिंसा की चरम अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो उसके सामने जो सब प्राणी स्वभावतः ही हिंसक हैं वे भी शांतभाव धारण कर लेते हैं उस योगी के सामने शेर और मेमना एक साथ खेलेंगे। इस अवस्था की प्राप्ति होने पर ही समझनाक कि  तुम्हारा अहिंसाव्रत द्रिड प्रतिष्ठित हो गया है

विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 178

Though all religions have taught ethical precepts, such as, “Do not kill, do not injure; love your neighbour as yourself,” etc., yet none of these has given the reason. Why should I not injure my neighbor?

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 384

 

Therefore in injuring his neighbour, the individual actually injures himself. This is the basic metaphysical truth underlying all ethical codes.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 1- Pg 385

 

The Shrutis say, When the food is pure, the Sattva element gets purified, and the memory becomes unwavering”, and Ramanuja quotes this from the Chhândogya Upanishad.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 64

 

श्रुति कहती है ” आहार शुद्ध होने से चित्त शुध्ध हो जाता है और चित्त  शुध्ध होने से भगवान् का निरन्तर स्मरण होता है”

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 38

The materials which we receive through our food into our body-structure go a great way to determine our mental constitution; therefore the food we eat has to be particularly taken care of.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 65

 हम भोजन के द्वारा अपने शरीर में जिन उपादानो को लेते हैं वो हमारे मानसिक गंध पर विशेष प्रभाव डालते हैं। इसे हमें खाद्य पर विशेष सावधान रहना चाहिए।

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 38

According to him, “That which is gathered in is Ahara. The knowledge of the sensations, such as sound etc., is gathered in for the enjoyment of the enjoyer (self); the purification of the knowledge which gathers in the perception of the senses is the purifying of the food (Ahara). The word ‘purification-of-food’ means the acquiring of the knowledge of sensations untouched by the defects of attachment, aversion, and

delusion; such is the meaning. Therefore such knowledge or Ahara being purified, the Sattva material of the possessor it — the internal organ — will become purified, and the Sattva being purified, an unbroken memory of the Infinite One, who has been known in His real nature from scriptures, will result.”

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 65

 रामानुज के मतानुसार ” जो कुछ आह्रित हो वही आहार है।  शब्दादि विषयों का    ज्ञान  अर्थात  के  के लिए भीतर आह्रित  होता है। इस  विश्यान्भुतिरूप ज्ञान की शुध्धी को आहार शुध्दि कहते हैं। इसलिए आहार शुध्धि का अर्थ है – राग द्वेष और मोह से रहित होकर विषय का ज्ञान प्राप्त करना। अतएव  यह ज्ञान या आहार शुध्ध हो जाने से उस व्यक्ति का सत्व पदार्थ अर्थान अंतःकरण शुद्ध हो जाता है और सत्व शुध्धि हो जाने से आनंदत पुरुष के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान और अविछिन्न स्मृति प्राप्त हो जाती है

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 38

In the list of qualities conducive to purity, as given by Ramanuja, there are enumerated, Satya, truthfulness; Ârjava, sincerity; Dayâ, doing good to others without any gain to one’s self; Ahimsâ, not injuring others by thought, word, or deed; Anabhidhyâ, not coveting others’ goods, not thinking vain thoughts, and not brooding over injuries received from another.

 

The one idea that deserves special notice is Ahimsa, non-injury to others. This duty of non-injury is, so to speak, obligatory on us in relation to all beings. As with some, it does not simply mean the non-injuring of human beings and mercilessness towards the lower animals; nor, as with some others, does it mean the protecting of cats and dogs and feeding of ants with sugar — with liberty to injure brother-man in every horrible way!

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 67

रामानुज ने आतंरिक शौच (शुध्धि)  के लिए निम्नलिखित गुणों को उपास्वस्वरूप बतलाया है। 1. सत्य 2. सरलता 3. दया अर्थान निःस्वार्थ परोपकार 4. दान 5. अहिंसा अर्थात मन वचन और कर्म से किसी की हिंसा न करना 6. अन्भिध्या अर्थान परद्रव्य  लोभ न करना वृथा चिंतन और दुसरे द्वारा किया गए अनिष्ट के आचरण के निरंतर चिंतन का त्याग। इन गुणों में से अहिंसा विशेष ध्यान देने योग्य है। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव हमारे लिए परमावश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं की हम केवल मनुष्यों के प्रति दया का भाव रखे और छोटे जानवर को निर्दयता से मारते रहें और न यही – जैसा कुछ लोग समझते हैं की हम कुत्ते और बिल्लियों की तो रक्षा करते रहे चीटियों को शक्कर खिलाते रहें पर इधर जैसा बने वैसा अपने मानव बनचुओन का गला काटने के लिए बिना किसी झिझक के तैयार रहें।

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 40

 

The cow does not eat meat, nor does the sheep. Are they great Yogis, great non-injurers (Ahimsakas)? Any fool may abstain from eating this or that; surely that gives him no more distinction than to herbivorous animals.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 68

 गाय मांस नहीं खाती और न भेद ही तो या वे बहुत बड़े योगी हो गए अहिंसक हो गए। ऐसा गैर कोई भी कोई विशेष चीज खान छोड़ दे सकता है पर उससे वह घासाहारी पशुओं की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं प्राप्त करता।

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 41

The renunciation necessary for the attainment of Bhakti is not obtained by killing anything, but just comes in as naturally as in the presence of an increasingly stronger light, the less intense ones become dimmer and dimmer until they vanish away completely. (check instance of sacrifice of goat in Kali temple by swami vivekanand – Ref- Vivekanand on himself)

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 72

भक्ति के लिए जिस वैराग्य की आवश्यकता होती है उसको प्राप्त करने के लिए किसी का नाश करने की आवश्यकता नहीं होती। वह वैराग्य तो स्वभावतः ही आ जाता है।

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 47

The earlier Buddhists in their rage against the killing of animals had denounced the sacrifices of the Vedas; and these sacrifices used to be held in every house.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 3- Pg 264

 पहले बौध्ध प्राणी हिंसा की निंदा करते हुए वैदिक यज्ञों के घोर विरोधी हो गए थे

विवेकानंद साहित्य भाग -5, पृष्ठ 158

According to Ramanuja, there are three things in food we must avoid. First, there is Jâti, the nature, or species of the food that must be considered. All exciting food should be avoided, as meat, for instance; this should not be taken because it is by its very nature impure. We can get it only by taking the life ofanother. We get pleasure for a moment, and another creature has to give up its life to give us that pleasure. Not only so, but we demoralise other human beings. It would be rather better if every man who eats meat killed the animal himself; but, instead of doing so, society gets a class of persons to do that business for them, for doing which, it hates them. In England no butcher can serve on a jury, the idea being that he is cruel by nature. Who makes him cruel? Society. If we did not eat beef and mutton, there would be no butchers. Eating meat is only allowable for people who do very hard work, and who are not going to be Bhaktas; but if you are going to be Bhaktas, you should avoid meat. Also, all exciting foods, such as onions, garlic, and all evil-smelling food, as “sauerkraut”. Any food that has been standing for days, till its condition is changed, any food whose natural juices have been almost dried ups any food that is malodorous, should be avoided.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 4- Pg 4-5

 रामानुजम के  अनुसार हमें आहार के तीन दोषों से बचना चाहिए।  तो जाति  दोष अर्थात आहार के स्वाभाविक गुण या किस्म की और ध्यान देना चाहिए। सभी   का वस्तुओं का उदाहरणार्थ मांस आदि का परित्याग करना चाहिए क्योकि ये स्वभावतः ही अप्रवित्र वस्तुएं हैं . दुसरे का प्राण लेकर ही हमें मांस की प्राप्ति होती है। हम तो क्षणमात्र के स्वाद सुख पते हैं पर उधर दुसरे जीवधारी को हमें यह क्षणिक स्वाद सुख देने के लिए सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। इतना ही नहीं हम दुसरे मनुष्यों का भी नैतिक अधोपतन करते हैं। अच्छा तो यह होता की प्रत्येक मांसाहारी स्वयं ही प्राणी वध करता।

मांसाहार का अधिकार उन्ही को है जो बहुत कठिन परिश्रम करते हैं और जिन्हें भक्त नहीं बनाना है। पर यदि तुम भक्त होना चाहते हो तो हमको मांस का त्याग करना चाहिए

विवेकानंद साहित्य भाग -9, पृष्ठ 4-5

 

According to Shankarach. When pure food is taken, the mind is able to take in objects and think about them without attachment, jealousy or delusion; then the mind becomes pure, and then there is constant memory of God in that mind.

It is quite natural for one to say that Shankara’s meaning is the best, but I wish  to add that one should not neglect Ramanuja’s interpretation either.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 4- Pg 7

शंकराचार्य के मतानुसार जब आहार शुध्ध होता है तभी मन अनासक्त और इर्ष्या मोह से रहित होकर पदार्थों को ग्रहण करने और उन पर विचार करने में समर्थ हो सकता है। तब मन शुध्ध हो जाता है और ऐसे मन में ही इश्वर की सतत स्मृति जाग्रत रहती है

यह सोचना स्वाभाविक  है की शंकराचार्य का अर्थ ही सब अर्थों ंईएण श्रेष्ठ है परन्तु फिर भी यहाँ पर में एक बात और कह देना चाहता हूँ की हमें रामानुज के अर्थ की भी अवहेलना नहीं करना चाहिए

विवेकानंद साहित्य भाग -9, पृष्ठ 7

Although it partially succeeded in putting down the animal sacrifices of the Vedas, it filled the land with temples, images, symbols, and bones of saints.

–          The complete work of Swamee Vivekanand, Vol – 4- Page -307

 शाकाहारी एवं मांसाहारी जीवों की शरीर संरचना में अंतर

स्वामी ओमानंद जी शाकाहारी और मांसाहारी जीवों के शरीर की रचना में अंतर बताते हुए लिखते हें कि वस्तुतः मांस मनुष्य का भोजन है  ही नहीं  मनुष्य की शरीर की रचना भी मांसाहार प्राणियों की शरीर की संरचना से पूर्णतया भिन्न है।  मांसाहारी जीव प्राय रात को जागते  और दिन में आराम  करते हें जबकी शाकाहारी दिन में जागते हैं और रात में आराम करते हैं। मांसाहारी अपना भोजन बिना चबाये निगल जाते यहीं लेकिन शाकाहारी अपना भोजन चबा चबा के खाते हैं। मांसाहारी दूसरों को मारकर खाते हें  जबकि शाकाहारी दयाभाव से आवृत होते हैं।मांसाहारियों को  अधिक परिश्रम के समय थकावट शीघ्र होती है और अधिक थक जाते हैं जैसे शेर चीता भेड़िया आदि मांसाहारी एक बार पेट भरकर खा लेते हैं और फिर एक सप्ताह व इससे भी अदिक समय तक कुछ भी नहीं खाते सोये पड़े रहते हैं। जबकि मनुष्य अनेक बार खाता है घास और शक सब्जी खाने वाले प्राणी दिनभर चरते चुगते और जुगाली करते रहते हैं। मांसाहारी जीवों के चलने से आहट  नहीं होती जबकि शाकाहारी के चलने से आहट होती है। मांसाहारी प्राणियों को रात के अँधेरे में दिखाई देता है अन्न  और घास खाने वालों को रात के अँधेरे में दिखाई नहीं  देता। मांसाहारी जीवों की अंतड़ियों की लम्बाई अपने शरीर की लम्बाई से केवल तीन गुनी होती है जबकी फलाहारी जीवों की अंतड़ियों की लम्बाई अपने शरीर की लम्बाई अपने शरीर की लम्बाई से बारहगुनी तथा घास फूस खाने वाले प्राणियों की अंतड़ियां उनके शरीर से तीन गुनी तक होती हैं। मांसाहारी प्राणियों के बच्चो की आँखें जन्म के समय बंद होती हैं जैसे शेर चीते कुत्ते बिल्ले आदि के बच्चो की। अन्न तथा शाकाहारी प्राणियों के बच्चों की आखें जन्म के समय खुली रहती हैं जैसे मनुष्य गाय भेद बकरी आअदि के बच्चों की। मांसाहारी जीव अधिक भूख लगाने पर अपने बछ्कों को भी खा जाते हैं जैसे सर्पिणी  जो बहुत अन्डे  देती है अपने बच्चों को अन्डों  से निकलते ही खा जाती है। जो बच्चे अन्डों  से निकलकर इधर उधर छिप  जाते हैं उनके सापों का वंश चलता है। सब्जी खाने वाले प्राणी  चाहे मनुष्य हो अथवा पशु पक्षी भूख से तड़प कर भले ही मर जावें किन्तु अपने बच्चों की और कभी भी बुरी दृष्टी से देखते भी नहीं। बिल्ली बिलाव से छिपकर बच्चे देती हैं और इन्हें छिपाकर रखती है यदि बिलाव को बिल्ली के नर बच्चे मिल जाएँ तो उन्हें मार डालता है। मादा बच्चों  को छोड़ देता है। शाकाहारी प्राणियों में  न माता बच्चों को मारता है न बच्चे माता पिता को मार कर खाते हैं

इससे निष्कर्ष यही निकलता है की  मनुष्य की शरीर की रचना तथा उपर्युक्त गुण कर्म स्वभावानुसार मनुष्य का स्वाभाविक भोजन मांस कदापि नहीं  हो सकता क्योंकी मनुष्य के शरीर की रचना भी उन प्राणियों से मिलती है जो  अन्न फल शाक आदि खाते हैं जैसे बन्दर गोरिल्ला आदि किन्तु मांसाहारी श्रे चीते भेड़िया  आदि से नहीं मिलती

मनुष्य की शरीर रचना का अध्ययन करने से ज्ञात होता है की मनुष्य मांस भक्षक प्राणी नहीं है परन्तु विवेकानंद ने न जाने क्यूँ इस तथ्य को ना समझा  और स्वयं मांस भक्षण करते रहे और करने का उपदेश भी देते रहे, मांस भक्षण से ना तो शारीरिक उन्नती होती है ना ही आत्मिक वस्तुतः यह तो पतन का कारण  है इसकी वजह से शरीर को ना जाने कितने असाध्य रोग घेर लेते हैं। पशु तो भक्षण योग्य पदार्थ ही खाता है परुन्तु मनुष्य को सर्व भक्षी बन गया है। महान कवी मैथली शरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –

केवल पतंग विहंगामों में  जलचरों में नाव ही

भोजनार्थ चतुष्पदों में  चारपाई बच  रही

आज का मानव आकाश में उडनेवाले तीर बटेर कबूतर आदि सभी प्राणियों का भक्षण कर जाता है बस उड़ने वाली वस्तुओं में  केवल पतंग बची है और जल में रहने वाले मेडक  और मछली में मनुष्य सभी को चाट कर जाता है जलचरों में  केवल नाव बची है। चौपायों में  गाय बकरी भेंस सभी को मनुष्य अपना ग्रास बना लेता है यहाँ केवल चारपाई बची हुयी है

स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती लिखते हैं की पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी को रात दिन अत्यधिक कर्य्स करने से क्षय रॊग हो गया। डॉक्टरों ने उन्हें मांस का स्वान करने की सम्मति दी। पंडित जी ने पूछा – मांस का सेवन कर में अच्छा हो गया तो क्या फिर कभी  नहीं मरूँगा? क्या में  अमर हो जाऊँगा? क्या आप यह गारंटी दे सकते हें? डॉक्टरों ने कहा की यह तो विश्वास तो नहीं दिलाया जा सकता। पंडित जी ने कहा अच्छा अमरता की बात छोड़ो क्या आप यह गारंटी दे सकते हैं की मुझे पुनः कभी क्षय रोग नहीं होगा? डॉक्टरों ने कहा की हम यह गारंटी भी नहीं दे सकेंगे पंडित जी ने कहा अच्छा तो यह गारंटी तो निश्चित रूप से दे रहे होंगे के मांस खाने से मेरा क्षय रोग दूर हो जाएगा। डॉक्टरों ने कहाँ पंडित जी यह गारंटी भी नहीं दे जा सकती। तब पंडित जी ने कहा की वैदिक धर्म में मांस खाना सबसे बड़ा पाप है। में मांस खाकर सबसे बड़ा पाप करूँ और मुझे अमरता की अथवा पुनः क्षय न होने की या पूर्ण स्वस्थ हो जाने की गारंटी भी नहीं मिलती तो में यह पाप करने के लिए तैयार नहीं हूँ।अह है वैदिक धर्म का आदर्श

ऐसा ही अदाहरण बनार्ड शा  के जीवन में मिलता है उन्हें भी चिकित्सकों ने उन्हें भी मांस सेवन की सम्मति दी थी तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा था की मेरी स्तिथी गंभीर है। मुझे कहा जाता है की गौ मांस खाओ तुम जीवित रहोगे। इस राक्षसपन की अपेक्षा की अपेक्षा मृत्यु अधिक उत्तम है मेने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अर्थी के साथ विलाप करती गाड़ियों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ बैल भेड़ें मुर्गे और जीवित मछलियों का चलता फिरता घर होगा। इन सभी पशु और पक्षियों के गले में सफ़ेद दुपट्टे होंगे उस मनुष्य के सम्मान में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा। हजरत नुह की नुअक को छोड़कर यह दृश्य अधिक उत्तम और महत्वपूर्ण होगा

“My situation is soleman one. Life is offered to me on condition of eating beef steaks. But death is btter than cannibalism. My will contains directions for my funeral which will be followed not by mourning coaches, but by oxen sheep flocks of poultry and a small travelling aquarium of live fish all wearing white scars in hounour of the man who perished rather than eat his fellow creatures. It will be with the exception of Noah’s ark, the most remarkeable thing of the kind seen.

