सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें

सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु क उपदेश है इ हम सत्य का व्रत लें ,इसका पालन्कर देवत्व को प्राप्त करें । देवत्व को प्राप्त कर ही हम प्रभु प्रप्ति के अध्करी बनते हैं । यह मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डालता है :-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिश्यामि तच्छेकेयं तन्मे रध्यताम ।
इदमहम्न्रतात सत्मुपैमि ॥यजुर्वेद १.५ ॥
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के चतुर्थ मन्त्र पर विचार करते हुए बताया गया था कि वेदवणी हमारे सब प्रकार के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है । प्रस्तुत मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बटाते हुए तीन बिन्दुओं के माध्यम से उपदेश काते हुए बताता है कि :-
१.हमारे सब कर्य सत्य पर आश्रित हों :-
मन्त्र कहता है कि विगत मन्त्र के अनुसार जो स्पष्ट किया गया थ कि हमारा अन्तिम ध्येय परम पिता की प्राप्ति है । इस पित को पाने का माध्यम वेदवाणियों के अनुरुप अपने आप को चलाना है , इसके आदेशों को मानना है । इस के बिना हम प्रभु तक नहीं जा पाते । वेद में इस मार्ग के अनुगामी व्यक्ति के लिए कुछ कर्तव्य बताए हैं । इन कर्तव्यों में एक है सत्य मार्ग पर आश्रित होना ,सत्य मार्ग पर चलना ।
मन्त्र के आदेशानुसार प्रभु की समीपता पाने के लिए हमारे सब कर्तव्यों के अन्दर एक सूत्र का ओत – प्रोत होना बताया गया है तथा कहा गया है कि हमारे सब कर्तव्य सत्य पर ही आधरित हों । सत्य के बिना हम किसी भी कर्तव्य की इति श्री न कर सकें , पूर्ति न कर सकें । भाव यह है कि हम सदैव सत्य का आचरण करें , सत्य का ही प्रयोग करें ओर सत्य मार्ग पर ही चलें ।
सत्य के इस कर्तव्य को सम्मुख रखते हुए हम प्रार्थना करते हैं कि हे इस संसार के संचालक !, हे पग पग पर सांसारिक प्राणी को मार्ग दर्शन देने वाले , रास्ता दिखाने वाले प्रभो ! मैं एक व्रत धारण करूंगा , मैं एक प्रतिग्या लेता हूं कि मैं लिए गए व्रतों का सदैव पालन कर सकूं , उस लिए गए व्रत के अनुरुप अपने आप को टाल लूं , तदनुरुप अपने आप को चलाउं । जो व्रत मैने लिया है , उसके अनुसार ही कार्य व्यवहार करुं । इस प्रकार प्रभु मेरा यह व्रत सिद्ध हो , जो मैंने प्रतिग्या ली है उस पर चलते हुए मेरी वह प्रतिग्या पूर्ण हो । मैं उसे सफ़लता पूर्वक इति तक ले जा सकूं ।
इस प्रकार हे प्रभो ! मैं सदा व्रती रहते हुए , उस पर आचरण करते हुए , इस सत्य मार्ग पर चलते हुए मैं अन्रत को , मैं गल्त मार्ग को , मैं झुट के मार्ग को छोड कर इस सत्य मार्ग का , इस सज्जनों के मार्ग का आचरण करूं ओर इस में विस्त्रत होने वाले , इस मार्ग पर व्यापक होने वाले सत्य को मैं अति समीपता से , अति निकटता से प्राप्त होऊं ।
२. सत्य की प्राप्ति व्रस्त का स्वरुप :-
प्रश्न उटता है कि हमने जो व्रत लिया है , जो प्रतिग्या ली है , उसका स्वरुप क्या है ? विचार करने पर यह निर्णय सामने आता है कि हम ने जो व्रत लिया है इस व्रत का संक्शेपतया स्वरूप यह है कि हम अन्रत को छोड दें, हम पाप के मार्ग को छोड दें । हम बुरे मार्ग पर चलना छोड दें । यह अन्रत का मार्ग हमें उन्नति की ओर नहीं ले जाता । यह मार्ग हमें ऊपर उटने नहीं देता । यह सुपथ नहीं है । यह गल्त मार्ग है । हमने अपने जिस ध्येय को पाने की प्रतिग्या ली है , यह पाप का मार्ग हमें उस ध्येय के निकट ले जाने के स्थान पर दूर ले जाने वाला है । इसलिए हमने इस मार्ग पर न जा कर सत्य के मार्ग पर चलना है । मानो हम ने गाजियाबाद से दिल्ली जाना है । इसके लिए आवश्यक है कि हम दिल्ली की सडक पकडें । यदि हम मेरट की सडक पर चलने लगें तो चाहे कितना भी आगे बटते जावें , चलते जावें, कभी दिल्ली आने वाली नहीं है । इस लिए हम ने जो उस पिता को पाने की प्रतिग्या ली है , उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम असत्य मार्ग को छोड सत्य मार्ग को प्राप्त हों , तब ही हमें उस पिता की समीपता मिल पावेगी ।
३.सत्य से उत्तरोत्तर तेज बटता है :-
परमपिता परमात्मा को व्रतपति कहा गया है । वह प्रभु हमारे सब्व्रतों के स्वामी हैं । हमारे किसी भी व्रत की इति श्री , हमारे कीसी भि व्रत की पुर्ति , उस प्रभु की दया द्रष्टि के बिना, उस प्रभु की क्रपा द्रष्ट के बिना पूर्ण होने वाली नहीं है । जब प्रभु की दया हम पर बनेगी तो ही हम अपने किए गए व्रतों को सिद्ध कर सकेंगे । इस लिए हमने जो सत्य पथ का पथिक बनने का जो व्रत लिया है , उसको सफ़लता तक ले जाने के लिए हमने सत्य – व्रत का पालन करना है तथा सुपथ गामी बनना है । प्रभु का उपासन , प्रभु की समीपता , प्रभु के निकट आसन लगाना ही हमारी शक्ति का स्रोत है । इसलिए हमने प्रभु के निकट जाकर बैटना है । तब ही हम अपने लिए गए व्रत का पालन करने में सफ़ल हो सकेंगे । जब हम सत पर चलते हैं , जभम सत्य्व्रती हो , इस व्रत की पूर्ति का यत्न करते हैं तो धीरे धीरे हमारा तज भी बटता है जब कि अन्रत माअर्ग पर चलने से , बुराईयों के , पापों के माग पर चलने से हमारा तेज क्शीण होता है , नष्त होता है । इसलिए अपने तेज को बटाने के लिए हमें सत्य मार्ग पर ही आगे बटना है । यह उपदेश ही यह मन्त्र दे रहा है ।
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : खुदा चाहता तो सबको एक ही दीन पर कर देता

