वेद ज्ञान वरों की खान है

ओउम
वेद ज्ञान वरों की खान है
डा. अशोक आर्य
शब्द को सुनते ही ह्रदय में एक विशेष प्रकार का रोमांच सा पैदा होता है |यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ मे परम प्रभु ने जीव मात्र के कल्याण के लिए दिया था | प्रभु प्रदत ज्ञान होने से इस ज्ञान को अनादि भी कहा जा सकता है | इस ज्ञान से हमें प्रत्येक क्षेत्र के सम्बन्ध में, प्रत्येक व्यापार तथा प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में न केवल परिचय ही मिलता है अपितु प्रत्येक समस्या का समाधान भी मिलता है | इस कारण वेद वरों से भरपूर अथवा वरों की खान कहा गया है | अथर्ववेद में भी इस तथ्य की ही पुष्टि की गयी है | मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :-
स्तुता मया वरदा वेदमाता
प्र चोदयन्ताम पावमानी द्विजानाम |
आयु: प्राण प्रजां पशुं कीर्तिं
द्रविण ब्रह्मवर्चसम |
मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकं || अथर्ववेद १९.७१.१ ||
हे देवो ! द्विजों को पवित्र करने वाली , वरों को देने वाली , वेदमाता की मैंने स्तुति की है | आप मुझे प्रेरणा दें | दीर्घ आयु , जीवन शक्ति, सुसंतान, पशुधन , यश वैभव और ब्रह्मतेज प्रदान कर ब्रह्मलोक को जाईये |
वेदों को अपार महिमा का भंडार कहा जाता है | वेद का प्रकाश स्वयं पारम पिता परमात्मा ने मानव मात्र के कल्याण के लिए किया है | इस आधार पर स्पष्ट होता है कि वेद का यह ज्ञान सब प्रकार के ज्ञान का स्रोत है | जिस प्रकार किसी नदी का उद्गम स्थान वहां से जल के स्रोत के रूप में जाना जाता है , उस प्रकार ही परमपिता परमात्मा इस ज्ञान का स्रोत , उद्गम होने से सब प्रकार के ज्ञान का स्रोत वेद ही है | प्रभु प्रदत इस ज्ञान से पूर्व विशव में कोई ज्ञान न था | इस आधार पर स्पष्ट होता है कि समग्र विश्व को सर्वप्रथम ज्ञान देने का श्रय वेद को ही जाता है |
वेद को मानव मात्र के लिए प्रकाश स्तम्भ के रूप में जाना जाता है | जिस प्रकार सागर में स्थित प्रकाश स्तम्भ भटके हुए जलपोत को मार्ग देता है तथा इंगित करता है कि इस और मत आना यहाँ खतरा है | इस चेतावनी के कारण कोई भी जलपोत उधर को न जाकर अपनी रक्षा करता है | इस प्रकार ही वेद मानव मात्र के लिए प्रकाश सतम्भ का कार्य करता है | यह भी विश्व के भूले भटके मानव को सुपथ गामी बनाने के लिए प्रकाश देता है,ज्ञान देता है |
जहाँ पर वेदका प्रकाश है , वेदकी ज्योति है , वहां निश्चित रूप से अँधेरा छंट जाता है | वेदकी ज्योति जहाँ भी होती है , वहां निश्चित रूप से प्रकाश ही प्रकाश होताहै , उन्नति के सब मार्ग खुल जाते हैं , सर्वत्र सुख और शान्ति का निवास होता है , तथा सब प्रकार के विकास वद की ज्योति में होते हैं |
इस मन्त्र में वेदको माता कहा गया है | माता सदैव अपनी संतान की रक्षा करती है | यह बालक के लिए रक्षा कवच होती है | जिस प्रकार माता संतान के लिए रक्षा कवच का कार्य करती है , उस प्रकार ही वेदभी समग्र संसार का , संसार के समग्र प्राणियों का रक्षक होता है | माता अपने बालक को अमृत तुल्य दूध पिला कर उसे पुष्टि देती है | इस के ही अनुरूप वेदज्ञान स्वरूप दूध से सिंचित कर संसार को पुष्टि देते हैं , उसके सुखों कि वृद्धि करते हैं| यह वह ज्ञान है जिस के कारण आर्यों का वंश अक्षय रहा है | इस कारण ही इसे वरदायी कहा गया है |
वेद मैं समग्र ज्ञान होने के कारण , जिस भी प्रकार के ज्ञानकी प्राप्ति की अभिलाषा हो, उसे वेदके स्वाध्याय से पूर्ण किया जा सकता है | इस के स्वाध्याय से इस स्रष्टि का प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक समाज, प्रत्येक राष्ट्र तथा समग्र विश्व की उन्नति का कारण होता है , साधन होता है | विशव भर के लिए समान ज्ञान होने से यह ज्ञान विश्व – बंधुत्व का प्रेरक भी होता है | इतना ही नहीं ved धर्म विश्व धर्म का संस्थापक भी है | जिस ved ज्ञान के इतने गुण हैं , उस वेदका निरंतर स्वाध्याय कर विश्व के प्रत्येक प्राणी को वेदकी सीढियाँ प्राप्त कर न केवल अपना ही अपितु समग्र विश्व के कल्याण में , विश्व की उन्नति मंर ,विश्व के विकास में अपना योग देना चाहिए | इससे उसका अपना भी कल्याण व उत्थान होगा तथा अपने परिवार का भी लाभ होगा |
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट , कौशाम्बी, गाजियाबाद
चलाभाश ०९७१८५२८०६८, ०९०१७३२३९४३
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महर्षि दयानन्द के विषपान पर प्रश्नः- राजेन्द्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द के विषपान पर प्रश्नः- लखनऊ से ही आशीष प्रतापसिंह जी ने चलभाष पर बताया कि एक पौराणिक ने आक्षेप किया है कि ऋषि की मृत्यु विष दिये जाने से नहीं हुई। पं. लेखराम जी ने भी नहीं लिखा कि ऋषि का निधन विषपान से हुआ। उन्हें कहा गया कि उस पौराणिक का यह कथन मिथ्या है कि पं. लेखराम जी ने महर्षि को विष दिया जाना नहीं लिखा। पौराणिकों ने भारतीय इतिहास व महापुरुषों के जीवन पर न तो कभी कोई प्रश्न उठाया है और न ही विधर्मियों के वार का कभी उत्तर दिया है। ऋषि दयानन्द पर वार प्रहार करना इनकी दृष्टि में सनातन धर्म का प्रचार व सेवा है। परोपकारी में उत्तर पढ़ लेना और चुप करवा देना।
पं. लेखराम लिखित ऋषि जीवन में अजमेर के पीर जी का कथन पढ़िये। ऋषि को संखिया दिया गया। स्पष्ट लिखा है। पण्डित जी के साहित्य में (कुल्लियाते आर्य मुसाफिर) स्पष्ट लिखा है कि ऋषि को विष दिया गया। सम्पूर्ण जीवन-चरित्र में तत्कालीन कई इतिहासकारों के प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया है कि ऋषि जी को विष दिया गया। राव राजा तेजसिंह का स्वामी श्रद्धानन्द जी के नाम लिखा पत्र परोपकारिणी सभा के पास सुरक्षित है। कोई भी पढ़ ले। श्री गौरीशंकर ओझा का लेख, मुंशी देवीप्रसाद इतिहासकार, क्रान्तिकारी श्री कृष्णसिंह इतिहासकार के इतिहास को पढ़िये, समाधान हो जायेगा। मिर्ज़ा कादियानी ऋषि को हलाक करवाने (हत्या) का श्रेय () लेता है। ये सब प्रमाण सम्पूर्ण जीवन-चरित्र में दिये गये हैं। ऋषि पर देश भर में आक्रमण किये गये। पूना, काशी, मुम्बई, सूरत, मथुरा, कर्णवास, गुजरांवाला, अमृतसर, वज़ीराबाद, गुजरात, कानपुर….कहाँ पर जानलेवा प्रहार नहीं किये गये? कुटिया जलाई गई, गंगा में फेंका गया और एक बार टाँग भी तोड़ी गई। इतनी बार और इस युग में किस विचारक सुधारक पर वार-प्रहार किये गये। न जाने इन पौराणिकों ने महर्षि के देश, धर्म व जाति रक्षा के लिये तिल-तिल कर जलने व जीने पर कभी भाव भरित हृदय से कुछ लिखा नहीं-कुछ कहा नहीं। कोई गिनती तो करे कि ऋषि पर कहाँ-कहाँ आक्रमण किया गया? कहाँ-कहाँ विष देने के षड््यन्त्र रचे गये?

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कःराजेन्द्र जिज्ञासु

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कः-श्रीयुत् आशीष प्रतापसिंह लखनऊ तथा एक अन्य भाई ने मांसाहार विषयक एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर पूछा है। इस प्रश्न का उत्तर किसी ने एक संन्यासी महाराज से भी पूछा। प्रश्न यह था कि वृक्षों में जब जीव है तो फिर अन्न, फल व वनस्पतियों का सेवन क्या जीव हिंसा व पाप नहीं है? संन्यासी जी ने उत्तर में कहा, ऐसा करना पाप नहीं। यह वेद की आज्ञा के अनुसार है। यह उत्तर ठीक नहीं है। इसे पढ़-सुनकर मैं भी हैरान रह गया।
महान् दार्शनिक पं. गणपति शर्मा जी ने झालावाड़ शास्त्रार्थ में इस प्रश्न का ठोस व मौलिक उत्तर दिया। मांसाहार इसलिए पाप है कि इससे प्राणियों को पीड़ा व दुःख होता है। वृक्षों व वनस्पतियों में जीव सुषुप्ति अवस्था में होता है, अतः उन्हें पीड़ा नहीं होती। हमें काँटा चुभ जाये तो सारा शरीर तड़प उठता है। किसी भी अंग पर चोट लगे तो सारा शरीर सिहर उठता है। पौधे से फूल तोड़ो या वृक्ष की दो-चार शाखायें काटो तो शेष फूलों व वृक्ष की शाखाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फूल तोड़ कर देखिये, पौधा मुर्झाता नहीं है। जीव, जन्तु व मनुष्य पीड़ा अनुभव करते हैं।
पं. गणपति शर्मा जी ने यह तर्क भी दिया कि मनुष्य का , पशु व पक्षी का कोई अंग काटो तो फिर नया हाथ, पैर, भुजा नहीं उगता, परन्तु वृक्षों की शाखायें फिर फूट आती हैं। इससे सिद्ध होता है कि वनस्पतियों वृक्षों में जीव तो है, परन्तु इनकी योनि मनुष्य आदि से भिन्न है। इन्हें पीड़ा नहीं होती, अतः इन्हें खाना हिंसा नहीं है। अहिंसा की परिभाषा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी पढ़िये। पं. गणपति शर्मा जी का नाम लेकर यह उत्तर देना चाहिये। पण्डित जी का उत्तर वैज्ञानिक व मौलिक है।

वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो? : डॉ. धर्मवीर

वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो?
सम्पूर्ण समय में सब कुछ विकसित या सब कुछ अविकसित नहीं हो सकता। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि सदा सब कुछ एक जैसा नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि समय को चलाने के लिये उसका थोड़ा होना भी बहुत होता है। हम उसे समाज का मुख भी कह सकते हैं। वह ही संसार में आगे चलता है। जैसे शरीर में मुख के अतिरिक्त बहुत कुछ है, परन्तु सब ज्ञानेन्द्रियाँ मुख पर ही आश्रित हैं, सारा शरीर उसी से चलता है। समाज को सभी वर्णों की आवश्यकता होती है, परन्तु समाज को विद्या और विज्ञान जानने वाला वर्ग ही चलाता है। पहले भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है और आगे भी ऐसा ही होगा। यदि विद्या वाला वर्ग सोचे कि वह कुछ नया नहीं जानेगा और समाज का संचालन करेगा, तो यह सोचना गलत होगा। तब तक समाज में उसका स्थान दूसरे ले चुके होंगे। ज्ञान ही मनुष्य को संचालित करेगा, चाहे वह किसी भी दिशा से आये या किसी भी भाषा से आये। जब कभी कोई संसार में प्रगति को अवरुद्ध करता है, तब गति की दिशा और स्थान बदल जाते हैं, परन्तु गति बनी रहती है। संसार में निरन्तर ऐसा ही होता रहता है।
इस बात को एक और तरह से भी समझ सकते हैं। इस जीवित शरीर में चेतना होने पर ही जीवन रहता है। चेतना के समाप्त होने पर शरीर तो रह सकता है, परन्तु उसमें जीवन नहीं हो सकता, इसी कारण मनुष्य शरीर के लिये सब कुछ करके भी अपने को अपूर्ण अनुभव करता है। यह अपूर्णता हमें पूर्णता के लिये कुछ करने को विवश करती है। यह विवशता धार्मिकता के बिना दूर नहीं हो सकती, इसे रूढ़िवादी धर्म कभी भी पूरा नहीं कर सकते। वैदिक धर्म की वैज्ञानिकता ही इस शरीर और आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ है।
जो लोग बिना ज्ञान के चलना चाहते हैं, उन्हें उनका आग्रह समाज में पीछे धकेल देता है। प्रायः हम धर्म के नाम पर अपने को एक स्थान पर बाँध लेते हैं और जब बँध जाते हैं तो हमारी गति रुक जाती है। संसार में सबसे अधिक ईसाई और मुसलमान हैं, उन्होंने धर्म और विज्ञान से अपने को विचित्र तरह से जोड़ा। इस्लाम की विचाराधारा ज्ञान-विज्ञान पर रोक लगाने वाली है, वहाँ प्रगति के लिये कोई स्थान नहीं। ईसाइयत ने इसे दो भागों में बाँट लिया है, गति के लिये विज्ञान का आश्रय लिया है, परन्तु धर्म के बन्धन को भी नहीं छोड़ा है, इसलिये वह विज्ञान को स्वीकार करने पर भी अपने धर्म को वैज्ञानिक नहीं बना सका। वैदिक धर्म ने जब तक अपने ज्ञान-विज्ञान को जीवित रखा, तब तक वह विज्ञान-सम्मत था, गति करता रहा। जब वह वैज्ञानिक सोच से वञ्चित हो गया, प्रगति से शून्य हो गया।
इस युग में ऋषि दयानन्द का आगमन वैदिक धर्म को विज्ञान-सम्मत बनाने का प्रयास था। धर्मों की लड़ाई में ऋषि दयानन्द की वैज्ञानिकता ने वैदिक धर्म को गति दी। उनके अनुयायियों ने धर्म को तो अपनाया, परन्तु वैज्ञानिक सोच को भूल गये या वह उनसे छूट गया, परिणाम स्वरूप उनकी लड़ाई अन्य धर्म वालों के साथ रह गई, वैज्ञानिकों के साथ छूट गई। दूसरे शब्दों में आर्य समाज शिक्षा, विद्या एवं विज्ञान के क्षेत्र में अपना स्थान नहीं बना सका। वह उन्हीं धार्मिक लोगों से लड़ता रहा और आज भी लड़ रहा है। हमारी लड़ाई विज्ञान के बिना और वैज्ञानिक लोगों से न होकर रूढ़िवादी धार्मिक लोगों के साथ रह गई है, जो वैज्ञानिक सोच बिल्कुल नहीं रखते। ऋषि दयानन्द के समय हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे ले जा सकी थी, परन्तु आज हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे क्यों नहीं ले जा पा रही है- इसके विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
प्रगति के अवरुद्ध होने का जो कारण हमारी समझ में आता है, वह यह है कि ऋषि दयानन्द के समय संसार भर में धर्म का प्रभाव अधिक था, विज्ञान का विकास थोड़ा था, प्रभाव भी थोड़ा था, इसलिये धर्म के नाम पर कही गई वैज्ञानिक बातों को धार्मिक लोग आसानी से स्वीकार कर लेते थे, परन्तु आज विज्ञान का अनुयायी वर्ग संसार में बहुत बढ़ गया है और धार्मिक वर्ग प्रतिशत में अधिक होने पर भी पहले से बहुत घट गया है, ऐसी स्थिति में आर्य समाज या वैदिक धर्म की लड़ाई वर्तमान धार्मिक परिस्थितियों में पिछड़ गई है। इसका एक कारण है- इन धार्मिक संगठनों का प्रभाव क्षेत्र, उनका संगठन तथा प्रचार तन्त्र और उसके लिये प्राप्त उनके साधन हमारी तुलना में हजारों गुना अधिक हैं। हमारे पास वैज्ञानिक विचार तो हैं, परन्तु इन विचारों को गति देने वाला तन्त्र नहीं है। नये विचारक उत्पन्न करने के साधन नहीं हैं, प्रतिभाशाली लोगों तक पहुँचने के उपाय भी नहीं, व्यक्ति भी नहीं। इस स्थिति में हमारे किये जाने वाले प्रयास समुद्र के सम्मुख बिन्दु जैसे भी नहीं दीखते। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जा सकता है और क्या किया जाना चाहिए?
प्रथम जिस परिवेश और समाज में हम लोग रह रहे हैं, उसमें दोनों प्रकार के लोग हैं, एक वे जो अपने को धार्मिक कहते हैं और दूसरे वे जो अपने को प्रगतिशील या वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति मानते और समझते हैं। वैदिक विचारों के लिये जो अवसर पहले था, आज भी वही है। विज्ञान कितना भी आगे क्यों न बढ़ गया हो, कितना भी विकसित क्यों न हुआ हो, आज भी शरीर के स्तर से आगे नहीं बढ़ा है। मनुष्य के लिये शरीर ही अन्तिम नहीं है। यहाँ आकर व्यक्ति अपने को वैज्ञानिक विचारधारा वाला मान कर स्वयं को धर्म से- रूढ़िवादिता से दूर कर लेता है, परन्तु अपने-आपको विज्ञान की खोज से सन्तुष्ट नहीं कर पाता। ऐसे लोग अपने को वैज्ञानिक मानते हैं, परन्तु धार्मिकता की परम्पराओं से स्वयं को दूर रखते हुए विज्ञान के अन्दर जो अभाव है, उसे पूरा करने के लिये अपने को अध्यात्मवादी कहते हैं। उनका मानना है कि भले ही वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं, परन्तु सोचते कुछ और हैं, जिसे विज्ञान से अभी तक समझा नहीं जा सका है। इसी कारण वे अपने को धार्मिक (रिलीजियस) न कहकर अध्यात्मवादी (स्प्रिच्युलिस्ट) कहते हैं।
ऋषि दयानन्द ने अपने विचार समाज के बुद्धिजीवी वर्ग में ही रखे थे। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन काल में जितना प्रचार किया, साहित्य लिखा, उसका सम्पर्क तत्कालीन बुद्धिजीवी लोगों से रहा, जिसके कारण उनके विचारों का प्रभाव समाज के बुद्धिजीवी वर्ग पर देखा जा सकता है। राजा-महाराजा हों, न्यायाधीश, पत्रकार, विद्वान्, लेखक हों। सभी उनके विचारों से परिचित थे, चाहे लोग स्वामी जी के विचारों से सहमत हों या असहमत हों। इसी चर्चा के कारण देश में ही नहीं, देश के बाहर भी उनके विचारों की चर्चा, उनके जीवन काल में हम देख सकते हैं।
धीरे-धीरे आर्य समाज की चर्चा समाज में तो रही, परन्तु उसके केन्द्र से बुद्धिजीवी वर्ग बाहर होता गया, उस वर्ग के लोगों को आर्य समाज के विचार और सिद्धान्तों से परिचित होने का अवसर कम होता गया। इसके दो कारण रहे- एक तो शिक्षा के क्षेत्र में पठन-पाठन क्रम का पाश्चात्य विचारधारा वाले लोगों के हाथ में जाना, सरकार द्वारा इसी को स्वीकार करना। इस प्रयास से शिक्षा का प्रचार-प्रसार तो हुआ, परन्तु पूरा समाज दो भागों में बंट गया। एक अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित वर्ग अभिजात्य श्रेणी में आ गया, देसी भाषा में शिक्षा लेने वाले बहुसंख्यक शेष लोग पीछे रह गये। आर्य समाज का क्षेत्र जनसामान्य का क्षेत्र रहा, उनमें प्रचार तो हुआ, परन्तु विचारों का प्रसार नहीं हो सका, क्योंकि नई पीढ़ी के लोग इस देश में सामान्य लोग श्रोता तो हो सकते हैं, समाज के संचालक नहीं हो सकते, अतः संचालक तथाकथित शिक्षित वर्ग रहा। किसी भाषा के बोलने वाले बहुत हैं, इसलिये उनकी आवाज सत्ता पर प्रभावकारी हो, यह अनिवार्य नहीं है। अंग्रेज तो एक प्रतिशत भी नहीं थे, परन्तु उनकी सत्ता अंग्रेजी से चलती थी, आज यह संख्या समाज में पाँच प्रतिशत से भी अधिक है, अतः सत्ता ही मजबूत हुई है, समाज नहीं। शिक्षा में जो लोग हैं, उनतक वैदिक विचारों की पहुँच शून्य स्तर पर है, अतः समाज पर हम अपना विशेष प्रभाव डाले, ऐसी सम्भावना कम है।
सामान्य वर्ग परम्परागत धर्म व रुढ़िवाद के साथ बंधा है। उसे मन्दिर, मस्जिद, चर्च ने अपने साथ बांध रखा है, जिसका विकल्प आर्य समाज के पास नहीं है। उनसे बहुत परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती। शिक्षित और बुद्धिजीवी लोग भी उसी प्रकार धार्मिक अन्धविश्वास और परम्पराओं से बंधे हुए हैं, परन्तु उनको वैज्ञानिक विचारों से परिचित कराने पर उनमें स्वीकृति की सम्भावना अधिक होती है और उनकी स्वीकृति समाज पर प्रभावकारी होती है।
महर्षि दयानन्द का धर्म-वेद का धर्म, अध्यात्म और विज्ञान को एक साथ देखता है। आत्मा की अनुभूति की ओर जाने वाले मार्ग को वह धर्म कहता है और ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग को विज्ञान कहता है। हम धर्म को विज्ञान समझे बिना ग्राह्य नहीं बना सकते। हमारी समस्या है- हम जिन्हें धार्मिक कहते हैं, वे सब विज्ञान विरोधी हैं, चाहे वे इस्लाम या ईसाइयत के अनुयायी हों या रूढ़िवादी हिन्दू कहलाने वाले लोग। जो कोरे वैज्ञानिक हैं, उन्हें धर्म के नाम से भी चिढ़ है और जो कट्टर धार्मिक हैं, उन्हें विज्ञान से सम्बन्ध रखने की इच्छा भी नहीं है। अब वे शेष रहते हैं, जो धर्म को नहीं मानते, पर वैज्ञानिक दृष्टि रखते हैं तथा विज्ञान सम्मत धार्मिक विचारों को सुनने के लिये और स्वीकार करने के लिये तैयार हैं। वे ही हमारे कार्य के क्षेत्र में होने चाहिए। इन लोगों का कोई परिभाषित या चिह्नित वर्ग नहीं है। प्रत्येक स्थान पर जिनकी वैज्ञानिक बुद्धि में जिज्ञासा विद्यमान है, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाये तो वे इन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। आज उनको केन्द्र में रखकर प्रचार करने की आवश्यकता है।
किसी भी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन लाना आवश्यक है। विज्ञापनों से प्रचार उन बातों का हो सकता है, जो मनुष्य की आवश्यकता है। चाहे फिर तेल, साबुन आदि या अन्य, उपभोग की वस्तु जिनके प्रति किसी भी मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। भाषणों से प्रचार तात्कालिक प्रभाव के लिये उपयोगी रहता है। आप कोई आन्दोलन चला रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं, तब सार्वजनिक सभा, व्याख्यान अनिवार्य हो जाता है, केवल समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर या लेख देकर या पत्रक बाँटकर काम नहीं चलता, ये बातें सम्पर्क करने में सहायक अवश्य होती हैं, परन्तु इनसे प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती।
मत, सम्प्रदाय धार्मिक विचारों का प्रभाव तो व्यक्ति के साथ निकट सम्पर्क से ही पड़ता है। सार्वजनिक सभा वार्ता कथा सत्संग मनुष्य को निकट लाने के लिये साधन है। सत्संग, सभा, कथा, वार्ता से थोड़े समय के लिये मनुष्य के विचारों पर प्रभाव पड़ता है, परन्तु इसकी निरन्तरता के लिये कर्मकाण्ड की आवश्यकता होती है। कोई मनुष्य आपकी बात सुनके क्या करे? जिससे आप के द्वारा बताये गये लाभ उसे प्राप्त हो सके। इस कर्मकाण्ड में भी ऐसे आचार्य गुरुओं का भक्तों और शिष्यों से निरन्तर सम्पर्क रहना आवश्यक है। गुरु लोग यजमानों के घर पर जायें अथवा यजमान गुरुओं के आश्रम पर पहुँचकर अपने विचारों को पुष्ट करें। जहाँ आचार्य शिष्य या साधु, सन्त, भक्तों का सम्पर्क बनता है, वहाँ धार्मिक परम्परा चलती है। इसके स्थापित होने में बहुत समय लगता है और इसका क्षेत्र भी बहुत लम्बा नहीं हो पाता फिर आज के वातावरण में आर्य समाज या वैदिक विचारों को केवल प्रचार करने मात्र से नहीं फैलाया जा सकता। जिन लोगों की आजीविका, व्यापार या स्वार्थ पुरातन परम्परा से जुड़ा है, उनके द्वारा इन विचारों से परिचित होने पर उचित मानने पर भी स्वीकार करना कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में वैदिक धर्म या विचार के प्रचार-प्रसार करने का क्या उपाय हो?
हमें एक बात स्मरण रखनी चाहिए- समाज के तीन प्रतिशत लोग ही समाज को संचालित करते हैं, परन्तु इन तीन प्रतिशत लोगों का ज्ञानवान और समर्थ होना आवश्यक होता है। समाज में बुद्धिजीवी लोग यदि किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं, तब शेष लोगों को उसे स्वीकार करने में संकोच या कठिनाई नहीं होती। जो स्थापित है, उनको समझाना सबसे कठिन है। विचारों के प्रचार के लिये सबसे सरल मार्ग है- बुद्धिजीवी युवकों को, जो अभी ऊँच शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाय, वे बुद्धिजीवी होने के साथ युवा होने के कारण जो विचार उन्हें उचित लगते हैं, विचारों को अपनाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होती। यदि शिक्षा संस्थानों को विशेष रूप से महाविद्यालय विश्वविद्यालय को केन्द्र बना कर सर्वोच्च बुद्धि वाले युवकों को विचारों से जोड़ा जाय तो यह कार्य कुछ वर्षों में प्रभावकारी हो सकता है। पाँच से दस वर्षों में समाज पर प्रभाव परिलक्षित होने लगेगा तथा बीस वर्ष में आप इससे यथेच्छ परिणाम भी प्राप्त कर सकते हैं।
यह कार्य केवल कल्पना नहीं है अपितु महाराष्ट्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन के साठ वर्ष से अधिक समय इस पद्धति का प्रयोग कर इसकी सफलता का अनुभव किया है। किसी विचारधारा या संगठन के लिये दस-बीस वर्षों का समय बहुत नहीं होता। आवश्यकता है- योजना और निष्ठा से इस कार्य को करने की और धर्म का मूल वेद बुद्धिमानों के ही समझ में आ सकता है और उन्हीं के द्वारा इसका विस्तार भी हो सकता है।
हम कितने जिज्ञासुओं तक अपना समाधान पहुँचा सकते हैं, इस पर ही हमारी सफलता निर्भर करती है। ऋषि दयानन्द के विचार ही वैदिक धर्म को जीवित रख सकते हैं, ऐसा धर्म मनुष्यता को जीवित रख सकता है, जिससे वर्तमान और भविष्य दोनों का कल्याण हो। इसीलिये कहा है-
यतोऽभ्युदय निः श्रेयस् सिद्धिः स धर्मः।
– धर्मवीर