स्वामी विवेकान्दं ने शायद यह ना सोचा होगा की उन प्राणियों में भी हमारी तरह ही आत्मा का वास है, उन्हें भी हमारी तरह सुख दुःख का अहसास होता है। जब हम थोड़े से दर्द से इतने चीख पड़ते हैं तो फिर उन जीवों पर क्या गुजराती होगी जिनकी गर्दन को क्रूरता पूर्वक रक्त पिपासा शांत करने के लिए काट दिया जाता है और वह बिचारा मांसाहारियों की उदार पूर्ती के लिए तड़प तड़प कर प्राण त्यागने पर मजबूर हो जाता है। मनुष्य उन प्राणियों की उस न तडपन को देख सकता है ना ही उन चीखों को सुनने की उसके अन्दर शक्ती होती है यही कारण है की वह यह कार्य करने के लिए एक मध्यस्थ कसाई को चुनता है। यदी हर मांसाहारी स्वयं मारकर मांस प्राप्त करने लगे काफी लोग तो मांस खान ही छोड़ देंगे क्यूंकि हर मांसाहारी उस वीभत्सता का साक्षी नहीं बन सकता। इस संसार के समस्त प्राणी चाहे वो पक्षी हों या जलचर या थलचर सभी अपने भक्ष्याभक्ष सामग्री को भली भांती पहचानते हैं। जो शाकाहारी जानवर हैं वह मांस की तरफ देखते भी नहीं हैं और जो मांसाहारी हैं वह घास फूंस से कोई मोहि नहीं रखते केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो सर्व भक्षी बना हुआ है और पशुओं को मार मार कर अपने पेट को कब्रिस्तान की संज्ञा दे दी है। राष्ट्रीय कवी मैथली शरण गुप्त ने बड़ा सुन्दर लिखा है –

वीरात्वा हिंसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का

कुछ भी विचार उनें नहीं है आज भक्ष्याभक्ष का

अर्थात जो अपने शत्रुओं का वध युध्ध में करके अपनी वीरता दिखाते थे आज वे भक्ष्याभक्ष का कुछ विचार न करके निर्दोष प्राणियों को मारकर अभक्ष्य भोजन करने के लिए ही अपनी वीरता का प्रदर्शन करनेमें श्रेष्ठताc का पर्दर्शन करते हैं

दयानंदकीविचारधारा

स्वामी दयानंद का ह्रदय प्राणी मात्र पर दया से आप्लावित था। उन्होंने उन पर प्राण आघात करने वाले मानुषों को जीवन भर माफ़ किया। जानते हुए अपने प्राण घातक को, जिसने उनकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी, ऋषी द्वारा जीवन दान देकर भाग जाने के लिए कहना दया की एक पराकाष्ठा ही कही जा सकती है . यही महापुरुषों का लक्षण है की वे समाज से लेने की अपेक्षा देते बहुत अधिक हैं न उन्हें यश की चिता होती है ना मान सम्मान व राजपाट की उनके जीवन का एक ही ध्येय होता है प्राणी मात्र कल्याण  सच ही कहा है की परोपकाराय इदं शरीरं और  महर्षी ने इस  कथन को चरितार्थ कर दिया। संतों के  के बारे में लिखते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं की उनके ह्रदय की तुलना  से करना ठीक नहीं है    संतों का ह्रदय तो मक्खन से भी अधिक कोमल होता है  मक्खन तो खुद को ताप लगने पर पिघलता है जबकि संतो का ह्रदय तो दूसरों के दुखों को देख कर ही द्रवित हो    है जाता है।

संत ह्रदय नवनीत समाना कहहीं कविन  पर मरम ना जाना

निज  परिताप द्रवहिं नवनीता परदुख द्रवहिं जे संत पुनीता

 

ऋषी ने समाज में फल  फूल  रही इस विषम कुरीति को समझा और मनुष्य को  प्राणियों की रक्षार्थ उपदेश भी दिया स्वामी जी ने वेदों में प्राणियों का  संरक्षण की इश्वर की आज्ञा  और इस हेतु वेद एवं  मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म अधर्म से भी अवगत कर प्राणीयों के जीवन रक्षार्थ दुरलभ प्रयास किये। दयानंद सरस्वती ने इस हेतु गौर्कारुनानिधि दुर्लभ ग्रन्थ भी हमें प्रदान किया तथा सत्यार्थ प्रकाश में भी इस हेतु ज्ञान दिया

स्वामी दयानंद के  मांस भक्षण पर विचार

1 स्वामी दयानंद सरस्वती का ह्रदय दया करुणा  से अत्यनत आप्लावित था। स्वामी दयानंद सरस्वती पशुओं से मनुष्य को प्राप्त होने वाले उपकार को दयां में रखते हुए कहते हें की “भला जिन के दूध आदि खाने पीने में आते हैं वे माता पिता के सामान माननीय क्यों न होने चाहिए?”   ऋषी के ह्रदय में पशुओं के प्रति सम्मान धार्मिक भावना का न केवल शब्दों बल्कि व्यवहार और सामजिक जीवन में एकरसता का दर्शन है।

2. स्वामी दयानंद सरस्वती जीव हत्या को महापाप की संज्ञा देते हें की     जब एक आदमी की हानि करने से चोरी आदि कर्म पाप में गिनाते हो तो गौ आदि पशुऔं  को मार के बहुतों की हनी करना महा पाप क्यों  नहीं।

वेद उपनिषदों आदि आर्य साहित्य में प्रतिष्टित इस सामान व्यवहार और परोपकार धर्म की व्याख्या करते हुए व्यासमुनी भी   कहते हैं :

न तत्परस्य संदध्यात प्रतिकुलम यदात्मनः

एष  संक्षेपतो धर्मः कामादान्य: प्रवर्तते . महाभारत अनु। 113/6

   मनुष्य ऐसा व्यवहार  के   करे को स्वयं अपने को प्रतिकूल और दुखद जान पड़े यही सब धर्म और नीतियों का सार  है

ऋषी लिखते हें कि मांसाहारी में दया आदि उत्तम गुण होते ही नहीं कितु वे स्वार्थ वश होकर दुसरे की  करके अपना प्रयोजन सिध्ध करने में ही सदा रहते हैं

3. जिस जिस व्यवहार से दूसरों की हाने हो वह वह अधर्म और जिस जिस व्यवहार से उपकार हो वह वह धर्म कहता है तो लाखों के सुख लाभ  पशुओं का नाश करना अधर्म और उनकी रक्षा से लाखों को सुख पहुंचाना धर्मं क्यों नहीं मानते?

स्वामी जी   की दूरदर्शिता  देखिये  कि  मांस भक्षण से होने वाले दुष्परिणाम  से सावधान    करते हुए लिखते हें की हे मांसाहारियों! तुम लोग जब  कुछ काल के    पश्चात् पशु न मिलेंगे  तब मनुष्यों  का मांस  भी छोड़ोगे वा नहीं

काश  हमने स्वामी जी की बात को समझकर व्यवहार  में उतारा होता तो आज निठारी जैसे मानव मांस भक्षण के   दुर्दिन ना   देखने पड़ते

पशुओं के गले  छुरों   से काटकर जो मनुष्य अपना पेट भर  सब संसार की हानि करते हें क्या संसार  में उनसे भी अधिक कोई कोई विश्वासघाती अनुपकारी दुःख देने वाले और पापी जन होंगे ?

ऋषी जीव रक्षा के लिए यजुर्वेद में उल्लेखित परमात्मा की आज्ञा उद्धरित करते हैं की – ( अघन्या यज्मानान्स्य पशुं पाहि ) हे पुरुष तू इसं पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात सब के सुख देने वाली जानो के संबंधी पशुओं की रक्षा कर जिस से तेरी भी रक्षा प्यूरी होवे और इसीलिए ब्रह्मा से लेकर आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते हैं और अब भी समझते हैं।

पशुओं के वध को घोर अन्याय घोषित करते हुए ऋषी लिखते  हें   कि  सर्वशक्तिमान जगदीश्वर ने इस श्रृष्टि में जो जो पदार्थ बनाए हें वे निष्प्रयोजन नहीं किन्तु एक एक वस्तु अनेक अनेक प्रयोजन के लिए रची है इसलिए उस से वे ही प्रयोजन लेना न्याय अन्यथा अन्याय है

ऋषी कहते हें की भैरव आदि के निमित्त से भी मॉस खाना मारना व मरवाना महापाप कर्म है। इसलिए दयालु परमेश्वर ने वेदों मं मांस खाने वे पशु आदि के मारने की विधी नहीं लिखी। इसीसे समझ लीजिये की

इश्वर का अभिप्राय उनके मारने में नहीं  कितु  करने में है। ऋषी मनु का प्रमाण देते हें

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति द्याताका . मनु 5/51

अर्थ – अनुमन्ता = मारने की आज्ञा देने, मान के काटने , पशु आदि के मारने उन को मारने के लिए लेनें और बेचने मांस के पकाने परसने और खाने वाले आठ आठ मनुष्य घटक हिंसक अर्थात ये सब पाप कारी हें

ऋषी केवल हिंसा का विरोध ही नहीं प्रदर्शित करते अपितु पशु रक्षा के लिए उपदेशित करते हुए लिखते हैं की हे धार्मिक सज्जनों आप इस पशुओं की रक्षा तन मन और धन से क्यों नहीं करते? हाय बड़े शोक की बात है जब हिंसक लोग  बकरे आदि पशु और मोर आदि पक्षियों को मारने के लिए ले जाते हैं तब वे अनाथ तुम हम को देख के राजा और प्रजा पर बड़े शोक प्रकाशित करते हैं अकी देखो हम को बिना अपराध बुरे  हाल से मारते हैं और हम रक्षा करने तथा मारने वालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिए उपस्थित रहना चाहते हैं और मारे जाना नहीं चाहते।देखो हम लोगों का सर्वस्व परोपकार के लिए हाई और हम इसीलिये पुकारते हैं की हम को आप लोग बचावें। हम तुम्हारी भाषा नहीं जानते नहीं तो क्या हम में से किसी को कोई मारता तो हम भी आप लोगों के सदृश्य अपने मारने वालों को न्याय व्यवस्था से फांसी  पर न चढ़ावा  देते

महर्षी सत्यार्थ प्रकाश के दशम समुल्लास में लिखते हैं कि जो  लोग मांस भक्षण और मद्यपान करते हें उनके शरीर और वीर्यादी धातु भी दुर्गंधादी से दूषित होते हैं। अनेक प्रकार के मद्य गंजा भांग  अफीम आदि जो जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हें उनका सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े बिगड़े दुर्गंधादी से दूषित अच्छे प्रकार न  बने हुए और मद्य मांसाहारी म्लेच्छ की जिनका शरीर मद्य मांस के परमाणुओं ही से  पूरित है उनके हाथ का ना खाएं। जिसमे उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात जैसे एक गाय के शरीर से दूध घी बैल गाय उत्त्पन्न  होने से एक पीडी में कुछ कम चार लाख मनुष्यों को सुख पहुँचता है वैसे पशुओं को न मारें न मारने दें

ऋषी आगे लिखते हैं की जो उपकारी हैं वे इनके बचाने में अत्यंत पुरुषार्थ करें जैसा की आर्य लोग श्रृष्टि के आरम्भ से आज तक वेदोक्त रीति से प्रशंसनीय कर्म करते आये हें।  वैसे ही सब भुलोग्स्थ सज्जन मानुषों को करना उचित है

” विषादप्याम्रितान्ग्रह्य्म” सत्पुरुसों का यही सिध्धांत है की  से भी विश से भी अमृत लेना। सुनो बन्धुवार्गों तुम्हारा तन मन धन गाय आदि की रक्षारूप परोपकार में न लगे तो किस काम का है? देखो परमात्मा का स्वभाव की जिसने सब विश्व और सब पदार्थ परोपकार के लिए ही रचे रक्खे हैं वैसे तुम भी अपना तन मन धन परोपकार ही के अर्पण करो

स्वामी विवेकानंद की विचारधारा को उन लोगों की तरह प्रतीत होती है जो  ” बिस्मिल्ला हिर रह्मानिर्रहीम ( खुदा बड़ा रहमदिल है) कहते हुए मूक प्राणियों के गले पर छुरी  चलने में संकोच नहीं करते। कालाइल  ने इसे बड़े सुन्दर शब्दों में कहा था की ” मनुष्य के जीवन का लक्ष्य कर्म है विचार नहीं, चाहे वह कितना ही श्रेष्ट क्यूँ न हो कितना ही उत्तम विश्वास हो जब तक वह व्यवहार में नहीं आता तब तक कि काम का नहीं।

सिध्धान्तों का उतना महत्व नहीं होता जितना व्यवहार  होता है।जिस प्रकार पेड का अच्छा बुरा होना उसके फलों पर निर्भर करता है। उसी प्रकार मनुष्य अपने व्यवहार से जाना जाता है। इस सन्दर्भ में उर्दू के एक कवी ने बड़ी ही सुन्दर बात कही है –

खुदा के बन्दों को देख कर खुदा से मुनकिर हुयी है दुनिया

की ऐसे बन्दे हैं जिस खुदा के वो कोई अच्छा खुदा नहीं

 

प्राचीन काल में यज्ञ में पशु बलि विचारधारा को पोषित करते स्वामी विवेकानंद और सत्य- ऋष्व आर्य

प्राचीन काल में यज्ञ में पशु बलि विचारधारा को पोषित करते स्वामी विवेकानंद और सत्य
ऋष्व आर्य

vivekanand 1

स्वामी विवेकानंद ने विवेकानंद ने यज्ञ का अर्थ बलिदान से (Sacrifice ) से लिया  है . यज्ञ का अर्थ बलिदान कैसे हो  गया और वो भी पशु हत्या का ये कहीं स्वामी जी ने स्पस्ट नहीं किया।यज्ञ शब्द यज धातु से निकला है जिसका अर्थ देवपूजा संगतिकरण और दान है। स्वामी  विवेकानंद द्वारा यज्ञ का अर्थ बलिदान    स्वामी विवेकानंद ने मैक्स मूलर  से ही लिया है और ये वाम मार्ग से प्रभावित भी हो  सकता है  क्यूंकि कहीं कहीं स्वामी विवेकानंद के सन्दर्भ में कहीं कहीं पशु बलि के सन्दर्भ भी मिलते हें।

There was a time in this very India when, without eating beef, no Brahmin could remain a Brahmin; you read in the Vedas how, when a Sannyasin, a king, or a great man came into a house, the best bullock was killed

Swami Vivekanand

इसी भारत में कभी  ऐसा भी   समय  था जब कोई ब्राहमण बिना गौ मांस खाए ब्राहमण नहीं रह पाता  था। वेद  पड़कर देखो कि किस तरह जब कोई सन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था तब सबसे पुष्ट बैल मारा  जाता था

–          CW , Vol – 3- Pg 174  (check for Hindi – Vol 5 Pg 70)

 स्फुट विचार (1892-93 ईस्वी  में मद्रास  में संग्रहित )

Indra the thunderer, striking the serpent who has withheld the rains from mankind. Then he lets fly his thunderbolt, the serpent is killed, and rain comes down in showers. The people are pleased, and they worship Indra with oblations. They make a sacrificial pyre, kill some animals, roast their flesh upon spits, and offer that meat to Indra.