खुदा चाहता तो सबको एक ही दीन पर कर देता

जब खुदा ने खुद ही सबको मुसलमान बनाना न चाहा तो फिर कुरान में लोगों को लड़-लड़कर मुसलमान बनाने का हुक्म क्यों दिया?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व अन्जल्ला इलैकल्-किताब-ब…………।।

(कुरान मजीद पारा ६ सूरा मायदा रूकू ७ आयत ४८)

….और अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक ही दीन पर कर देता। लेकिन यह चाहा गया है कि अल्लाह ने जो तुम्हें हुक्म दिये हैं उनमें तुमको आजमाये! सो तुम ठीक कामों की तरफ चलो।

समीक्षा

खुदा अगर सभी को एक ही दीन पर कर देता तो दुनियां में मारकाट झगड़े फिसाद जो इस्लाम ने मजहबी प्रचार के लिए फैलाए, वह न फैलते और सब सुखी रहते, मगर खुदा ने जानबुझकर सबको आजमाया जाये। बिचारा अरबी खुदा बिना आमाये लोगों को जांच भी नहीं पाता था फिर कौन नेक है और कौन बद है? खुदा का ज्ञान बहुत थोड़ा था, आखिर इस स्थिति में वह करता भी क्या ?

अग्निहोत्र यज्ञ- पंच महायज्ञ के विषय में महर्षि जी द्वारा ऋग्वेद भाष्य में विस्तार से बताया गया है इस विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि इसमें घी सामग्री की आहुतियाँ देकर इन यज्ञों का जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। कृपया समाधान करने की कृपा करें।

अग्निहोत्र यज्ञ- पंच महायज्ञ के विषय में महर्षि जी द्वारा ऋग्वेद भाष्य में विस्तार से बताया गया है इस विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि इसमें घी सामग्री की  आहुतियाँ देकर इन यज्ञों का जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। कृपया समाधान करने की कृपा करें।

समाधानः-

पाँच महायज्ञों का विधान वैदिक विधान है। वैदिक मान्यता प्राणीमात्र के सुखार्थ है। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि वैदिक मान्यतानुसार किया गया यज्ञ जीवन पर कोई प्रभाव न डाले। ऐसा मानने वाले कि यज्ञ में दी गई आहुतियों का जीवन पर प्रभाव नहीं पड़ता वे नास्तिक ही कहलाएंगे। महर्षि दयानन्द के अनेकों प्रमाण इस विषय पर मिलते हैं, यज्ञ में दी गई आहुति कितनी सुखकारी है ये सब वर्णन महर्षि ने अनेकत्र किया है। इस विषय में महर्षि के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-

  1. 1. जो मनुष्य से प्राणियों को सुख देते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं। – यजु. भा. 18.51
  2. 2. जो मनुष्य आग में सुगन्धि आदि पदार्थों को होमें, वे जल आदि पदार्थों की शुद्धि करने हारे हो पुण्यात्मा होते हैं और जल की शुद्धि से ही सब पदार्थों की शुद्धि होती है, यह जानना चाहिए। – य. 22.25
  3. 3. जो मनुष्य यथाविधि अग्निहोत्र आदि यज्ञों को करते हैं, वे पवन आदि पदार्थों के शोधने हारे होकर सबका हित करने वाले होते हैं। – य. 22.26
  4. 4. जो यज्ञ से शुद्ध किये हुए अन्न, जल और पवन आदि पदार्थ हैं वे सब की शुद्धि, बल, पराक्रम और दृढ़ दीर्घ आयु के लिए समर्थ होते हैं। इससे सब मनुष्यों को यज्ञ कर्म का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए। – य. 1.20
  5. 5. मनुष्यों को चाहिए कि प्राण आदि की शुद्धि के लिए आग में पुष्टि करने वाले आदि पदार्थ का होम करें।
  6. 6. मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपीप्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृद्धि परस्पर कोमलता से वर्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिए सब मनुष्यों को परोपकार और अपने सुख के लिए विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए।

ऐसे-ऐसे सैकडों प्रमाण महर्षि के वेद भाष्य में हैं जो यह प्रतिपादित कर रहे हैं कि यज्ञ में दी गई आहुतियों का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। आज का आधुनिक विज्ञान भी इसकी विशेषता को स्वीकार करता है। आज यज्ञ से रोग दूर हो रहे हैं, जिस बात को महर्षि ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में लगभग 141 वर्ष पूर्व कहा था।

‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यवर्त्त देश रोगों से रहित और सुखाों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’  – म.प्र. स. 3

यहाँ महर्षि ने यज्ञ से रोगों के  दूर होने की बात कही है, जिसको कि आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है। आज अनेकों परीक्षण यज्ञ पर हुए हैं जिनका परिणाम सकारात्मक आया है।

राजस्थान सरकार की ओर से अजमेर में जवाहर लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज में रोग के कीटाणुओं के ऊपर यज्ञ का क्या प्रभाव पड़ता है इसका परीक्षण हुआ जिसका प्रभाव अत्यन्त सकारात्मक आया। डॉ. विजयलता रस्तोगी जी के निर्देशन में यह शोध हुआ था। इस शोध की रिपोर्ट परोपकारी पत्रिका में भी छपी थी। इतना सब होते हुए कोई कैसे कह सकता है कि यज्ञ का हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह तो कोई निम्न सोच वाला ही कह सकता है।

answeringaryamantavya ब्लॉग की जवाब (इस्लाम में नारी की दुर्दशा) भाग १

answeringaryamantavya ब्लॉग  की जवाब (इस्लाम में नारी की दुर्दशा) भाग १
(इस्लाम में नारी की दुर्दशा)
अभी एक उत्साही मोमिने ने मुझे एक लिंक दिया जिसमें उसने आर्यसमाज( सच पूछो तो पूरे सनातन धर्म) को नीचा दिखाने का प्रयास किया गया.
http://answeringaryamantavya.blogspot.in/2016/09/1_27.html?m=1
ये वह पोस्ट है.
हम क्रमशः इस पोस्ट का खंडन करेंगे
१:-बेशक कोइ शक ही नहीँ
अल्लाह ने फरमाया है कुरआन ए पाक मेँ कि मर्द औरत का
निगेहबान है । लेकिन वो इस बात को क्या
समझगेँ जो भरी सभा मेँ एक औरत कि इज्जत ना बचा
सके । भरी सभा मेँ उसे निवर्स्त होने से ना बचा सके
प्रमाण महाभारत मेँ द्रोपदी वो इस
बात को कया समझेगेँ जो एक औरत कि नाक ही काट देँ

