हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों

ओउम
हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों
डा. अशोक आर्य
विशव में वही विजयी होते हैं ,जिनके पास अपार मनोबल हो ,जिससे वह असाध्य कार्य को भी बड़ी सरलता से कर सकें | विशव में वही सेनायें विजयी होती हैं , जिनके पासा अत्याधुनिक शस्त्र हों तथा विश्व में वही लोगविजयी होते हैं , वही देश विजयी होते हैं, वही सेनायें विजयी होती हैं, जिनके पास देवीय कृपा हो , देवताओं का आशीर्वाद हो | जिन देशों, जिन सेनाओं का मनोबल गिरा हुआ है , मायूस से हैं , उनको कभी विजय नहीं मिल सकती , जिस देश की सेनाओं के पास अत्याधुनिक तकनीक के शास्त्र नहीं हैं ,वह सेनायें भी युद्ध क्षेत्र में सदा भयभीत सी रहती हैं , उनका मनोबल गिरा सा होता है, इस कारण ऐसी सेनायें तो निराश सी, हताश सी हो कर युद्ध क्षेत्र में उतरती हैं , ऐसी सेनायें विजेता नहीं हो सकतीं तथा कर्म हीन सेनाओं के साथ देवता भी नहीं होते, इस कारण उन्हें देवताओं का आशीर्वाद भी नहीं होता, अत: वह भी विजयी नहीं होती | वेदों में ऐसे अनेक मन्त्र दिए हैं , जो हमें विजयी होने के साधन बताते हैं | जिन मन्त्रों के बताये मार्ग पर चलने से विजय निश्चित होती है | इस लिए विजयी होने के इच्छुक सैनिकों को वेद का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए तथा वेद में बताये विजय के उपायों को अवश्य ही अपनाना चाहिए | ऋग्वेद मन्त्र संख्या १०.१०३.११, अथर्व वेद मन्त्र संख्या १९.१३.११ यजुर्वेद मन्त्र संख्या १७.३ में विजय प्राप्त करने के बड़े सुन्दर साधन बताये गए हैं | मन्त्र इस प्रकार है : –
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्तु –
अस्मां उ देवा अवता हवेषु अस्माकं इंद्र; सम्रितेशु ध्वजेशु –
अस्माकं या इश्वस्ता | जयन्तु || ऋग.१०.१०३.११,अथर्व.१९.१३.११ ,यजु. १७.४३ ||
शब्दार्थ : –
(द्वजेषु) शत्रु सेनाओं के ध्वजों के (सम्रितेशु) एकत्र होने पर (इंद ) परमात्मा (अस्माकं रक्षिता भवतु) हमारा रक्षक हो (अस्माकं ) हमारे (या) जो (इशवा) बाण हैं ( ता:) वे (जयन्तु) विजयी हों (अस्माकं) हमारे (वीरा) वीर (उत्तरे) विजयी (भवन्तु) हों (उ) और (हे देवा:) हे देवो ! (हवेषु) आह्वान पर अथवा संग्रामों मैं (आस्मां) हमे (आवत:) रक्षा करो |
भावार्थ : –
शत्रु सेनाओं के ध्वजों के उद्यत होने पर परमात्मा हमारा रक्षक हो | हमारे बाण विजयी हों | हमारी सेनायें (वीर) सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हों | हे देवो ! हमारी पुकार पर तुम युद्धों में हमारी रक्षा करो |
इस मन्त्र में युद्ध सम्बन्धी तीन बातों की और ध्यान आकृष्ट किया गया है | ये तीन वातें हैं :-
(१)हमारी सेना के बाण ( शस्त्र ) शक्तिशाली, आधुनिक प्राद्योगिकी से भरपूर तथा विजेता हों :-
मन्त्र हमारा मार्ग दर्शन करते हुए बताता है कि हमारी सेनायें उच्चकोटि के शस्त्रों से सुसज्जित हो | आज शस्त्र प्रणाली विश्व में अति उत्तम, अति विकसित हो गयी है | वह समय गया, जब हम तीर, तलवार, गदा, लाठी, भाले या मुक्कों से युद्ध करते थे | युद्ध करते करते महीनों ही नहीं वर्षों बिताने पर भी कोई परिणाम सामने नहीं आता था | आज विज्ञान ने प्रत्येक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है | यही कारण है कि विश्व में अत्याधूनिक तकनीक के स्वामी अमरीका जैसे देश नहीं चाहते कि विश्व का कोई देश उनके समकक्ष बनकर उसे चुनौती दे , इसलिए उन्होंने युद्ध सामग्री की नवीनतम तकनीक पर एकाधिकार स्थापित रखने के लिए एक संगठन बना रखा है तथा एसा प्रयास करते रहते हैं कि कोई भी देश इस प्रकार के कार्य को अपने हाथ में न ले, यदि कोई इस पर कार्य करता है तो उसे परेशान करते हैं, ताकि वह इस कार्य से अपना हाथ हटा ले | इस बात को ही इस मन्त्र ने स्पष्ट किया है कि हमारी सेनाओं के पास उच्च तकनीक के नवीनतम शस्त्र हों | जिस सेना के पास जितने उच्च तकनीक के अत्याधुनिक शस्त्र होंगे ,वह उतनी ही सरलता से शत्रु को विजय करने का सामर्थ्य रखती है | अत: उच्च तकनीक से युक्त शस्त्रों से सुसज्जित सेनायें शत्रु पर शीघ्र ही विजयी होंगी | इस के लिए न केवल उच्चकोटि के शस्त्र ही चाहियें अपितु उन शस्त्रों को प्रयोग करने की तकनीक का भी महीन ज्ञान हमारे सैनिकों को होना आवश्यक है | अन्यथा उत्तम शस्त्र होने के पश्चात भी विजय हाथ नहीं लगेगी | कोई व्यक्ति हाथ में बन्दूक लिए है किन्तु उसे चलाना नहीं जानता तो वह उस बन्दुक का क्या करेगा ? जब कोई गुंडा उसे परेशान करेगा तो वह कैसे उसका प्रतिशोध लेगा | हो सकता है कि सामने का निहत्था व्यक्ति उसकी ही बन्दुक छीन कर उस पर उसी से ही गोली दाग दे | इससे स्पष्ट होता है कि विजय पाने के लिए अच्छे शस्त्रों के साथ ही साथ उनके प्रयोक्ता भी अच्छे ही होने चाहियें | विजय इन दोनों बातों पर ही निर्भर कराती है |
(२)युद्ध में हमारे वीर ( सैनिक सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हों : –
जिस देश के पास सैनिक सर्वोत्तम हैं , युद्ध भूमि में विजय उस देश को ही मिलती है | इन पंक्तियों से वेद मन्त्र ने हमारे वीर सैनिकों के लिए यह शिक्षा दी है कि वह युद्धभूमि में सर्वश्रेष्ठ हों | अब हम विचार करते हैं कि सर्वश्रेष्ठ कौन हो सकता | सेना में वह सेना ही सर्वश्रेष्ठ होती है , जिस की सैन्य शिक्षा अति उत्तम हो | अनुशासन भी सेना कीविजय का मुख्य आधार है | अनुशासन ही सेना की योग्यता का आधार है | यही सैनिक की योग्यता की कसौटी है | विश्व इस बात का साक्षी है कि जिस सेना में अनुशासन है वह सेना ही विजयी होती है | यदि सेना में अनुशासन नहीं है, अपने नेता का अनुगमन नहीं करती, सब सैनिक अपना अपना राग अलाप रहे हैं तो शत्रु के लिए विजय का मार्ग स्वयमेव ही प्रशस्त हो जाता है | अत: अनुशासन रहित सेना उत्तम शास्त्र रखते हुए भी विजय नहीं प्राप्त कर सकती | अत: विजय की कामना की पूर्ति के लिए सेना की सर्वश्रेष्ठता के लिए उस का उत्तम प्रशिक्षण तथा उसका अनुशासन बद्ध होना भी आवश्यक है |
(३)हमारे ऊपर देवों की ( प्रभु की) कृपा हो :-
परमपिता परमात्मा सदा उसके ही साथ रहता है , जो सत्य व न्याय के लिए कार्य करता है| जब एक सैनिक निष्पक्ष हो कर सत्य व न्याय का ध्यान रखते हुए युद्ध क्षेत्र में उतरता है तो परमपिता परमात्मा उसकेकरी में उसका सहायक होता है | उसके कार्य को सम्पन्न करने में उसका सहयोगी होता है | अन्यायी व असत्य पथ पर चलने वाले की परमात्मा भी कभी सहायक नहीं होता | तभी तो योगिराज क्रिशन ने कहा था की जहाँ धर्म है, में उसका ही साथ दूंगा क्योंकि जिधर धर्म होता है, विजय उधर ही होती है | इस तथ्य का आधार भी यह वेद मन्त्र ही है | अत: विजय के अभिलाषी सैनिक के लिए यह भी आवश्यक है की वह न्याय का साथ कभी न छोड़े तथा धर्म का आचरण करे | एसा करने पर वह निश्चय ही अपने आश्रयदाता को विजय दिलवाने में सफल होगा | विदुरनीति में भी इस तथ्य पर ही प्रकाश किया है | विदुर जी लिखते हैं कि : –
यतो धर्मस्ततो जय: | विदुरनीति ७.९
अर्थात जहाँ धर्म है , वहां विजय है | अत: विजय के अभिलाषी सैनिक के लिए यह आवश्यक है कि उसके पास अत्याधुनिक सहस्त्र हों, इन शास्त्रों का पोअर्चालन भी वह ठीक से जानता हो | उसकी सैन्य शिक्षा भी उत्त्तम हो तथा अनुसासन में रहे | सदा सत्य व न्याय का पक्ष ले तो इसी सेना विश्व कि महानतम सेना होगी तथा इसी सेना ही विजय श्री का आलिंगन करेगी | अत: एसा गुण सेना को धारण करना चाहिए |

