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वर्णमीमांसा

वर्णमीमांसा

ब्र. यशदेव आर्य…..

इस आर्यावर्त्त देवभूमि में रहने वाले सहृदय- नागरिकों एवं विभिन्न धर्मावलम्बियों को यहाँ की प्राचीनतम संस्कृति धार्मिक भावना एवं कर्तव्यों को जान लेना अत्यन्तावश्यक है। क्योंकि प्राचीन समय में वर्णों एवं आश्रमों का वर्गीकरण जिस प्रकार से यथास्थिति को जानकर किया जाता था वैसा आज देखने को नहीं

मिलता। अब तो केवल जन्मना वर्णवाद एवं धर्मान्धता का कुप्रचार अधिक दिखाई व सुनाई देता है। वर्तमान

काल में आश्रमी जीवन की दुर्गति वर्णव्यवस्था के नाम पर पापाचार सर्वत्र विस्तृत हुआ है, क्योंकि अब की वर्ण व्यवस्था प्राचीन वर्णव्यवस्था से एकदम भिन्न है। इसके सुस्पष्ट प्रमाण धर्मशास्त्रों एवं विभिन्न स्मृतियों में प्रत्यक्ष देखने को मिलते हैं यथा आपस्तम्ब धर्मसूत्र में

धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ ।१.५.१०

धर्म के सदाचारण से निम्न से निम्न वर्ण भी उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है उसे उसी वर्ण में गिनना चाहिए।

क्योंकि सदाचार शून्य उच्च वर्गस्थ भी शूद्र के समान है एवं सदाचारी निम्न जातीय भी ब्राहमणत्व को प्राप्त करता है।

अधर्मचर्य्यापूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ। आपस्तम्ब-१.५.११

अर्थात् अधर्माचरण से युक्त उच्च वर्णस्थ शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। वर्ण शब्द से ही यह सिद्ध हो जाता है कि धर्मानुसार वर्ण कहते किसे है यह जन्मना हो अथवा कर्मणा तब निघण्टु भाष्य निरुक्त में निरुक्तकार वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति ‘वर्णो वृणोतेः’ इस वचन से करते हैं अर्थात् कर्मों के आधार पर जिसका वरण किया जाए वही वर्ण है। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के वर्णाश्रम धर्म विषय में स्पष्ट किया है कि-

वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रामाण्यादपरणीया वरीतुमर्हाः। गुणकर्माणिच दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।।

वर्ण कर्मानुसार ही हो जन्मना नहीं इसकी पुष्टि ब्राहमण क्षत्रादि शब्दों की रचना व्युत्पत्ति एवं व्याकरणानुसार

हो जाती है। यथा-ब्रहमणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तम गुणयुक्तः पुरुषः।

विद्यादि आदि श्रेष्ठ गुणों का धारण करने वाला एवं परमात्मा एवं वेदोपासना में चित्त को रमा लेने वाला

ही ब्राहमण होता है। महर्षि मनु ने भी ब्राहमण के इन्हीं प्रमुख कर्तव्यों का उल्लेख मनुस्मृति में किया है। ‘आग्नेयो हि ब्रा२णः(काठ.२९.९०) यज्ञादि कर्मों से सम्बन्ध रखने वाला ही ब्राहमण होता है। यदि जन्मना वर्ण व्यवस्था को सत्य माना जाए तो समाज कुंठाग्रस्त होकर ही मर जाएगा। वृद्धि का कहीं भी कोई भी चिहन

अथवा संकेत प्रकट नहीं होगा। वृद्धि होगी भी तो उच्च वर्णस्थ लोगों की होगी अथवा यूँ कहें कि वृद्धि होगी ही नहीं क्योंकि जन्मना वर्ण व्यवस्था के आधार पर ब्राहमण ही रहेगा और शूद्र भी शूद्र। किसी को अपनी प्रोन्नति करने का कोई अवसर ही प्राप्त न होगा। ब्राहमण नीच कर्मों में प्रवृत्त भी ब्राहमण ही होकर रहेगा और शूद्र धर्माचरण करता हुआ भी शूद्र। अतः मनुस्मृति में –

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शुद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यास्तथैव च।।(१०/६५)

गुण कर्मों के आधार पर शूद्र भी ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य हो सकता है। इसी प्रकार अन्य वर्णों को भी समझना चाहिये।

लोकानां तु वृह्यर्थं मुखबाहूरुपादतः।

ब्राहमणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्।।(१/३१)

लोक की वृद्धि के लिए मुख, भुजा, जंघा और पाद रूप इन चतुवर्ण-व्यवस्था का आरम्भ हुआ। इसी प्रकार कर्मणा वर्णव्यवस्था के आधारभूत अन्य शास्त्रों, ग्रन्थों एवं वेदों मे भी चतुर्वर्ण का उल्लेख मिलता है।