–          CW , Vol – 1- Pg 344  (check for Hindi – Vol 1Pg 240)

 

वज्र धारी इन्द्र  मनुष्य लोक में वर्षा को रोकने वाली सर्प पर वज्र का आघात करते दीखते हैं। वे अपने वज्र को फेकते हें,सर्प मर जाता है और वर्षा की छड़ी लग जाती है। लोगों में प्रसन्नता छा  जाती है और वे यज्ञ की पूजा करते हैं वो यज्ञ वेदी बनाते है, पशु की बली देकर उसके पके मांस का नैवेद्य इस्द्र को अर्पन करते हैं।

विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 288

Hindi Page – 68 vol -2

वैदिक अश्वमेध यज्ञ अनुष्ठान की ओर  ध्यान दो – तदनंतरम महिशीम अश्वसन्निधौ पातयेत – आदि वाक्य देखने को मिलेंगे। होता, ब्रह्मा उद्गाता इत्यादी नशे में चूर होकर कितना घृणित आचरण करते थे। अच्छा हुआ की जानकी के वें गमन के बाद राम ने अकेले ही अश्वमेध यज्ञकिया , इससे चित्त  को बड़ी शांती मिली।

1895 में स्वामी ब्रह्मानंद को लिखा पत्र

विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 305

शाश्त्र वादियों में महा गोलमाल है। शाश्त्र में एक  पर कहा  है कि  हत्या करो . हिन्दुओं का सिध्धांत है की यज्ञ स्थल को छोड़कर किसी  स्थान पर जीव हत्या करना पाप है।  यज्ञ करके आनंदपूर्वक मांस भोजन किया जा सकता है।

विवेकानंद साहित्य भाग -10, पृष्ठ 74

At a still later period the meaning of the hymns showed that many of them could not be of divine origin, because they inculcated upon mankind performance of various unholy acts, such as torturing animals, and we can also find many ridiculous stories in the Vedas.

–          CW , Vol – 5- Pg 95     (check for Hindi – Vol 4 – 247)

वैदिक मन्त्रों के अर्थों से यह पता चला के वे दैवी रचना हो ही नहीं सकते क्योकि वे मनुष्य को पशुओं को कष्ट देंते के सामान अनेक अपवित्र काम करने को कहते हें। इसके अतिरिक्त हम वेदों में बहुत सी हास्यास्पद कथाएं पाते हें।

We must also remember that in every little village-god and every little superstition custom is that which we are accustomed to call our religious faith. But local customs are infinite and contradictory. Which are we to obey, and which not to obey? The Brâhmin of Southern India, for instance, would shrink in horror at the sight of another Brahmin eating meat; a Brahmin in the North thinks it a most glorious and holy thing to do — he kills goats by the hundred in sacrifice.CW , Vol – 3- Pg 172 – 173  (check for Hindi – Vol 5 Pg 69)

हमें ये भी स्मरण रखना चाहिए की हम प्राय  जिन्हें  हम अपना धर्म विश्वास कहते हैं वे हमारे छोटे छोटे ग्राम देवताओं पर आधारित या ऐसे ही कुसंकारों से पूर्ण लोकाचार मात्र हें। ऐसे लोकाचार असंक्य हैं और एक दुसरे के विरोधी हैं। इनमें से हम किसे माने और किसे न माने? उदहारण के लिए यदि दक्षिण का ब्राहमण किसी और ब्राहमण को मांस काटे हुए देखे तो भय से आतंकित हो जाता है परन्तु उत्तर भारत के ब्राहमण इसे अत्यंत पवित्र और गौरवशाली कृत्या समझते हैं पूजा के निमित्त वो सैकड़ों बकरों की बली चड़ा देते हैं।

Upanishads condemn all rituals, especially those that involve the killing of animals. They declare those all nonsense

–          CW , Vol – 1- Pg 452  (check for Hindi – Vol 7 Pg 288)

उपनिषदों द्वारा सभी अनुष्ठानों की निंदा विशेषकर उनकी जिनमें पशुओं का वध किया जाता है। वे उन सबसे अनर्गल घोषित करते हैं।

प्राचीन देवताओं में चंचल लड़ाकू शराबी गौ मांसहारी देवताओं में जिनको जले हुए मांस की गंध और तीव्र सुरा की आहुती ही से परम आनंद  मिलता था – कुछ असंगति देखने लगे। कभी कभी इंद्र इतना मद्य पान कर लेता था की वह बेहोश होकर गिर् पड़ता था और अंड बंड  बकने लगता था

The old gods were found to be incongruous — these boisterous, fighting, drinking, beef-eating gods of the ancients — whose delight was in the smell of burning flesh and libations of strong liquor. Sometimes Indra drank so much that he fell upon the ground and talked unintelligibly. These gods could no longer be tolerated.

–          CW , Vol – 2- Pg 109- 110  (check for Hindi – Vol 2 Pg 64)

 स्वामी दयानंद  यज्ञ का अर्थ करते हुए लिखते हैं की यज्ञ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार यथायोग्य शिल्प अर्थात रसायन जो की पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभ गुणों का दान, अग्निहोत्र आदि जिन से वायु वृष्टि जल औषधि की पवित्रता   जीवों को    उस को    उत्तम समझता हूँ

स्वमंत्व्यामंतव्यप्रकाशः पृष्ट 733

वेदों में हिंसा ना होने का प्रत्यक्ष प्रणाम तो रामायण में देखने को मिलता है। यज्ञ में  का  तो यज्ञ को नष्ट करने के लिए होता था और राक्षस ऋषियों को प्रताड़ित करने के लिए यह कार्य किया करते थे।  यही   वह कारण था जिसकी  वजह से  विश्वामित्र को   राजा दशरथ के  पास राम और लक्ष्मण को मांगने के लिए जाना पड़ा

महाभारत काल में भी यदि    दृष्टी डालें तो भी यज्ञ में मांस का प्रयोग दिखाई नहीं देता है। बल्कि परोपकार धर्म के लक्षण ही जगह जगह दिखाई देते हैं। युदिष्ठिर  को धर्म के लक्षण बताते हुए व्यासदेव कहते हें  कि मनुष्य जिसे अपने प्रतिकूल समझे वैसा आचरण किसी के प्रति न करे।

श्रुयातम धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम

आत्मनः प्रतिकुलानी परेशां न समाचरेत

 सर्वत्र प्रतिष्ठित इस  इस तत्व की व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं की ” मनुष्य ऐसा व्यवहार औरों के साथ न करे जो स्वयं अपने को प्रतिकूल या दुखद जान पड़े। यही सब धर्म और नीतियों का सार है।

न तत्परस्य सन्द्ध्यात प्रतिकुलम यदात्मनह

अश संक्षेपतो धर्मः कामदन्य: प्रवर्तते। . महाभारत अनुशाशन पर्व

 जब परोपकार को ही धर्म   माना गया है तो फिर किसी के प्राण लेना कैसे धर्म हो सकता है और यज्ञ तो धर्म का ही अभिन्न अङ्ग है उसे तो फिर ऐसे घृणित कर्म से जोड़कर देखा ही नहीं जा सकता। जब तात्कालिक  हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करने का  देते हैं जो हमें खुद अपने लिए प्रिय हो तो फिर किसी की जान लेने की तो कल्पना  भी नहीं की जा सकती

मानवमात्र  के  लिए कानून के रचियता महर्षि मनु ने मासाहार के सम्बन्ध में एक नहीं  आठ प्रकार के पाप एवं दोशारोपियो का वर्णन किया है –

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी

संस्कर्ता चोपहर्ता  च खादकश्चेति घटका मनुस्मृति 5/51

अर्थात मांसाहार की अनुमति  देने  वाला खरीदने व बेचने वाला मांस काटने वाला पशु मारने वाला पकाने परोसने वा खाने वाला ये आठ घोर पापी हैं। ऐसा प्रतीत होता है की स्वामी विवेकानंद ने महर्षि मनु के ये श्लोक पड़े नहीं थे। जो मांसाहार के बारे में इतनी विस्तृत व्याख्या करने वाले महर्षी मनु पर मांसाहार का आरोप लगना महर्षी की छवि पर कुठाराघात का एक असफल प्रयास ही है।

महर्षि मनु ने   मांस को    वर्जित किया है –

वर्जयेन्मधु मासं। मनु 6/14

ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा मान्स्मुत्पध्यते क्वचित

न च प्रानिवध: स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसम विवर्जयेत मनु 5/48

प्राणियों की हिंसा किये बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हत्या करना सुखदायक नहीं है इस कारण मांस नहीं खाना चाहिए

यो बंधन वध्क्लेशान प्राणिनाम न चिकीर्षति

स सर्वस्य हित्प्रेप्शु: सुख मत्यंत मंश्रुते मनु 5/46

जो व्यक्ति प्राणियों को बंधन में डालने वध करने उनको पीड़ा पहुंचाने की इच्छा नहीं करता वह सब प्राणियों का हितैषी बहुत अधिक सुख को प्राप्त करता है

 

समुत्पत्ति च मांसस्य वध्बन्धौ च देहिनात

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्व मांसस्य भक्षणात मनु 4/49

मांस की उत्पत्ति जैसे होती है असको प्राणियों की हत्या और बंधन के  कष्टों को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण से दूर रहे

 

यो हिन्सकानि भूतानि हिन्सत्यात्म्सुखेच्या

स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वाचित्मेधते मनु 5/45

जो मनुष्य अपने सुख के लिए अहिंसक प्राणियों की ह्त्या करता है वह न इस जीवन में सुख पाता है न जीवांतर में

वैदिक शरीर विज्ञान आयुर्वैदिक से कम पूर्ण न  था . अवयवों के विविध भागों के बहुत से नाम थे, क्योंकि  उन्हें यज्ञ के  पशुओं को काटना पड़ता था .

यजुर्वेद    को कर्मकांड का वेद  माना जाता  है उसके प्रथम  मंत्र में ही पशुओं  अहिंसा की कामना है – यजमानस्य पशुन पाहि ( यजुर्वेद 1/1) अर्थात यज्ञ करने वाले के पशुओं की रक्षा कीजिये।

मांसाहारियों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं

यज्ञ में मांस की बली तो दूर की बात है वेद तो मांसाहारी को यज्ञ करने के अधिकार से भी वंचित कर देते हैं। यज्ञ करने का अधिकार केवल शाकाहारी जीवों के लिए ही है।

उर्जाद: उत यज्ञियास: पांचजना : मम होत्रम जुषध्वम। ऋग्वेद 10/53/4

अर्थात केवल अन्नाहारी (मांसाहारी नहीं ) और यज्ञीय प्रवृती के व्यक्ती यज्ञ का संपादन करें

वेदों में स्पष्ट उल्लेख हिया की मांस जलाने वाली अग्नि यज्ञों में प्रयुक्त न होने पावे। मांस जलाने वाली अग्नि बहुत करके चिताग्नि ही होती है . जब वेदों में चिता की अग्नि तक को यज्ञों में लाने का निषेध है तब मनुष्य मांस अथवा पशु मांस से यज्ञ करने की आज्ञा कैसे हो सकती है:-

क्रव्यादमग्निम पर हिनोमि दुरम यमराग्यो गच्छतु रिप्रवाह

इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन। ऋग्वेद 10/16/9

यो अग्नि: क्रव्यात प्रविवेश नो गृहमिमं पश्यन्नितरम जातवेदसम

तम हरामी पित्रय्ग्याय दूरं स धर्म मिन्धाम परमे सधस्थे। अथर्ववेद 12/2/7

अर्थात में मास  खाने वाली अग्नि को दूर करता हूँ। वह पाप धोने वाली है, इसलिए वह यमराज के घर जावे। यहाँ दुसरी ही अग्नि को सबकी जानी हुयी और डिवॉन के लिए हावी धोने वाली है उसे रखता हूँ। जो मांस भक्षक अग्नि तुम लोगों के घरों मिएन प्रवेश करती है उसको पितृ यज्ञ के लिए दूर करता हूँ। तुम्हारे घरों में दूसरी ही अग्नी को देखना चाहता हूँ वही उत्तम स्थानों में धर्म को प्राप्त हो (वैदिक संपत्ति पृष्ठ 517)

वेदों में कहीं पर बहे पशुओं को मारने की आज्ञा  नहीं है अपितु पशुओं के संरक्षण का ही उपदेश मिलता है

यज्ञ में प्रयुक्त सामग्री

महर्षी दयानंद सरस्वती वेद मंत्र  ( समिधाग्नि दुवस्यत घ्रितैबोर्धयथातिथिम आस्मिन हव्या जुहोतन। यजुर्वेद 3 अध्याय मंडल 1) का प्रमाण देते हुए   लिखते हें की हे मनुष्यों तुम लोग वायु औषधी और वर्षा जल की शुद्धी से सबके उपकार के अर्थ घ्रितादि शुध्द वस्तुओं और समिधा अर्थात आम्र व ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान  करो। फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट मधुर सुगन्धित अर्थात दुग्ध घृत शर्करा गुड केशर कस्तुरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं उनका अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सबका उपकार करो ( रिग्वेदादिभाष्य भूमिका पृष्ठ – 193)

सुस्मिध्द्हाय शोचिसे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे

खूब अच्छी प्रकार प्रदीप्त प्रकाशमान ज्वालामय अन्यों के दोष निवारण में समर्थ पत्येक पदार्थ में व्यापक प्रज्ञावान ऐस्वर्यवान अग्नि परमेश्वर विद्वान् एवं राजा में अतितीव्र दोष निवारक ( घृतं ) आज्य जल और उपायन एवं बल दायक या जयप्रद पदार्थ सब प्रकार से प्रदान करो – यजुर्वेद 3/2

