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मैं दुःखी क्यों हूँ?

मैं दुःखी क्यों हूँ?

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा गया था। ये लेख अधूरा है, अगर पूरा होता तो स्वयं एक जीवन-शास्त्र होता। पर जितना भी है, उतना ही उपयोगी है, सारगर्भित है। इस लेख में आचार्य जी ने जीवन जीने की आदर्श शैली की ओर संकेत किया है। इससे पाठकों को अवश्य लाभ मिलेगा।

-समपादक

मुझे लगता है कि संसार में सबसे दुःखी व्यक्ति मैं ही हूँ। सब मुझे सदा दुःख ही देते रहते हैं। भगवान् भी मुझे दुःख ही देता है। मैं अपने माता-पिता से दुःखी हूँ, मुझे लगता है कि घर में मुझसे पक्षपात् होता है और सबकी सुनी जाती है, सबकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। मुझे इच्छा करना ही अपराध लगने लगा है। मैं अच्छा करता हूँ, पूरा करने का प्रयत्न भी करता हूँ, पर पूरा न होने पर एक दुःख और अपने दुःख में जोड़ लेता हूँ। इच्छा पूरी न होने का एक दुःख था, उसमें असफलता का दुःख और जोड़ लिया। क्या संसार में मैं दुःख पाने के लिये ही आया हूँ?

मुझे लगता है कि संसार में मेरे चारों ओर मुझे दुःख देने वाले एकत्र हो गये हैं। मुझे लगता है ये लोग गलत हैं, ठीक नहीं हैं। ये सुधर जायें तो सब ठीक हो सकता है। ये बच्चे सुधर जाते तो सब ठीक हो जाता, परन्तु इनको मेरी बात समझ में ही नहीं आती। समझा-समझा कर दुःखी हो गया हूँ। पत्नी है कि सुनती नहीं है, बच्चों को बिगाड़ दिया है। मैं जो कहता हूँ उसका उल्टा करती है, बच्चों को उल्टा सिखाती है। मेरा पड़ौसी नालायक है, गन्दा है, कोई अच्छी आदत ही उसमें नहीं है। गन्दा रहता है, गन्दगी करता है, शराब पीता, गालियाँ देता है, समझाने पर भी समझता नहीं है। मेरे कार्यालय में मेरे साथी चापलूस और कामचोर हैं, अधिकारी रिश्वतखोर, पक्षपाती हैं। संसार में जिधर देखता हूँ, सब बिगाड़-ही-बिगाड़ है। उससे मैं बहुत दुःखी हो गया हूँ।

मुझे लगता है कि लोग मन्दिर जाते हैं, सत्संग करते हैं, प्रवचन सुनते हैं, क्या इनसे दुःख दूर होता है? यदि ऐसा करने से दुःख दूर होता है तो सारे मन्दिर जाने वाले सुखी हो जाते। सारे प्रवचन करने वाले क्या सुखी हैं? सत्संग में सुख होता तो सभी सत्संग करके सुखी हो चुके होते, परन्तु ऐसा लगता नहीं। फिर सोचता हूँ कि यदि इन सबसे सुख नहीं मिलता, तो इतने लोग सुख प्राप्त करने के लिये यहाँ की ओर क्यों दौड़ रहे हैं? सुनने में आता है कि सत्संग सुनकर डाकू सय मनुष्य बन गया, अंगुलीमाल डाकू भगवान् बुद्ध का भक्त बन गया। ये ठीक है, सब तो नहीं सुखी होते, परन्तु कुछ तो सुखी होते देखे जाते हैं। जैसे खेत में डाले गये सारे बीज नहीं उगते। कोई पत्थर पर गिरकर पड़ा सड़ जाता है। किसी को पक्षी खा लेता है, तो कोई कीड़े से नष्ट कर दिया जाता है, कोई उगकर पशु-पक्षियों द्वारा खा लिया जाता है, फिर भी खेती की जाती है और उसी से भूखे मनुष्यों को भोजन मिलता है। लगता है सत्संग की खेती का भी यही हाल है, जो बीज उर्वरा भूमि में गिर जाता है, उसमें बीज पौधा बनकर फल देने लगता है। प्रवचनकर्त्ता सभवतः यही उपदेश कर रहे थे कि दुःख दूर करने का सत्संग ही एक उपाय है।

संसार में दुःख है, लोग इसे दूर भी करना चाहते हैं तो इसका उपाय भी निश्चित होगा। सत्संग में दुःख दूर करने का उपाय बताते हुए यही तो कहा जा रहा था। दुःखी हम इसलिये हैं कि हम अपने से बाहर की वस्तुओं को दुःख का कारण समझ रहे हैं। जब तक मैं दूसरों को दुःख का कारण समझूँगा, तब तक मेरे दुःखों से मुझे छुटकारा नहीं मिलेगा, क्योंकि दुःख का कारण मेरे अन्दर  है। जिन बातों से, जिन वस्तुओं से, जिन व्यक्तियों से मैं दुःखी हूँ, उसका कारण है कि मैं उनसे असन्तुष्ट हूँ। मेरे असन्तोष का मूल मेरी उनसे अपेक्षा है, मैंने सबसे अपेक्षा पाल रखी है। जब मेरी इच्छा पूरी नहीं होती तो मेरे अन्दर असन्तोष जन्म लेने लगता है। यह असन्तोष ही मेरे दुःख का कारण है।

मेरे दुःख का दूसरा कारण है कि मैं सब व्यक्तियों को सुधारना चाहता हूँ। सभी वस्तुओं को अपने अनुकूल बनाना चाहता हूँ। ऐसा करना मेरे सामर्थ्य से परे है। मेरे लिये समभव नहीं है। मैं जिसे सुधारने का यत्न करता हूँ और जिसे मैं सुधार नहीं सकता, उन दोनों में अन्तर होता है। जिसे मैं पहले से सुधारने योग्य नहीं मानता, उनसे मैं दुःखी नहीं होता, उन्हें वैसा ही मानकर व्यवहार करता हूँ, जिनको सुधारने की इच्छा करता हूँ, उनके लिये प्रयत्न करता हूँ, फिर असफल होने पर दुःखी होता हूँ। सुधार का प्रयत्न करना अच्छी बात है, परन्तु असफलता पर दुःखी होना बुरी बात है, जब कोई नहीं सुधरता तो उसको भी उपेक्षा की कोटि में डाल दिया जाए, तो मेरा दुःख दूर हो सकता है।

मैंने दुःखों के नाम रख दिये हैं। ये सास है, ये बहू है, ये देवरानी या जेठानी है, इन नामों से दुःख लगने लगता है, यथार्थ तो यह है कि दुःख व्यवहार में है, संज्ञा में नहीं। दुःख तो बेटे-बेटी से भी होता है। माता-पिता, भाई से भी होता है। संसार में रक्त-समबन्ध को सुख का कारण तथा दूर को दुःख का कारण मानते हैं, परन्तु यथार्थ में जितना दुःख समबन्धियों में, सगे भाइयों में होता है, उतना दुःख किसी और से नहीं मिलता। जितने झगड़े, लड़ाई, मुकद्दमें भाइयों में परस्पर होते हैं, उतने दूसरों से तो नहीं होते। फिर दुःख का कारण व्यक्ति नहीं, विचार है। विचार ठीक न होने की दशा में कोई भी दुःख का कारण बन सकता है, परन्तु मैंने मान लिया कि सास दुःख ही देगी, बहु विरोध ही करेगी।

जिनको मैं बदल नहीं सकता, जिन्हें मैं छोड़ भी नहीं सकता, क्या उनसे लड़ाई, झगड़ा, तनाव करके मैं सुखी रह सकता हूँ? कदापि नहीं। फिर मैं क्या करूँ, जिससे मेरा दुःख दूर हो? इसलिये उनसे मेरा व्यवहार निष्पक्षता का हो, उदासीनता का हो। ………

– धर्मवीर

 

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

हर आर्यसमाजी को एक चिन्ता सताती है कि आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार कैसे हो। अलग-अलग लोग अपनी-अपनी सममति देते हैं। सबसे पहले वे लोग हैं जो लोगों को आकर्षित करने के लिये लोकरञ्जक उपायों को अपनाने का सुझाव देते हैं। कोई सत्संग में भोजन का सुझाव देता है, तो कोई बच्चों में मिठाई बाँटने की बात करता है। खेल-मेले, आयोजन की बात करता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी कहा करते थे कि आज आर्यसमाज का सारा कार्यक्रम तीन बातों तक सिमट गया है- जलसा, जूलूस और लंगर। भीड़ जुटाने के लिये हमारे पास विद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। बच्चों और विद्यालय के अध्यापकों की संखया जोड़कर आर्यसमाज के कार्यक्रम सफल किये जाते हैं।

नगर के स्तर पर यदि दो-चार समाजें हैं तो उत्सव के समय आर्यसमाजों के लोग मिलकर एक-दूसरे के कार्यक्रम में समिलित हो जाते हैं, तो संखया सौ-पचास हो जाती है और हम उत्सव सफल मान लेते हैं, प्रान्तीय स्तर हो या राष्ट्रीय स्तर, सभी स्थानों पर वही मूर्तियाँ आपको दिखाई देती हैं। यदि इस संखया को बढ़ाना हो तो हम अपने कार्यक्रम में किसी राजनेता को बुला लेते हैं।

ऐसे व्यक्ति के आने से उनके साथ आने वालों की संखया से समारोह की भीड़ बढ़ जाती है। समाज का भी कोई कार्य हो जाता है तथा राजनेताओं को जन-समपर्क करने का अवसर मिल जाता है। हमारी इच्छा रहती है कि हम कोई ऐसा कार्य करें, जिससे हमारे कार्यक्रमों में लोगों की भागीदारी बढ़े। हम अपने कार्यक्रमों की तुलना समाज के पन्थों, महन्तों के कथा आयोजनों से करते हैं। आजकल ये कथाएँ भागवत, सत्यनारायण, सुन्दरकाण्ड, और भी बहुत सी पौराणिक कथायें चलती हैं, इनसे लोगों का मनोरञ्जन हो जाता है, कथावाचक को अच्छी दक्षिणा की प्राप्ति हो जाती है और आयोजक भी  सोचता है कि वह पुण्य का भागी है। आर्यसमाज के पास ऐसी लोक लुभावन कथा तो है नहीं। आर्यसमाज वेद-कथा करता है, इस कथा को करने वाले ही नहीं मिलते तो सुनने वाले कहाँ से मिलेंगे।

हमें समझना चाहिए कि हमारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे भीड़ को आकर्षित किया जा सके। भीड़ आकर्षित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है- चमत्कार दिखाकर जनसामान्य को मूर्ख बनाना। साईं बाबा, सत्य सांई, आसाराम, निर्मल दरबार, सच्चा सौदा व सैंकड़ों मत-मतान्तर हैं, जो चमत्कारों से जनता पर कृपा की वर्षा करते हैं, ऋषि दयानन्द ने किसी को कोई चमत्कार नहीं दिखाया।

न कोई झूंठा आश्वासन दिया। आज व्यक्ति ही नहीं बल्कि मत-समप्रदाय भी लोगों को चमत्कारों से ही मूर्ख बनाते हैं। ईसाई लोग चंगाई का पाखण्ड करते हैं, दूसरों के पाप ईसा के लिये दण्ड का कारण बताते हैं। ईसा पर विश्वास लाने पर सारे पाप क्षमा होने की बात करते हैं। मुसलमान खुदा और पैगमबर पर ईमान लाने की बात करते हैं। खुदा पर ईमान लाने मात्र से ईमान लाने वाले को जन्नत मिल जाती है। जिहाद करने, काफ़िर को मारने से और कुछ भी बिना किये खुदा जन्नत बखश देता है। पौराणिक गंगा-स्नान कराके ही मुक्त कर देता है। व्रत-उपवास, कथाओं से ही दुःख ढ़ल जाते हैं, स्वर्ग मिल जाता है। मन्दिर में देव-दर्शन से पाप कट जाते हैं। सारे ही लोग जनता को मूर्ख बनाते हैं और भीड़ चमत्कारों के वशीभूत होकर ऐसे गुरु, महन्त, मठ, मन्दिरों पर धन की वर्षा करती है। क्या ऋषि दयानन्द ने कोई चमत्कार किया अथवा क्या आर्यसमाज के पास कोई चमत्कार है, जिसके भरोसे भीड़ को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है?