वो भला इस बात को क्या समझेगेँ जो एक औरत को भोग
की वसतु समझते है ।
11 11 वाले मिशन कि पैदाइश आर्य समाजी क्या
समझेगेँ ।
आगे चलीये
*समीक्षा* पाठक पोस्ट पढ़कर समझ जायेंगे कि ऐसी हेय भाषा प्रयोग करने वाला कैसा व्यक्ति होगा.
इनके आरोपों पर नजर डालें:-
” भरी सभा में एक औरत की इज्जत न बचा सके”
हजरत साहब, मां द्रौपदी का चीरहरण भारतीय संस्कृति पर कलंक है.सत कहो तो दुर्योघन केवल द्रौपदी जी को दासी के वस्त्र पहना कर और झाडू लगवा कक अपमामित करना चाहता था.उनका चीरहरण करना उसका मकसद न था.सच कहो तो द्रौपदी का चीरहरण और वस्त्र का बढ जाना आदि गपोड़े महाभारत में कालांतर में जोड़े गये.सच कहो तो श्रीकृष्ण ने कहा था कि यदि मैं सभा में होता तो न तो जुआ होता न द्रौपदी और पांडवों का अपमान.महाभारत का काल पतनकाल था.पर तब भी स्त्रियों का सम्मान था.स्त्री के अपमान के कारण ही महाभारत क् युद्ध हुआ और स्त्रा की गरिमा पर हाथ डालने वाले रणभूमि में खून से लथपथ पड़े थे.मां सीता का हरण करने वाले रावण का वंशनाश हो गया.यह है स्त्री की गरिमा! वैदिक धर्म में ६ आततायी कहे गय हैं.उनमें स्त्री से जबरदसती करने वो भी आते हैं.मनु महाराज ने ऐसों को मौत की सजा का विधान रखा है.इस पर ” आर्यमंत्वय ” के लेख पढे होते उसके बाद कलम चलाई होती.
रजनीश जी द्रौपदी चीरहरण पर जवाब दे चुके हैं
देखिये:-http://aryamantavya.in/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8C%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A5%87/
आगे श्रीराम और लक्ष्मण जी को शूपणखा के नाक काटना का आरोप है.हजरत साहब! शूपणखा राक्षसी थी.वो कामुक भाव से श्रीराम से गांधर्वविवाह करने आई थी.पर उनके मना करने पर मां सीता पर झपट पड़ी क्योंकि उसको लगा कि राम जी को पानो से पहले सीता जी को रास्ते से हटाना होगा.तब वह राक्षसी रूप में आकर मां सीता पर टूट पड़ी.तब जवाब में लक्ष्मण जी ने उसको दूर हटा दिया उसकी नाक काट दी यानी अपमानित कर दिया.अब बतायें जरा, आपकी मां बहन बेटी पत्नी पर कोई जानलेवा वार करे तो क्या आप शांत बैठोगे? नहीं, पत्नी रक्षा पति का धर्म है.अतः इससे श्रीराम और लक्ष्मण जी को नारीविरोधी कहना धूर्तता है.राम जी ने शबरी अंबा और देवी अनसूया का आतिथ्य स्वीकार किया.इससे पता चलता हा कि वे कितने स्त्रीसमर्थक थे
बाकी *हम डंके की चोट पर कहतेहैं कि रामायण में उत्तरकांड और बीच बीच के कई प्रसंग प्रक्षिप्त हैं और अप्रमाण हैं.अतः सीता त्याग का हम खंडन करते हैं.( देखिये पुस्तक ‘ रामायण :भ्रांतियां और समाधान)*
मनुस्मृति में भी कई श्लोक प्रकषिप्त हैं.अतः हम आपसे आग्रह करेंगे कि स्वामी जगदीश्वरानंदजी और डॉ सुरेंद्रकुमार जी के ग्रंथ ” वाल्मीकीय रामायण” ” विशुद्ध मनुस्मृति” पढें जिनमें प्रक्षेप हटाकर इनको शुद्ध किया गया है.
बाकी ११-११ नियोग की बात तो नियोग केवल आपद्धर्म है.यह सेरोगेसी की तरह है जिससे उत्तम कुल के वर्ण के नियुक्क से शुक्रदान होता है.यह केवल सबसे रेयर केसेस में से एक है.हजरत, जरा उन मां बाप से पूछें जिनके संतान नहीं है.तब पता चलेगा कि निःसंतान होना कैसा है? इस स्थिति में संतान गोद ले लें.यदि न हो सके तो नियोग करें.पर सच कहो तो गृहस्थ होने की काबिलियत भी हममें नहीं, स्वामीजी के मत में.क्योंकि उसके लिये पूर्ण विद्वान और तैयार होना जरूरी है.तब तो नियोग करना दूर की बात.पर ये प्रथा ” हलाला” से तो बहुत अच्छी है.
अब इस्लाम पर आते हैं कि यदि तीन तलाक हो जाये और तलाकशुदा स्त्री पुराने पति को पाना चाबहे तो उसको परपुरुष से निकाह कर बिस्तर गरम करना होगा और फिर दुबारा वो पुराने पति के लिये हलाल है.( सूरा बकर २२९-२३०) अब किसी मोमिन में औकात है कि नियोग पर आक्षेप लगायें.नियोग के लिये आर्यमंतव्य  के ब्लॉग देख सकते हैं.शायद आपका शंका समाधान हो जाये.
शेष अगले लेख में
आर्यवीर  की  कलम से

सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं

सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं –

डा. अशोक आर्य
सम्पूर्ण जीवन वेदवाणी के विचार का विषय है तथा वह कर्म व पुरुषार्थ प्रधान है । हमें ज्ञान देती है । सोम से हम छोटे प्रभु का रुप लेते हैं, उन्नति करते हुए, ह्व्य की रक्शा करते हुए, हम अपने जीवन को यग्यमय बनावें । इस की चर्चा इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है :-
सा विश्वायु: सा विश्वकर्मा सा विश्वधाया:।
इन्द्रस्य त्वा भागंउसोमेनातनच्पि विश्णो ह्व्यंउरक्श॥यजुर्वेद १.४ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर उपदेश करते हुए बताया गया है कि :-
१. वेदवाणी सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करती है : –
विगत मन्त्र में वेदवाणी के दोहन का विस्तार से वर्णन किया गया है , यह वेदवाणी हमारे सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करने वाली है । इससे स्पष्ट है कि मानव जीवन के आदि से अन्त तक के जीवन के सम्बन्ध में वेद में चर्चा आती है । वेद में जीवन के विभिन्न अवसरों पर मानव के करणीय कार्यों व कर्तव्यों की बडे विस्तार से चर्चा की है तथा उपदेश किया है कि हे मानव ! यह वेद मार्ग ही तेरे सुख का मार्ग है , तेरे धन एश्वर्य की प्राप्ति का साधन है , तेरे लिए श्रेय प्राप्ति का साधन है । इसलिए तूं सदा वेद के अनुसार ही अपने जीवन को चला । जब कभी तूं वेद मार्ग से भटकेगा , तब ही तेरे लिए विनाश का मार्ग खुल जावे गा , अवन्ति के गढे में गिरता चला जावेगा । इस लिए वेदवाणी की शरण में ही रहना , इसके आंचल को कभी अपने से हटने मत देना ।
वेद में ब्राह्मण आदि वर्णों तथा ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के लिए क्या करणीय है तथा उनके क्या क्या कर्तव्य हैं , सामाजिक स्थितियों में पति – पत्नि ,बहिन – भाई , पिता – पुत्र , शिष्य – आचार्य, राजा – प्रजा , ग्राहक – दुकानदार आदि के कार्यों , कर्तव्यों , करणीय कार्यों आदि की बडे ही विस्तार से चर्चा की गई है । समाज के प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक वर्ग के लिए बडा ही सुन्दर उपदेश करते हुए , उनके कर्तव्यों विष्द प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार वेद ही समाज के प्रत्येक प्राणी का मार्ग – दर्शक है । इस पर चलने पर ही क्ल्याण का मार्ग खुलता है ।
२. वेदवाणी सब के कार्यों का वर्णन करती है :-
समाज में अनेक खण्ड हैं , समाज के कार्यों का विभाजन करते हुए , प्रत्येक आश्रम , प्रत्येक वर्ण के कार्यों व कर्तव्यों पर भी इस वेदवाणी में चर्चा की गयी है । वेद्वाणी का उपदेश है कि अपने कर्तव्यों को अवश्यम्भावी समझते हुए उसे तत्काल करना आरम्भ कर दो तथा तब तक उन पर कार्य करते रहो , जब तक सम्पन्न न हो जावें किन्तु अधिकारों की मांग कभी भी मत करें । जब तक प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , तब तक समाज उपर नहीं उठ सकता , उन्नति नहीं कर सकता । अत: समाज की उन्नति के लिए ही नहीं , अपनी स्वयं की उन्नति के लिए भी पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्तव्यों की इति श्री आवश्यक है । इससे ही जीवन सुन्दर बनता है । इसके साथ ही हम कभी अपने अधिकारों की चर्चा तक न करें। जब हम अधिकारों को मांगने लगेंगे तो समाज का ताना बाना ही बिगड जावेगा । यह सत्य है कि जब हम अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने में लगते हैं तो यह अधिकार स्वयमेव ही प्राप्त होते जाते हैं । इन पर अलग से कार्य करने की आवश्यकता ही नहीं होती । तब ही तो गीता में भी उपदेश किया गया है कि ” तुम्हारा अधिकार कर्म का ही है फ़ल का नहीं ।” कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन ॥
३. वेदवाणी समग्र ज्ञान का पान कराती है :-
वेद सब प्रकार का ज्ञान देते हैं , यह सब प्रकार के ज्ञानों का पान कराते है । एसा कोई ज्ञान नहीं है , जिसका वर्णन इस वेदवाणी में न हो । वेदवाणी द्वारा दिये इस ज्ञान से ही हमारी कर्तव्य भावना का उदय होता है , जागरण होता है । इस ज्ञान को दूध मानते हुए , इस समग्र ग्यान के दूध का हमें यह वेदवाणी हमें पान कराती है । वेदवाणी में सब सत्य विद्याओं का ज्ञान प्रकाशित किया गया है । इस कारण यह प्राणी मात्र को व्यापक ज्ञान देती है । अनेक विद्वानों ने वेदवाणी को गौ के नाम से तथा इस के उपदेश को गाय के दूध के नाम से सम्बोधन किया है क्योंकि यह मानव के जीवन को श्रेष्ठ व उत्तम बनाने वाले गाय के दूध के ही समान जगत के सब प्राणियों को धारण करती है तथा इन सब का पालन भी करती है ।
इस वेदवाणी की चर्चा के साथ ही परम पिता परमात्मा कहते हैं कि हे जीव इस वेदवाणी का स्वाध्याय करने के कारण मैं तुझे अपने छोटे रुप में तैयार कर देता हूं , तुझे अपने छॊटे रुप में बना देता हूं , ताकि तूं भी मेरे ही समान अपने से छोटे , अपने से अग्यानी लोगों में इस वेदवाणी के ज्ञान को बांट सके । इस प्रकार मैं तुझे ठीक कर देता हूं , ठीक बना देता हूं ।
मानव जीवन में जो कुछ भी खाता है , उस आहार का अन्तिम रस अथवा सार रुप हमारा यह वीर्य होता है । इस वीर्य के द्वारा ही हमारे यह पिता हमारे शरीर को स्वस्थ बनाते हैं । इस सोम रक्षा से जहां हमारा स्वास्थ्य उत्तम बनता है , वहां हमारे मन से सब प्रकार के विकार , सब प्रकार के दोष धुल जाने के कारण इस में ईर्ष्या , द्वेष आदि को स्थान ही नहीं मिलता । सोम की रक्षा करने से हमारे शरीर में इतनी शक्ति आ जाती है कि इस में किसी प्रकार की इर्ष्या , किसी प्रकार का राग, किसी प्रकार का द्वेष स्थान ही नहीं पा सकता । इस प्रकार हम अपना समय राग – द्वेष में न लगा कर निर्माण के कार्यों में लगाते हैं । इससे हमें अत्यधिक धन एश्वर्य की प्राप्ति होती है । हम सोम रुप हो जाते हैं । सोम रुप होने से हम में ज्ञान की अग्नि भडक उठती है । ज्ञान प्राप्त करने की अद्भुत इच्छा शक्ति पैदा होती है । इस ज्ञाणाग्नि रुपी ईंधन को पा कर यह अग्नि , यह इच्छा शक्ति ओर भी तीव्र हो जाती है तथा इससे हमारा मस्तिष्क तीव्र हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस में ज्ञान का अत्यधिक प्रकाश हो जाता है , जिस प्रकाश का तेज हमारे आभा – मण्ड्ल को भी दमका देता है,चमका देता है । इस सोम से मानव का जहां मस्तिष्क दीप्त होता है वहां शरीर व मन आदि सब कुछ ही ठीक हो जाता है, पुष्ट हो जता है ।
४. मानव विष्णु बन जाता है :-
मानव जब सब प्रकार की उन्नति करने वाला बन जाता है तो इस प्रकार की उन्नति को त्रिविध उन्नति कहते हैं तथा इस प्रकार की उन्नति करने में सफ़लता पाने वाले मानव को त्रिविक्रम कहते हैं । इस त्रिविक्रम प्राणी को विश्णु भी कहा जाता है । इस प्रकार तीनों विधियों से उन्नत होने के कारण यह विष्णु बन जाता है । जो विष्णु बन जाता है , उससे परम पिता उपदेश करते हुए कहते हैं कि हे सब प्रकार से व्यापक उन्नति करने वाले प्राणी ! तुम अपने जीवन से , अपने श्वासों से ,अपने कर्मों से इस यज्ञ की सदा रक्षा करना अर्थात सदा यज्ञ आदि कर्म करते रहना तथा अपने जीवन को भी यज्ञमय ही बना देना । यज्ञ को अपने जीवन से कभी अलग मत होने देना , विलुप्त मत होने देना । तेरे यह प्रभु यग्य रुप ही हैं । इस प्रकार जीवन पर्यन्त यज्ञ करने से ही तूं वास्तव मे इस यज्ञरुप प्रभु की निकटता पा सकेगा , उस प्रभु के समीप अपना आसन लगा सकेगा, उसकी उपासना कर सकेगा ।
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : सजा या इनाम खुदा की मर्जी पर है