हूरें : जन्नत का माल

72 huren Ibn Kathir

इस्लाम में हूरों पर बहुत कुछ लिखा गया यह वह माल है जो अल्लाह जन्नत में मुसलमानों को अदा करेगा. इकबाल ने हूरों लिखा है :

उमीदे-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है, वायज़ को,
ये हज़रत देखने में सीधे-सादे भोले-भाले हैं

इसी तरह एक और शेर इकबाल का है :

न कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िर्दौस में हूरें
मेरा सोज़-ए-दुरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए

इस्लामिक मान्यता के अनुसार जन्नत के मुसलमान हमेशा के लिए कयामत के बाद जन्नत में दाखिल हो जायेंगे और वहां उन्हें हूरें अता की जायेंगी जो उनसे मन बहला सकेंगे.इन हूरों से जन्नतियों के विवाह कर दिए जायेंगे .

” और हम गोरी गोरी मृगनयनी स्त्रियों से उनका विवाह कर देंगे ” कुरान सूरा अद दुखान आयत ५४ (३३:५४ )

इस्लाम में हूरों की महत्ता का पता गाजी अली के की दी हुयी इस घटना से लगता है कि किस तरह मौमीनों को हूरों के खोने का डर सताता है :

The sage Malek-b-Dinar said: One night I forgot my duty and began to sleep. I found in dream a beautiful young girl with a letter in her hand saying to me: Can you read this letter? I said Yes. She handed over to me the letter which contained:-

What! joy and hope have destroyed you!
Has youf mind forgot the hope of Hurs?
You will stay in paradise without death.
You will make enjoyment then with Hurs.
So rise up from sleep, it is best for you.
Ihya Ulum Al Din Vol – 1 Page 260
जन्नत में कितनी हूरें मुसलामानों को नसीब होंगी इसके बारे में कुरान खामोश है केवल हूर के लिए बहुवचन का प्रयोग किया है.