इसके अतिरिक्त लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का उपाय है-प्रलोभन। कोई व्यक्ति किसी के पास किसी के लाभ विचार से जाता है। कुछ लोग भोजन, वस्त्र, धन का प्रलोभन देते हैं। ईसाई लोग गरीबों में भोजन, वस्त्र बाँटकर लोगों को अपने पीछे जोड़ते हैं। कुछ लोग प्रतिष्ठा के लिये किसी गुरु, महन्त के चेले बन जाते हैं। किसी मठ-मन्दिर में नौकरी, समपत्ति का लोभ मनुष्य  को उनके साथ जोड़ता है। मुसलमान और ईसाई लोगों को नौकरी और विवाह का प्रलोभन देते हैं। आर्यसमाज में प्रलोभन के अवसर बहुत थोड़े हैं, परन्तु उनका उपयोग नये लोगों को अपने साथ जोड़ने या पुराने लोगों से काम लेने के लिये नहीं किया जाता, आर्यसमाज की समपत्ति या उसकी संस्थाओं का उपयोग अधिकारी प्रबन्धक लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये करते हैं। इसी कारण इन संस्थाओं में कार्य करने वाला व्यक्ति आर्य-सिद्धान्तों से जुड़ना तो दूर जानने की इच्छा भी नहीं करता।

आर्यसमाज में आने का एक लोभ रहता है- सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना। समाज की प्रजातान्त्रिक चुनाव-पद्धति के कारण किसी का भी इस संस्था में प्रवेश सरल है, दूसरे लोग संस्थाओं में घुसकर सपत्ति व पदों पर अधिकार कर लेते हैं, इनका विचार या सिद्धान्त से विशेष समबन्ध नहीं होता। संगठन के पास ऐसे अवसर इतने अधिक भी नहीं हैं कि इनसे अन्य मत-मतान्तर के लोगों में इसके प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न हो सके। ऋषि दयानन्द के पीछे आने वाले लोगों में पहले भी कोई प्रलोभन नहीं था। आज तो संस्था के पास समपत्ति, भूमि, भवन, विद्यालय, दुकानें आदि बहुत कुछ हैं, परन्तु आर्यसमाज के प्रारमभिक दिनों में आर्यसमाज में आने वालों ने अपना समय, धन, प्रतिष्ठा, प्राण सभी कुछ समाज और ऋषि की भावना के लिये अर्पित किया। फिर कौन सा कारण है, जिससे हमें लगता है कि लोग ऋषि के पीछे आते थे और आज हमारे पीछे क्यों नहीं आते?

लोग चमत्कारों के पीछे जाते हैं। हमारे पास चमत्कार नहीं है, ऋषि के पास भी नहीं थे। हमारे पास भी किसी को लाभ पहुँचाने के लिये कोई साधन नहीं है। फिर कौन सी बात है, जिसके कारण लोग ऋषि के अनुयायी बने, उनके पीछे चले और फिर आज हमारे में कौन सी कमी आ गई है, जिसके कारण लोग हमारी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं? वह इन सब बातों का एक उत्तर है- ऋषि दयानन्द ने जो कुछ कहा था, वह बुद्धि को स्वीकार करने योग्य और तर्क-संगत था। जो कहा, यथार्थ था, सत्य था, तर्क और प्रमाण से युक्त था। लोगों को स्वीकार करने में संकोच नहीं होता था। जो भी उनकी बात सुनता था, उसकी समझ में आ जाती थी और वह उनका अनुयायी हो जाता था।

ऋषि दयानन्द ने दुकानदारी का सबसे बड़ा आधार कि भगवान् पाप क्षमा करता है, इसे ही समाप्त कर दिया। ईश्वर ने संसार बनाया और जीवों के उपकार के लिये बनाया। प्रत्येक प्राणी के जीवन के लिये जो जितना आवश्यक है, उसे देता है, परन्तु जिसका जितना व जैसा कर्म है, उसको उतना और वैसा ही फल देता है। वह अपनी इच्छा से कम या अधिक नहीं कर सकता। इसका कारण बताया कि वह न्यायकारी है। यदि किसी को कुछ भी दे सकता तो सबको सब कुछ बिना किये ही दे देता। सबको सब कुछ बिना किये ही मिलता तो किसी को कुछ भी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। कर्म करने की आवश्यकता नहीं रही, तो संसार के बनाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।

ऋषि कहते हैं- ईश्वर से जीव भिन्न है, न वह उससे बना है और न कभी उसका उसमें लय होता है। न जीव कभी ईश्वर बनता है और न ईश्वर कभी जीव बनता है। अवतारवाद पाखण्ड है। गंगा आदि में स्नान करने से मुक्ति मानना पाखण्ड है। देवता जड़ भी होते हैं, चेतन भी। परमेश्वर निराकार चेतन देवता है, शरीरधारी साकार चेतन तथा शेष जड़ देवता हैं। मूर्ति न परमेश्वर है, न मूर्ति-पूजा परमेश्वर की रजा है, यह तो व्यापार है, ठगी है। तीर्थ यात्रा से भ्रमण होता है, कोई पुण्य या स्वर्ग नहीं मिलता। जन्म से ऊँच-नीच, जाति-व्यवस्था मानना मनुष्य समाज का दोष है, इससे दुर्बलों को उनके अधिकार से वञ्चित किया जाता। विद्या-ज्ञान का अधिकार सब मनुष्यों को समान रूप से प्राप्त है। इस प्रकार सैकड़ों पाखण्ड इस समाज में व्याप्त थे, उन सबका ऋषि दयानन्द ने प्रबल खण्डन किया। यह अनुचित है तो फिर ईसाई हो या मुसलमान, जैन हो या बौद्ध, हिन्दू हो या पारसी, आस्तिक हो या नास्तिक, कुरान में हो या पुराण में, देशी हो या विदेशी, जहाँ पर जो भी गलत लगा, ऋषि ने उसका खण्डन किया। इस प्रकार उनके भाषण, उनकी पुस्तकें, जिसके पास भी पहुँची, उसे बुद्धिगय होने से स्वीकार्य लगीं। यही ऋषि दयानन्द के विचारों का तीव्रता से फैलने का कारण था।

आज हमारी समस्या यह है कि हम दूसरे के पाखण्ड का खण्डन करने में असमर्थ हैं और स्वयं पाखण्ड से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कारण इस कार्य में सफलता कैसे मिल सकती है। सफलता के लिये बुद्धिमान लोगों तक ऋषि के विचारों का पहुँचना आवश्यक है, जिसमें हम असफल रहे हैं। आज समाज में युवा-वर्ग अपनी भाषा से दूर हो गया है, उस तक उसकी भाषा में पहुँचना आवश्यक है। इसके लिये सभी भाषाओं में साहित्य और प्रचारक दोनों ही सुलभ नहीं हैं, परिणामस्वरूप नई पीढ़ी से हमारा समपर्क समाप्त प्राय है। समाज को यदि बढ़ना है तो बुद्धिजीवी व्यक्ति तक वैदिक विचारों को पहुँचाने की आवश्यकता है, इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

नान्यः पन्था विद्यतेऽभनाय।

– धर्मवीर

 

शैल्डन पोलॉक का शोध- संस्कृति का शीर्षासन

शैल्डन पोलॉक का शोध

संस्कृति का शीर्षासन

चार सितम्बर के दिन कर्नाटक यात्रा के प्रसंग में हम्पी भ्रमण करते हुये विजय नगर साम्राज्य के खण्डहर देख रहे थे। विरुपाक्ष मन्दिर, मन्दिर समूह, कृष्ण मन्दिर, विट्ठल मन्दिर, अच्युतराय मन्दिर देखते हुए एक मुस्लिम शासक निर्मित भवन दिखाई दिया। उसके परिचय में लिखा हुआ था- ‘एक सैक्यूलर इमारत’ पढ़कर हृदय गदगद हो गया। इस देश की नई शब्दावली से परिचित हुये बिना यहाँ की और इस देश को लेकर सोचने वालों की मानसिकता को नहीं समझा जा सकता। इस देश में पीड़ित को साम्प्रदायिक और आक्रान्ता को सैक्युलर, धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी और उदार कहा जाता है।

आजकल हमारे तथाकथित प्रगतिशील लोगों की यह शब्दावली है जहाँ शब्द भी उनका भी दिया अर्थ बताते हैं। वास्तविक अर्थ कुछ रहा होगा तो रहे, परन्तु आज तो यही अर्थ ठीक है। वेद, शास्त्र, हिन्दू, ब्राह्मण आदि ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ होता है- शोषक, उत्पीड़क, रुढ़िवादी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी, अल्पसंख्यक-विरोधी, असभ्य, असंस्कृत आदि। यदि कोई मुसलमान की बात हो, चाहे औरंगजेब हो, अकबर हो, गजनी हो, ख्ुादा हो, कुरान हो या पैगम्बर हो, उनका अर्थ होता है- सैक्युलर, उदार, समन्वयवादी आदि। कहीं अंग्रेज, अंग्रेजी, विदेशी शोधकर्त्ता का नाम आ जाये तो अर्थ होगा प्रगतिशील, वैज्ञानिक दृष्टिवाला, दयालु, परोपकारी आदि। ऐसे शब्द आजकल के सुपठित लोगों की भाषा में इन्हीं अर्थों में आते हैं।

इन शब्दों का उदारता से व्याख्यानपूर्वक प्रयोग देखना हो तो आजकल के महान् शोधकर्त्ता कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफे सर सर शैल्डन पोलॉक हैं। जिनका बहुत सारा शोध कार्य है, परन्तु रामायण को उन्होंने जिस दृष्टि से देखा है वह इस शब्दावली से समझा जा सकता है। शैल्डन पोलॉक के शोध के अनुसार वेद निरर्थक हैं (मीनिंग लेस) बाकि जितने भी शास्त्र हैं इनमें अपना कुछ नहीं है, ये सब वेद से दबे हुए हैं। बाद के काव्य, व्याकरण आदि राजाओं के प्रभाव को स्थापित करने, जनता को दबाने, उनका शोषण करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये। इसका एक उदाहरण रामायण है। रामायण कोई इतिहास नहीं है। राम नाम का कोई व्यक्ति नहीं हुआ। राम के नाम पर राजाओं के प्रभाव को बढ़ाने और जनता को दबाकर रखने के लिये वाल्मिकी ने इस की रचना की है।

शैल्डन पोलॉक का शोध दूर की कौड़ी है। श्लोकों का अर्थ मनमाना और अप्रासंगिक है। तटस्थ अध्ययनकर्त्ता यदि ग्रन्थकर्ता की एक  बात को प्रस्तुत करता है तो उसके विपरीत बातों को भी उद्धृत करना उसका कर्त्तव्य बनता है। पोलॉक महाभारत का श्लोक उद्धृत कर कहता है कि संस्कृत ग्रन्थों में राजा के  माहात्म्य को बढाने के लिये उसे भगवान् का रूप दिया गया है। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य यह है कि कोई राजा का विरोध न कर सके और राजा अपने को भगवान् मानकर प्रजा पर मन मरजी चला सके। प्रजा का शोषण कर सके। पोलॉक के विचार से सारा संस्कृत साहित्य राजाओं के द्वारा अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों के माध्यम से कराया गया प्रयास है। पोलॉक का विचार है कि पूरे संस्कृत साहित्य में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमें मनुष्य की स्वतन्त्रता, बौद्धिकता, समानता की बात दिखाई पड़ती हो। उसके विचार से हिन्दुओं में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव इन संस्कृत ग्रन्थों द्वारा बौद्धिक स्वतन्त्रता को बन्धक बनाये जाने के कारण है। वेद या शास्त्रों में आध्यात्मिकता की बात करना निरी मूर्खता है। वेद, शास्त्र, संस्कृत साहित्य दलित-विरोधी, स्त्री-विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी है। पोलॉक का मानना है कि रामायण के माध्यम से शासकों ने प्रजा के मन में मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काने का कार्य किया है। वह यहाँ तक कहता है कि भाजपा या विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा रथ-यात्रा निकालना हिन्दुओं के मन में रामायण के माध्यम से मुस्लमानों के प्रति शत्रुता का भाव उत्पन्न करने का प्रयास है।