डॉ. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : कुरान में सूद खाना पाप है

कुरान में सूद खाना पाप है

जब खुदा कर्ज लेकर कुरान में दुगना देने (शत प्रतिशत सूद देने) का वायदा करता है तो सूद खाना या देना हराम कैसे होगा?

देखिये कुरान में कहा यह है कि-

अल्लजी-न अय्कुलूनर्रिबा ला………..।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू ३८ आयत २७५)

जो लोग सूद खाते हैं (कयामत के दिन) खड़े नहीं हो सकेंगे। और वे हमेशा दोजख में जलते रहेंगे।

समीक्षा

सूद खाना यदि हराम है तो दुनियां के इस्लामी मुल्कों के बैंकों व डाकखानों में सूद लिया और दिया जाता है, क्या वे सरकारें और उनमें धन जमा करने वाले मुसलमान सभी दोजख में डाले जावेंगे?

पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – साहित्यिक जीवन की यात्रा

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम साहित्यिक जीवन की यात्रा

लेखक राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

प्रकाशक वेद प्रचारिणी सभा, चामधेड़ा, डा. वेरी, महेन्द्रगढ़, हरियाणा।

पृष्ठ 240    मूल्य – 200/- रु. मात्र

जीवन-यात्रा तो सभी प्राणी कर रहे हैं, किन्तु यह जीवन की यात्रा मनुष्य अपने ढंग से करता है। मनुष्य से इतर प्राणियों की जीवन-यात्रा को परमेश्वर ने निर्धारित कर रखा है। वे प्राणी अपनी यात्रा में कुछ विशेष नवीनता या परिवर्तन नहीं ला सकते, किन्तु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। मनुष्य अपनी यात्रा को विशेष भी बना सकता है, उसमें नवीनता, तीव्रता भी ला सकता है।

संसार में मनुष्य की जीवन यात्रा के अनेक रूप देखने को मिलते हैं कोई अपनी यात्रा को परोपकार करते हुए करता है तो कोई अपने स्थार्थ को सिद्ध करने में और परहानि में ही अपनी यात्रा करते हुए जीवन व्यर्थ कर देता है। कोई अपने में ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन को काट रहा होता है, ऐसा व्यक्ति न तो अपनी उन्नति करता है और न ही समाज की उन्नति करता है। ऐसे व्यक्ति की यात्रा भी व्यर्थ ही हो जाती है।