तंत्वा   समिदिभिरंगिनो  ग्रितें वर्धयामसि

ब्रिहच्चोया यविष्ठ्य

हे अग्ने अंगिरह व्यापक ज्ञानवान प्रकाशक तुझे उस परम प्रसिध्ध परम उच्च परमेश्वर को उत्तम प्रदीप्त प्रकाशित होने के साधन योग आदि द्वारा और आत्मा के प्रकाशक तेज और ताप द्वारा बढ़ाते हें। हे युवतम सदा सर्वशक्तिमान संसार के समस्त पदार्थों के संयोग विभाग करने में अनुपम बतलावे महान होकर खूब प्रकाशित हो। अग्नि पक्ष में – हे प्रकाशक अग्ने तुझे समिधा और घृत  से बढ़ावें और तू पदार्थों के विभाजक बल से खूब प्रकाशित हो

यजुर्वेद 3/3

ॐ सुसमिद्धाय अग्नि दुवस्त्य घ्रितैबोर्थ्द्याथातिथिम आस्मिन हवय जुहोतन: यजुर्वेद 3/1

प्रतीप्त करने के साधन काष्ठ से जिस प्रकार अग्नि को तृप्त किया जाता है उसी प्रकार अच्छी प्रकार तेजस्वी बनाने के साधन से अग्नि आत्मा गुरु परमेश्वर की उपासना करो और सर्वव्यापक अतिथि के समान पूजनीय उसको अग्नि को जिस प्रकार क्षरणशील पुष्टिकारक घृत आदि पदार्थों से जगाया जाता है उसी प्रकार उद्वॆपन करने वाले तेज प्रद साधनों के अनुष्ठानो से उसको जगाओ और कर्मों को और कर्मफलों को आहुति के रूप में निरंतर त्याग करो

भौतिक अग्नि में – हे पुरुषो काष्ठ से उसकी सेवा करो घृत आहुतियों से उसको चेतन करो और उस्मिएन चरु पुरौडाश आदि आहुतिरूप में दो। इसी प्रकार यन्त्र कला आदि में भी अग्नी के उद्द्वीपक पदार्थों से अग्नि को जलाकर जालों द्वारा उसकी शक्ती को और भी चैतन्य करके उसे यंत्रादी में आधान करे

यज्ञ में पशु रक्षा का उपदेश

यदि नो गां  हन्सि यद्यश्वम यदि पुरुषम

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नो सो अवीरहा

अथर्वेद प्रथमं काण्डम अध्याय 16 मंत्र 4 पृष्ठ – 109 SC (i)

यदि हे राक्षस शत्रु पुरुष तू हमारी गौ को मारे और यदि अश्व को मारे और यदि पुरुष  आदमी को मारे उस हत्यारे को सीसे की गोली से ही वेध डालें जिससे तू हमारे  वीर पुरुषों को न मर सकें

 

यथा मांसं यथा सुरा यथाक्षा अधिदेवने

यथा पुंसो वृपंयत स्त्रियाम नि हन्यते मनः

एवा  ते अघन्ये मनोधि वत्से न हन्यताम

अथर्वेद षष्ठम   काण्डम अध्याय 70 मंत्र 1 पृष्ठ – 169 SC (ii)

वेद  मंत्र गौ को अघन्ये अर्थात कभी ना मरने योग्य की संज्ञा देता है

 

व्रीहिमत्तम यवमत्तम्थो मापमथो तिलम

ऐश वो भागो निहितो रत्नधेयाय दांतों मा हिसिश्ठं पितरे  मातरे च

बालक को अन्नप्राशन कराने का उपदेश – हे बालक के प्रथम उत्त्पन्न दांतों तुम  भात खाओ जौ खाओ  और माप उड़द की दाल और तिल  खाओ

अथर्वेद षष्ठम   काण्डम अध्याय 140 मंत्र 2 पृष्ठ – 306 SC (ii)

 

स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्य:

विश्व सुभूत सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव द्रिशेम सूर्यम

हमारी माता को सुख हो और पिता को सुख हो गौओं और जगत के हितकारी पुरुषों सम   जीवों के लिये सुख और शांती प्राप्त हो। समस्त संसार सब मिलकर  हमारे लिए सुखयुक्त उत्तम पदर्थों से सम्पन्न उत्तम ज्ञानों से सम्पक्ष हों और हम  चिर काल तक अपनी चक्षुओं से सूर्य और ज्ञान के प्रकाशक परमेश्वर का दर्शन करें

अथर्वेद  प्रथमं  काण्डम अध्याय 31 मंत्र 4 पृष्ठ – 149 SC (i)

यस्तु सर्वाणि  भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो ना विचिकित्सति

जो विद्वान जन सब प्राणियों को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को सब प्राणियों में देखता है वह किसी से घृणा व किसी की निंदा नहीं करता है। – check for the mantra no in yajurveda

 

इन्द्रो विश्वस्य राजति शन्नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे

ऐश्वर्यवान परमेश्वर समस्त संसार के बीच प्रकाशमान है इसी प्रकार राजा समस्त राष्ट्र में  तेजस्वी होकर विराजे। वह हमारे दौपाये मनुष्य भृत्य आदि और चौपाये पशुओं के लिए भी सुखदाई और कल्याणकारी हो

यजुर्वेद अद्याय 36 श्लोक 8

 इते अहम् मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वानी भूतानि समीक्षन्ताम मित्रस्याह्म चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुपा समीक्षामहे।

हे समस्त दुखोँ और अज्ञानों के विदारक परमेश्वर मुझे दृद कर मुझको समस्त प्राणी गण  मित्र की आँख से देखें और में भी समस्त प्राणियों को मित्र की आँख से देखूं। हम सब एक दुसरे को मित्र की आँख से एक दुसरे को भली प्रकार देखा करें

अथर्वेद  अध्याय 36 मंत्र 18 पृष्ठ – 701 SC (ii)

अजस्त्रमिन्दुमरुषम भुरंद्युमाग्निमीदे पुर्वचित्तम नमोभि

स पर्वमि रितुशः कल्प्मानो गाम  मा हि सीरदिति विराजिम

यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 43 पृष्ठ 606  SC S SC (i)

अहिंसक और अविनाषी ऐश्वर्यवान जल के सामान शीतल और शुध्ध रोष रहित सब के पोषक पूर्ण ज्ञानवान शानवान  परमेश्वर या राजा को में नमस्कारों द्वारा में स्तुति करता हूँ अन्नों द्वारा पूर्व ही संग्रह करने वाले धनाड्य पुरुष को में प्राप्त करूँ। वह तू पालनकारी सामर्थ्यों से सुर्य जिस प्रकार अपने ऋतु  से सबको चलाता है उसी प्रकार राज अपने राज सभा के सदस्यों से सामर्थ्यवान होता है। वह तू विविध पदार्थों गुणों से प्रकाशित गौ और पृथ्वी को मत विनष्ट कर

इमं  मा हिंसीद्विर्पाद पशुं सहस्त्राक्षओ मेधाय  चीयमान

मयम पशुम मेधमग्ने जुशस्व तेन चिन्वानस्तंवो निषीद

मयुम ते शुग्रिच्चतु  यम द्विश्मतम ते शुग्रिच्चतु

यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 47 पृष्ठ 608

हे राजन हे पुरुष सुख प्राप्त करने के लिए निरंतर बढता हुआइस दोपाये पुरुष और उसके सहयोगी चौपाये पशु को भी मत नाश कर मत मार। हे ज्ञानवान नेतः तू पवित्र अन्न  उत्पन्न करने वाले जंगली पशु को भी प्रेम  कर उसकी वृध्धी चाह और  उससे भी अपनी सम्पत्ती को बढ़ाता  हुआ अपने शरीर के बीच में हष्ट  रह .तेरा संताप्कारी क्रोध वा तेरी पीड़ा भी हिंसक जंगली पशु को प्राप्त हो और जिससे हम प्रेम नहीं करते उसको तेरी संताप्कारी क्रोध और पीड़ा प्राप्त हो

इमं  माहिन्सीरेकशफ़म पशम कनिक्रदम वाजिनम वाजिनेशु

गौरमारन्यमनु ते दिशाशी तेन चिन्वान्स्तान्यो निषीद

यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 48 पृष्ठ 609

हे पुरुष इस हर्ष से ध्वनि करने या हिनहिनाने वाले या सब प्रकार के कष्ट सहने में  समर्थ एक खुर के वेगवान वा संग्रामपयोगी पशुओं के बीच सबसे अधिक वेगवान अश्व गधे खच्चर आदि पशु को मत को मत मार जंगल के गौर नामक बारह सिंघे को लक्ष्य करके में तुम्हें ये उपदेश करता हूँ की उसकी वृध्धी से भी तू अपनी वृध्धी करता हुआ अपने शरीर की रक्षा कर

 

यः पौरुश्पयेन क्रविपा समंगते यो अश्वेन पशुना यातुधाना:

यो अघन्याया भारती क्षीर्मगने तेषाम शीर्शानी हरसापी वृश्च

ऋग्वेद मण्डल  10  अध्याय 87 मंत्र 16 पृष्ठ 348 SC Vol -7

जो अन्य को पीड़ा देने वाला होकर अर्थात अन्य को पीड़ा देकर अपने को मनुष्य उपयोगी अन्न  आदि साधनों से सजाता हिया और जो अन्य को पीड़ा देकर स्वयं घोड़े के समान  वेग से जाने वाले पशु से अपने को चमकाता है जो दुसरे को पीड़ा देकर गौ का दुःख लेता है हे ज्ञान और तेज के प्रकाशक तू ऐसे ऐसे दुष्टों के सिरों को तेज शंस्त्रों से काट डाल

 

एततवै विश्व रूपं गोरुपम

यह ही विश्व रूप परमात्मा का विराट रूप है वह ही सर्वरूप गौ का रूप है जिसका इस प्रकार वर्नन किया जाता है

नवम कांड सूक्त 9 मंत्र 26 SC (ii)

यज्ञ में पशु हत्या का दंड विधान

यम ते चकु: क्रिक्वाकावजे वा या कुरीरिणी

अव्याम ते कृत्यं या – अथर्वेद 5/31/2

जिस घटक प्रयोग को वे नीच पुरुष तीतर बकरे और चील पर और जिस करतूत को वे भेद पर करते हैं उस करतूत से फिर उनको दण्डित करूँ।

याम ते चकरेकशफ़े पशुनमुभयादति

गर्दभे क्रितायाम याम – अथर्वेद 5/31/3

जिस हिंसा कार्य को वे एक खुर वाले पशु पर या गधे की जाती के पशु पर जिस हिंसा को दोनों जबाडों में दांत वाले गाय व भेंस आदि पशुओं पर करते हैं वही हत्या का दंड उन्हें में पुनः दूँ

 

उपाव्सृज त्मन्या समंजन देवानां पाथ रितुथा हवीषि

वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु हव्यं मधुना घ्रितेन – अथर्वेद 5/12/10 SC -(1) page 609

हे होतः आत्मन तू प्रति ऋतू के अनुसार देवों इन्द्रियों के निमित्त अन्न भोग्य विषय और ज्ञानों को स्वयं प्रगट करता हुआ उनको प्रदान कर। वन इन्द्रियों का स्वामी जितेन्द्रिय शाम दामादी से युक्त विद्वान् योदी और ज्ञानी पुरुष ये तीनों तेजोमय प्रदीप्त ज्योति और मधुर आनंद रस के साथ ज्ञान का आस्वाद ग्रहण करें। यज्ञ पक्ष में – होता ऋतुओं के अनुसार सामग्री चारू  आदि हवी तैयार करे और उसको अग्नि में वनस्पति में जीवो में भे वितरित करे

उपर्युक्त विवेचन जो प्रदर्शित करता है कि यज्ञ एक सामाजिक कल्याण की विषय वस्तु है न कि किसी जीव के प्राण हरण के लिए  प्रयोग में लाया जाने वाला साधन। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य चाहे वो रामायण काल के हों या महाभारत के समय के इस विचार धारा को ही पोषित करते हैं कि यज्ञ जीवों के कल्याण के लिए ही किये जाते रहे हैं न कि जीवों की हत्या के लिए. यदि कुछ व्यक्ति विशेष या सम्प्रदाय यज्ञ में इस दुष्कर्म को करने लगें तो उसके दोषी वह व्यक्ति या संप्रदाय विशेष हैं न कि इसके लिए यज्ञ जैसी कल्याणकारी कार्य को ही दोषी घोषित करके उसे तिलांजलि दे दी जाये। स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन कि प्राचीन काल में यज्ञों में मांस का प्रयोग होता है निराधार ही है।

 

जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य

shudra

 

 

जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य

आजकल वैश्वीकरण हो रहा है पारम्परिक शिक्षा के तरीके बदल चुके हैं और अभी वर्तमान में प्रचिलत तरीकों में भी तीव्रता से परिवर्तन देखने को मिल रहा है। वैश्वीकरण ने और पारम्परिक सामूहिक पारिवारिक वास की परंपरा भी समाप्त कर दी है। आजकल एकल परिवार की प्रथा चल रही है। व्यक्ति अपनी जीविका की तलाश में विदेशों तक जाने में नहीं हिचकिचाता। ऐसे समय में जब शैक्षिक उन्नति हो रही है जीवन जीने के तरीके बदल चुके हैं जाति प्रथा नामक दानव को समाप्त करने के लिए इतने अभियान चलाये गए और चलाये जा रहे हैं फिर भी कुछ लोगों को इस बुराई को अपनाये रखना और उसके समर्थन में social media पर वर्तमान समय में व्यर्थ का प्रलाप करना उनकी संकुचित मानसिकता को प्रदर्शित करता है.
गलत बात का लगातार समर्थन करना ऐतिहासिक प्रमाणों को झुठलाना, वेदों के आदेश को न मानना इनको हठधर्मी ही सिद्ध करता है। सभी जीव मात्र का पिता पालनहार परम पिता परमेश्वर है। परमपिता परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार प्रदान करता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को सामान अधिकार दिया है। समानता और सद्भाव से व्यवहार करने का आदेश दिया है।
श्री कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानने वाले ये प्रपंची श्री कृष्ण के गीता ज्ञान के श्लोकों जिनमे सभी जीवों से समभाव का सन्देश दिया है जीवन में उतारने से कतराते हैं। जाती वाद के नाम पर दुष्प्रचार करने वालो आप श्री कृष्ण के परम भक्त होने का दम्भ भरते हो ! अरे राह से भटके हुए भाइयों जरा कृष्ण के गीता ज्ञान को पड़ तो लेते कि श्री कृष्ण ने ईश्वर भक्त के क्या लक्षण बताये हैं। क्या आप जैसे व्यक्ति जो मानंव मात्र को जन्म जात जाती प्रथा के आधार पर बांटकर अनेक प्रकार के अत्याचार करते हो , कहीं से भी श्री कृष्ण के शिष्य होने के अधिकारी हो ?
इश्वर भक्त के लक्ष्ण बताते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं की ” विद्या विनय सम्पन्ने ब्रहामने गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: (गीता 5/18) प्रभु को सर्वत्र विद्यमान जानने वालाल मनुस्य्स विद्या विनय से युक्त ब्राहमण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल आदि में सम रूप से अवस्थित प्रभु का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और इन सबको सामान दृष्टी से देखता अर्थात व्यवहार करता है। जब मनुष्य हर व्यक्ती के अन्दर प्रभु का प्रतिरूप देखता है तो उसका उन प्राणियों के प्रति द्वेष की भावना जाती रहती है और वह समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राहमण से लेकर न्रिक्रिष्ठ चंडाल में तथा पशुओं में श्रेष्ठ गाय से लेकर पशुओं में निकृष्ट कुत्ते तक को समभाव से देखता है।
योगेश्वर श्री कृष्ण समस्त प्राणियों में सम दृष्टी रखने का एवं सभी के सुख दुःख को अपना सुख दुःख समझकर समद्रिष्टी रखने का उपदेश देते हुए कहते हैं कि

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो अर्जुन ।
सुखं वास यदि वा दुखम स योगी परमो मतः ।
हे अर्जुन जो अपने आपको उपमान रखकर अर्थात जैसा दुःख मुझे होता है ऐसा ही होता है यह समझकर समभाव से सबकी सेवा करता है उसे परम योगी माना जाता है। शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है की जो मनुष्य यह समझ जाता है की जैसे मुझे अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख का अनुभव होता है वैसे ही दूसरों को भी अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख होता है वह कभी किसी के प्रतिकूल आचरण नहीं करता है।
जयदयाल इसी का भाष्य करते हुए तत्वाविवेचनी में लिखते हैं की सर्वत्र आत्मदर्शी हो जाने के कारण समस्त विराट विश्व उसका स्वरुप बन जाता है। जगत में उसके लिए दूसरा कुछ रहता ही नहीं। इसलिए जैसे मनुष्य अपने आपको कभी किसी प्रकार ज़रा भी दुःख पहुंचाना नहीं चाहता तथा स्वाभाविक ही निरंतर सुख पाने के लिए ही अथक चेष्टा करता रहता है ऐसा करके न वह कभी अपने पर अपनेको कृपा करने वाला मानकर बदले में कृतज्ञता चाहता है न कोई अहसान करता है और न अपने को कर्त्तव्य परायण समझकर अभिमान ही करता है वह अपने सुख की चेष्टा इसीलिये करता है की उससे वैसा किये बिना रहा ही नहीं जाता यह उसका सहज स्वभाव होता है ठीक वैसे ही वह योगी समस्त विश्व को कभी किसी प्रकार किंचित भी दुःख न पहुंचाकर सदा उसके लिए सहज स्वभाव ही चेष्टा करता है।

काश इस मूढ़ प्राणियों ने श्री कृष्ण के छदम शिष्य होने के दम्भ न भरकर ईश्वर प्राप्ति भक्ति में सार्थक प्रयत्न किया होता तो ब्रह्म की निकटता में मन की यह मलीनता दूर हो गयी होती और श्री कृष्ण की तरह ये भी समस्त जीवों में ईश्वर का वास अनुभव कर सकते और सम भावना का व्यवहार करने में समर्थ होते।

मूर्तिपूजा-अवैदिक

???????????????????????????????????????