पोलॉक रामायण को मुस्लिम विरोध के लिये लिखवाया ग्रन्थ कहकर दो बात सिद्ध करना चाहता है, एक– राम नाम का कोई इतिहास में व्यक्ति ही नहीं हुआ, उसके आदर्श राजा होने की बात तो बहुत दूर है। दूसरी रामायण की रचना का समय वह इस्लाम के भारत आक्रमण के बाद का सिद्ध करना चाहता है। यह ग्रन्थ के साथ और इतिहास की परम्परा के साथ भी मनमानी है। इस्लाम के उत्पन्न होने से पहले ही रामायण का विश्व में प्रचार प्रसार हो चुका था। जहाँ इस्लाम का जन्म चौदह सौ वर्ष पुराना है तो रामायण के चित्रों का प्रदर्शन ब्राह्यीलिपि के साथ तीन हजार वर्ष से भी पुराना मिलता है। चीन, तिब्बत, लंका, मलेशिया, इन्डोनेशिया आदि देशों में रामायण का प्रचार-प्रसार वहाँ इस्लाम के पहुंचने से पहले ही पहुँच चुका था। साहित्य में हजारों ग्रन्थ ऐसे हैं जिनकी रचना रामायण के आधार पर की गई है। रामायण इन ग्रन्थों का उपजीव्य है।

शैल्डन पोलॉक का शोध है कि रामायण में राक्षस शब्द मुसलमानों के लिये प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत साहित्य में मुसलमानों के लिये यवन शब्द तो देखने में आता है पर किसी भी शब्दकोश में राक्षस का अर्थ मुसलमान देखने को नहीं मिलता। वैदिक साहित्य में दो ही वर्ग देखने में आते हैं। इनमें एक को आर्य कहते हैं दूसरे को दस्यु कहा जाता था। दस्यु के लिये भी अनार्य शब्द का प्रयोग मिलता है। ये दोनों शब्द एक वर्ग के लोगों के लिये प्रयुक्त होते थे, क्योंकि ये शब्द गुणवाचक हैं न कि जाति के वाचक। संस्कृत साहित्य में दस्यु शब्द का अर्थ करते हुये कहा गया है ‘अकर्मा दस्युः’ जो पुरुषार्थ न करके निर्वाह करना चाहता है वह दस्यु है। वह कोई भी हो सकता है। जिन का आचरण आर्योचित या मर्यादा रहित होता था, उनके लिये म्लेच्छ शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। जहाँ तक राक्षस शब्द की बात है। राक्षस शब्द बहुत पुराना है, वेद में भी प्रयुक्त हुआ, प्रारम्भ में इसका अर्थ बुरा नहीं था, बाद में बुरे अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। राक्षस का अर्थ किसी भी रूप में मुसलमान अर्थ में रामायण में प्रयुक्त नहीं हुआ है।

रामायण में राक्षस वंशों का वर्णन मिलता है। राक्षसों के नाम, स्थान, वंश, क्षेत्र आदि का उल्लेख रामायण में विस्तार से पाया जाता है। ऐसी स्थिति में रामायण के राक्षस शब्द से मुसलमान अर्थ लेना- यह मनमानापन शोध तो नहीं कहा जा सकता है। शैल्डन पोलॉक का मानना है कि बुद्ध से पहले हिन्दुओं को लिखना-पढ़ना नहीं आता था। पोलॉक का शोध कहता है कि रामायण की रचना बौद्ध जातक कथाओं की नकल पर की गई है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है रामायण बुद्ध से पूर्व भी इस देश में प्रचलित थी। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। सोचने की बात है कि सब कुछ इस देश में बुद्ध के बाद आया तो बुद्ध से पहले यहाँ क्या था। इतना ही नहीं, बुद्ध ने जो कुछ जाना-सीखा वह सब कहाँ से सीखा। बौद्ध-दर्शन यदि वैदिक दर्शन का खण्डन करता है तो वैदिक दर्शन की उपस्थिति बुद्ध से पहले हुए बिना खण्डन कैसे हो सकता है। जैन, बौद्ध साहित्य में ब्राह्मणवाद का खण्डन बताया जाता है तो ब्राह्मण धर्म बुद्ध से पहले था तभी तो खण्डन किया जा सका। जब कोई विचार किसी विचार की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न होता है तो जिसके लिये विरोध या प्रतिक्रिया हुई है, उसका पहले स्थापित होना तो स्वतः सिद्ध होता है। फिर यह कहना कि वेद से लेकर पुराण तक की रचना बुद्ध काल के बाद हुई है- युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता। संस्कृत साहित्य में काल निर्णय की समस्या चार कारणों से उत्पन्न होती है। प्रथम है नाम साम्य-एक ही नाम के अनेक व्यक्ति विभिन्न समय और स्थानों पर होते रहे इसलिये उनका काल निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है। दूसरा कारण है- वेद को छोड़कर समस्त शास्त्रीय साहित्य में समय-समय पर मिलावट होती रही है, जिस कारण ग्रन्थ के मूलपाठ को प्रक्षेप से पृथक् करना एक कठिन और चुनौती वाला कार्य है। तीसरा कारण- भारत में क्रमबद्ध इतिहास लिखने की परम्परा बहुत कम मिलती है। हमारे देश में रामायण व महाभारत को छोड़कर बचे इतिहास ग्रन्थ कम ही मिलते हैं। इतिहास के लिये पुराणों का अध्ययन आवश्यक है, परन्तु इनमें मिलावट होने के कारण तथ्यों को छांटना कठिन कार्य है। फिर चौथा कारण है- इस देश की दासता की लम्बी अवधि और मुसलमानों द्वारा साहित्य को जलाना और अंग्रेज, डच, फ्रेंच आदि द्वारा साहित्य, संस्कृति कला की वस्तुओं को इस देश से उठा ले जाना। ऐसी परिस्थिति में इतिहास न होने का दोष किसे दिया जा सकता है। रामायण में भी प्रक्षेप हैं जिसका लाभ पोलॉक उठाना चाहता है। रामायण में एक श्लोक आता है-यथा हि बुद्धस्तथा हि चौर– जैसा बुद्ध वैसा चोर, जैसी पंक्तियों के आधार पर आप रामायण को बुद्ध के बाद बताना चाहते हैं, पर पहले रामायण की प्राचीनता को प्रतिपादित करने वाले प्रमाणों का खण्डन करना होगा। जिसे शैल्डन पोलॉक का शोध स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है।

एक और महत्त्वपूर्ण शोध कार्य शैल्डन पोलॉक ने किया है, उस पर भी दृष्टिपात् करना उचित होगा। शैल्डन पोलॉक अपने शोध कार्य से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि रामायण हिन्दुओं की मरी हुई, दबी-कुचली इच्छाओं, अपूर्ण-दामित कामवासनाओं को काव्य के माध्यम से प्रकाशित कर सन्तुष्टि पाने वाला ग्रन्थ है। इसमें दबी इच्छाओं और उनको पूर्ण करने में आने वाले भय का निरुपण किया गया है। शैल्डन पोलॉक की दृष्टि में हिन्दू समग्ररूप से विकृत काम-वासना से ग्रसित समुदाय है। यह पोलॉक ही नहीं, बहुत सारे योरोपियन अमेरिकन वर्ग के लेखक भी कहते हैं, पिछले दिनों वेन्डीडोनिगर की एक पुस्तक निकली ‘हिन्दू-एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’। इस पुस्तक में क्या होगा इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुस्तक के मुख पृष्ठ पर एक नग्न महिला पर चढ़कर कृष्ण को बांसुरी बजाते हुये दिखाया गया है। यह मनोविकृति कृष्ण की है या हिन्दुओं की अथवा वेन्डिडोनिगर और उनके साथी यूरोप, अमेरीकी शोधकर्त्ता की- यह समझना कठिन नहीं है।

पोलॉक के शोध में सारा प्रयास यह दिखाई देता है कि वह समाज को टुकड़ों में बँटा हुआ और एक-दूसरे के विरोध में खड़ा हुआ देखना चाहता है। वह संस्कृत को क्षेत्रीय भाषाओं के विरोध में, बौद्धों को हिन्दुओं के विरोध में, हिन्दुओं को मुसलमानों के विरोध में, पुरुषों को स्त्रियों के विरोध में, ब्राह्मणों को दलितों के विरोध में, सवर्णों को शूद्रों के विरोध में खड़ा करना चाहता है। सारे प्रयत्न उसके शोध के निष्कर्ष के रूप में दिखाई देते हैं। इस समाज में पोलॉक को सब कुछ खराब और घटिया दिखाई देता है। उसकी सद्भावना इतनी ही है कि वह हिन्दू समाज को इस कलंक से दूर करना चाहता है, इसलिये वह इस समाज को संस्कृत से बचने और दूर रहने की सलाह देता है, जिससे यह समाज बौद्धिक स्वतन्त्रता का अनुभव कर सके और योरोप-अमेरीका के शोध कर्त्ताओं का धन्यवाद कर सके, उनके आदर्शों पर चलकर अपना जीवन धन्य मान सके।

इस सारी शोध मानसिकता की भूमि में जो बात है वो ये कि जब संस्कृत के विचारों की शोपनहावर ने प्रशंसा की तो वह भारत पर राज्य करने वाले अंग्रेजों को अच्छी नहीं लगी। एक ओर उन्हें भारत में पैर जमाने के लिये ईसाइयत के प्रचार-प्रसार में आने वाली मुख्य बाधा संस्कृत और वेद के रूप में आ रही थी। दूसरी ओर ऊपर से योरोप में संस्कृत के, वेद-ज्ञान के प्रशंसक हों यह उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा। इसके बाद सर विलियम जोन्स ने संस्कृत का अध्ययन किया, उसमें वो अपनी नस्लीय श्रेष्ठता और बाइबिल की उच्चता को अपने मस्तिष्क से नहीं निकाल सके और इसी मानसिकता को लेकर उन्होंने जो शोध किये, पोलॉक उसी परम्परा का निर्वाहक है।

यह संस्कृ त भाषा और साहित्य का अध्ययन पहले संस्कृति स्टडी फिर तुलनात्मक व्याकरण (कम्पेरेटिव ग्रामर) कहा गया। बाद में इसका नाम भाषा विज्ञान (लिंलिंग्विस्टिक) हुआ। फिर भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के रूप में इन्डोलॉजी कहा गया। आजकल इस अध्ययन को दक्षिण एशिया के अध्ययन के रूप में साउथ एशियन स्टडी कहा जाता है। इस अध्ययन की एक ही विशेषता है, यह सारा अध्ययन शोध के लिये न होकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये किया जा रहा है। पहले योरोप और इंग्लैण्ड के विद्वानों ने इस अध्ययन से संस्कृत, भारतीय संस्कृति और इतिहास को अपनी तरह से व्याष्यायित करके भारतीयों को पढ़ाने का काम किया। अब अमेरिकी विद्वान् शैल्डन पोलॉक जैसे लोग भारत के संस्कृत इतिहास, संस्कृति, भाषा के विषय में हमें बताने का  प्रयास कर रहे हैं।

इस सारे शोध और अध्ययन की विशेषता है- भाषा भारत की, संस्कृ ति यहाँ की इतिहास भारतीयों का, परम्परा भारतीयों की और निर्णायक हैं मैक्समूलर और शैल्डन पोलॉक। किसी देश की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि उसके साहित्य, इतिहास, संस्कृति की व्याख्या करने का अधिकार विदेशी और शत्रु के हाथ में हो।

यह अधिकार उन्होंने अपने हाथ में बलपूर्वक ले लिया है, क्योंकि उन्होंने इस अपने से जोड़ने वाली वस्तु भाषा को हम से छीन लिया । आज हम हमारे विषय उनकी भाषा में पढ़ते हैं तो फिर वो जैसा चाहते है। उसे वैसा ही पढ़ना और समझना भी पड़ता है, इसे कहते हैं- मियाँ जी की जूती, मियाँ जी का सर। आज हम संस्कृत को भी उन्हीं की पद्धति से पढ़ते हैं। मनुष्य अपनी भाषा बोलना और समझना पहले सीखता है। लिखना और पढ़ना बाद में आता है पर अंग्रेज हमको संस्कृत लिखना-पढ़ना पहले सिखाता है। बोलना समझना हमें आता नहीं। इसी आधार पर वह कहता है कि जिसमें बोला न जाय और बोला हुआ समझा न जाय- वह भाषा मृत भाषा है।

अन्त में शैल्डन पोलॉक का शोध समझाता है कि रामायण में कुछ भी अच्छा नहीं, सम्भवतः यह विचार भी नहीं-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

– धर्मवीर

वेद विज्ञान के प्रचार-प्रसार में आकण्ठ डूबे एक हृदय रोग विशेषज्ञः डॉ. सतीश चन्द्र शर्मा

वेद विज्ञान के प्रचार-प्रसार में आकण्ठ डूबे एक हृदय रोग विशेषज्ञः डॉ. सतीश चन्द्र शर्मा M.B.B.S, M.S, M.CH. (कार्डियोवास्कुलर सर्जरी) F.I.G.S., F.I.C.C., F.I.A.S.

