कुरान समीक्षा : खुदा सच्चा है या धोखेबाज?

खुदा सच्चा है या धोखेबाज?

बतावें कि खुदा को सच्चा मानें या धोखेबाज मानें और कुरान में परस्पर विरूद्ध बातें क्यों लिखी हैं? क्या इससे कुरान की इज्जत में बट्टा नहीं लगता और वह अविश्वसनीय साबित नहीं हो जाता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

वल्लजी-न आमनू व……..।।

(कुरान मजीद पारा सूरा निसा रूकू २७आयत १२२)

…..और अल्लाह से बढ़कर बात का सच्चा कौन है?

इन्नल् मुनाफिकी-न युखादि………।।

(कुरान मजीद पारा ५ सूरा निसा रूकू २० आयत १४२)

काफिर खुदा को धोखा देते हैं हालांकि खुदा उन्हीं को धोखा दे रहा है।

समीक्षा

ऊपर दो आयतों में से एक में खुदा को ‘‘सच्चा’’ और दूसरी में उसें ‘‘धोखेबाज’’ बताया है। दोनों बातें एक दूसरे के खिलाफ हैं। खुदा का कौन सा गुण ठीक माना जावे?

प्रबल राष्ट्रवाद के पर्याय – प्रो. बलराज मधोक

प्रबल राष्ट्रवाद के पर्याय – प्रो. बलराज मधोक

-इन्द्रजित् देव

श्री बलराज मधोक का निधन हो गया। 96 वर्ष पूर्व उनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान के गुजराँवाला नगर के निकट जल्लन ग्राम में हुआ था। उनका पूरा परिवार आर्यसमाजी था। जिस दिन लाला लाजपत राय का बलिदान हुआ, उस दिन उनके परिवार में भोजन नहीं बना था। उनके पिता जी दिन भर उदास रहे व बोले-‘‘आज भारत का सूर्य अस्त हो गया।’’ पिता जी कश्मीर-जमू के डोगरा-राज्यकाल में शासकीय कर्मचारी थे। पिताजी अपने विद्यार्थी-काल में ही आर्य समाज के प्रभाव में आ गए थे। महर्षि दयानन्द का जीवन और सिद्धान्त उनके आदर्श थे। बी.ए. उत्तीर्ण करने के पश्चात् पिताजी को डाक-तार विभाग में इन्स्पैक्टर के पद के लिए चुना गया था, परन्तु साक्षात्कार के अवसर पर उन्होंने उच्च अंग्रेज अधिकारी द्वारा पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में यह सच्चाई बताई कि उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ा है तो उनका चयन ही नहीं किया गया। तब उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे अंग्रेजी शासन की नौकरी नहीं करेंगे। श्रीनगर में रहते बलराज मधोक का सपर्क पं. विश्वबन्धु से हुआ, जिनका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे आर्य समाज, हजूरी बाग के पुरोहित थे। तब वह आर्य समाज, श्रीनगर के गैर कश्मीरी हिन्दुओं की धार्मिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था। श्री चिरंजीलाल वानप्रस्थी उस आर्य समाज के प्रधान व बलराज मधोक के पिता श्री जगन्नाथ उसके मन्त्री थे। पूरा परिवार प्रत्येक सत्संग में वहाँ जाया करता था। श्री बलराज मधोक के अपने शबदों में-‘‘महर्षि दयानन्द के जीवन चरित को पढ़ने का मुझे उन्हीं दिनों सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी हर बात को बुद्धि और तर्क से परखने पर बल देना उनकी सत्यनिष्ठा, निर्भीकता, देशप्रेम और आत्मविश्वास आर्यसमाजियों के जीवन में भी टपकता था। मेरे पूज्य पिताजी में भी ये गुण उत्तम रूप में विद्यमान थे। मुझे अपने श्रीनगर के दिनों में उनके साथ-साथ आर्य समाज के अनेक गुरुजनों को देखने और उनके समपर्क में आने अवसर मिला। उन सबका और आर्य समाज के वातावरण का मेरे जीवन पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा।’’ बलराज मधोक ने एम.ए. की परीक्षा इतिहास विषय में उत्तीर्ण की तो पी-एच.डी. करने का विचार किया और ‘स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्य समाज का योगदान’ विषय चुनकर शोध कार्य भी आरंमभ कर दिया, परन्तु 1946 के बाद देश का राजनैतिक चक्र इतनी तेजी से चलने लगा कि उन्हें अपना सारा समय राजनैतिक गतिविधियों पर केन्द्रित करना पड़ा।

तब लाहौर का डी.ए.वी. महाविद्यालय पंजाब की एक प्रमुख शिक्षण-संस्था थी। इसमें लगभग 4000 विद्यार्थी अध्ययनरत थे। महाविद्यालय और उससे सबद्ध अन्य संस्थाएँ तथा आवास गृह लगभग एक वर्गमील क्षेत्र में फैले थे। अपने परिसर के विस्तार तथा विद्यार्थियों की संया की दृष्टि से यह उस समय के अलीगढ़ विश्वविद्यालय से कहीं बड़ा था। देश विभाजन के समय बलराज मधोक ने यह सुझाव दिया था कि अलीगढ वि.वि. के परिसर और डी.ए.वी. महाविद्यालय के परिसर की अदला-बदलीकर ली जाए। विभाजन के बाद अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. के 80 प्रतिशत मुस्लिम विद्यार्थी और प्राध्यापक पाकिस्तान में जा बसे थे। विभाजन से पूर्व यह वि.वि. पाकिस्तान के पक्ष की गतिविधियों तथा मुस्लिम साप्रदायिकता का सबसे बड़ा अड्डा था। इसे बन्द करके इसका परिसर डी.ए.वी. महाविद्यालय, लाहौर को देना सर्वथा उचित व राष्ट्रहित में होता, परन्तु जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद को यह रुचिकर व उपयोगी नहीं लगा। अलीगढ़ मु. विश्वविद्यालय अब पुनः बहुत बड़ा विष वृक्ष बन चुका है। बलराज मधोक का उक्त सुझाव यदि मान लिया गया होता, तो आज स्थिति सर्वथा अच्छी होती। बलराज मधोक की दूरदृष्टि थी, यह इस घटना से स्पष्ट प्रमाणित होता है।

जब 1980 में इन्दिरा गाँधी दोबारा सत्तासीन हुई तो अलीगढ़ में एक हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने की पूरी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी थीं, मधोक जो को इसके भूमि पूजन के अवसर पर आमन्त्रित किया गया था,परन्तु संजय गाँधी की मृत्यु होने से यह योजना रोक दी गई थी।

लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल व वीर सावरकर के राजनैतिक विचारों का प्रभाव बलराज मधोक पर पड़ता गया। वे सक्रिय राजनीति में प्रविष्ट हुए। भाई परमानन्द से भी वे मिलते रहे, जिनका यह विचार अपने दीर्घ अनुभवों के आधार पर बना था ‘‘हिन्दू समाज एक मरता हुआ समाज है। इसे अपने और पराए की, मित्र और शत्रु की पहचान नहीं……। इसमें जाति-पाँति और भाषा-भेद इतना अधिक है और हिन्दुत्व की भावना इतनी दुर्बल कि हिन्दू के नाते यह समाज न कुछ सोच सकता है, न ही कुछ कर सकता है।’’

इस प्रकार के वैचारिक उथल-पुथल में बलराज मधोक सनातन धर्म कॉलेज, लाहौर, आत्मानन्द जैन कॉलेज, अबाला तथा डी.ए.वी. कॉलेज, श्रीनगर में इतिहास के प्राध्यापक के रूप में भी क्रमशः कार्य करते रहे। उनका यह भी विचार बना कि भारत की अखण्डता को बचाने के लिए पंजाब, सिन्ध, सीमा प्रान्त और पूर्वी बंगाल के राष्ट्रवादी देशभक्त हिन्दुओं को मौत के मुँह में जाने से बचाने को संघ जो भूमिका अदा कर सकता था, वह उसने नहीं की। उस समय यह एक मात्र शक्ति था, जो देश को विभाजन की आग से बचा सकता था। यह ठीक है कि आग लग जाने के बाद इसके स्वयं सेवकों ने अपनी जान हथेली पर रखकर असंखय लोगों को जलती आग में से निकाला। इसके लिए स्थानीय प्रचारक और स्वयं सेवक प्रशंसा के पात्र हैं, परन्तु परीक्षा की उस घड़ी में संघ का नेतृत्त्व देश और हिन्दू समाज को उचित और आवश्यक मार्ग दर्शन और दिशा न दे सका। मधोक जी का यह भी विचार था कि यदि संघ का हिन्दू महासभा से तालमेल हो जाता तो सभवतः हिन्दू महासभा देश विभाजन से पूर्व एक प्रबल राष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी राजनैतिक संगठन के रूपमें उभर पाती और भारत की राजनीति को नया मोड़ दे पाती। हिन्दू हिन्दू का शत्रु निकला। संघ हिन्दू महासभा को तो खा गया, परन्तु स्वयं कोई राजनैतिक दिशा न दे पाया।

जब अक्टूबर, 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तब मधोक डी.ए.वी. कॉलेज, श्रीनगर में उपाचार्य थे। उनके नेतृत्व में संघ ने शानदार कार्य किया। शरणार्थी रिलीफ कमेटी बनाकर उन्होंने विभाजन के कारण कश्मीर में आए शरणार्थी हिन्दुओं की आर्थिक व सामाजिक सहायता की। अन्य कई प्रकार के साहसिक कार्यों से सेना, महाराजा हरिसिंह व कश्मीर की प्रजा की विशिष्ट सहायता करते रहे। कबाइलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना ने जममू-कश्मीर पर आक्रमण किया। महाराजा का एक दूत तब मधोक जी के घर आया व उसने उनसे भारतीय सेना के आने तक श्रीनगर हवाई-अड्डे की सुरक्षा का प्रबन्ध करने का अनुरोध किया। लगभग 200 स्वयं सेवकों को एकत्रित करके रात-रात में हवाई पट्टी की मरममत भी की। जब जवाहर लाल नेहरू ने शेख अबदुल्ला को जममू-कश्मीर के प्रधानमन्त्री के रूप में प्रजा की इच्छा के विपरीत स्थापित कर दिया, तो उसने बलराज मधोक को विशेष निशाना बनाया। शेख अबदुल्ला ने उन्हें मरवाने की बात एक गुप्त बैठक में कही, परन्तु प्रकट में उनके कश्मीर में रहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। वे अनेक कष्ट सहकर  ट्रकों, बसों तथा कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर जममू पहुँचे। विस्ताराय से हमने उनकी कष्टकारी यात्रा का एक ही वाक्य में वर्णन किया है। जममू में आकर पं. प्रेमनाथ डोगरा की सहायता से प्रजा परिषद् नामक एक राजनैतिक संगठन की स्थापना की तथा अबदुल्ला के अत्याचारों व राष्ट्रद्रोह की गतिविधियों के विरुद्ध आवाज उठानी प्रारा की। अबदुल्ला ने उन्हें जमू से भी निष्कासित कर दिया, तब वे दिल्ली में ही बसने को विवश हुए। उनके माता-पिता को भी जममू-कश्मीर छोड़ना पड़ा। इस प्रकार मधोक जी ने नए वलवलों से अपना नया राष्ट्रीय जीवन आरा किया।

स्व. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब केन्द्रीय मन्त्री का पद त्याग करके ‘भारतीय जनसंघ’ नामक एक नये राजनैतिक दल कागठन किया तो बलराज मधोक उसमें सक्रिय हुए। उक्त संगठन के संस्थापकों में उनका नामाी समिलित है। वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। उक्त दल ने जब कश्मीर आन्दोलन आरंभ किया, तो बलराज मधोक ने उसमें भी सक्रिय भाग लिया। तदनन्तर वे जनसंघ की गतिविधियों में अत्यन्त व्यस्त हुए तथा देशभर में इसके फैलाव के लिए यत्नशील रहे। दिल्ली से वे दो बार लोकसभा के सदस्य भी बने। प्रकाशवीर शास्त्री व डॉ. राममनोहर लोहिया की तरह वे अपने तथ्यपरक, राष्ट्रवादी व प्रभावशाली भाषणों से अन्य सदस्यों को अत्यन्त प्रभावित कर लेते थे। इन्दिरा गाँधी व जवाहर लाल नेहरू की नीतिगत व व्यवहारगत असंगतियों पर वे सटीक आलोचना करने में सिद्धहस्त थे। सन् 1962 ई. में जब हम चीन से पिटे व चीन ने हमारी 80,000 वर्गमील धरती हथिया ली थी तो लोकसभा में उन्होंने जवाहर लाल से पूछा था-

न इधर-उधर की तू बात कर,

यह बता कि काफिले क्यों लुटे?