जीवन-यात्रा तो उसकी सफल व संतोषजनक होती है जो अपने जीवन को ठीक रखते हुए समाज को बहुत कुछ देता रहता है। जीवन की यात्रा करते हुए कोई देश की रक्षा में सहयोग करता है, कोई वैज्ञानिक बनकर मनुष्यों के लिए विशेष साधनों को उपलध करवा देता है, कोई चिकित्सक बनकर सेवा करता है, इसी प्रकार अन्य-अन्य कार्य करके व्यक्ति समाज की सेवा करता हुआ अपनी यात्रा को सफल बना रहा होता है। संसार के विभिन्न लोकोपकारक कार्य में एक कार्य ‘‘साहित्य सृजन’’ का भी है। जो व्यक्ति संसार को जितना उपयोगी साहित्य देता है, वह व्यक्ति उतना ही अपनी जीवन-यात्रा को परिष्कृत कर लेता है।

आर्य जगत् में साहित्य सृजन करने वाले, वह भी मौलिक साहित्य का सृजन करने वाले पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जैसे योग्य विद्वान् अनेक हुए हैं। आज आर्य समाज को सबसे अधिक साहित्य को देने वाले साहित्य रचनाकार पं. गंगाप्रसाद उपाध्यायजी के मानस पुत्र आर्य समाज के इतिहास के रक्षक, ऋषि व आर्य समाज के प्रति जीवन समर्पित व्यक्ति, लेखनी व विचारों के धनी, आर्य समाज के पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ भाव रखने वाले, जिनकी लेखनी आज भी ऋषि दयानन्द और आर्य समाज के लिए समर्पित है, जिनकी तड़प-झड़प आर्यों को नई जानकारी व उत्साह देने वाली है-ऐसे साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’ हैं। मान्यवर जिज्ञासु जी ने पूरा जीवन साहित्य रचने में लगाया है। अपने इस साहित्यिक जीवन की जानकारी सभी पाठक पा सकें-इसके लिए एक नई पुस्तक लिख डाली, जिसका नाम ही ‘‘साहित्यिक जीवन की यात्रा’’ है। इस पुस्तक में मुखय रूप से लेखक ने अपने साहित्यिक जीवन को दर्शाया है। पुस्तक को पढ़ने पर पाठक अनुभव करेंगे कि लेखक ने अपना जीवन कैसे लेखनी कोसमर्पित किया। बाल्यकाल से लिखना आरमभ कर आज पर्यन्त लिख रहे हैं। पाठक पुस्तक पढ़कर लेखक पर गर्व करेंगे कि लेखक की लेखनी किसी प्रलोभन वा किसी के दबाव में आकर बिकी नहीं। लेखनी सत्य ही लिखती चली गई, विशुद्ध इतिहास की सुरक्षा करती चली गई।

आज वर्तमान में बिकाऊ लेखक बहुत मिल जाते हैं। ऐसे बिकाऊ लेखक साहित्य में सत्य का गला घोटने वाले होते हैं, और ऐसे बिकाऊ लेखकों ने गला घोंटा भी है, किन्तु मान्यवर राजेन्द्र जिज्ञासु जी प्रलोभन से परे होकर सत्य की रक्षा करते रहे हैं। पुस्तक से पाठक जिज्ञासु जी के इस जीवन का दर्शन करेंगे। इतिहास का प्रदूषण हुआ, योजना बद्ध रीति से किया गया उस प्रदूषण का कैसे भण्डाफोड़ लेखक ने किया और यथार्थ में क्या था, यह जानकारी इस जीवन-यात्रा पुस्तक में मिलेगी।

जब ऋषि दयानन्द को विष देने वाली बात को षड्यन्त्र पूर्वक झूठलाने की योजना बनी, तब लेखक ने अनेक प्रमाण पूर्वक लेख लिखे, विद्वानों के प्रमाण उन्हीं के लेखों से खोज-खोजकर सत्य को प्रतिपादित किया, जिससे इतिहास प्रदूषकों की बोलती बंद हुई, यह विस्तार पूर्वक पाठक इस पुस्तक से प्राप्त करेंगे। लेखक ने इस साहित्यिक यात्रा में कितना अपना धन, बल व अमूल्य समय लगाया है, साहित्य सृजन के लिए कहाँ-कहाँ गये, कितने कष्ट उठाते हुए भी ऋषि की धुन में उनको कष्ट माना ही नहीं-यह जानकारी पुस्तक देगी। मुझे लगता है कि मैं पुस्तक परिचय कराते हुए अधिक विस्तार की ओर चला गया। अब यहाँ पुस्तक को क्यों पढ़ें-वे कुछ बिन्दु यहाँ दे रहा हूँ कि वे बिन्दु स्वयं लेखक ने लिखे हैं-

  1. आर्य सामाजिक साहित्य के इतिहास में यह अपने विषय की पहली पुस्तक है। एक बार आरमभ करने पर इसे समाप्त करके ही पाठक इसे छोड़ेगा। इसकी रोचकता की साक्षी पाठक का हृदय देगा।
  2. सार्वजनिक जीवन के सत्तर वर्षों को लेखक ने अपने गुणी विद्वानों से बहुत कुछ सीखा है। ऐसे सब संन्यासी, महात्माओं, विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, लेखकों, गवेषकों तथा अपने पाठकों को भी लेखक अपना निर्माता मानकर उनसे सीखने के छोटे-छोटे प्रेरक प्रसंगों की माला पिरोकर पाठकों को विनम्रता से भेंट कर रहा है। नई पीढ़ी इसके पारायण से बहुत कुछ सीख सकती है।
  3. सभवतः किसी साहित्यकार ने प्रथम बार अपने इतने निर्माताओं के प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन किया है।
  4. इस समय आर्य जगत् में ऐसा दूसरा व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा, जिसको बहुत छोटी आयु में बड़े-बड़े महापुरुषों, बलिदानियों, ज्ञानियों के चरणों में बैठकर कुछ सीखने व आशीर्वाद पाने का सौभाग्य प्राप्त रहा हो। पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के इतने विद्वानों के सपर्क में और कौन आया? इतने नाम और कौन गिना सकता है? उनके छोटे बड़े रोचक प्रसंग इस पुस्तक की विशेषता हैं।
  5. नई-नई खोज करने, अलय स्रोतों की खोज में मन में मौज आयी, झोला उठाकर यात्रा को लेखक चल पड़ा। किसी को चिट्ठी-पत्री का, मार्ग-व्यय का कभी कोई बिल नहीं दिया।
  6. स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने अपने देहत्याग से पूर्व जो पाँच-दस मिनट का उपदेश-आदेश दिया, लेखक उसे महाराज का अन्तिम दीक्षान्त भाषण घोषित करता है। स्वामी जी के इस संक्षिप्त दीक्षान्त भाषण का हृदयस्पर्शी वर्णन इस पुस्तक का अनूठा संदेश है।
  7. कुछ करने व बनने की जिनमें चाह है, उत्साह है, वे उसे अवश्य पढ़े।