ओउम्

प्राक्कथन

यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक छोटी है परन्तु लेखक ने इस विषय वस्तु से सम्बंधित अनुच्छेदों के संकलन में संभवतः सभी यूरोपीय आधिकारिक सूत्रों से विचार-विमर्श किया है और आशा है कि ध्यान आकर्षण करने वाले ये सभी अनुच्छेद पाठकगणों के विश्वास प्राप्त करेंगे।

प्रसिद्धआर्य समाज विद्वानों द्वारा पुनरावलोकन

(१) इस छोटी पुस्तिका में स्वामी मंगलानंद पूरी ने यूरोपीय और भारतीय संस्कृत विद्वानों और कुछ इतिहासकारों के भी विचारों का संकलन करके यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत नहीं है। जिन लोगों की ऐसी धारणा है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत है उनके लिए ये पुस्तिका विशेष लाभकारी है। वैदिक विचारधारा से अनभिज्ञ जनसामान्य में ये पुस्तिका निशुल्क वितरित की जानी चाहिए।

घासीदास, एम.ए. एल.एल.बी.

अधिष्ठातागुरुकुल ब्रिन्दाबन एवं अध्यक्ष आर्य प्रतिनिधि सभा उ.प्र.(मेरठ)

(२) स्वामी मंगलानंद पूरी द्वारा मूर्तिपूजा-अवैदिक पुस्तिका: लेखक ने शब्दों के  पक्के और विश्व के प्रसिद्ध यूरोपीय और एशियाई सूत्रों के अच्छे-खासे लेखोंका संकलन करके यह स्थापित किया है कि वेदों में मूर्तिपूजा का कोई समर्थन नहीं है और सफलतापूर्वक यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा का मूल इसाई मत में है ।

यह पुस्तिका निर्देशात्मक और रुचिपूर्ण है साथ ही दिए गए उद्धरण प्रेरणादायक और लाभकारी हैं। कम मूल्य में पुस्तिका उपलब्ध करा कर लेखक ने निश्चय ही असाधारण काम किया है।

बाबूश्याम सुन्दरलाल बी.ए. एल.एल.बी.

अधिवक्ता, अध्यक्ष आर्य समाज मैनपुरी

(३) लेखक धन्यवाद के अधिकारी हैं जिन्होंने इतनी अच्छी पुस्तिका बनाई जो सभाओं और समाजों द्वारा महाविद्यालयऔर विद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों को वितरित की जानी चाहिए। शुल्क यद्यपि कम है पर महत्व की दृष्टी से यह पुस्तिका अनमोल है और महाविद्यालय के नवजवान छात्रों की अध्यात्मिक उन्नति केलिए विशेष रूप से लाभदायक है जिससे उन्हें परमात्मा के निराकार स्वरुप की उपासना की शिक्षा मिलेगी ।

श्रीमान राव (मास्टर) आत्मा राम जी अमृतसरी

आर्य समाज के श्रेष्ठ नेताओ में से एक

 

                                                                                                                                    ओउम्

मूर्तिपूजा-अवैदिक

यूरोपीय व्याख्यानों में

आज के समय में एक हिन्दू सामान्यतःमूर्तिपूजक होता है परन्तु आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूरेविश्व को बताया कि ना तो पुरातन कालीन हिन्दू (आर्य) मूर्तिपूजक थे ना ही वेदादि सत्यशास्त्रों और आर्ष ग्रंथों में मूर्तिपूजा का लेशमात्र भी संकेत  हैं।

स्वामी जी की सत्यता इसी से प्रमाणित होती है कि अन्य पक्षपात रहित वेद विद्वान भी इसी निर्णय पर पहुंचे और मूर्तिपूजाका पुरजोर विरोध किया।अतः हम यहाँ यूरोपीय एवं अन्य संस्कृत विद्वानों को उद्धृत कर रहें हैं। हम पाठक को अपने विवेक के सहारे निर्णय पर पहुचने की स्वच्छंदता प्रदान करते हुए अनुरोध करेंगे कि यहाँ संकलित सभी मतों को यथोचित महत्व प्रदान करते हुए इनका लाभ एवं मार्गदर्शन लें  |

प्रथम अध्याय

यूरोपीय जन मूर्ति पूजा विषय पर

(१)  सरमोंलर विलियम्स (sir Monler Williams) लिखतें हैं :- “मनु स्मृति* के संकलन काल में मूर्तिपूजा के अस्तित्व के विषय में घोर संशय है”( इंडियन विजडम पृष्ट २२६)

(२)  जे.आई. वीलर(J.I. Wheeler) कहतें हैं :- “ऐसा प्रतीत होत्ता है जैसे कोई मंदिर नहीं थे और वे(आर्य या पुरातन कालीन हिन्दू)खुले वातावरण में या हर मकान के एक विशेष गृह में हवन किया करते थे” (वीलर्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया इंट्रोडक्शन पृष्ट ११)

(३)  प्रोफेसर डब्लू.डी. ब्राउन कहतें हैं :- “विचारवान छात्रों के लिए कई प्रबल प्रमाण यह सिद्ध करतें हैं कि पूर्व में हिन्दू मूर्तिपूजक ना थे और ना ही अशिक्षित, निर्दयी और असभ्य थे”

(४)  श्रीमान मिल कहतें हैं :- “मूर्तिपूजापूर्ण रूप से आगे विकसित हुई है। श्रेष्ठ निराकार मान्यताओं से समक्रमण ना स्थापित कर पाने वाली बुद्धि की यह उपज है। पतन अपनी व्याख्या स्वयं करता है। कपट ढोंग आदि मतान्धता और एकेश्वरवाद के पतन के प्रमुख कारण हुए। यह ढोंग स्वतंत्र देवीदेवताओं की विविधता नहीं थी वरन विशेष आयोजनों के मुख्य देव और आहावन था।“ (मिल्स ब्रिटिश इंडिया पृष्ट ११७ मई१९१८को वैदिक पत्रिका में प्रकाशित)

(५)  मक्स्मुलर लिखते हैं :- “कभी कभी यह भी कहा जाता है की वैदिक धर्म का लोप हो चुका है क्यूंकि तांत्रिकों एवं पुराणिकों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मणिक धर्मशिव, ब्रह्मा और विष्णु के विभिन्न रूपों के डरावने मूर्तियों की पूजा करते हैं” | (ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट १५४)

(६)  मक्स्मुलर आगे लिखते हैं :- “यदि हम वसिष्ठ या विश्वामित्र या अन्य किसी आर्य कवि से पूछ पातेकि क्या वे सूर्य, जो आग का गोला है,वह हाथ पैर ह्रदय स्नायु आदि युक्त देहधारी है? तो निसंदेह वे हमारे प्रश्न पर ठहाके लगाते हुए कहते की हमने उनकी भाषाएँ जान कर भी उनके मंतव्यों को नहीं जाना।“(ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट २७५)

(दूसरा अध्याय जो मक्स्मुलर के विचारों पर था वह अनुवादक को प्रयास करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ अतः अनुवादक ने उनके कुछ प्राप्त अंशों को प्रथम अध्याय में ही जोड़ दिया है।)

द्वितीय अध्याय

मूर्तिपूजा पर आर.सि. दत्त

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान रोमेशचन्द्रदत्त जो किसी भी रूप से आर्य समाजी भी नहीं हैं लखते हैं:

(१)ऋग्वेद में मूर्ति का कोई संकेत ही नहीं हैं, ना ही किसी पूजागृह और ना ही मंदिरों में।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया कितब१ पृष्ट ६६)

(२)और रेखागणित के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा का महत्व उस समय ख़तम हो गया जब पुराणिक काल में चित्र आदि जड़ पूजा प्रचलित हुई और भक्तों के घर से समिधाग्नि शांत हो गयी और लोगों ने वेदी बनाने की विद्या भुला दी।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया किताब १ पृष्ट २६९ २७४)

(३) आगे वह लिखतें हैं :

“… और कोई मूर्तिपूजा का ज्ञान ना था”

(क)बौद्ध मत में मूर्तिपूजा इसाई कालके सदियों बाद आई इसलिए मूर्तिपूजा बौद्धों द्वारा शुरू हुई ऐसी शंका करना असंभव तो नहीं हैं।

(ख)ऐसा अनुमान है मनु स्मृति के संकलन काल में बौद्धों द्वारा पूजा का प्रचालन बढ़नेपर पुर्वग्रहियों द्वारा विरोध हुआ।

(ग)मूर्तियों की पूजा का विधान हिन्दुवों में बौद्ध आन्दोलन तक ना था और बौद्ध मत के प्रचार के साथ यह विकसित हुई।

(घ)मनु …क्रोधपूर्वक मूर्तिपूजकों को शराब और मांस बेचने वालो की श्रेणी में रखते हैं।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएँट इंडिया कितब२ पृष्ट १८९-१९५ )

(४)पुरातन काल में अग्न्याधानकी एक छोटी सि विधि सभी गृहस्तों के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था, जब हर किसी द्वारा अपने हवनकुंड में ही ईश्वारुपसना की जाती थी और मंदिरों-मूर्तियों से सभी अनभिज्ञ थे।

(हिज सिविलाइज़ेशन किताब १ पृष्ट१८४)

(५)तीर्थों के विषय में आर.सि.दत्त लिखते हैं :

तीर्थभ्रमण, जो पुरातन काल में नगण्य या अनजाने थे, का मूर्खतापूर्ण तरीके से आयोजन होने लगा। नये-नये भगवान, नयी-नयी मूर्तियाँ-चित्र एवं मंदिरों भारत की भूमि एवं भोले-भालेश्रद्धालुओंके ह्रदय में जन्म लिया।“

(सिविलाइज़ेशनकिताब २ पृष्ट१९५)

(६)आगे श्री दत्त लिखते हैं :

“६२० ईस्वी में चीनीयात्री होव्न सॉंग के आगमन काल में जगन्नाथपुरी के विशाल मंदिर का लेश भीना था।“

(सिविलाइज़ेशन किताब २ पृष्ट १५१)

 

तृतीय अध्याय 

मूर्तिपूजा पर एल्फिन्स्तों

(१) श्री एम.एल्फिन्स्तों लिखतें हैं :

“दृश्यपदार्थ और चित्रों की पूजा का कोई विधान नहीं दिखाई पड़ता”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ४०)

(२)आगे श्री एल्फिन्स्तों लिखते हैं :

“…. औरसाथ ही, उन्होंने ना तो मंदिर ही खड़े किये ना ही सच्चेईश्वर के प्रतिक की पूजा करते थे”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ९३-९४)

(३)आगे जोड़ते हुए लिखतें हैं :

“श्रीमान कॉलेब्रोक स्वयं को पांच  प्रकार के पवित्र कर्मों(पञ्चमहायज्ञ) तक ही सिमित रखतें हैं जो मनु के काल से चली आ रही हैं परन्तु वर्तमान समय में एक विशेष प्रकार की पूजा का विधान है जो पहले भारतीय समाज में ना था, परन्तु अब ये विधान एक प्रधान कर्म हो चला हैं।

ये विधान हैं मूर्तियों की पूजा का, जिनके सामने अनेक प्रकार के नमन और स्तुतियों का रोज़ का विधान हैं।”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ११०)

 

 

चतुर्थ अध्याय 

मूर्तिपूजा पर विल्सन

(१)प्रोफेसर एस.एस.विल्सन लिखतें हैं :

“वेदों में मंदिरों का कहीं संकेत नहीं है ना ही किसी सामूहिक भवन का वर्णन ही मिलता हैं, साफ़ है कि पूजा पूर्णतः घरेलु थीं”

(विल्सन्स ऋग्वेद इंट्रोडक्शन किताब १ पृष्ट XV)

(२)पुनः लिखतें हैं :

“अब तक हमारी जितनी जानकारी हैं, शिव,महादेव,काली,दुर्गा,राम और कृष्ण के नाम वेदों में नहीं मिलते, एक रूद्र नाम आता है जिसे बाद में शिव ही मान लिया गया।“

(आइबीडपृष्टxxvi)

(३)आगे लिखते हैं :

“ औरआज जिस रूप में भारतवर्ष में पूजा होती हैं, अर्थात लिंग की पूजा, उसका नाम मात्र भी संकेत , कम से कम पिछली १० शताब्दियों में नहीं मिलता। ना ही कोई संकेत ब्रह्मा, विष्णु और महेश, त्रिमूर्ति का ही प्राप्त होता है।“                       आइबीड XXVII

(४)आगे श्रीमान लिखतें हैं :

“और फिर भी मनु ना किसी अवतार,ना राम और ना ही कृष्ण कोइंगितकरतेंहैं। अतः यही माननीय हैं कि वे रामायण और महाभारत काल के बाद विकसित हुई पूजा पद्दति के पूर्व कालीन हैं।“

(५)श्री मिल्स एच.एच.विल्सन के विचारों को इस प्रकार उद्धृत करते हैं:

“…. परन्तु वे(ब्राह्मण) पगान पादरियों की तरह या यहूदियों की तरह कभी भी सार्वजानिक पूजा का आयोजन, व्यक्ति विशेष के लिए पूजन, मंदिरों में पूजन यामूर्तियों का पूजन नहीं करते थे।

जोब्राह्मणमूर्तियों की पूजा करता उसेपतित और धार्मिकआयोजनों में ना बुलाया जाता”

(मनुII१५२,१८०)-(मिल्सहिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब२पृष्ट १९२)