हमें रहजनी से गरज नहीं,

तेरी रहबरी का सवाल है।

राम जन्मभूमि, मथुरा की कृष्ण जन्म भूमि व काशी में विश्वनाथ मन्दिर भूमि को हिन्दुओं को सौंप देने की माँग भी सर्वप्रथम लोकसभा में उन्होंने ही रखी थी, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनावी मुद्दा बना लिया था। बलराज ने अन्य पुस्तकों के अतिरिक्त एक पुस्तक indianisation लिखी थी, जिसमें भारतीय मुसलमानों को अपनी उपासना-पद्धति को जारी रखते हुए भी पाकिस्तान व अन्य देशों के प्रति वफादार न रहकर अपनी मातृभूमि भारत के प्रति सपूर्ण वफादार रहने की आवश्यकता, लाभ व उपायों आदि पर विचार दिए थे। दो उपन्यासों के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक एवं ऐतिहासिक विषयों पर उनकी पुस्तकें हिन्दी तथा अंग्रेजी में प्रकाशित व चर्चित हुईं। वे कई वर्षों तक भारतीय जनसंघ के प्रधान भी रहे, परन्तु दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमयी हत्या में जनसंघ के उन नेताओं, जिनकी गर्दन इन्दिरा गाँधी के हाथ में जा चुकी थी, को अपना हथियार बनाकर बलराज मधोक को जनसंघ से निकलवाकर उनकी राजनैतिक सक्रियता तथा प्रतिष्ठा समाप्त करने की योजना सर्वोच्च राजनैतिक नेतृत्व ने बनाई और सन 1973 में मधोक जी जनसंघ की प्राथमिक सदस्यता से ही हटा दिए गए।

सन् 1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए, तो लोकसभा में जनता पार्टी के 85 प्रतिशत उमीदवार विजयी होकर पहुँचने में सफल हुए थे, परन्तु जनसंघ, जो कि जनता पार्टी के घटकों में से एक था, ने मधोक जी को प्रत्याशी न स्वयं बनाया तथा न ही जनता पार्टी के दूसरे घटकों को उन्हें उममीदवार बनाने दिया। बलराज मधोक यदि पद व सुविधाओं के ही इच्छुक होते तो वे तब स्वतन्त्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव में उतर सकते थे व सफल होकर लोकसभा में सरलता से पहुँच सकते थे। दिल्ली से पहले भी वे दो बार सरलता से सांसद चुने जा चुके थे तथा सन् 1975 से 1977 तक 18 मास तक अन्य नेताओं की तरह आपातकाल में बन्दी जीवन व्यतीत कर चुके थे, परन्तु उन्होंने ऐसा न करके राजनैतिक नैतिकता का परिचय दिया।

सन् 1977 में संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद पर आसीन किया गया तो संजीव रेड्डी ने उन्हें राज्य सभा में मनोनीत सदस्य के रूप में प्रवेश कराने की पेशकश की, जो उनके लिए समानजनक था, परन्तु बलराज मधोक ने इसे स्वीकार नहीं किया व कहा कि मैं संघर्ष करके आगे बढूँगा व मनोनीत सदस्य के रूप में राज्यसभा में जाना पसन्द नहीं करता। वे अपने नेतृत्व में राष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी सरकार बनाने का स्वप्न देखते थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की स्थापना भी मधोक जी ने ही की थी।

सन् 1965-66 में जो गो रक्षा आन्दोलन चला था, उसमें भी उन्होंने सक्रिय भाग लिया था व फरवरी 1967 में उनके ही नेतृत्व में जनसंघ ने लोकसभा में 35 सीटें प्राप्त कीं। अनेक प्रदेशों में काँग्रेस हारी थी। परिणाम स्वरूप कुछ प्रदेशों में संयुक्त विपक्षी दलों ने सरकारें बनाई। केन्द्र में भी इन्दिरा गाँधी को कमयुनिस्टों व समाजवादी सदस्यों की सहायता से ही सरकार चलाने पर विवश होना पड़ा था।

वे ‘आर्गेनाइजर,’ ‘वैचारिक विकल्प’ तथा ‘हिन्दू वर्ल्ड’ के कई वर्षों तक समपादक रहे। जनता पार्टी की सरकार ने जब अल्पसंयक आयोग की स्थापना की, तो इसके दूरगामी विघटनकारी परिणामों का अनुमान लगाकर इसका विरोध बलराज मधोक ने किया तथा मानवधिकार आयोग की स्थापना की जोरदार माँग की, परन्तु उनकी माँग नहीं मानी गई। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई से भी इस आयोग की स्थापना न करने को कहा तो मोरारजी ने कहा था, ‘‘मैं सभी घटकों की पारस्परिक सहमति से बना प्रधानमन्त्री हूँ। मेरी संगठन काँग्रेस के केवल 50 सदस्य ही हैं। यदि आपके जनसंघी साथियों ने इस आयोग की स्थापना का विरोध किया होता तो मेरे हाथ मजबूत होते व मैं अल्प संयक आयोग के समबन्ध में निर्णय बदल देता।’’

राष्ट्रवादी व मानववादी दृष्टिकोण की उपेक्षा देखकर बलराज मधोक ने सन् 1979 में जनता पार्टी से त्याग पत्र दे दिया। सन् 1980 ई. में उनकी पुस्तक ‘रेशनल आफ हिन्दू स्टेट’ अर्थात् ‘हिन्दू राज्य का तार्किक औचित्य’ छपी व तहलका मच गया। सभी दलों के 35 मुस्लिम सांसदों ने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की इन्दिरा गाँधी से माँग की। इन्दिरा गाँधी ने स्वयं इस पुस्तक को पढ़कर इसे प्रतिबन्धित करने से इनकार कर दिया। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने यह भी कहा कि यह पुस्तक प्रत्येक भारतीय को पढ़नी चाहिए। कुछ दिनों पश्चात् उक्त पुस्तक में दिए तर्कों , तथ्यों व सुझावों से प्रभावित इन्दिरा गाँधी ने तब बलराज मधोक को अपने मन्त्रिमण्डल में सममिलित होकर सरकार के एक प्रतिष्ठित अंग के रूप में अपनी सोच को कार्य रूप देने की पेशकश की, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। वे इसे स्वीकार कर लेते को देश का भविष्य क्या बनता, यह गंभीर विषय विचारणीय है।

वे भारत माता के सच्चे सपूत थे। उनकी भारत-भक्ति गजब की थी। वे आजीवन भारत के लिए सोचते रहे। भारत के लिए लिखते रहे, कर्म करते रहे। उनकी वीरता, विद्वता, सैद्धान्तिक दृढ़ता तथा भारत माता के प्रति निष्ठा अनुकरणीय है। उनका देहान्त 2 मई, 2016 को 96 वर्ष की अवस्था में हुआ, जो उनकी संयमी और भारतीय जीवन-शैली का प्रमाण है।

– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर।

चलभाष क्रमांक-09466123677

 

आदर्श समाजवाद वैदिक साहित्य के परिपेक्ष में

आदर्श समाजवाद वैदिक साहित्य के परिपेक्ष में

प्रो. ज्ञानचन्द रावल , ललित चौहान…..

इस संसार में प्रारम्भ से लेकर आज तक अनेकों संस्कृति या समय-समय पर पैदा हुईं तथा विनष्ट हो गयीं परन्तु उन सभी संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति आज भी अत्यन्त समृद्ध एवं समुन्नत है जिसके विषय में

कविवर इकबाल ने कभी कहा था कि-

‘‘है बात क्या कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारे।।

यूनान मिस्र रोम सब मिट गये जहा से।

बाकी मगर है अब तक नामोनिशा हमारा।।’’

भारतीय संस्कृति और सभ्यता उतनी ही प्राचीन है जितनी कि यह सृष्टि अर्थात् यह भारतीय संस्कृति

जगत् के प्रारम्भ से ही विद्यमान है उस समय देश अनेक जातियों एंव उपजातियों में विभक्त न होकर एक ही मानव जाति में बिना किसी रूप में संगठित था समस्त मानवजाति बिना किसी भेद-भाव के शांतिपूर्वक फली-फूली इसके मूल में वैदिक शिक्षा का पावन संदेश ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की पवित्र भावना काम कर रही थी। यह थी उदात्त कल्पना वैदिक संस्कृति की जिसमें एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की रक्षा की बात

कही गई है।’’ आज समाज को उस प्राचीन रूप में प्रतिष्ठित करने के लिये निम्नलिखित मुख्य उपायों को

व्यवहार में लाना होगा।

  • परस्पर भ्रातृभाव

अग्नि ऋषि प्रणीत ऋगवेद के मण्डल पाच सूक्त संख्या साठ के मंत्र संख्या पाच में निम्नलिखित ह्रदयग्राही

सदुपदेश प्राप्त होता है-

‘‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठासो ते सभ्रातरो वावृधुः सौभगाय।

युवा पिता व्वया रुद्र एषां सुधुधामं  पृथिवीं सुदिनामरुभ्यः।।’’

अर्थात् मनुष्य (जाति रूप रंग तथा नस्ल से रहित) आपस में भाई-भाई उनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं है ये सभी मिलकर सौभाग्य की वृद्धि के लिये समुन्नत हो, उन सबका पिता शक्ति सम्पन्न सर्वरक्षक और सबको

मर्यादा में रखने वाला परमेश्वर है और अनेक प्रकार के धन धान्य देने वाली पृथिवी उनकी माता है। इसका भाव यह हुआ है। जिसमें ना कोई बड़ा है न कोई छोटा बल्कि सभी परस्पर भाई-भाई हैं।यह भ्रातृ भाव तभी स्थायी रूप से सुदृढ़ हो पायेगा जब यहा के लोग यह अच्छी तरह से समझ लें कि हम सभी के माता-पिता एक हैं।अस्तित्ववाद की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता यही है कि उसके द्वारा सबको एक

पिता का पुत्र समझ कर भाई-भाई के पारस्परिक सम्बंध की स्थापना होती है। वेदों में यह उच्च भाव अनेकशः मिलते है। अथर्ववेद के तीसरे काण्ड में इसी तरह का एक और सुंदर प्रसंग प्राप्त होता है यथा-