दस परिच्छेदों में विभक्त यह पुस्तक लेखक के साहित्यिक जीवन यात्रा का वर्णन करने में अपने अन्दर एक खजाना लिए हुए है। दसवें परिच्छेद में पाठक कुछ विशेष पत्रों को पढ़ेंगे, जिन पत्रों से पाठकों को नये रहस्यों का पता चलेगा। दृढ़ बन्धन, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक पाठकों का ज्ञान वर्धन करेगी। आर्य समाजें, गुरुकुल व आर्य भद्रपुरुष इस पुस्तक विशेष को प्राप्त कर लेखक के साहित्यिक जीवन का अवश्य परिचय प्राप्त करेंगे-इसी आशा के साथ-

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर।

 

संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है

संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है
डा. अशोक आर्य

इस सृष्टी का प्रत्येक व्यक्ति ही नहीं अपितु प्रत्येक जीव दीर्घ आयु की कामना करता है
| वह चाहता है कि कभी उसकी मृत्यु हो ही नहीं | विगत लेख में ऋग्वेद के मन्त्र संख्या १०.१८.२ तथा
अथर्व वेद के मन्त्र संख्या १२.२.३० के माध्यम से हमने बताया था कि मृत्यु पर विजय पाने के लिए
आवश्यक है कि म्रत्यु से भय न हो , यज्ञ आदि कर्मों से दीर्घ आयु के साधन जुटावें, धन धन्य से भरपूर
हों अर्थात समृद्ध हों तथा पवित्र हों | इन साधनों से संपन्न होने पर मृत्यु का भय चला जाता है तथा व्यक्ति प्रोपकारमय जीवन अपनाते हुए व प्रसन्नचित रहते हुए लम्बी आयु प्राप्त करता है | अथर्ववेद में भी म्रत्यु से निर्भय होने की प्रेरणा देते हुए इस प्रकार कहा है : –

मृत्योरहं ब्रह्मचारी यदास्मी
निर्याचन भूतात पुरुषं यमाय |
तमहं ब्रह्मणा तपसा श्रमेण –
अनायेनं मेखालाया सिनामी || अथर्ववेद ९.१३३.३ ||

मै म्रत्यु के लिए समर्पित ब्रह्मचारी हूँ , इस नाते मैं उपस्थित लोगों में से एक व्यक्ति को यम अर्थात संयम के लिए मांगता हूँ | मैं उसे ज्ञान , तप व परिश्रम के लिए, पुरुषार्थ के लिए इस मेखला से बांधता हूँ |

मेखला बंधन का ब्रह्मचारी के लिए विशेष महत्त्व होता है | इस मन्त्र में इस मेखला के बंधन के महत्त्व का वर्णन किया गया है | यह मेखला एक पतली सी रस्सी होती है , जो करधनी , तगड़ी अथवा धागे आदि से बनी होती है | जिस समय गुरुकुल के ब्रह्मचारी की अथवा गृह पर ही ब्रह्मचारी बालक को यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है , उस समय ही यह मेखला भी कटी स्थल पर पहनाई जाती है | यह कटिबद्धता का प्रतीक है | इस का भाव है कि आज से बालक ने जो वेद अध्ययन
का , शिक्षा प्राप्ति का जो संकल्प लिया है, उसकी पूर्णता के लिए वह बालक कटिबद्ध हो कर जुटा रहेगा
,तब तक जुटा रहेगा, जब तक कि वह पूर्ण निपुणता प्राप्त नहीं कर लेता | इससे स्पष्ट होता है कि यह एक संकल्प है , जिसे पूरा करने की स्मृति यह मेखला प्रत्येक क्षण उस ब्रह्मचारी को करवाती रहती
है| जिस के भी यह मेखला पहनी हुयी दिखाई देती है , आगंतुक तत्काल समझ जाता है कि यह बालक ब्रह्मचारी है , इस ने ज्ञान को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने का संकल्प लिया है , इस निमित यह कटिबद्ध है, कृत संकल्प है |

इस मन्त्र में इस मेखला को बांधने के चार लाभ बताये गए हैं | यथा : –

१. मृत्यु पर विजय : –
२. ज्ञान प्राप्त
३. साधना का अथवा ताप का अभ्यास
४. कठोर परिश्रम की आदत डालना

मृत्यु पर प्रत्येक व्यक्ति विजय पाने की आकांक्षा अपने ह्रदय में रखता है किन्तु वह जानता नहीं की इस पर विजय कैसे पाई जावे ? वह प्रतिदिन इस विजय को पाने के लिए अनेक उपाय करता है किन्तु वह ज्यों ज्यों प्रयास करता है त्यों त्यों ही एक मकड़जाल में फंसता ही चला जाता है , क्योंकि वह जो मृत्यु पर विजय पाने के उपाय करता है, वह उपाय वास्तव में मृत्यु को बस में करने के नहीं होते अपितु मृत्यु की और धकेलने वाले होते हैं | मन्त्र बताता है की मृत्यु पर विजय पाने के लिए संयम का होना आवश्यक है | जो संयमी नहीं , वह मृत्यु पर विजय नहीं पा सकता | तभी तो मन्त्र कहता है की ” मैं संयमी व्यक्ति हूँ | मुझे मृत्यु से लड़ना है | मुझे अपने प्राणों की चिंता नहीं | मुझे समाज में से ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है , जो इस निमित अपने प्राण दे सकें | ”

