वह प्रभु महान सुपार तथा यग्यशीलों के मित्र है

वह प्रभु महान सुपार तथा यग्यशीलों के मित्र है
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल ए सूक्त चार के समबन्ध मेम प[रकाश डालते
हुए बताया गया है कि प्रभु सरुपक्रत्नु है । इस प्रभुकी प्रार्थना करते
हुए उपदेश किया गया है कि हम सदा यग्योइं को करने वाले बनें , जीवन भर
सोम की रक्शा करते रहेम , हम दान देने में आनन्द आ अनुभव करेम , सदा
ग्यानियों से ग्यान्प्राप्त करते रहेम , किसी की निन्दा कदापि न करेम ,
व्यर्थ ए कामों में कभी अपना समय नष्ट न करेम , सदा प्रभु की चर्चा में
ही अपना समय लगावें क्योंकि वह प्रभु महान , सुपार तथा यग्य्शीलों के
मित्र होते हैं । इन सब बातों का इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों के
द्वारा चर्चा करते हुए बडे विस्तार से इस प्रकार वर्णन किया गय है । आओ
इस सूक्त के माध्यम से हम यह सब ग्यान प्रप्त अरने का यत्न करें ।

कुरान समीक्षा : खुदा ने हलाल को हराम कर दिया

खुदा ने हलाल को हराम कर दिया
कुरान पारा २६ सूरे काफ रूकू २ आयत २८ मेंख्खुदा ने घोषण की है ‘‘मेरे यहाँ बात नहीं बदली जाती है।’’ और इस स्थल पर खुदा ने अपना हुक्म बदल डाला था इससे खुदा का झूंठा होना साबित नहीं होता है। खुदा जवान का पाबन्द क्यों नहीं था?
देखिये कुरान में कहा गया है कि-
फ बि.. जुल्मिम् मिनल्लजी………।।
(कुरान मजीद पारा ६ सूरा निसा रूकू २२ आयत १६०)
अन्त में यहूदियों की शरारत की वजह से हमने पाक चीजें उनके लिये हलाल थीं उन पर हराम कर दीं और इस वजह से कि वे अक्सर खुदा की राह से लोगों को रोकते थे।
समीक्षा
अरबी खुदा अपनी बात का भी पक्का नहीं था। वह चिड़ कर अपने कानून में जब चाहे तबदीली कर डालता था। दुनियां का कोई भी मजिस्ट्रेट अपने हुक्म को इस तरह नहीं बदलता है, पर अरबी खुदा तो निराला ही मजिस्ट्रेट था।

क्या किसी माता के गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अंग में उत्पन्न दोष जैसे- दिल में छेद हो जाना, अन्धता आदि माता-पिता के शारीरिक दोष का परिणाम है अथवा माता, चिकित्सक आदि किसी की त्रुटि का परिणाम है अथवा दोनों है अथवा शिशु के पूर्व जन्म मे किये गये किसी पाप का फल है?

क्या किसी माता के गर्भस्थ शिशु के  शारीरिक अंग में उत्पन्न दोष जैसे- दिल में छेद हो जाना, अन्धता आदि माता-पिता के शारीरिक दोष का परिणाम है अथवा माता, चिकित्सक आदि किसी की त्रुटि का परिणाम है अथवा दोनों है अथवा शिशु के पूर्व जन्म मे किये गये किसी पाप का फल है?

समाधान-

 इस दूसरे प्रश्न का उत्तर भी उसी प्रकार लिखते हैं, गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अंग उत्पन्न दोष का कारण तीनों हो सकते हैं- माता-पिता, चिकित्सक वा बच्चे का कर्म। इन तीनों में उत्पन्न हुए दोष का मुखय कारण उस बच्चे के कर्म हैं। अपने कर्मों के कारण वह जीवात्मा ऐसे दोषयुक्त शरीर को प्राप्त होता है। जन्मान्धता, जन्म से मूक, किसी अन्य अंग में विकार, ये सब कर्मों का ही फल है। हाँ, विशेष पुरुषार्थ से इनको कुछ ठीक अवश्य किया जा सकता है। कोई है ही नहीं अथवा ठीक होने की सभावना नहीं, उसको छोड़कर।

बच्चे में कुछ विकार माता के कारण भी हो सकते हैं। गर्भ में शिशु होते हुए यदि माता का उठना, बैठना आदि ठीक न हो अथवा खान-पान ठीक न हो, तो बच्चे में विकार आ सकते हैं। इसी प्रकार यदि चिकित्सक औषध विपरीत दे देता है, तो उससे भी विकार की समभावना है, इससे हुई हानि की क्षतिपूर्ति परमात्मा करता है। फिर भी इस प्रकार के दोष होने का मुखय कारण तो उस आत्मा के कर्म ही रहेंगे, उसके कर्मों के कारण इस प्रकार के माता-पिता मिले, जो सावधानी नहीं रख रहे, ऐसा परिवेश मिलना कर्मों पर ही आधारित है।

 

भारतीय वर्णव्यवस्था

भारतीय वर्णव्यवस्था

प्रो. ज्ञानचन्द्र रावल, यज्ञदेव…..

मैकाइबर और कूल आदि समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययन के आधर पर बताया है कि सामाजिक वर्ग विश्व के सभी समाज में किसी न किसी रूप में अवश्य पाये जाते हैं। कहीं पर सामाजिक वर्गों का निर्माण जन्म के आधार पर तो कहीं पर धन के आधर पर। इतना निश्चत है कि सामाजिक वर्ग प्रत्येक समाज में अवश्यमेव पाया जाता है। मनुष्य की प्रवृत्तियों तथा व्यवसायों के आधार पर समाज का विभाजन संसार के सभी देशों

में पाया जाता है। इग्लैण्ड के प्रसिद्ध् विद्वान् एच० जी० वैल्स के अनुसार-‘‘मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों के आधार पर समाज-विभाजन से समाज का श्रेष्ठ विकास होता है तथा उसकी शक्ति बढ़ती है।’’ किग्सले डविस और मूर के अनुसार-‘‘ समाज अपनी स्थिरता एवं उन्नति के लिए अपने व्यक्तित्व को उनकी योग्यता एवं प्रशिक्षण को ध्यान में रखते हुए विभिन्न वर्गों में बॉट देता है।’’

प्राचीन भारतीय सामाजिक विचारकों ने भी मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक स्तरीकरण को एक सुनियोजित नीति को अपनाया तथा कार्यात्मक दृष्टि से समाज को चार वर्गों में विभाजित किया। जिन्हें-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के नाम से जाना जाता है। वर्ण-व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन के मौलिक तत्व के रूप में पायी जाती है। भारतीय संस्कृति में समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान तथा उससे सम्बंधित कार्य उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों यानी गुणों के आधार पर निश्चित होता था।