‘‘करशफस्य विशफस्य द्यौः पिता पृथिवी माता।

यथाभिचक्रः देवास्तथा पकणुता पुनः।।’’

अर्थात् करशफः निर्बल और विशफ प्रबल प्रकाशपुंज (परमात्मा) पिता और यह पृथिवी (उनकी) माता है ऐसा समझते हुए विद्वान् ने (पुरूषार्थ करने का)  जैसा चल चलाया है उसे फिर-फिर काम में लाओ।

– सर्वत्र एक ज्योति का दर्शन-

आदर्श समाज के नवनिर्माण का दूसरा सूत्र सर्वत्र एक प्रभु की निर्मल ज्योति का दर्शन है जिसके पारस्परिक प्रेम की समृद्धि से समस्त समाज सुखमय बन सकता है यथा-

‘‘यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।’’

अर्थात् जो कोई सम्पूर्ण चराचर जगत् को परमात्मा ही में देखता है यह निंदित नहीं होता। यह शिक्षा कितनी महत्वपूर्ण है तब प्रत्येक प्राणी का शरीर ही उसे ईश्वर का मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर एंव गुरुद्वारा आदि

के रूप में दिखाई देने लगेगा।

ऐसी दशा में कौन मंदमति ऐसा होगा जो उसे तोड़ने की कल्पना भी कर सकता है। इस शिक्षा से मनुष्यों में यह भावना पैदा होती है कि किसी भी प्राणी को तकलीफ नहीं देनी चाहिए। ऋषिवर देवदयानंद के गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के पुनरुद्धारक स्वामी श्रद्धानंद जी के जीवन में एक ऐसी ही घटना घटित हुई थी एक स्थान से एक समूह आया हुआ था। आवश्यक गोष्ठी (सभा) हो जाने पर सांयकाल जब उनके नमाज अदा करने का समय हुआ तो उनके मुखिया ने पूछा स्वामीजी हमारे नमाज अदा करने का समय हो गया है हमलोग नमाज कहा अदा करे ? तब स्वामी जी ने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया इसी यज्ञशाला में आपस भी नमाज अदा कर लें। उन मुस्लिम भाईयों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, उन्होंने कहा स्वामी जी यहां पर तो आप लोग अभी

अपना हवन संध्या कर रहे थे, स्वामी जी ने उसी सहजता एंव सौम्यता के साथ उत्तर दिया तो फिर क्या हुआ ?हमने अपनी विधि से अपनी पूजा कर ली अब आप लोग अपनी विधि से अपनी पूजा कर लें आखिर में वह ईश्वर और अल्लाताला एक ही है। इस उदारता का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा इसी के प्रतिफल स्वरूप दिल्ली के जामा मस्जिद में स्वामी श्रद्धानंदजी का उन्होनें उपदेश बड़ी श्रद्धा से करवाया था। यह सम्मान दूसरे किसी हिन्दू नेता या विद्वान् को आज तक नहीं प्राप्त हुआ। यहा तक कि महात्मा गाधी को भी ऐसा सौभाग्य नहीं मिला इस तरह यह सुस्पष्ट हो जाता है कि एक निर्मल ज्योति के सर्वत्र दर्शन से हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख तथा ईसाई आदियों के आपसी भेद-भाव मिटाकर परस्पर प्रेम भाव का संचार होने लगता है इसी प्रेमतत्व को लक्ष्य करके किसी अमेरिकन विद्वान् ने लिखा है कि-

‘‘बड़ी चर्चा सतियों को कुचल देने और वर्निल तथा टोक्यों कि ओर चलने और बिना किसी शर्त के आत्मसम्पर्ण की बात कहलाती है। हम पाश्चात्यों में इसका अभाव ही है बल, हिंसा, बदला लेने की इच्छा, अहंमन्यता, घमण्ड और अधिकार इससे हम खूब परिचित हैं और इसको हमने औरों में भी रोग की तरह फैलाया है, जो उनके हमारे अनुकरण, प्रेम, नम्रता, आत्म त्याग और शान्ति उन्हें हम बहुत थोड़ा जानते हैं। पहले और यह अन्तिम सिद्धांत ही संसार को मौत से बचा सकते हैं। कौन (इस बात से) दुखी हो सकता है कि अब तुला दण्ड पश्चिम से पूर्वकी और झुक रहा है। पश्चिम राज्य अपने पापों से नष्ट भ्रष्ट होंगे और चीन तथा हिंदुस्तान मनुष्यों के अन्तिम ध्येय प्राप्त करने का भार अपने ऊपर लेने की तैयारी करते है।’’

इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि भारतीय सभ्यता के मौलिक नियमों को पश्चिमी विद्वान् वर्तमान युद्ध, हिंसा, बर्बरता, उग्रवाद आदि समस्त समस्याओं से मुक्ति पाने का एक सरल एंव सुलभ साधन के रूप मे

मानने को तैयार हो रहे हैं। सार्वदेशिक प्रेम और भ्रातृभाव के अपना ये बिना दुनिया में शान्ति की स्थापना असम्भव है। अतएव वर्तमान समय में विश्व बन्धुत्व की भावना दुनिया में सुख शांति एवं आनन्द के लिये अत्यावश्यक है।

-मतभेद स्वभाविक प्रक्रिया है-

पृथिवी के इस विशाल समाज में मतभेद का होना स्वभाविक है। वेद में इस नियम को इस प्रकार से वर्णित किया गया है यथा-

‘‘समौ चिह्स्तौ न समं विविष्ट, समातरा चिन्न समं दुहाते।

यमयौश्चिन्न समा वीर्याणि, ज्ञातो चित्सन्तौ न सम प्रणीत।।’’

अर्थात मनुष्य के दोनों हाथ बराबर शक्तिवाले नहीं होतें एक गाय की दो पुत्रिया (बछड़िया) बराबर दूध नहीं देती, एक माता के दो सहोदर पुत्र जो एक समाज के एक ही स्टेटस के दो व्यक्ति समाज में बराबर दान नहीं देते। इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने पर विदित होता है कि यह जगत् बना ही विषमता के सिद्धांत से है। अर्थात् जब तक सत्व, रजस्, तमस् समान अवस्था में रहते है तब तक यह अवस्था रहती है। जब इन

तीनों गुणों में विषमता आ जाती है तभी सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है इस प्रकार संसार के अंदर विषमता का होना स्वभाविक है। संसार में प्रचलित विभिन्न मत विचार भी इसी बात की पुष्टि कर रहे हैं अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ऐसी स्थिति में हम क्या करें इस सम्बंध में वेद का स्पष्ट संदेश है कि-

‘‘जनं विभ्रती बहुधा विवाचसे’’

अर्थात् पृथ्वी मनुष्यों की रक्षा करती है (जब वे) अनेक भाषाओं और अनेक धर्मों के होने पर भी (इस पृथिवी पर इस प्रकार से मिलकर रहा करते हैं जैसे) एक घर में घरवाले मिल जुलकर रहा करते है उस समय पृथिवी धन की सहस्त्रों धारा उसी प्रकार से दिया करती हैं जैसे- गाय निश्चित रीति से दूध की अनेक धाराए दिया करती है।

वैसे तो संसार में विभिन्नता के अनेक प्रकार हो सकते हैं परन्तु मुख्य रूप से भाषा और धर्मो-कर्तव्यों के

भेद ही हुआ करते हैं यहा पर विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि धर्म शब्द वेद में मजहब या रिलीजन के अर्थ में नहीं आया है यहा पर भी कर्तव्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ संसार का इतिहास भी इसी ओर इंगित करता है कि जब भी मनुष्य आपस मे मिलकर नहीं रहते तभी देश का पतन और समाज में अशांति का वातावरण बनता है। इतिहास में हुए राम-रावण, कृष्ण-कंस, कौरव-पांडव, पृथ्वीराज-जयचंद, अलाउलहसन-जहासोज और गजनी आदि के युद्ध इसी बात के पुष्ट परिणाम हैं। अमेरिका में गोरो तथा निग्रो में अशांति का मुख्य हेतु भी मिलकर न रहने की भावना ही है।

अतएव इसका समाधान भी यही है कि एक परिवार की तरह परस्पर मित्रवत् वैर भुलाकर रहे तभी सम्पूर्ण मानव समाज इस संसार में सुखी सम्पन्न एवं आनंदित रह सकता है इसी में सभी का कल्याण निहित है। आज संसार के प्रमुख चिंतक मनीषी इसी बात को लेकर चिन्तित है भारत की सबसे बड़ी विशेषता यही है

कि यहा विभिन्न भाषा-भाषी, खान-पान, रीति रिवाज, मत, मजहब, के लोग परस्पर प्रेम भाव से रहते हैं अनेकता में एकता ही भारत की सदा से विशेषता रही है। यह भूमि अपने दुश्मनों को भी मित्र की भांति गले लगाने को तैयार रहती है इसीलिये भारत कभी विश्व का सिरमौर गुरु रहा है हम सभी को अपनी इस धरोहर को संभालकर रखना हो

कुरान समीक्षा : कल्मा पढ़ने वाले सब गुनहगार हैं

कल्मा पढ़ने वाले सब गुनहगार हैं

जब कलमा कुरान में नहीं है और मौजूदा कलमा मुहम्मद की शिरकत वाला होने से कुरान के विरूद्ध है तो उसे पढ़ने वाले क्यों काफिर नहीं माने जाने चाहिए। क्या बता सकते हैं कि कुरान में खुदा ने कलमा क्यों नहीं दिया है जबकि बेकार की सैकड़ों आयतें उसमें लिख दी हैं?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इन्नल्ला-ह ला यरिफरू अंय्युश……….।।

(कुरान मजीद पारा ५ निसा रूकू १७ आयत ११६)

यह गुनाह तो अल्लाह माफ नहीं करता कि उसके साथ कोई शरीक ठहराया जाये और इससे कम जिसको चाहे माफ करे, और जिसने अल्लाह का साझी ठहराया वह दूर भटक गया।

व अन्नल्- मसाजि-द लिल्लाहि………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा जिन्न रूकू १ आयत १८)

…..और मस्जिदें सब खुदा की हैं खुदा के साथ किसी को न पुकारो।

समीक्षा

मुसलमानों को कल्मा ‘लाइलाह इल्लिल्लाह मुहम्मद रसूलिल्लाह’ सारे कुरान में कहीं भी एक स्थान पर इस शक्ल में नहीं दिया गया है। एक स्थान से ‘‘लाइलाह इल्लिल्लाह’’ और दूसरें स्थान से ‘‘मुहम्मद रसूलिल्लाह’’को लेकर अर्थात् उसे जोड़कर कल्मा बना लिया गया है यदि खुदा को यह कल्मा अर्थात मुहम्मद की खुदा के साथ शिरकत अर्थात् शामिल करना मंजूर होती तो वह पूरा कल्मा कुरान में एक ही जगह पर लिखा देता। बल्कि खुदा ने तो साफ-साफ ऊपर ऐलान किया है कि खुदा हर्गिज माफ नहीं करेगा।

खुदा ऐसे लोगों को अर्थात् मुसलमानों को घोर पापी मानता है। अतः मौजूदा कल्मा नहीं बोलना चाहिए, वह कुरान के खिलाफ है। उपरोद्र कुरान पारा ५ सूरा निसा रूकू १७ आयत ११६ में ही लिखा है कि- ‘‘खुदा के साथ शरीफ ठहराने वाला हरगिज माफ नहीं किया जावेगा।’’