इस प्रकार मन्त्र कहता है कि संयमी व्यक्ति ही मृत्यु विजयी हो सकता है | समाज को चाहिए कि ऐसे संयमी व्यक्तियों की खोज करे , ऐसे संयमी व्यक्तियों का निर्माण करे , जो म्रत्यु से भय- भीत न हों अपितु मृत्यु के भय से रहित होकर सदा पुरुषार्थ में लगे रहें , ज्ञान उपार्जन में लगे रहें | प्रयास करेंगे , परिश्रम करेंगे तो सफलता तो मलेगी ही क्योंकि सफलता सदा उस का ही वर्ण करती है, जो पुरुषार्थ करता है | अत: जो व्यक्ति संयम के द्वारा अथवा संयम के दूसरे नाम ब्रह्मचर्य के द्वारा समर्पण की भावना से लगा रहता है , नियमों का पालन करता रहता है , तो ऐसे पुरुषार्थी के ह्रदय में कभी मृत्यु आदि दु:खों का भय नहीं रहता | उस में निर्भीकता की भावना अत्यंत बलवती हो जाती है |

वेद में प्रत्येक संकल्प के लिए अनेक प्रतीक बनाए हुए हैं , हमें सदा हमारे संकल्प का स्मरण कराते रहते हैं | ऐसे प्रतीकों में से मेखला भी एक प्रतीक है , एक चिन्ह है , जो हमें प्रतिक्षण स्मरण दिलाती है कि हम ने ज्ञानार्जन करना है | ज्ञानार्जन के लिए अपने जीवन को एक साधना में , एक
नियम में बांधना है तथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम करना है | यह मेखला इस सबके प्रतीक स्वरूप ही कटी – स्थान पर धारण की जाती है | मृत्यु पर विजय पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम ज्ञान में पूर्ण दक्ष हों , हमारा जीवन तप से भरपूर हो , हम निरंतर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ध्येय – पथ पर तत्पर रहे | एसा करने से ही मानव मृत्यु पर विजयी होता है तथा एसा विजेता ही प्रगति के पथ पर , सफलता के पथ पर अग्रसर रहता है | यदि यह गुण नहीं हैं तो वह मार्ग में ही

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कहीं भटक जाता है , म्रत्यु को प्राप्त हो जाता है | अत: मृत्यु पर विजय पाने के अभिलाषी को ब्रह्मचर्य की मेखला धारण कर कटिबद्ध हो दृढ संकल्पी हो ज्ञान प्राप्ति में जुटना होगा | यही एकमेव उसकी सफलता का मार्ग है, यही एकमेव मृत्यु विजयी होने का मार्ग है , अन्य कोई मार्ग नहीं |

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : कुरान मुहम्मद ने लिखा था

कुरान मुहम्मद ने लिखा था

इस आयत में कुरान सुनाने वाला दूसरा खुदा है या कुरान का लेखक मुहम्मद है यह स्पष्ट किया जावे। दूसरा खुदा कहां रहता है क्या करता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

तिल्-क आयातुल्लाहि नत्लू हा……..।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू ३३ आयत २५२)

यह अल्लाह की आयतें जो मैं तुमको सच्चाई से पढ़-पढ़कर सुनाता हूं और तुम बिना शक पैगम्बरों में से हो।

समीक्षा

कुरान का दावा है कि उसे बनाने वाला खुदा था, उस आयत में कुरान सुनाने वाला खुदा से दूसरा है जो कहता है कि मैं अल्लाह की आयतें सच्चाई से पढ़कर सुनाता हूं। कुरान दो खुदा मानता है, यह स्पष्ट है अथवा कुरान मुहम्मद ने लिखा था?

छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है

छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है

– आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री

महादार्शनिक महर्षि दयानन्द की यह स्थापना है कि प्रक्रिया का भेद होते हुए भी छः दर्शनों में परस्पर कोई भेद नहीं हैं। इनमें पूर्णतः समन्वय पाया जाता है। महर्षि की इस स्थापना का प्रचार तो आर्यसमाज करता रहा है, परन्तु इस दिशा में कार्य कुछ भी नहीं हुआ है। विपक्षियों ने जितना अधिक कार्य गत कई वर्षों में पूर्वपक्षीय सामग्री के प्रस्तुत करने में किया है, उसका न्यूनतम भाग भी अपनी तरफ से उत्तर देने में नहीं किया गया है। दो एक छोटी पुस्तकें षड्दर्शनों के समन्वय विषय को लेकर लिखी गईं, परन्तु उनके समन्वय की प्रक्रिया वा प्रकार ऋषि प्रदर्शित प्रकार से कुछ थोड़ा-सा भिन्न रहा, जबकि उनकी उपादेयता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। दर्शनों के समन्वय का सफल प्रकार यदि कोई हो सकता है तो ऋषि प्रदर्शित प्रकार ही हो सकता है, अतः इस विषय में आगे चलने से पूर्व ऋषि के प्रकार को यहाँ पर दिखलाना सर्वथा ही उचित है, क्योंकि वही इस मार्ग पर अग्रसर होने का परम और मौलिक आधार है। महर्षि ने पूर्व पक्ष उठा कर समाधान करते हुए दो स्थलों पर सत्यार्थ प्रकाश में इस पर प्रकाश डाला है। प्रथम स्थल सत्यार्थ प्रकाश का तृतीय समुल्लास है और द्वितीय स्थल इसी ग्रन्थ का अष्टम समुल्लास है। प्रथम स्थल का वर्णन सृष्टि-रचना प्रकरण की प्रस्तावना पर आधारित है, परन्तु समन्वय का जो सूत्र ऋषि ने दिया है, वह दोनों स्थलों पर सृष्टि प्रकरण के तर्क को लेकर ही है। महर्षि के वाक्य क्रमशः निम्न प्रकार हैंः-

(1) प्रश्न-जैसे सत्यासत्य और दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टि विषय में छः शास्त्रों का विरोध है-मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु योग पुरुषार्थ, सांय प्रकृति और वेदान्त ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है-क्या यह विरोध नहीं?