सजा या इनाम खुदा की मर्जी पर है

बिना वजह किसी को इनाम या सजा देने वाले मजिस्ट्रेट या खुदा को यदि लोग अत्याचारी या पागल कहें तो वे गलत क्योंकर होंगे?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अह्लल्-किताबि कद् जा……..।।

(कुरान मजीद पारा ६ सूरा मायदा रूकू ३ आयत १८)

खुदा जिसको चाहे माफ करे और जिसको चाहे सजा दे और आसमान जमीन और कुछ जमीन और आसमान के बीच में है सब अल्लाह ही के अखितयार में है और उसी की तरफ लौटकर जाना है।

समीक्षा

बिना वजह किसी को सजा देने व किसी को भी माफ करने वाला मजिस्ट्रेट या अरबी खुदा, वह कोई भी हो? पागल और जालिम ही माना जावेगा, ‘‘मुन्सिफ’’ अर्थात् न्यायकत्र्ता नहीं।

मनुष्य जितने भी कर्म (मन, वचन, कर्म) करता है उन्हें बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त अच्छी भावना से तथा बगैर राग द्वेष के करे वे सभी यज्ञ कहाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द जी द्वारा विस्तार से कब,कहाँ, कैसे बतलाया है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा नमस्ते, मेरी निम्न जिज्ञासा है कृपया शान्त करने की कृपा करें।

यज्ञ के प्रकार –

मनुष्य जितने भी कर्म (मन, वचन, कर्म) करता है उन्हें बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त अच्छी भावना से तथा बगैर राग द्वेष के करे वे सभी यज्ञ कहाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द जी द्वारा विस्तार से कब,कहाँ, कैसे बतलाया है?

समाधानः यज्ञ एक उत्तम कर्म है जो कि सकल जगत् के परोपकारार्थ किया जाता है। यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र ही नहीं है। महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ के विषय में विस्तार से लिखा है। महर्षि लिखते हैं- ‘‘यज्ञ उसक ो कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान अग्निहोत्रादि जिसने वायु, वृष्टि, जल, औषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।’’ (स.प्र. स्वमन्त. प्र. 23)

  1. 2. ‘‘यज्ञ अर्थात् उत्तम क्रियाओं का करना।’’

– ऋ. भा. भू.

इन दोनों स्थानों पर महर्षि ने इस यज्ञ का वर्णन सब जीवों को सुख पहुँचाने रूप में और जो उत्तम क्रियाएँ हैं वे सब यज्ञ हैं इस रूप में किया है। ये क्रियाएँ अच्छी भावना से की जाती है। कुछ अच्छी क्रियाएँ अन्य भावना से अर्थात् लोक में प्रसिद्धि की भावना से अथवा किसी ने कुछ बड़ा अच्छा कार्य किया कोई व्यक्ति उसे बड़े कार्य करने वाले को हीन दिखाने के लिए उससे बड़ा अच्छा कार्य कर सकता है। कहने का तात्पर्य है कि सदा अच्छी भावना से ही तथा बिना राग द्वेष के ही सब अच्छे कार्य होते हों ऐसा नहीं है फिराी ऐसा न होते हुए भी वे अच्छे कार्य यज्ञ कहला सकते हैं।

दूसरी ओर अच्छी भावना होते हुए भी दोष युक्त कार्य हो जाते हैं, ऐसे कार्य यज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए जो भी प्राणी मात्र के परोपकारार्थ किया कार्य है यज्ञ ही कहलायेगा। और भी महर्षि दयानन्द इस यज्ञ को विस्तार पूर्वक समझाते हुए लिखते हैं। ‘‘……अर्थात् एक तो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्यन्त,दूसरा प्रकृति से लेके पृथिवी पर्य्यन्त जगत् का रचनरूप तथा शिल्पविद्या और तीसरा सत्सङ्ग आदि से जो विज्ञान और योग रूप यज्ञ हैं।’’ ऋ. भा. भू.। इस पूरे संसार में परमेश्वर द्वारा यज्ञ हो रहाहै परमेश्वर की व्यवस्था से सूर्य इस संसार का सदा शोधन कर रहा हे, चन्द्रमा औषधियों में रस को पैदा कर यज्ञ कर रहा है, ये सब संसार की व्यवस्था यज्ञ ही है। वैज्ञानिकों द्वारा शिल्प विद्या से नई-नई खोज कर हम मनुष्यों के सुखार्थ दी जा रही हैं यह महर्षि को दृष्टि से यज्ञ ही तो हैं। सत्संग से ज्ञान विज्ञान को बढ़ाना यज्ञ ही है, योग्यास से आत्मोत्थान करना यज्ञ ही है। ये कहना अयुक्त  न होगा कि सब श्रेष्ठ कार्य यज्ञ ही कहलाएंगे।

मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !

ओ३म्

मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !

जिस प्रकार प्राणों के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म (नैतिक आचरण) के बिना मनुष्य का भी कोई महत्त्व नहीं।

धर्म आचरण की वस्तु है।धर्म केवल प्रवचन और वाद-विवाद का विषय नहीं।केवल तर्क-वितर्क में उलझे रहना धार्मिक होने का लक्षण नहीं है।धार्मिक होने का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का धर्म पर कितना आचरण है। व्यक्ति जितना-जितना धर्म पर आचरण करता है उतना-उतना ही वह धार्मिक बनता है।’धृ धारणे’ से धर्म शब्द बनता है, जिसका अर्थ है धारण करना।

तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि के अनुसार ―
*धर्मं चर !*―(तै० प्रथमा वल्ली, ११ अनुवाक)

अर्थात् तू धर्म का आचरण कर !
इसमें धर्म का आचरण करने की बात कही गई है, धर्म पर तर्क-वितर्क और वाद-विवाद करने की बात नहीं कही गई ।

निर्व्यसनता नैतिकता को चमकाती है।आध्यात्मिकता सोने पर सुहागे का काम करती है।नैतिकता+निर्व्यसनता+आध्यात्मिकता का समन्वय ही वास्तव में मनुष्य को मनुष्य बनाता है।