पण्डित देव प्रकाश जी ( भूतपूर्व आचार्य अरबी संस्कृत महाविद्यालय अमृतसर ) ने अपनी पुस्तक में एक हदीस का हवाला दिया है :

” एक व्यक्ति ने हजरत मुहम्मद से प्रश्न किया – कि स्वर्ग में जमा (स्त्री सम्भोग ) भी करेंगे ? आपने फ़रमाया :- कि व्यक्ति को अहले जन्नत में इतनी शक्ती मिलेगी कि तुम में से सत्तर पुरुषों से अधिक होगी .
हजरत ने फरमाया कि एक व्यक्ति ५०० हूर चार हजार बाकर (क्वारी) स्त्रियों आठ हजार विवाहिता स्त्रियों से विवाह करेगा और उनमें से प्रत्येक के साथ इतना सम्बन्ध करगा जितना संसार में जीवित रहा होगा .
स्वर्ग में बाजार :
हज़रत ने फरमाया :- कि स्वर्ग में एक बाज़ार है जहाँ पुरुषों और स्त्रिओं के हुस्न के अतिरिक्त और किसी वस्तु का क्रय विक्रय नहीं होता पास जब कोई व्यक्ति किसी हसीन स्त्री कि ख्वाइश करेगा तो वह उस बाजार में जायेगा जहाँ बड़ी बड़ी आँखों वाली हूरें जमा हैं …………………..

यही गाजी अली ने अपनी पुस्तक में भी दिया है :
A man asked the Prophet : O Prophet of God, will the inmates of Paradise have sexual intercourse ? He said: Anybody among them will be given sexual strength of seven persons among you. The Prophet said : An inmate of Paradise will have five hundred hurs, four thousand unmarried women and eight thousand widowed women. Each of them will keep embracing him for the duration of his whole worldly life time. He also said : There will be markets in Paradise in which there will be no buy and sale, but there will be men and women. If any man will wish to have sexual intercourse with a woman, he will do at once. The Hurs will sing in Paradise on divine purity and praise—we are most beautiful Hurs and we are for the honored husbands.
Ihya Ulum Al Din Vol – 4 Page 726.
The Prophet said to a man: O servant of God, if you enter Paradise, you will get what you will desire, what your eyes will be pleased with. The Prophet said : If an inmate of Paradise will wish to have a son born to him, he will get it. Its stay in womb, its weaning away from milk and its youth will come to pass at the same time. He also said : The inmantes of Paradise will be beardless and hairless. Their colour will be white and their eyes painted with collyrium. They will be youths of 33 years of age. They will be sixty cubits long and seven cubits broad. He also said : The lowest rank of an inmate of Paradise will have eighty thousand servants and seventy two wives. In short there will be such bliss in Paradise which no eye has seen, no ear has heard and no heart has conceived.
Ihya Ulum Al Din Vol – 4 Page 726 -727
गाजी अली अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हजरत ने एक व्यक्ति से कहा ओ अल्लाह के सेवक यदि तुम जन्नत में जाते हो तो तुम्हें वह सब मिल्त्गा जिसकी तुम्हें इच्छा है और जिससे तुम्हारी आखें प्रसन्न हों यदि स्वर्ग के निवासी को पुत्र कि चाहत है तो उसे पुत्र हो जायेगा ……………………… सबसे निचले दर्जे के निवासी के पास अस्सी हजार नौकर और बहत्तर पत्नियाँ होंगी
In a reply to the question of Abu Bakar , Muhammad said: In that palace, he will have three lac Hurs who will look with askance eye : Whenever any Hur who will look at a person he will say : Do you remember such and such a day when you enjoined good and forbade evil ?
Ihya Ulum Al Din Vol – 2 Page 183.
गाजी अली अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हजरत ने अबू बकर को एक प्रश्न के जवाब में कहा कि वहां तीन लाख हूरें होंगी .

Chapter 23. What Has Been Related About What Bounties There Are For The Lowest Inhabitants Of Paradise

2562. Abu Sa’eed Al-Khudri narrated that the Messenger of Allah said: “The least of the people of Paradise in position is the one with eighty thousand servants and seventy-two wives. He shall have a tent of pearl, peridot, and corundum set up for him, (the size of which is) like that which is between Al-Jabiyyah 11 and San’a’.” And with this chain, it is narrated from the Prophet it that he said: “Whoever of the people of (destined to enter) Paradise dies, young or old, they shall be brought back in Paradise thirty years old, they will not increase in that ever, and likewise the people of the Fire.” And with this chain, it is narrated
— Al-Tirmidhi, Vol 4 page no 548

इसी प्रकार तिर्मधी में आता है कि हजरत ने फरमाया कि कम से कम हरेक व्यक्ति को अस्सी हजार नौकर और बहत्तर पत्नियाँ होंगी ……………….

इसी को इनबे कसीर ने अपनी तफसीर में भी लिखा है कि : हजरत को कहते सूना गया कि जन्नत के निवासी को कम से कम अस्सी हज़ार नौकर और बहत्तर पत्नियां दी जायेंगी

सहीह अल बुखारी में अबू हुरैरा से रिवायत है कि हज़रत ने फरमाया कि जन्नत में जाने वाला प्रथम समूह पूर्ण चाँद कि तरह चमक रहा होगा और दूसरा समूह आसमान में श्रेष्ट तारे कि भांति चमक रहा होगा उनमें आपस में कोई मन मुटाव नहीं होगा वो एक ही ह्रदय कि तरह होंगे और उनमें से प्रत्येक के दो हूरों से निकाह होंगे .
सहीह अल बुखारी , भाग – ४ , हदीस संख्या ४७६ पृष्ठ -३१०

पण्डित देवप्रकाश जी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि अब देखिये कि प्रत्येक स्वर्ग निवासी को न जाने कितनी हूरें गिल्मान और पत्नियाँ प्राप्त होंगी इस पर भी खुदा को स्वर्ग वालों के लिए हूरों के बाजार खोलने कि आवश्यकता अनुभव हुयी इन हदीस ने तो मानों इस्लाम के चरित्र का दिवाला ही निकाल दिया है . क्या मुसलमान इस सम्बन्ध में सोचने को तत्पर होंगे .

संस्कृत का विकास कैसे हो?

संस्कृत का विकास कैसे हो?

शिवदेव आर्य

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

मो.—8810005096

संस्कृतभाषा की आजीविका के क्षेत्रों में अध्ययन-अध्यापन एवं प्रशासनिक सेवाओं के अतिरिक्त सामाजिक एवं आध्यात्मिक तथा शारीरिक क्षेत्रों में भी पर्याप्त अवसर हैं।

            भारतीय संस्कृति का ज्ञान संस्कृत के विना असम्भव है। (भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा)  मानवजीवन के सर्वांगीण विकास के लिए विज्ञान, कला एवं अध्यात्मिक ज्ञान अत्यन्त आवश्यक हैंइन तीनों का समन्वय केन्द्र केवल संस्कृत भाषा है। संस्कृतभाषा सभी भारतीय भाषाओं की जननी है। यही भाषा विभिन्नता में एकता रूपी सूत्र (धागा) है।

            संस्कृतभाषा को वर्तमान परिवेश में सामाजिक धारा में बनाए रखने के लिए अथवा लोकप्रिय बनाए रखने के लिए कुछ उपायों का वर्णन अधोलिखितानुसार द्रष्टव्य है-

१. संस्कृतपाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन-

Ø संस्कृतभाषी विद्यार्थियों में प्रायः सामान्यज्ञान (Basic Knowledge) का अभाव दिखाई देता है।

Ø संस्कृतवाङ्मय में निहित ज्ञान-विज्ञान का तथ्यपरक अध्ययन का अभाव।

Ø मध्यमादि (10+2) स्तर पर विज्ञान एवं गणितादि के पर्याप्त अध्ययन का अभाव।

Ø संस्कृताध्ययन में तकनीकी का नितान्त अभाव।

Ø संस्कृताध्यायी छात्रों में योग्यता छात्रवृत्ति (Merit scholarship) की पर्याप्त एवं सुचारु व्यवस्था का अभाव।

Ø संस्कृत की लोकप्रियता हेतु शास्त्रों के कण्ठस्थीकरण, उच्चारणादि दक्षता की पर्याप्त प्रतियोगिताओं का विविधस्तरों पर अभाव।

Ø कौशल विकास (Skill Development) का भी संस्कृत विषय में समायोजन कर व्यवसायी अभाव को तिरोहित करना चाहिए।

२. प्रशासनिक सेवा (IAS, PCS) परीक्षाओं के अध्यय केन्द्र-

            देश की प्रशासनिक सेवाओं में संस्कृत विषय अत्यन्त ही सरल सामान्यतया माना जाता है लेकिन व्यवस्थित अध्ययन के विना छात्रों की सफलता का अनुपात प्राय निम्नतर दृष्टिगोचर होता है। अतः व्यवस्थित अध्ययन केन्द्रों की सुलभता का अभाव भी अपसारित करना चाहिए।

३. व्यवसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों का अभाव-

            संस्कृत भाषा में व्यावसायिक केन्द्रों का अत्यन्त अभाव है यथा कर्मकाण्डी, सम्पादक,अनुवादक, समाज- सुधारक, कमेण्टेटर दूरर्दशन एवं आकाशवाणी आदि प्रसारकों हेतु व्यवसायों के व्यवस्थित केन्द्रों का होना अत्यन्त आवश्यक है।

४. संस्कृतचलचित्रों (सिनेमादि) केन्द्रों का उपस्थापन-

            लोकविलासी संस्कृत फिल्मों, नाटकों का अधिकाधिक प्रसारण तभी सुलभ होगा, जब इनके व्यवस्थित प्रशिक्षण केन्द्र होगें। संस्कृतभाषा को प्रिन्ट एवं इलैक्ट्रांनिक मीडिया में अधिकाधिक समायोजित करना चाहिए।

५. संस्कृत संस्थाओं को बढावा देना –

            यद्यपि सरकार द्वारा  संस्कृत संस्थाओं को नाम मात्र अनुदान उपलब्ध करवाया जाता है परमपि उसमें बढ़ोत्तरी आवश्यक है तभी विशुध्द संस्कृत वैज्ञानिक, इन्जीनियर, चिकित्सक आदि समाज को उपलब्ध हो पाएंगे।