. वैविध्य के आधार पर वर्ण व्यवस्थाः

सब मनुष्यों में सब बातें एक समान नहीं हैं। फिर भी जो बातें सभी में समान भाव से पाई जाती हैं उनकी मात्रा समान नहीं है।हितोपदेश कार का कथन है- ‘‘आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्’’ अर्थात् भोजन, निद्रा, भय, और नर-मादा का सहवास-ये पशु और मनुष्यों में समान हैं।प्राणी-मात्र में जो सामान्य बातें पाई जाती हैं उनका यह अच्छा परिगणन है। किन्तु आहार तथा निद्रा आदि भी सब समान मात्रा में नहीं पाये

जाते। जहाँ प्रकार भेद नहीं होता वहाँ मात्रा-भेद अवश्य है। इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने मानव समाज के

संगठन के लिए जो संविधान तैयार किया था उसमें इस बात का विशेषध्यान दिया था। गणित शास्त्र में यह बात स्वयंसिद्ध् मानी गई है, कि विषम में सम जोड़ने से विषम उत्पन्न होता है। यथा- ७, ९,११ आदि विषम संख्याएं हैं।इस में २,२ जोड़ने से ७+२:९, ९+२:११, ११+२:१३ होते हैं। इसी तरह यदि विषम को सम बनाना हो तो उसमें विषम अंक तोड़ना पडेगा। जैसे- ७+३: १०, ७+९: १६, ११+५: १६;। आश्चर्य है कि समाजशास्त्रा के आधुनिक पंडित सामाजिक संगठन के समय पर इस स्वयं सिद्ध को भूल जाते हैं।

. पॅूजीवाद, साम्यवाद और वर्णव्यवस्थाः

बस, अब हम पूँजीवाद, साम्यवाद और वर्णव्यवस्था का भेद भली प्रकार समझ सकेंगे। (१) भूखों का हक छीनकर भूखरहितों के पास जमा कर देना पॅूजीवाद कहलाता है।(२) सबको समान भाग देना साम्यवाद कहलाता है। (३)सबको भूख के अनुसार भोजन देना वर्णव्यवस्था है।

साम्यवाद अन्याय का विरोध करते हुए ईर्ष्या को बीच में मिला देता है। और कहता है कि बड़ा-छोटा कोई नहीं। सब समान हैं। वर्ण व्यवस्था इस बात को स्पष्टतया स्वीकार करती है, कि योग्यता और भूख में भेद होने के कारण अधिकारों में भेद का होना आवश्यक है, परन्तु इसका आधार योग्यता ही होना चाहिए, जन्म नहीं।

३. वर्ण का अर्थः वर्ण शब्द ‘वृज’ वरणे से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है वरण अथवा चुनाव करना। आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश के अनुसार-‘‘-रंग, रोगन, -रंग,रूप, सौन्दर्य, -मनुष्यश्रेणी, जनजातिया कबीला, जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र वर्ण के लोग )’’ इस प्रकार, व्यक्ति अपने कर्म तथा स्वभाव के आधार पर जिस व्यवस्था का चुनाव करता है, वही वर्ण कहलाता है।कुछ लोगों की मान्यता है कि वर्ण शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋगवेद में रंग अर्थात् काले और गौरे रंग की जनता के लिए किया गया है और प्रारम्भ में आर्य तथा दास इन वर्णों का ही उल्लेख है। डॉ० घुरिये ने ऐसा ही लिखा है कि-‘‘ आर्य लोगों ने यहाँ के आदिवासियों को

पराजित करके उन्हें दास या दस्यु नाम दिया और अपने तथा उनके बीच अन्तर प्रकट करने के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ रंग-भेद से है।’’ वर्ण के इससे ऐसा आभास होता है कि इस शब्द का प्रयोग आर्यो तथा दस्युओं के बीच पाये जाने वाले प्रजातीय अन्तर को स्पष्ट करने के लिए ही किया गया है। लेकिन यथार्थ में डॉ० घुरिये आदि की यह मान्यता अमान्य एवं दोषपूर्ण है।

इसी तरह पाण्डुरंग वामन काणे की मान्यता है कि-‘‘प्रारम्भ में गौर वर्ण का प्रयोग आर्यों के लिए तथा कृष्ण वर्ण का दासों या दस्युओं के लिए किया गया जाता था। धीरे धीरे वर्ण शब्द का प्रयोग गुण तथा कर्मों के आधार पर बने हुए चार बड़े वर्गों के लिए किया जाने लगा। वास्तव में वर्ण शब्द का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से नहीं समझा जा सकता। वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के गुण तथा कर्म से पाया जाता है। जिन व्यक्तियों के गुण तथा कर्म एक से थे यानी जिनमें स्वभाव की दृष्टि से समानता थी, वे एक वर्ण के माने जाते थे। इस बात का पुष्ट प्रमाण श्रीमद्गीता में समुपलब्ध् होता है- ‘‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’’ अर्थात् मैने ही गुण और कर्म के आधर पर चारों वर्णों की रचना की है। इससे स्पष्ट होता है कि वर्ण-व्यवस्था सामाजिक

स्तरीकरण की एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्ति के गुण तथा कर्म पर आधरित है, जिसके अन्तर्गत समाज का चार वर्णों के रूप में कार्यात्मक विभाजन हुआ है।

४-वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्तिः वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध् में भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये गये

हैं। वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, मनुस्मृति तथा अन्य धर्म-ग्रन्थों में इस व्यवस्था पर विस्तृत चर्चा की

गई है। यहां इन्हीं ग्रन्थों में विद्वानों द्वारा प्रकट किए गए विचारों के आधर पर हम वर्णों की उत्पत्ति को

प्रस्तुत कर रहे हैं।

यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में वर्णों की उत्पत्ति के संबन्ध् में कहा गया है कि-‘‘ब्राह्मण वर्ण विराट पुरुष अर्थात् परमात्मा के मुख के समान हैं, क्षत्रिय उसकी भुजाये हैं, वैश्य उसकी जंघाएं अथवा उदर हैं और शूद्र उसके पांव हैं।’’ इसी तरह ऋगवेद मंडल-१०, सूक्त-९०, मंत्र-१२ लिखा है कि-‘‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः। ‘‘ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।’’ यहाँ ब्राह्मण की उत्पत्ति विराट् पुरुष के मुख से हुई