धर्म मनुष्य में शिवत्व की स्थापना करना चाहता है।वह मनुष्य को पशुता के धरातल से ऊपर उठाकर मानवता की और ले जाता है और मानवता के ऊपर उठाकर उसे देवत्व की और ले-जाता है।यदि कोई व्यक्ति धार्मिक होने का दावा करता है और मनुष्यता और देवत्व उसके जीवन में नहीं आ पाते, तो समझिए कि वह धर्म का आचरण न करके धर्म का आडम्बर कर रहा है।

*मनु महाराज के अनुसार धर्म की महिमा*

वैदिक साहित्य में धर्म की बहुत महिमा बताई गई है।मनु महाराज ने लिखा है―

*नामुत्र हि सहायार्थं पितामाता च तिष्ठतः ।*
*न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।।*
―(मनु० ४/२३९)
*अर्थात्―*परलोक में माता, पिता, पुत्र, पत्नि और गोती (एक ही वंश का) मनुष्य की कोई सहायता नहीं करते।वहाँ पर केवल धर्म ही मनुष्य की सहायता करता है।

*एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते ।*
*एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।।*
―(मनु० ४/२४०)
*अर्थ―*जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है।अकेला ही पुण्य भोगता है और अकेला ही पाप भोगता है।

*एक एव सुह्रद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः ।*
*शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ।।*
―(मनु० ८/१७)
*अर्थ―*धर्म ही एक मित्र है जो मरने पर भी आत्मा के साथ जाता है; अन्य सब पदार्थ शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।

*मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।*
*विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ।।*
―(मनु० ४/२४१)
*अर्थ―*सम्बन्धी मृतक के शरीर को लकड़ी और ढेले के समान भूमि पर फेंककर विमुख होकर चले जाते हैं, केवल धर्म ही आत्मा के साथ जाता है।

*धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम् ।*
*परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम् ।।*
―(मनु० ४/२४३)
*अर्थ―*जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है, जिसका धर्म के अनुष्ठान से पाप दूर हो गया है, उसे प्रकाशस्वरुप और आकाश जिसका शरीरवत् है, उस परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।

धर्म के आचरण पर मनु महाराज ने बहुत बल दिया है―
*अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् ।*
*हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते ।।*
―(मनु० ४/१७०)
*अर्थ―*जो अधर्मी, अनृतभाषी, अपवित्र व अनुचित रीत्योपार्जक तथा हिंसक है, वह इस लोक में सुख नहीं पाता।

*न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।*
*अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम् ।।*
―(मनु० ४/१७१)
*अर्थ―*धर्माचरण में कष्ट झेलकर भी अधर्म की इच्छा न करे, क्योंकि अधार्मिकों की धन-सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट होती देखी जाती है।

*नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव ।*
*शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ।।*
―(मनु० ४/१७२)
*अर्थ―*संसार में अधर्म शीघ्र ही फल नहीं देता, जैसे पृथिवी बीज बोने पर तुरन्त फल नहीं देती।वह अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता की जड़ों तक को काट देता है।

*अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।*
*ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।।*
―(मनु० ४/१७४)
*अर्थ―*अधर्मी प्रथम तो अधर्म के कारण उन्नत होता है और कल्याण-ही-कल्याण पाता है, तदन्नतर शत्रु-विजयी होता है और समूल नष्ट हो जाता है।

*धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।*
*तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।*
―(मनु० ८/१५)
*अर्थ―*मारा हुआ धर्म मनुष्य का नाश करता है और रक्षा किया हुआ धर्म मनुष्य की रक्षा करता है।इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, ऐसा न हो कि कहीं मारा हुआ धर्म हमें ही मार दे !

*वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।*
*वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ।।*
―(मनु० ८/१६)
*अर्थ―*ऐश्वर्यवान् धर्म सुखों की वर्षा करने वाला होता है।जो कोई उसका लोप करता है, देव उसे नीच कहते हैं, इसलिए मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए।

*चला लक्ष्मीश्चला प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् ।*
*चलाचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।*

*अर्थ―*धन, प्राण, जीवन और यौवन―ये सब चलायमान हैं। इस चलायमान संसार में केवल एक धर्म ही निश्चल है।

प्रश्न उठता है कि जिस धर्म की इतनी महिमा कही गई है, वह धर्म क्या है ? इस सन्दर्भ में मनु महाराज का श्लोक ध्यान देने योग्य है―

*धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।*
*धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।*
―(मनु० ६/९२)
*अर्थ―*धीरज, हानि पहुँचाने वाले से प्रतिकार न लेना, मन को विषयों से रोकना, चोरी न करना, मन को राग-द्वेष से परे रखना, इन्द्रियों को बुरे कामों से बचाना, मादक द्रव्य का सेवन न करके बुद्धि को पवित्र रखना, ज्ञान की प्राप्ति, सत्य बोलना और क्रोध न करना―ये धर्म के दस लक्षण हैं।

भूपेश  आर्य

कुरान समीक्षा : ईसाई काफिर हैं

ईसाई काफिर हैं

खुदाई किताब ‘‘इन्जील’’के हुक्म का पालन करने वाले काफिर हैं या किताब ‘‘कुरान’’ को मानने वाले काफिर हैं? जबकि कुरान ने दोनों किताबें खुदाई मानी हैं।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

ल-कद् क-फ-रल्लजी-न कालू………….।।

(कुरान मजीद पारा ६ सूरा मायदा रूकू ३ आयत १७)

जो लोग मरियम के बेटे मसीह को खुदा का बेटा कहते हैं, वे बेशक काफिर हैं……।।

समीक्षा

इंजील के अनुसार ‘‘मसीह खुदा का बेटा था’’ कुरान के अनुसार इंजील मानने वाले ‘‘काफिर’’ हैं। दोनों खुदाई किताबों अर्थात् इंजील व कुरान में से कौन सी झूठी है?

परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

स्वामी जी को विष दिये जाने के पश्चात् जोधपुर में मृत्यु से जूझ रहे स्वामी दयानन्द की इस स्थिति की जानकारी उस राज्य से बाहर नहीं आई थी। आर्य समाज अजमेर के सदस्य और महर्षि दयानन्द के अनन्याक्त श्री ज्येष्ठमल सोढ़ा पहले व्यक्ति थे, जो जोधपुर में रुग्ण हो गये स्वामी जी महाराज से मिले थे और उनकी भयंकर अस्वस्थता की सूचना आर्य जनता को दी थी। प्रस्तुत काव्यमय बधाई उन्हीं की रचना है।                          – सपादक