(७)  श्रीएच.एच.विल्सन पुनः बताते हैं-

“परन्तु पूजनीय महापुरुषों की पूजा उससमाज का हिस्सा नहीं हैं और ना ही देवताओंका अवतरण जैसा की अन्य ग्रंथों में निर्देशित हैं जो अबतक मैंने देखीं हैं यद्यपि कुछ भाष्यकारों द्वारा इसपर संकेत किया गया है।“

“यह भी सत्य है कि वैदिक पूजा के अधिकतर भाग निजी हैं, जिनमे स्तुति आदि अनुष्ठान,एक अदृश्य व्यापक अप्रमाणिक सत्ता को संबोधित करते हुए,स्वयं की उन्नति लिए संपन्न किये जाते हैं,किसी मंदिर में नहीं।“

“एकशब्द में, वैदिक मत मूर्तिपूजक नहीं हैं।“

(एच.एच.विल्सन विष्णुपुराण प्रकथन पृष्ट १११)

(८)  पुनः लिखतें हैं-

“कर्ता और क्रिया में भेद मूर्तिपूजा से ही विकसित हुई है।प्रतिमा ने मुख्य प्रति की जगह लेली, और ना ही वेदों में परिपूर्ण हो रहे रहस्यवाद और वाक्यरचना[**] की कोई व्यवस्था की गयी।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब१ पृष्ट ३९२)

(९)इसके अलावा वे लिखतें हैं :

“…. परन्तु पद्धति नयी है, जगन्नाथ स्वयं नवीन है और वैष्णवों के पुराणों में इनका कोई स्थान नहीं। यह असम्भाव्य है कि वर्त्तमान स्थल का महिमामंडन अधिक से अधिक एक शताब्दी से पूर्व हुआ हो।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट४१६)

 

पंचम अध्याय 

मोहम्मदनविद्वानों के विचार मूर्तिपूजा विषय पर

अब हम मध्यकालीन भारत के दो सर्वाधिक पढ़े-लिखेमुसलमान सज्जनों केविचारों की ओर नज़र डालेंगे जो यह कहतेंहैंकिहिंदुत्व का मुर्तिपूजन से कोई नाता नहीं हैं।

(१) मौलाना अबुल फज़ल, अकबर के दरबार के प्रधानमंत्री लिखतें हैं :

“वे(हिन्दू) सभीएकेश्वरवाद में विश्वास रखतें हैं औरयद्यपि वे मूर्तियों को विशेष सम्मान से रखतें हैं फिर भी वे किसी प्रकार मूर्तिपूजक नहीं हैं जैसा की अज्ञानी जन समझतें हैं।“

(आयींने अकबरी,एफ़ गोडविनभाष्यकिताब६ पृष्ट २९४)

(२)मौलाना अलबेरुनी, अरबी और संस्कृत के विद्वान जो महमूद ग़ज़नी के साथ भारत आये थे लिखते हैं:

“… परन्तु हम ये घोषणा करते हैं कि मूर्तियाँ केवलअनपढ़लोगों द्वारा स्थापित की जातीं हैं।

स्वच्छंद विचारों के मार्ग पर चलने वाले यादर्शन शास्त्र पढने वाले जो सत्य का सार प्राप्त करना चाहतें हैं वे इश्वारुपसना को छोड़ अन्य सभी विचारों से मुक्त हैंऔर प्रतिक रूप में स्थापित की गयी चित्र आदि वस्तुवों की पूजा की कल्पना भी नहीं करते।“

(अल्बेरुनिस इंडिया डॉ. ई.सि.सोचोऊ भाष्य कितब१ अध्याय XI पृष्ट ११२-११३)

(२) अतः मौलाना अलबेरुनी आगे जोड़ते हैं :

“इन सभी मूढ़ प्रलापों को दर्शाने का  हमारा उद्देश्य पाठक को मूर्ति का विवरण देना है, अगर कोई कहीं मूर्ति देख ले  औरउसकी व्याख्या करे तो जैसा हमने पहले कहा कि मूर्तियाँ नासमझ अनपढ़निम्न दर्जे के लोगों द्वारा स्थापित की गयींऔर हिन्दुवों ने कभी इश्वर के मूर्तियों की स्थापना नहीं की।”

(ईबिड पृष्ट ११२)

षष्ट अध्याय

मूर्तिपूजा का मूलइसाई मत

हमारेमुसलमानऔरइसाई भाइयों की धारणा है कि मूर्तिपूजा का मूल हिन्दू मान्यताओं में हैं, निश्चित रूप से वे गलत हैं। पहले दर्शाये गए विचार अपनी व्याख्या खुद ही करतें हैं। स्वामी राम तीर्थ, जो यूरोप वासी तो नहीं थे परन्तु कई यूरोपीय और अमरीकियों के मार्गदर्शी हुए, पूछते हैं :

“…. भारत में मूर्तिपूजा कौन लाया?आज ये इसाई आपसे कहेंगे कि आप मूर्तिपूजक हो परन्तुभारतकी कविताओं, व्यक्रण, गणित, शिल्पकला, गायन और अन्य वृहद् वैदिक साहित्य में लेश मात्र भी मूर्तिपूजा के संकेत नहीं मिलते। यह मूर्तिपूजा आई कहाँ से? भारतीय धर्म के किसी भी रूप का ये हिस्सा नहीं है। मूर्तिपूजा भारत में ईसाईयों द्वारा आई। इतिहास का यह पृष्ट अब तक लोगों के नेत्रों से दूर रहा हैं परन्तु मेरा अनुसन्धान अबछपकरतैयार होगा।

“मैंने आतंरिक एवं बहारी दोनों साक्ष्यों द्वारा ये सिद्ध किया है कि ईसा के चौंथी और पाँचवी शताब्दीबाद भी कुछ रोमन कैथोलिकइसाई भारत में बसते हैं। दक्षिण भारत में वे संत थॉमस इसाई कहे जाते हैं। इन्होने ही मूर्तिपूजा की शुरुवात की। फिर आतंरिक साक्ष्य से, मैंने सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा के प्रबल समर्थक रामानुजकेनिर्देशकों में से एक ये संत थॉमस इसाई थे। जैसाहमें ज्ञात है, इन्होने पहले जिस मूर्ति को शीश नवाया वह पूर्वमुखी नहीं हैं।

“मेरे सौभाग्यावानो, यह दर्शाता है किमूर्तिपूजा का मूल उस मत में है जिसे आप इसाई मत कहतें हैं। येमिशनरी जोआज मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं, एक ओर मुर्तिपूजा को निक्रिस्ट मानते हैं और दूसरी ओर मूर्तियों का व्यापार कर पैसे कमातें हैं। इस तरह तुम (मिशनरी) लोगोंका धर्मान्तरण करना चाहते हो। क्या यह मूर्तियाँ जिन्हें तुम बनाकर बेचते हो वो तुम्हारे गोसपेल से ज्यादा शक्तिशाली हैं? अब ये तुम ही निर्णय करो।“

(इन वुड्स ऑफ़ गॉड-रेलिज़ेशनकिताब ३ पृष्ट ३११-३१२)

इतने संस्कृत और यूरोपीय विद्वानों के साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद लिखने को कुछ और अधिक नहीं रह गया है। अब पाठक स्वयं ये निर्णय करे कि वेदों में मूर्तिपूजा की खोज कहाँ तक सफल होगी।

छोटे शब्दों में :

(क) …..ओल्ड टेस्टामेंट का इश्वर आदम और हव्वा से बातें करता है औरअब्राहम की रसोई से खाना खाता है औरमोसेस से वार्ता करने बादलों से प्रकट हो जाता है।

(ख) …ईसाईयों का इश्वर कुवांरी कन्याओं को गर्भवतीबना सकता है और इस तरह विश्वमें अपने “मात्र पुत्र” का जन्मदाता है।

(ग)  ….. कुरान का अल्लाह आदम, नोआह और अब्राहम के समक्ष प्रकट होने को हमेशा तैयार बैठा रहता है।

(घ)  …… परन्तु वैदिक इश्वर एक ऐसा है जो देहधारी नहीं है और किसी सीमा से बाधित नहीं है और निश्चित रूप से सभी देश, काल और वस्तु में वसता है।

हे सनातनी हिन्दू सज्जनों, आपने ऊपर दिए गए साक्ष्यों को पढ़ा और जाना कि सिर्फ दयानंद ही नहीं हैं जो मूर्तिपूजा त्यागने को कहतें हैं वरन वे सभी, जिन्होंने वेदों और अन्य प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन किया है, यही मानते हैं। अतः आप सभी सत्य को स्वीकार करें, जैसा की आप जानते हैं:

“सत्यमेवजयते”

इति

 

लिव इन रिलेशनशिप

live in relationship

लिव इन रिलेशनशिप

लेखक – इंद्रजीत ‘देव’

मार्च २०१० में भारतीय उच्चतम न्यायलय ने एक महत्व पूर्ण निर्णय  दिया है । बिना विवाह किये भी कोई भी युवक व युवती अथवा पुरुष व स्त्री इकट्ठे रह  सकते हैं । यदि कृष्ण व राधा बिना परस्पर  विवाह किये एकत्र रह सकते थे तो आज के युवक युवती / पुरुष स्त्री ऐसा क्यूँ नहीं कर सकते ? . “यह निर्णय महत्वपूर्ण ही नहीं , भयंकर हानिकारक भी है । इसका परिणाम यह निकलेगा कि आपकी गली में कोई पुरुष व स्त्री बिना विवाह किये आकर रहने लगेंगे, तो आप व आपकी गली में रहने वाले अन्य लोगों को उनका वहाँ रहना अत्यंत बुरा, समाज व परिवार को दूषित करने वाला प्रतीत होगा, परन्तु आप  उनका  कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे । यदि आप कुछ पड़ौसियों को साथ लेकर उनके  पास जाकर गली छोड़कर चले जाने  को कहेंगे, तो  वे उपरोक्त निर्णय दिखाएंगे । व आप असफल होकर घर वापस लौट आयेंगे । यदी आपके द्वारा पुलिस में उनकी शिकायत की जायेगी तो पुलिस स्वयं आकर समाज, धर्म व कानून के विरुद्ध ऐसा कार्य करने के अपराध में उनसे पूछताछ करेगी, तो उसे भी वे उच्चतम न्यायालय का पूर्वोक्त निर्णय दिखाएंगे तथा पुलिस भी उनके विरुद्ध केस बनाये बिना वापस लौटने के सिवाय अन्य कुछ नहीं कर पायेगी ।

में भी यह घटना पूर्वोक्त रूप में कुछ स्थानों पर कुछ लोगों को सुनायी है तो लगभग सभी श्रोताओं ने यही  कहा है कि न्यायालय को भ्रष्ट करने व परिवारों की एकता को भंग करने के द्वार खोल दिए हैं, परन्तु मेरे विचार में न्यायालय का इस निर्णय में कोई दोष नहीं है क्यूंकि न्यायपालिका का काम निर्णय देना है तथा वह निर्णय देती है | विधायिका  द्वारा बनाये हुए अधिनियमों के आधार पर । विधायिका द्वारा बनाये गए अधिनियमों में लिखे एक एक शब्द के गहन , पूर्ण व सत्य अर्थों पर विचार करके ही न्यायादिश निर्णय दे सकते हैं ।

उनके निजी विचार कुछ भी क्यूँ न हो, वे अधिनियम के बंधन में अक्षरसः बंधे होते हैं | इस सम्बन्ध में मैं प्रमाण प्रस्तुत करता हूँ । इंग्लैण्ड में एक समय में ऐसा कानून बनाया गया था | कि लण्डन की सडकों पर कोई घोडा-गाड़ी नहीं लायी जायेगी और यदी कोई ऐसा करेगा तो उसे दण्डित किया जायेगा ।  कुछ दिनों तक इस अधिनियम का पालन होता रहा परन्तु एक दिन लोगों ने देखा कि एक गाड़ी लंदन में चल रही थी । चालक को वहाँ की पुलिस ने न्यायायलय में प्रस्तुत किया, परन्तु न्यायाधीश उसे कुछ भी दंड न दे पाये,  क्यूंकि चालक ने यह सिद्ध कर दिया कि वह जो गाड़ी लेकर लन्दन में घूम रहा था, वह घोडा-गाड़ी थी ही नहीं। अपितु घोड़ी-गाड़ी थी | इसी प्रकार एक दूसरे घटना भी लिखता हूँ तब एक न्यायालय  में चल रहे मुकदमे में फांसी पर लटका देने का दण्ड एक अपराधी को न्यायाधीश ने लिखा- “He should be hanged” | उस अपराधी को उसके वकील ने  कहा कि तुम चिंतामत करो | में  तुम्हे मरने नहीं दूंगा । कुछ लोगों का विचार है कि वह वकील जवाहर लाल नेहरु के पिता मोती लाल नेहरु थे ।  वस्तुत: वही वकील थे या कोई अन्य मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है अस्तु । जब अपराधी को फांसी का फंदा डालकर लटकाया गया तो, अपराधी को तुरंत छुड़वा लिया क्यूंकि न्यायाधीश ने अपने आदेश में यह नहीं लिखा कि इसको तब तक लटकाये ही रखना है जब तक इसके प्राण न निकल जाएँ । पास खड़े उच्च अधिकारी व कर्मचारियों को उस वकील ने फांसी पर लटकाने से पूर्व ही उक्त आदेश का अर्थ समझा व मनवा लिया था कि इसमें तो इतना ही लिखा है कि इस अपराधी को लटकाया जाये । इसमें यह कहाँ लिखा है कि इसको मरने तक लटकाये रखना है । अधिवक्ता ने अपराधी को छुड़ा लिया, बचा लिया ।  यह उसके द्वारा शब्दार्थ की  गहराई तक जाने का परिणाम था । कुछ लोग कहते हैं कि इस घटना के पश्चात् ही तत्कालीन शासन ने ऐसी  व्यवस्था की न्यायाधीष ऐसे अपराधियों के मामले में निर्णय देते हुए लिखने लगे “He should be hanged till death”  अर्थात इसे तब तक लटकाये रखा जाये तब तक इसकी मृत्यु न हो जाये ।

सन २०१० में पूर्वोक्त मामले में न्यायाधीशों का कोई दोष नहीं है । इस कथन को पाठकों में से वे पाठक मेरी बात अच्छी पाठक समझेंगे जिनको न्यायालयों की न्यायविधि का ज्ञान है । दोष वस्तुतः उनका है जिन्होंने पुराणों में कृष्ण जी व राधा के सम्बन्धों को अश्लील चित्रित किया था । इसके अतिरिक्त उनका भी दोष है, जिन्होंने इनके सम्बन्धों को अश्लील रूप में प्रस्तुत करने वालों के हाथ न कटवाए, न पुराण जलवाये । पुराणों की हिन्दू समाज में मान्यता व प्रतिष्ठा है । न्यायालय ने सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से पापी व दोषी युवक व उस युवती के वकील ने वे प्रसंग प्रस्तुत किये जिनसे कृष्ण जी व राधा के शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने का वर्णन है । ( “ब्रह्मवैवर्त पुराण , श्री कृष्ण जन्म खंड अध्याय ४६ व १५ ) इसमें न्यायाधीशों का द्वेष क्या है ?