है ऐसा कहने का अभिप्राय ब्राह्मण शरीर में मुखवत् सर्वश्रेष्ठ है। अतएव ब्राह्मणों का कार्य समाज में बोलना तथा अध्यापकों और गुरुओं की तरह अन्य वर्णस्थ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित करना है। इसी प्रकार भुजाएं शक्ति की प्रतीक हैं, इसलिए क्षत्रियों का कार्य शासन-संचालन एवं शस्त्र धारण करके समाज से अन्याय को मिटाकर लोगों की रक्षा करना है। इसीलिए श्रीराम ने वनवासी तपस्वियों के सम्मुख प्रतिज्ञा की थी कि-‘‘निशिरहीन करूं मही भुज उठाय प्रण कीन्ह’ ’वाल्मीकि ने लिखा है-‘‘क्षत्रियाः धनुर्संध् त्ते क्वचित् आर्त्तनादो न भवेदिति’’ अर्थात् क्षत्रिय लोग अपने हाथ में इसीलिए धनुष धारण करते हैं कि कहीं पर किसी का भी दुःखी स्वर न सुनाई दे।जघांएं बलिष्ठता एवं पुष्टता की प्रतीक मानी जाती हैं, अतएव समाज में वैश्यों का कार्य कृषि तथा

व्यापार आदि के द्वारा धन संग्रह करके लोगों की उदर पूर्ति करना और समाज से पूरी तरह अभाव को मिटा

देना है। शूद्र की उत्पत्ति उस विराट् पुरुष के पैरों से मानी गयी है अर्थात् पैरों की तरह तीनों वर्णों के सेवा का भार अपने कंधे पर वहन करना है। विराट् पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति का भाव यह है कि चारों वर्णों में यद्यपि स्वभावगत भिन्न-भिन्न विशेषताएं पायी जाती हैं, तथापि एक ही शरीर के

अलग-अलग भाग होने के कारण उनमें पारस्परिक अन्तर्निर्भरता पायी जाती है। स्पष्ट है कि पुरुष सूक्त के इन मंत्रों के आधार पर विभिन्न वर्गों के गुण, कर्म एवं स्वभाव कितनी सहजता तथा उत्तमता से समझाये गये हैं।

उत्तर वैदिक काल में रचित उपनिषदों में विशेषकर बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषद् में चारों वर्णों की उत्पत्ति पर विशेष प्रकाश डाला गया है। वहां ब्रह्मा के द्वारा सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण पुनः क्षत्रिय, वैश्य तथा सबसे अन्त में शूद्र वर्ण की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।

इसी तरह महाभारत के शान्ति-पर्व में चारों वर्णों की उत्पत्ति के विषय में अपने शिष्य भारद्वाज को सम्बोधित करते हुए महर्षि भृगु कहते हैं कि-‘‘प्रारम्भ में केवल एक ही वर्ण ब्राह्मण था।यही वर्णवाद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के रूप में विभक्त हो गया। ब्राह्मणों का वर्ण श्वेत था जो पवित्रता-सतोगुण

का परिचायक था। क्षत्रियों का रंग लाल जो क्रोध् तथा राजस गुण का सूचक था, वैश्यों का पीला रंग था जो रजो गुण एवं तमो गुण के मिश्रण का सूचक था और शूद्रों का रंग काला था जो अपवित्रता एवं तमो गुण की प्रधानता का प्रतीक था। ’’इससे सुविदित होता है कि महाभारत काल तक वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म एवं स्वभाव के ही आधार पर थी। अन्यथा ब्राह्मण कुलोत्पन्न परशुराम क्षत्रिय,क्षत्रिय कुलोत्पन्न विश्वामित्र ब्रह्मर्षि, शूद्र कुलोत्पन्न पराशर एवं व्यास आदि को आज संसार ब्राह्मण न मानता।

. वर्ण-व्यवस्था का आधार जन्म या कर्मः वर्तमान समय में वर्ण-व्यवस्था के विषय में मूलभूत प्रश्न यह हे कि यह जन्म पर आधरित हो या गुण, कर्म एवं स्वभाव के आधर पर? साधरणत वर्ण सदस्यता का आधार

जन्म के न मानकर गुण एवं कर्म का माना जाने लगा है, लेकिन इस विषय में विद्वानों में भी एकरूपता नहीं है। आधुनिक युग में वोटों की राजनीति ने इसे और अधिक बढावा दिया है। इस विषय में डॉ० राधकृष्णन् शब्द के हैं-‘‘ इस व्यवस्था में वंशानुक्रमणीय क्षमताओं का महत्व अवश्य था, परन्तु मुख्यतया यह व्यवस्था गुण तथा कर्म पर आधारित थी।’’

इन्होंने महाभारत कालीन एवं उससे प्राचीन के विश्वामित्र, राजा जनक, महामुनि व्यास, वाल्मीकि, अजमीड और पुरामीड आदि के अनेकों उदाहरणों से अपनी बात को प्रामाणित किया है।

डॉ० जी एस घुरिय ने भी वर्ण-व्यवस्था को गुण एवं कर्म के आधार को स्वीकार करते हुए लिखा है कि-‘‘प्रारम्भ में भारत में दो ही वर्ण थे-आर्य और दास अथवा दस्यु। आर्य भारत में विजेता के रूप में आया था उन्होंने अपने को श्रेष्ठ और यहां के मूल निवासियों द्रविडों को निम्न समझा, स्वयं को द्विज और द्रविडों को दास या दस्यु कहा। समय के साथ-साथ जैसे-आर्यों की संख्या में वृदि्ध् हुई- उनके कर्मों में विभिन्नता आती गई और द्विज वर्णों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों में विभक्त हो गया।’’

के.एम. पणिक्कर की मान्यतानुसार- ‘‘यदि जन्म ही वर्ण सदस्यता का आधार होता तो विभिन्न वर्णो के पेशों में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन सम्भव नहीं था। परन्तु प्राचीन साहित्य से उपलब्ध् प्रमाण यह प्रकट करते हें कि ब्राह्मण न केवल धर्म कार्य का सम्पादन एवं अघ्ययन ही करते थे बल्कि वे साथ ही औषध्,शस्त्र

निर्माण एवं प्रशासन सम्बन्धी कार्य में भी लगे हुए थे।……….वैदिक साहित्य में कहीं ऐसा वर्णन नहीं मिलता जिससे प्रकट हो कि लोगों के लिए जन्म के आधार पर व्यवसाय का चुनना अनिवार्य था। पवित्र ग्रन्थ‘ऐतरय ब्राह्मण’ की रचना एक ब्राह्मण ऋषि एवं उसकी दस्यु पत्नी से उत्पन्न और सपुत्र ने की थी। इस कथन से स्पष्ट है कि वर्ण की सदस्यता कर्म के आधर पर प्राप्त होती थी न कि जन्म के आधर पर’’