अहो आज आनन्द बधाई।

विद्वज्जन एकत्र होइ कर, परोपकारिणी सभा बनाई।।1।।

श्रीमत् परमहंस परिव्राजक, स्वामी दयानन्द कृत हित आई।।2।।

कोउ स्वयं धरि परिश्रम आपए कोउ देते प्रतिनिधि पहुँचाई।।3।।

तन मन धन अपनो सरवस तेहि, स्वामि दियो तिनको संभलाई।।4।।

वे हि प्रण नियम निवाहन के हित, निज-निज समति देत जनाई।।5।।

समझि महान् लाा या जग में, विद्या वृद्धि करें एकताई।। 6।।

श्रीमद्दयानन्द आश्रम कहि, पढ़न काज चटशाल खुलाई।।7।।

बालक पढ़ें चतुर वर्णों के, प्रबन्धयुत प्रारभ पढ़ाई।।8।।

आर्यसमाजें और भद्रजन, परोपकारिणी करत सहाई।।10।।

सुनहु मित्र अजमेर नगर के, डगर द्वार लिख-लिख चिपकाई।।11।।

श्रोताओं को देत निमंत्रण, आर्य्यसमाज हृदय हुलसाई।।12।।

विज्ञापन छपवाइ मनोहर, देइं भद्र प्रतिदिवस बँटाई।।13।।

सत उपदेशन के जो ग्राहक, सुनउ आइ इत नित चितलाई।।14।।

कोऊ तो भाषत देशोन्नति को, कोउ कह आप्त धर्म दरसाई।।15।।

काहू के मन देश का दुखड़ा, कह पुकार दोउ भुजा उठाई।।16।।

कोउ विद्या इतिहास बड़न के, पुरुषारथ को दे जताई।।17।।

कोउ योग, कोउ तत्त्व व्याकरण, ब्रह्मदेश की करत बड़ाई।।18।।

क ोउ ज्योतिष, कोउ शिल्पकृषि, कोउ गोरक्षा हित देत दुहाई।।19।।

अहो भ्रातृगण सुनउ श्रवण कर, बार-बार मनु-तन नहीं पाई।।20।।

विद्यारसिको ओ धनाढयो, अजहू किमि सोवत अलसाई।।21।।

बनो सहाई दीर्घ दृष्टि दे, तुमरि सन्तति हेतु भलाई।।22।।

यामें जो कुछ संशय होवे, शंका किमि नहीं लेउ मिटाई।।23।।

तुम हित वेद भाष्य किय स्वामी, धन-धन दयानन्द ऋषिराई।।24।।

सार गहो जे आर्य्य ग्रन्थ हैं, तजहू परस्पर कलह लड़ाई।।25।।

सुफल जन्म कसि करहू न अपनो धृक वे जन नहीं तजत ढिठाई।।26।।

उत्तम पुरुष वही जग मांही, परमारथ हित सुमति उपाई।।27।।

कहत जेठमल दास सबन को, बना भजन यह दियो सुनाई।।28।।

तृतीय परोपकारिणी सभा

लखि कर करुणा भारत भू की, मिलि सज्जन सुमति प्रचार करें।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी, धन विद्या हेतु हुलास करें।।

 

कोउ आवत पूरब परिचम से, उत्तर दक्षिण से विद्वज्जन।

प्रतिनिधि बन पर उपकारिणी के, जु सभा जुर सय करें स्थापन।

सतधर्म सनातन परिपाटी, जो सब मनुजन की सुधवर्धन।

पुनि पाठन पठन प्रचारे षोडश, संस्कार को संशोधन।।

जगदीश्वर अब सबके मन की, बेगहि पूरण अभिलाष करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 1।।

 

श्री स्वामी दयानन्द स्वर्ग गए, जिनको है व्यतीत चतुर्थ बरस।

स्वीकार कियो निज तन मन धन, महद्राजसभा सन्मुख सरवस।।

मुद्रांकित कर गए इह विधि हो, पर स्वारथ हित व्यय रात दिवस।

विद्यालय हो दीनालय हो, वेदादि पढ़ायं प्रचार सुयश।।

तईस पुरुष दस द्वै मासों, में नियम प्रत्येक विकाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन घड़ी धन विद्या.।। 2।।

उत्साह बढ़ाय सदा आवत, श्रद्धायुत द्रव्य प्रदान करें।

कोउ भूमि देई अति हर्ष-हर्ष, उत्तेजित कार्य्य महान् करें।।

जित देखो उत वेदध्वनि है, नव-नव व्यायान बखान करें।

प्रफुलित सब आरज पुरुष हिये, देशोन्नति के गुनगान करें।।

आनन्द दयानन्द आश्रम की, यह नीव थपी कैलाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी विद्या.।। 3।।

सिरमौर उदयपुर महाराणा भेजे कवि श्यामल, मोहन को।

यह भार लियो मुसदाधिपति अपने पर कार्य्य विलोकन को।।

शाहपुरेश बाग किये अर्पन धन-धन उनके उत्साहन को।

मोहन निज हाथन अस्थि धरी, स्वामी के कौल निबाहन को।।

उनतीस दिसबर (1887) चढ़तो दिन उपमा ये जेठू दास करे।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 4।।

 

दयानन्द-आश्रम

अब तो कछु या भारत कीदशा जगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।।

इक भये महात्मा सरस्वती प्रणधारी।

सारी आयू-पर्य्यन्त रहे ब्रह्मचारी।।

पढ़ वेद चर्तुदिशि विद्या-बेल पसारी।

लह धर्म सनातन देशाटन अनुहारी।।

लखि भारत को अति हीन मलीन भिखारी।

उपदेश यथावत दियो बेग विस्तारी।।

सुन लाखन जन तन मन धन बुद्धि संवारी।

दौड़ महाराज, आर्य्यकुल-कमल-दिवाकर,

मेदपाट, सिरमौर सज्जनसिंह, महाराणा निज निकट बुलाय।

मनुस्मृति, पढ़ी सब बिदुर प्रजागर ध्यान लगाय।।

वायोगी को कछु दरस्यो योग मंझारी।

महाराज, कह्यो मम जीतेजी जिमि संरक्षण हो,

मृत्यु व्यतीते है सर्वस तुमको अधिकार।

यही दक्षिणा, वेद विद्या का जहं तहं होय प्रचार।।

दोहा त्रयोविंशति भद्रजन हैं मुझको स्वीकार।

संस्कार मम देह को कीजो विधि अनुसार।।

चौपाईअगर तगर कर्पूर मंगइयो, वेदी रच कर यज्ञ करैयो।

गाड़ियो न जल मांहि बहइयो, ना कहुं कानन में फिकवैयो।।

छंदचार मन घृत मँगाकर पुनि तपा स्वच्छ छनाइयो,

चिता चन्दन पूरियो दो मन अवश्य हि लाइयो।

काष्ठ दश मन चुन जुगत से दग्ध तन करवाइयो,

वेदमन्त्रों की ऋचा उच्चारते मुख जाइयो।।

वा कर्म-क्रिया को सबकी रूचि उमगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 1।।

 