सरकार की और से प्रस्तुत हुए अधिवक्ता में पूर्वोक्त प्रमाणों को झुठला नहीं सके । पूरा हिन्दू समाज पुराणों को सत्य व ऐतिहासिक ग्रन्थ मनाता है | आर्य समाज बहुत ही पहले ही पुराणों को झुठला चुका  है व “ महर्षि दयानंद सरस्वती ने श्री कृष्ण जी के सम्बन्ध् में स्पष्ट लिखा है ” देखो श्री कृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अति उत्तम है। उनका गुण कर्म स्वाभाव व चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश्य है जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरण पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा।“ ( सत्यार्थ प्रकाश एकादशसमुल्लास )

महाखेद  की बात है कि इस अनिष्टकारी निर्णय के आने के बाद तीन वर्षों में भी पुरे देश में कोई हलचल नहीं हुयी । जगद्गुरु बने बैठे शंकराचार्यों में से एक ने भी इस निर्णय व इसमें राधा व कृष्ण जी के चरित्र को गलत रूप में न्यायालय द्वारा प्रमाण मानने से भविष्य में क्या दुष्परिणाम होंगे इसकी कोई कल्पना व इसे रोकने हेतु कोई कार्यक्रम व इच्छा नहीं है | इसके अतिरिक्त कोई संत, कोई महंत, कोई ठगंत कोई बापू कोई गुरु कोई बाबा कोई सन्यासी कोई मौलवी किसी धार्मिक सामाजिक व राजनैतिक संस्था का कोई पदाधिकारी आज तक इस विषय में कुछ नहीं बोला । इससे सिद्ध है कि उनकी दृष्टी में यह निर्णय एक युवक व एक युवती तक ही सीमित रहेगा । मेरे विचार में यह एक दूरगामी अनिष्टकारी निर्णय है तथा इसके विरोध में केवल हिंदुओं को ही नहीं सिखो मुसलमानो जैनियों व बौद्धों वनवासियों नास्तिकों व कम्युनिष्टों को भी एकत्र होकर आवाज उठानी चाहिए थी व सभी राजनैतिक, सामाजिक , धार्मिक व सांप्रदायिक मतभेद भुलाकर इस विषय पर एकजुट होना चाहिए था । खेद है  हमारे देश में राजनैतिक सुख व भोग हेतु परस्पर विरोधी या भिन्न भिन्न विचारों वाली २५ -२६ पार्टियाँ एकत्रित होकर कथित न्यूनतम कार्यक्रम बना लेती हैं | परन्तु सामाजिक धार्मिक संस्थाएं राजनैतिक दल व समाज हित को लेकर एक मुद्दे पर भी एकत्रित नहीं होते । मुझे इस विषय में यह निवेदन करना है :

बागवानों ने अगर अगर अपनी रविश नहीं बदली,

तो पत्ता पत्ता इस चमन का बागी हो जायेगा |

१६ दिसम्बर को बलात्कार की दिल्ली में हुयी घटना के बाद में देश में प्रजा ने जो चेतना व विरोध भाव प्रगट किया उससे सरकार हिल गयी । इससे सिध्द है कि राजनेता केवल जनता के दवाब के आगे ही झुकते हैं । पूर्वोक्त विषय में निष्क्रिय समाज व राष्ट्र की  चिन्ता कौन करेगा । आज हर कोई परेशान है | रही सही कमी प्रस्तुत निर्णय के बाद होगी ।  न धर्म गुरुओं को न समाज शास्त्रियों को न धार्मिक संस्थाओं को परेशान हो रहे इस समाज व राष्ट्र की कोई चिता है | अब ऐसा कानून कोई है ही नहीं जिसके अधीन ऐसे चलने वाले स्त्री पुरुष को अपराधी मानकर दण्ड दिया जा सके | तो न्यायालय उन्हें दण्ड दे ही क्यूँ सकता है ? उच्चतम नयायालय का निर्णय आने के बाद किसी राजनैतिक दल की नींद नहीं खुली व इस निर्णय के पश्चात live in relationship के नाम पर बिना विवाह किये रहने वालों की  संख्या बड़ने लगी है अब उनको उच्चतम न्यायालय का निर्णय विशेष उत्साह प्रदान कर रहा है | व उनका मनोबल बड़ रहा है इस स्तिथी में एक स्पष्ट कानून बनाने की स्पष्ट आवश्यकता है | जिसके अधीन ऐसे सम्बंधों को अवैध व कठोर दंडनीय माना  जाये । राधा और कृष्ण जी का कथित प्रश्न इसमें बाधा  नहीं बनता ।

सामजिक धार्मिक राजनैतिक संस्थाओं समाज शास्त्रियों  जागो तथा इस सरकार पर तुरंत दवाब डालो कि वह वांछनीय कानून बनाये।  सुख सुविधा व धन ऐश्वर्य में डूबे राजनैतिक नेताओं निद्रा से जागो तथा देश के परम्परागत वैवाहिक आदर्श की रक्षार्थ तुरुन्त वांछनीय कानून बनाओ अन्यथा आने वाला इतिहास तुम्हें क्षमा नहीं करेगा ।

दे रही हों आंधियाँ जब द्वार पर दस्तक तुम्हारे,

तुम नहीं जगे तो ये सारा जमाना क्या कहेगा ?

बहारों को खड़ा नीलाम देखा पतझड़ कर रहा है

तुम नहीं उठे तो ये आशियाना क्या कहेगा ?

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शम्बूक वध का सत्य

shambuk

शम्बूक वध का सत्य 

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता लड़का मर गया । उस ब्राह्मण के लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा । उसका आरोप था कि अकाल मृत्यु का कारण राजा का कोई दुष्कृत्य है । ऋषी मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय किया कि राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा है क्योंकि :-

राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजावर्ग को विपत्तियों का सामना करना पड़ता है ।  राजा के दुराचारी होने पर ही प्रजा में अकाल मृत्यु होती है ।  रामचन्द्र  जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलवाया ।  उनके अतिरिक्त वसिष्ठ नामदेव मार्कण्डेय गौतम नारद और उनके तीनों भाइयों को भी बुलाया । ७३/१

तब नारद ने कहा :

राजन ! द्वापर में शुद्र का तप में प्रवृत्त होना महान अधर्म है ( फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवृत्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ) निश्चय ही आपके राज्य की सीमा पर कोई खोटी बुध्दी वाला शुद्र तपस्या कर रहा  है।  उसी के कारन बालक की मृत्यु हुयी है।  अतः आप अपने राज्य में खोज करिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यत्न कीजिये ।  ७४/८ -२८,२९ , ३२

यह सुनते ही रामचन्द्र पुष्पक विमान पर सवार होकर ( वह तो अयोध्या लौटते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था  – युद्ध -१२७/६२ )  शम्बूक की खोज  में निकल पड़े (७५/५ ) और दक्षिण दिशा में शैवल  पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया देखकर राजा श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले – “उत्तम तप का पालन करने वाले तापस ! तुम धन्य हो ।  तपस्या में बड़े चढ़े  सुदृढ़ पराक्रमी परुष तुम किस जाती में उत्पन्न हुए हो ? में दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ ।  तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा है ? तपस्या  द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौनसा वर पाना चाहते हो – स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु ? कौनसा ऐसा पदार्थ है जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो  जो दूसरों के लिए दुर्लभ है।  ७५-१४-१८

तापस ! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो उसे में सुनना चाहता हूँ ।  इसके सिवा यह भी बताओ  कि तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय ? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो ?

क्लेशरहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ तपस्वी बोला – हे श्रीराम ! में झूठ नहीं बोलूंगा देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ ! मुझे शुद्र ही जानिए मेरा  नाम शम्बूक  है ७६,१-२

वह इस प्रकार कह ही रहा था कि रामचंद्र जी ने तलवार निकली और उसका सर काटकर फेंक दिया ७६/४ |

शाश्त्रीय व्यवस्था है – न ही सत्यातपरो धर्म : नानृतातपातकम् परम ” एतदनुसार मौत के साये में भी असत्य भाषण न करने वाला शम्बूक धार्मिक पुरुष था।  सत्य वाक्  होने के महत्व  को दर्शाने वाली एक कथा छान्दोग्य उपनिषद में इस प्रकार लिखी है – सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्र मुनिके पास शिक्षार्थी होकर पहुंचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा । उसने कहा कि में नहीं जनता मेरा गोत्र क्या है मेने अपनी माता से पूछा था ।  उन्होंने  उत्तर दिया था कि युवावस्था में अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही ।  उसी समय तेरा जन्म हुआ इसलिए में नहीं जानती कि तेरा गोत्र क्या है ।  मेरा नाम सतीकाम है।  इस पर मुनि ने कहा – जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कह सकता।  वह शुद्र और इस कारण मृत्युदंड का अपराधी कैसे हो सकता था ?

शम्बूक में आचरण सम्बन्धी कोई दोष नहीं बताया गया इसलिए वह द्विज ही था।  काठक संहिता में लिखा है – ब्राह्मण के विषय में यह क्यों पूछते हो कि उसके माता पिता कौन हैं यदि उसमें ज्ञान और तदनुसार आचरण है तो वे ही उसके बाप दादा हैं। करण ने सूतपुत्र होने के कारन स्वयंवर में अयोग्य ठहराए जाने पर कहा था कि जन्म देना तो ईश्वराधीन है परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ बन जाना मनुष्य के अपने वश में है।

आयस्तम्ब सूत्र में कहा है –

धर्माचरण से न्रिकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है जिसके वह योग्य हो।  इसी प्रकार अधर्माचरण से पूर्व अर्थात उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे नीचे वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है।  मनुस्मृति में कहा है –

जो शूद्रकुल में उप्तन्न होक ब्राह्मण के गुण कर्म स्वभाववाला हो वह ब्राह्मण बन जाता है।  इसी प्रकार ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी जिसके गुण कर्म स्वभाव शुद्र के सदृश्य हों वह शुद्र हो जाता है  मनु १०/६५

चारों वेदों का विद्वान किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से न्रिकृष्ट होता है , अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है ।  महाभारत – अनुगीता पर्व ९१/३७ )

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं ब्राह्मण और शुद्र का लक्षण करते हुए वन पर्व में कहा है – सत्य दान क्षमा शील अनुशंसता तप और दया जिसमे हों ब्राह्मण होता है और जिसमें ये न हों शुद्र कहलाता है।  १८०/२१-२६

इन प्रमाणो से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था का आधार गुण कर्म स्वाभाव है जन्म नहीं और तपस्या करने  का अधिकार सबको प्राप्त है।

गीता में कहते हैं – ज्ञानी जन विद्या और विनय से भरपूर ब्राह्मण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल सबको समान भाव से देखते अर्थात सबके प्रति एक जैसा व्यवहार करते हैं ।  गीता ५/१८

महर्षि वाल्मीकि को रामचन्द्र  जी का परिचय देते हुए नारद जी ने बताया – राम श्रेष्ठ सबके साथ सामान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय  दृष्टिवाले थे । तब वह तपस्या जैसे शुभकार्य में प्रवृत्त शम्बूक की शुद्र कुल में जन्म लेने के कारन हत्या कैसे कर सकते थे ? (बाल कांड १/१६ ) इतना ही नहीं श्री कृष्ण ने कहा ९/१२- ,मेरी शरण में आकर स्त्रियाँ  वैश्य शुद्र अन्यतः अन्त्यज आदि पापयोनि तक सभी परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करत हें ।

इस श्लोक पर टिप्पणी करते हुये लोकमान्य तिलक स्वरचित गीता रहस्य में लिखत हैं “पाप योनि ” शब्द से वह जाती विवक्षित जिसे आजकल जरायस पेशा कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि इस जाती के लोग भी भगवद भक्ति से सिध्दि प्राप्त करते हैं ।

पौराणिक लोग शबरी को निम्न जाती की स्त्री मानते हैं ।  तुलसी दास जी ने तो अपनी रामायण में यहाँ तक लिख दिया – श्वपच शबर खल यवन जड़ पामरकोलकिरात “. उसी शबरी के प्रसंग में वाल्मीकि जी ने लिखा है  – वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्विनी थी | अरण्य ७४/१०

तब राम तपस्या करने के कारण शम्बूक को पापी तथा इस कारण प्राणदण्ड का अपराधी कैसे मान सकते थे ?

राम पर यह मिथ्या आऱोप महर्षि वाल्मीकि ने नहीं उत्तरकाण्ड की रचना करके वाल्मीकि रामायण में उसका प्रक्षेप करने वाले ने लगाया है ।

शायद मर्यादा पुरुषोत्तम के तथोक्त कुकृत्य से भ्रमित होकर ही आदि शंकराचार्य ने शूद्रों के लिए वेद के अध्यन श्रवणादि का निषेध करते हुए वेद मन्त्रों को श्रवण करने वाले शूद्रों के कानो में सीसा भरने पाठ करने वालों की जिव्हा काट डालने और स्मरण करने वालों के शरीर के टुकड़े कर देने का विधान किया ।  कालांतर में शंकर का अनुकरण करने वाले रामानुचार्य निम्बाकाचार्य आदि ने इस व्यवस्था का अनुमोदन किया ।  इन्ही से प्रेरणा पाकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में आदेश दिया –

पुजिये विप्र शीलगुणहीना, शुद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना।  अरण्य ४०/१

ढोर गंवार शुद्र पशु नारी , ये सब ताडन के अधिकारी।  लंका ६१/३

परन्तु यह इन आचार्यों की निकृष्ट अवैदिक विचारधारा का परिचायक है ।  आर्ष साहित्य में कहीं भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता ।  परन्तु इन अज्ञानियों के इन दुष्कृत्यों का ही यह परिणाम है कि करोड़ों आर्य स्वधर्म का परित्याग करके विधर्मियों की गोद में चले गए ।  स्वयं शंकर की जन्मभूमि कालड़ी में ही नहीं सम्पूर्ण केरल में बड़ी संख्या में हिन्दू लोग ईसाई और मुसलमान हो गये और अखिल भारतीय स्थर पर देश के विभाजन का कारन बन गए और यदि शम्बूक का तपस्या करना  पापकर्म था तो उसका फल = दण्ड  उसी को मिलना  चाहिए था ।  परन्तु यहाँ अपराध तो किया शम्बूक ने और उसके फल स्वरुप मृत्यु दण्ड  मिला ब्राह्मण पुत्र को और इकलौते बेटे की मृत्यु से उत्पन्न शोक में ग्रस्त हुआ उसका पिता।  वर्तमान में इस घटना के कारण राम पर शूद्रों पर अत्याचार करने और सीता वनवास के कारण स्त्री जाति पर ही नहीं, निर्दोषों के प्रति अन्याय करने के लांछन लगाये जा रहे हैं ।  कौन रहना चाहेगा ऐसे रामराज्य में ?