इस उपर्युक्त विवेचना से सुस्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकालीन वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म एवं स्वभाव के ही अनुसार थी। परन्तु महाभारत युद्ध के बाद योग्य राजा एवं योग्य विद्वानों के अभाव में सारी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। यदि भारत को वह पुराना विश्वगुरु वाला गौरव पुनः प्राप्त करना है तो वही प्राचीन वर्ण-व्यवस्था दुबारा से लागू करनी होगी।

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कुरान समीक्षा : ईसा को सूली नहीं लगी थी

ईसा को सूली नहीं लगी थी
(इन्जील का खण्डन)
खुदा ने अपनी किताब ‘‘इन्जील’’ का खण्डन करके गुनाह किया है या अपनी शान बढ़ाई है? यह परस्पर विरोध दोनों किताबों में क्यों है?
देखिये कुरान में कहा गया है कि-
व कौलिहिम् इन्ना क- तल्नल्-………….।।
(कुरान मजीद पारा ६ सूरा निसा रूकू २२ आयत १५७)
…..और उनके इस कहने की वजह से कि हमने मरियम के बेटे ईसा-मसीह को जो रसूल थे कत्ल कर डाला, और न तो उन्होंने उनको कत्ल किया और न उनको सूली पर ही चढ़ाया, मगर उनको ऐसा ही मालूम हुआ और वे लोग इस बारे में मतभेद डालते हैं, तो इस मामले में शक में पड़े हैं। उनको इस बात की खबर तो है नहीं सिर्फ अटकल के पीछे दौड़े चले जा रहे है। यकीनन् ईसा को लोगों ने कत्ल नहीं किया।
समीक्षा
इंजील को कुरान ने खुदाई किताब माना है और उसकी तस्दीक अनेकों स्थानों पर की है। उनमें मरकुस- युहन्ना आदि कई अध्यायों में ईसा को सूली देने का उल्लेख है। इन्जील की रचना ईसा के ही शिष्यों द्वारा मुहम्मद से लगभग कई सौ वर्ष पूर्व की गई थी। उसकी बात ईसा के मामले में कुरान की अपेक्षा अधिक माननीय है कुरान की कल्पना गलत है।

किसी व्यक्ति का दुर्घटना में अपंग हो जाना मात्र संयोग है अथवा किसी की गलती का परिणाम है अथवा व्यक्ति के पूर्व जन्म के किसी पाप का फल है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा – आचार्य जी सादर नमस्ते।

विनम्र निवेदन यह है कि जिज्ञासा स्वरूप निम्न सैद्धान्तिक प्रश्न हैं। कृपया लेख पर दृष्टिपात करके निम्न प्रश्नों का समाधान दें। मैं आपका आभारी हूँगा।

किसी व्यक्ति का दुर्घटना में अपंग हो जाना मात्र संयोग है अथवा किसी की गलती का परिणाम है अथवा व्यक्ति के पूर्व जन्म के किसी पाप का फल है?

समाधान-(क)वैदिक सिद्धान्त के स्पष्ट समझने से ही मनुष्य के ज्ञान की वृद्धि हो सकती है, इससे भिन्न से नहीं। ठीक-ठीक वैदिक सिद्धान्त समझ लेने पर व्यक्ति का जीवन व्यवहार उत्तम होता चला जाता है, जिससे व्यक्ति सन्तोष व शान्ति की अनुभूति करता है। विशुद्ध वैदिक सिद्धान्त हमारे सामने महर्षि दयानन्द ने रखे हैं, जिनका निर्वहन आर्य समाज करता आया है। उन कठिनता वाले सिद्धान्तों में कर्मफल सिद्धान्त हैं। कर्मफल के विषय में महर्षि मनु ने अपनी मनुस्मृति में, महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन में, महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में व अन्य ऋषियों ने अपने शास्त्रों में वर्णन किया है। यह सब वर्णन मिलते हुए भी हम मनुष्य कर्म की गति को सपूर्ण रूप से नहीं जान सकते, इसको तो परमेश्वर ही पूर्णरूप से जानने वाला है।

किसी दुर्घटना आदि से व्यक्ति अपंग हो जाता है, उसमें तीनों ही बातें हैं- संयोग, गलती वा कर्म का फल। इन तीनों में से मुखय कारण अपनी वा अन्य की गलती ही है। जितनी दुर्घटनाएँ होती हैं, उनमें प्रायः किसी-न-किसी की गलती अवश्य होती है। जो वाहन स्वयं चला रहा है, उसकी अथवा सामने वाले की। इनकी गलती के कारण जिस किसी का अंग भंग हो जाता है, उनमें से कुछ स्वस्थ हो जाते हैं, कुछ जीवन पर्यन्त उस अंग के अभाव में जीवन यापन करते हैं। इस गलती के परिणामस्वरूप जो अंग भंग होने से दुःख मिला, वह उसके कर्मों का फल नहीं है। यहाँ विचारणीय यह है कि कर्म न होते हुए भी दुःख रूप फल भोग रहा है क्यों? तो इसका उत्तर है- कर्म फल तो कर्म के करने वाले को ही मिलता है और जो दूसरे के अन्याय वा गलती से दुःख मिलता है, वह कर्म का परिणाम है, कर्म न होते हुए भी इस परिणाम रूप दुःख मिले हुए की क्षतिपूर्ति न्यायकारी परमेश्वर करता है,              अर्थात् जिसको दुःख मिला है, परमेश्वर उसको आगे मिलने वाले दुःख के कटौती कर देगा वा उसको उसके बदले सुख विशेष दे देगा।

हाँ, कई बार किसी की गलती न होते हुए भी संयोग से दुर्घटना हो जाती है, परिस्थिति ऐसी बन जाती है कि हम बच नहीं पाते, ऐसे में जो अपंगता का दुःख मिला, उसकी भी क्षतिपूर्ति परमेश्वर करेगा। दुर्घटना आदि में जो अपंगता आती है, वह कर्मों का फल हो, इसकी बहुत कम समभावना है और यदि हैाी तो इसको परमेश्वर ही जानता है, हम जैसों की अल्प बुद्धि यहाँ काम नहीं कर रही।

वर्णमीमांसा

वर्णमीमांसा

ब्र. यशदेव आर्य…..