गीता महाभारत का नवनीत : बी.के. श्रीवास्तव

श्रीमद्भगवद्गाीता का भारतवर्ष के पौराणिक विद्वानों में बहुत मान्य है। भारत के प्रसिद्ध विद्वानों एवं सम्प्रदाय आचार्यो (द्वैत अद्वैत षुद्धाद्वैत विषिष्टाद्वैत ) ने अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार अनेक प्रकार के भाष्य गीता पर किये हैं। सभी पौराणिक टीकाकार जो गीता के समर्थक रहे हैं उनको गीता के कृष्ण ईष्वर के अवतार के रूप में मान रहे हैं। अतः उन्हें गीता के अन्दर कुछ भी प्रक्षिप्त या अस्वाभाविक दृष्टिगोचर नही हुआ। क्योंकि गीता उनके लिए वस्तुतः ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ (श्रीमान भगवान विष्णु यानी उनके अवतार कृष्ण के द्वारा गाई गयी – कही गई ही थी ) इस विषय में एक कथा भी प्रचलित है कि महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले अर्जुन अपने बन्धु-बान्धव के मोह मे फंसकर युद्ध से विमुख हो गया था। उसे समझाने के लिए ही कृष्ण ने जो उपदेष दिया वही गीता के रूप में प्रसिद्ध हुआ है। इसी आधार पर गीता को वेदादि षास्त्रों से अधिक मान्यता दी जाती है।
गीता के महत्त्व विषयक निम्न ष्लोक प्रसिद्ध भी हैः-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै षास्त्र विस्तरै।
या स्वयं पदमानाभस्य मुखपदमाह विनिःसृता।
अर्थ- गीता की ठीक से चर्चा करनी चाहिए, अन्य षास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन। गीता स्वयं विष्णु (कृष्ण)के मुख से निकली है।
इस ष्लोक का पद्मनाभ षब्द गीता को वेदो से उत्तम बताने का प्रयत्न करता है। विष्णु के नाभि से कमल निकला कमल से ब्रम्हा उत्पन्न हुए और ब्रम्हा के मुख से वेदो का जन्म हुआ। इस प्रकार वेदों का ब्रम्हा से परम्परा सम्बन्ध है जबकि गीता स्वयं उन्हीं के मुख से उच्चारित है। इस बात को इसी रूप मे मान लिया जाये तो गीता का रचना काल द्वापर सिद्ध होता है। आधुनिक विद्वान की भाषा मे कहा जाये तो गीता का रचना आज से पांच हजार वर्ष पहले हुई ।परन्तु यदि बुद्धि का थोड़ा सा प्रयोग करते हुए ध्यानपूर्वक महाभारत का अध्ययन किया जाये तो कोई भी इस निष्कर्ष मे पहुचे विना नही रहेगा कि गीता का न तो श्रीकृष्ण से कोई संबंध है, न ही व्यास मुनि महाभारत से , बल्कि यह सर्वथा काल्पनिक है- इसके कई कारण है।
गीता और श्री कृष्ण
(अ) ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी समय पद्यबद्ध बातचीत का चलन इतिहास मे सिद्ध नही होता। अतः गीता स्वयं पद्मनाभ विष्णु के मुख से निकली यह तो किसी प्रकार कहा ही नही जा सकता। हां यह हो सकता है कि किसी अन्य ने कृष्णार्जुन संवाद ही गीता का वर्तमान रूप दिया हो।
(आ) यदि यह भी मान लिया जाये कि गीतोक्त कृष्णार्जुन संवाद पद्यबद्ध न होकर गद्य मे ही हुआ था, बाद मे किसी अन्य ने गद्य मे व्यक्त भावों को पद्यबद्ध रूप दे दिया तो यह भी नही माना जा सकता क्योंकि युद्धभूमि मे इतना समय कहां था कि 700ष्लोको का वार्तालाप चलता रहता जिसमे कि कम से कम चार घण्टे यानी कि लगभग सवा प्रहर से कम का समय नही लग सकता था।
(इ) गीता का कथानक प्रारम्भ होता है महाभारत युद्ध के पूर्व से। अब यदि युद्ध के पहले दिन की घटनाओं पर ध्यान दे तो मालुम होता है कि गीता के इतने लम्बे और उबाऊ उपदेष के लिए समय बिल्कुल नही था क्योंकि दोनो सेनाओं ने संध्या हवन करके व्यूह रचना की। कौरव सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। अर्जुन ने उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकरषान्त किया। फिर अर्जुन व्यतमोह और गीता का लम्बा उपदेष चला । अर्जुन के तैयार हो जाने के बाद युधिष्ठिर युद्ध की अनुमति लेने के लिए पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य तथा षल्य नरेष के पास गये। बाद मे दोनो सेनाओ ने दो प्रहर तक युद्ध किया।
यहां ध्यान रखने योग्य तथ यह है कि महाभारत का युद्ध अगहन-पूष मे हुआ था जबकि दिन बहुत ही छोटा होता है- लगभग सवा तीन प्रहर का । इसमे से युद्ध के दो प्रहर निकाल दिए जाये तो सवा प्रहर ही बचता है। जो संध्या हवन जैसे आवष्यक कर्म करने, अपनी अपनी सेना के व्युह रचना करने , कौरवो की व्यूह रचना देखने युधिष्ठिर के घबरा जाने, अर्जुन द्वारा उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकर उन्हें समझाने व षान्त करने पितामह भीष्म व अन्य आचार्य जनों के पास युद्ध के लिए अनुमति लेने हेतु जाने वहां से लौटकर आने आदि कर्मों के बाद षेष समय तो गीता जैसे लम्बे उपदेष के लिउ कतई पर्याप्त नहीं।
गीता और महर्षि व्यास
परन्तु निम्न तर्क और प्रमाण महर्षि व्यास को भी गीता का रचयिता नही मानने देते ।
(अ) गीता को गहराई से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि गीता महर्षि व्यास की रचना नही है। क्योंकि जिस महर्षि व्यास के महाभारत का गीता नवनीत बतीई जाती है वह एैतिहासिक महाकाव्य है। जिसने कौरव पाण्डवों और उनके पूर्वजों, बन्धु-बान्धवों, इष्ट मित्रों, सम्बन्धियों आदि सभी के जीवन मरण यष अपयष, उत्थान पतन, कुषल अकुषल अच्छे बुरे सभी कामों का विसद वर्णन है, परन्तु गीता के 18 अध्यायों में प्रथम अध्याय के कुछ ष्लोकों को छोडकर सेष सम्पूर्ण गीता ऐतिहासिक घटनाक्रम से रहित दार्षनिक उहापोह से भरी पड़ी है जैसे आत्मा की अमरता, ज्ञानयोग, कर्म संन्यासयोग, योनियों की परिभाषा, यज्ञों का वर्णन, सकाम-निष्काम कर्मों का विवेचन, ध्यान योग प्रकार,योगभ्रष्ट लोगों की गति, देवता उपासना, देवी व आसुरी सम्प्रदाय वालों की विवेचन ,षुक्ल व कृष्ण मार्ग, जगत की उतपत्ति का वर्णन, सकाम निष्काम, उपासना का विष्लेपण, निष्काम कर्म की प्रषंसा, विष्वरूप दर्षन, साकार उपासना की प्रषंसा, प्रकृती पुरुष की व्याख्या, जीवात्मा की विवेचना, संसार वृक्ष का कथन, सत्त्व रज तम का विवेचन, श्री कृष्ण ही परमेष्वर है, वह ओमवाची हैं, यज्ञों से भी केवल वही प्राप्तव्य हैं, वेदों में भी उन्हीं की प्रषंसा है, वर्ण धर्मो का कथन, योग्याभ्यास करने का प्रकार, ब्रम्हाज्ञानी को अक्षय सुख की प्राप्ती, मुक्त जीवों का भिन्न भिन्न लोको से लौटना केवल कृष्ण लोक से न लौटना, कर्मफल त्याग की प्रषंसा, चार प्रकार के भक्तों का वर्णन, अन्य अन्य देवो की उपासना की निन्दा, क्षेत्र क्षेत्रिज्ञ के स्वरूप का कथन परमात्मा की एकता निरुपण, परमेष्वर का सगुण निर्गुण स्वरूप कथन, आत्मा को अकर्ता और गुणहीन जानने से भगवत् प्राप्ती आदि पचासों विषयों का उपदेष श्रीकृष्ण अर्जुन के वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसका कि इतिहासिकता से दूर का भी संबंध नहीं है।
जहां तक दार्षनिकता का प्रष्न है भरतीय वैदिक परम्परा में 6 दर्षन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। सांख्य, योग, वैषेसिक, पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा (जिसे ब्रह्मसूत्र या वेदांन्त दर्षन भी कहते है) इस वेदांत दर्षन के रचयिता भी महर्षि व्यास ही हैं। इसके साथ साथ योग दर्षन के भाष्यकार भी महर्षि व्यास ही हैं इतनी उच्च कोठि का विद्वान ऋषि ऋषि ही नही महर्षि गीता जैसी निम्न स्तर की पुस्तक की रचना करे। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति मानने को तैयार न होगा। गीता के अधिकांष दार्षनिक विचार वेद विरोधी है। जबकि वेदांत दर्षन सर्वथा वेदानुकूल है।
वेदों मं जिस परमेष्वर की व्याख्या की गई है। गीताकार उसके विपरीत भी श्रीकृअण को ईष्वर माना है। जीवात्मा भी विवेचना भी वेद विरुद्ध है, ईष्वरावतार की कल्पना भी गीता की सर्वथा अवैदिक तर्क एवं बुद्धि के विरुद्ध है, देवतावाद एवं स्वर्ग नर्क की मान्यता एवं मोक्ष के सिद्धान्त पर भी गीता का पक्ष वेद विरुद्ध है। वेदों के स्वरूप पर भी गीताकार का पक्ष प्रत्यक्ष के विरुद्ध है। गीताकार वेदों को ईष्वर एवं अध्यात्म विषय से रहित केवल भोतिक जगत की व्याख्या करने वाला स्वीकार करते हैं। गीता सब धर्म अधर्म के बखेड़ो को त्यागकर केवल श्रीकृष्ण जी की षरण मे जाने मात्र से पाप नाष व मोक्ष दिलाने की बात कहती है जो सर्वथा मिथ्या है। गीता को पढ़ने या सुनने मात्र से पाप नाष होना व सदगति गारण्टी देना गीता की मिथ्या प्रलोभन मात्र है जैसे की रामायण, भागवत, हनुमान चालीसा व गंगा आदि के महात्म्य लेखको ने अपने अपने ग्रन्थों के प्रचार के लिए लिखे हैं। ।
इस प्रकार गीता दर्षनकार व्यास की रचना न होकर किसी पौराणिक कालीन संस्कृति कवि की रचना प्रतीत होती है। जिसमें उस युग के सभी अंध विष्वास प्रविष्ट हैं। जैसे अवतारवाद, जातीवाद, साकारोपासना, बहुदेवतावाद, भाग्यवाद, आदि आदि। यहां तक कि गीता के कृष्ण अपने आप को जुआ बनाने मे भी नही लजाते।
(इ) इतिहास को ध्यान में रखकर विचार करें तो महर्षि व्यास महाभारतकालीन महापुरुष हैं जिसे आज लगभग 5000 से कुछ अधिक समय हो चुका है। जबकि गीता का रचनाकाल आठवी षताब्दी से पहले का नही ठहरता। गीता की प्राप्त टिकाओं में सबसे प्राचीन टीका श्री षंकराचार्य जी की है। श्री षंकराचार्य जी का काल भी विद्वानों द्वारा आठवी षताब्दी ही मान्य है। गीता की प्राप्त प्रतियों में भी कोई प्रति आठवीं षताब्दी से पूर्व प्राप्त नही होती इस प्रकार से गीता को महर्षि व्यास की रचना बताना यह सरासर उनके साथ अन्यान हां यह पौराणिक काल की रचना तो हो सकती है जैसा कि उपर दर्षाया जा चुका है और सह भी सम्भव हो सकता है कि इस प्रचारित करने की दृष्टि से उसके लेखक ने महर्षि व्यास के नाम का सहारा लिया हो जिससे कि खोटा सिक्का चलन में आ जाये
(ई) यदि दुर्जनतोष न्याय से मान भी लिया जाये कि गीता महर्षि व्यास की ही रचना है।तो प्रष्न उपस्थित होता कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के जिन बौद्ध विद्वानों ने नाम ले लेकर ब्राम्हण धर्म के ग्रन्थों का खण्डन किया है उनमे से किसी मे भी गीता का नाम नही लिया इससे ज्ञात होता है। कि उस समय या तो गीता थी नही और यदी थी तो उसे कोई मान्यता प्राप्त नही थी ।
केवल बौद्ध साहित्य ही नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ पंचतंत्र जिसमें कि सभी प्रसिद्ध एवं प्रचलित अच्छी अच्छी पुस्तकों के ष्लोक उद्धूत किये गये हैं।
उसमें भी गीता का एक भी ष्लोक नही है। आजकल जो पंचतंत्र प्रचलित है उसे पांचवी षताब्दी में संग्रहित किया गया है।
इससे सिद्ध होता है कि गीता कोई प्राचीन रचना न होकर आर्वाचीन रचना है। तथा महर्षि व्यास से इसका कोई संबंध नही है
गीता और महाभारत
अब हम यह देखने का प्रयास करेगे कि गीता महाभरत का भी अंग है या नही । आगे कुछ भी लिखने से पूर्व में अपने पाठको से निवेदन करना चाहूगां कि अब तक के तर्क और प्रमाणों के लिए तो महाराज श्रीकृष्ण और महर्षि व्यास को सक्षात् उपस्थित करना मेरे बष की बात न थी लेकिन अब बात महाभारत की है जो कि बाजार मे उपलब्ध होता है। गीता का सबसे बड़ा्र प्रचारक गीता प्रेस गोरखपुर है जिस गीता को महाभारत का नवनीत बताया जाता है वह महाभारत भी 6 खंड़ो में यही से प्रकाषित होता है। इसका तृतीय खण्ड हाथ में लेकर देखने का कष्ट करें कि इसमे दिये भीष्म पर्व को इस प्रतिज्ञा के साथ ‘ सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने मे सदा उद्यत रहेगे’ तो स्वयं पता लग जायेगा कि गीता की सही स्थिति क्या है।
अ. महाभारत के भीष्मवर्प के अध्याय 25 से लेकर अध्याय 42 तक वाला भाग गीता कहलाता है। 23 वे अध्याय दुर्गा स्त्रोत है। 24वे में संजय धृतराष्ट संवाद है।43 वे अध्याय के प्रथम 6 ष्लोको में गीता का महात्म्य है। अब यदि इन सबको निकालकर 22 वें अध्याय के साथ 43वे अध्याय के सातवें ष्लोक का पढ़ा जाये तो कथानक में कोई अन्तर नही आता । न कथानक का सूत्र टूटा हुआ लगता हैः- देखिए (भीष्मपर्व अ. 22 ष्लोक 14 से 16 तक ) उस समय सेना के मध्य में खढे हुए निद्राविजय राजकुमार दुर्जयवीर अर्जुन से कृष्ण ने कहा
ये जो अपनी सेना के मध्य में स्थित रोष से तप रहे हैं तथा हमारी सेना कि ओर सिंह की भांति देख रहे हैं जिन्होने 300 अष्वमेघ यज्ञ किये है। ये कौरव सेना महानुभाव भीष्म को इस प्रकार ढके हुए हैं जिस ्रपकार बादल सूर्य को ढक लेते हैं। हे नरवीर अर्जुन ! तुम इन सेनाओं को मारकर भीष्म के साथ युद्ध की अभिलाषा करो। (भीष्मपर्व अध्याय 43ष्लोक 6-7)
अर्जुन को धनुष बाण धारण किये देखकर पाण्डव महारथियों सैनिको तथा उनके अनुगामी सैनिको ने सिंहनाद किया, सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक षंख वजाये ।
यहां विचारणीय तथ्य यह है कि क्या किसी ऐतिहासिक लेखक की रचना में से एैसा होना संभव है कि उसके 20 अध्याय हटाने पर भी कथानक पर कोई प्रभाव न पड़े। मैं समझता हूं कि डा.सा.भी. ऐसा कोई उदाहरण न कर पायेगे जनसाधारण की तो बात ही क्या है। इसका सीधा अर्थ है कि गीता की रचना न तो श्रीकृष्ण ने की, न महर्षि व्यास ने बल्कि किसी अन्य ने इसे रचकर बाद में महाभारत घुसेड़ दिया है।
(आ) महाभारत के भीष्म पर्व मे गीता के कुल ष्लोक संख्या संबंधी निम्न ष्लोक प्राप्त होता है। :-
षट्षतानि सविंषानि ष्लोकानि प्राह केषवः
अजर्ुूनः सप्त पंचाषत सप्तषष्टिस्तु संजयः
धृतराष्टःष्लोकमेकं गीतायाः मानमुच्यते।
जिसके अनुसार 620ष्लोक कृष्ण ने कहे 57 अर्जृन ने कहे 67 संजय ने कहे और 1 धृतराष्ट ने कहा इस प्रकार गीता के ष्लोक की संख्या 745 बैठती है। जबकि वर्तमान मे प्राप्त गीता मे 700ष्लोक ही पाये जाते हैं जिनका विभाजन इस प्रकार है। कृष्ण ने 574 अर्जुन ने 86 संजय ने 39 और धृतराष्ट ने 1 ही कहा है।
इससे स्पष्ट है कि आजकल प्रचलित गीता महर्षि व्यास कृत नही है न महाभारत का अंग है क्योंकि इसमें पात्रो के बोलने के मात्रा मे भी परिवर्तन दिखाई देता है। यवगीता वास्तव मे इतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होता तो इसकी मौलिकता सुरक्षित रखने के लिए अर्थात घटा बढी रोकने के लिए कढ़े कदम उठाये जाते। जैसे की वेदो की सुरक्षा के लिए स्वर ,पद , क्रम, घन, जटा, माला, आदि अनेक प्रकार के पाठ चलाये गये थे ।
(इ) जिस प्रकार गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन व्यामोह का वर्णन है उसी प्रकार महाभारत में अर्जुन से बहुत पहले युधिष्ठिर व्यामोह का वर्णन है जिसमे अर्जुन ने युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से समझाया, तब कहीं वह षांत हुए। यदि गीता के रचयिता महर्षि व्यास ही होते या गीता महाभारत का ही अंग होती तो वह अर्जुन को समझाते समय कृष्ण द्वारा यह बात अवष्य कहलाते कि ” भले मानुष ! अभी तो तू अपने भाई को समझा रहा था अब स्वयं बहक गया। पर गीता मे इसका कोई संकेत नही है। इससे भी संकेत मिलता है कि गीता महाभारत का अंग नही है। न दोनों काले एक है।

(ई) अर्जुन ने युद्ध न करने के जो कारण बताए उनमे से एक यह भी है कि :7
हे मधुसूदन! मैं युद्ध मे भीष्म और द्रोण को बाणो से कैसे मारूंगा ये दोनो तो मेरे पूज्य हैं।
यदि गीता महाभारतकार महर्षि व्यास की ही रतचा होती तो वह पहले के उस युद्ध को न भूल जाते जहां विराट की गायें छिनने के प्रसंग मे अर्जुन ने इन्हीं पूज्योुं को मार मारकर बेहाल कर दिया था परन्तु गीता मे अर्जुन को समझाने के लिए ऐसा कोई संकेत इधर नही किया गया है। वस्तुतः अर्जुन को तों स्वयं ही यह बात करनी नही चाहिए था कि क्या उस दिन ये लोग पूज्य नही थे। पर दोनो ही इतनी बड़ी घटना भूले रहे जो सिद्ध करता है कि गीता महाभारत का अंष नही अन्यथा इसे पूर्व मे हुए युद्ध का ध्यान अवष्य रहा होता।

(उ) गीता के 11 वे अध्याय मे इस बात का वर्णन आता है कि जब श्रीकृष्ण ही बात नही मानी तो उन्होने अपना विराट रूप् दिखाया और बाद में श्रीकृष्ण ने अहसान जतातु हुए कहा कि ” हे अर्जुन! मैने प्रसन्न होकर आत्मयोग से यह रूप तुझे दिखाया है। मेरा यह आदि अन्त सीमा से रहित तेजोन्मय रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है।
अब विचारनीय बात यह है कि यहि गीता और महाभारत एक ही व्यक्ति की रचनाये होती तो वह उस प्रसंग को कैसे भूल जाता जब श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप् दिखाकर दुर्योधन को अभिभूत किया थौ इसका सीधा अर्थ यह है कि गीता महाभारत का अंग नही है। यदि गीता श्रीकृष्ण का उपरोक्त कथन कैसे संगत हो सकता है।
(ऊ) महाभारत मे छोटी बड़ी दर्जनों गीताय भरी पड़ी है।जिन्हे किसी न किसी बहाने घुसेड़ा गया है हम यहां केवल अनुगीता कीी बात करेंगे जो इस बात का प्रइल प्रमाण है कि महाभारत मे इस प्रकार की गीताओं को घुसेरने के लिए किस प्रकार से बयानवाजी से काम किया गया है। और ये गीताये महाभारत का अंग नही है।
महाभारत के अष्वमेघ पर्व मे (अ. 16ष्लोक 57 ) मे श्रीकृष्ण जब द्वारका चलने लगे तो उनसे अर्जुन ने कहा ”हे देवतीनन्दन महाबाहु ! महाभारत युद्ध के समय मुझे आपके महात्मय और ईष्वरीय रूप का ज्ञान हुआ था। आपने मित्रतावष जो भी ज्ञान मुझे उस समय दिया वह मै भूल गया उसको दोबारा सुनना चाहता हूं आपषीर्घ ही द्वारका जाने वाले हैं एक बार गीता का वह उपदेष फिर से सुनाते जाइये।