ऊर्जादः उत यज्ञियासः पञचजनाः मम होत्रं जुषध्वम्। ऋग. (१० .५३.४)

पाँचवे वर्ण का विधान निरुक्त में किया है चत्वारो वर्णा निषादः पंचम इति औपमन्यवः।(निरुक्त.-३.८) अर्थात् चार वर्णों के पश्चात् निषाद को पाँचवा पुरुष मानना चाहिए, यह वेद सम्मत है।

इन चारों वर्णों का अपना-अपना महत्व है और वेद में इसकी तुलना मनुष्य शरीर से उनके कार्यानुरूप की गई है यथा शरीर में मुख प्रधान है उसी प्रकार समाज में ब्राहमण। भुजाओं का कार्य शरीर रक्षा व अन्य, इसलिए

क्षत्रिय भुजा रूप है। जंघा शरीर का भार सम्भालने वाली होती हैं, इसलिए वैश्य व्यापारादि कार्य से समाज आदि का भार सम्भालने वाला होता है। पैरों से संज्ञा शूद्र की की गई है। अर्थात् जो इन तीनों के कर्मों को करने में असमर्थ हो वह शूद्र।

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।(यजु.-.३१/११)

इसी प्रकार

अस्य सर्वस्य ब्राहमणो मुखम्; शतपथ-(३.९.१.४ )

क्षत्रिय– क्षत्रं राजन्यः (एत.८.२, ३.४)

एवं क्षत्रस्य वा एतद रुपं यद् राजन्यः

(शतपथ.१३.१.५.३) अर्थात् क्षत्रिय क्षत्र का ही एक रूप है, जो दुष्ट शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है, इसी प्रकार

वैश्य के संदर्भ में ग्रन्थों में अनेकशः प्रमाण मिलते हैं। यथा एतद्वै वैश्यस्य समृह्येत् पशवः (तां.-१८.४.६)

पशुपालन से वैश्य की समृद्धि होती है। इसका सीधा एवं स्पष्ट तात्पर्य वैश्य के कर्म से है अर्थात् जो

व्यक्ति पशुपालन, व्यापार आदि कार्यों में संलग्न है, वही वैश्य है।

महर्षि मनु ने शूद्र को कहीं पर भी अपवित्र, अछुत एवं हीन की संज्ञा नहीं दी है। उनके मतानुसार जो व्यक्ति सबकी सेवा करने वाला हो, वह अपवित्र कैसे हो सकता है। उत्कृष्टः शुश्रूषुः (मनु.९/३३५) शूद्र को शूद्र की संज्ञा केवल मात्र इसलिए दी गई क्योंकि अन्य वर्णों की तुलना में वह अल्पज्ञानी होता है और इस अज्ञानता

के कारण उसका दूसरा जन्म गुरु के कुल में न होने से वह शूद्र संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है। द्विर्जायते इति द्विजः।

ब्राहमण, क्षत्रिय एवं वैश्य को द्विज इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इनका दूसरा जन्म गुरु के गर्भ से वेदारम्भ

के काल में होता है। महर्षि मनु ने इस विषय में स्पष्ट किया है –

ब्राहमणक्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णाः द्विजातयः।

चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः।।

गुणकर्मानुसार वर्णव्यवस्था के स्पष्ट संकेत ब्राहमणग्रन्थों में मिलते हैं। ब्राहमण व्यक्ति भी कर्मों के आधार पर क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र बन सकता है। यथा- ऐतरेय में उदाहरण आता है स ह दीक्षमाणः एव

ब्राहमणतामभ्युपैति (ऐत. ७.२३) अर्थात् क्षत्रिय दीक्षित होकर ब्राहमणतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। तस्मात् अपि

(दीक्षितम्) राज्यन्यं वा वैश्यं वा ब्राहमण इत्येव ब्रूयात्। ब्राहमणो हि जायते यो यज्ञात् जायते।(शत. ३.२.१.४०)

अर्थात् क्षत्रिय वैश्य भी यज्ञ दीक्षा ग्रहण करके ब्राहमण वर्ग में दीक्षित हो सकता है। यहाँ पर यज्ञ में दीक्षित होने से तात्पर्य ब्रहमचर्याश्रम में वेदाध्ययन के समय से है। उसके बाद वह ब्राहमण भी कर्मानुसार क्षत्रियत्व,

वैश्यत्व अथवा शूद्रत्व को प्राप्त होते हैं। उपरोक्त विवेचना एवं विभिन्न प्रामाणिक ग्रन्थों के स्पष्ट एवं मजबूत प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्णव्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा ही श्रेयस्कर एवं न्यायपूर्ण है। इसी के आधार पर हमें अपने वर्ण का चयन करना चाहिए, तभी एक सुव्यवस्थित समाज एवं राष्ट का विकासपूर्ण ढाँचा तैयार होगा।

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)