इस आर्यावर्त्त देवभूमि में रहने वाले सहृदय- नागरिकों एवं विभिन्न धर्मावलम्बियों को यहाँ की प्राचीनतम संस्कृति धार्मिक भावना एवं कर्तव्यों को जान लेना अत्यन्तावश्यक है। क्योंकि प्राचीन समय में वर्णों एवं आश्रमों का वर्गीकरण जिस प्रकार से यथास्थिति को जानकर किया जाता था वैसा आज देखने को नहीं

मिलता। अब तो केवल जन्मना वर्णवाद एवं धर्मान्धता का कुप्रचार अधिक दिखाई व सुनाई देता है। वर्तमान

काल में आश्रमी जीवन की दुर्गति वर्णव्यवस्था के नाम पर पापाचार सर्वत्र विस्तृत हुआ है, क्योंकि अब की वर्ण व्यवस्था प्राचीन वर्णव्यवस्था से एकदम भिन्न है। इसके सुस्पष्ट प्रमाण धर्मशास्त्रों एवं विभिन्न स्मृतियों में प्रत्यक्ष देखने को मिलते हैं यथा आपस्तम्ब धर्मसूत्र में

धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ ।१.५.१०

धर्म के सदाचारण से निम्न से निम्न वर्ण भी उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है उसे उसी वर्ण में गिनना चाहिए।

क्योंकि सदाचार शून्य उच्च वर्गस्थ भी शूद्र के समान है एवं सदाचारी निम्न जातीय भी ब्राहमणत्व को प्राप्त करता है।

अधर्मचर्य्यापूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ। आपस्तम्ब-१.५.११

अर्थात् अधर्माचरण से युक्त उच्च वर्णस्थ शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। वर्ण शब्द से ही यह सिद्ध हो जाता है कि धर्मानुसार वर्ण कहते किसे है यह जन्मना हो अथवा कर्मणा तब निघण्टु भाष्य निरुक्त में निरुक्तकार वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति ‘वर्णो वृणोतेः’ इस वचन से करते हैं अर्थात् कर्मों के आधार पर जिसका वरण किया जाए वही वर्ण है। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के वर्णाश्रम धर्म विषय में स्पष्ट किया है कि-

वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रामाण्यादपरणीया वरीतुमर्हाः। गुणकर्माणिच दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।।

वर्ण कर्मानुसार ही हो जन्मना नहीं इसकी पुष्टि ब्राहमण क्षत्रादि शब्दों की रचना व्युत्पत्ति एवं व्याकरणानुसार

हो जाती है। यथा-ब्रहमणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तम गुणयुक्तः पुरुषः।

विद्यादि आदि श्रेष्ठ गुणों का धारण करने वाला एवं परमात्मा एवं वेदोपासना में चित्त को रमा लेने वाला

ही ब्राहमण होता है। महर्षि मनु ने भी ब्राहमण के इन्हीं प्रमुख कर्तव्यों का उल्लेख मनुस्मृति में किया है। ‘आग्नेयो हि ब्रा२णः(काठ.२९.९०) यज्ञादि कर्मों से सम्बन्ध रखने वाला ही ब्राहमण होता है। यदि जन्मना वर्ण व्यवस्था को सत्य माना जाए तो समाज कुंठाग्रस्त होकर ही मर जाएगा। वृद्धि का कहीं भी कोई भी चिहन

अथवा संकेत प्रकट नहीं होगा। वृद्धि होगी भी तो उच्च वर्णस्थ लोगों की होगी अथवा यूँ कहें कि वृद्धि होगी ही नहीं क्योंकि जन्मना वर्ण व्यवस्था के आधार पर ब्राहमण ही रहेगा और शूद्र भी शूद्र। किसी को अपनी प्रोन्नति करने का कोई अवसर ही प्राप्त न होगा। ब्राहमण नीच कर्मों में प्रवृत्त भी ब्राहमण ही होकर रहेगा और शूद्र धर्माचरण करता हुआ भी शूद्र। अतः मनुस्मृति में –

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शुद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यास्तथैव च।।(१०/६५)

गुण कर्मों के आधार पर शूद्र भी ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य हो सकता है। इसी प्रकार अन्य वर्णों को भी समझना चाहिये।

लोकानां तु वृह्यर्थं मुखबाहूरुपादतः।

ब्राहमणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्।।(१/३१)

लोक की वृद्धि के लिए मुख, भुजा, जंघा और पाद रूप इन चतुवर्ण-व्यवस्था का आरम्भ हुआ। इसी प्रकार कर्मणा वर्णव्यवस्था के आधारभूत अन्य शास्त्रों, ग्रन्थों एवं वेदों मे भी चतुर्वर्ण का उल्लेख मिलता है।

ऊर्जादः उत यज्ञियासः पञचजनाः मम होत्रं जुषध्वम्। ऋग. (१० .५३.४)

पाँचवे वर्ण का विधान निरुक्त में किया है चत्वारो वर्णा निषादः पंचम इति औपमन्यवः।(निरुक्त.-३.८) अर्थात् चार वर्णों के पश्चात् निषाद को पाँचवा पुरुष मानना चाहिए, यह वेद सम्मत है।

इन चारों वर्णों का अपना-अपना महत्व है और वेद में इसकी तुलना मनुष्य शरीर से उनके कार्यानुरूप की गई है यथा शरीर में मुख प्रधान है उसी प्रकार समाज में ब्राहमण। भुजाओं का कार्य शरीर रक्षा व अन्य, इसलिए

क्षत्रिय भुजा रूप है। जंघा शरीर का भार सम्भालने वाली होती हैं, इसलिए वैश्य व्यापारादि कार्य से समाज आदि का भार सम्भालने वाला होता है। पैरों से संज्ञा शूद्र की की गई है। अर्थात् जो इन तीनों के कर्मों को करने में असमर्थ हो वह शूद्र।

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।(यजु.-.३१/११)

इसी प्रकार

अस्य सर्वस्य ब्राहमणो मुखम्; शतपथ-(३.९.१.४ )

क्षत्रिय– क्षत्रं राजन्यः (एत.८.२, ३.४)

एवं क्षत्रस्य वा एतद रुपं यद् राजन्यः

(शतपथ.१३.१.५.३) अर्थात् क्षत्रिय क्षत्र का ही एक रूप है, जो दुष्ट शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है, इसी प्रकार

वैश्य के संदर्भ में ग्रन्थों में अनेकशः प्रमाण मिलते हैं। यथा एतद्वै वैश्यस्य समृह्येत् पशवः (तां.-१८.४.६)

पशुपालन से वैश्य की समृद्धि होती है। इसका सीधा एवं स्पष्ट तात्पर्य वैश्य के कर्म से है अर्थात् जो