सार्वभौम मानव धर्म

 सार्वभौम मानव धर्म

-मोहनचन्द

महर्षि दयानन्द ने स्वरचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका व उसकी अनुभूमिकाओं में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं। वे संसार के सब धार्मिक मत-मतान्तरों में एकता स्थापित करना चाहते थे। परस्पर प्रीति पूर्वक वाद-विवाद, परस्पर विचार-विमर्श द्वारा एक सर्वमान्य धर्म अथवा मानव धर्म की स्थापना करना चाहते थे। इस संबंध में उन्होंने सर्व धर्म सममेलन का भी आयोजन किया था, किन्तु वे उसमें सफल न हो सके। उक्त विषयक महर्षि के वचन सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका, अनुभूमिका व स्वमन्तव्यामन्तव्य-प्रकाश से उद्धृत कर नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं-

‘और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं, उनको मैं प्रसन्न (पसंद) नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मतवालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फँसा कर परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्वसत्य का प्रचार कर, सबको ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त कराके सबसे सबको सुखलाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।’

(स्वमन्तव्यामन्तव्य-प्रकाश)

‘यदपि (यद्यपि) आजकाल (आजकल) बहुत से विद्वान् प्रत्येक मत में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक-दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें-वर्तावें, तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर अनेक विध दुःखों की वृद्धि और सुखों की हानि होती है। इस हानि ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःख सागर में डुबा दिया है।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिका)

‘इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो-जो सब मतों में सत्य-सत्य बातें हैं, वे-वे सब में अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके जो-जो सब मत-मतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उनका खण्डन किया है। इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मत-मतान्तरों की गुप्त वा प्रगट बुरी बातों को प्रकाश कर, विद्वान्, अविद्वान् सब साधारण, सब मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर परस्पर प्रेमी हो के, एक सत्यमतस्थ होवें।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिका)

‘इसलिये जैसा मैं पुराणों, जैनियों के ग्रन्थों, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर, उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिये प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिका)

‘इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और होंगे, उनको पक्षपात रहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत-मतान्तर का विरुद्ध वाद न छूटेगा, तब तक अन्योन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेषकर विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़कर सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना-कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिकर)

‘यह सिद्ध बात है कि पाँच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद-मत से भिन्न दूसरा कोईाी मत न था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया।’

(अनुभूमिका-1)

‘जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेख न किया जाय, तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता तभी अविद्वानों को महा-अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिये सत्य के जय और असत्य के क्षय अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुखय काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।’

(अनुभूमिका-2)

‘जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं, वे तो सब (मतों) में एक से हैं, झगड़ा झूठे विषयों में होता है। अथवा एक सच्चा और दूसरा झूठा हो, तो भी कुछ थोड़ा-सा विवाद चलता है। यदि वादी-प्रतिवादी सत्यासत्य निश्चय के लिये वाद-प्रतिवाद करें तो अवश्य निश्चय हो जाय।’

(अनुभूमिका-3)

‘और यही सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें और हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें करावें।’

(अनुभूमिका-4)

महर्षि दयानन्द एक ऐसे सर्वतन्त्र सिद्धान्त जिसको वे साम्राज्य सार्वजनिक धर्म कहते थे, उसकी स्थापना करना चाहते थे, जिसको आजकल की भाषा में हम मानव धर्म कह सकते हैं। वे ऐसे धर्म के बारे में स्वमन्तव्यामन्तव्य-प्रकाश जो कि सत्यार्थ प्रकाश का अन्तिम अध्याय है में लिखते हैं-

‘सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसलिये उसको सनातन नित्य धर्म कहते हैं, कि जिसका विरोधी कोई भी न हो सके।’

महर्षि दयानन्द मत-मतान्तरों से संसार में प्रचलित अनेक धर्म-धर्मान्तरों का ग्रहण क रते हैं और इसी को मानव जाति में व्याप्त कलह का कारण मानते हैं।

– 5, हरि ओम् मार्ग, भजनगंज अजमेर। 09468695790

स्वप्नवासवदत्तम् में वर्णित वर्णव्यवस्था

स्वप्नवासवदत्तम् में वर्णित वर्णव्यवस्था

कु.सुनीता ठक्कर…..

धर्मशास्त्रों के अनुसार सामाजिक जीवन व्यवस्था के दो प्रमुख अंश हैं।

१. वर्णव्यवस्था और २. आश्रमव्यवस्था।

समाज की समस्त संस्थाओं, ईकाइयों एवं समूह समुदाय आदि के स्वरुप तथा व्यक्ति की भूमिका और

कार्य के निर्धारण में वर्णव्यवस्था और आश्रम व्यवस्था इन दोनों का सबसे महत्वपूर्ण स्थान हैं। इस प्रकार

सामाजिक जीवन में वर्णव्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सम्पूर्ण मानवजीवन का समान रुप से कार्य सम्पादन का जो उद्देश्य मानकर प्राचीनकाल के ऋषि-मुनियों ने वर्ण-व्यवस्था का आधार रखा तथा

स्मृतियों एवं अनेक धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में सभी वर्णों के अलग-अलग कार्य करने का मार्गदर्शन भी कराया।

मार्गदर्शन कराने के साथ-साथ सभी वर्णों के लिये यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया कि ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः

परधर्मो भयावहः। यदि प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कार्य के अनुसार यह वर्णव्यवस्था न की होती तो इस सम्पूर्ण

मानव-समाज का संचालन ठीक ढ़ंग से नही हो पाता। सभी व्यक्ति सभी कार्यों में संलग्न होकर किसी भी कार्य का सम्पादन अच्छी तरह नहीं कर पातें, जिससे सामाजिक जीवन-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती। इस वर्तमान समय में ऋषि-मुनियों के द्वारा की गई वर्ण-व्यवस्था का उल्लंघन कर संसार सम्पूर्ण मानव समाज ने अपने आपकों गड्ढ़े में ढकेल लिया। वर्ण व्यवस्था का उल्लंघन कर संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकता पूर्ति का दावा करता है, किन्तु उसका कोई भी कार्य अच्छी तरहपूर्ण नहीं हो सकता।

सामाजिक वर्णव्यवस्था में वर्णविभाजन के आधार में गुणों को महत्त्व दिया है तथा दूसरी ओर कर्म को भी स्वीकार किया गया है।धर्म ग्रन्थों में ऐसा देखने को मिलता है कि लोग विद्या, शिक्षा, तप, यज्ञआदि में अधिक रुचि रखते थे वे ब्राहमण कहलाते थे। वर्ण शासन-संचालन और समाज व्यवस्था में अधिक रुचि लेते थे तथा जिसका प्रधान कार्य देश की रक्षा करना था, वे क्षत्रिय हुए। पशुपालन, कृषि और व्यापार आदि जिनका

प्रधान कर्म था, वे वैश्यवर्ण से प्रसिद्ध हुए तथा समाज में तीनों वर्णों की सेवा का कार्य करनेवाले शूद्र वर्ण माने गए। इन्हीं कर्मो के आधार पर वर्ण को चार विभागों में विभक्त किया गया। इस प्रकार हमारे धर्मग्रन्थों में भी वर्णों के चार विभागों का ही वर्णन सुन्दर ढंग से किया गया है।

१.ब्राह्मण वर्ण:- वर्ण विभाजन के क्रम में धर्मशास्त्रकारों ने ब्राहमण को सर्वोपरि स्थान प्रदान किया है, क्योंकि मनु के अनुसार इसे ब्राहमण का दर्जा देने के कारण सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी माना गया है।गौतम के अनुसार द्विज जातियों का कर्म है- अध्ययन, यज्ञ एवं दान करना। आपस्त्म्ब में भी ब्राहमणों के लिए इन्हीं कर्मो का विधान है। इन्हीं मतों का समर्थन करते हुए याज्ञवल्क्य, विष्णु, अत्रि एवं मार्कण्डेय पुराण में भी अपने-अपने

मतों का सम्यक् रुपेण परिचय दिया है।

इस प्रकार धर्मशास्त्रकारों के मतों के अध्ययन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि ब्राहमण वर्ण का प्रमुख

कर्म अध्ययन अध्यापन, यजन, याजन, दान एवं प्रतिग्रह है।कहा जाता है कि ब्राहमण के मन, वचन एवं कर्म की शुद्धता तथा संयम से देवराज इन्द्र भी अपने आपको पराधीन मानते थे।

संक्षेप में इन मन्त्रद्रष्टा ब्राहमणों का जीवन ऐसा था कि सूर्य के प्रकाश की भांति सारे संसार को ज्ञान और

विद्या के द्वारा सुयोग्य नागरिक बनाकर उनका गृहस्थ में प्रवेश कराकर आश्रम व्यवस्था को जीवित रखना ब्राहमण वर्ण का मुख्य कर्तव्य था। ब्राहमणों के कर्तव्य का विवेचन गीता एवं श्रीमद्भागवत में भी विस्तार पूर्वक देखने को मिलता है।

. क्षत्रिय वर्णः- ब्राहमण वर्ण के बाद क्षत्रिय वर्ण का स्थान आता है। अर्थात् वर्णों में इसका दूसरा स्थान है।

धर्मशास्त्रकारेां ने वेदाध्ययन, यज्ञ सम्पादन एवं दान इन तीन कार्यों में ब्राहमणों के समान ही क्षत्रियों को भी

अधिकार प्राप्त कराया है, किन्तु क्षत्रिय का विशेष अधिकार समस्त प्रजाओं की रक्षा करना बताया है।

बौधाध्यन धर्मसूत्र में क्षत्रिय के वर्णधर्म की व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्षत्रिय को जहाँ

अध्ययन, यज्ञ, दान एवं प्रजा की रक्षा है वहीं उसे शस्त्र धारण एवं धन की रक्षादि कर्तव्यों के पालन की भी

आज्ञा दी गया है। इस प्रकार धर्म शास्त्रीय ग्रन्थों में क्षत्रिय वर्ण का मुख्यतः अध्ययन, यज्ञ, दान एवं शस्त्रधारण तथा विषयों से विरक्त होकर प्रजा का पालन करना ही माना है।

. वैश्य वर्णः- समाज में वैश्य वर्ण का तीसरा स्थान है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारों ने वैश्य वर्ण के कार्यों के

विभाजन के प्रति पूर्णतः सतर्कता का परिचय दिया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार पशुपालन, दान देना, यज्ञ

करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, कृषि आदि सामाजिक कार्यों का अधिकार वैश्यों को ही प्राप्त है। बौद्धायन

धर्मसूत्र भी उपरोक्त व्यवस्था का पथ प्रदर्शक है।इस प्रकार शास्त्रकारों ने वैश्य वर्ण के कर्त्तव्यों का प्रतिपादन

किया हे।

. शूद्र वर्णः-वर्णों के विभाजन में शूद्र को समाज में चौथा स्थान प्रदान किया गया है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारों के मत में वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र को एकमात्र कर्म का अधिकारी माना गया है और वह है- ब्राहमण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्णों की सेवा करना तथा उस सेवा से प्राप्त धन ही शूद्र वर्ण की आजीविका का साधन है। गौतम ने भी उपर्युक्त मनु एवं याज्ञवाल्क्य के मत का समर्थन किया है।आपस्तम्ब, बौद्धायन, अत्रि तथा मार्कण्डेय पुराण आदि धर्मशास्त्रकारों ने भी वर्ण धर्म विवेचन क्रम में शूद्र वर्ण के लिए एकमात्र कार्य द्विज सुश्रूषा का ही विधान किया है।