काडियोथोरेसिक व वास्मुलर सर्जन

अपने व्यावसायिक कार्य में अत्यधिक व्यस्तता होने पर भी कोई प्रतिष्ठित चिकित्सक वेद-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए इतना समर्पित हो सकता है, यह अपने आप में चकित करने वाला है। उनसे मेरा परिचय कई वर्ष पूर्व बेंगलूरु में एक वैदिक विद्वान् के नाते हुआ और वह समबन्ध निरन्तर बना हुआ है। उनसे सबन्धित संक्षिप्त सा विवरण पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।    – समपादक

 

संक्षिप्त परिचय

डॉ. शर्मा बैगलौर में 26 वर्ष से कार्यरत सीनियर हृदय सर्जन हैं। विगत 30 वर्षों में आपने देश के विभिन्न सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में कार्य कर हजारों हृदय व वक्ष रोगियों को सर्जरी व स्वास्थ्य सेवायें प्रदान की हैं।

डॉ. शर्मा को M.B.B.S. डिग्री, सर्जरी में आर्नस के साथ (1978-79) तथा M.S. (जनरल  सर्जरी) (1982-83) से एस.एन. मेडीकल कॉलेज, आगरा विश्वविद्यालय, भारत के द्वारा समानित किया गया।

डॉ. शर्मा को M.CH..(कार्डियोवास्कुलर व थोरेसिक पोस्ट डोक्टोरल) डिग्री से 1986 में ‘‘पी.जी.आई. चण्डीगढ’’ संस्थान के द्वारा समानित किया गया।

1986 से 1988 तक डॉ. शर्मा ने ‘‘अपोलो अस्पताल चिन्नई’’ के हृदय सर्जरी विभाग में सर्जरी व स्वास्थ्य सेवायें प्रदान कीं।

1988 से 1989 तक ‘‘सैन्ट्रल इन्डिया इन्सटीट्यूट नागपुर’’ के हृदय सर्जरी विभाग को प्रारमभ किया तथा ओपन हार्ट सर्जरी सेवायें प्रारमभ की।

(1990-1995) में बैगलोर में वाई. डी. अस्पताल का हृदय सर्जरी विभाग प्रारम्भ किया व ओपन हार्ट सर्जरी प्रारम्भ की। अस्पताल के मेडीकल अधीक्षक भी रहे।

1996 में हृदय सर्जरी विभाग, सेन्ट विनसेन्ट अस्पताल पोर्टलैण्ड, यू.एस.ए. में विजिटिंग प्रोफेसर रहे तथा सर्जरी व स्वास्थ्य सेवायें प्रदान कीं।

1996 से वर्तमान समय तक बैगलौर में विभिन्न सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में हृदय सर्जरी  व स्वास्थ्य सेवायें प्रदान कर रहे हैं।

डॉ. शर्मा ने पिछले 20 वर्षों में पूरे देश व विदेशों में हृदय व वक्ष रोग चैरिटी परामर्श शिविरों में सेवायें देकर हजारों रोगियों की सर्जरी की तथा स्वास्थ्य लाभ दिया।

राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सभाओं में वक्तव्य दिये व निजी शोध कार्यों को राष्ट्रीय व अर्न्तराष्ट्रीय जनरलों में प्रकाशित किया।

कुछ निम्न पुरस्कारों से समानित किया गया

  1. रीव. एच. वैट्स फैलोशिप-हर्ट सर्जरी- 1994, 1 एक्ट के द्वारा
  2. स्टार-अहमद फैलोशिप-हर्ट सर्जरी-1995, पोर्टलैन्ड, अमेरीका
  3. ‘‘टैन आउट स्टैन्डिग यन्ग इन्डियन’’ अवार्ड-1995 मेडीकल इन्नोवेसन क्षेत्र में- जे.सी.भारत द्वारा
  4. ‘‘आउट स्टैडिंग परसन आफ वर्ल्ड’’ अवार्ड के 3 फायनलिस्ट में से एक चुने गये- जे.सी.इन्टरनेशनल शिकागो के द्वारा 1996

डॉ. शर्मा पिछले 40 वर्ष से आर्य समाज के पक्षधर हैं तथा 10 वर्ष से इन्द्रानगर आर्यसमाज बैंगलौर के ट्रस्टी हैं। पिछले 5-6 वर्ष से कार्यरत ‘‘विश्व वेद विज्ञान संस्थान’’ ट्रस्ट के संस्थापक व चैयरमैन हैं। इस ट्रस्ट का मुखय कार्य वैदिक ज्ञान-विज्ञान का सपूर्ण विश्व में प्रसार तथा शोध करना है। यज्ञ का मनुष्य, अन्य जीव व वातावरण पर प्रभाव को जानने के लिये दो विशाल यज्ञों में आधुनिक विज्ञान व मेडीकल साइन्स की सहायता से शोध किये गये। एक यज्ञ में गाय के शुद्ध घी की 6 करोड़ आहुतियाँ दी गयी थी तथा दूसरे सोमयज्ञ में 15 दिन तक शोध कार्य चला। शोध के परिणामों से हजारों डाटा लिये गये तथा विश्लेषण के बाद निश्चय किया गया कि यज्ञ के द्वारा वर्षा, वायुमण्डल शुद्धि, जीव स्वास्थ्यवर्धन तथा हानिकारक वैक्टीरिया कम हुये। डॉ. शर्मा ने वैदिक व आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का समन्वय करके बहुत सारे अनुसन्धानपरक कार्य देश-विदेश में किये हैं।

 

कर्म फल की समस्या

कर्म फल की समस्या

– श्री पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

(स्थूल रूप में तो कर्म फल व्यवस्था को प्रायः सभी मानते हैं, परन्तु सूक्ष्म रूप में चिन्तन करते समय विषय की स्पष्टता कई बार कुछ लोगों को अस्पष्ट-सी लगने लगती है, धुंधली पड़ जाती है। आर्य समाज की पुरानी पीढ़ी के मौलिक चिन्तक, विचारक एवं विद्वान् श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का इस विषय में एक उपयोगी एवं प्रासांगिक लेख पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है – समपादक)

कर्म फल की समस्या समस्त धार्मिक समस्याओं में विकटतम समझी जाती है। यह इतनी जटिल है कि बहुतों ने अपना पीछा छुड़ाने के लिए इसके मानने से इन्कार कर दिया है। ईसाई और मुसलमान भारतीयों के पुनर्जन्मवाद पर व्यङ्ग उड़ाते हुए, इसको कर्म फल की भूल-भुलइयाँ बताया करते हैं। वह समझते हैं कि इस व्यंग से वह समस्या की जटिलता से बच सकेंगे। जो लोग पुनर्जन्म को मानते हैं, उनके सिद्धान्त भी भिन्न-भिन्न हैं। हम देखते हैं कि बहुत से लोगो ंने इस विषय में अपने-अपने सिद्धान्तों की कल्पना कर ली है। ये कल्पनाऐं आगे चल कर कितनी आपत्तियाँ उत्पन्न कर देती हैं। इसका अनुभव वही लोग कर सकते हैं जिन्होंने समस्याओं के मूल तक पहुँचने का श्रम उठाया हो, यों तो मन को सान्त्वना सभी दे लेते हैं, परन्तु यह सान्त्वना स्थिर होनी चाहिए। क्षणिक सान्त्वना से कुछ काम नहीं चलता और प्रायः यह भ्रान्ति-मूलक तथा व्यवहार अवस्था में दुखदायी होती है। हम बहुत से अकर्त्तव्य कर्म इसीलिए कर बैठते हैं, या कर्त्तव्य कर्मों से जी चुराते हैं कि हमको कर्म और फल की समस्याओं का उचित ज्ञान नहीं।

पहला प्रश्न यह है कि कर्म फल की समस्या का विचार कहाँ से आरमभ किया जाए, जब तक आरमभ बिन्दु (starting point) निश्चित न हो जाए, उस समय तक हम अवश्य ही भूल भुलइयों में पड़े रहेंगे और किसी निश्चित परिणाम पर न पहुँच सकेंगे।

जिन लोगों ने कर्म फलवाद के सिद्धान्तों से इनकार कर दिया है और जो इस सिद्धान्त को मानते हैं, उनमें क्या कोई सादृश्या भी  है।

थोडी देर उनके भावों का विश्लेषण कीजिए। कर्म फलवाद का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक को दुःख और सुख अपने कर्मों द्वारा मिले। जो जैसा करे वह वैसा पावे। यह सिद्धान्त सभी लोगों को अभिमत है। यदि इससे सर्वथा इन्कार कर दिया जाए, तो संसार का कोई काम न चले। किसी पुरुष को यह सह्य नहीं है कि वह काम करे और उसका उसको फल न मिले या दूसरा आदमी काम न करे और उसको फल मिल जाए।

किसी स्कूल के विद्यार्थियों से पूछो, परीक्षा का समय है प्रश्न-पत्र हाथ में है, सभी उसको हल करने का यत्न कर रहे हैं। क्यों? इसलिए कि जो सबसे अच्छा पर्चा करेगा उसको सबसे अधिक अंक मिलेंगे। उसकी सबसे अधिक कीर्ति होगी। कल्पना कीजिए कि मोहन ने सबसे अच्छा पर्चा किया और सोहन ने सबसे बुरा। अब अगर मोहन को सबसे कम नबर मिलें और सोहन को सबसे अधिक तो इसका क्या परिणाम होगा। सोहन को हर्ष अवश्य होगा, परन्तु मोहन के जी से पूछो! मोहन कहेगा, ‘‘इस अन्धेर नगरी में रहने से क्या लाभ जिसमें टके सेर भाजी ले लो या टके सेर खाजा। मैं क्यों श्रम करूं जब मुझे कुछ नहीं मिलना।’’ सोहन की यह खुशी भी क्षणिक ही होगी। क्योंकि सोहन यह समझेगा कि बिना परिश्रम के मुझे नबर मिल सकते हैं अतः मुझे श्रम करने की क्या आवश्यकता थी। ऐसी व्यवस्था न तो अध्यापकों को सह्य होगी और न विद्यार्थियों को।

किसी कारखाने को लीजिए। एक अध्यक्ष के अधीन सैकड़ों आदमी काम करते हैं उनकी योग्यता, बुद्धि तथा श्रम के अनुकूल उनको वेतन दिया जाता है, जो अधिक योग्यता का कार्य करते हैं उनको अधिक रुपया मिलता है। जो अति साधारण कार्य करते हैं उनको वेतन भी अल्प होता है। यदि किसी कारखाने का अध्यक्ष इसके विपरीत करने लगे और अकर्मण्य को अधिक वेतन और परिश्रमशील को कम दे तो सभी कार्य-कर्त्ता निरुत्साह हो जाएँ और असन्तोष की आग कारखाने को शीघ्र ही भस्म कर दे।

किसी राज्य पर दृष्टि डलिए। राज्य क्या है! एक बड़ा भारी कारखाना है। जिसमें भिन्न-भिन्न योग्यता के भिन्न-भिन्न मनुष्य कार्य कर रहे हैं और अपने-अपने कर्मों के अनुकूल फल पा रहे हैं, सबसे उल्लंघन होता है और इस नियम की अधिक उच्छृंखलता ही उस राज्य की अधोगति का चिन्ह है।

ये तीन दृष्टान्त विद्याथियों, कारखानों और राज्य के जो हमने यहां दिए कर्मफलवाद के मानने वालों और न मानने वालों दोनों में समान ही हैं। अर्थात् इतना कर्मफलवाद सभी को माननीय है। अन्य पारलौकिक सिद्धान्त चाहे कुछ भी क्यों न हो।

यह सिद्धान्त इतना सर्वतन्त्र क्यों है? क्या कारण है कि इस सिद्धान्त से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता? शायद आप कहें कि कुछ लोग इसके विरोधी हैं। नवुयग का जो दल सामयवादी कहलाता है, वह योग्यता और श्रम पर विचार नहीं करता। वह चाहता है कि संसार के सभी मनुष्य समान सुख और समपत्ति को भोग सकें, परन्तु सामयवादी भी वस्तुतः इतने सामयवादी नहीं है कि वह कर्मफल के बन्धन को तिलांजलि दे दें। वह केवल अन्धेर नगरी को मिटाना चाहते हैं। कभी-कभी समाज इतना पतित हो जाता है कि निठल्ले लोग हलवा खाते हैं और श्रमशील भूखों मरते हैं। जब यह बात पराकाष्ठा को पहुँच जाती है तो एक समय आता है कि समाज में उसके प्रति घृणा उत्पन्न होकर सामयवाद की लहर चलती है। जहाँ-जहाँ ऐसी क्रान्ति करने की आावश्यकता पड़ी है, वहाँ वस्तुतः कर्मफल के बन्धनों से लोग मुक्त हो चुके थे। यह क्रान्ति उन बन्धनों को फिर से स्थापना के लिए ही हुई।

इससे यह सिद्ध हो गया कि यह सर्वतन्त्र ही है। कोई इससे इन्कार नहीं कर सकता। सर्वतन्त्रता बताती है कि यह सिद्धान्त सर्वव्यापी भी होना चाहिए। यह मेरे या आपके या किसी एक मनुष्य समूह के मस्तिष्क की उपज होता तो कोई न कोई तो उसका विरोधी अवश्य ही मिलता, परन्तु ऐसा नहीं है। इससे हम कह सकते हैं, कि वे नियम प्राकृतिक या अपौरुषेय हैं, मनुष्य की गढन्त नहीं।

अगर हम यह मान लें कि जैसा करेंगे वैसा ही, भोगेंगे तो यह भी मानना आवश्यक ही है जैसा भोग रहे हैं वैसा ही किया होगा, जो आज की अपेक्षा भविष्य है वह कल की अपेक्षा वर्तमान या भूत हो जायेगा और जो आज वर्तमान या भूत है, वह कुछ दिन पहले अवश्य ही भविष्य रहा होगा। यह कल्पना नहीं किन्तु अकाट्य युक्ति है जिसका खण्डन हो ही नहीं सकता।

मैं इस पिछली बात को और अधिक स्पष्ट कर दूं। हर एक ईसाई और मुसलमान को पुनर्जन्म या कर्मफलवाद मान्य नहीं। वह मानता है कि यदि धर्म के अनुकूल चलोगे, तो भविष्य में आनन्द या स्वर्ग मिलेगा और यदि अधर्म पर चलोगे तो दुःख या नरक भोगोगे। यह क्यों? इसलिए ‘‘जैसा बोवोगे वैसा काटोगे’’ का सिद्धान्त उसको अभिमत है। यदि वह ऐसा न मानें तो अपने धर्म का उपदेश क्यों करे? यदि उसके बताए हुए धर्म पर न चलने से भी सुख या स्वर्ग मिल सकता है तो उसके उपदेशों से क्या लाभ?् यह रही भविष्य की बात, परन्तु किसी ईसाई या मुसलमान  से पूछो कि तुमहारा वर्तमान अगर अभी भविष्य हो जाएगा तो क्या तुमहारा यह वर्तमान किसी भूतकाल का भविष्य न रहा होगा अर्थात् यदि आज के धार्मिक कृत्य अगले सुख का कारण हो सकते हैं तो आज के सुख किसी पिछले कर्म का फल क्यों न होंगे? या तो यह मानों कि  हमारा यह वर्तमान ऐसा वर्तमान है, जिसका भूतकाल है ही नहीं और यदि इसका कोई भी भूतकाल है, तो इन वर्तमान सुख या दुःखों का कारण अवश्य रहा होगा।

अब विचार कीजिए। आप यह मानते हैं कि हमारे आने वाले सुख या दुखों का कारण हमीं होंगे, दूसरा कोई नहीं, यदि दूसरा हो तो हम अपने कर्म में स्वाधीन नहीं। हम तो परतन्त्र हो गए। कैसे? सभवतः आप नहीं समझे, फिर सोचिए। यदि मेरे सुखों का कारण दूसरे किसी व्यक्ति के कर्म हो सकते हैं, तो मेरा सर्वस्व उस व्यक्ति के अधीन हो गया। मैं क्या कर सकता हूँ? मुझे तो उसका ही मुख ताकना चाहिए। क्योंकि जैसा वह करेगा वैसा पाऊँगा। क्या यह कर्म की स्वतन्त्रता है? कदापि नहीं, मैँ तो उसी के आश्रय हो गया जिसके कर्मों से मुझे फल मिलेगा। कल्पना कीजिए कि पिता के कर्मों का फल पुत्र के सुख या दुःख का कारण होता है। तो पुत्र अपने कर्मों में स्वतन्त्र कैसे रहा? वह तो पिता की इच्छा के अधीन हो गया। पिता चाहे तो उसके लिए दुःख का सामान कर दे और चाहे सुख का।

कुछ लोग आसानी के लिए यह मान बैठते हैं कि हमारे कुछ सुख और दुःख का कारण हमारे कर्म हैं और कुछ का हमारे पिता के कर्म, परन्तु यदि यह नियम मान लिया जाए तो यह प्रश्न उठेगा कि अपने कर्म गौण या पिता के कर्म या दोनों की प्रतिष्ठा समान रूप से है। यदि एक के कर्मों को गौण और दूसरे के कर्मों को मुखय माना जाए तो कोई व्यवस्था न बन सकेगी क्योंकि गौणता और मुखयता के लक्षण करने के लिए किसी तीसरी निरपेक्ष वस्तु की आवश्यकता होगी। समान रूप मानने का कोई अर्थ ही नहीं। क्या पिता और पुत्र के कर्म का एक ही मूल्य है और यदि है तो क्यों? सारांश यह है कि इस सिद्धान्त के मानने में इतनी आपत्तियाँ हैं कि हम को इससे कुछ भी शान्ति नहीं मिल सकती।

अच्छा तो यह मान ही लेना पड़ा कि हमारे वर्तमान अच्छे या बुरे कर्मों का फल आगे के सुख या दुःख के रूप में मिलेगा। अब प्रश्न रहा वर्तमान के सुख और दुःख का। यह सुख और दुःख हम भोग रहे हैं हमारे ही कर्मों का फल होना चाहिए। न्याय दर्शन में कहा भी हैः-

पूर्वकृतफलानुबन्धात् तदुत्पत्तिः।। (3-2-60)

अर्थात् पहले किये हुये कर्मों के फल से शरीर आदि की उत्पत्ति होती है।

हम जब से उत्पन्न होते हैं उसी समय से दुःख या सुख हमको होते रहते हैं।

पापों से छुटकारा और महर्षि दयानन्द

पापों से छुटकारा और महर्षि दयानन्द

– पं. महामुनि शास्त्री विद्याभास्कर

[यह लेख आर्य मर्यादा साप्ताहिक के 28 फरवरी 1971 के अंक में प्रकाशित हुआ था। सैद्धान्तिक दृष्टि से लेख की उपयोगिता को देखते हुए, पाठकों के लाभार्थ हमने प्रस्तुत किया है।  – समपादक]

[27 सितबर 1970 के ‘आर्य मित्र’ में श्री पं. मदन मोहन जी विद्यासागर महर्षि दयानन्द मार्ग हैदराबाद के ‘पापों को क्षमा कर’ नामक लेख के उत्तर में]

स्वाध्यायशील आर्य जनों को सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के पठन-पाठन से महर्षि दयानन्द जी का निमनलिखित मन्तव्य सूर्य प्रकाशवत् विदित है- ‘जो मनुष्य जैसा शुभ-अशुभ कर्म करता है, वह उसके तदनुरूप फल को अवश्य प्राप्त करता है। कोई भी कृतकर्म निष्फल नहीं जाता। किया हुआ शुभाशुभ कर्म का फल यथाकाल समय पर कर्ता को भोगना ही पड़ता है।

कर्मफल स्वयमेव नहीं मिलता, उसको देने वाला परमेश्वर है। वह किसी के साथ पक्षपात (रियायत व ज्यादती) नहीं करता। कर्मानुसार यथोचित व्यवहार करता है। इत्यादि।

परन्तु कहीं-कहीं ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना के प्रकरण में श्रद्धालु विचारशील साधकों को ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी महाराज भी अपने पूर्वोक्त सिद्धान्त के विपरीत अन्य पन्थाइयों के समान कह रहे हैं। इसका समाधान होना चाहिये।

इसलिये ‘पाप को क्षमा कर’ नामक लेख में प्रदर्शित स्थलों के सबन्ध में भी समाधान प्रस्तुत किये जाते हैं।

प्रथम विचारशील जनों को यह बात हृदयङ्गम कर लेनी (समझ लेनी) चाहिये कि भाषा की रचना विद्वान् जन प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही किया करते हैं। प्रत्येक विषय का अपना-अपना उद्देश्य होता है, वह उद्देश्य सतत् (उस-उस) विषय की भाषा से पूर्ण होना चाहिये, इसी में वक्ता की सफलता समझी जाती है।

महर्षि दयानन्द जी का बनाया हुआ ‘आर्याभिविनय’ नामक ग्रन्थ ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना रूप विषय का प्रतिपादक है।

स्तुति कहते हैं- गुण-कीर्तन (गुणवर्णन) को, प्रार्थना=माँगना याचना, उपासना= समीपस्थिति (समीप होना) अर्थात् ईश्वर के स्वरूप में मग्न होना। स्तुति से ईश्वर के प्रति प्रेमभाव की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। प्रार्थना से निरभिमानिता, सामर्थ्य और सहायता की प्राप्ति होती है। उपासना से तल्लीनता (ईश्वर के स्वरूप में मग्न हो जाना) और ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति होती है।

दूसरी बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिविनय (ईश्वर के प्रति नम्रता प्रदर्शन वा ईश्वर को सर्वव्यापक समझ कर आत्म समर्पण आदि) में भाषा के भावों को सिद्धान्तानुसार ढ़ालना (निकालना) चाहिये। अभिविनय के शदों से किन्हीं सिद्धान्त विशेषों का निर्माण करना (निकालना) अनुचित होगा। अर्थात् जहाँ-जहाँ सिद्धान्त की भाषा में और अभिविनय की भाषा में विरोधाभास (विरोध प्रतीत) हो, वहाँ विरोधपरिहारार्थ (विरोध दूर करने के लिए) अभिविनय की भाषा के भावों को ही सिद्धान्तानुसार ढ़ालना (निकालना) होगा, क्योंकि अभिविनय (स्तुति प्रार्थना) की भाषा काव्यमयी (चमत्कारपूर्ण) लचक वाली हुवा करती है तथा सिद्धान्त की भाषा सदा कठोर (दृढ़) और अपरिवर्तनशील होती है।

मान्यवर विद्वान् पं. विद्यासागर जी ने आर्याभिविनय के चारस्थल शंकनीय समझकर विचारार्थ प्रस्तुत किये हैं। अब उन पर क्रमशः विचार किया जाता है।

  1. 1. आर्याभिविनय की द्वितीय प्रकाश के प्रथम मन्त्र की व्याखया में लिखा है- ‘[मनसा वाचा कर्मणा अज्ञानेन प्रमादेन वा सद् यत् पापे कृतं मया, तत्तत् सर्वं कृपया क्षमस्य। ज्ञानपूर्वकपापकरणान्निवर्त्तय माम्। मन से, वाणी से और कर्म से अज्ञान वा प्रमाद से जो-जो पाप किया हो, किंवा करने का हो, उस-उस मेरे पाप को क्षमा कर (और) ज्ञानपूर्वक पाप करने से भी मुझे रोक दे।] जिससे शुद्ध होके मैं आपकी सेवा में स्थित होऊँ।’

समाधान पूर्वोक्त सन्दर्भ में शंकराऽस्पद (शंका का विषय) पद ‘क्षमस्व’ (क्षमा कर) है। महाभाष्यकार आचार्य पतञ्जलि जी का वचन है- ‘अनेकार्था अपि धातवो भवन्ति।’ अर्थात् ‘धातूनामनेकार्थाः’। इसका भाव यह है कि धातु पाठ में जो धात्वर्थ (धातुओं के अर्थ) आचार्य पाणिनि जी ने लिखे हैं केवल वही अर्थ उन धातुओं के नहीं है अपितु उन अर्थों से भिन्न भी अनेक अर्थ उन धातुओं के होते हैं। वे प्रकरणानुसार विद्वानों को समझ लेने चाहिये। धातुपाठ के वादिगण में ‘क्षमूष् सहने’ ऐसा पढ़ा है तथा सह् धातु का अर्थ- ‘षहमर्षणे’ ऐसा पढ़ा है। मर्षण शबद के अनेक अर्थों में एक अर्थ पृथक्करण= दूर करना परे हटाना (जुदा करना) भी है। जैसे सन्ध्या के ‘अघमर्षण’ मन्त्रों का अर्थ करते हुए ‘मर्षण’ पद का यही पूर्वोक्त अर्थ (दूर करना) स्वामी जी महाराज ने किया है।

पाप का दूरीकरण वा छुड़ाना क्या है? अकृत पाप को अपने पास अर्थात् मन में भी न आने देना, तथा कृत पाप का पुनः (दो बार तीन बार आदि) न होने देना ही पाप का दूरी करण है।

‘क्षमस्व’ इस क्रिया पद से पूर्व ‘कृपया’ पद भी पठित है जिसका अर्थ है ‘सामर्थ्य के द्वारा’ ईश्वर की सामर्थ्य क्या है? प्राकृतिक नियम ही ईश्वर की सामर्थ्य है। इस विषय में (सुख-दुःख प्राप्ति के सबन्ध में प्राकृतिक (ईश्वरीय) नियम है- ‘धर्मात् सुखम् अधर्माद् दुःखम्’ अर्थात् धर्माचरण से सुख प्राप्ति और अधर्माचरण से दुःख प्राप्ति होना। नियम तोड़ना वा नियम विरुद्ध करना ईश्वर की सामर्थ्य नहीं है। इसलिए ‘क्षमस्व’ पद का अर्थ कृत (किये हुए) पाप कर्म के फल को ‘माफ कर दो= न दो- नष्ट कर दो’ ऐसा समझना भूल है। क्योंकि पूर्वोक्त अर्थ का स्पष्टीकरण (खुलासा) स्वामी जी महाराज ने स्वयमेव इसी वाक्य के अन्तिम पद ‘निवारयतु’ से कर दिया है। अर्थात् ‘क्षमस्व’ और ‘निवारण’ दोनों पद यहाँ पर्यायवाची (एकार्थक) हैं। हिन्दी भाषार्थ में जो ‘क्षमस्व’ का ‘क्षमा कर’ किया है, यहाँ भी क्षमा का अर्थ निवारण (दूर करना) ही उपयुक्त (ठीक) है, क्योंकि भाषार्थ में एक वाक्यांश है- ‘किंवा करने का हो’। जो पाप कर्म अभी तक कर्मणा वाचा मनसा (कर्म वाणी व मन से) किया ही नहीं है, उसको क्षमा कर अर्थात् उसका फल न दो, माफ कर दो, नष्ट कर दो, यह करने का क्या अर्थ? क्षमा का निवारण अर्थ स्वीकार करने पर तो अर्थ की संगति बैठ जाती है, उसका निवारण यही है कि- वह हमारे पास कभी न आने पावे, उसकी मन से भी किञ्चित् इच्छा भी न हो।

अन्यच्च- यहाँ (इस प्रकरण में) ‘क्षमस्व’ (क्षमा) का अर्थ निवारण न मानकर ‘फल न देना’ मानने पर अग्रिम (अगला) वाक्य ‘जिससे शुद्ध होके…’ इत्यादि असंगत हो जावेगा, क्योंकि आत्मा की शुद्धि (निर्मलता) ज्ञानपूर्वक पाप कर्म के त्याग करने से ही हो सकती है। पाप करने और उसका फल न मिलने से तो पापाचरण अधिक होकर आत्मा की मलिनता घटने की अपेक्षा अधिक बढ़ेगी। दुःखित होने पर ही मनुष्य दुःख के कारण को दूर करने का प्रयत्न करत है, अन्यथा नहीं।

इसलिये यहाँ पर क्षमा का अर्थ ‘दूर करना’ अर्थात् निवारण ही वक्ता को अभिप्रेत है। ऐसा समझना चाहिये। क्षमा के निवारण अर्थमें वेद का भी प्रमाण है। तद्यथा-

ओम् शं च नो मयश्च नो मा चनः किञ्चनाममत्।

क्षमारपो विश्वं नो अस्तु भेषजं सर्वं नो अस्तु भेषजम्।।

– अथर्व. काण्ड 6, सूक्त 57, मन्त्र 3

इस मन्त्र में पठित ‘क्षमा’ पद का अर्थ ‘क्षम्’ धातु का अर्थ निवारण (उपशमन) अर्थ ही संगत बैठता है। ऐसा ही अर्थ सायणाचार्य और पं. क्षेमकरण दास जी आदि भाष्यकारों ने भी किया है।

मनुस्मृति का प्रमाण-

क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वासो दानेनानिसृकारिणः।

प्रच्छन्नपापा जप्पेन तपसा वेदवित्तमाः।

– मनु. अ. 5, श्लोक 107।

संस्कारविधि गृहाश्रम प्रकरण।

‘विद्वान् लोग क्षमा से शुद्ध होते हैं।’ यहाँ भी क्षमा का अर्थ कुकाम, कुक्रोध, कुलोभ आदि मानसिक विकारों का उपशमन अर्थात् मन से पृथक्करण (दूर हटाना) अर्थ ही अभिप्रेत है।

  1. द्वितीय शंका स्थल- ‘आप जिसको चाहो उसकी ऐश्वर्य देओ’। आ.द्वि.प्र.मं. 11 इस पर अन्य टिप्पणी मान्यवर पण्डित जी ने नहीं लिखी (की)। मेरे विचार में इस वाक्य को इसलिए शंकित समझा गया है कि इससे यह ध्वनित होता है कि कर्मफल देना, न देना, न्यूनाधिक देना तथा कर्म किये बिना भी अच्छा-बुरा फल दे देना ईश्वराधीन है। जैसे ईसाई, मुसलमान आदि मतवादी मानते हैं कि ईश्वर स्वतन्त्र है, वह अपनी इच्छा से सब कुछ कर सकता है। इत्यादि।

समाधान ‘आप जिसको चाहो, उसको ऐश्वर्य देओ।’ इस वाक्य से पूर्व (प्रथम) और ऊपर (पश्चात्) वाक्य इस प्रकार है-

‘आप के ही स्वाधीन सकल ऐश्वर्य है। अन्य किसी के नहीं। आप जिसको चाहो, उसको ऐश्वर्य देओ। सो आप कृपा से हम लोगों का दारिद्रय छेदन करके हमको परमैश्वर्य वाले करे, क्योंकि ऐश्वर्य के प्रेरक आप ही हैं।’ यहाँ प्रथम वाक्य में- ‘आप के ही स्वाधीन सकल ऐश्वर्य है’ इस वाक्य में ‘आप के ही आधीन…. है’ ऐसा कथन न करके ‘स्व’ शबद जो अधिक सन्निवेश किया है, उसका यह अर्थ (अभिप्राय) है- आपका जो ‘स्व= प्राकृतिक (ईश्वरीय) नियम, उसके आधीन सकल ऐश्वर्य है तथा ‘सो आप कृपा से इत्यादि वाक्य में कृपा से’ (कृपया) पद भी पूर्वोक्त नियम का ही बोधक है। किसी को ऐश्वर्य देने और न देने के विषय में ईश्वरीय नियम क्या है? इस विषय में आर्ष वचन है।

  1. ‘न ऋते श्रान्तस्य सयाय देवाः’।
  2. ‘इन्द्र इच्चरतः सखा।’ इत्यादि।
  3. अर्थ- जब तक मनुष्य किसी प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये पूर्ण (शक्तिभर) परिश्रम करके सर्वथा श्रान्त (थका हुआ) नहीं हो जाता, तब तक परमदेव परमात्मा उसकी मित्रता के लिए अभिमुख नहीं होता अर्थात् उसको मनोवाञ्चित फल नहीं देता।
  4. इन्द्र= ऐश्वर्य का दाता परमेश्वर परिश्रम करने वाले का ही मित्र है, आलसी, प्रमादी का नहीं। इत्यादि आर्ष वचनों को जानता हुआ ही ज्ञानी भक्त ज्ञानूर्वक परिश्रम (उद्योग) करता है। उसको दृढ़ विश्वास है कि मेरा भगवान् न्यायकारी है, मेरे परिश्रम का फल अवश्य देगा।

किंवा वस्तुतः चाहना (इच्छा करना) ईश्वर में घटता ही नहीं, क्योंकि ईश्वर तो सर्वज्ञ, सर्वव्यापक होने से आप्तकाम है। इच्छा करने वाला (अपूर्णमनोरथ) तो एक देशी (परिछिन्न) अल्पज्ञ अल्प शक्ति जीव है। उसी का गुण इच्छा है। ईश्वर में इच्छा गुण नहीं घट सकता। अतः ‘जिसको चाहो’ का अर्थ (अभिप्राय) होगा- ‘जिसको आप अधिकारी समझो’ उसको ऐश्वर्य दीजिये।

  1. तृतीय शंका स्थल-जैसी आपकी इच्छा हो वैसा हमारे लिए आप कीजिये ‘आ. द्वितीय प्रकाश’ मन्त्र 13.

समाधान स्वकीय आयु प्राण इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आत्मा आदि सर्वस्व का समर्पण करने के पश्चात् ही ये पूर्वोक्त शबद ज्ञानी भक्त ने कहे हैं। यहाँ तो स्पष्ट रूप से इच्छा शबद का अर्थ (भाव) न्याय (नियम) ही है, इन शबदों से भक्त का भगवान् के न्याय के प्रति पूर्ण विश्वास ही प्रकट होता है।

  1. चतुर्थ शंका स्थल- आ.द्वि.प्र. 17वें मन्त्र में पठित ‘अङ् घारि’ और ‘मार्जालीयः’ इन पदों के अर्थ हैं यथा-

‘अङ्घारिः’= स्व भक्तों का जो अघ (पाप) उसके अरि (शत्रु) हो। उस समस्त पाप के नाशक हो।

मार्जालीय= पापों का मार्जन (निवारण) करने वाले आप ही हो। अन्य कोई नहीं।

समाधान जिस प्रकार बीज से वृक्ष पैदा होता है और वृक्ष से पुनः उसका उत्पादक बीज बन जाता है। उसी प्रकार कुसंस्कार से कदाचार (कुकर्म) होता है तथा उस कदाचार से पुनः तत्सदृश कुसंस्कार बन जाता है, उस कुसंस्कार से पुनरपि कदाचार होगा।

यहाँ उसी कुसंस्कार आदि पाप को अंहस् (वा अघ) शबद से कहा गया है। उस कुसंस्कार आदि पाप का शत्रु= शातयिता छिन्न-भिन्न करने वाला अर्थात् नाशक परमात्मा ही है, क्योंकि परमेश्वर की उपासना के बिना कुसंस्कार आदि पापों का सर्वथा नाश नहीं हो सकता। उसकी उपासना से ही पापकर्म मूल सहित छिन्न-भिन्न वा भस्मीभूत हो सकता है। इसीलिये स्वामी जी महाराज ने मन्त्रार्थ में- ‘उस (कारण कार्य रूप सूक्ष्म स्थूल) समस्त पाप के नाशक हो।’ ऐसा कहा है।

मार्जालीयः= पापों का मार्जन, शोधन, निवारण वा पृथक् करण का भाव यही है कि जो दुष्ट कर्म हम से हो जाते हैं, जिनको हम अपने लिए हानिकारक  (अनिष्टकर) समझते हैं, परन्तु अज्ञान, प्रमाद आदि दोषों (कमजोरियों) के कारण हमसे बार-बार हो जाते ळैं, उनको हमसे छुड़ाने वाले अर्थात् वे पाप कर्म हमसे फिर कभी न हो, ऐसा हम परमात्मा की सहायता (ज्ञान व शक्ति की प्राप्ति) से ही कर सकते हैं। यह भाव है। जो परमात्मा के न्याय पर पूर्ण विश्वास करके उसकी वेदोक्त आज्ञाओं का पालन करने वाला है, वही वास्तव में परमात्मा का भक्त है (उसको ही परमात्मा का भक्त कहना चाहिये) ऐसा भक्त यह कभी नहीं सोच सकता कि वेद (ईश्वरीय नियम) विरुद्ध आचरण तो करता रहूँ, परन्तु उसका कुफल मुझे न मिले अथवा उस कुफल को ईश्वर नष्ट कर देवे वा ईश्वर उसको नष्ट कर सकता है।

  1. पच्चम शंका स्थल- ‘हम सब मनुष्यों के भी पाप दूर करने वाले एक आप ही दयामय पिता हो, हे महा अनन्त विद्य! जो-जो मैंने विद्वान् वा अविद्वान् होके (अर्थात् जाने-अनजाने) पाप किया हो, उन सब पापों का छोड़ने वाला आपके बिना कोई भी इस संसार में हमारा कारण नहीं।’ (आ.2, यप्र.मं. 18) इन वाक्यों में भी वही पाप क्षमा की बात कही गई है।

समाधान इस पूर्वोक्त (ऊपर लिखे) आर्य मित्र में छपे पाठ में तथा आर्याभिविनय ग्रन्थ के पाठ में कुछ अन्तर (मिलता) है। तद्यथा- ‘और हम सब मनुष्यों को भी पाप से दूर रखने वाले एक आप ही दयामय पिता हो, हे महाऽनन्तविद्य! जो-जो मैंने विद्वान् वा अविद्वान् होके पाप किया हो, उन सब पापों का छुड़ाने वाला आपके बिना कोई भी इस संसार में हमारा शरण नहीं है। इस हमारे अविद्या आदि सब पाप छुड़ा के शीघ्र हमको शुद्ध करो।’ (आ. 2 यप्र. मं. 19वाँ) मनुष्यों के पाप दूर करने में और मनुष्यों को पाप से दूर रखने में किञ्चित अन्तर (मिलता) है।

प्रथम में तो चोरी, जारी, शराब से खोरी, मिथ्या व्यवहार आदि बुरी आदतें- (कर्म) जिनमें मनुष्य ग्रस्त है, उनका छुड़ाना अभिप्रेत है।

द्वितीय में जो बुरे कर्म (बुरी आदत) मनुष्य से अभी तक समबद्ध नहीं है, जिनमें फंसना समभव है, उनसे मनुष्य बचा रहे, कभी लिप्त न हो। यह भाव है। दोनों कार्य शुभ (अच्छे) हैं। दोनों के उपाय भी भिन्न-भिन्न हैं। आगामिनी (आने वाली) बुराई (पापकर्म) के कुफल (बुरा परिणाम) समझा कर अत्यन्त प्रत्यक्ष दिखाकर (उदाहरण द्वारा पुष्ट करके) पापकर्म से मनुष्य को दूर रक्खा जा सकता है तथा उस पापकर्म से विपरीत शुभ कर्म के अच्छे परिणाम उदाहरण आदि द्वारा समझाकर शुभ कर्म में प्रेरित करके भी पापकर्म से मनुष्य को पृथक् रखा जा सकता है।

इसी प्रकार मनुष्य से समबन्ध पापकर्म को छोड़ने के भी अनेक उपाय हैं। कुछ मनुष्य प्रेमपूर्वक समझाने मात्र से ही बुराई करना छोड़ देते हैं और अच्छे कर्म करने लग जाते हैं। कुछ मनुष्य पापकर्म के कठोर भाषा में भयङ्कर परिमाण दिखाने से बुरा कर्म त्याग देते हैं। कुछ मनुष्य ताड़ना आदि कठोर उपायों का अवलमबन (आश्रय) करने से बुरा कर्म छोड़ जाते हैं। पूर्वोक्त सभी उपाय पाप छुड़ाने वाले ही कहे जाते हैं। इसी प्रकार परमात्मा भी अनेक उपायों से यथायोग्य रीति से मनुष्यों को पापों से दूर रखता है और अनेक पापों को छुड़ाता है।

आशा है मेरे पूर्वोक्त समाधानों से विचारशील स्वाध्यायशील श्री मान्यवर पं. मदनमोहन जी विद्यासागर आदि सज्जन महाशयों की कुछ सन्तुष्टि हुई होगी। आशा है इसी रीति से, इसी प्रकार के अन्य सन्देहास्पद स्थलों का भी समाधान विद्वान् जन कर लेवेंगे। इति।

 

स्वतन्त्रता-दिवस पर ऋषि दयानन्द का उल्लेख न होना भय या अज्ञान

स्वतन्त्रता-दिवस पर ऋषि दयानन्द का उल्लेख न होना भय या अज्ञान

अभी-अभी देश ने स्वतन्त्रता-दिवस उत्साहपूर्वक मनाया। कांग्रेस की सरकार स्वतन्त्रता-दिवस को नेहरू-गांधी तक सीमित रखने का प्रयास करती थी। नेहरू परिवार को ही देश मान बैठी थी। मोदी सरकार के आने से इस विचार में परिवर्तन आया है। आज देश के क्रान्तिकारियों का, साधु-सन्तों का, देश के महापुरुषों का उल्लेख सरकारी कार्यक्रमों में होने लगा है। सावरकर, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे लोगों को सरकार ने अछूत समझ रखा था, आज उनका समानपूर्वक उल्लेख होता है। उनके चित्र दिखाये जाते हैं।

इस वर्ष स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर आजादी नाम से एक चित्र पन्द्रह अगस्त को दूरदर्शन पर दिखाया जा रहा था। उसमें बहुत सारे क्रान्तिकारियों, महापुरुषों, राजनेताओं के चित्र गीत-संगीत की पृष्ठभूमि में चल रहे थे। प्रस्तुति बहुत अच्छी थी, उसमें शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द के चित्र थे। अन्य धार्मिक महापुरुषों के भी चित्रों की झलक थी। राजनेताओं की चर्चा देश के साथ स्वाभाविक है। इस सबमें एक खटकने वाली बात लगी कि कहीं भी ऋषि दयानन्द का उल्लेख इसमें दिखाई नहीं दिया।

लाल किले की प्राचीर से भाषण प्रारभ करते हुए तथा भाषण के मध्य प्रधानमन्त्री मोदी ने बहुत सारे व्यक्तियों का नामोल्लेख किया। महात्मा गांधी के गुरु की अंहिसा की परिभाषा बताई। आचार्य रामानुज के समाज सेवा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए ऊँच-नीच के भेद, अस्पृश्यता सबन्धी उनके विचारों का उल्लेख भी किया। पंजाब के चुनावों को ध्यान में रखते हुए गुरु गोविन्द सिंह की साड़े तीन सौ वीं जयन्ती का एकाधिक बार नाम लिया। भाषण प्रारमभ करते हुए विवेकानन्द को वेद से भी जोड़ दिया, जबकि बेचारे विवेकानन्द का वेद से कितना समबन्ध है, यह वेद जानने वाले भली प्रकार जानते हैं। हमारे हिन्दुत्त्ववादी विवेकानन्द के विचारों को ही वेद समझ लें, तो इनका कोई दोष नहीं है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि जब आप आचार्य रामानुज की बात कर रहे हैं, आचार्य शंकर का नाम ले रहे हैं, गुरु गोविन्दसिंह की चर्चा हो रही है, वेद का प्रकरण चल रहा है, तब ऋषि दयानन्द इस चर्चा से कैसे ओझल हो गये? दुनियाँ में दयानन्द को कोई किसी से जोड़े या न जोड़े परन्तु वर्तमान युग में वेद और दयानन्द पर्याय हैं। आप दयानन्द के विरोध में खड़े हैं तो भी दयानन्द साथ होंगे और वेद के समर्थन में खड़े हैं तो भी दयानन्द के साथ होंगे। विदेशी दयानन्द के विरोधी हों, ये स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें दयानन्द का विचार अपने अनुकूल नहीं लगता। ईसाई या मुसलमान दयानन्द का विरोध करें, तो भी तर्क संगत है, क्योंकि दयानन्द ने उनके धर्म और दर्शन की धज्जियाँ उड़ाने में कसर नहीं छोड़ी, परन्तु हिन्दू समाज की मिथ्या बातों का, पाखण्डों का, अन्धविश्वासों का खण्डन करके दयानन्द ने उनका भला ही किया है, उनका सुधार किया, इनके प्रयत्नों से हिन्दू समाज की प्रतिष्ठा बढ़ी है। आज हिन्दुओं की सरकार कही जाती है, परन्तु जो हिन्दू सहनशीलता के नाम पर मुसलमान, पीर, फकीरों की कब्रों को स्वीकार करता है, नास्तिक चार्वाक और आज के चार्वाक ओशो का आदर करता है, वही तथाकथित हिन्दू समाज दयानन्द को सहन करने का साहस नहीं रखता। दयानन्द के काल में दयानन्द की जय ने पाखण्डियों के मन में भय को उत्पन्न किया था, लगता है वह भय अभी भी नहीं गया है, यह भय ही दयानन्द की जय है।

मोदी के भाषण में जहाँ भाषा और अभिव्यक्ति तो अच्छी है, परन्तु एकरूपता के विशृंखलन का अनुभव हुआ। इसका कारण ये कि जिन लोगों ने इस भाषण को तैयार किया है, उन्होंने अपने-अपने विषय तो लिखे, परन्तु सब को एक क्रम में  संजोना उन्हें नहीं आया।

जिन महापुरुषों ने देश-सेवा के कार्य किये हैं, वे प्रशंसनीय हैं। उनके कार्यों पर विचार करते हुए ऋषि दयानन्द के कार्यों पर दृष्टि डाली जाये तो कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें ऋषि की भूमिका महत्त्वपूर्ण न हो, इस देश के दीन-अनाथों की पीड़ा को ऋषि ने कैसा अनुभव किया था, इसे जानना हो तो उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा के स्वीकार-पत्र को देखना चाहिए, जहाँ ऋषि ने सभा के नियम व उद्देश्यों की चर्चा करते हुए तीसरे उद्देश्य में सभा द्वारा आर्यावर्तीय दीन-अनाथों की रक्षा और पालना करने की बात की है। आज नेता लोग जिस दलित को हथियार बनाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं, उस दलित की पीड़ा को ये नेता तो अनुभव नहीं कर सकते, परन्तु ऋषि ने उस पीड़ा को अनुभव करते हुए आदेश दिया था कि हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जिसमें एक गरीब और राजा के बच्चे के लिये समान आसन, भोजन, शिक्षा का निर्देश दिया हो।

ऋषि दयानन्द ने हिन्दू समाज को बल प्रदान किया। यह समाज अपने अन्दर व्याप्त पाखण्ड, कुरीतियों और अन्धविश्वास से जकड़ा हुआ था। समाज स्वार्थवश परस्पर के वैर-विरोध से विभाजित और दुर्बल भी था। ऐसे समय में ईसाई और इस्लाम के हिन्दू समाज पर आक्रमण निरन्तर हो रहे थे। इस परिस्थिति को देखकर ऋषि दयानन्द ने इस समाज को बचाने के लिये दो प्रकार से कार्य किया, प्रथम- इस देश में संस्कृति, साहित्य, इतिहास के माध्यम से इस समाज की अस्मिता को जगाया और समाज में व्याप्त कुरीतियों का जोरदार खण्डन किया। कुरीति और अन्धविश्वास की चपेट में इस्लाम और ईसाइयत भी थे, ऋषि ने उन पर भी आक्रामक रूप से प्रहार किये, उनके साथ शास्त्रार्थ किये। साहित्य के माध्यम से बाइबिल और कुरान की अज्ञानता, पाखण्ड, झूठ का भाण्डाफोड़ किया, जिससे एक ओर हिन्दू समाज में सुधार प्रारमभ हुआ, साथ ही आत्मबल के आने से समाज बचाव के स्थान पर आक्रमण की मुद्रा में आ गया। इस भावना ने पराधीनता से संघर्ष करने और स्वतन्त्रता की इच्छा को प्रबल रूप से जगा दिया।

दयानन्द ने समाज में फैले जातिवाद पर प्रहार किया। मनुष्य में मनुष्यता के रूप में कोई भेद, ऊँच-नीच मानने से इन्कार कर दिया। समाज में ऊँचनीच की भावना को जन्म देता है- अवतारवाद। जातिवादी श्रेष्ठता को बल देता है, अतः ऋषि ने अवतारवाद का खण्डन किया। जड़-पूजा से मनुष्य अकर्मण्य, भाग्यवादी और दीन-हीन याचक बन जाता है। ऋषि ने हिन्दू समाज के पतन के कारण- इस जड़-पूजा पर कठोर प्रहार किया। जिन लोगों के स्वार्थ और आजीविका इस जड़ पूजा से जुड़े हैं, उनका ऋषि-विरोधी होना स्वाभाविक है। आज जड़ताओं को जो लोग हिन्दू धर्म का अंग बनाकर रखना चाहते हैं, उनको ऋषि दयानन्द के नाम से भय लगता है। उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और आजीविका जाने का भय सताता रहता है।