व्यक्ति पशुपालन, व्यापार आदि कार्यों में संलग्न है, वही वैश्य है।

महर्षि मनु ने शूद्र को कहीं पर भी अपवित्र, अछुत एवं हीन की संज्ञा नहीं दी है। उनके मतानुसार जो व्यक्ति सबकी सेवा करने वाला हो, वह अपवित्र कैसे हो सकता है। उत्कृष्टः शुश्रूषुः (मनु.९/३३५) शूद्र को शूद्र की संज्ञा केवल मात्र इसलिए दी गई क्योंकि अन्य वर्णों की तुलना में वह अल्पज्ञानी होता है और इस अज्ञानता

के कारण उसका दूसरा जन्म गुरु के कुल में न होने से वह शूद्र संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है। द्विर्जायते इति द्विजः।

ब्राहमण, क्षत्रिय एवं वैश्य को द्विज इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इनका दूसरा जन्म गुरु के गर्भ से वेदारम्भ

के काल में होता है। महर्षि मनु ने इस विषय में स्पष्ट किया है –

ब्राहमणक्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णाः द्विजातयः।

चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः।।

गुणकर्मानुसार वर्णव्यवस्था के स्पष्ट संकेत ब्राहमणग्रन्थों में मिलते हैं। ब्राहमण व्यक्ति भी कर्मों के आधार पर क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र बन सकता है। यथा- ऐतरेय में उदाहरण आता है स ह दीक्षमाणः एव

ब्राहमणतामभ्युपैति (ऐत. ७.२३) अर्थात् क्षत्रिय दीक्षित होकर ब्राहमणतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। तस्मात् अपि

(दीक्षितम्) राज्यन्यं वा वैश्यं वा ब्राहमण इत्येव ब्रूयात्। ब्राहमणो हि जायते यो यज्ञात् जायते।(शत. ३.२.१.४०)

अर्थात् क्षत्रिय वैश्य भी यज्ञ दीक्षा ग्रहण करके ब्राहमण वर्ग में दीक्षित हो सकता है। यहाँ पर यज्ञ में दीक्षित होने से तात्पर्य ब्रहमचर्याश्रम में वेदाध्ययन के समय से है। उसके बाद वह ब्राहमण भी कर्मानुसार क्षत्रियत्व,

वैश्यत्व अथवा शूद्रत्व को प्राप्त होते हैं। उपरोक्त विवेचना एवं विभिन्न प्रामाणिक ग्रन्थों के स्पष्ट एवं मजबूत प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्णव्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा ही श्रेयस्कर एवं न्यायपूर्ण है। इसी के आधार पर हमें अपने वर्ण का चयन करना चाहिए, तभी एक सुव्यवस्थित समाज एवं राष्ट का विकासपूर्ण ढाँचा तैयार होगा।

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

कुरान समीक्षा : काफिरों को दोस्त मत बनाओ

काफिरों को दोस्त मत बनाओ
क्या संसार में अशान्ति कुरान की इसी शिक्षा का परिणाम नहीं है? क्या प्रजा में घृणा फैलाने वाली किताब भी खुदाई हो सकती है?
देखिये कुरान में कहा गया है कि-
या अय्युहल्लजी-न आमून ला………..।।
(कुरान मजीद पारा ५ सूरा निसा रूकू १८ आयत १४४)
अय ईमान वालो! तुम ईमान वालों को छोड़कर काफिरों का दोस्त मत बनाओ। क्या तुम जाहिर खुदा का अपराध अपने ऊपर लेना चाहते हो।
समीक्षा
मुसलमान यदि काफिरों अर्थात् गैर मुस्लिमों से इतनी घृणा करने लगेंगे और वे उनका विश्वास नहीं करेंगे, तो इसका परिणाम यह होगा कि उसकी प्रतिक्रिया वश दूसरे लोग भी मुसलमानों से घृणा करने लगेंगे और वे उनका विश्वास नहीं करेंगे।
कुरान हिन्दू मुसलमानों में हमेशा घृणा व दोष के बीज बोता रहा है। सावधान! मुसलमानों और हिन्दुओं ! कुरान की इस जहरीली आयज से होशियार रहो, कुरान की शिक्षा मुल्क के अनम ओ-चैन में जबर्दस्त बाधक है।

वेदप्रचार करो निष्ठा से

वेदप्रचार  करो निष्ठा से

-पं. नन्दलाल निर्भय सिद्धान्ताचार्य

आर्य कुमारो! मिलजुल करके, आगे कदम बढ़ाओ।

वेदप्रचार करो निष्ठा से, सोया जगत् जगाओ।।

जगत के गुरु ऋषि दयानन्द थे, ईश्वर भक्त निराले।

वेदों के विद्वान् धुरन्धर, देश भक्त मतवाले।।

वीर स्पष्टवादी, बलशाली, बड़े तपस्वी त्यागी।

निर्बल, निर्धन के रक्षक, मानवता के अनुरागी।।

स्वामी जी-से धीर वीर बन, जग को स्वर्ग बनाओ।

वेदप्रचार करो निष्ठा से, सोया जगत् जगाओ।।

सकल जगत् में पाखण्डी, फिरते हैं शोर मचाते।

वेद विरोधी पोंगा पंथी, दुनियाँ को बहकाते।।

दुष्चरित्र बदमाश लफंगे, धर्मिक गुरु कहलाते।

ईश्वर पूजा छुड़वा दी, खुद को भगवान बताते।।

पोल खोल दो मुस्टंडों की, लेखराम बन जाओ।

वेद प्रचार करो निष्ठा से, सोया जगत् जगाओ।।

आसाराम, मुरारी की चल रही दुकान यहाँ पर।

घूम रहा सतपाल बना, अब बेईमान यहाँ पर।।

साँईदास तथा ब्रह्मा के भ्रष्ट कुमार-कुमारी।

वैदिक पथ को त्याग बने हैं दंभी और व्यभिचारी।।

लूट रहे भोली जनता को, पोपों के गढ़ ढाओ।

वेदप्रचार करो निष्ठा से, सोया जगत् जगाओ।।

अगर न दोगे ध्यान कु मारो! पीछे पछताओगे।

दुनियाँ में नासमझ साथियो! निश्चित कहलाओगे।।

स्वामी श्रद्धानन्द बनो तुम, शुद्धि चक्र चलवाओ।

बनो दर्शनानन्द, विश्व में ओ3म् ध्वजा लहराओ।।

कहने का अब समय नहीं है, करके काम दिखाओ।

वेदप्रचार करो निष्ठा से, सोया जगत् जगाओ।।

युवक-युवतियाँ बिगड़ गए, फैशन के हैं दीवाने।

वेद मन्त्र कुछ याद नहीं, गाते हैं गन्दे गाने।।

अण्डे मांस लगे खाने, करते हैं पाप निरन्तर।

गांजा, सुल्फा, मदिरा पी, पाते संताप निरन्तर।।

‘नन्दलाल’ नादानों को अब, वैदिक पाठ पढाओ।

वेदप्रचार करो निष्ठा से, सोया जगत् जगाओ।।

-आर्य सदन, बहीन जनपद पलवल (हरियाणा)

चलभाषः – 09813845774

 

जाति बनाम वर्ण व्यवस्था

जाति बनाम वर्ण व्यवस्था

श्री यदुनाथ आर्य…..