हमारे समाज में प्राचीनकाल से ही वर्ण-व्यवस्था की परम्परा चली आ रही है। इन वर्णव्यवस्था के अनुसार

ही मानव अपने कर्मो को भी करता आ रहा है। धर्मशास्त्रों में मुख्य रुप से चार वर्णों की विवेचना की गई है-

ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चार वर्णों में सर्वप्रथम स्थान ब्राहमण वर्ण का आता है। महा कवि भास ब्राहमण वर्ण से पूर्णरुपेण परिचित थे। अतः उन्होनें स्वप्नवासवदत्तम् में ब्राहमण वर्ण का उल्लेख सम्यक् रुप में किया है। पात्र विवेचन के क्रम में भी कंचुकी नामक दो पात्रों को ब्राहमण वर्ण के अन्तर्गत रखा है। ब्राहमण वर्ण का क्या कर्तव्य है। उसके कर्तव्य पर भी महाकवि भास ने स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक में कंचुकीय के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि कौन सा स्नातक है जो अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् गुरु को दक्षिणा देने के लिए द्रव्यादि चाहता है। इससे यह ज्ञात होता है कि महाकवि के समय में ब्राहमण वर्ण अध्ययन एवं अध्यापन रुप कर्म में सर्वदा संलग्न रहते थे तथा ब्राहमण वर्ण के लोग छात्रों को सम्यगरुपेण अध्यापन कराते थे तथा अध्ययन समाप्ति के पश्चात् छात्रों से द्रव्यादि ग्रहण करते थे, जिससे उनकी जीविका चलती थी। महाकवि भास के स्वप्नवासवदत्तम् के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय के

राजघराने की स्त्रियाँ ब्राहमण वर्ण के लोगों को स्वेच्छा से दान देती थी, जिससे ब्राहमण उस दान में प्राप्तकर

उस वस्तु से ही अपना जीवन-यापन करते थे। इस विषय में स्वयं महाकवि का पात्र कंचुकी कहता है कि कौन व्यक्ति कौन सी वस्तु चाहता है, उसके अनुसार राजकुमारी कलश धनादि देगी।इससे ज्ञात होता है कि ब्राहमण वर्ण के लोग अपने कर्म में सर्वदा व्यावृत रहते थे तथा दान दी गयी वस्तु से ही अपना जीवन-यापन करते थे। साथ ही साथ उनका अध्ययन-अध्यापन भी अपना कर्म था।

इस प्रकार महाकवि भास के नाटक में ब्राहमण वर्ण के सम्यकरुप से प्रतिपादन किया गया है कि उस समय के ब्राहमण लोग अध्ययन-अध्ययापन, यजन-याजन, दान तथा प्रतिग्रह रोहि अपनी जीविका चलाते थे। साथ

ही साथ नाटक में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि ब्राहमण वर्ण के लोगों को अपने कर्मानुकूल वृत्ति से परिवार का भरण-पोषण नहीं होता था, तो क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण के लोगों के कर्मों का अनुसरण करते थे। इसका उदाहरण स्वयं विदूषक है। विदूषक ब्राहमण होकर भी राजा उदयन के शृंगार सहायक का काम करता है। जब विदूषक राजा की बातों से अप्रसन्न हो जाता है तो स्वयं राजा कहते हैं कि महाब्राहमण प्रसन्न हो! प्रसन्नहो! इच्छानुसार ही कहिए। इससे प्रतित होता है कि महाकवि के समय में ब्राहमण वर्ण के लोग हास्य विनोदादि का भी कार्य करते थे।साथ ही साथ ब्राहमण वर्ण के लोग सेवा भाव का भी कार्य करते थे। उदाहरण के रूप में नाटक के दोनों कंचुकी पात्रों को लिया जा सकता है।

इस प्रकार महाकवि भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में ब्राहमण वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया है साथ ही साथ ब्राहमणवर्ण के लोग आपत्तिकाल में अपने कर्मो को छोड़कर अन्य वर्ण के कर्मो को किया करते थे, जो

नाटक के अध्ययन से प्रतीत होता है।

जिस प्रकार धर्मशास्त्रों में क्षत्रिय वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है उस प्रकार महाकवि भास ने

स्वप्नवासवदत्तम् में क्षत्रिय वर्ण का उल्लेख नहीं किया है। नाटक का कोई भी पात्र क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए नहीं दिखाई देता है। राजाओं के लिए अथवा क्षत्रियों के लिए प्रजापालन में तत्परता, शास्त्रों में निपुणता, शस्त्रों को धारण करना, दान, यज्ञआदि करना आवश्यक है। इस नाटक का कोई भी पात्र उपर्युक्त लक्षण से युक्त नहीं है। किन्तु हम यह भी नहीं कह सकते कि महाकवि के समय में क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं होता था।महाकवि भास क्षत्रिय वर्णव्यवस्था से सुपरिचित अवश्य होंगे, परन्तु क्षत्रिय वर्ण साक्षात् उल्लेख कभी भी नहीं किया है।

संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कलाकार एवं नाटककार महाकवि भास अपने नाटक स्वप्नवासदत्तम् में धर्मशास्त्रकारों के सभी नियमों से परिचित प्रतीत होता हैं। किन्तु नाटक का पूर्वापर अध्ययन करने के पश्चात्

यह ज्ञात होता है कि वैश्यवर्ण के वर्णन के क्रम में उनकी लेखनी की गति धीमी थी। अथवा उस समय वैश्य

वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन नहीं हो गाया महाकवि भास को वैश्य-व्यवस्था का वर्णन करना अभीष्ट नहीं होगा।

अतः नाटक में सूक्ष्म रुप में भी किसी स्थान पर वैश्य वर्ण-व्यवस्था का संकेत नहीं किया है।

महाकवि भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में अस्पष्ट रुप से शूद्र का वर्णन किया है। धर्मशास्त्रों में जो कहा गया है कि वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों का एकमात्र धर्म सेवा है। उस सेवा रुपी धर्म का पालन करता हुआ नाटक का पात्र सम्भषक भट्ट (जो मगध राज्य का भृत्य है ) दिखाई देता है। वह मगधराज की सेवा में सदा तत्पर

दिखाई देता है। किन्तु महाकवि भास ने सम्भषक भट्ट के भृत्य रुप चारित्रिक विशेषता को नहीं उभारा है तथापि नाटक में दिया हुआ पात्र परिचय के अन्तर्गत कवि ने सम्भषक का स्थान दिया है। जिससे ज्ञात होता है सम्भषक मगध राज्य की सेवा करके ही अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। जिस प्रकार सम्भषक भट्ट पात्र के रुप में आया है, उसी प्रकार नाटक की दो पात्राएँ वसुन्धरा तथा विजया भी शूद्र वर्ण के अन्तर्गत आती है। उन दोनों की चारित्रिक विशेषता से ज्ञात होता है कि वे दोनों ही राजघराने की सेविका थी तथा शूद्र वर्ण के

अन्तर्गत आनेवाले कर्मों को किया करती थी।

इस प्रकार कवि भास ने अपने नाटक स्वप्नवासवदत्तम् में प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप में चारों वर्णों के ऊँपर प्रकाश डाला है! इस प्रकार ज्ञात होता है कि महाकवि भास धर्मशास्त्रकारों के वर्णव्यवस्था सम्बन्धी नियमों के

उपासक थे। -आसि. प्रोफेसर

डी. एन. पी. आर्ट्स कॉमर्स कॉलेज डीसा,

स्नातिकाः– आर्य कन्या गुरुकुल शिवगंज (राज.)

कुरान समीक्षा : खुदा (मुन्सिफ)-वकील, गवाह और मुल्जिम?

खुदा (मुन्सिफ)-वकील, गवाह और मुल्जिम?

बतावें कि खुदा और तहसीलदार की कचहरी में क्या अन्तर होगा? क्या लोगों को अपना बैरिस्टर खड़ा करने की छूट होगी। यदि किसी तगड़े बैरिस्टर ने खुदा को हरा दिया तो खुदा की क्या इज्जत रहेगी?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

हा- अन्तुम हा-उला- इ जादल्तुम्……..।।

(कुरान मजीद पारा ५ सूरा रूकू १६ आयत १०९)

सुनो तुमने दुनियाँ की जिन्दगी में उनकी तरफ होकर झगड़ा कर लिया तो कयामत के दिन उनकी तरफ से अल्लाह के साथ कौन झगड़ा करेगा और कौन उनका वकील होगा?

समीक्षा

कुरान बताता है कि कयामत के दिन खुदा एक कुर्सी या तख्त पर बैठेगा। वकील अपने मुल्जिमों के मुकद्दमों की पैरवी करेंगे और खुदा से खूब बहस मुबाहिसा व झगड़ा करेंगे तब कहीं खुदा अन्त में किसी को हूरें व गिलमें अर्थात् औरतें व लोंड़े भोगने के लिए जन्नत में तथा दूसरों को दोजख में भेजेगा।

यह बात नहीं खोली गई है कि उन वकीलों को फीस कौन देगा? और वह कितनी होगी तथा वकीलों की उस समय पोशाक अंग्रेजी शूट-बूट हैट की होगी, अरबी होगी या वे मादर जात नंगे ही वहां खड़े होकर पैरवी करेंगे? यह बात सबको जान लेनी चाहिए कि खुदा के दरबार में भी बिना वकीलों से पैरवी कराये किसी का काम न बनेगा, और न अरबी खुदा ही पैरवी के किसी का मुकदमा सुन सकेगा।

कयामत के दिन हम ऐसे ‘‘वरिष्ठ आर्य समाजी’’ वकीलों का इन्तजाम कर देंगे जो अरबी खुदा के सरकारी वकीलों को हराकर खुदा के बन्दों को दोजख में भिजवा कर काफिरों को जन्नत अर्थात् बहिश्त पर बे रोक टोक कब्जा करा देंगे। सारी हूरें काफिरों के हिस्से में आ जावेंगी और गिलमों को धक्का मार-मार कर खुदा के अरबी चेलों के लिए दोजख में भेज दिया जावेगा।

जन्नत की दूध और शहद की नहरों पर काफिरों का कब्जा होगा और सौंठ व कपूर मिली जहरीली शराब ड्रमों में भरवा कर खूब गरम करा के कुरान परस्त अरबी लोगों के लिये दोजख में भिजवा दी जावेगी। रिश्वत से सारे काम हो जाते हैं, खुदाई व सरकारी वकीलों को तोड़ लेना पैसे वाले काफिरों के लिये बहुत ही मामूली बातें होंगी।

हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्षरत एक अधिवक्ताः श्री इन्द्रदेव प्रसाद

हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए

संघर्षरत एक अधिवक्ताः श्री इन्द्रदेव प्रसाद

-सत्येन्द्र सिंह आर्य

भारत को स्वाधीन हुए लगभग सात दशक हो गए, परन्तु केन्द्रीय सरकार के कामकाज में राजभाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग नगण्य ही है। उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में तो हिन्दी का प्रवेश ही वर्जित था। हम अपने पाठकों की जानकारी के लिए एक ऐसे संघर्षशील अधिवक्ता का जीवनवृत्त यहाँ दे रहे हैं, जिन्होंने विधि अनुसार उच्च न्यायालय में अपना अधिवक्ता के रूप में सारा विधिक कामकाज हिन्दी में निष्पादित करने में सफलता प्राप्त की है।