सुनियो अब भारतवर्ष दयानन्द को है,

जो परोपकारिणी सभा रची वह यह है।

महिमहेन्द्र फतेहसिंह उदय-सूर्य चमको है,

संरक्षण पद निज धीर वीर धारो है।।

उपसभापति पद मूलराज थरप्यो है,

कविराज मंत्री श्यामलदास बन्यो है।

इक द्वितीय मन्त्री को पद शेष रह्यो है,

दौड़- महाराज, पंडिया मोहनलालजी, विष्णुलालजी, मथुरावासी,

उपमन्त्री पद हृदय लगाय।

धारण कीन्हों, कार्य्यवाही करते नित प्रेम बढ़ाय।

अष्टादश मुय सभासद सुन्दर सोहें,

महाराजाधिराजा नाहरसिंह शाहपुराधीश,

अजमेर बगीचो, दियो आश्रम हेत चढ़ाय।

ताम्रपत्रिका सुघड़ बनवाय, करी अर्पण लिखवाय।।

दोहाअजयमेरु उत्तर दिशा अन्नासागर पाल।

या सम बड़ी न भूमिका घाट-भूमि को थाल।।

चौपाई–  धन्य धरनि सरबर बड़भागी,

धन्य क्षेत्र पुष्कर अनुरागी।।

काय दयानन्द स्वामी त्यागी,

पुनः नींव आश्रम की लागी।।

छंद मध्य भू खुदवा गढ़ा अनुमान ले इक ताल को,

कर दियो प्रारभ कछु दरसा पुरातन चाल को।

अस्थि लेकर मसूदापति सौंप मोहनलाल को,

इक रुदन दूजो हर्ष है वरनूं कहा या हाल को।।

उस महर्षि की मानसी अग्नि सुलगी है,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 2।।

प्रतिवर्ष सभा जुड़ आ इत सुमति उपावे,

कोइ प्रतिनिधि युत अपनो सन्देश भिजावे।

रावत अंसीद अर्जुनसिंह वर्मा आव,

वेदला ततसिंह राव राय पहुँचावे।।

महाराजा श्री गजसिंह विचार प्रगटावे,

श्रीमान् राव श्री बहादुरसिंह हरखावे।

स्वामी हित पूर्ण प्रेम प्रीति दरसावे,

दौड़ महाराज नृपति महाराणाजी श्री फतेहसिंह जी देलवाड़ा,

लिखो नाम मैं देऊं गिनाय,

सुपरिन्टेन्डेट, सु पंडित सुन्दरलाल विचार जनाय।

जयकृष्णदास जी.सी.एस.आई. बतलावे,

महाराज, कलेक्टर डिप्टी जो बिजनौर,

और लाहौर के सांईदास कहाय।

जगन्नाथजी फर्रुखाबादी दुर्गासहाय आय।।

दोहाकमसरियेट गुमाश्ता छेदीलाल मुरार,

सेठ जु निर्भयरामजी कालीचरण उचार।

चौपाई राव गुपाल देशमुख मेबर,

महादेव गोविन्द जज्जवर।

दाना माधवदास अकलवर,

पण्डित श्यामकृष्ण प्रोफेसर।।

छंद सभासद ऊपर कहे है, सभा  परउपकारिणी।

वैदिक सुशिक्षा दे बनी है, अवश्य देश सुधारणी,

आर्यवर्त अनाथ दीनों के जो कष्ट निवारिणी।।

दयानन्द की भक्त बन स्वीकार प्रति विस्तारिणी,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 3।।

स्वीकार पत्र के वचन सभा बरतावे

यदि उचित होय तो नियम घटाय बढ़ावे।।

समतिसब आर्य्यसमाजों से मँगवावे

सभव हो सो कर पृथक् और ठहरावे।।

वैदिक-यंत्रालय को हिसाब अजमावे

श्रद्धायुत चन्दा निज-निज करन चढ़ावे।।

त्रय सभासदों से अधिक न घटने पावे।

दौड़ महाराज जहाँ लगि उनके पद पर सय भद्रजन,

धर्मध्वजी वा आर्यपुरुष कोई नियत न थाय।

पक्षपात तज अधिक पक्षानुसार बहु रचें उपाय।।

श्री सभापति की समति द्विगुण मिलावे।

महाराज त्याग सब विरोध जो कुछ झगड़ा,

टंटा उपजे बाको आपस में लेवें निबटाय।

न्यायालय की हो सके तहाँ तलक नहीं गहें सहाय।।

दोहा स्वामी दयानन्द लिख गये अन्त समय यह पत्र।

तेहि प्रण पूरण करन हित सभा होइ एकत्र।।

चौपाईधन्य दयानन्द श्रुति पथ चीन्हो,

भारत हित तन मन धन दीन्हो।

धन दृष्टान्त कह्यो सो कीनो,

मन वच काय सुयश जग लीन्हो।।

छन्दअजमेर केसरगंज में चटसाल यह बनवायगी,

राज-भाषा संस्कृत जिसमें पढ़ाई जायगी।

करहु चंदा सकल जन मिलि लाभ यह पहुँचायेगी,

विदेशन विद्या गई जो बहुरि घर क ो आयगी।।

इक धर्म वृद्धि कहे जेठू सदा सगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 4।।

चेतावनी

बिन कारण वैर अरु निंदा को, मत कीजिये सज्जन आपस में,

अभिमान तजो सन्मान लहो, कछु ज्ञान विचारो अंतस में,

जंह-तंह रहो प्रीति बढ़ा करके, मन धरिये धीरज अरु जस में,

यह अर्ज करे सोढा जेठू, मद लोभ, क्रोध रखिये बस में।।

सद्गुरु की महिमा

सद्गुरु की वाणी, अमृत रस का प्याला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।

पहचान उसे जो तुझ को चेताता है।

जैसा जो कुछ तूं करे वो भुगताता है।।

लखि रचना क्यों कर्ता को विसराता है।

अज्ञान नास्तिक कैसे कहलाता है।।

वह अन्तर्यामी घट-घट का रखवाला। पी प्रेम.।।1।।

गुरु ऐसा कर जो सदा रहे ब्रह्मचारी।

उपदेश करे जैसा वो बर्त्ते सारी।।

विद्या वृद्धि हित करे तपस्या भारी।

दे सत्या-सत्य जताय भक्त हितकारी।।

कण्ठित हो चतुरवेद मन्त्रों की माला। पी प्रेम.।।2।।

गुरु प्रथम निरंजन, प्रणाम बारबारा।

प्रणवूं पुनि ब्रह्म ऋषिन वच सुपथ संवारा।।

वेदानुकूल आचरण सभी को प्यारा।

जो यथायुक्त धारे वह गुरु हमारा।।

दे खोल हृदय के अन्धकार का ताला। पी प्रेम.।।3।।

गुरु मात पिता, आचार्य्य अतिथि कहलावे।

गुरु परोपकार हित अपनी देह तपावे।।

गुरु दयानन्द सा बीड़ा कौन उठावे।

को वेद भाष्य की घर-घर कथा सुनावे।।

यों कहें नमस्ते जेठू भोला भाला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।4।।