वर्तमान हिन्दू समाज अपनी जाति-भेद की प्रथा के कारण बहुत बदनाम है। कोई समय था जब यह प्रथा बुद्धि संगत सिद्धान्तों पर आश्रित थी, और वर्ण व्यवस्था कही जाती थी। इस समय ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अब तो इसका ढांचा मात्र शेष रह गया है। आज का हिन्दू समाज बहुसंख्यक जातियों और उपजातियों में बंटा हुआ है। जिनको वेदों का तनिक भी समर्थन प्राप्त नहीं है। आज इस प्रकार के मनमाने ढंग से विभाजन का

परिणाम अशान्ति के सिवा और कुछ नहीं हुआ करता।वेद में मनुष्य के चार प्रकार के वर्गीकरण का प्रतिपादन

किया गया है।

यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यःकृतः।

ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||

इस वर्गीकरण के अनुसार समाज का मुख ब्राहमण, भुजाएँ क्षत्रिय, जंघाएँ वैश्य और पैर शूद्र माने जाते हैं। वर्ण-व्यवस्था के वर्ण शब्द के अर्थ से बड़ा भ्रम फैला है। साधारणतः वर्ण का अर्थ रंग होता है। इस अर्थ

के आधार पर कुछ लोगों ने वर्ण-व्यवस्था के रूप में समाज के वर्गीकरण को रंगभेद पर आश्रित माना है।

उन्होंने अपनी इस मान्यता के समर्थन में कहा है कि मूलनिवासी श्याम वर्ण के थे इसलिए उन्हें हेय दृष्टि से देखा गया था और दास बना लिए गये थे। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाये तो समाज के श्याम और गौर ये दो विभाग होने चाहिएँ। मुख भुजाओं, जंघाओं, और पैरों के रूप रंग में शरीर का विभाजन किसी प्रकार भी रंग पर अवलम्बित नहीं हो सकता। तुम सिर से लेकर पैरों तक देख जाओ। शरीर के सब अवयवों का रंग एक जैसी ही दिखाई देगा। इससे स्पष्ट है कि रंग का सिद्धान्त रंग-भेद के पक्षपातियों की झूठी कल्पना है। वर्णों के गुण-कर्म-वर्णन-प्रसंग कई वेद-मन्त्रों द्वारा बताया गया है कि वेद के समस्त मन्त्र गुण और कर्म की योग्यता पर वर्ण निर्णय करते हैं। इन में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो बिना योग्यता के केवल किसी का पुत्र होने के कारण वर्ण की उपाधि देने का संकेत करता हो। आप जन्म से वर्ण मानने वालों की युक्तियों को तौलिये और प्रमाणों पर चिन्तन करिए। सबसे प्रथम परमात्मा के रचनाओं पर चिन्तन कीजिए- वृक्षों में आम, पीपल, अमरुद, अनार आदि पशुओं में गौ, गधा, घोड़ा आदि पक्षियों में तोता, मैना, मयूर आदि इसी प्रकार मनुष्यों में ब्राहमण क्षत्रियादि भेद हैं। ऐसा कहने वाले वर्ण और जाति एक वस्तु मानकर भारी भूल करते हैं अथवा स्वयं वास्तविकता को जानते हुए भी स्वार्थवश साधारण जनता को भ्रम में डालते हैं। जाति का

लक्षण न्यायदर्शनकार गौतम मुनि जी लिखते हैं, ‘‘आकृतिरितिलिाख्या’’ (न्याय.२.२६८) इस पर वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं। ‘यथा जाति जाति लिन्गानि च प्रत्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात् जिससे जाति और जाति के चिह्न बताये जाते हैं उसे आकृति कहते हैं। अब स्वभाविक रुप से प्रश्न उठता है कि जाति किसे कहते हैं? तो उत्तर में कहा गया है- समानप्रसवात्मिका जातिः(न्या. २/२/१९) इस पर भी वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं- या समानां बुद्धिम प्रसूते भिन्नेष्वधिकरणेषु,यया बहूनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते, योऽर्थोऽनेकत्र प्रत्ययानुवृत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम्। यच्च केषाघिद भेदं कुतश्चिद्भेदं करोति तत् सामान्य विशषा जातिरिति।’’

अर्थात् भिन्न-भिन्न वस्तुओं में समानता उत्पन्न करने वाली जाति है। इस जाति के आधार पर अनेक वस्तुएँ आपस में पृथक् पृथक’ नहीं होतीं अर्थात्-एक ही नाम से बोली जाती हैं। जैसे गौएँ पृथक् कितनी भी हो तो भी सबको गौ कहते हैं। यह एकता जाति के कारण ही उत्पन्न हुई जाति भी दो प्रकार की होती है-एक सामान्य दूसरी सामान्य-विशेष जो अनेक वस्तुओं में एक आकार की प्रतीत होती है वह सामान्य जाति है, जैसे पशु जाति सामान्य है।

यह पशुत्व गौ, भैंस, घोड़े आदि में सामान्य (एक जैसा) है। जो किसी से भेद और किसी से अभेद कराती है वह सामान्य विशेष जाति है जैसे गौ। गौ की प्रतीति सब गौओं में एक-जैसी होती है, यह तो हुआ अभेद पर घोड़े को गौ नहीं समझ सकते यह हुआ भेद, तो इसका नाम सामान्य विशेष जाति है। उक्त दोनों जातियों

में से मनुष्य सामान्य जाति है। मनुष्यत्व की दृष्टि से सभी वर्ण मनुष्य हैं, न उनमें कोई ज्येष्ठ है और न कनिष्ठ। ज्येष्ठता और कनिष्ठता वाले तो गुण होते हैं। मनुष्य योनि क्योंकि कर्म और भोग दोनों योनि हैं, अतः इसमें गुणों के साथ कर्म पर भी ध्यान देना अनिवार्य है। अतः ब्राहमणादि वर्णों का निर्णय गुणों और कर्मों के आधार पर होने के कारण ही वर्णों का नाम वर्ण पड़ा, क्योंकि वर्ण शब्द का अर्थ गुण और कर्म हैं-