श्री इन्द्रदेव प्रसाद जी का जन्म श्री बालेश्वर महतो के परिवार में ग्राम-जमुआरा, पोस्ट-जमुआरा, जिला नवादा, राज्य बिहार में 13 मार्च 1967 को हुआ। आपकी प्रारमभिक शिक्षा (वर्ग 1 से 4 तक) राजकीय प्राथमिक विद्यालय जमुआरा में, वर्ग 5 से 7 तक राजकीय मध्य विद्यालय जमुआरा, माध्यमिक शिक्षा वर्ग 8 से 10वीं बोर्ड तक राजकीय उच्च विद्यालय हिसुआ में हुई। बी.ए. आनर्स आपने टी.एस. कॉलेज हिसुआ से किया तथा विधि स्नातक की शिक्षा विधि महाविद्यालय नवादा में पूर्ण हुई। शिक्षा पूर्ण होने पर अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय का प्रशिक्षण माननीय पटना उच्च न्यायालय में 17-02-1998 से लगातार एक वर्ष तक लिया। तभी से आप वहीं पर अधिवक्ता के रूप में कार्य कर रहे हैं और अपने समपूर्ण कार्य में भारत संघ की राजभाषा हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं।

श्री इन्द्रदेव प्रसाद जी ने अपने जीवन का उद्देश्य बनाया है- ‘‘माननीय उच्च न्यायालय पटना एवं माननीय उच्चतम न्यायालय भारत की न्यायिक कार्यवाहियों में भारत संघ की राजभाषा हिन्दी का प्रयोग जीवन भर करते रहना तथा और लोगों को भी इसके लिए उत्प्रेरित करते रहना।’’

उनके द्वारा इस दिशा में किये जा रहे कार्यों का विवरण उन्हीं के शबदों में इस प्रकार है-

  1. मैं अधिवक्ता बनने के पूर्व से ही, माननीय उच्च न्यायालय पटना की न्यायिक कार्यवाहियों में भारत संघ की राजभाषा हिन्दी का प्रयोग करता आ रहा हूँ। मैं अधिवक्ता बनने के बाद भी अपने प्रत्येक मुअक्किल का प्रत्येक मुकदमा भारत संघ की राजभाषा हिन्दी में ही दाखिल करता हँॅू और अपने प्रत्येक मुअक्किल के प्रत्येक मुकदमे की बहस, भारत संघ की राजभाषा हिन्दी में ही करता हूँ।
  2. माननीय उच्च न्यायालय, पटना के पूर्व माननीय न्यायमूर्ति श्री एस.के. कटियार ने मेरे एक मुअक्किल विनय कुमार सिंह के हिन्दी आवेदन को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 के संदर्भ में यह कहते हुए खारिज क र दिया था कि हिन्दी भाषा में लिखी हुई रिट याचिका पटना उच्च न्यायालय में पोषणीय नहीं है, जो निर्णय विधि 2003 बी.एल.जे. 418 विनय कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य विद्युत बोर्ड एवं अन्य के रूप में ज्ञापित है।
  3. मैंने अपने उक्त मुअक्किल विनय कुमार सिंह को, हिन्दी आवेदन को रोकने वाले उक्त निर्णय विधि 2003, 2द्ध बी.एल.जे. 418 के विरुद्ध (एल.पी.ए.475/2003) दाखिल करने की सलाह दी थी। मेरे मुअक्किल विनय कुमार सिंह ने मेरी सलाह मानकर मुझे नया अधिकार पत्र दिया था, तद्नुसार मेरे द्वारा हिन्दी आवेदन को रोकने वाले उक्त निर्णय विधि के विरुद्ध (एल.पी.ए. 475/2003) दाखिल हुआ था, जिसमें पारित माननीय न्यायमूर्ति श्री नवीन सिन्हा एवं माननीय न्यायमूर्ति श्री दिनेश कुमार सिंह वाली न्यायखंडपीठ का अंतिम आदेश दिनांक-12.05.2010 द्वारा हिन्दी आवेदन को रोकने वाले उक्त निर्णय विधि को अपास्त करते हुए अभी निर्धारित कर दिया गया है कि हिन्दी भाषा में तैयार की गयी रिट याचिका पटना उच्च न्यायालय में पोषणीय है, जो निर्णय विधि 2010, 3द्ध बी.एल.जे. पी.एच.सी.-83 विनय कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य विद्युत बोर्ड एवं अन्य के रूप में ज्ञापित है। इस प्रकार माननीय उच्च न्यायालय पटना में पटना की न्यायिक कार्यवाहियों में भारत संघ की राजभाषा हिन्दी का प्रयोग करने में अब कोई रुकावट नहीं है। वर्ष 2010 में ही माननीय उच्च न्यायालय पटना में हिन्दी अंग्रेजी के विवाद का अंत हो गया है जो आजादी के पहले का विवाद था।
  4. मैंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350, 351, 51,कद्ध19, कद्ध 14 एवं 13 में भरोसा करके माननीय उच्चतम न्यायालय भारत मेंाी भारत संघ की राजभाषा हिन्दी में कुछ मुकदमे दाखिल किये हैं, जिनका विवरण निनलिखित है-

(1) डलू पी., सिद्ध डी. नं. 3062/2016 दिनांक-23.01.2016 इन्द्रदेव बनाम भारत संघ एवं अन्य

(2) एस.एल.पी., क्रिद्ध डी. नं.-4749/2016 दिनांक-08.02.2016 वीरेन्द्र कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य

(3) एस.एल.पी. क्रिद्ध डी. नं.-11736/2016 दिनांक-04.04.2016 मुन्ना कुमार बनाम बिहार राज्य

(4) एस.एल.पी. सिद्ध डी. नं.-11741/2016 दिनांक-04.04.2016 संजय कु मार अधिवक्ता बनाम बिहार राज्य द्वारा विधि संचिव बिहार सरकार पटना वगैरह

  1. उक्त चार मुकदमों में से प्रथम मुकदमा डलू.पी., सिद्ध डी.नं.-3062/2016 का दाखिला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 के बल पर रोक दिया गया था, जिसके परिप्रेक्ष्य में मैंने माननीय उच्चतम न्यायालय भारत के सहायक निबंधक महोदय को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350,351,51, कद्ध, 19, कद्ध, 14 एवं 13 का स्मरण करवाया था, जिसका प्रभाव भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 से स्थगित नहीं हो सकता है।
  2. माननीय उच्चतम न्यायालय भारत के सहायक निबंधक महोदय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350, 351,51, कद्ध, 19, कद्ध, 14 एवं 13 का स्मरण करते ही हिन्दी भाषा में लिखी हुई रिट याचिका की दाखिला स्वीकार करने का आदेश अपने कार्यालय दूरभाष से अपने कार्यालय को दिया और उसी दूरभाषिक आदेश के आलोक में बिना किसी रोक-टोक के माननीय उच्चत्तम न्यायालय भारत में भारत संघ की राजभाषा हिन्दी में मुकदमा दाखिल होने लगा है। भारत संघ की राजभाषा हिन्दी में दाखिल उक्त सभी मुकदमे, माननीय उच्चतम न्यायालय भारत में हिन्दी आवेदनों एवं हिन्दी अनुलग्नकों का अंग्रेजी अनुवाद हेतु लंबित है। नियम से हिन्दी आवेदनों एवं अनुलग्नकों का अंग्रेजी अनुवाद माननीय उच्चतम न्यायालय भारत को अपने अनुवादक से ही करवाना है।
  3. श्री इन्द्रदेव प्रसाद जी का वर्तमान पता है-

इन्द्रदेव प्रसाद ,अधिवक्ता,

पटना उच्च न्यायालय

सदस्य-एडवोकेट एसोसियेशन

बैठने का स्थान-रूम नं.-3,

चलभाषः 09386442093

दूरभाषः 0612-2241621

  1. श्री इन्द्रदेव प्रसाद जी के प्रयत्नों का ही सुफल है कि 1 फरवरी 2016 के अंक में नवभारत टाइस समाचार पत्र ने यह टिप्पणी एंव समाचार प्रकाशित किया-

‘‘सुप्रीम कोर्ट पहुँची हिन्दी’’

‘‘प्रशंसा करनी होगी बिहार के एक वकील इन्द्रदेव प्रसाद की, जिन्होंने एडी-चोटी का जोर लगाकर देश की सबसे बड़ी अदालत को हिन्दी में लिखी याचिका स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। सुप्रीम कोर्ट में अब तक हिन्दी में लिखी याचिका दाखिल नहीं की जाती थी, लेकिन इन्द्रदेव प्रसाद ने इस परमपरा का विरोध किया। वे पटना उच्च न्यायालय में हिन्दी में लिखी याचिका ही दायर करते हैं औैर हिन्दी में ही बहस करते हैं। हिन्दी में याचिका देखकर सुप्रीम कोर्ट का रजिस्ट्रार कार्यालय भड़क गया और वकील से कहा कि पहले वह अपनी याचिका का अंग्रेजी अनुवाद कराएँ, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी पर गर्व करने वाले प्रसाद ऐसा करने को तैयार नहीं हुए, जब रजिस्ट्रार ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 348 की बाध्यता के कारण हिन्दी याचिका दायर नहीं की जा सकती तो याचिकाकर्त्ता ने उन्हें संविधान के अनुच्छेद 13 एवं 19 भी दिखाए, जिनमें हिन्दी के साथ भेदभाव करने से मना किया गया है। वकील इन्द्रदेव प्रसाद का यह कदम आगे भी देश के ऐसे याचिकाकर्त्ताओं और वकीलों के लिए मिसाल साबित होगा जो अपना मामला सुप्रीम कोर्ट में हिन्दी में लड़ना चाहते हैं।

अंग्रेजों के जमाने से आज तक कितने ही राज्यों के हाईकोर्ट में अंग्रेजी में ही कामकाज होता आ रहा है, केवल मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार और छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालयों में हिन्दी में सुनवाई होती है तथा वकीलों को हिन्दी में बहस की अनुमति है, यह भलीभाँति सिद्ध हो चुका है कि हिन्दी में कोर्ट का कामकाज सुगमता से चल सकता है, फिर अंग्रेजी की गुलामी क्यों कायम रखी जाए? हिन्दी में तमाम अंग्रेजी कानूनी शदों के पयार्यवाची शद उपलध हैं, इसके अलावा मुवक्किल भी समझ सकता है कि उसका वकील तथा प्रतिपक्षी वकील क्या कह रहा है। अंग्रेजी में अदालती कामकाज होने से कितने ही मुवक्किलों के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता, जब हिन्दी करोड़ों भारतीयों की प्रभावशाली एवं सामर्थ्यपूर्ण संपर्क भाषा है तो सुप्रीम कोर्ट को भी अंग्रेजी की बाध्यता पूरी तरह हटा लेनी चाहिए।’’

श्री इन्द्रदेव प्रसाद जी को बहुत-बहुत बधाई एवं साधुवाद।

-ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

वैदिक समाज व्यवस्था

वैदिक समाज व्यवस्था

प्रो. वन्दना सी. सिसोदीया….