शबरी

Shabri

शबरी

लेखक- स्वामी विद्यानंद सरस्वती

लोकोक्ति है कि शबरी नामक भीलनी ने राम को अपने जूठे बेर खिलाये थे । इस विषय में अनेक कवियों ने बड़ी सरस और भावपूर्ण कवितायेँ भी लिख डालीं । परन्तु वाल्मीकि रामायण में न कोई भीलनी है और न बेर फिर बेरों के झूठे होने का तो प्रसंग ही नहीं उठता ।

सीता की खोज करते हुए जिस शबरी से रामचन्द्र जी की भेंट हुयी थी वह शबर जाति की न होकर शबरी नामक श्रमणी थी ७३/२६ ।  उसे ‘धर्म संस्थिता’ कहा गया है ७४/७ । राम ने भी उसे सिद्धासिद्ध और तपोधन कहते हुए सम्मानित किया  था  ७४/१० । सनातन धर्मी नेता स्वामी करपात्री के अनुसार शबरी का शबर जाती का होना और झूठे फल देना आदि प्रमाणिक न होकर प्रेम स्तुत्यर्थ है – मया तू संचितम्वन्यम (७४/१७) मैने आपके लिए विविध वन्य फल संचित किये हैं । यही वस्तु स्तिथि है । रामयण में इस प्रसंग में लिखा है – हे नर केसरी ! पम्पासर के तट पर पैदा होने वाले ये फल मेने आपके लिए संचित कर रक्खे हैं । अरण्य ७४/१७

पदम् पुराण में “स्वयमासाद्य” का अर्थ सभी ने यह किया है कि वह जिस पेड़ के फल तोड़ती थी उस पर के दो एक को चख कर देखती थीं कि वे ठीक हैं या नहीं । इस प्रकार खट्टे मीठे का परीक्षण करके वह मीठों  को अपनी टोकरी में डालती जाती थी और खट्टो को छोड़ती जाती थी । हमें बचपन में अनेक बार आम के बागों में जाकर इसी प्रकार परीक्षण कर करके आम खाने का अवसर मिला है । इस और ऐसे ही किसी अन्य अवतरण का यह अर्थ करना कि शबरी प्रत्येक फल को चख चख कर राम को खिलाती थी सर्वथा असंगत है ।

मनुस्मृति में स्पष्ट  लिखा है ” नोच्छिष्टंकस्यचिददद्यात” २/५६ ।  मनुस्मृति के टीकाकारो में सर्वाधिक प्रमाणिक कुल्लूक भट्ट ने इस पर अपनी टिप्प्णी में लिखा है – अनैन सामान्य निषेधेन ——————-. जब शास्त्र शुद्र को भी जूठा देने का निषेध करता है तो राम और लक्ष्मण जैसे प्रतिष्ठित अतिथियों को झूठाः खिलाने की कल्पना कैसे की जा सकती है ? जैसे किसी को अपना झूठा खिलाने का निषेध है वैसे  ही किसी का झूठाः खाना भी निषिद्ध है ।

विधि निषेध या धर्माधर्म के विषय में राम मनु स्मृति को ही प्रमाण मानते थे । बालि वध के प्रसंग में जब बाली की आपत्तियों का राम से अन्यथा उत्तर न बन पड़ा तो मनु की शरण ली और  कहा -सदाचार के प्रसंग में मनु ने दो श्लोक लिखे हैं ।  धर्मात्मा लोग उनके अनुसार आचरण करते हैं | मैंने  वही किया है | १८/३०-३१

इसलिए यदि शबरी ऐसी भूल कर बैठती तो निश्चय ही राम खाने से इंकार कर देते । अतः शबरी से सम्बंधित यह किवदंती प्रमाण एवं तर्क विरूध्द होने से मिथ्या है ।

अहल्योद्धार

ahilya

अहल्योद्धार

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

 

धुरिधरत निज सीस पैकहु रहीम केहि काज |

जेहिरज  मुनि पत्नी तरी तेहिढूँढत गजराज ||

कहते हें कि हाथी चलते चलते अपनी सूंड से मिट्टी उठाकर अपने शरीर पर डालता रहता है ।  वह ऐसा क्यों करता है ? रहीम के विचार में वह उस मिट्टी को खोज रहा है जिसका स्पर्श पाकर मुनि पत्नी का उद्धार हो गया था ।  इस दोहे में जिस घटना का संकेत है उसके अनुसार गौतम मुनि की पत्नी अहल्या अपने पति के शाप से पत्थर हो गयी थी और रामचंद्र जी के चरणों की घुलि का स्पर्श पाकर पुनः मानवी रूप में आ गयी थी ।

पौराणिक कथा के अनुसार – एक समय ब्रह्मा जी ने अपनी इच्छा से एक अत्यंत रूपवती  कन्या की सृष्टी की और उसका विवाह गौतम ऋषी से कर दिया ।  एक बार इंद्र गौतम मुनि का रूप धारण करके उनकी स्त्री अहल्या के पास गया और उससे सम्भोग करने लगा ।  उसी समय गौतम वहाँ आ गए इस पर अहल्या ने उस छदमवेषधारी इंद्रा को कुटिया में छिपा दिया ।  तब वह द्वार खोलने गई ।  मुनि ने द्वार खोलने में देरी का कारन पूछा तो अहल्या ने वास्तविकता को छिपा कर बात बना दी ।  परन्तु ऋषी ने अपने तपोबल से सब कुछ जानकर अहल्या को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया और यह भी कह दिया कि त्रेता में जब भगवान् राम अवतार लेंगे तो उनके चरणों की धूलि से तेरा उद्धार होगा ।

मनुष्य से पत्थर और लाखों वर्ष बाद पत्थर से मनुष्य बन जाने की गोस्वामी तुलसीदास द्वारा प्रचारित इस कथा का आदि कवी की रचना में कोई उल्लेख नहीं है ।  वाल्मीकि रचित रामायण में अहल्या के प्रसंग में बालकाण्डसर्ग ४८ में इस प्रकार लिखा है ।

इंद्र ने गौतम का वेश  धारण कर और वैसा ही स्वर बनाकर  अहल्या से कहा – अर्थी ” रति की कामना करने वाले ” ऋतू काल की प्रतीक्षा नहीं करते।  इसलिए में तुम्हारा समागम चाहता हूँ ।  दुष्ट बुद्धी अहल्या ने मुनि वेशधारी इंद्र को पहचान कर भी कुतूहलवश उससे समागम किया ।  तत्पश्चात अहल्या ने संतुष्ट मन से इंद्र से कहा – हे इंद्र में संतुष्ट हूँ अब तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ ।  इस पर इंद्र हंसते हुए बोला – में भी संतुष्ट हूँ ।  यह कह कर कुटिया से बहार निकल गया ।  गौतम मुनि ने इंद्र को कुटिया से निकलते हुए देख लिया और अहल्या को श्राप देते हुए कहा ‘ तू यहाँ सहस्त्रों वर्ष तक निवास करेगी आहार रहित केवल वायु का भक्षण करने वाली भस्म में सोने वाली संतप्त और सबसे अदृश्य रहकर इस आश्रम में वास करेगी ।  इससे यह प्रतीत होता है यद्यपि इंद्र ने गौतम का रूप धारण करके छल किया अहल्या के साथ समागम उसने उसके (अहल्या के ) स्वेच्छापूर्वक समर्पण के बाद ही किया ।  अर्थात अहल्या ने यह कुकृत्य जानबूझकर किया ।  हो सकता है कि बाद में अहल्या को अपने इस कुकृत्य पर पश्चाताप हुआ हो और लज्जा के कारन समाज से दूर रह कर अपना जीवन व्यतीत करने लगी हो – न किसी से बोल चाल न ढंग से खाना पीना इत्यादि ।  यही उसका पत्थर हो जाना कहा गया हो ।

उधर इंद्र ने अपने कुकृत्य को “सुरकर्म” बताया है (४९/२)  | परन्तु वहीं श्लोक ६ से स्पष्ट होता है कि इंद्र ने यह कृत्य बिना सोचे समझे काम के वशीभूत होकर किया  था ।  जहाँ इन श्लोकों में इंद्र के अहल्या की इच्छा से समागम करने की बात कही गई है । वहाँ निम्न श्लोक में उसे बलात्कारी बताया गया है ।-

पहले विचार न करके मोह से मुनि पत्नी से बलात्कार करके  मुनि के शाप से उसी स्थान पर वृषण हीन  किया गया ।  इंद्र अब देवों पर क्रोध कर रहा है ।  ४९/६-७

पुनः सर्ग ५१ में गौतम के पुत्र शानंद का वक्तव्य भी दृष्टव्य है ।  उसने अपनी माता को ‘यशस्विनी  (श्लोक ५-६ ) बताया है ।  स्पष्ट है कि अहल्या ने इंद्र के साथ समागम अपनी इच्छा से नहीं किया था ।  इंद्र के छल से ही वह चाल चली  थी ।  आगे कहा है राम और लक्ष्मण ने उसके पैर छुए (४९/१९) यही नहीं अहल्या ने भी दोनों को अतिथि रूप में स्वीकार  किया और उनका स्वागत किया यदि अहल्या का चरित्र संदिग्ध होता तो क्या यह सब कुछ होता ?

इस समस्त वर्णन में अहल्या के शीला रूप होने और राम की चरण रज के स्पर्श से पुनः मानवी रूप में आने का कहीं संकेत तक नहीं है।  रामायण का प्रसिद्ध  टीकाकार गोविंदराज भी इस बात को नहीं मनाता ।  उन्होंने स्पष्ट लिखा है  वाल्मीकि को अहल्या का पाषाण रूप होना अभिमत नहीं है ।

अहल्या सम्बन्धी उस कथा को विश्वामित्र से सुनकर जब राम लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने अहल्या को जिस रूप में देखा उसका वर्णन वाल्मीकि ने इस प्रकार किया है – तप से दीप्तमान रूप वाली बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्निशिखा और सूर्य के तेज के समान – क्या यह शिला  रूप अहल्या का वर्णन हो सकता है ? इतना ही नहीं शाप का अंत हुआ जानकर वह राम के दर्शनाथ आई।  शिलाभूत अहल्या के गमनार्थक “आई ” क्रिया पद का प्रयोग कैसे हो सकता था ? वस्तुतस्तु अहल्या अपने पति गौतम मुनि की भांति तपोनिष्ठ देवी थी |

ब्राह्मण ग्रंथों में इंद्र को ‘अहल्यायैजार’ कहा है ।  इसके रहस्य को न समझने के कारण लोगों ने मनमाने ढंग से कथा गढ़कर  अहल्या पर चरित्र दोष लगाया है ।  इस रहस्य को तंत्र वार्तिक के शिष्टाचार प्रकरण में शंका को पूर्ववर्ती भट्टाचार्य ने इस प्रकार स्पष्ट किया है – इंद्र का अर्थ है परम ऐश्वर्यवान वह कौन अहि ? सूर्य ।  अहल्या दो शब्दों से मिलकर बना है – अह और ल्या।  अह का अर्थ अहि दिन और ल्या  का अर्थ है छिपने वाली।  इस प्रकार दिन में छिपाने वाली या न रहने वाली को अहल्या कहते हैं ।  वह कौन है ? “रात्रि ” जार का अर्थ है जीर्ण करने वाला ।  रात्रि को जीर्ण  क्षीण करने वाला होने से सूर्य ही रात्रि अर्थात अहल्या का जार कहलाता है ।  इस प्रकार यह परस्त्री से व्यभिचार करने वाले किसी पुरुषविशेष (इंद्र ) का कोई प्रसंग नहीं है ।

लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

luv and kush

लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

 लेखक – स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती

राम द्वारा अयोध्या यज्ञ में महर्षि वाल्मीकि  आये  उन्होंने अपने दो हष्ट पुष्ट शिष्यों से कहा – तुम दोनों भाई सब ओर  घूम फिर कर बड़े आनंदपूर्वक सम्पूर्ण रामायण का गान करो। यदि  श्री रघुनाथ  पूछें – बच्चो ! तुम दोनों किसके पुत्र हो तो महाराज से कह देना कि हम  दोनों भाई महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हैं । ९३ /५

उन दोनों को देख सुन कर  लोग परस्पर कहने लगे – इन दोनों कुमारों की आकृति बिल्कुल रामचंद्र जी से मिलती है ये बिम्ब से प्रगट हुए प्रतिबिम्ब के सामान प्रतीत होते हैं ।  ९४/१४

यदि इनके सर पर जटाएं न होतीं और ये वल्कल वस्त्र न पहने होते तो हमें रामचन्द्र  जी में और गायन करने वाले इन कुमारों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।  ९४/१४

बीस सर्गों तक गायन सुनाने के बाद श्री राम ने अपने छोटे भाई भरत से दोनों भाइयों को १८ -१८ हजार मुद्राएं पुरस्कार रूप में देने को कह दिया। यह भी कह दिया कि और जो कुछ वे चाहें वह भी दे देना ।  पर दिए जाने पर भी दोनों भाइयों ने लेना स्वीकार नहीं किया । वे बोले – इस धन की क्या आवश्यकता है ? हम वनवासी हैं । जंगली फूल से निर्वाह करते हैं सोना चांदी लेकर क्या करेंगे । उनके ऐसा कहने पर श्रोताओं के मन में बड़ा कुतूहल हुआ । रामचंद्र जी सहित सभी श्रोता आश्चर्य चकित रह गए । रचयिता का नाम पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि हमारे गुरु वाल्मीकि जी ने सब रचना की है । उन्होंने आपके चरित्र को महाकाव्य रूप दिया है इसमें आपके जीवन की सब बातें आ गयी हैं ९४/१८ – २८

उस कथा से रामचंद्र जी को मालूम हुआ कि कुश और लव दोनों सीता के पुत्र हैं ।  कालिदास के दुष्यंत के मन में शकुंतला के पुत्र नन्हे भरत को देखते ही जिन भावों का उद्रेक हुआ था , क्या राम के मन में लव और कुश को देख – सुनकर कुछ वैसी ही प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए थी ? आदि कवि ऐसे मार्मिक प्रसंग को अछूता कैसे छोड़ देते । निश्चय ही यह समूचा प्रसंग सर्वथा कल्पित एवं प्रक्षिप्त है । यह जानकारी सभा के बीच बैठे हुए रामचन्द्र जी ने तो शुद्ध आचार विचार वाले दूतों को बुलाकर इतना ही कहा – तुम लोग भगवन वाल्मीकि के पास जाकर कहो कि यदि सीता का चरित्र शुध्द है और उनमें कोई पाप नहीं है तो वह महामुनि से अनुमति ले यहाँ जन समुदाय के सामने अपनी पवित्रता प्रमाणित करें।

इस प्रकरण के अनुसार रामचन्द्र  जी को यज्ञ में आये कुमारों के रामायण पाठ  से ही लव कुश के उनके अपने पुत्र होने का पता चला था । परन्तु इसी उत्तर काण्ड  के सर्ग ६५-६६ के अनुसार शत्रुघ्न को लव कुश के जन्म लेने का बहुत पहले पता था | सीता के प्रसव काल में शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रय में उपस्थित थे । जिस रात को शत्रुघ्न ने महर्षि की पर्णशाला में प्रवेश किया था।  उसी रात सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया था । आधी रात के समय कुछ मुनि कुमारों ने वाल्मीकि जी के पास आकर बताया – “भगवन ! रामचन्द्र जी की पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है । ” उन कुमारों की बात सुनकर महर्षि उस स्थान पर गए।  सीता जी के वे दोनों पुत्र बाल चन्द्रमा के सामान सुन्दर तथा देवकुमारों के सामान तेजस्वी थे।

आधी रात को शत्रुघ्न को सीता के दो पुत्रों के होने का संवाद मिला।  तब वे सीता की पर्णशाला में गए और बोले – माता जी यह बड़े सौभाग्य की बात है ” महात्मा शत्रुघ्न उस समय इतने प्रसन्न थे कि उनकी वह वर्षाकालीन सावन की रात बात की बात में बीत गई । सवेरा होने पर महापराक्रमी शत्रुघ्न हाथ जोड़ मुनि की आज्ञा लेकर पश्चिम दिशा की और चल दिए | 66/12-14

यह कैसे हो सकता है कि शत्रुघ्न ने वर्षों तक रामचंद्र जी को ही नहीं । सारे परिवार को सीता के पुत्रों के होने का शुभ समाचार न दिया हो । महर्षि वाल्मीकि का आश्रय भी अयोद्ध्या से कौन दूर था – उनका अयोध्या में आना जाना भी लगा रहता था । इसलिए यज्ञ के अवसर पर लव कुश के सार्वजानिक रूप से रामायण के गाये जाने के समय तक राम को अपने पुत्रों के पैदा होने का पता न चला हो, यह कैसे हो सकता है ? इससे उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के साथ साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह किसी एक व्यक्ति की रचना भी नहीं है अन्यथा उसमें पूर्वापर विरोध न होता ।

प्रक्षिप्त उत्तरकाण्ड के अंतर्गत होने से लव कुश का राम की संतान होना भी संदिग्ध है । नारद द्वारा प्रस्तुत कथावस्तु के अनुसार ही वाल्मीकि कृत रामायण में उसका कोई उल्लेख नहीं है ।