वरणीया वरितुमर्हा गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः। गुण और कर्म देखकर जो किसी

समुदाय-विशेष के स्वीकार किये जावें, वे वर्ण कहलाते हैं। निरुक्त को वर्ण का अर्थ कर्म भी कहा गया है-वृतमिति कर्मनाम वृणोतीति सतःयहाँ ‘‘वृज’’ धातु से बनने वाले वृत् शब्द का अर्थ स्पष्ट ही कर्म लिया है, और साथ ही हेतु दिया है– वृणोतीति सतः – क्योंकि शुभकर्म मनुष्य को ढक लेते हैं, अतः व्रत का अर्थ कर्म है। इसी प्रकार इसी धातु से निष्पन्न हुए वर्ण शब्द का अर्थ‘‘वर्णो वृणोते….’’ के आधार पर गुण और कर्म है। अतः सामान्य जाति का सामान्य विशेष जाति के साथ मिलान करना भारी भूल है। हाँ, जिस प्रकार आम्र में खट्टे-मीठे आदि गुणों का भेद होता है, वैसे तोते तोते में पढ़ने या न पढ़ने के गुण का भेद होता है। गौ-गौ में न्यून और अधिक दूध आदि देने के गुण का भेद होता है। इसी प्रकार मनुष्यों में अच्छे और बुरे गुणों और कर्मों के आधार पर भेद है। इसी को शास्त्र ने वर्ण कहा है। यदि सामान्य विशेष जाति पशु, वृक्ष, पक्षियों का-सा मनुष्य में भी भेद होता तो जिस प्रकार भिन्न-भिन्न पशुओं के झुण्ड में से गौ, भैंस आदि को पृथक्-पृथक् पहचान लेते हैं, वृक्षों और पक्षियों को पृथक्-पृथक् जानते हैं, इसी प्रकार मनुष्यों के समूह में से ब्राहमण, क्षत्रियादि को अलग से पहचान लेते, किन्तु कोई भी नहीं पहचान सकता। चार वर्ण हैं- ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।आजकल समाज में लोग जहाँ जन्म के अनुसार वर्ण मानते हैं वहाँ आर्यों का मत है गुण-कर्म-स्वभाव और जीविका के साधन के अनुसार वर्ण को स्वीकार करता है।जन्मपरक वर्ण व्यवस्था के नाम पर अतीतकाल में हिन्दू समाज में शूद्रों पर जो अत्याचार किये गए, उनकी कथा अत्यन्त हृदय-द्रावक है।शूद्रों को छूने तक में पाप समझा जाता था, फिर उनके साथ समानता के व्यवहार की आशा ही क्या की जाती?शूद्रों को विद्या और वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित रखा गया और पराय के जैसा उनसे व्यवहार करते थे, तथा जबर्दस्ती उनसे सेवा वसूल करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते थे।किन्तु आर्य समाज का दृष्टिकोण इसके विपरीत

है।आर्य समाज चारों वर्णों को समाज का अवश्य अंग मानता है और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की प्राप्ति की दृष्टि से सबको समानता के स्तर पर रखता है, अर्थात् जहाँ तक रोटी-कपड़ा और मकान का सम्बन्ध है, वे ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी के लिए समान रूप से आवश्यक हैं और इनकी प्राप्ति में किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।परन्तु जहाँ तक सामाजिक प्रतिष्ठा का सम्बन्ध है, वह सबसे अधिक मात्रा में उनलोगों को उपलब्ध होगी जो अपना सारा जीवन ज्ञान की उपसना में लगाएँगे, जितने भी कलाकार लेखक, अध्यापक, वैज्ञानिक और सरस्वती के साधक हैं और जो समाज के अज्ञान का निराकरण करते हैं वे सबके सब ब्राहमण कहलाएँगे, फिर चाहे उनका जन्म किसी कुल में क्यों न हो।सामाजिक प्रतिष्ठा में दूसरा स्थान होगा उन क्षत्रियों का जो बल की उपासना करते हैं और अन्याय का प्रतीकार अपने जीवन

का लक्ष्य बनाते हैं। सैनिक, योद्धा और राजकीय प्रशासनिक सेवाओं के कर्मचारी इस कोटि में आते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा में तीसरा स्थान होगा धन की उपासना करने वाले और उसी में रत रहने वाले वैश्यों का। व्यापारी उद्योगपति, दुकानदार और अधिकांश नौकरी पेशा लोग भी इसी कोटि में आएँगे।वे सब समाज के भौतिक अभावों की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं।ज्ञान, बल और धन की उपासना करने वाले उक्त तीनों वर्णों में भी मूल प्रेरणा स्वार्थ की नहीं प्रत्युत परार्थ की ही है।सार रूप में यों कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति राष्ट की अविद्या को दूर करने का प्रयत्न करेंगे वे ‘‘ब्राहमण’’ जो अन्याय को दूर करने का प्रयत्न करेंगे वे ‘‘क्षत्रिय’’ और जो व्यक्ति राष्ट में प्रसृत अभाव की समस्या को हल करने का व्रत लेंगे वे ‘‘वैश्य’’ कहलाएँगें। जो व्यक्ति राष्ट में अविद्यादि अभाव की समस्या को हल करने में विशिष्ट योगदान नहीं दे सकता है वह शूद्र कहलायेगा। समाज के लिए ये चारों समान रूप से उपयोगी है, एक भी अंग अलग हो जाने पर समाज-व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाएगी।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।

प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उसके पश्चात् संस्कारों के आधान से प्राप्त गुण-कर्म के द्वारा वह द्विजत्व को प्राप्त होता है। जिस तरह वकील का बेटा जन्म से वकील नहीं और डॉक्टर का बेटा जन्म से डॉक्टर नहीं होता उन्हें क्रमशः वकालात और डॉक्टरी पास करने पर ही वकील और डॉक्टर कहा जा सकता है, उसी प्रकार ब्राहमणत्व के गुण-कर्म से ही न ब्राहमण का बेटा भी ब्राहमण नहीं हो सकता। उसे विद्याध्ययन, तपस्या और सदाचार के द्वारा ब्राहमणत्व अर्जित करना होगा। जन्म परक जाति की मान्यता सामाजिक विकास का जितना उत्तम उपास है, उतना और कोई उपाय नहीं हो सकता।

-स्नातक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून