महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है- त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं। इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी! सादर नमस्ते!

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं।

इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– जगदीश प्रसाद हरित, गिरदौड़ा, नीमच, म.प्र.

समाधान– आर्यो के आलस्य प्रमाद के कारण वेद मत न्यून होता चला गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आर्यावर्त्त देश में अनेक-अनेक वेद विरुद्ध मत चल पड़े, जिनमें से चारवाक का वाममार्ग भी एक मत है। चारवाक एक वेद विरोधी नास्तिक व्यक्ति हुआ है। वह ईश्वर, जीव आदि को नहीं मानता था, पूर्वजन्म को नहीं मानता, इसी कारण उसने ऐसी बातें कहीं-

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।    (१)

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः।।         (२)

अर्थात् न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है, न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है, इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे । जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋण देना नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस शरीर से खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन किसको देगा? इस प्रकार की बातें चारवाक ने समाज में फैलाई, जिससे वेदमत की हानि हुई। चारवाक के वेद की निंदा से जुड़े जिस श्लोक को आपने जिज्ञासा समाधानार्थ दिया है वह है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्र्थात् नास्तिक चारवाक कहता है-‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।’’

इस पर महर्षि दयानन्द समीक्षा देते हुए ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ युक्त मन्त्र का अर्थ व भावार्थ और इन शब्दों की निष्पत्ति लिखते हैं।

महर्षि की समीक्षा-‘‘अब देखिए चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि ‘‘वेद भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष ने बनाए हैं।’’ ऐसा वचन कभी न निकालते। हाँ भाँड, धूर्त्त, निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं, परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना, न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा, इसलिए नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटाँग वेदों की निन्दा करने लगे। दुष्ट वाममार्गियों की प्रमाण शून्य कपोल कल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदों से विरोधी होकर अविद्या रूपी अगाध समुद्र में जा गिरे।’’

महर्षि ने यहाँ वेदों के टीकाकार महीधर जैसे को दोषी बताया है, जो कि पवित्र वेद ज्ञान का अर्थ अत्यन्त घृणित करके चला गया । महर्षि की यहाँ यह मान्यता  भी रही है कि यदि चारवाक आदि पक्षपात रहित हो वेदों की मूल संहिताओं को देखते पढ़ते तो कदापि वेदों के विषय में विपरीत बात न कहते।

अब ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ के विषय में लिखते हैं- इन शब्दों से युक्त मन्त्र इस प्रकार है-

सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।

उदन्यजेव जेमना मदेरुता मे जरारवजरं मरायु।।

– ऋ. १०.१०६.६

इस मन्त्र का अर्थ और इसके विषय में निरुक्त भाष्यकार श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने जो लिखा है वह यहाँ लिखते हैं-

(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर! तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है, (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फरीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करनेवाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चन्द्रमस अथवा समुद्र रत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचनेवाला तथा प्रसन्नताप्रद है। (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।

वेद का एक भी शब्द निरर्थक नहीं। जिनको वेद के शब्द निरर्थक व्यर्थ दिखते हैं, वे बाल बुद्धि हैं, जैसे चारवाक आदि नास्तिक लोग। इस मन्त्र में आये ‘जर्भरी’, ‘तुर्फरीतू’ आदि शब्दों के  विषय में आपने पूछा है, उनका अर्थ ऊपर मन्त्रार्थ में दे दिया है। जर्भरी का अर्थ है ‘भर्त्ता’ अर्थात् भरण-पोषण करने वाला। यह शब्द यङ्लुगन्त में ‘भृञ्’ धातु से ‘इ’ प्रत्यय करने से बनता है। और तुर्फरीतू का अर्थ है हन्ता, अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला। यह शब्द ‘तृफ’ हिंसायाम् धातु से ‘अरीतु’ प्रत्यय करने पर बनता है। इस प्रकार ये दोनों शब्द परमेश्वर के अर्थ वाचक हैं।

मन्त्र में ‘सृण्या इव’ कहा है, अर्थात् दात्री के तुल्य भरण-पोषण और हनन करने वाला है। दात्री दो तरह की होती है- भर्ती और हन्त्री अर्थात् वह दो काम करती है। चने आदि की खेती में पूर्वावस्था में शाक काटने से कृषि की वृद्धि होती है, परन्तु फसल पकने पर काटने से नष्ट हो जाती है। वह भरण तथा हनन दोनों काम करती है। इसी प्रकार परमेश्वर दोनों काम करता है-सज्जनों की रक्षा तथा दुर्जनों का नाश।

इस मन्त्र का अर्थ वेद भाष्यकार श्रीमान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी इस प्रकार करते हैं- सृण्या इव= (द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। नि. १३.५) अंकुश दो कार्य करता है, एक मत्तगज को अवस्थापित करने का और दूसरा अनिष्ट गातियों को रोकने का। इसी प्रकार ये पति-पत्नी जर्भरी= भरण करने वाले होते हैं और तुर्फरीतू= शत्रुओं के हन्ता होते हैं, वाञ्छनीय तत्त्वों का पोषण करने वाले और अवाञ्छनीयों को विनष्ट करने वाले हैं। नैतोषा इव= (नितोषयन्ति हन्ति) काम -क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करने वालों के समान तुर्फरी =(क्षिप्रहन्तारौ) शीघ्रता से शत्रुओं को विनष्ट करने वाले तथा पर्फरीका= (शत्रुणां विदारथितारौ) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले हैं, अथवा पात्र व्यक्तियों को धन से पूर्ण करने वाले हैं। (धनेन पूरथितारौ) उदन्यजा इव= (उदकजे इव रत्ने समुद्र्रे, नि. १३.५) समुद्रोत्पन्न कान्तियुक्त निर्मल रत्नों के समान जेमना= जयशील व मदेरु= सदा हर्षयुक्त। ऐसे पति-पत्नी जब माता-पिता बनते हैं तो ता= वे मे= मेरे जरायु= उस जरासे जीर्ण होनेवाले मरायु= मरणशील शरीर को अजरम्= अजीर्ण बनाते हैं, अर्थात् माता-पिता पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीरवाले होते हैं तो सन्तान का भी शरीर शीघ्र जीर्ण व मृत हो जाने वाला नहीं होता।

इस प्रकार इस मन्त्र का विशेष अर्थ चारवाक आदि नास्तिक लोग न देखकर वेदों की निंदा में अपना जीवन नष्ट कर गये, और जो भी वेद को विपरीत भाव से देखेगा, उसका भी जीवन व्यर्थ ही जायेगा।

आपने ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरीतू’ के विषय में पूछा कि ये क्या बला है, तो आपने इनके विशेष अर्थ देख लिए हैं कि ये बला नहीं, अपितु अपने अन्दर महान् अर्थ को लिए हुए हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

Deadly ignorance: Islam & Terrorism

A hallmark of Mr. Obama and his former Secretary of State Hillary Clinton is they have continually downplayed Islamic terror, telling us climate change is far and away a greater threat to mankind.
But at 2 a.m. Sunday, Omar Mateen, 29, the son of Afghan immigrants and an American anchor baby, used a Sig Sauer MCX (not an AR-15) and a handgun to kill 49 people and wound 53 others in Pulse, a gay nightclub in Orlando, Fla., before he was taken out about three hours later by police.
Having traveled to Saudi Arabia on more than one occasion, he had ties to the Islamic State, which said on its official propaganda site that it was responsible for the attack and “The Orlando attack is the work of a soldier of the Caliphate.”
Divorced but married again, some reports say Mateen was gay. His first wife says he was not only gay and a homophobe but also a misogynist who beat her during their marriage. This behavior, the norm for the Muslim culture, is similar to what German women experienced in Cologne six months ago and why Sweden is now the world’s rape capital.
Whether or not Mateen was gay isn’t important. What he did in his murderous rampage was totally related to Islam.
According to The Reliance of the Traveller, the sharia manual, says American Thinker columnist Eileen F. Toplansky, “there is consensus among Muslims … that sodomy is an enormity. It is even viler and uglier than adultery,” which is “punished brutally, including by death.”
The clear meaning is killing homosexuals is not Islamic jihadist law, or ISIS law, or as Mr. Obama pronounces it, ISIL, it is sharia, Muslim law.
Noting that a year ago Iranian Ayatollah Ali Khamenei “encouraged Western youth to find out about Islam for themselves and not allow their image of it to be clouded by prejudice,” Ms. Toplansky said youths were to “study and research and receive knowledge of Islam from its primary and original sources.” Here is a smattering of those primary original sources:
Quran 8:12 – I will cast terror into the hearts of those who disbelieve. Therefore strike off their heads and strike off every fingertip of them.
Quran 9:5 – So when the sacred months have passed away, then slay the idolaters wherever you find them, and take them captive and besiege them and lie in wait for them in every ambush.
Quran 4:144 – O ye who believe! Take not for friends unbelievers rather than believers: Do ye wish to offer Allah an open proof against yourselves?
Quran 5:51 – O ye who believe! Take not the Jews and the Christians for friends. They are friends one to another, He among you who taketh them for friends is (one) of them. Lo! Allah guideth not wrongdoing folk.
Quran 4:101 – For the Unbelievers are unto you open enemies.
Quran 4:89 – They would have you become Kafirs [non-Muslims – infidels] like them so you will all be the same. Therefore, do not take any of them as friends until they have abandoned their homes to fight for Allah’s cause [jihad]. But if they turn back, find them and kill them wherever they are.
“The whole world must submit to Islam,” says Bill Warner in Sharia Law for Non-Muslim. “Kafirs are the enemy simply by not being Muslims. Violence and terror are made sacred by the Quran. Peace comes only with submission to Islam.”
Killing gays, Jews, Christians, Yazidis, Hindus, Buddhists and uncovered women, or anyone who refuses to bow down to the medieval edicts of Islam, is not ISIS law. It is Muslim law — sharia, says Ms. Toplansky.
An estimated 3 million Muslims live in America, and more are being brought every day by Mr. Obama. A poll by the Center for Security Policy in May 2015 said 51% of American Muslim wanted their own sharia courts, not the American legal system. Taxpayer cost is $20,000 per immigrant, and that is before they receive welfare, food stamps and free health care.
Refusing to acknowledge that Islam is behind terrorists attacks against Western civilization even when attackers shout “Allahu Akbar” (God is great), Mr. Obama, called the Paris attacks “random violence.” Although he didn’t express anger Sunday in his talk regarding the Orlando massacre, he said it was a “terror attack.” Then he launched into his anti-gun crusade.
The political correctness whitewashing of Islamic terror and sharia was clear in Orlando. And it will happen again.

source : http://www.carolinacoastonline.com/news_times/opinions/editorials/article_fcff777e-3491-11e6-b5b7-8b0abee0f109.html

लेखमाला की अन्तिम मणियाँ

लेखमाला की अन्तिम मणियाँ

– राजेन्द्र जिज्ञासु

‘परोपकारी’मासिक के संवत् १९६४ के अंकों में वेद विषय पर गोस्वामी घनश्याम जी मुलतान निवासी की एक महत्त्वपूर्ण लेखमाला प्रकाशित हुई थी। इस लेखमाला की अन्तिम मणियाँ हम खोज पाये हैं।

इस लेखमाला के लेखक गोस्वामी घनश्याम अपने समय के जाने-माने विद्वान् थे। आप आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु वेद के एवं ऋषि दयानन्द के बड़े भक्त थे। स्वामी वेदानन्द जी महाराज भी कुछ समय आपके पास मुलतान में पढ़े थे।

आपने काशी शास्त्रार्थ में हार-जीत के विषय में सन् १८७९ में पं. बालशास्त्री से पूछा कि आप ठीक-ठीक बताओ कि सन् १८६९ के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में आप जीते अथवा स्वामी दयानन्द? पं. बाल शास्त्री का उत्तर पं. लक्ष्मण जी रचित ऋषि-जीवन के पृष्ठ २८१-२८२ पर पाठक पढ़ें। बाल शास्त्री जी का कथन था कि हम कौन उस वीतराग योगनिष्ठ ब्रह्मचारी को पराजित करने वाले? गोस्वामी जी बाल शास्त्री के शिष्य थे।

गोस्वामी जी के मुख से सुने बाल शास्त्री के शब्द स्वामी वेदानन्द जी ने अपनी पठनीय पुस्तक ऋषि बोध कथा में दिये हैं। प्रकाशन से कई वर्ष पूर्व स्वामी वेदानन्दजी ने व्याख्यानमाला के रूप में यह सारी पुस्तक कादियाँ में सुनाई थी।

उस प्रकाण्ड वैदिक विद्वान् की ये वेद विषयक लेखमाला परोपकारी के पाठकों के सामने प्रस्तुत है।

पं. बाल शास्त्री अपने शिष्यों से प्रायः यह कहा करते थे, ‘‘सत्पथ पर चलना चाहो तो दयानन्द के बताये पथ पर चलो, वह पथ सत्य एवं निर्भ्रान्त है।’’

अंक ६   परोपकारी। अश्विन १९६४

वेद।

पहिले कहा गया है कि विद्, विद्लृ धातु से वेद शब्द बनता है, उसका अर्थ सत्ता, ज्ञान तथा लाभ है। वेद में उक्त तीनों  अर्थों में वेद व्यवहृत हुआ है और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में ऋगादि चार पुस्तकों का नाम भी वेद कहा है। यहाँ अब प्रश्न होता है, धात्वर्थ के अनुसार चारों वेद में किसकी सत्ता, ज्ञान और लाभ का वर्णन है? इसके उत्तर को विचारने के लिये उस बात को प्रथम सम्मुख रखना है, जहाँ कहा है कि ऋगादि वेद त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म, उपासना, ज्ञान के प्रतिपादक है, परन्तु आधुनिक महीधरादिकृत वेदार्थ पर जब दृष्टि जाती है तो यही कहना पड़ता है कि वेद में केवल कर्म का आदेश है और वह कर्म केवल अग्नि, इन्द्र, सूर्यादि कल्पित देवों के लिये उपदिष्ट है, इसलिये मिस्टर मैक्समूलर आदि साहब कहते थे कि वेदों में ईश्वर का वर्णन नहीं, किन्तु देवपूजा, मूर्ति पूजा और तत्कालीन कहावतें लिखी हैं।

इसका जब आलोचन करते हुए प्रथम उक्त त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म उपासना ज्ञान ही सूचित कर रहे हैं कि उक्त वेदों में ईश्वर की उपासना और ज्ञान का उपदेश भी है, पुनः महीधरादि जो कर्मवादी थे, ज्ञान से विमुख थे, उनके पूर्वज स्वामी शंकराचार्य ने ईशोपनिषद् जो यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, उसको ईश्वरीय विषय में दर्शाया है। पुनः उन महीधरादि आधुनिक लोकों के अर्थ की क्या गणना है?

सर्वे वेदाः यत्पदामामनन्ति (कठो. २/१५) उपनिषद् कहते हैं कि परमात्मा पद का वर्णन करनेवाले सब वेद हैं फिर मनुजी लिखते हैं कि ‘‘वेदोऽखिलो धर्म्ममूलम्’’ (मनु. २/६) जितने धर्म हैं, वह सब वेद से प्रगट हुए हैं एवं महामुनि पतञ्जलि भी लिखते हैं कि ‘‘धर्म्मः वेदोऽध्ययः’’ (महाभाष्य १/१/१/१) वेद धर्म्म हैं, इन उपनिषद्, मनुस्मृति और महाभाष्य के प्रमाण से साफ है कि पुराकाल में वेद में ईश्वर धर्म्म आदि सब प्रभुता की विद्यता मानी जाती थी। पुनः यह क्योंकर मान्य हो कि वेद में ईश्वर का विषय नहीं केवल कर्म ही हैं, क्योंकि पूर्वोक्त प्रमाणों से साफ है कि वेद में ईश्वर का ज्ञानादि भी विद्यमान है। इसकी पुष्टि के लिये कतिपय आधुनिक पण्डितों के लेख से दिखलाया जाता है कि धात्वर्थ के अनुसर वेदार्थ में धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पदार्थों में धर्म्म की सत्ता, ज्ञान और लाभ का अर्थ लिया गया है-

‘‘विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते वा एभिर्धर्मादि पुरुषार्था इति वेदाः’’ बह्वृक् प्रातिशाख्यवृत्युपक्रमाणिका में विश्वामित्र लिखते हैं कि जिसने धर्म्म पुरुषार्थ जाने जाते, विदित होते वा प्राप्त होते हैं, उनका नाम वेद है। विद्ल् असुम्= विदल्लेतत् लभ्यतेवाऽनेन धर्म्मादि इति वेदाः। ऐसा निघण्टु टीकाकार ने लिखा है। इस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी भी वेद भाष्य भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘विद् ज्ञाने, विद्सत्तायां, विद्लृ लाभे, विद् विचारणे, एतेभ्यो हलश्चेति सूत्रेण करणाधिकरणकारकयोर्घञ् प्रत्येये कृते वेदशब्दः साध्यते। विदन्ति, जानन्ति, विद्यन्ते, भवन्ति, विदन्ते, विन्दते,लभन्ते, विदन्ते, विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्याः यैर्र्र्येषुवा तथा विद्वांसश्व भवन्ति ते वेदाः’’ (वेद भाष्यम्) जिनमें सब सत्यविद्या हैं और जिनसे सब सत्यविद्या लोक जानते, प्राप्त करते, विचारते और जिनको जानने से विद्वान् हो जाते हैं, वह वेद है।।

(प्रश्न) पूर्व सब प्रमाण से यही पाया जाता है कि वेद में कर्म, उपासना, ज्ञान और धर्म्मादि चारों पदार्थों का वर्णन है और स्वामी दयानन्द जी ने जो वेदों में सब सत्यविद्या है-ऐसा कहा है इसमें कोई पुरानी साक्षी भी है?

(उत्तर) हाँ, है देखिये। मनुजी आज्ञा करते हैं कि ‘‘सर्वे वेदात्प्रसिध्यति’’ (मनु. १२/१६) सर्व अर्थात् विद्या आदि सब कुछ वेद से लिया जाता है।

(प्रश्न) यहाँ विद्या शब्द का साक्षात् व्यवहार नहीं किया?

(उत्तर) ‘‘धृतिः……विद्यां’’ मनुस्मृति में जहाँ धृति से अक्रोध तक धर्म के दश लक्षण लिखे हैं, उनमें से विद्या भी एक लक्षण साफ इन (विद्या) शब्दों में लिखा है और (मनु. २/६) इस श्लोक में वेद को धर्म का मूल कहा है यह साक्षात् प्रमाण है कि वेद में विद्या वर्णन है।।

अङ्क ७  परोपकारी कार्त्तिक १९६४ वि.

वेद।।

(गताङ्क से आगे)

चर्मनेत्र से ज्ञाननेत्र भिन्न होते हैं-इस जनश्रुति में यह अर्थ निकलता है कि विद्या मानो ज्ञान का मित्र है। जिसकी विद्या की आँखें उत्पन्न हो जावें, वहीं विद्वान् हो जाता है और मनुजी कहते हैं कि ‘‘पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्’’ (मनु. १२/१) पितृदेव मनुष्यों का वेद ही नेत्र है। यह लोक वेद के जानने से विद्वान् हुए हैं। लोक व्यवहार भी यही विदित कर रहा है कि प्रमाण के जानने से मनुष्य विद्वान् हो जाता है और आपस्तम्ब गृह्यसूत्र में लिखा है कि ‘‘त्रैविद्या वृद्धानान्तु वेदाप्रमाणमितिनिष्ठा’’ (आ.२/९/३/९) तीनों विद्या में जो बड़े हुए हैं, उनके लिये वेद ही प्रमाण है, यूँ कहिये कि वेदरूप प्रमाण से मनुष्य विद्या में वृद्ध हो सकता है। यहाँ यह जतलाना अनुपयोगी नहीं होगा कि वेद के अर्थ समझने के लिये जैसे व्याकरणादि की आवश्यकता होती है वैसे योग की भी आवश्यकता है, क्योंकि ईश्वर ज्ञानस्वरूप है और वेद उसका ज्ञान है उसके जानने के लिये योग ही एकमात्र एकान्त उपाय है। इस बात को आगे वर्णन किया जावेगा कि वेद के अर्थ जानने के लिये योग की भी आवश्यकता है यहाँ तो इसकी सूचना करनी ही थी। यदि यह नहीं कहा जाता तो फिर प्रश्न उठता कि जब वेद में सब विद्या है, उससे प्रकट क्यों नहीं करते? इसके उत्तर में इतना निवेदन करना पर्य्याप्त होगा कि योग युक्त पुरुष अब भी ऐसा कर सकता है और पुराकाल में जितने उपनिषद्कार वदरीनाचार्य्यादि ऋषि मुनि विद्वान् हुए हैं, उन सबका इतिहास कहता है कि उनको सब विद्या वेद के सहारे से प्राप्त हुई थी। वह वेद में से अनेक विद्या प्रकट कर गये हैं। अब भी जो उनके समान होगा, वह वेद से विविध विद्या का प्रकाश कर सकता है। जब से वेद का पठन-पाठन छूट गया है, और योग से विमुखता हो गई है, तब से यहाँ विद्योन्नति का अभाव हो गया है। अब उचित है कि प्रथम वेद के लक्षण को हम जानें।।

अंक आठ

परोपकारी मार्गशीर्ष से सं. १९६४ वि.

वेद।।

(गताङ्क से आगे)

पहिले वेदव्युत्पत्ति विषय में कहा गया है कि वेद का अर्थ लाभ, जानना, ज्ञान, सत्ता और विचार है। इन अर्थों को सृष्टि में किस प्रकार  चरितार्थ तथा व्यवहार में लाया गया है, यह अब कहना है, क्योंकि ‘‘लक्षणाप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः’’ चीज की अस्ति उसके लक्षण और प्रमाण से जानी जाती है, अतएव विचारना है कि जगत् ने वेद पदार्थ को कौन से लक्षण और प्रमाणों में चरितार्थ किया है?

पूर्वलिखित लेखों में जहाँ ‘विद् व विद्ल्’ धातु से वेद पद को सिद्ध किया है, साथ उसके विष्णुमित्र आदि महाशयों ने ‘‘धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष’’ इन चार पदार्थों के ज्ञान और प्राप्ति के लिये वेद के लक्षण दिखलाये हैं और यजुर्वेद में प्रमाण दिया है कि-

‘वेदाहमेतं पुरुषम्’ (यजु. २१)

जिसके जानने से मोक्ष प्राप्त होता है, उस परमात्मा को जान। ऐसा जानना ‘वेद’ पद से प्रमाणित है और मनुजी कहते हैं कि-

श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्म्मस्य लक्षणम्।।

– (म. २/१२)

धृतिःक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म्मलक्षणम्।।

– (म. ६/६)

जो परमात्मा से ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसको श्रुति कहते हैं, फिर उसका ऋषि लोगों ने वेद पर जैसा चिन्तन् स्मरण किया है और जिसको अपने सदाचरण में आचरित कर दिखलाया है, जो आत्मा के वास्तविक प्रिय हैं, उसका नाम धर्म्म है। प्रश्न होगा कि वे कौन-सी बातें हैं जो श्रुति में कही ऋषियों ने प्रकट की तथा करके दिखलाई और अब भी हम जिनको प्रिय अनुभव कर सकते हैं? इसके उत्तर में फिर मनुजी आज्ञा करते हैं कि वे संक्षेपतया दश लक्षण हैं। वे यह हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध। यह धृति आदिक भाव प्रत्येक आर्य्य हिन्दू, मुसलमान, जैन, ईसाई, आस्तिक और नास्तिक सबको उत्तम और प्रिय लगते हैं। जब तक किसी मनुष्य व प्राणी को विशेष स्वार्थ पक्ष= वास्ता नहीं पड़ता, तब तक कोई अधीर नहीं होता। कोई किसी से क्रोध अभिमान नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि आत्मा मात्र का धृति आदिक स्वाभाविक धर्म्म है और अधीरता आदि कृत्रिम धर्म्म है, इसलिये कृत्रिम कहीं-कहीं त्याज्य समझे जाते हैं। इस धर्म्म के बारे में मनुजी कहते हैं कि-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयः (म. २/१०)

वेदोऽखिलोधर्म्ममूलम् (म. ६)

श्रुति जिसको ऋग्, यजुः, साम, अथर्व पुस्तक कहते हैं, वह वेद है और उनमें मूलरूप तथा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध सब धर्म्म का वर्णन है। ‘‘लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्’’ जिससे जाना जाता है, उसको लक्षण कहते हैं, अतएवं वेद का जानना धृति आदि से हो सकता है, जिसमें धृति आदि का वर्णन है, वही वेद है। प्रश्न होगा कि यदि धृति आदि दूसरी पुस्तकों में वर्णित हो क्या वह भी वेद होंगे? उत्तर यह होगा कि वह वेद के धृति आदि के आदाय को कहने वाले हैं वेद नहीं, प्रश्न होगा कि ऐसी-ऐसी व्यवस्था किसी ने पहिले भी कही हैं, उत्तर है कि हाँ! मनु कहता है कि-

श्रुतिस्तु वेदोविज्ञेयो धर्म्मशास्त्रन्तुवै स्मृतिः (म. २/१०)

जो परमात्मा से ऋषियों ने सुना है, उसको वेद कहते हैं और उसको जिन पुस्तकादि में ऋषियों ने कहा है, उसको स्मृति कहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जैसा वेद से प्रयोजन सिद्ध होता है, वैसे अन्य अच्छे पुस्तकों से भी होता है, परन्तु-

या वेदबाह्याःस्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हिताः स्मृताः।।

– (म. १२/९५)

जो वेद के बाहर वेद के अनुकूल नहीं, जो कुदृष्टि हैं, वह त्याज्य हैं, क्योंकि तमोनिष्ट है और तमोगुण का ज्ञान अल्प होता है, पूर्ण नहीं होता इसलिये वेद से अतिरिक्त पुस्तक जिनमें बड़ी-बड़ी विद्या की बातें भी हैं, वह उत्तम व ग्राह्य होने पर भी निर्भ्रान्त नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य की बनाई होने से तमोगुण के लेश करके कभी पूर्ण नहीं हो सकती। यही कारण है कि साम्प्रत में साइन्स के नियम भी स्थायी नहीं होने पाते। जैसे पहिले तत्त्व ऐलीमैन्ट थोड़े माने जाते थे, अब बहुत सिद्ध हो गये हैं, आगे प्रतिदिन नूतन आविष्कार होते रहते हैं, फिर उन पुस्तक जिनमें अयुक्त बहुत बातें हैं, पुराण, कुरान, बाइबिल आदि क्योंकर वेद हो सकते हैं?

सम्प्रदायी मतवादी लोगों का नियम है कि उनके अगुए-गुरु ने जो वाक्य कह दिये, फिर जो उनके पुस्तक में लिखे गये, वह उनके लिये प्रमाण हो जाते हैं, फिर यह नहीं सोचते कि वे वाक्य प्रमाण के प्रमाणानुकूल हैं वा नहीं? इस कारण मतवाद का झगड़ा प्रतिदिन बढ़ता जाता है। निपटारा नहीं होने पाता, परन्तु वेद ऐसा नहीं, किन्तु गौतमजी लिखते हैं कि-

प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि (१/१/३)

आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दार्थ सम्प्रत्ययः (२/१/५२)

आप्तोपदेशः शब्दः (१/१/८)

आप्तःखलुसाक्षात् कृतधर्म्मा।

संसार की सब वस्तु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द से सिद्ध होती हैं। इसको प्रमाण कहते हैं। आप्त का उपदेश शब्द हैं, क्योंकि उसके कहने से अर्थज्ञान हो जाता है। वह क्यों, इस पर वात्स्यायनाचार्य्य लिखते हैं कि जिसने जिस पदार्थ को साक्षात् कर लिया हो, उसको वैसा कहे यह उपदेश उसका शब्द है। ऐसा ही ऋषि आर्य्य और म्लेच्छों का व्यवहार सिद्ध समान लक्षण है। और-

श्रुतिप्रामाण्याच (३/१/२९)

इस सूत्र से जतलाया है कि उक्त शब्द को श्रुति वेद कहते हैं, वह प्रमाण है। इस सूत्र के भाष्य से उद्बोध होता है कि ऋषि लोग वेद की बात को पदार्थ विद्या सिद्ध मानते थे।

सूर्य्यन्ते चक्षुर्गच्छतां पृथिवीन्ते चक्षुरिति

सूर्य्य में नेत्र और पृथिवी में शरीर लय होता है, अर्थात् कारण  में कार्य्य का लय होना और कारण में कार्य्य का होना सिद्ध होता है। फिर ऐसी पुस्तक जिनमें लिखा हो कि श्रीकृष्ण जी का शरीर दग्ध होकर पृथिवी आदि को प्राप्त नहीं हुआ और पितृवीर्य्य के बिना मसीह को पैदा होना लिखा है वह कैसे प्रामाण्य हो सकती है। इस पर कह सकेंगे कि वेद में भी ऐसी अनेका गाथाएँ हैं, क्योंकि महीधर आदि ने वेद के वैसे अर्थ किये हैं, परन्तु उनको यह नहीं सूझता कि महीधर आदि का अर्थ क्योंकर प्रमाण हो सकता है, जब उनका अर्थ प्रमाण विरुद्ध है, क्योंकि मनुजी लिखते हैं कि-

आर्षधर्म्मोपदेशश्च वेदशास्त्रीविरोधिना।

यस्तर्केणनुसन्धत्ते स धर्म्मो वेदनेतरः।।

– (म. १२/१०९)

ऋष्युक्त धर्म्मोपदेश जो वेदशास्त्र के प्रतिकूल न हो, युक्ति से सिद्ध हो वह धर्म है, दूसरा नहीं। इससे साफ है कि वेद में युक्ति को विचारना पड़ता है और उसके अर्थ करनेवाले  के कथन अथवा किसी स्वतंत्र ग्रन्थ बनाने वाले की स्वतंत्र पुस्तक में वही बात मानने के योग्य होती जो युक्ति से सिद्ध होगी, फिर क्योंकर उन महीधरादि के वेदार्थ का आश्रय लेकर वेद में असंघटित बातों का सत्व मान सकते हैं? देखिये आगे मीमांसा क्या कहता है।। (क्रमशः)

घनश्याम मुल्तान।

‘पाठकों की प्रतिक्रिया’

‘पाठकों की प्रतिक्रिया’

– डॉ. रामवीर

कवि की तो इतनी ही अपेक्षा

बस मिल जाए सहृदय श्रोता,

श्रोता अगर सराहे तो फिर

स्वाभाविक है कवि खुश होता।

धन्यवाद आभार आपका

बढा प्रशंसा से उत्साह,

ईश करे पूरी कर पाऊँ

प्रकट आपने की जो चाह।

ईश कृपा ईश्वर ही जाने

कब होगी हम नहीं जानते,

हम उसकी सृष्टि में स्वयं को

इक छोटा-सा पूर्जा मानते।

किस से कितना काम है लेना

ईश्वर ही करता निर्धारित,

हम प्रस्ताव तो रख सकते हैं

उसकी इच्छा करे जो पारित।

आशा है आशीष आपका

यूँ ही मिलता रहे सर्वदा,

बड़े भाइयों का स्नेह है

मेरी सब से बड़ी सम्पदा।

– ८६, सै. ४६, फरीदाबाद-१२१०१०,

चलभाषः ९९११२६८१८६

The religion of “peace” strikes again

(TRUNEWS) The religion of peace strikes again.

50 dead, 53 injured in the heart of Florida.

Did you know 11 countries which are controlled by Islamic sharia law still have state legalized executions of homosexuals?

How many more innocent people need to die before we acknowledge Islam has a violence problem?

Why are the trendies screaming about gun control when we have crazed zealot lunatics running around inside our country, committing barbarous acts of slaughter?

We had Paris, we had Brussels, now its finally come to America.

A single Muslim just killed more gays than so called “gay bashing” killed in the last fifty years!

#HugAMuslim and #PrayForOrlando are not going to stop the ticking time bomb of jihadist extremism, waiting for the call for a mass zero-hour-attack which will make this latest shooting pale in comparison.

Only God can help us now, and we need to pray our country turns back to Him, and wholeheartedly rejects the Babylonian culture we have embraced as a nation.

Pray and Prepare, the summer of chaos has begun

(source: http://www.trunews.com/the-religion-of-peace-strikes-again/)

ईसाई मत परीक्षा

ईसाई मत परीक्षा

– स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

पाठक गण! मजहब की श्रेष्ठता उसके नियमों की उत्तमता से ज्ञात होता है, परन्तु मजहब के माने रीति और मार्ग के हैं, इसलिये जो लोग उद्देश्य को नहीं जानते, उनको शुद्ध-अशुद्ध मार्ग का ज्ञान हो ही नहीं सकता है और जब तक सत्यासत्य ‘‘सच और झूठ’’ का ज्ञान न हो, तब तक चलने का विचार करना बड़ी भारी मूर्खता है। जिन लोगों को ईश्वर ने आँख नहीं दी वे भी लाठी के द्वारा मार्ग को टटोल-टटोल कर चलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि मनुष्य की बनावट ही में तमीज का माद्दा है और तमीज की आवश्यकता केवल नेक बद शुभाशुभ जानने के लिये हैं, किन्तु मनुष्यों की बुद्धि पशुओं की बुद्धि से इसी तमीज के कारण उत्तम मानी गई है। अगर तमीज कोई बुरी चीज है तो उस की वजह से मनुष्य को पशु से बुरा होना चाहिये न कि श्रेष्ठ, लेकिन बहुत मजहब तमीज के प्राणलेवा शत्रु ‘‘जानी दुश्मन’’ हैं।

वे तमीज की वजह से मनुष्य को गुनाहगार समझते हैं, इस वास्ते उनमें तमीज बजाय बुजुर्गी के कमीनाई पैदा करती है। हमारे बहुत से मित्र कहेंगे कि संसार में ऐसा कोई मजहब नहीं जो तमीज को बुरा जानता हो, वरन हर एक मजहब इस बात पर एक है, मनुष्य ज्ञान के कारण पशुओं से अच्छा है, परन्तु ऐसा कहने वाले लोग भूल पर हैं, क्योंकि सबसे पहले ईसाई मजहब मौजूद है, जो तमीज को गुनाह गारी बतलाता है। यों तो हर एक ईसाई कहता है कि खुदा की बातों में अकल को दखल नहीं, लेकिन ईसाई धर्म की किताबें और ईसाइयों का खुदा इससे भी अधिक तमीज ज्ञान का बैरी है। वह नहीं चाहता कि मनुष्यों में तमीज पैदा हो, बल्कि जिस समय उसने आदम को उत्पन्न किया, उसी समय नेक व बद की तमीज का फल खाने से रोका। भला जब खुदा ने तमीज को ऐसा बुरा समझा कि उसका फल खाना आदम के लिये मना किया, यहाँ प्रश्न यह पैदा होता है कि खुदा को यह ज्ञात ही था कि आदम इस पेड़ का फल अवश्य खायेगा (यहाँ तक तौरेत से पाया जाता है) परन्तु ज्ञात होता है कि उसे बिल्कुल नहीं मालूम था, क्योंकि उसने सवाल किया (देखो तौरेत उत्त्पत्ति की पुस्तक पर्व ३ आयत ९ व ११ तक) तो परमेश्वर ईश्वर ने आदम को पुकारा और कहा कि तू कहाँ है और वह बोला कि मैंने बारी में तेरा शब्द सुना और डरा, क्योंकि मैं नंगा था, इस कारण मैंने आपको छिपाया और उसने कहा कि तुझे किसने जताया कि तू नंगा है? क्या तूने उस वृक्ष का फल खाया, जिसका खाना तुझको बरजा थीं, ऊपर कही आयत से साफ मालूम होता है कि ईसाइयों का खुदा इतना कम इल्म है कि बिना दर्याफ्त किये काम के बाद तक खबर नहीं होती। जब इस कदर बे इल्म हैं, तभी तो नेक व बद की तमीज के फल खाने से मना करता है। बहुत से लोग कहेंगे कि अभी तक कोई सबूत नहीं दिया कि खुदा ने तमीज का फल खाने को मना किया था। इसका सबूत देखो उत्पत्ति पुस्तक पर्व २ आयत १५/१६/१७ और परमेश्वर ईश्वर ने पहले आदम को अदन के बाग में रक्खा कि उसकी बाग वानी और निगह वानी करै और खुदाबन्द खुदा ने आदम को हुक्म देकर कहा कि-

तू बाग के हर वृक्ष का फल खाया कर, लेकिन नेक व बद की पहिचान के वृक्ष से न खाना, जो खाया तो तू मर जायेगा, ये है ईसाइयों के खुदा का हुक्म! भला जब खुदा ने तो नेक व बद की तमीज से आदम को अलग रक्खा, लेकिन साँप ने कृपा करके आदम को तमीज करा दी, जिससे हमारे भाई ईसाई भी संसार में उत्तम होने में अपना हिस्सा समझने लगेंगे-वरना उनके खुदा को आदमी का बेतमीज ही रखना स्वीकार था, परन्तु बाइबिल साँप ने इन्सान को तमीजदार बना दिया, वह नहीं चाहता था कि मनुष्य तमीज पैदा करके उत्तम बन जावे, बल्कि आदमी को तमीज पैदा करने से ईसाइयों के खुदा को इस बात का डर हुआ कि कदाचित मनुष्य अमृत के पेड़ के फल खाले और हमारे बराबर हो जावे बहुत से लोग हैरान होंगे कि खुदा और खौफ से क्या मतलब, लेकिन जनाब ईसाइयों का खुदा इसी तरह का है। उसके सबूत में देखो किताब उत्पत्ति पर्व ३ आयत २२, और खुदाबन्द खुदा ने कहा कि देखो मनुष्य नेक व बद की पहचान में हममें से एक की मानिंद हो गया और अब ऐसा न हो कि अपना हाथ बढ़ावै और अमृत के वृक्ष से भी कुछ मेवे खावै और हमेशा जीता रहे, इसलिये खुदा बन्द खुदा ने उसको बाग अदन से निकाल दिया-इससे भी बढ़कर और क्या खौफ का सबूत दरकार है, खुदा को डर क्यों न हो, क्योंकि एक और सबका मालिक तो है नहीं जो सब पर जबरदस्ती रखता हो और न वह अपरिमित है, बल्कि ईसाई मजहब में खुदाओं की एक कौम या जमाअत है जैसा कि ऊपर की आयत में खुदा के अपने वाक्य से मालूम होता है।।

क्योंकि वह कहता है कि मुनष्य नेक व बद की तमीज में खुदाई कौम में से एक की मानिंद हो गया, यानी नेक व बद की तमीज में तो खुदा के बराबर होगा, सिर्फ अमृत के फल खाने का फ र्क रहा, ईसाई मजहब में खुदाओं की कौम होने का एक और भी सबूत ले लीजिये-पौलूस का खत इन्द्रियों का पर्व १ आयत ९-ऐ खुदा। तूने नेकी से मुहब्बत और बदी से दुश्मनी रखी इस वास्ते ऐ ईश्वर! तेरे खुदा ने तुझे तेरे शरीकों की निस्बत खुशी के तेल से अधिक अभिषेक किया। क्या अब भी कोई ईसाई इन्कार कर सकता है कि ईसाइयों का खुदा अकेला ही मालिक है, बल्कि उसका खुदा और उसके शरीक भी मौजूद हैं। भला जिनके खुदा का खुदा और शरीक भी हों अब हम पूछते हैं कि वह किस खुदा के पास मुक्ति मानेंगे-पादरी गुलामी मसीह साहब और दीगर पादरियों को जो परमात्मा के पास से मुक्ति मानते हैं, सोचना चाहिये कि किस खुदा के पास  से मुक्ति होगी, क्योंकि ईसाइयों के मजहब में तो खुदाओं का एक झुण्ड है, जो खुदा के अपने वाक्य से प्रगट हो रहा है और ईसाइयों के खुदा का परिमित और शरीरधारी होना भी उनकी किताबों से साबित होता है, क्योंकि ईसाइयों का खुदा भी आदमी की सूरत का और मनुष्य की मानिंद है, उसके सबूत में देखो किताब उत्पत्ति पर्व १ आयत २६-तब खुदा ने कहा कि हम मनुष्य को अपनी सूरत और अपनी मानिंद बनावैं। इस आयत से मालूम होता है कि ईसाइयों के खुदा की शक्ल आदमी के अनुसार है और वह आदमी की तरह अल्पज्ञ और अल्प शक्तिवाला है। इसके अलावा खुदा के परिमित होने का और भी सबूत है, देखो किताब उत्पत्ति पर्व ३ आयत ८-और उन्होंने खुदा और खुदा की आवाज जो ठंडे वक्त बाग में फिरता था सुनी, उसने और उसकी स्त्री ने आपको खुदाबन्द खुदा के सामने से बाग के पेडों में छिपाया। अब बुद्धिमान आदमी समझ सकते हैं कि ईसाइयों का खुदा मनुष्य है या और कोई?

भला कैसे शोक की बात है कि जिस मजहब का खुदा बागों की सैर करता फिरै, जिसको हसद वकीना (ईर्ष्या-द्वेष) होतो तमीज यानी नेक बद की पहिचान आदमी को देना न चाहे और जिसको डर हो कि अगर मनुष्य ने अमृत के पेड़ का फल खाया तो हममें से एक के बराबर हो जायेगा-जिनके खुदा को पैदायश के लिखते समय से भी ख्याल न हो कि वह चौथे दिन सूर्य व चाँद को पैदा करे, भला दिन और रात का फर्क सूर्य और चाँद के कारण है और ये चौथे दिन पैदा हुए तो ईसाई साहबान बतलावें कि पहले तीन दिन किस तरह हुए? जो जबान से तो खुदा को सर्व शक्तिमान कहें, लेकिन अमलन ये साबित करें कि उसे काम के पहले किसी विषय का ज्ञानभी नहीं होता, क्या ऊपर की आयत को पढ़कर कोई अकलमन्द आदमी यह कह सकता है कि ईसाइयों का खुदा सर्वशक्तिमान् और दयालु है? ईसाइयों को जो नेक व बद की तमीज है, वह खुदा की दया से प्राप्त नहीं हुई, बल्कि साँप की मेहरबानी का फल है। जो तमीज और मजहब वालों के पुरुषों एवं पशुओं में श्रेष्ठ बनाने वाले साबित हुए वही तमीज ईसाइयों के पूर्वजों को दोष का तमगा पहनाने वाली हों जब कि ईसाई लोग ईश्वर को शरीरधारी और परिमित मानते हैं तो पूछते हैं कि जमीन और आसमान के पैदा करने से पहले आपका शरीर धारी खुदा जो आदमी की शक्ल का है, कहाँ पर मौजूद था? क्योंकि उस वक्त कोई जगह तो थी ही नहीं और शरीर धारी चीज बगैर जगह के रह नहीं सकती। अब जब तक ईसाई लोग अपने शरीर धारी खुदा के तख्त को ये न बतलावें कि वह कहाँ था, तब तक उनके मजहबी कायदे बालू की भीत से भी अधिक कमजोर रहेंगे और जिस तख्त पर अब उनका खुदा और उनका बेटा मय अपने शरीकों के बैठा है, उस तख्त की उत्पत्ति का जिक्र उत्पत्ति की पुस्तक में दिखाई नहीं देता, कदाचित ये कदीम हो।

ईसाई लोग सिवाय खुदा के किसी को कदीम नहीं मानते। अब यह भी सवाल पैदा होता है कि एक खुदा के सिवाय बाकी खुदाओं की कौम कदीम है और हरएक खुदा अनादि है तो उनमें आपस में कुछ फर्क था नहीं और यह भी सवाल पैदा होता है कि खुदाओं की कौम में किस खुदा ने जमीन व आसमान को पैदा किया था, क्योंकि अगर एक खुदा होता तो हर एक आदमी मान लेता कि एक ही पैदा करने वाला है। चूँकि यहाँ खुदाओं की कौम है तो यह सवाल जायज है कि उसने जमीन व आसमान बनाया और उस समय बाकी खुदा उसकी मदद करते रहे या नहीं और उस खुदाई कौम में सर्व शक्तिमान् खुदा कौन-सा है, क्योंकि जब तक मनुष्य मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि ईसाई मजहब में कर्मों से मुक्ति हो ही नहीं सकती, जिसका इकरार पादरी गुलाम मसीह साहब मास्टर स्कूल मैनपुरी ने अपनी किताब (रद्दतनासुख) में किया है। वह खुदा के फजल से मुक्ति मानते हैं और परमात्माओें की एक कौम मालूम होती है अब उसमें से किस खुदा के फजल से मुक्ति में कौन पास होगा और आत्मा का तगाजा किस खुदा के पास पहुँचना है? जब तक ईसाई साहबान इन सवालों का जवाब न दें, तब तक उनके  सारे दावे व्यर्थ मालूम होते हैं, पहला हेतु-कोई परिमित चीज अपरिमित शक्ति रख नहीं सकती, दूसरा हेतु-कोई साकार चीज बिना आधार रह नही सकती, तीसरा हेतु-सर्वशक्तिमान् परमात्माओं का झुंड हो नहीं सकता, चौथा हेतु- सब विद्याओं का जानने वाला ईश्वर किसी काम में गलती नहीं कर सकता, पाँचवां हेतु-सर्वशक्तिमान् ईश्वर को कहीं यह डर हो ही नहीं सकता कि कोई उसकी उत्पन्न की हुई तमीज और अमृत का फल खाने से उसके बराबर हो जावेगा और आदमी की शक्ल वाला ईश्वर इस संसार को पैदा नहीं कर सकता, क्योंकि परमित चीज की शक्ति परिमित होने उससे अपरिमित कामों का होना असम्भव है। हमारे बहुत से दोस्त कहेंगे कि जब ऐसी हालत ईसाई मजहब की है तो बुद्धिमान् लोग उसे किस तरह मान गये? पाठकगण! यह तो आपको ऊपर की आयतों से स्पष्ट पता लग गया होगा कि ईसाई मजहब तो अक्ल व तमीज को गुनाह का कारण बतलाकर पहले अलग करा देता है। जब बुद्धि दूर हो गई तो फिर तहकीकात कौन कर सकता है, क्योंकि किताब पैदायश के लेखानुसार बुद्धि शैतान की दी हुई और मनुष्य को अपराधी बनाने वाली है। केवल बुद्धिहीन पशु ही मजहब में अच्छे हैं और मसीह ने इंजील में भी इस बात को बतलाया है, क्योंकि वह कुल्ल अपने चेलों को भेड़ें और अपने को गडरिया बतला रहा है। भला जो गडरिये की भेड़ें हों, वह तहकीकात क्या कर सकती है? चाहे कोई मसीह कैसा ही बुद्धिमान् हो, वह जब तक भेड़ बनकर मसीही मजहब की बातों को न माने, तब तक उसको मसीह पर मजहब कामिल नहीं हो सकता। जो शख्स इनकी भेड़ों को अक्ल सिखावे, उसे वह शैतान का बहकाया हुआ कह देते हैं, स्वयं भेड़ बन जाने से तमीज नहीं रही। ईसाइयों का परमेश्वर तो मनुष्यों को बेतमीज रखना चाहता था, लेकिन साँप की कृपा से न रख सका। उसके बेटे मसीह ने अपने बाप का काम पूरा कर दिया अर्थात् मनुष्यों से अक्ल दूर करवाकर उनको भेड़ बना दिया और आप गडरिया बन गया और करोड़ों आदमी उस गडरिया गुरु की पैरवी में लग गये। जहाँ ईसाई मजहब ने अक्ल के दखल को मजहब से दूर किया वहाँ हजारों गलत बातों को कबूल करना पड़ा, क्योंकि अक्ल ही एक ऐसा औजार है कि जिसके कारण मनुष्य गलतियों से बचकर सीधी राह पर जा सकता है। ईसाई लोगों को यह विश्वास कितना कमजोर है कि वह आत्मा को पैदा हुई मानकर मुक्ति को अनन्त मानते हैं, परन्तु संसार में पैदा हुई चीज कभी अनन्त नहीं कहलाती, क्योंकि एक किनारे वाली नदी नहीं होती, लेकिन उनके मजहब की फिलासफी ही निराली है कि परमेश्वर को परिमित मानकर सर्व शक्तिमान् मानना आत्मा को पैदा हुई मानकर अनन्त बतलाना। अगर कोई इनसे पूछे कि क्यों कभी अनित्य भी अनन्त हो सकता है? अनन्त होने के लिये अनादि होना लाजिमी है, नित्य की तारीफ है। आप उन बातों को जिनको गुजरने के बाद लोगों ने तहकीकात करके लिखा है अपौरुष वाक्य बताते हैं। इतिहास को अपौरुष वाक्य बताने वाले भी हजरत हैं और आपके दिमाग में वह लेख जिनमें आपस में विरोध है जिनके विषय बुद्धि के विरुद्ध हों, कानून कुदरत के खिलाफ हों। जब अपौरुष वाक्य है तो कौनसी गलती हैं, जिसके होने से आपका मजहब झूठ हो सकता है? हमें अफसोस होता है कि जब इस मजहब के चलने वाले कहते हैं कि हम क्यों तहकीकात करें? हमें अपने मजहब में शक हो तो हम बहम करें अगले नम्बरों में हम मसीह मजहब की तमाम इल्मी कमजोरियों को सिलसिलेवार पेश करेंगे और जिस तरह हमारे मसीह दोस्तों ने रामकृष्ण परीक्षा में उनके चाल व चलन की तहकीकात की है, अब हम अकली तौर पर मसीह के चाल व चलन की परीक्षा करेंगे और दिखलावेंगे कि श्रीरामचन्द्र व मसीह की सुशीलता में किस कदर अन्तर है? जहाँ तक होगा हम किसी के प्राचीन बुजुर्गों पर अपनी तरफ से गढ़ कर अपराध नहीं लगावेंगे, बल्कि बाइबिल के लेख पर अपनी तहकीकात को बुनियाद रक्खेंगे। हम अपने व्याख्यानों में कम से कम चालीस व्याख्यान ईसाई मजहब के मुतल्लिक पेश करेंगे और दिखलावेंगे कि जिन लोगों ने अपने धर्म के न जानने से ईसाई मजहब को कबूल किया है, उन्होंने कैसी गलती खाई है, और यह भी दिखलावेंगे कि इन गलतियों के पैदा होने के कारण क्या हैं? गरजे कि हम थोड़े अरसे में ही ईसाई मजहब की चिकनी बातों पर जिसको भोले-भाले लोग गलती से सही समझकर भूल जाते हैं और अपने धर्म और जिन्दगी को तबाह करके ईश्वर के हुक्म की तामील से अलग होकर दुःखों के गहरे गड़हे में गिर जाते हैं, उनको सच्ची तहकीकात पेश कर के पब्लिक को ईसाइयों के धोखे से बचाने की कोशिश करेंगे।

शिक्षक

शिक्षक

-योगेन्द्र दम्माणी, एफ.सी.ए.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अर्थात् समाज की स्थिति व्यवस्थित हुए बिना वह भी हलचल में रहता है। वेद के दिखाये मार्ग से हट कर चलने के कारण समाज हिल-सा गया है, लेकिन समाज बनता तो लोगों से ही है। तो स्पष्ट है कि दोष निज में है। ये दोष क्योंकर और क्यों हमारी रगों में समा गया है, कारण कुछ-कुछ स्पष्ट भी है। कहते हैं, मनुष्य शीर्ष का अनुकरण करता है, क्योंकि मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो कुछ देखे या सिखाये बिना नहीं सीख सकता। जानवर अपने रास्ते से कम ही भटकते हैं। शीर्ष यानि हमारा ब्राह्मण / पंडित / शिक्षक वर्ग। इस वर्ग में कुछ तो गड़बड़ है, जिसे ठीक किया जा सकता है। आगे बढ़ेंगे।

कुछ दिन पूर्व हमारे पड़ोस में एक बजुर्ग महिला की वर्षगाँठ थी। पूर्व या इसी जन्म के संस्कार ने उन्हें प्रेरित किया कि वे जिले के एक गुरुकुल में एक दिन के खाने का खर्च वहन करेंगी। मन में विचार आया और फोन गुरुकुल के आचार्य जी के यहाँ बज पड़ा। महिला ने जब अपनी इच्छा जताई तो आचार्य जी बोल पड़े-जी हमारे ब्रह्मचारियों का भोजन तो हो गया, आपने फोन करने में देर कर दी। वाह रे हठधर्मी आचार्य! क्या दान देने वाले की मंशा उसी दिन के भोजन की व्यवस्था की थी और थी भी तो आप शालीनता से कह सकते थे कि जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जो आपने गुरुकुल के बारे में सोचा। हम आपका दिया हुआ प्रसाद जरुर करेंगे। हमारे यहाँ १-१ १/२ बोरी अन्न लगता है। आप कहें जब मैं मँगवालूँ या आप भिजवा सकें तो आपकी बहुत कृपा। इसी तरह की ऐंठ ने समाज को चरमरा-सा दिया है। यदि गुरु, पंडित ही शालीन न होवेगें तो उनसे शिक्षा लेने वाली प्रजा कहाँ जाएगी? हमारे यहाँ पहले ऐसे पंडित हुआ करते थे जो कभी किसी की यजमानी में जाते तो अपनी दक्षिणा में बहुत कम रखकर (जो उन्हें माँगे बिना ही मिल जाती थी) प्रसन्न चित्त रहते और बाकी अपने संरक्षक समाज के नाम की रसीद काट दिया करते थे। विद्या ददाति विनयम् सार्थक था। आज पंडितों के बैंक एकाउंट भरे पड़े हैं, उनका आगा पीछा चाहे हो ही न, मधुमेह आदि समस्याओं से ग्रस्त हैं, रिकार्ड देख लीजिए अपने संरक्षित समाज को एक पैसा भी उन्होंने दान दिया हो तो। पंडित वर्ग समझ बैठा है कि दान देना सिर्फ दूसरों का काम है।

एक सज्जन के यहाँ मृत्यु हो गयी, एक भी पंडित अन्तिम संस्कार के लिए तैयार न हुआ, कारण था-जब भी सज्जन अपने यहाँ किसी कार्यक्रम में पंडितों को बुलाते तो अल्प दक्षिणा में सलटा देते थे। उन्हें शायद यह नहीं मालूम था कि आजकल सब ‘रेट’ के अनुसार चलते हैं। समाज के प्रति उदासीनता इस हद तक पहुँच चुकी है कि सब काम लक्ष्मी जी के अनुसार होते हैं। पंडित बनते तो हम ज्ञान बाँटने के लिए हैं, पर रह जाते हैं वैश्य बन कर, ब्राह्मणता खूँटी पर टँग जाती है। गुरुकुलों में भी यही शिक्षा दी जा रही है कि पूजा-पाठ की विद्या के साथ-साथ संगीत की शिक्षा जैसे वाद्य यन्त्र बजाना, शुद्ध भाषा का ज्ञान, जीवन जीने की कला का ज्ञान, हस्त शिल्प आदि-आदि भी पढ़ा रहे हों। शायद सोचते होंगे-यह सीख लेंगे तो निम्न श्रेणी में चले जाएँगे। एक तो नींव बिना के उठे हुए ये गुरुकुल या तो सिर्फ अपने रोज दान देने वाले पिताओं (उन्हें पता भी नहीं लगता कि ये पिता लोग भी दान ला रहे हैं किसी और से) की चापलूसी करने में व्यतीत कर देते हैं, या छोटी-मोटी पंडिताई कर गृहस्थ बन इधर-उधर फिरते रहते हैं। समर्पण अपने मिशन के प्रति अपने महर्षि के प्रति शून्य होता जा रहा है। गलत को गलत कहने का कौशल खत्म हो गया है। गृहस्थ का दान दशों दिशाओं में बिखरता जा रहा है। संगठन सूत्र स्वामी जी के पश्चात् पचास वर्षों तक ही रहा। संगठन के लचर होने के कारण सब अपनी-अपनी दुकानें खोले जा रहे हैं। हमें यज्ञशाला बनवानी है, जी हमें अपने आश्रम की बाउन्ड्री बनवानी है, जी हमें आश्रम में कमरे बनवाने हैं आदि। हम आर्य समाजियों और पौराणिको में क्या फर्क रहा? सब के सब अपना आशियाना बनाने में लगे हैं। बल्कि फर्क तो यह हो रहा है कि वे जो पौराणिक पंडित तैयार कर रहे हैं, वे छा रहे हैं, क्योंकि उनका संगठन मजबूत है। अपनी पौराणिक कहानियाँ वे इस अंदाज में, इतनी मृदुल आवाज में बयाँ करते हैं कि आज के पढ़े लिखे भी खो जाएँ, चाहे उन कहानियों का सिर पैर हो ही नहीं। यहाँ साप्ताहिक सत्संगों में पढ़े लिखे टार्च लेकर भी देखने से न मिले। मिले भी कैसे? आप जब सत्संग चले जाए या वहाँ कोई झगड़ा हो रहा होता है या पंडित जी बिना तैयारी के समय काट रहे होते हैं या होते ही नहीं। युवकों के लिए आज के अनुरूप सामग्री है ही नहीं उनके पास और वाक् पटुता मृदुलता से तो हम कोसों दूर रह जाते हैं। अनुशासन भी नहीं होता, जानकारी भी नहीं होती कि सत्संग में आज क्या होगा? भजनोपदेशक जी किसी फिल्मी धुन पर भजन गा कर इति श्री कर देते हैं। विचारणीय विषय है यें। गुस्सा न होइए, सोचिए कि ये हलचल हमें इतिहास के पन्नों तक ही सीमित न रख दे।

पंडित जी या शिक्षक का कार्य होता है मिसाल प्रस्तुत करना। ऋषि दयानन्द ने मिसाल प्रस्तुत की थी अपने आचरण से और लोग उनके अनुयायी हुए। एक सच्चे शिक्षक की तरह उन्होंने कार्य किया। अभी कुछ दिन पूर्व एक गुरुकुल के वार्षिकोत्सव में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ ब्रह्मचारियों के द्वारा बनाये गए चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी थी। शाकाहार के प्रति समर्पित बेचारे ब्रह्मचारियों को उनके शिक्षकजी ने जो चित्र बनाने का कार्य सौंपा था, उसे देखकर रोना आ गया। अधिकांश सभी चित्रों में मत्स्य हत्या दिखाई गयी थी। शायद प्रधानाध्यापक महोदय को पता ही न हो, किन्तु क्योंकि चित्रकार शिक्षक विचार शून्य थे, वे बच्चों से उस तरह का कार्य करवा रहे थे। यदि हम गुरुकुल खोलते हैं, तो कुछ सामान्य शिक्षाओं को जिस पर हम टिके हैं, का ख्याल तो जरूर रखना ही चाहिए। इसी प्रकार एक स्थान पर तोरण द्वार में भी अंग्रजी और स्थानीय भाषा थी, हिन्दी गायब थी। वहाँ अंग्रेजी कोई नहीं जानता था।

मेरे बच्चों को शहर की एक अच्छी स्कूल में (जो स्कूल है विद्यालय नहीं) मेरे काफी असहमत होते हुए भी पिछले वर्ष दाखिला कराया गया। यह स्कूल बच्चों के भोजन की पूर्ण व्यवस्था रखता है। पूर्णतया शाकाहारी भी है, किन्तु तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था में पढ़े शिक्षक-शिक्षिकाएँ ही अध्यापन कराते हैं और बच्चे मुझसे कई बार शिकायत करते हैं कि पिता जी, टीचर ने कहा-मांस  खाना अच्छा है, अण्डे में प्रोटीन है। पढ़ाते तो हैं ही। यही नहीं, बच्चे इसलिए भोजन में अरुचि रखते हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक तामसिक भोजन, अत्यधिक विदेशी भोजन, अत्यधिक मोटा करने वाला भोजन परोसा जाता है और देखा जाता है कि बच्चे उसे खाएँ। शिक्षिका जी को शिकायत करने पर कहा गया कि हमारा स्कूल ग्लोबल है, इसलिए आपकी शिकायत दरकिनार की जाती है। उन्हें शायद यह नहीं पता कि ग्लोबली लोग भोजन में बदलाव ला रहे हैं, जिससे वे स्वस्थ रहें। अपने खान-पान के कारण बीमारियों से त्रस्त हैं और बदल रहे हैं। कई लोग तो कई वर्षों से विदेश में है और आजतक लहसुन, प्याज को देखा तक नहीं और दिन में कम से कम अठारह घण्टे काम करते हैं। हम कहाँ जा रहे हैं? उस स्कूल के ट्रस्टीगण ध्यान ही नहीं दे पाते, कारण हम सभी जानते हैं। लक्ष्मी जी ने सिद्धान्तों को दूर कर दिया है। हमारे समाज को अपने शीर्ष से दिशा नहीं मिल रही। इस अन्धी आधुनिकता की दौड़ में प्रथम वर्ण कहीं खो-सा गया है।

कभी पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने कहा था कि आर्य सामाजियो, तुम दौड़ना बन्द मत करना, क्योंकि अगर दौड़ना बन्द कर दोगे तो हिन्दू खड़ा हो जाएगा और तुम खड़े हो गये तो हिन्दू बैठ जायेगा और तुम बैठ गये तो हिन्दू मर जाएगा और यही बात आज पंडित या शिक्षक वर्ग पर लागू हो रही है। समाज मर रहा है। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि उसके विद्यालय के शिक्षक बच्चों से रोज पूछते थे कि क्या माता-पिता को प्रणाम करके आए? कभी-कभी घर भी पहुँच जाया करते थे सही गलत की जाँच के लिए। वह कहता है कि मैं आज भी बड़ों को प्रणाम करके ही घर से निकलता हूँ। यह है पुरानी शिक्षा पद्धति का फल। हमने खुद ही नैतिक शिक्षा बन्द कर दी। बच्चे कैसे नैतिक होंगे। नीति श्लोक तो पढ़ाई से छू मन्तर हो गये हैं। ऐसे-ऐसे गुरुकुल भी खुले हुए हैं, जो छात्रों को बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ दे रहे हैं, चाहे उन बालकों को ठीक से हिन्दी भी पढ़नी न आती हो, लिखना तो दूर की बात । शिक्षक या गुरु जी पढ़ाएँ भी कब? उन्हें तो आजकल Smart Phone पर Whats app से ही छुट्टी नहीं मिलती। सब देश के बारे में ज्यादा ही सोचने लगे हैं। Forwarded मैसेज की चिन्ता सताती है, बच्चों की नहीं। अब तो पंडित जी लोग भी सत्संगों में अपना कार्यक्रम खत्म करते ही सिर झुकाकर अँगुलियाँ घुमाते देखे जा सकते हैं। दूसरा वक्ता क्या बोल रहा है सत्संग में, इसका पता ही नहीं। फिर से कहना पड़ता है-अति सर्वत्र वर्जयेत्।

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप -2

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

पिछले अंक का शेष भाग….

लोग एक तर्क रखते हैं- अमुक व्यक्ति के अमुक स्थान पर जाने से, पूजा करने से, स्मरण से उसकी इच्छा पूरी हो गई। यह सुनते ही सभी इच्छा पूर्ति चाहने वाले लोगों की दौड़ उसी ओर प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ विचारणीय है कि यदि स्थान विशेष में, किसी की इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य है तो वहाँ जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा पूरी होनी चाहिए। इच्छापूर्ति के साथ कोई शर्त या योग्यता निश्चित हो तो उस योग्यता वाले लोगों की इच्छा तो अवश्य पूरी होनी चाहिए, परन्तु लाखों लोग जहाँ जाते हैं, वहाँ कठिनता से हजारों की इच्छा पूर्ण होती है। फिर शेष की इच्छा पूरी क्यों नहीं हुई? यहाँ पर एक प्रश्न पूछा जाता है यदि सबकी इच्छा पूरी नहीं होती तो हर वर्ष भक्तों की संख्या क्यों बढ़ जाती है? इसका उत्तर है कि जिनकी इच्छा पूरी होती है, उनका प्रचार होता है, वे अगली बार अधिक संख्या में एकत्रित होकर देवता के दर्शन करने जाते हैं। इसके विपरीत जिनकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती, वे शान्त होकर बैठ जाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि जिनकी इच्छा पूरी हुई, वह कैसे पूरी हो गई, यदि देवता कुछ करता नहीं है? इसका उत्तर है कि लोगों की इच्छाएँ सामान्य और सांसारिक होती हैं। जाने वाले लोगों में कुछ की पूरी हो जाती हैं, कुछ की नहीं। यह बात किसी देवता के पास न जाने पर भी पूर्ण होती है, परन्तु जिसकी इच्छा पूरी हो गई वह समझता है, देवता ने उसकी इच्छा पूरी की है। जिसकी इच्छा पूरी नहीं हुई, वह मानता है, देवता उससे रुष्ट है।

वस्तुतः देवता इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य रखते तो यह सामर्थ्य सबके पास है या एक के पास? यदि एक देवता के पास यह हो तो दूसरे के पास वह सामर्थ्य नहीं होना चाहिए। मन्दिर में हिन्दू की इच्छा पूरी होती है, पीर दरगाह में मुसलमान की, गुरुद्वारे में सिक्ख की। फिर तो सभी में इच्छापूर्ति का सामर्थ्य हो जाता, परन्तु ऐसा है नहीं। मनुष्य जिस वस्तु, व्यक्ति, स्थान में सामर्थ्य मान लेता है, वही देवता उस भक्त के लिए इच्छापूर्ति का काल्पनिक कारण बन जाता है।

मूर्ति पूजा चलने का एक और कारण है मूर्ति पूजा एक व्यापार है। इसमें हजारों-लाखों लोगों को व्यवसाय मिला है, अतः इसे कोई छोड़ना नहीं चाहता। दूसरे किसी व्यापार में पूँजी लगती है, श्रम लगता है, जिम्मेदारी होती है, परन्तु मूर्ति पूजा के व्यापार में मालिक को कुछ नहीं मिलता, सेवक सब कुछ का अधिकारी बन जाता है। एक मन्दिर को बनाने में कुछ भी नहीं लगता या कितना भी लग सकता है- यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर करता है। एक पत्थर रखकर भी कार्य चलाया जा सकता है, उसमें देवता को कुछ भी नहीं मिलता। मिली हुई सारी धन-सामग्री पुजारी व मन्दिर संचालकों की होती है। इच्छा पूर्ति की भावना से देवता पर प्रसाद चढ़ाने वाला इच्छापूर्ण न होने की दशा में पुजारी से कोई प्रश्न नहीं कर सकता। इसमें उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। मन्दिर का देवता वस्तु का उपयोग नहीं करता, इसलिए उसकी एक सामग्री एक दिन में सैकड़ों बार भेंट चढ़ती है। इससे अधिक लाभदायक व्यवसाय और कौन-सा हो सकता है? जो व्यक्ति इस व्यवसाय में लगा है, वह इस लाभ को क्यों छोड़ना चाहेगा?

मूर्तिपूजा दोनों के लिए लाभदायक है, करने वाले के लिए भी और कराने वाले के लिए भी। करने वाला मूर्ति की पूजा भय या प्रलोभन वशात् करता है, अतः मूर्ति उसको भय से मुक्त करती है और यही उसकी इच्छाओं को पूर्ण भी करती है। यह एक मानसिकता ही है या मनोवैज्ञानिक परिस्थिति है। दोनों स्थितियों में मन्दिर चलाने वाले को लाभ होता है।

ईश्वर को जानने के भी दो साधन हैं। विद्वान् लोग और शास्त्र ईश्वर के सिद्धान्त पक्ष को बताते हैं, फिर व्यवहार से उसका प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

जो लोग कहते हैं ईश्वर को देखना है, देखेंगे तो ही स्वीकार करेंगे, उनसे एक प्रश्न किया जा सकता है। क्या कोई केवल देखने पर ही उस वस्तु को मानता है? जो वस्तु दिखाई नहीं देती, क्या उसे स्वीकार नहीं करता? प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि भूख,प्यास, गर्मी, सर्दी, सुख-दुःख, पीड़ा, हर्ष कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे आँखों से देखा जा सके। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने इनको देखा हो, परन्तु सभी इनका अनुभव करते हैं, अतः यह कथन कि दिखने वाली वस्तु को ही स्वीकर करते हैं न दिखने वाली को नहीं- यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे भौतिक होती हैं। इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः अपने समान भूतों को वे पहचानती हैं। आँख अग्नि का स्वरूप है, आँख से रूप जाना जाता है। गन्ध पृथ्वी का गुण है, अतः नासिका से पृथ्वी तत्त्व का बोध होता है। रस जल का गुण है, अतः रसना से रस का ज्ञान होता है। स्पर्श वायु का गुण है, अतः त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। पाँचों वस्तुओं को जानने के लिए पाँच इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। पाँच इन्द्रियों से पाँच भूतों को जाना जा सकता है।

इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः भौतिक पदार्थों को जानने का इनमें सामर्थ्य है, परन्तु इनके जानने का सामर्थ्य उनका अपना है, यह गोलक का नहीं है। यदि इनमें जानने का सामर्थ्य होता तो मरने के पश्चात् भी आँख देखती, परन्तु ऐसा नहीं होता। इसके विपरीत आँख एक मरे हुए व्यक्ति के चेहरे से निकल कर जीवित व्यक्ति में लगा दी जाती है तो वही आँख देखने लगती है। इन भौतिक इन्द्रियों से भौतिक पदार्थ जाने जाते हैं, परन्तु दोनों भौतिक पदार्थ आँख और वस्तु विद्यमान होने पर भी ज्ञान का अभाव होना सर्वत्र परिलक्षित होता है, अतः ज्ञान भूतों का गुण नहीं है, अन्यथा भौतिक पदार्थों में अवश्य विद्यमान होता। इसी प्रकार चेतन की इच्छापूर्वक क्रिया भौतिक पदार्थों में दिखाई देती है, पर वह क्रिया भौतिक वस्तुओं का धर्म नहीं है, अन्यथा मृतक के शरीर में जीवित अवस्था में होने वाली क्रियाएँ पाई जातीं, जबकि इसके विपरीत जड़ पदार्थ में होने वाली क्रियाएँ सड़ना, गलना, सूखना आदि प्रारम्भ हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त कोई मानता है कि चेतन प्राणी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि जो दिखाई देते हैं, इन सबका केवल शरीर दिखाई देता है, इनके अन्दर विद्यमान जीवात्मा नहीं, अतः आत्मा नहीं होती। इसका उत्तर है- कोई भी अपनी या किसी की भी आत्मा को अपनी स्थूल आँखों से नहीं देख सकता, वह केवल अनुमान कर सकता है। मनुष्य जब शरीर में विद्यमान आत्मा को शरीर में अनुभव करता है, उस समय मनुष्य से पूछें- क्यों भाई, अपने माता-पिता आदि को देखा है? तो सामान्य रूप से शरीर को देखकर वह कहता है, हाँ देखा है। परन्तु वही व्यक्ति उस मनुष्य के मर जाने पर कहता है- मेरे माता-पिता मर गये। उससे पूछो- फिर यह शरीर कौन है? तो वह कहता है- वह चेतन इस शरीर में रहता था, तभी तक यह मेरा पिता था, उसके चले जाने पर इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। इससे निराकार जीवात्मा का बोध होता है। शरीर में प्रारम्भ से शरीर से भिन्न एक चेतन रहता है, इसका हमें कैसे बोध होता है? शरीर में उसके होने का बोध शरीर के प्रत्यक्ष होने से नहीं हो सकता। शरीर और चेतना साथ-साथ हैं, परन्तु शरीर चेतना के बिना न क्रिया कर सकता है, न स्थिर रह सकता है। शरीर से चेतना के पृथक् होते ही शरीर नष्ट होने लगता है। इस प्रकार किसी के होने पर किसी बात का होना और किसी के न होने पर किसी बात का न होना ही उस पदार्थ के अस्तित्व का प्रमाण है। जीवन के होने पर शरीर में क्रिया का होना और जीवन के समाप्त हो जाने पर उस प्रकार की क्रियाओं का समाप्त हो जाना, जीवन का शरीर से भिन्न होना सिद्ध करता है। इस प्रमाण से शरीर में जीव के होने पर घटित होने वाली क्रियाएँ उसके द्वारा हो रही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वह जीवात्मा ही उन क्रियाओं का कर्त्ता है।

शरीर ही जीवन और जड़ की भिन्नता को प्रमाणित करता है। शरीर का बनना, उसका जीवित रहना, शरीर का घटना-बढ़ना, शरीर के द्वारा क्रियाओं का होना शरीर से भिन्न जीवात्मा के होने का प्रमाण है। इसी प्रकार भौतिक पदार्थ जड़ हैं, परन्तु चेतन के संयोग से उनमें क्रिया दिखाई देती है। इन सब भौतिक पदार्थों में क्रिया का अभाव होने से ये स्वयं कुछ नहीं कर सकते। जब जड़ होने से ये भौतिक पदार्थ पृथक्-पृथक् कोई क्रिया करने में समर्थ नहीं हैं, अतः इन सब पदार्थो का संयोग भी किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकता और अपने से भिन्न चैतन्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य भी इनमें नहीं हो सकता।

शरीर का बने रहना, सक्रिय होना चेतना के होने का लक्षण है। अन्य कोई भी प्रकार चेतना के जानने-पहचानने का हो नहीं सकता। बहुत सारे शरीरों में यह प्रक्रिया घटते, बढ़ते, देखते हैं, अतः शरीर से भिन्न आत्मा की पहचान कर लेते हैं। यह पहचान ईश्वर के साथ नहीं कर पाते, इसके दो कारण हैं। प्रथम- वह एक है, अतः उस जैसा दिखाकर उसे नहीं बताया जा सकता। बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य से ईश्वर का स्वरूप पूछते हुए कहा है- तुम ईश्वर को जानते हो तो बताओ, वह कहाँ है? महर्षि ने बताया- संसार में जो कुछ हो रहा है, उससे ईश्वर के होने का पता चलता है। ऋषि कहते हैं- यह कोई उत्तर नहीं है जो दूध देती है वह गाय होती है, जो सवारी कराता है वह घोड़ा होता है- यह कथन किसी के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। हमें तो प्रत्यक्ष बताओ कि यह ईश्वर है तो याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं- उसे इदम् इत्थम् नहीं बताया जा सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है। दूसरा उसकी तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि कोई उस जैसा दूसरा नहीं है, अतः जो भी उससे भिन्न है, उसे इंगित करके यह बताया जा सकता है कि यह ईश्वर नहीं है। इसलिए उपनिषद्कार एक प्रसिद्ध शब्द का प्रयोग करते हैं- नेति, नेति, वह ऐसा नहीं है। ईश्वर  के स्वरूप को समझने के लिए यह नकारात्मक प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

लोग कहते हैं- ईश्वर को कैसे जानें? किसी भी वस्तु के जानने के क्या साधन हैं? यदि वस्तु उपलब्ध है तो हम उसे प्रत्यक्ष कर लेते हैं, यदि प्रत्यक्ष नहीं है तो उपायों से प्रत्यक्ष कर लेते हैं। प्रथम शब्दों से जानते हैं, फिर व्यवहार से। इसको समझने के लिए विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। प्रथम हम सिद्धान्त को कक्षा में समझते हैं, फिर प्रयोगशाला में उसका साक्षात् करते हैं।

आवश्यकता पर वस्तु की प्राप्ति न हो तो उसका होना व्यर्थ हो जायेगा। संसार में कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है, फिर ईश्वर कैसे व्यर्थ हो सकता है?

आवश्यक वस्तुओं में विकल्प नहीं होता। जैसे भूख है तो भोजन मिले या न मिले- यह विकल्प नहीं चलेगा। भूख है तो भोजन मिलना ही चाहिए। इसी प्रकार संसार में दुःख है तो दूर होना ही चाहिए। संसार की वस्तुओं से दुःख दूर नहीं होता, संसार की वस्तुएँ भौतिक हैं, वे शरीर के दुःखों को तो दूर कर सकती हैं, क्योंकि शरीर भी भौतिक है, परन्तु दुःख का अनुभव जीवात्मा करता है। उसका दुःख आत्मा के न्यून सामर्थ्य को दूर करने से मिटेगा। जैसे जड़ वस्तुएँ मिलकर जड़ के सामर्थ्य को बढ़ा देती हैं, वैसे चेतन का आश्रय चेतन के सामर्थ्य को बढ़ा देता है, अतः चेतन को चेतन की प्राप्ति करनी होगी। दुःख को दूर करने के लिए ईश्वर का मानना एक अनिवार्यता है। एक और प्रश्न हमारे मन में उत्पन्न हो सकता है, वह यह कि ईश्वर को एक मानें या अनेक मानें? अनेक मानने में हमें प्रतीत होता है, जैसे अनेक होना अधिकता का द्योतक है, जैसे एक से अधिक दो या तीन होते हैं, परन्तु एक से अधिक संख्या वास्तव में अपूर्णता की सूचक है। जो एक होगा, वही पूर्ण होगा। सम्पूर्णता ही एकत्व का आधार होता है। जब ईश्वर अनेक होंगे तो बड़े-छोटे होंगे, एक जगह होंगे तो दूसरी जगह पर नहीं होंगे, जो एक कर सकता होगा वह दूसरा नहीं कर सकता होगा। ईश्वरत्व की सम्भावना को दो में बाँट नहीं सकते, अतः ईश्वर पूर्ण व एक ही होगा।

जब ईश्वर एक है और पूर्ण है, तब वह एक स्थान पर हो दूसरे स्थान पर न हो, ऐसा कैसा सम्भव है? एक स्थान पर होकर अन्य स्थान पर न हो तो उसमें अपूर्णता होगी। इस तरह ईश्वर का एक होना पूर्ण होना, सर्वत्र होना, ईश्वर होने की शर्त है।

ईश्वर के ईश्वरत्व का जो अनिवार्य गुण है, वह ईश्वर का सर्वज्ञ होना है। ज्ञान का सम्बन्ध उपस्थिति के बिना अधूरा है, जो जहाँ होता है, वह ही वहाँ के विषय में जान सकता है। जो जहाँ पर नहीं रहता, वह वहाँ के विषय में नहीं जान सकता। जानने के लिए होना अनिवार्य होने से वह सर्वव्यापक होगा। जो सर्वव्यापक होगा, वह सर्वज्ञ होगा। जो सर्वज्ञ होगा, वही सर्वशक्तिमान् होगा। ईश्वर सब जानने वाला होने से सर्वव्यापक सर्वत्र रहने वाला है, अतः वही सर्वसामर्थ्य से सम्पन्न होने से सर्वशक्तिमान् होगा।

अब एक प्रश्न रहता है। ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है और सर्वज्ञ होने के कारण वह सर्वशक्तिमान् है। ऐसे ईश्वर को साकार होना योग्य है या निराकार होना योग्य है? साकार मानना सबसे सुविधाजनक है। प्रथम प्रश्न है- साकार होना एक परिस्थिति है। स्थूल भूत साकार हैं, परन्तु सूक्ष्म अवस्था में निराकार भी हैं। साकारता निराकारता पदार्थों में एक परिवर्तनशील अवस्था है। यह परिवर्तनशीलता, व्यवस्था की अपेक्षा से है। संसार का निर्माण करते हुए सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ा जाता है।

संसार अनित्य है, अतः उसमें परिवर्तन सम्भव है। परिवर्तन अनित्यता का ही दूसरा नाम है। एक जैसा रहना नित्यता है, बदलते रहना अनित्यता है। संसार बदलता रहता है, इसी कारण अनित्य है। जो नित्य है, वह अपरिवर्तनीय है। प्रकृति भी मूलरूप में नित्य है, अतः प्रवाह से अनित्य होने पर भी स्वरूप से वह नित्य है। इस प्रकार ईश्वर का साकार होना सम्भव नहीं, वह साकार होते ही अनित्य हो जायेगा, क्योंकि संसार में जितनी भी साकार वस्तुएँ हैं वे सब अनित्य हैं। ईश्वर पूर्ण, एक और नित्य होने से साकार नहीं हो सकता, अतः निराकार है।

एक और प्रश्न ईश्वर के सम्बन्ध में किया जाता है जीवात्मा को ही ईश्वर क्यों न मान लिया जाए? प्रथम तो जीवात्मा की अनेकता उसकी अपूर्णता की पहचान है। फिर संसार में कुछ कार्य मनुष्य के द्वारा किये जाते हैं, परन्तु उन्हीं कार्यों का बड़ा भाग मनुष्य के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है, तब हमारे करने से जितना हो रहा है, उसका शेष कौन कर रहा है? जो कर रहा है, वह हमारी तरह होने वाली वस्तु से पृथक् है, हमसे अधिक सामर्थ्यवान् है और हमारा सहायक है।

ईश्वर के अस्तित्व के लिए शास्त्र एक और तर्क देता है। संसार में कोई वस्तु है तो उसका उपयोग अवश्य होता है। संसार में किसी समस्या का अनुभव कोई व्यक्ति करता है तो उसका समाधान भी इसी संसार में होना चाहिए।१० भूख है तो समाधान के रूप में भोजन है। प्यास है तो उसका समाधान पानी है। ऐसे ही रोग-शोक, गर्मी-सर्दी यदि कष्ट हैं तो संसार में इन कष्टों का उपाय भी निश्चित होगा। इसी आधार पर ईश्वर है तो हमारी किसी समस्या का समाधान भी उससे होना चाहिए। इसका एक सरल उपाय है। जब कोई समस्या हमारे सामने आती है तो उसके समाधान का उपाय भी हमें स्मरण हो जाता है। जैसे भूख में भोजन का, फिर किस परिस्थिति में व्यक्ति ईश्वर का स्मरण करता है, वह उसका समाधान है। मनुष्य को दुःख में ईश्वर का स्मरण आता है, वही हमारे दुःखों के समाधान का साधन है।११

मनुष्य का अस्तित्व उसके शरीर से प्रतीत होता है। उसका सुख-दुःख, हानि-लाभ शरीर के बिना सम्भव नहीं, परन्तु यह शरीर मनुष्य ने अपनी इच्छा से प्राप्त नहीं किया है। यह एक व्यवस्था से प्राप्त है, कोई व्यवस्थापक है तथा उसकी व्यवस्था में प्राणियों का बड़ा स्थान है, उसे ही लोग ईश्वर कहते हैं। जैसे मनुष्य का जन्म उसके हाथ में नहीं, उसी प्रकार उसका जीवन भी अधिकांश में उसके वश में नहीं होता। मृत्यु तो उसके वश में है ही नहीं। यही परिस्थिति विशाल रूप में देखने पर संसार के निर्माण, संचालन और विनाश की भी है। जब इतना सब हो रहा है, मनुष्य की अपनी इच्छा से भी नहीं हो रहा है, जीवन के सुख-दुःख की व्यवस्था में जहाँ हमारी इच्छा काम नहीं आती, वहाँ जिसकी नियमावली व व्यवस्था काम करती है, उसे ही ईश्वर कहते हैं।

कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध विद्यमान ज्ञान से है, अतः ज्ञान चेतन का धर्म है और हमारे पास ज्ञान है, हमारी अल्पशक्ति के कारण वह पूर्ण ज्ञान हमारे पास नहीं है। अतिरिक्त ज्ञान जो भी इस संसार में मनुष्य के लिए आवश्यक है, वह उसी से प्राप्त हो सकता है। जो ज्ञान का स्रोत है, वही ईश्वर कहलाता है।

इसी भाँति ईश्वर के बोध कराने वाले दो शास्त्र हैं। ये वेद के व्याख्यान हैं- एक दर्शन और दूसरे उपनिषद्। एक ईश्वर की सत्ता को अनुभव कराते हैं, दूसरे में बुद्धि से ही उसका समाधान करते हैं। इसके लिए युक्ति, प्रमाण, उदाहरण, तर्क आदि का सहारा लेते हैं, परन्तु उपनिषद् की दृष्टि अनुभव को बाँटने की है। उसको युक्ति प्रमाणों से बहुत नहीं समझा जा सकता, उसे अनुभव करने वाला सहज स्वीकार कर सकता है, अतः ईश्वर अनुभव का विषय होने पर भी सिद्धान्त से निश्चय किये बिना उसका अनुभव करना सरल नहीं है। ईश्वर ज्ञान के भी दो पक्ष हैं- सैद्धान्तिक और प्रायोगिक। जिसे मनु के शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है-

स्वाध्याय के द्वारा योग को सिद्ध किया जाता है। योग के प्रयोग से स्वाध्याय की सहायता प्रमाणित होती है। स्वाध्याय और योग साधना से परमात्मा की प्राप्ति होती है, साधक के हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है-

स्वाध्यायद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्।

स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।।

टिप्पणी

१. कि कारणं ब्रह्म – श्वेताश्वतर

२. कालः स्वभावो – श्वेताश्वतर

३. ते ध्यान – श्वेताश्वतर

४. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारी

व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। – न्यायदर्शन

५. पणव्यवहारे स्तुतौ च। -धातुपाठ

६. एतदालम्बन श्रेष्ठं, एतदालम्बनं परम्।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते। – कठोपनिषद्

७. नेति नेति- बृहदारण्यक्

८. तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। -योगदर्शन

९. स पर्यगात् – यजुर्वेद ४०

१०. दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकन्तात्यन्ततोऽभावात्। – सांख्यकारिका

११. परिणामताप- योगदर्शन

– डॉ. धर्मवीर

 

‘शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म का डंका बजाने वाले आर्य विद्वान पंडित अयोध्या प्रसाद’

ओ३म्

शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म का

डंका बजाने वाले आर्य विद्वान पंडित अयोध्या प्रसाद

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के ग्रीष्मोत्सव में यमुनानगर निवासी प्रसिद्ध आर्य विद्वान श्री इन्द्रजित् देव पधारे हुए थे। हमारी उनसे कुछ विषयों पर चर्चा हुई। स्वामी विवेकानन्द का विषय उपस्थित होने पर उन्होंने हमें पंडित अयोध्या प्रसाद वैदिक मिशनरी जी पर एक लेख लिखने की प्रेरणा की। उसी का परिणाम यह लेख है। हमारी चर्चा के मध्य यह तथ्य सामने आया कि स्वामी विवेकानन्द जी का शिकागो पहुंचने, वहां विश्व धर्म संसद में व्याख्यान देने और उनके अनुयायियों द्वारा उनका व्यापक प्रचार करने का ही परिणाम है कि वह आज देश विदेश में लोकप्रिय हैं। आजकल प्रचार का युग है। जिसका प्रचार होगा उसी को लोग जानते हैं और जिसका प्रचार नहीं होगा वह महत्वपूर्ण होकर भी अस्तित्वहीन बन जाता है। स्वामी विवेकानन्द जी को अत्यधिक प्रचार मिलने के कारण वह प्रसिद्ध हुए और ऋषि दयानन्द भक्त पंडित अयोध्या प्रसाद जी को विश्व धर्म सभा और अमेरिका में प्रचार करने पर भी तथा उनके अनुयायियों द्वारा उनके कार्यों के प्रचार की उपेक्षा करने से वह इतिहास के पन्नों से किनारे कर दिए गये। अतः यह लेख पं. अयोध्या प्रसाद, वैदिक मिशनरी को स्मरण करने का हमारा एक लघु प्रयास है।

 

पण्डित अयोध्या प्रसाद कौन थे और उनके कार्य और व्यक्तित्व कैसा था? इन प्रश्नों का कुछ उत्तर इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। पंडित अयोध्या प्रसाद एक अद्भुत वाग्मी, दार्शनिक विद्वान, चिन्तक मनीषी होने के साथ शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन सहित कुछ अन्य देशों में वैदिक धर्म का प्रचार करने वाले प्रमुख आर्य विद्वानों में से एक थे। आपका जन्म 16 मार्च सन् 1888 को बिहार राज्य के गया जिले में नवादा तहसील के एक ग्राम अमावा में हुआ था। आपके पिता बंशीधर लाल जी तथा माता श्रीमती गणेशकुमारी जी थी। आपके दो भाई और एक बहिन थी। पिता रांची के डिप्टी कमीश्नर के कार्यालय में एक बैंच टाइपिस्ट थे। आप अंग्रेजी, उर्दू, अरबी व फारसी के अच्छे विद्वान थे। कहा जाता है कि बंशीधर लाल जी को अंग्रेजी का वेब्स्टर शब्द कोश पूरा याद था। बचपन में पं. अयोध्या प्रसाद कुछ तांत्रिकों के सम्पर्क में आये जिसका परिणाम यह हुआ कि तन्त्र में आपकी रूचि हो गई और यह उन्माद यहां तक बढ़ा कि आप श्मशान भूमि में रहकर तन्त्र साधना करने लगे। आपकी इस रूचि व कार्य से आपके माता-पिता व परिवार जनों को घोर निराशा हुई। उन्होंने इन्हें इस कुमार्ग से हटाने के प्रयास लिए जो सफल रहे।

 

बालक की शिक्षा के लिए पिता ने एक मौलवी को नियुक्त किया जो अयोध्या प्रसाद जी को उर्दू, अरबी व फारसी का अध्ययन कराते थे। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण इन भाषाओं पर आपका अधिकार हो गया और आप इन भाषाओं में बातचीत करने के साथ भाषण भी देने लगे। इन भाषाओं के संस्कार के कारण अयोध्या प्रसाद जी स्वधर्म से कुछ दूर हो गये और इस्लाम मत के नजदीक आ गये। महर्षि दयानन्द ने भी कहा है कि जो मनुष्य जिस भाषा को पढ़ता है उस पर उसी भाषा का संस्कार होता है। वैदिक धर्म की निकटता संस्कृत व हिन्दी के अध्ययन से ही हो सकती है, अन्यथा यह कठिन कार्य है। आपने उर्दू, फारसी व अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर गनीमत उपनाम से इन भाषाओं में काव्य रचनायें करने लगे। आपका विवाह प्रचलित प्रथा के अनुसार 16 वर्ष की अल्प आयु में समीपवर्ती ग्राम लौहर दग्गा निवासी श्री गिरिवरधारी लाल की पुत्री किशोरी देवी जी के साथ सन् 1904 में सम्पन्न हुआ था। यह देवी विवाह के समय केवल साढ़े नौ वर्ष की थी।

 

पंडित अयोध्या प्रसाद जी ने अपने मित्र पं. रमाकान्त शास्त्री को अपने आर्यसमाजी बनने की कहानी बताते हुए कहा था कि उनका परिवार इस्लाम व ईसाईयत के विचारों से प्रभावित था। इसके परिणामस्वरूप मेरे पिता ने मुझे एक आलिम फाजिल मौलवी के मकतब में उर्दू और फारसी पढ़ने के लिए भरती किया था। एक दिन मेरे मामाजी ने कहा कि अजुध्या आज कल तुम क्या पढ़ रहे हो? अयोध्या प्रसाद जी ने मौलवी साहब की बड़ाई करते हुए इस्लाम की खूबियां बताईं। इसके साथ ही उन्होंने अपने मामा जी को हिन्दू धर्म की खराबियां भी बताईं जो शायद उन्हें मौलवी साहब ने बताईं होंगी या फिर उन्होंने स्वयं अनुभव की होंगी। पंडित जी के मामाजी कट्टर आर्यसमाजी विचारों को मानने वाले थे। मामा जी ने अयोध्या प्रसाद को महर्षि दयानन्द का लिखा हुआ सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दिया और कहा कि यदि तुमने इस पुस्तक को पढ़ा होता तो तुम हिन्दू धर्म में खराबियां न देखते और अन्य मतों में अच्छाईयां तुम्हें प्रतीत न होती। अपने मामाजी की प्रेरणा से अयोध्याप्रसाद जी ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ना आरम्भ कर दिया। पहले उन्होंने चौदहवां समुल्लास पढ़ा जिसमें इस्लाम मत की मान्यताओं पर समीक्षा प्रस्तुत की गई है। उसके बाद तेरहवां समुल्लास पढ़कर ईसाई मत का आपको ज्ञान हुआ। आपने अपने अध्यापक मौलवी साहब से इस्लाम मत पर प्रश्न करने आरम्भ कर दिये। पंडित जी के प्रश्न सुनकर मौलवी साहब चकराये। इस प्रकार पंडित अयोध्या प्रसाद को आर्यसमाज और इसके प्रवर्तक महर्षि दयानन्द का परिचय मिला और वह आर्यसमाजी बनें। महर्षि दयानन्द के भक्त पं. लेखराम की पुस्तक हिज्जूतुल इस्लाम को पढ़कर आपको कुरआन पढ़ने की प्रेरणा मिली और वह विभिन्न मतों के अध्ययन में अग्रसर हुए। पंडित जी ने सन् 1908 में प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की शिक्षा के लिए आपने हजारीबाग के सेंट कोलम्बस कालेज में प्रवेश लिया। यहां आप क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये और देश को आजादी दिलाने की गतिविधियों में सक्रिय हुए। पिता ने इन्हें हजारीबाग से हटाकर भागलपुर भेज दिया जहां रहकर आपने इण्टरमीडिएट की परीक्षा सन् 1911 में उत्तीर्ण की। आपकी क्रान्तिकारी गतिविधियों से पिता रूष्ट थे। उन्होंने आपको अध्ययन व जीविकार्थ धन देना बन्द कर दिया। ऐसे समय में रांची के प्रसिद्ध आर्यनेता श्री बालकृष्ण सहाय ने पिता व पुत्र के बीच समझौता कराने का प्रयास किया। श्री बालकृष्ण सहाय की प्रेरणा से ही पंडित अयोध्याप्रसाद जी ने पटना के एक धुरन्धर संस्कृत विद्वान महामहोपाध्याय पडित रामावतार शर्मा से सस्कृत भाषा व हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। संस्कृत ज्ञान व शास्त्र नैपुण्य के लिए आप अपने विद्या गुरु महामहोपाध्याय जी का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया करते थे।

 

पटना से संस्कृत एवं हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन कर आप सन् 1911 में कलकत्ता पहुंचे और हिन्दू होस्टल में रहने लगे। यहीं पर पंजाब के प्रसिद्ध नेता डा. गोकुल चन्द नारंग एवं बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि छात्रावस्था में रहते थे। बाद में बाबू राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राजनीति के शिखर पद पर पहुंचें। अयोध्याप्रसाद जी ने पहले तो प्रेसीडेन्सी कालेज में प्रवेश लिया और कुछ समय बाद सिटी कालेज में भर्ती हुए। यहां रहते हुए आपने इतिहास, दर्शन और धर्मतत्व का तुलनात्मक अध्ध्यन जैसे विषयों का गहन अवगाहन किया। वह अपने अध्ययन की पिपासा को दूर करने के लिए अन्य अनेक मतों के पुस्तकालयों में जाकर उनके साहित्य का अध्ययन करते थे और अपनी पसन्द का विक्रीत साहित्य भी क्रय करते थे। कलकत्ता में बिहार के छात्रों ने बिहार छात्रसंघ नामक संस्था का गठन किया जिसका अध्यक्ष बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी को तथा मंत्री अयोध्या प्रसाद जी को बनाया गया। सन् 1915 में आपने बी.ए. उत्तीर्ण कर लिया। इसके बाद एम.ए. व विधि अथवा ला की परीक्षाओं का पूर्वार्द्ध भी उत्तीर्ण किया। इन्हीं दिनों आप कलकत्ता के आर्यसमाज के निकट सम्पर्क में आयें और यहां आपके नियमित रूप से व्याख्यान होने लगे। आपने यहां आर्यसमाज के पुरोहित एवं उपदेशक का दायित्व भी संभाल लिया। आपकी वाग्मिता, तार्किकता, आपके स्वाध्याय एवं शास्त्रार्थ कौशल से यहां के सभी आर्यगण प्रभावित होने लगे। स्वाध्याय की रूचि का यह परिणाम हुआ कि आपने बौद्ध, ईसाई और इस्लाम मत का विस्तृत व व्यापक अध्ययन किया। देश को आजादी दिलाने के लिए सन् 1920 में आरम्भ हुए असहयोग आन्दोलन में आपने सक्रिय भाग लिया। इसी साल कालेज स्कवायर में सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रतिपादित राजधर्म पर भाषण करते हुए आप पुलिस द्वारा पकड़े गये और अदालत ने आपको डेढ़ वर्ष के कारावास का दण्ड सुनाया। आपने यह सजा अलीपुर के केन्द्रीय कारागार में पूरी की। जेल से रिहा होकर आप एक विद्यालय के मुख्याध्यापक बन गये।

 

पडित अयोध्या प्रसाद जी की यह इच्छा थी कि वह विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार करें। इस्लामिक देशों में जाकर वैदिक धर्म का प्रचार करने की भी उनकी तीव्र इच्छा थी। सन् 1933 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर उनकी विदेशों में जाकर धर्मप्रचार की इच्छा को पूर्ण करने का अवसर मिला। आर्यसमाज कलकत्ता और मुम्बई के आर्यो के प्रयासों से पं. अयोध्या प्रसाद जी को शिकागो के अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया। प्रसिद्ध उद्योगपति एवं सेठ युगल किशोर बिड़ला जी ने पंडित जी के शिकागो जाने में आर्थिक सहायता प्रदान की। जुलाई, 1933 में उन्होंने अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्याख्यान का विषय वैदिक धर्म का गौरव एवं विश्व शान्ति था। आपने इस विषय पर विश्व धर्म संसद, शिकागो में प्रभावशाली भाषण दिया। वैदिक धर्म संसार का प्राचीनतम एवं ज्ञानविज्ञान सम्मत धर्म है कालावधि की दृष्टि से यह सबसे अधिक समय से चला रहा है। वेद की शिक्षायें सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक होने से वैदिक धर्म का गौरव सबसे अधिक है। विश्व में शान्ति की स्थापना वैदिक ज्ञान शिक्षाओं के अनुकरण अनुसरण से ही हो सकती है। इस विषय का पं. अयोध्या प्रसाद जी ने विश्व धर्म सभा में अनेक तर्कों युक्तियों से प्रतिपादन किया। पंडित जी का विश्व धर्म सभा में यह प्रभाव हुआ कि वहां सभा की कार्यवाही का आरम्भ वेदों के प्रार्थना मन्त्रों से होता था और समापन शान्तिपाठ से होता था। यह पण्डित अयोध्या प्रसाद जी की बहुत बड़ी उपलब्धि थी जिसकी इस कृतघ्न देश और आर्यसमाज में बहुत कम चर्चा हुई।

 

इसी विश्व धर्म सभा में पंडित जी ने वैदिक व भारतीय अभिवादन ‘‘नमस्ते शब्द की बड़ी सुन्दर व प्रभावशाली व्याख्या की। उन्होंने कहा कि भारत के आर्य लोग दोनों हाथ जोड़कर तथा अपने दोनों हाथों को अपने हृदय के निकट लाकर नत मस्तक हो अर्थात् सिर झुकाकर ‘‘नमस्ते शब्द का उच्चारण करते हैं। इन क्रियाओं का अभिप्राय यह है कि नमस्ते के द्वारा हम अपने हृदय, हाथ तथा मस्तिष्क तीनों की प्रवृत्तियों का संयोजन करते हैं। हृदय आत्मिक शक्ति का प्रतीक है, हाथ शारीरिक बल का द्योतक हैं तथा मस्तिष्क मानसिक व बौ़द्धक शक्तियों का स्थान वा केन्द्र है। इस प्रकार नमस्ते के उच्चारण तथा इसके साथ सिर झुका कर व दोनों हाथों को जोड़कर उन्हें हृदय के समीप रखकर हम कहते हैं कि “….With all the physical force in my arms, with all mental force in my head and with all the love in my heart, I pay respect to the soul with in you.” नमस्ते की इस व्याख्या का सम्मेलन के पश्चिमी विद्वानों पर अद्भुत व गहरा प्रभाव पड़ा।

 

पण्डित जी ने इस यात्रा में उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में वैदिक धर्म का प्रशंसनीय प्रचार किया। यहां प्रचार कर पण्डित जी ने गायना और ट्रिनिडाड में जाकर वैदिक धर्म की दुन्दुभि बजाई। ट्रिनीडाड में एक कट्टर सनातनी व पौराणिक व्यक्ति ने पण्डित अयोध्या प्रसाद जी को भोजन पर आमंत्रित किया। यह व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण पण्डित जी को आर्यसमाज का विद्वान, प्रखर वाग्मी और उपदेशक होने के कारण उन्हें सनातन धर्म का विरोधी समझ बैठा और उसने पण्डित जी को भोजन में विष दे दिया। यद्यपि पण्डित जी भोजन का पहला ग्रास जिह्वा पर रखकर ही इसमें विषैला पदार्थ होने की सम्भावना को जान गये, उन्होंने शेष भोजन का त्याग भी किया परन्तु इस एक ग्रास ने ही पंडित जी के स्वास्थ्य व जीवन को बहुत हानि पहुंचाई। वह ट्रिनीडाड से लन्दन आये। विष का प्रभाव उनके शरीर पर था। उन्हें यहां अस्पताल में 6 माह तक भर्ती रहकर चिकित्सा करानी पड़ी। उनको दिए गये इस विष का प्रभाव जीवन भर उनके स्वास्थ्य पर रहा।

 

लन्दन से पंडित जी भारत आये और कलकत्ता को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। आपके जीवन का शेष समय आर्यसमाज के धर्म प्रचार सहित स्वाध्याय, चिन्तन व मनन में व्यतीत हुआ। पण्डित जी के पास लगभग 25 हजार बहुमूल्य दुर्लभ ग्रन्थों का संग्रह था। उन्होंने मृत्यु से पूर्व उसे महर्षि दयानन्द स्मृति न्यास टंकारा को भेंट कर दिया। अनुमान है कि उस समय उनके इन सभी ग्रन्थों का मूल्य दो लाख के लगभग रहा होगा। पंडित अयोध्या प्रसाद जी के अन्तिम दिन सुखद नहीं रहे। दुर्बल स्वास्थ्य और हृदय रोग से पीड़ित वह वर्षों तक कलकत्ता के 85 बहु बाजार स्थित निवास स्थान पर दुःख वा कष्ट भोगते रहे। 11 मार्च सन् 1965 को 77 वर्ष की आयु में वर्षों से शारीरिक दुःख भोगते हुए आपने नाशवान देह का त्याग किया। आपकी पत्नी का देहान्त आपकी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व ही हो गया था।

 

पंडित जी के जीवन का अधिकांश समय स्वाध्याय, उपदेश व प्रवचनों आदि व्यतीत हुआ। उनका लिखित साहित्य अधिक नहीं है। यदि उन्हें व्याख्यानों आदि से अवकाश दिया जाता तो वह उत्तम कोटि के बहुमूल्य साहित्य की रचना कर सकते थे। उनके द्वारा रचित साहित्य में इस्लाम कैसे फैला?, ओम् माहात्म्य, बुद्ध भगवान वैदिक सिद्धान्तों के विरोधी नहीं थे, Gems of Vedic Wisdom ग्रन्थ हैं।

 

हमने इस लेख की सामग्री आर्य विद्वान डा. भवानी लाल भारतीय जी के लेखों सहित अन्य ग्रन्थों से ली है। उनका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद करते हैं। स्वामी दयानन्द ने देश में वेदों व वैदिक धर्म संस्कृति का प्रचार किया। वह चाहते थे कि भूमण्डल पर वेदों का प्रचार हो। उन्हें विदेशी विद्वान मैक्समूलर की ओर से इंग्लैण्ड आकर वेद प्रचार करने का प्रस्ताव भी मिला था। परन्तु देश की दयनीय दशा के कारण वह विदेश न जा सके। यदि वह जाते तो थोड़े ही समय में अंग्रेजी भाषा सीख कर वहां प्रचार कर सकते थे। वहां के लोगों की सत्य के ग्रहण की शक्ति भारत के लोगों की तुलना में अच्छी है। आशा है कि वह महर्षि की भावना और वेदों के महत्व को उचित सम्मान देते। आज हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि जितना प्रचार महर्षि दयानन्द सरस्वती अकेले देश में कर गये उसकी तुलना में आज विश्व में सहस्रों आर्यसमाजें करोड़ों वेदानुयायियों के होने पर भी नहीं हो पा रहा है। यह समय की विडम्बना है या आर्यों का आलस्य प्रमाद? ईश्वर आर्यों को महर्षि दयानन्द के कार्यों को पूरा करने की प्रेरणा व शक्ति प्रदान करें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘नारियां शुभ, शोभा, शोभनीयता गुणों से सुशोभित हों : ऋग्वेद’

ओ३म्

स्वामी विद्यानन्द विदेह और वेद प्रचार

नारियां शुभ, शोभा, शोभनीयता गुणों से सुशोभित हों : ऋग्वेद

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम सन् 1970 व उसके कुछ माह बाद आर्यसमाज के सम्पर्क में आये थे। हमारे कक्षा 12 के एक पड़ोसी मित्र स्व. श्री धर्मपाल सिंह आर्यसमाजी थे। हम दोनों में धीरे धीरे निकटतायें बढ़ने लगी। सायं को जब भी अवकाश होता दोनों घूमने जाते और यदि कहीं किसी भी मत व संस्था का सत्संग हो रहा होता तो वहां पहुंच कर उसे सुनते थे। उसके बाद आर्यसमाज में भी आना जाना आरम्भ हो गया। वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून वैदिक विचारधारा मुख्यतः योग साधना और वृहत यज्ञ की प्रचारक संस्था है। यहां उन दिनों उत्सव आदि के अवसर पर अजमेर के वैदिक विद्वान स्वामी विद्यानन्द विदेह (1899-1978) उपदेशार्थ आया करते थे। स्वामी जी का व्यक्तित्व ऐसा था जैसा कि श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर जी का। उनकी सफेद चमकीली लम्बी आकर्षक दाढ़ी होती थी। गौरवर्ण चेहरा कान्तियुक्त एवं देदीप्यमान रहता था। वाणी में मधुरता इतनी की यदि कोई उनकी वाणी को सुन ले तो चुम्बक के समान आकर्षण अनुभव होता था। हम भी उनके व्यक्तित्व के सम्मोहन से प्रभावित हुए। अनेक वर्षों तक वह आते रहे और हम भी उनके प्रवचनों से लाभान्वित होते रहे। उनकी प्रवचन शैली यह होती थी कि वह एक वेद मन्त्र प्रस्तुत करते थे। वेद मन्त्रोच्चार से पूर्व वह सामूहिक पाठ कराते थे ओ३म् सं श्रुतेन गमेमहि मां श्रुतेन वि राधिषि अर्थात् हे ईश्वर ! हम वेदवाणी से सदैव जुड़े रह वा उसका श्रवण करें तथा हम उससे कभी पृथक न हों। स्वामी व्याख्येय वेद मन्त्र का पदच्छेद कर पदार्थ प्रस्तुत करते थे। फिर प्रमुख पदों की व्याख्या करते हुए उसके अर्थ के साथ साथ उससे जुड़ीं प्रमुख व प्रभावशाली कहानियां-किस्से व उदाहरण आदि दिया करते थे। हमें पता ही नहीं चला कि हम कब पौराणिक व धर्म अज्ञानी से वैदिक धर्मी आर्यसमाजी बन गये। आरम्भ में ही हमें पता चला कि स्वामी जी अजमेर से सविता नाम से एक मासिक पत्रिका का सम्पादन करते हैं जिसमें अधिकांश व प्रायः सभी लेख भिन्न भिन्न शीर्षकों से उन्हीं के होते थे जिनका आधार कोई वेद मन्त्र व वेद की सूक्ति होता था। वह अच्छे कवि भी थे। वेद मन्त्र की व्याख्या के बाद वह मन्त्र के भावानुरूप एक कविता भी दिया करते थे। हम जिस प्रथम पत्रिका के सदस्य बने वह यह मासिक पत्रिका सविता ही थी। स्वामी जी ने छोटे छोटे अनेक ग्रन्थ भी लिखे थे जिनका मूल्य उन दिनों बहुत कम होता था और हम अपनी सामर्थ्यानुसार एक, दो या तीन पुस्तकें एक बार में खरीद लेते थे और उन्हें पढ़ते थे। उनकी पुस्तकों के नाम थे गृहस्थ विज्ञान, अज्ञात महापुरुष, वैदिक स्त्री शिक्षा, मानव धर्म, सत्यानारायण की कथा, वैदिक सत्संग, स्वस्ति-याग, विजय-याग, विदेह गाथा, सन्ध्या-योग, जीवन-पाथेय, विदेह-गीतावली, दयानन्द-चरितामृत, कल्पपुरुष दयानन्द और शिव-संकल्प, अनेक वेद-व्याख्या ग्रन्थ आदि। यह सभी पुस्तकें वेद व उसके मन्त्रों में निहित शिक्षा के आधार पर ही लिखी गई हैं। स्वामी जी ने अजमेर व दिल्ली में दो वेद सस्थानों की स्थापना की थी। अजमेर के वेदसंस्थान का कार्य उनके पुत्र श्री विश्वदेव शर्मा देखते थे तो दिल्ली संस्थान का वह स्वयं वा उनके दूसरे पुत्र श्री अभयदेव शर्मा जी। स्वामी विद्यानन्द विदेह जी के कुछ युवा संन्यासी शिष्य भी थे जिनमें से एक थे स्वामी दयानन्द विदेह। इनको भी हमने वैदिक साधन आश्रम तपोवन में सुना जो अपने गुरु स्वामी विद्यानन्द विदेह की शैली को अक्षरक्षः आत्मसात किये हुए थे। सम्भवतः उनके और भी दो-तीन शिष्य थे जिनके दर्शनों का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ। यह भी बता दे कि हमने मासिक पत्र सविता का सदस्य बनने के कुछ दिनों बाद अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एक पत्र लिखा था जो पाठको के पत्र स्तम्भ में सन् 1978 के किसी अंक में प्रकाशित हुआ था। यह हमारे जीवन का प्रथम प्रकाशित पत्र था। सम्प्रति पत्रिका का नाम संशोधित कर दिल्ली से त्रैमासिक पत्रिका वेद सविता के नाम से प्रकाशित की जाती है जिसके हम एक-दो वर्ष से सदस्य बने हैं। इतना और बता दें कि स्वामी जी की मृत्यु सन् 1978 में सहारनपुर क एक आर्यसमाज में मंच से उपदेश करते हुए हुई थी। मृत्यु का कारण हृदयाघात था। उन्हें पूर्व भी एक या दो अवसरों पर हृदयाघात हुआ था। तब उन्होंने लिखा था कि मेरा जीवन एक कांच के गिलास के समान है। इसे सम्भाल कर रखोगे तो यह कुछ चल सकता है अन्यथा कांच के गिलास की तरह अचानक टूट भी सकता है। शायद ऐसा ही सहारनपुर में मृत्यु के अवसर पर हुआ भी।

 

स्वामी जी ने वैदिक स्त्रीशिक्षा नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी है। इस पुस्तक में सातवां विचारात्मक उपदेश ऋग्वेद के 7-56-6 मन्त्र यामं येष्ठाः शुभा शोभिष्ठाः श्रिया संमिश्ला। ओजोभिरुग्राः।। पर है। स्वामी जी ने इस मन्त्र की व्याख्या व उपदेश में कहा है कि नारियां धर्म पथ का अतिशय गमन करनेवाली हों। नारियां धर्मशीला हों। स्वभाव से ही नारियां पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक धर्मशीला होती हैं। परिवार, समाज और राष्ट्र की ओर से नारियों की शिक्षा दीक्षा का ऐसा सुप्रबन्ध होना चाहिये कि वे अतिशय धर्मशीला, सुपथगामिनी और सदाचारिणी हों। विदुषी, धर्मशीला और सदाचारिणी माताओं की सन्तान ही विद्वान्, घर्मशील और सदाचारी होती हैं। माता के अंग-अंग से सन्तान का अंग-अंग बनता है। माता की बुद्धि से सन्तान की बुद्धि और माता के हृदय से सन्तान का हृदय बनता है। पुरुषों से अधिक नारियों के स्वास्थ्य, शील और धार्मिक जीवन के निर्माण का ध्यान रखा जाना चाहिये।

 

नरियां शुभ, शोभा, शोभनीयता से अतिशय शोभनीय हों। नारियां सुशोभनीया-सुरूपा होनी चाहियें। उनकी आकृति दर्शनीय और उनकी छवि शोभनीय होनी चाहिये। उनका शरीर स्वच्छ और स्वस्थ होना चाहिये। वे प्रसन्नवदना हों। वे सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करें। शील और स्वभाव का शोभनीयता से बड़ा गहरा सम्बन्ध है। शालीन, शील और साधु स्वभाव से शोभनीयता जितनी सुशोभित होती है, उतनी अन्य किसी भी प्रकार से नहीं होती। अशालीन और कर्कश नारियां सुन्दर वस्त्राभूषण पहिनकर भी अशोभनीय प्रतीत होती हैं। शालीन व हंसमुख नारियां साधारण वस्त्रों में भी बड़ी शोभनीय प्रतीत होती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, लड़़ाई झगड़ा करनेवाली नारियों का रूप लावण्य बहुत शीघ्र विनष्ट हो जाता है। शोभनीय माताओं की सन्तान शोभनीय और कर्कशा माताओं की सन्तान अशोभनीय होती हैं। अतः नारियों का सर्वतः शोभनीय होना योग्य है।

 

नारियां (श्रिया) लक्ष्मी से (समिश्लाः) संयुक्त हों। नारियां स्वयं लक्ष्मी होती हैं। जहां लक्ष्मीरूप नारी हों, वहां लक्ष्मी होनी ही चाहिये। लक्ष्मी नाम धन सम्पदा का है। पुरुषों द्वारा कमाई गई लक्ष्मी का जब नारियां सुप्रबन्ध तथा मितव्यय करती हैं तो उनका गृह लक्ष्मी से पूरित रहता है। नारियों को चाहिये कि परिश्रम करके गृह के सब कार्य सुष्ठुता से करें। व्यसनों और विलासों पर धन लेशमात्र भी व्यय न होने दें। भोजन छादन और रहन सहन के सुप्रबन्ध से रोग नहीं होते। स्वस्थ परिवार में लक्ष्मी का सतत शुभागमन होता है। विवाह आदि सामाजिक कार्यों में भी व्यर्थ व्यय न होने दें। आय व्यय पर नियन्त्रण रखने से भी लक्ष्मी की वृद्धि होती है। लक्ष्मीयुक्त पविर में सब प्रकार का सुख होता है और सब प्रकार की उन्नति होती है।

 

नारियां (ओजोभिः) ओजों से (उग्राः) उग्र हों। नारियां भीरु, डरपोक और ओजविहीन न होकर निर्भय, साहसी, अदम्य और ओजस्विनी हों। वे सुलक्षणा और लज्जावती तो हों, किन्तु दीन और ओजहीन न हों। नारियों के स्वभाव में झिझक और संकोच का होना ओजहीनता का लक्षण है। नारियों में सहनशीलता का होना जहां भूषण है, वहां उनमें उग्रता का होना भी परम आवश्यक है। बड़ी से बड़ी आपत्ति को अपनी सहनशीलता से सहने का स्वभाव नारियों की विशेषता है, किन्तु उनमें इतनी उग्रता भी होनी चाहिए कि उनकी कहीं भी उपेक्षा और उनका अपमान या अवमान न होने पाये। ओज से साहस का विकास और उग्रता से मान की रक्षा होती है। अतः नारियां अपने ओज और उग्रता की स्थापना करें।

 

हम समझते हैं कि वेद मन्त्र में नारियों को जो उपदेश दिया गया है वह नारियों के लिए परम औषध के समान है। इसका आचरण करने से उन्हें अपने जीवन में लाभ ही लाभ होगा और इन शिक्षाओं की उपेक्षा उन्हें पतन की ओर ले जा सकती है। हम आशा करते हैं कि सभी पाठक लेख व उसमें निहित शिक्षा को उपयोगी पायेंगे। स्वामी विद्यानन्द जी ने इस मन्त्र को व्याख्या व उपदेश के लिए चुना, उनका सादर स्मरण कर धन्यवाद करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2 / देहरादून-248001