यह सुनकर पहले तो श्रीकृष्ण अर्जुन पर बहुत बिगड़े फिर असमर्थता जताते हुए बोले तो उसे तो मै भी भूल गया, वह ज्ञान तो तुम्हे योगयुक्त होकर तुम्हे सुनाया था। अब उसे फिर से दोहराना संभव नही लो तुम्हारा काम चलाने के लिए दूसरा इतिहास बताता हूं।
इसके बाद जो उपदेष हुआ उसका नाम अनुगीता है। वक्ता और श्रोता दोनो एक नम्बर के भुलक्कड़ निकले।
इस प्रकरण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि अनुगीता के महाभारत मे मिलाने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण के भुलक्कड़पन का बहाना करने वाला विद्वान यह भूल ही गया कि जब अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनो ही गीता को भूल गये थे तो बाद में इसका प्रचार कैसे हुआ क्योकि अर्जुन और श्रीकृष्ण की बात के समय कोई भी उपस्थित नही था, संजय की दिव्य दृष्टी भी वहां सहायता नही कर सकती थी। क्योकि दृष्टि से सुनने का काम नही लिया जा सकता । महाभारत के अनुसार दिव्यदृष्टि वाली बात गलत है क्योंकि उसमे संजय द्वारा धृतराष्ट को प्रत्यक्ष देखी बात का उल्लेख है।(देखिए भीष्म पर्व अ. 13ष्लोक 1-2) इससे सिद्ध होता है कि महाभारत का गीता से कोई संबंध है।
एक ओर भी बात विचारणीय है – और वह यह की महाभारत और गीता की पुष्पिकाओं मे भी अन्तर है। यदि गीता महाभारत की ही भाग होती तो इसकी पुष्पिकाये भी महाभारत की भांति होनी चाहिए। परन्तु ऐसा नही है महाभारत के अध्यायों के अन्त मे जो पुष्पिकाये दी गई हैं वे गीता के अध्यायों के अन्तवाली पुष्पिकाओ से भिन्न है। महाभारत में नाम केवल पर्वों के है – अध्यायों के नही जबकि गीता के प्रत्येक अध्याय का नाम अलग अलग दिया गया है। गीता के पुष्पिकाओं मे उसे स्पष्ट रूप् से उपनिषद या ब्रम्हाविद्या स्वीकार किया गया हैं इस प्रकार भी गीता महाभारत का अंग नही ठहरती एक नमूना देखिए :-
ठति श्रीमद्भगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रम्हाविद्या योगषास्त्रं कृष्णार्जुन संवादे कर्मसंन्यासयोगानम् पंचमोध्यायः
अन्त में एक प्रमुख बात विचारणीय यह है कि कोई भी लेखक या कवि पुस्तक की समाप्ति पर ही प्रायः उसका महात्म्य लिखता है कि कोई भी पढ़ने या सुनने मा़त्र से अमुख अमुख लाभ है ऐसा नही है कि किसी एक भाग या प्रसंग की समाप्ति पर उसका महात्म्य अलग से लिखता फिरे । गीता के अन्त में उसका महात्म्य लिखा हुआ है जो उसको एक स्वतंत्र पुस्तक या रचना सिद्ध करता है और यह भी सिद्ध करता है कि यह महाभारत के लेखक महर्षि व्यास की रचना नही क्योंकि कोई भी लेखक या कवि यह नही भूल जाता कि यह मेरी दूसरी पुस्तक है या इसी का भाग है। गीता के 18 अध्यायों के बाद इसका महात्म्य इस प्रकार बताया गया हैः-
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैःषास्त्र संग्रहैः
या स्वयं पद्मनामस्य मुखपदमाद विनिसृतः
सर्वषास्त्रमयीगीता सर्वषास्त्रमयी हरिः
सर्वतीर्थमयी गंगा च गायत्राी गोविन्दोती हृदिस्थिते।।
चतुर्मकार संयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ।
महाभारत सर्वस्यं गीताया मथितस्य च।
सारमुदधृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम्।।
इस प्रकार प्रमाण तर्क और ऐतिहासिक विवेचन के पष्चात यह अधिक विष्वास से कहा जा सकता है कि गीता का न तो कृष्ण से कोई संबंध है न महर्षि व्यास से न महाभारत से । इस रचना को बहुत बाद में महाभारत के चोखटे मे फिर कर दिया है
लेखकः श्री बी.के. श्रीवास्तव
सम्भागीय लेखाधिकारी (से.नि.)
रायपुर भारत

Islamism equals war against the unbelievers – whomever they may be

You will not see the following information in any other newspaper, certainly not the Washington Post or the New York Times.

Islamism is at war against the “kafir,” unbelievers in Islam. What is Islamism? It is a radical political movement based on a fundamentalist and exact reading of the Islamic scriptures. Its goal is world domination by Islam. It is spreading havoc and slaughter around the globe. Most of its victims are Muslims who do not share the poisonous ideology.

This state of war has existed since the beginning of Islam. Islam is composed of three holy texts called the trilogy: the Quran, recorded during and after the life of the Prophet Muhammad (570-632 AD); the Suna (the Sira, the life of Mohammed and the aHadith — the traditions of Islam), written 100-200 years after Muhammad’s death; and Sharia Law, written in the 1400s. Islam is entirely incompatible with human freedom and the U.S. Constitution. Islam is not a religion of peace. It is a religion of submission to the laws inscribed in Sharia.

Under Sharia there is no freedom of religion, press or speech. There is no right to bear arms. Men are superior to women in every way. Women can be beaten at the husband’s will. Muslims are always superior to non-Muslims. Our Constitution must submit to Sharia. All governments must be ruled by Sharia law. It is eternal and can never be changed

Also, violence is commanded. Blasphemers, apostates, infidels, homosexuals and adulteresses are to be killed. Cruel and unusual punishments are prescribed.

Since Islam is incompatible with our Constitution and our laws, we cannot allow this to continue. We must stop it in its tracks and demand that Islam be reformed to eliminate violence except in self-defense, and to demand that women be accepted as equals to men. Only Muslims themselves can reform Islam. We must demand they do so. It is true that the Jewish Torah and the Old Testament of the Bible also contain violent commands and call for subjugation of women. But Jews have long since abandoned these verses and ruled that the laws of governments trump the commands of the Hebrew prophets. Muslims must do the same.

Europe is already falling victim to Sharia. When Sharia is allowed to overrule other laws, it gains a foothold and will insist that other Sharia laws be permitted as well. This is happening in Europe and even in the United States.

Islam commands Jihad against unbelievers. Jihad means war against unbelievers to establish Islam. Jihad is the duty of all Muslims. We are fortunate most Muslims are not engaged in Jihad, because there are 1.6 billion of them. If 1 percent engage in Jihad, we are faced with 16 million fanatics.

When we are attacked, or threatened with attack, we must respond with appropriate force. It is time to draw the line and say “no more, enough is enough.” Muslims who do not accept our Constitution or our laws should be asked to leave America.

Luckily there are courageous Muslims working hard to reform Islam before it’s too late. They are putting their lives on the line and we should support them.

Meanwhile, we should declare war against ”Islamism,” the fascist political movement whose goal is world domination by Islam. The enemy is not only Isis, Hamas, Hezbollah, al-Qaida or Boko Haram, it is Islamism — a deadly cancer that is spreading the worldwide. All those groups and many more share the Islamist goal — world domination by Islam.

Source: http://staugustine.com/opinions/2016-07-17/guest-column-islamism-equals-war-against-unbelievers-whomever-they-may-be

Anything but jihad By Carol Brown

Did you know that a “truck attack” occurred in Nice, France, and that the driver had recently been convicted of “road rage”? Apparently we are to believe that an angry guy got in his truck and took out his frustration on hordes of innocent people. And while certain facts may be true (yes, the guy was angry, and yes, he drove a truck to commit his evil deed), they are not the underlying truth. And it is this underlying truth the West is so desperate to avoid.

The underlying truth is that Islam is totalitarianism that mandates the destruction of all things not Islamic as written in the Quran, the Sunnah, and the Hadith.

That’s pretty much it. It’s all you need to know. From this basic premise of world domination, all else flows. It explains the most heinous acts of violence perpetuated by Islamic terrorists, the most subtle form of creeping sharia that advances the caliphate by stealth means and everything in between.

Islam demands that Islam rule over everyone. And for Islam to rule, non-believers are given three choices: (1) convert, (2) pay the jizya tax and live as second-class citizens, or (3) die. This is how it’s been for nearly 1,500 years. Yet it would appear that a 1,500-year history of darkness, death, and destruction in the name of Allah is not enough evidence for the West to grasp what drives the enemy we’re facing.

So desperate are we to avoid facing the awful truth that a seemingly endless stream of insane things are spewed out on a near daily basis to convince us that the truth is anything but what it is. Case in point: our government asserting that recent terror attacks are a sign we are winning the war against ISIS.

(And as an aside, the war isn’t, or at least shouldn’t be, specifically against ISIS any more than their war against us is against people who live in certain ZIP codes. ISIS, Hezb’allah, Hamas, al-Qaeda, Boko Haram, the Muslim Brotherhood, and on and on all represent the same thing: Islam.)

We’re not winning the war against Islamic totalitarianism. We’re losing. Willfully, it seems. Our commitment to losing cuts across a broad spectrum, from political elites to academics to the media.