उत्तर-प्रथम तो बिना सांय और वेदान्त के दूसरे शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि विरोध किस स्थान में होता है-क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में?

(2)प्रश्न-एक विषय में अनेकों का विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं। यहाँ भी सृष्टि का ही विषय है।

उत्तरक्या विद्या एक है या दो? एक है। जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है, जैसा एक विद्या में अनेक विद्या के अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छः अवयवों का शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं हैं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग, वियोग आदि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुमहार कारण है, वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याखया मीमांसा में, समय की व्याखया वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याखया न्याय में, पुरुषार्थ की व्याखया योग में और तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याखया सांखय में तथा निमित्त कारण जो परमेश्वर है, उसकी व्याखया वेदान्त शास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यक शास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषधिदान और पथ्य प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छः कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याखया एक-एक शास्त्र ने की है, इसलिए इनमें कुछ विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याखया सृष्टि प्रकरण में करेंगे। (सत्यार्थ प्रकाश तीसरा समुल्लास।)

(3) प्रश्न- जो अविरोधी हैं तो मीमांसा में कर्म, वैशेषिक में काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांखय में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें?

उत्तरइनमें सब सच्चे हैं, कोई झूठा नहीं, परन्तु विरोध उसको कहते हैं कि एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होवे। छः शास्त्रों का अविरोध देखो, जो इस प्रकार है-मीमांसा में ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्म चेष्टा न की जाय, वैशेषिक में समय लगे बिना बने ही नहीं, न्याय में उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता, योग में विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता, सांखय में तत्त्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता और वेदान्त में बनाने वाला न बनावे तो कोई पदार्थ उत्पन्न न हो सके, इसलिए सृष्टि छः कारणों से बनती है।

इन छः कारणों की व्याया एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास)

यहाँ पर महर्षि के दोनों स्थलों का विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता हैः-

1- एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होने का नाम विरोध है, परन्तु दर्शनों में प्रक्रिया की भिन्नता होने पर भी ऐसा विरोध नहीं।

2- सृष्टि रचना का प्रसिद्ध वर्णन केवल सांखय और वेदान्त में हैं, शेष चार में प्रसिद्ध वर्णन न होकर प्रासंगिक वर्णन हैं। समन्वय करते समय सृष्टि के विषय को लेकर ही समन्वय करना चाहिए, क्योंकि पूर्व पक्ष इसका स्पर्श करते हुए ही उठाया जाता है।

3- दर्शन के मुखय विषय का तो इनमें विरोध है ही नहीं, सृष्टि की रचना के विषय में जो विरोध लोगों को दिखलाई पड़ता है, वह भी नहीं है।

4- छः दर्शन सृष्टि के छः कारणों की व्याखया करते हैं और वे हैं-कर्म, काल उपादान, पुरुषार्थ, तत्त्वों का परस्पर मेल (संयोग) और ब्रह्म अर्थात् निमित्तकारणभूत कर्त्ता।

यहाँ पर इन्हीं आधारों को दृष्टिपथ में रखते हुए छः दर्शनों में परस्पर विरोध है वा नहीं-इसका विचार किया जाता है। छः दर्शनों में एक विषय पर होने वाला परस्पर विरोध नहीं पाया जाता है। जहाँ कहीं पर ऐसा आभास मिलता है, जिस-जिस पर पूर्वपक्षी अपना विचार स्थापित करते हैं, उनका विचार यहाँ पर करना अपेक्षित है। वैशेषिक में द्रव्यगुण का पृथक् वर्णन है। द्रव्य वह है जो क्रिया वाला, गुण वाला अथवा समवायिकारण हो। गुण द्रव्य के आश्रय से रहता है, परन्तु गुण में गुण नहीं रहता। द्रव्य-द्रव्य का आरमभक है और गुण गुण का। केवल द्रव्य से गुण की उत्पत्ति नहीं और केवल गुण से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती।

परन्तु सांखय में सत्व, रजस् और तमस् को गुण कहा जाता है और इन तीनों की साखयावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति जब तीन गुणों की साखयावस्था का नाम है तो फिर गुणरूप होने से उससे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है, परन्तु सांखय में प्रकृति से उत्पन्न होने वाले पदार्थ द्रव्य भी हैं। यहाँ एक विषय में होने वाला विरोध नहीं तो फिर क्या है?

इसका समाधान यह है कि सांखय में सत्व्, रजस् और तमस् जिन तीन गुणों का वर्णन है, वे केवल गुण नहीं, बल्कि वैशेषिक के लक्षण वाले गुण और द्रव्य दोनों हैं, अतः प्रकृति सत्वरजस्तमो गुणों की द्रव्यभूत वस्तु है। उसके द्रव्य तत्त्व से द्रव्य और गुण से गुण का आरमभ होता है। गुण नाम रस्सी का है। पुरुष के बन्धन का हेतु बनने से उनमें गुण पद का व्यवहार होता है। वस्तुतः ये गुण और द्रव्य दोनों हैं। इस प्रकार वैशेषिक और सांखय का भेद नहीं। सांय में इन सत्व, रजस्, तमस् के भी लघुत्वादि धर्म माने गये हैं जो यह सिद्ध करते हैं1 कि ये गुणयुक्त द्रव्य हैं।

न्याय, वैशेषिक, वेदान्त और योग शास्त्र में परमेश्वर को जगत् का कर्त्ता एवं निमित्तकारण माना गया है, परन्तु सांखय में उसके अस्तित्व में ही प्रमाण का अभाव माना गया है तथा उसका कारणत्व अस्वीकृत किया गया है। इसका समाधान यह है कि सांखय सूत्रों में कहीं पर ईश्वर के होने का निषेध नहीं है। उसे केवल ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष का विषय नहीं माना गया है। सांखय में ईश्वर को सर्ववित् और सर्वकर्त्ता2 स्वीकार किया गया है। प्रकृति को उसके अधीन परतन्त्र माना गया है और समाधि, सुषुप्ति तथा मोक्ष में ब्रह्मरूपता3 को भी मन्तव्य रूप में दिखलाया गया है। सांखय दर्शन के पाँचवें अध्याय में जहाँ4 पर ईश्वर के कारणत्व का खंडन है, वहाँ पर केवल उसके उपादान कारणत्व का निषेध किया गया है, निमित्त कारणत्व का नहीं। कोई भी शास्त्र परमेश्वर को उपादान मानता ही नहीं, फिर विरोध का प्रश्न ही शेष नहीं रह सकता है।

सांखय दर्शन में कुछ ऐसे सूत्र मिलते हैं, जिनसे यह आभास मिलता है कि न्याय और वैशेषिक का उनमें खण्डन किया गया है। उदाहरण के रूप में सांखय दर्शन के पाँचवें अध्याय के 85 वें सूत्र से 90 वें सूत्रों तक को तथा 99 सूत्र को लिया जा सकता है। इनमें क्रमशः पदार्थषट्कत्व, पदार्थषोडशकत्व, अणुनित्यता, परिमाण के चातुर्विध्य और समवाय आदि का खण्डन नहीं, खण्डनाभास मालूम पड़ता है। सांखय में षट् पदार्थ और षोडशपदार्थ की प्रक्रिया एवं सिद्धान्त का खण्डन नहीं है, बल्कि षट्पदार्थ और षोडशपदार्थ के ही ज्ञान से मुक्ति हो सकती है-ऐसा ही नियम है, इस विचार का खण्डन है। वैशेषिक और न्याय में ऐसा एक मात्र नियम निर्धारित नहीं किया गया है कि मुक्ति षट् और षोडश पदार्थ के ज्ञान से ही हो सकती है अन्यथा नहीं हो सकती। षट् और षोडश पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष हो सकता है और अन्य दर्शनों में बताये प्रकार से भी। न्याय में तो स्वयं ही पदार्थों के संयैकान्तवाद का खण्डन5 है। अणु की नित्यता के खण्डन से परमाणुओं के नित्यत्व का प्रत्याखयान भी सांखयकर्त्ता को अभिप्रेत नहीं। सांखयकार ने प्रधान की वृत्ति को भी अणुवत् माना हैं। यदि वह अणुओं का खंडन करता तो फिर दूसरे स्थान पर उन्हें स्वीकार क्यों करता6? सांयकार ने वस्तुतः परमाणुओं का खण्डन किया है। महर्षि व्यास के शबदों में नित्यता दो प्रकार की होती है-परिणामी नित्यता और कूटस्थ नित्यता 7। जो वस्तु उपादान कारण होगी (चाहे वह प्रकृति हो अथवा परमाणु हो) उसकी नित्यता परिणामी नित्यता होगी, कूटस्थ नित्यता नहीं। कूटस्थ नित्यता केवल आत्मा और परमात्मा की है। इसी प्रकार सूक्ष्मता के विषय में भी समझना चाहिए। उपादान कारणों की सूक्ष्मता के विषय में भी समझना चाहिए। उपादान कारणों की सूक्ष्मता अन्वयीसूक्ष्मता अर्थात् कार्य की अपेक्षा से सूक्ष्मता है। प्रकृति और परमाणु की सूक्ष्मता कार्य की वह पराकाष्ठा है, जिससे बढ़कर फिर वह सूक्ष्म नहीं हो सकता है। यह अवस्था प्रकृति8 की है और परमाणुओं की है। यहाँ पर अन्तर9 बाहर आदि शदों का प्रयोग नहीं हो सकता और जो विभाजन हैं, उसे ही न्याय और वैशेषिक में परमाणु कहा गया है। यह परमाणु की अन्तिम अवस्था प्रकृति में परिसमाप्त है। सांखयकार ने भूत तन्मात्रारूपी अणुओं को अनित्य माना है, वैशेषिक ोक्त पराकाष्ठा के अपकर्ष को प्राप्त परमाणुओं को नहीं। अनन्वयीय अर्थात् स्वाभाविकी सूक्ष्मता आत्मा और परमात्मा की है। अन्वयी सूक्षमता की पराकाष्ठा प्रकृति एवं परमाणु में है।

सांखय अणु, महत् और विभु परिमाण से ही कार्य चल जावेगा, ऐसा स्वीकार करता है, अतः ह्रस्व और दीर्घ को इनके ही अन्तर्गत मान लेता है, वैशेषिक चारों का वर्णन करता है। यह वस्तुतः खण्डन नहीं है। सामान्य को सांयकर्त्ता ने (सा.-5/91-92) स्वीकार किया ही है। समवाय का भी सांखय में खण्डन नहीं समझना चाहिए। सांखय का यह सिद्धान्त है कि कार्य सत्ता कारण में सत्तारूप से विद्यमान रहती है। उत्पत्ति केवल कार्य के वर्तमानावस्था में आने एवं अभिव्यक्ति को कहा जाता है। कार्य का यह अभिव्यक्त रूप इसी रूप में कारण से समवाय सबन्ध (नित्य सबन्ध) तो हो सकता है, परन्तु कार्य के अभिव्यक्त प्रकार का जो देश और काल से परिछिन्न है, अपने कारण के साथ समवाय सबन्ध नहीं हो सकता। इसी समवाय का सांखय में खण्डन है, वैशेषिकोक्त समवाय का नहीं, क्योंकि वैशेषिक में कहीं भी कार्य के वर्तमान रूप के साथ कारण का समवाय सबन्ध नहीं बतलाया है। सामान्य, विशेष और समवाय आदि अपेक्षा बुद्धि से परिज्ञात होते हैं, अतः अनपेक्षाबुद्धि के विषय भूत साखयावस्थापन्न प्रकृति में इनका परिज्ञान नहीं होता है-इस बात को दर्शाने के लिए सांखय ने समवाय का स्पष्टीकरण किया है।