विश्व की समस्त प्राची सभ्यताओं से सहस्रों वर्ष पूर्व, इस पावन भारतभूति पर मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने वैदिक

ज्ञान का साक्षात्कार किया। प्राणिमात्र के कल्याण का सन्देश देने वाली यह वैदिक संस्कृति साक्षात्कार ऋषियों की धरोहर है।वे ऋषि इनके अधिक निर्मल अन्तःकरण वाले थे कि किसी स्थान या जाति विशेष के प्रति उनका कोई पक्षपात अथवा पूर्वाग्रह नहीं था। इस कारण उनके द्वारा प्रत्यक्ष किया गया कि सत्य युगीन न होकर शाश्वत है। वे मित्र और ‘शत्रु दानों से अभय की अपेक्षा रखते थे। किसी भी सुखद स्थिति के

निर्माण के लिये भय का अभाव आवश्यक है। भार न होने पर ही हम मित्र हो सकते हैं और सभी को मित्र की

दृष्टि से देख सकते हैं तथा कल्याण की भावना से ओतप्रोत हो सकते हैं। यही कल्याण की भावना हमें एक दूसरे से जोडती है।

वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था

व्यष्टि एवं समष्टि की उन्नति का उपाय

वस्तुतः आज के पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद में कोइ मौलिक अन्तर नहीं है। ये एक ही भौतिकवादी व्यवस्था के चट्टे बट्टे हैं। तीनों का उद्देश्य पैसा और अधिकार है। तीनों मनुष्य की असली समस्या को पैसे से सम्बद्ध समझते है। इसके विपरीत वैदिक संस्कृति द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम की पद्धति पर आधारित समाज व्यवस्था व्यक्ति और समाज की भौतिक व आत्मिक दोनों प्रकार की भूख प्यास शान्त करती है। हम जब तक भौतिकतावादी बने रहेंगे तब तक विश्व शान्ति और विश्व प्रेम का नाम भर लेते रहेंगे, इन्हें प्राप्त नहीं कर पाएँगे। वैदिक संस्कृति का आध्यात्मवाद यह नहीं कहता कि हमें शरीर को भूल जाना है। या हमें मनुष्य की आर्थिक समस्या को हल नहीं करना है। सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने वाले व्षि शरीर को घृणा की दृष्टि से कैसे देख सकते थे? वैदिक संस्कृति भौतिकवाद का तिरस्कार नहीं करती, उसे विकास की माँग में अपना साधन समझती है, क्योंकि इस संस्कृति के दृष्टिकोण में शरीर आत्मा की तरफ ले जाने का साधन है, प्रकृति परमात्मा की तरफ ले जाने का साधन है। हम शरीर से चलें परन्तु रुक न जाएँ। यही आज के युग को

वैदिक संस्कृति का सन्देश है। इसी अभ्युदय के लिए, व्यष्टि और समष्टि के पूर्ण विकास के लिए वैदिक ऋषियों नें वर्णाश्रम व्यवस्था प्रारम्भ की थी। वेद सब मनुष्यों को उसी परम पिता परमेश्वर की सन्तान मान कर सब में सम दृष्टि रखने का उपदेश देता है। ऋगवेद में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि सब मनुष्य भाई हैं। इनमें से कोई जन्म से बड़ा नहीं और कोई छोटा नहीं, समानता के भाव को धारण करते हुए सब ऐश्वर्य या उन्नति के लिए मिलकर आगे बढ़ते हैं। वेद के अनुसार व्यक्ति समाज का एक अंग है और इसलिए समाज की उन्नति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को लगा देना सबका प्रधान धर्म है। वेद में मनुष्य के लिए ‘व्रात’ शब्द का अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ समुदाय अथवा संघप्रिया है। इससे मनुष्य

सामाजिक प्राणी है इस प्रसिद्ध उक्ति का ही समर्थन होता है। ऋगवेद के दशम मण्डल के अन्तिम सूक्त में संगतिकरण अथवा संघ बनाकर उन्नति करने का अत्युत्तम उपदेश किया गया है, जिनमें मिलकर जाने अर्थात् उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए सामूहिक यत्न करने, परस्पर मधुर वाणी बोलने और मन को उत्तम

शिक्षा के द्वारा सुसंस्कृत करने व ज्ञान सम्पन्न बनाने का भाव पाया जाता है। वैदिक समाज व्यवस्था का दूसरा आधार है त्यागपूर्वक उपभोग। संसार के उपभोग के दो प्रकार है, एक तो उसमें लिप्त हो कर और दूसरा उससे अलिप्त रहकर उपभोग करो। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए वैदिक ऋषियों ने मानव जीवन को चार आश्रमों तथा मानव समाज को चार वर्णों में विभक्त किया था तथा इन आश्रमों और वर्णों के कर्तव्य निश्चित किये थे। यही वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था सब प्रकार के वर्ग भेदों को समाप्त कर लोकसंग्रह और व्यष्टि की सर्वविध उन्नति के मार्ग खोलती है।

समाज अपने आप में व्यवस्था सापेक्ष है। व्यवस्था रहित जन समूह ऐसा समूह है, जिसमें न विवेक है और न

विचार करने की शक्ति। इसी कारण व्यवस्था रहित पशु समूह को ‘समाज’ कहा जाता है। ‘समाज’ से ऊँपर उठकर व्यवस्थित होने की प्रक्रीया ही ‘समाज’ का आधार है। वेद में ऋषियों ने मानव समूह को व्यवस्थित

करने के लिये तीन प्रकार के प्रयास किये हैं, प्रथम गुण और कर्म आधार पर, द्वितीय राजनीति के आधार पर तथा तृतीय आयु के आधार पर। इनका क्रमशः निम्न नामकरण किया गया है

१. वर्णव्यवस्था, २. शासन व्यवस्था, ३. आश्रम व्यवस्था

ये तीनों व्यवस्था एक दूसरे की विरोधी न होकर पूरक हैं। इनमें से वर्णव्यवस्था शासन व्यवस्था का तथा शासन व्यवस्था आश्रम व्यवस्था का आधार बनती है। उक्त तीनों का आधार अभ्युदय मूलक धर्म है, उसका

प्रयोजन मोक्ष है तथा अर्थ और काम इस यात्रा के पड़ाव हैं, जहाँ रुक कर मानव आगे बढ़ने के लिये शक्ति का सन्जय तथा अपनी गन्तव्य दिशा को पहचानने का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में पुरुषार्थ चतुष्टय की उपलब्धि ही वैदिक समाज व्यवस्था का मूल है।

वर्णव्यवस्था

इस वर्णव्यवस्था के सम्बन्ध में दो प्रकार के मत देखने को मिलते हैं। एक पक्ष वर्णव्यवस्था को जन्मना और दूसरा गुणतः और कर्मतः मानने के पक्ष में है। उक्त दोनों बातों के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण मिल जाते हैं। वेद में पुरुष सूक्त तथा एक स्थान पर अथर्ववेद को छोडकर किसी अन्य स्थल पर चारों वर्णों का एक साथ उल्लेख नहीं मिलता है। वेद तथा ब्राहमणग्रन्थों में बहुलता से ब्रहम और क्षत्र का एक साथ उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि की दृष्टि में ब्राहम और क्षात्र धर्म का समन्वय अधिक महत्वपूर्ण है। कहीं ब्राहमण के द्वारा तीनों वर्णों को नियन्त्रित किया गया है और कहीं क्षत्रिय के द्वारा। पुरुष सूक्त के ‘ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद्’ मन्त्र के आधार पर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वर्ण व्यवस्था को गुणतः और कर्मतः माना है। विराट् पुरुष के मुख, बाहू, उरु, और पाद का अर्थ वे दल अड्गों के गुण कर्म लेते हैं अर्थात् जो मुख के समान विद्यादि गुणों से युक्त होता है, वह ब्राहमण है। भुजा के समान जो बल, वीर्य से सम्पन्न होता है, वह ‘क्षत्रिय’ है। उरु के समान जो कृषि आदि कार्यों को करता है, वह ‘वैश्य’ है और जो पैरों के समान जडता आदि से युक्त होता है, वह ‘शूद्र’ है। आचार्य यास्क ‘वर्ण’ शब्द का निर्वचन करते हैः ‘वर्णो वृणोतेःइसका नाम वर्ण इसलिये है कि जैसे जिनके गुण कर्म हों, वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिये।

उपर्युक्त श्रुति और स्मृति के विवेचन के आधार पर बिना किसी सन्देह के यह कहा जा सकता है कि वेद में प्रतिपादित वर्णव्यवस्था का आधार गुण और कर्म है। वैदिक काल में गुणवत्ता के आधार पर वर्ण का निर्धारण

तथा कर्मशीलता के आधार पर उस वर्ण में बना रहना सम्भव था।उपर्युक्त विवेचन के प्रसन्ग यह स्पष्ट कर

देना आवश्यक है कि वैदिक काल के पश्चात् ब्राह्मणग्रन्थों के काल से ही वर्णव्यवस्था को जन्म से माना जाना प्रारम्भ हो गया था, परन्तु फिर भी, इस काल तक यह व्यवस्था जन्मना बहुत अधिक रुढ़ नहीं हो पायी थी। स्मृतिकाल में, जहाँ कि वेद के प्रति प्रतिबद्धता बहुत अधिक थी, एक ओर व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय और तीनों वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य ब्राहमण बनता है, का प्रतिपादन किया गया है। दूसरी ओर जन्म लेते ही ब्राहमण देवताओं का देवता तथा जाति के नाम पर जीनेवाला नाममात्र का ब्राहमण भी धर्म प्रवक्ता हो सकता है, का विधान किया गया। ये दोनों घोषणायें एकदम विरोधी हैं। यदि मनु के शब्दों में कहा जाये तो द्वितीय विधान श्रुति के अनुकूल होने से अप्रामाणिक है, लेकिन इस प्रकार अप्रमाणिक कह देने से स्मृति के लोकसत्य को निराकृत नहीं किया किया जा सकता।ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ स्मृतिकार का चिन्तन वैदिक विचारधारा से प्रभावित है, वहाँ वह सभी पूर्वाग्रहों से निरपेक्ष होकर गुण और कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन करता है, जहाँ वह लोक के पूर्वाग्रहों से ग्रसित है, वहाँ वह लोक के अनुसार व्यवस्था देता है।

सम्भवतः, इसी लोकसत्य से प्रभावित होकर महर्षि पाणिनी जैसा व्यक्तित्व भी निरवसित (जिनके खालेने पर पात्र संस्कार से भी शुद्ध नहीं होता ) तथा अनिरवित शूद्र के भाषा सम्बन्धी विधान का उल्लेख करता है। इस प्रकार निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि वैदिककाल में वर्णव्यवस्था ने आकार लेना प्रारम्भ कर दिया था। इस परिवर्तन के पीछे, सम्भवतः उच्च वर्णों का अपने अयोग्य पुत्रों के अन्धकारमय भविष्य को सुरक्षित एवं महत्वपूर्ण स्थान पर बनाये रखना की भावना निहित थी।

शासनव्यवस्था

शासनव्यवस्था के सम्बन्ध में वैदिक ऋषियों की अपनी एक सत्र्कल्पना है। उनकी दृष्टि में स्वराज्यमूलक शासन प्रजा को मिलना चाहिए। ऐसा कोई भी राज्य जिस में स्वत्व का भाव न हो, स्वीकार्य नहीं हो सकता। यह स्वत्व का भाव तभी आ सकता है, जब शासन का चयन प्रजा के द्वारा हो।