As to the last group’s coverage of the terror attack in Nice, they could have reported on how ISIS and other Islamic terror organizations urge Muslims to use vehicles to kill, a reality Israelis have been coping with for a long time. (Palestinians routinely run over Jews with cars while ISIS reminds them to “[r]emember that our war with the Jews is a war between belief and unbelief, so continue your battle and use all permissible means of fighting them – stab them, run them over with cars[.]”)

MEMRI further reported on the jihadist magazine, Inspire, and its detailed directions for how Muslims should use vehicles to maim and murder, excerpting from an article in the magazine titled “The Ultimate Mowing Machine” (excerpt reprinted below):

The idea is to use a pickup truck as a mowing machine, not to mow grass but mow down the enemies of Allah. You would need a 4WD pickup truck. The stronger the better. You would then need to weld on steel blades on the front end of the truck. These could be a set of butcher blades or thick sheets of steel. They do not need to be extra sharp because with the speed of the truck at the time of impact, even a blunter edge would slice through bone very easily. You may raise the level of the blades as high as the headlights. That would make the blades strike your targets at the torso level or higher.

Pick your location and timing carefully. Go for the most crow[d]ed locations. Narrower spots are also better because it gives less chance for the people to run away. Avoid locations where other vehicles may intercept you.

To achieve maximum carnage, you need to pick up as much speed as you can while still retaining good control of your vehicle in order to maximize your inertia and be able to strike as many people as possible in your first run. Keep in mind that as soon as people realize what you are up to, they would scatter and run in every direction looking for cover. They would look for areas where the vehicle cannot reach them. Therefore, it is important to study your path of operation before hand. The ideal location is a place where there are a maximum number of pedestrians and the least number of vehicles. In fact if you can get through to ‘pedestrian only’ locations that exist in some downtown (city center) areas, that would be fabulous. There are some places that are closed down for vehicles at certain times due to the swarms of people. If you have access to firearms, carry them with you so that you may use them to finish off your work if your vehicle gets grounded during the attack.

After such an attack, we believe it would be very difficult to get away safely and without being recognized. Hence, it should be considered a martyrdom operation. It’s a one-way road. You keep on fighting until you achieve martyrdom. You start out your day in this world, and by the end of it, you are with Allah. This idea could be implemented in countries like Israel, the U.S., Britain, Canada, Australia, France, Germany, Denmark, Holland and other countries where the government and public sentiment is in support of the Israeli occupation of Palestine, the American invasion of Afghanistan and Iraq or countries that had a prominent role in the defamation of Muhammed… ”

So let’s speak the truth. The terror attack in Nice was not road rage perpetrated by a garden-variety criminal. It was jihad. It was Islamic terror. It was evil sanctioned by Allah and the teachings of Mohammed.

And let’s not make a big issue of the fact that the jihadist’s name was not on any terror watch list (not that these lists are even very effective, but that’s a topic for another day). The watch list is anyone and everyone who embrace the teachings of the Quran.

Hat tip: Atlas Shrugs

Read more: http://www.americanthinker.com/blog/2016/07/anything_but_jihad.html#ixzz4F0HUtR9c

নমস্কার কি?

একজন বৈদিক তথা সনাতন হিন্দু
ধর্মালম্বী ব্যক্তির অন্যতম
একটি বৈশিষ্ঠ্য হল
কারো সাথে দেখা হলে কড়জোড়ে
তাকে নমস্কার প্রদান করে অভিবাদন
বা সম্মান জানানো।
কিন্তু হিন্দুসমাজ মানেই হল
ধর্মগ্রন্থকে বুড়ো আঙ্গুল
দেখিয়ে নিজে নিজে নতুন নিয়ম
বানানো,ঐক্য আমাদের পছন্দ
নয়,অযাচিত বিভেদেই আমাদের
আসক্তি।আর এই সুত্র ধরেই
অনেকে বিশেষত নির্দিষ্ট কিছু
সংগঠনের সদস্যরা সার্বজনীন
এবং পবিত্র বেদাদি কর্তৃক
অনুমোদিত,সকল প্রাচীন ঋষি-
মহাঋষিসহ আমাদের সকল পূর্বপুরুষদের
ব্যবহৃত সম্বোধন ‘নমস্কার’
না বলে ‘হরে কৃষ্ণ’,’জয় রামজীকি’
ইত্যাদি ব্যবহার করা শুরু করেছেন।শুধু
তাই নয়,তাদের অনেকেই
উল্টো নমস্কার প্রদানকারী সাধারন
হিন্দুদেরকে জিজ্ঞেস
করছেন,”আপনারা কেন নমস্কার দেন?
হরে কৃষ্ণ দেয়া ই ভাল!”
প্রথমেই জেনে নেই নমস্কার
সম্বন্ধে কিছু তথ্য।
বৈদিক শাস্ত্রে ‘মুদ্রা’ হল হাতের
বা দেহের বিশেষ একটি অবস্থান।
নাট্যশাস্ত্রে ২৪ প্রকার মুদ্রার
বর্ননা করা হয়েছে।দুই হাত জোড় করার
এই বিশেষ মুদ্রাটির নাম
হল ‘অঞ্জলী মুদ্রা’।
এটির দুটো ব্যবহার-১)কাউকে দেখলে
অভিবাদন জানাতে যখন এটি ব্যবহার
করা হয় তখন একে বলা হয় নমস্কার।
২)বৈদিক সান্ধ্য উপাসনার শেষ
ধাপে যখন ঈশ্বরকে উদ্দেশ্য করে এই
মুদ্রা করা হয় তখন একে বলে প্রনাম-
আসন।
মূলত শব্দটি হল ‘নমস্তে’ যার
বাংলা রুপ হল নমস্কার। ‘নম’ শব্দের
অর্থ হল নত হওয়া বা শ্রদ্ধা/সম্মান
প্রদর্শন করা যার সাথে ‘তে’ ধাতু যুক্ত
হয় যার অর্থ তোমাকে অর্থাত্
নমস্তে অর্থ হল তোমার প্রতি রইল
শ্রদ্ধা।
ভারতের বিভিন্ন প্রাচীন
মন্দিরে এবং প্রত্নতাত্তিক
নিদর্শনে শ্রীকৃষ্ণ,শ্রীরামচন্দ্র সহ
বিভিন্ন ব্যক্তিত্ত্বের নমস্কাররত
অবস্থায় খচিত নকশা পাওয়া যায়।
আপস্তম্ব ও বৌধায়ন সুত্রেও
অভিবাদনের নিয়ম হিসেবে নমস্কার
দেবার কথা পাওয়া যায়।
পবিত্র বেদে অনেকবার ই
নমস্তে তথা নমস্কার প্রদানের
উল্লেখ পাওয়া যায়।
পবিত্র বেদে অনেকবার ই
নমস্তে তথা নমস্কার প্রদানের
উল্লেখ পাওয়া যায়।
নমস্তে স্ত্বায়তে নমো অস্তু পরায়তে।
নমস্তে রুদ্র তিষ্ঠতে আসীনাযোত
তে নমঃ।।(অথর্ববেদ ১১.২.১৫)
অনুবাদ-নমস্কার তোমায়(কেননা)
আমাদেরকে দেয়া চৈতন্যের
জন্য,হে রুদ্র তোমায় নমস্কার
কেননা তুমি ই এই
বিবেকরুপে আমাদের মাঝে অবস্থান
কর!
আরেকটি মন্ত্র কৃষকদের অভিনন্দন
জানাতে গিয়ে বলছে-
নমস্তে লাঙ্গলেভ্যো নম…
বিরুত্ক্ষেত্রিযনাশন্যপা…(অথর্ববেদ
২.৮.৪)
অর্থাত্ যারা লাঙ্গল ও চাষের
মাধ্যমে জমিতে ফসল ফলান তাদের
জানাই নমস্কার।
অভিবাদনরুপে নমস্কার প্রদানের
উত্কৃষ্ট উদাহরন যজুর্বেদের
নিম্নলিখিত মন্ত্রটি-
নমো জ্যেষ্ঠায় চ কনিষ্ঠায় চ
নমং পূর্বজায় চাপরজায চ
নমো মধ্যমায় চাপগল্ভায় চ
নমো জঘন্যায় চ বুধ্ন্যায় চ।।(যজুর্বেদ
১৬.৩২)
অনুবাদ-নমস্কার
জ্যেষ্ঠদেরকে,নমস্কার
কনিষ্ঠদেরকে,নমস্কার
উচ্চবিত্ত,মধ্যবিত্ত,ধনী-
গরীব,জ্ঞানী,স্বল্পজ্ঞানী সকলকে!
অর্থাত্ এ
থেকে আমরা জানতে পারি যে
নমস্কার এমন ই এক অনন্য অভিবাদন
যাতে ধনী-গরীব,ছোট-বড়,শিক্ষিত-
অশিক্ষিত ভেদ নেই।যে কেউ ই
এটা যে কাউকে দিতে পারে।
আমাদের বৈদিক ঋষিগন সকলেই
নমস্কার দিয়ে অভিবাদন
জানাতেন,শ্রীরাম,শ্রীকৃষ্ণ সকলেই
নমস্তে ব্যবহার করতেন অভিবাদন
জানাতেন।আর তার ই ভক্তরুপ
ব্যক্তিগন আজ হিন্দুসমাজে নিয়ম চালু
করছে নমস্কার না বলে ‘হরে কৃষ্ণ’
ইত্যাদি নিজেদের
বানানো কথা বলতে।অথচ শ্রীকৃষ্ণ
নিজেও তাঁর ভক্তদেরকে নমস্কার বাদ
দিয়ে ‘হরে কৃষ্ণ’ বলতে বলেন নি।ঈশ্বর
অজ্ঞানীদের আলোর পথ দেখাক এই
কামনা থাকল।
তবে শেষ করার আগে একটি চমকপ্রদ
তথ্য দিয়ে শেষ করি।২০০২ সালের জুন
মাসে প্রকাশিত ইন্ট্যারন্যশনাল
ইয়োগা সোসাইটির
ম্যগাজিনে বলা হয়
যে তারা বৈজ্ঞানিক পরীক্ষার
মাধ্যমে দেখেছেন যে নমস্কার
ভঙ্গীতে অর্থাত্ অঞ্জলি মুদ্রায়
প্রানায়াম বা ধ্যন করলে তা হাতের
মাংসপেশীকে শিথিল
করে এবং এটি মাংসপেশীজনিত
ব্যথা নিরাময়ে উপকারী।
ওঁ শান্তি শান্তি শান্তি