न्याय और वैशेषिक इन्द्रियों को भूतजन्य मानते हैं, क्योंकि जिस भूत से जो इन्द्रिय उत्पन्न होती है, वह उसी के गुण से युक्त पदार्थ को देखती है। सांखय अहंकार को इन्द्रियों का कारण मानता है। इससे परस्पर विरोध मालूम पड़ता है, परन्तु इसमें भी विरोध की स्थिति नहीं। इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भेद से दस हैं। मन उायात्मक है। मन का भी इन इन्द्रियों में ही सन्निवेश है। यह सांखय का सिद्धान्त है। न्याय में विशेषतया पंच ज्ञानेन्द्रियों पर विचार किया गया है। मन को पृथक् माना गया है। इन्द्रियाँ अपने भूतों के गुणों को देखती हैं, अतः एक इन्द्रिय दूसरे के विषय में नहीं देखती है। इन दोनों सिद्धान्तों को विचारने पर पता चलता है कि इन्द्रियों में भौतिकता व अभौतिकता दोनों हैं। इन्द्रियभूतों में विद्यमान रूप आदि गुणों के ग्रहण की जो शक्ति रहती है, वह भौतिक धर्म है, परन्तु गुणों को इनसे प्रत्यक्ष होने पर भी द्रव्य, संखया, जाति और अभाव आदि का प्रत्यक्ष मन से होता है, जबकि ये अपने-अपने ही विषयों को जान सकती हैं और साथ ही मन कर्मेन्द्रिय का कार्य भी करता है। मन के सपर्क से होने वाला इन्द्रियों का कार्य भौतिक धर्म नहीं है। यह शक्ति धर्म है जो मन और अहंकार के सबन्ध से इनमें है। मन का उायात्मकत्व और प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय के विषय के ग्रहण करने में उसकी क्षमता यह सिद्ध करती है कि उसमें आहंकारिक धर्म10 है, अन्यथा वह भी एक ही विषय के ज्ञान से बँधा रहता। सांखय ने मन को इन्द्रियों में माना है। न्याय ने इन्द्रियों को भूतों से मानकर मन को पृथक् माना है, अतः सांखय का दृष्टिकोण मन को इन्द्रिय मानकर उसके भौतिकता का खण्डन है। यदि सब को भौतिक माना जाता तो मन को भी भौतिक मानना पड़ता जो सभव नहीं। सांखय ने अपने मत के स्पष्टीकरण के लिए यह दिखलाया है कि इन्द्रियाँ एकान्ततः भौतिक ही हों-यह सिद्धान्त नहीं हैं, वे आहंकारिक भी हैं, क्योंकि मन का भी उनमें सन्निवेश है। न्याय और वैशेषिक को इन्द्रियों का जो भौतिकत्व अभिप्रेत है, उसका सांखय ने खण्डन नहीं किया है। उसने केवल अपनी प्रक्रिया का स्पष्टीकरण किया है।

इसी प्रकार वेदान्त शास्त्र में सांखय और न्याय, वैशेषिक आदि का खंडन दिखलाई पड़ता है, वह केवल आभासमात्र का खंडन है, वास्तविक खण्डन नहीं। व्यास को इतना ही कहना अभिप्रेत है कि बिना निमित्त कारण परमेश्वर को स्वीकार किये जड़ प्रकृति एवं परमाणु जगत् को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें ज्ञान और क्रिया का अभाव11है, परन्तु ये जगत् के कारण नहीं अथवा उपादान नहीं है, वा इनकी सत्ता नहीं है, यह वेदान्त-शास्त्रकर्त्ता को अभिप्रेत नहीं है। सांखय न्याय आदि में कहीं पर भी बिना परमेश्वर की निमित्तता के प्रकृति अथवा परमाणु आदि से जगत् की रचना का वर्णन नहीं है, अतः वेदान्त में इन दर्शनों का खण्डन नहीं। केवल ब्रह्मरूपी निमित्त कारण की उपादेयता को सिद्ध करने का यह प्रयास12 है। वेदान्त 2/1/12 से13 योग और वैशेषिक आदि का खण्डन नहीं है। उससे अन्य आचार्यों के उन सिद्धान्तों का खण्डन है जो ब्रह्म को जगत् का कर्त्ता नहीं स्वीकार करते हैं।

सृष्टि रचना के प्रकरण को ही बहुधा दर्शनों के विरुद्ध बतलाया जाता है। आचार्य दयानन्द का कथन यह है कि सृष्टि का वर्णन मुखयतः सांखय और वेदान्त में ही पाया जाता है, शेष चार में तो प्रासंगिक वर्णन है। सांखय में प्रकृति, पुरुष और परमेश्वर तीन तत्त्वों को अनादि मानकर सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। परमात्मा सर्ववित् और सर्वकर्त्ता है। प्रकृति उसके अधीन है। जीव भी अनेक हैं और नित्य हैं, परन्तु उनके भोग आदि की व्यवस्था परमाता के द्वारा होती है। परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति में क्षोभ होकर उसकी साखयावस्था भंग होती है। तत्पश्चात् उससे महत्तत्त्व, पुनः उससे अहंकार और अहंकार से एक तरफ पंचतन्मात्राएँ, दूसरी तरफ मन सहित एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। पंचतन्मात्राओं से पाँच महाभूत और उनसे पुनः शरीरादि कार्य पदार्थ और विविध सृष्टि पदार्थों की रचना होती14 है। वेदान्त दर्शन में भी ईश्वर, जीव और प्रकृति को अनादि माना गया15 है। ब्रह्म की निमित्तता से प्रकृतिरूपी उपादान में क्षोभ होकर जगत् उत्पन्न होता है। वेदान्त का क्रम भी वही है जो सांखय का क्रम है। सृष्टि की रचना का सांखय का क्रम इतना प्रसिद्ध और वैज्ञानिक है कि वही सर्वत्र स्वीकार किया गया है, अतः इससे किसी प्रकार के मत-भेद का प्रश्न ही नहीं उठता है।

शेष भाग अगले अंक में…..