‘त्रीणि राजाना विदथे पुरणि’ इस मन्त्र के आधार पर महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि तीन प्रकार की सभा को ही राजा मानना चाहिये एक मनुष्य को कभी नहीं। इस कथन के मूल में ऋषि का यह आशय प्रतीत होता है कि प्रजा निरपेक्ष राजा स्वेच्छाचारी हो जाता है। शतपथ ब्राहमण कहता है कि स्वेच्छाचारी राजा प्रजा का नाश करने वाला होता है तथा वह प्रजा को खा जाता है और किसी को अपने से अधिक नहीं होने देता। मन्त्र में आये ‘त्रीणि सदांसि’ का आशय है कि शासन तीन सदनों वाला होना चाहिये; 1. राजसभा, 2.धर्मसभा, 3. विधान सभा इनमें से प्रथम ‘राजसभा’ में विशेष रुप से राजकार्य, विधान सभा में विशेष रुप से अध्ययन की उन्नति से सम्बन्धित कार्य तथा ‘धर्मसभा’ में धर्म की उननति और अधर्म की हानि के कार्य किये जाने चाहिये। जहाँ ये तीनों सभायें मिलकर प्रजा के कार्यों को विचार करके करती हैं, वहाँ प्रजा निश्चित रुप से

सुखी होती है। अथर्ववेद का ऋषि कहता है कि उपर्युक्त तीनों सभायें तथा सत्र्ग्राम की व्यवस्था करने वाली समीति और सेना मिलकर शासन व्यवस्था का सनचालन करें। इसके अतिरिक्त राजा सभा के सदस्यों का तथा सभा के सदस्य राज्यव्यवस्था का पालन करें। इस प्रकार राजा तथा सभा के सभासद अन्योन्याश्रित रहें अर्थात् राजा के अधीन सभा और सभा के अधीन राजा को रहना चाहिये। जिसप्रकार राजा प्रजा की रक्षा करे, उसी प्रकार राजा के घर, शरीर तथा राज्य की रक्षा प्रजा को करनी चाहिये। राजा कहीं स्वेच्छाचारी न हो जाये, इसलिये दस सदस्यों वाली समीति राज्य कार्यों को सम्पन्न करें, ऐसा मनु मानते हैं। ऋगवेद के ऋषि के अनुसार राजा और प्रजा का परस्पर सम्बन्ध गुरु शिष्य अथवा पिता पुत्र के समान होना चाहिये। गुणों से सम्पन्न व्यक्ति का राजा के रुप में चयन प्रजा करती है, इसलिये राजा और प्रजा में परस्पर सख्यभाव रहना चाहिये। (ऋषि कहीं गुरु शिष्य, कहीं पिता पुत्र के सख्यभाव की ओर इन्गित करके यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि राजा और प्रजा के सम्बन्ध मधुर नहीं रह सकते। यह विश्वास ही किसी राज्य का आधार हो सकता है। इस प्रकार के शासन तन्त्र का वेद में उपदेश किया गया है। इस मार्ग पर चलने से चक्रवर्ती राज्य और पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति होती है। उपर्युक्त शासन तन्त्र का पालन सत्य, नियम, तेज, तपस्या, क्षात्र धर्म और व्रत के द्वारा किया जाता है। प्रजातन्त्र ही प्रजा का राज्य होता है, इसलिये प्रजा सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति को राज्यकर्म सम्पन्न करने के लिये चुनती है।दूसरे देश के अधीनस्थ राजा, सचिव, सूत, ग्राम प्रधान उस चुने हुए राजा का अभिषेक करते हैं। वह राजा सर्वदा संसद में प्रजा के प्रतिनिधियों के मत के अनुरुप प्रजा को ऐश्वर्यवान् बनाने का प्रयास करे।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक शासन व्यवस्था में जो बुद्धिमान, बलिष्ठ, धार्मिक एवं न्यायप्रिय है, वही राजा हो सकता है और प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ राजा राजपद पर आसीन नहीं रह

सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वैदिक शासन व्यवस्था प्रजा सापेक्ष है, प्रजा ही राजा का चयन

करती है और वही संसद के सदस्यों का भी। राजा सदस्यों के मत के अनुरुप प्रजा को सुख पहुँचाने वाले कार्य

करता है। जहाँ राज्य के स्थायित्व और समृद्धि के लिये ब्राहमण और क्षत्रिय वर्ग का उचित समन्वय आवश्यक है, वहीं पूँजीपति और श्रमजीवी वर्ग के मध्य मधुर सम्बन्ध बने रहना भी अनिवार्य है। ब्राहमण, क्षत्रिय आदि का अस्तित्व प्रजा पर आश्रित है। इस प्रकार प्रजा सर्वोपरि है, परन्तु प्रजा की उचित और अनुचित इच्छा का नियमन धर्म से होता है, इसलिये किसी भी राज्य का सुदृढ आधार धर्म ही हो सकता है। भगवान् सत्यराजन् की जत्र्घा और पादों को धर्म बताने का उद्देश्य यही है कि शरीर को गतिमान् और स्थिर रखने के लिये जिस प्रकार जत्र्घा और पाद आवश्यक हैं, उसी प्रकार राज्य की उन्नति और स्थिरता के लिये धर्म आवश्यक है जिस राज्य के आधार धर्म और सत्य होते हैं वहाँ सुख, शान्ति और समृद्धि विराजती है।

आश्रम व्यवस्था

विभिन्न आयु वर्गों के आधार पर ‘श्रम’ का उचित विभाजन आश्रम व्यवस्था का मूल है। वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था उपनिषद्कालीन आश्रम व्यवस्था से भिन्न है । वैदिककालीन आश्रम व्यवस्था चतुर्धा न होकर द्विधा है। वेद में मात्र दो आश्रमों का उल्लेख प्राप्त होता है ब्रहमचर्य और गृहस्थ। इन दो आश्रमों में भी ब्रहमचारी और ब्रहमचर्य का वर्णन अथर्ववेद में हुआ है। इससे यह निष्कर्ष सरलता से ग्रहण किया जा सकता है। कि गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का मूल है। इस आश्रम के सम्यक् रुप से स्थिर हो जाने के पश्चात् ही अन्य आश्रमों

की परिकल्पना की गयी।

जहाँ तक वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के पूर्वापर का प्रश्न है, निःसंदिग्ध रुप से यह कहा जा सकता है कि वानप्रस्थाश्रम से पूर्व सन्यासाश्रम अस्तित्व में आ चुका था। ब्राहमणग्रन्थों से पूर्व वैदिक ऋषि भी इस प्रकार की भाषा बोलने लग गये थे, जिससे इस तृतीय स्थिति का आभास मिलना प्रारम्भ हो गया था, परन्तु इस काल तक उक्त स्थिति का नामकरण नही हो पाया था।ऐतरेय एवं तैत्तिरीय आरण्यकों में सर्वप्रथम संन्यासाश्रम के सत्र्केत मिलते हैं। उसके बाद उपनिषद्काल में सन्यासाश्रम, उसका समय धर्म, लक्षण, विघ्न, विधि, अधिकारी तथा सन्यास के सम्बधित अन्य विषयों का विशद प्रतिपादन किया गया।इसलिये संन्यासाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा उपनिशद्काल में हुई, यह माना जा सकता है। वेद और ब्राहमणग्रन्थों के कर्मकाण्ड प्रधान युग के पश्चात् परवर्ती पीढ़ी में होना स्वाभाविक है। वेद और ब्राहमण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड प्रधान युग के पश्चात् परवर्ती चिन्तक का अन्तर्मुखी होना अधिक स्वाभाविक है। उनसे सभी प्रकार के बाह्य कर्मकाण्ड का परित्याग करके, यहाँ तक कि बाह्य संसार का भी परित्याग करके वन में जाकर वानप्रस्थी बनना स्वीकार किया।वेद का ऋषि जहाँ परमात्मा को अनेक नामों और नामों के अनुरुप उनकी कर्मशक्ति की परिकल्पना में अधिक संलग्न था, वहीं उपनिषद्काल का ऋषि ईश्वर के सभी नामों के मूल अभिधेय, सृष्टि के मौलिकतत्त्व के चिन्तन में अधिक निमग्न है। कहने का आशय यह है कि ब्राहमण काल के पश्चात् अन्तर्मुखी होने की प्रक्रीया वानप्रस्थ और सन्यासाश्रम के अस्तित्व में आने का प्रमुख कारण प्रतीत होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वानप्रस्थाश्रम के अस्तित्व में आने से, जहाँ पारिवारिक जीवनसुखी हुआ, वहीं आध्यात्मिक चिन्तन को एक नई दिशा मिली और तत्कालीन ऋषियों की बुद्धिमत्ता ने दोनों पीढ़ियों को कुण्ठित होने से बचा लिया। निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि वैदिक ऋषियों की समाज व्यवस्था का मूल गुण और कर्म के आधार पर वर्ण का वरण करना है। कर्मक्षेत्र का वरण करने के उपरान्त व्यक्ति अपनी भूमिका के अनुरुप शासन व्यवस्था में सहयोग प्रदान करता है।एक आयु विशेष और वैराग्य की प्रबलता के आधार पर,

कर्मक्षेत्र से निवृत्ति पाकर व्यक्ति, पूर्ण निवृत्ति (वैराग्य) के मार्गपर अग्रसर होता है। प्रवृति सायास होती है,

जबकि  आयास का अभाव ही निवृत्ति है। स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर अथवा बर्हिमुख से अन्तर्मुख की ओर

अथवा प्रवृति से निवृत्ति की ओर ले जाना वैदिक समाज व्यवस्था का प्रयोजन है। धर्म को आधार मानकर चली, इस समाजव्यवस्था की सुखद परिणति पुरुषार्थ चतुष्टय की उपलब्धि के साथ पूर्णता प्राप्त करती है।

– प्रोफेसर,

डी.एन.पी. आर्टस् कामर्स कॉलेज,

डीसा, (गुजरात)

कुरान समीक्षा : मुसलमान, मुसलमान को न मारे

मुसलमान, मुसलमान को न मारे

क्या इससे अरबी खुदा का मुसलमानों के साथ पक्षपात व दूसरों से शत्रुता साबित नहीं होती है।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व मा का-न लि मुअ्मिनिन्………।।

(कुरान मजीद पारा ५ सूरा निसा रूकू १३ आयत ९२)

किसी ईमान वाले को जायज नहीं कि वह ईमान वाले को मार डाले।

व मंय्सक्तुल् मुअ्मिनम्-मु त………।।

(कुरान मजीद पारा ५ सूरा निसा रूकू १३ आयत ९३)

जो मुसलमान को जानबूझ कर मार डाले तो उसकी सजा दोजख है।

समीक्षा

यह आयतें खुदा को अन्यायी और अत्याचारी घोषित करती हैं और उसे मुसलमानों का पक्षपाती बताती हैं न्याय की बात तो यही थी कि अन्यायी कोई भी हो मुसलमान हो या काफिर उसे दण्ड देने को कहा जाता।

मुसलमान जालिम भी निर्दोष होगा यह कोई मान नहीं सकता है। अरबी खुदा को इन्साफ करना भी नहीं आता था ऐसे पक्षपाती अरबी खुदा को दूसरा समझदार व्यक्ति अपना रक्षक कैसे मान सकता है? जो मुसलमानों को कत्ल करने को भड़काता है।