ऋषि दयानन्द समाज के पिछड़े, दलित और उपेक्षित लोगों के कल्याण के लिये सतत् प्रयत्नशील रहे। ऋषि दयानन्द के मानवीय पक्ष को वे लोग अनुभव कर सकते हैं, जिन्होंने ऋषि के उस ज्ञापन को देखा हो, जिसमें सरकार से माँग की गई कि जो सन्तानें अवैध कही जाकर उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार हैं, वे निर्दोष हैं। वे प्रकृति के नियम से उत्पन्न हैं, यदि मनुष्य के बनाये नियमों को मनुष्य ने तोड़ा है तो उसके लिये निर्दोष सन्तान को क्यों उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए? ऋषि ने पिछड़े पुरुष, महिला, अनाथ, दलित के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदला। दयानन्द की उपेक्षा कृतघ्नता होगी। ये कृतघ्नता हमारे व समाज के लिये ही हानिकारक सिद्ध होगी, ऋषि दयानन्द ने तो स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में निर्भीक होकर कहा है-

निन्दन्तु नीति-निपुणा यदि वा स्तुवन्तु,

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।

– धर्मवीर

 

परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

स्वामी जी को विष दिये जाने के पश्चात् जोधपुर में मृत्यु से जूझ रहे स्वामी दयानन्द की इस स्थिति की जानकारी उस राज्य से बाहर नहीं आई थी। आर्य समाज अजमेर के सदस्य और महर्षि दयानन्द के अनन्याक्त श्री ज्येष्ठमल सोढ़ा पहले व्यक्ति थे, जो जोधपुर में रुग्ण हो गये स्वामी जी महाराज से मिले थे और उनकी भयंकर अस्वस्थता की सूचना आर्य जनता को दी थी। प्रस्तुत काव्यमय बधाई उन्हीं की रचना है।                          – सपादक

अहो आज आनन्द बधाई।

विद्वज्जन एकत्र होइ कर, परोपकारिणी सभा बनाई।।1।।

श्रीमत् परमहंस परिव्राजक, स्वामी दयानन्द कृत हित आई।।2।।

कोउ स्वयं धरि परिश्रम आपए कोउ देते प्रतिनिधि पहुँचाई।।3।।

तन मन धन अपनो सरवस तेहि, स्वामि दियो तिनको संभलाई।।4।।

वे हि प्रण नियम निवाहन के हित, निज-निज समति देत जनाई।।5।।

समझि महान् लाा या जग में, विद्या वृद्धि करें एकताई।। 6।।

श्रीमद्दयानन्द आश्रम कहि, पढ़न काज चटशाल खुलाई।।7।।

बालक पढ़ें चतुर वर्णों के, प्रबन्धयुत प्रारभ पढ़ाई।।8।।

आर्यसमाजें और भद्रजन, परोपकारिणी करत सहाई।।10।।

सुनहु मित्र अजमेर नगर के, डगर द्वार लिख-लिख चिपकाई।।11।।

श्रोताओं को देत निमंत्रण, आर्य्यसमाज हृदय हुलसाई।।12।।

विज्ञापन छपवाइ मनोहर, देइं भद्र प्रतिदिवस बँटाई।।13।।

सत उपदेशन के जो ग्राहक, सुनउ आइ इत नित चितलाई।।14।।

कोऊ तो भाषत देशोन्नति को, कोउ कह आप्त धर्म दरसाई।।15।।

काहू के मन देश का दुखड़ा, कह पुकार दोउ भुजा उठाई।।16।।

कोउ विद्या इतिहास बड़न के, पुरुषारथ को दे जताई।।17।।

कोउ योग, कोउ तत्त्व व्याकरण, ब्रह्मदेश की करत बड़ाई।।18।।

क ोउ ज्योतिष, कोउ शिल्पकृषि, कोउ गोरक्षा हित देत दुहाई।।19।।

अहो भ्रातृगण सुनउ श्रवण कर, बार-बार मनु-तन नहीं पाई।।20।।

विद्यारसिको ओ धनाढयो, अजहू किमि सोवत अलसाई।।21।।

बनो सहाई दीर्घ दृष्टि दे, तुमरि सन्तति हेतु भलाई।।22।।

यामें जो कुछ संशय होवे, शंका किमि नहीं लेउ मिटाई।।23।।

तुम हित वेद भाष्य किय स्वामी, धन-धन दयानन्द ऋषिराई।।24।।

सार गहो जे आर्य्य ग्रन्थ हैं, तजहू परस्पर कलह लड़ाई।।25।।

सुफल जन्म कसि करहू न अपनो धृक वे जन नहीं तजत ढिठाई।।26।।

उत्तम पुरुष वही जग मांही, परमारथ हित सुमति उपाई।।27।।

कहत जेठमल दास सबन को, बना भजन यह दियो सुनाई।।28।।

तृतीय परोपकारिणी सभा

लखि कर करुणा भारत भू की, मिलि सज्जन सुमति प्रचार करें।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी, धन विद्या हेतु हुलास करें।।

 

कोउ आवत पूरब परिचम से, उत्तर दक्षिण से विद्वज्जन।

प्रतिनिधि बन पर उपकारिणी के, जु सभा जुर सय करें स्थापन।

सतधर्म सनातन परिपाटी, जो सब मनुजन की सुधवर्धन।

पुनि पाठन पठन प्रचारे षोडश, संस्कार को संशोधन।।

जगदीश्वर अब सबके मन की, बेगहि पूरण अभिलाष करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 1।।

 

श्री स्वामी दयानन्द स्वर्ग गए, जिनको है व्यतीत चतुर्थ बरस।

स्वीकार कियो निज तन मन धन, महद्राजसभा सन्मुख सरवस।।

मुद्रांकित कर गए इह विधि हो, पर स्वारथ हित व्यय रात दिवस।

विद्यालय हो दीनालय हो, वेदादि पढ़ायं प्रचार सुयश।।

तईस पुरुष दस द्वै मासों, में नियम प्रत्येक विकाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन घड़ी धन विद्या.।। 2।।

उत्साह बढ़ाय सदा आवत, श्रद्धायुत द्रव्य प्रदान करें।

कोउ भूमि देई अति हर्ष-हर्ष, उत्तेजित कार्य्य महान् करें।।

जित देखो उत वेदध्वनि है, नव-नव व्यायान बखान करें।

प्रफुलित सब आरज पुरुष हिये, देशोन्नति के गुनगान करें।।

आनन्द दयानन्द आश्रम की, यह नीव थपी कैलाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी विद्या.।। 3।।

सिरमौर उदयपुर महाराणा भेजे कवि श्यामल, मोहन को।

यह भार लियो मुसदाधिपति अपने पर कार्य्य विलोकन को।।

शाहपुरेश बाग किये अर्पन धन-धन उनके उत्साहन को।

मोहन निज हाथन अस्थि धरी, स्वामी के कौल निबाहन को।।

उनतीस दिसबर (1887) चढ़तो दिन उपमा ये जेठू दास करे।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 4।।

 

दयानन्द-आश्रम

अब तो कछु या भारत कीदशा जगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।।

इक भये महात्मा सरस्वती प्रणधारी।

सारी आयू-पर्य्यन्त रहे ब्रह्मचारी।।

पढ़ वेद चर्तुदिशि विद्या-बेल पसारी।

लह धर्म सनातन देशाटन अनुहारी।।

लखि भारत को अति हीन मलीन भिखारी।

उपदेश यथावत दियो बेग विस्तारी।।

सुन लाखन जन तन मन धन बुद्धि संवारी।

दौड़ महाराज, आर्य्यकुल-कमल-दिवाकर,

मेदपाट, सिरमौर सज्जनसिंह, महाराणा निज निकट बुलाय।

मनुस्मृति, पढ़ी सब बिदुर प्रजागर ध्यान लगाय।।

वायोगी को कछु दरस्यो योग मंझारी।

महाराज, कह्यो मम जीतेजी जिमि संरक्षण हो,

मृत्यु व्यतीते है सर्वस तुमको अधिकार।

यही दक्षिणा, वेद विद्या का जहं तहं होय प्रचार।।

दोहा त्रयोविंशति भद्रजन हैं मुझको स्वीकार।

संस्कार मम देह को कीजो विधि अनुसार।।

चौपाईअगर तगर कर्पूर मंगइयो, वेदी रच कर यज्ञ करैयो।

गाड़ियो न जल मांहि बहइयो, ना कहुं कानन में फिकवैयो।।

छंदचार मन घृत मँगाकर पुनि तपा स्वच्छ छनाइयो,

चिता चन्दन पूरियो दो मन अवश्य हि लाइयो।

काष्ठ दश मन चुन जुगत से दग्ध तन करवाइयो,

वेदमन्त्रों की ऋचा उच्चारते मुख जाइयो।।

वा कर्म-क्रिया को सबकी रूचि उमगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 1।।

 

सुनियो अब भारतवर्ष दयानन्द को है,

जो परोपकारिणी सभा रची वह यह है।

महिमहेन्द्र फतेहसिंह उदय-सूर्य चमको है,

संरक्षण पद निज धीर वीर धारो है।।

उपसभापति पद मूलराज थरप्यो है,

कविराज मंत्री श्यामलदास बन्यो है।

इक द्वितीय मन्त्री को पद शेष रह्यो है,

दौड़- महाराज, पंडिया मोहनलालजी, विष्णुलालजी, मथुरावासी,

उपमन्त्री पद हृदय लगाय।

धारण कीन्हों, कार्य्यवाही करते नित प्रेम बढ़ाय।

अष्टादश मुय सभासद सुन्दर सोहें,

महाराजाधिराजा नाहरसिंह शाहपुराधीश,

अजमेर बगीचो, दियो आश्रम हेत चढ़ाय।

ताम्रपत्रिका सुघड़ बनवाय, करी अर्पण लिखवाय।।

दोहाअजयमेरु उत्तर दिशा अन्नासागर पाल।

या सम बड़ी न भूमिका घाट-भूमि को थाल।।

चौपाई–  धन्य धरनि सरबर बड़भागी,

धन्य क्षेत्र पुष्कर अनुरागी।।

काय दयानन्द स्वामी त्यागी,

पुनः नींव आश्रम की लागी।।

छंद मध्य भू खुदवा गढ़ा अनुमान ले इक ताल को,

कर दियो प्रारभ कछु दरसा पुरातन चाल को।

अस्थि लेकर मसूदापति सौंप मोहनलाल को,

इक रुदन दूजो हर्ष है वरनूं कहा या हाल को।।

उस महर्षि की मानसी अग्नि सुलगी है,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 2।।

प्रतिवर्ष सभा जुड़ आ इत सुमति उपावे,

कोइ प्रतिनिधि युत अपनो सन्देश भिजावे।

रावत अंसीद अर्जुनसिंह वर्मा आव,

वेदला ततसिंह राव राय पहुँचावे।।

महाराजा श्री गजसिंह विचार प्रगटावे,

श्रीमान् राव श्री बहादुरसिंह हरखावे।

स्वामी हित पूर्ण प्रेम प्रीति दरसावे,

दौड़ महाराज नृपति महाराणाजी श्री फतेहसिंह जी देलवाड़ा,

लिखो नाम मैं देऊं गिनाय,

सुपरिन्टेन्डेट, सु पंडित सुन्दरलाल विचार जनाय।

जयकृष्णदास जी.सी.एस.आई. बतलावे,

महाराज, कलेक्टर डिप्टी जो बिजनौर,

और लाहौर के सांईदास कहाय।

जगन्नाथजी फर्रुखाबादी दुर्गासहाय आय।।

दोहाकमसरियेट गुमाश्ता छेदीलाल मुरार,

सेठ जु निर्भयरामजी कालीचरण उचार।

चौपाई राव गुपाल देशमुख मेबर,

महादेव गोविन्द जज्जवर।

दाना माधवदास अकलवर,

पण्डित श्यामकृष्ण प्रोफेसर।।

छंद सभासद ऊपर कहे है, सभा  परउपकारिणी।

वैदिक सुशिक्षा दे बनी है, अवश्य देश सुधारणी,

आर्यवर्त अनाथ दीनों के जो कष्ट निवारिणी।।

दयानन्द की भक्त बन स्वीकार प्रति विस्तारिणी,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 3।।

स्वीकार पत्र के वचन सभा बरतावे

यदि उचित होय तो नियम घटाय बढ़ावे।।

समतिसब आर्य्यसमाजों से मँगवावे

सभव हो सो कर पृथक् और ठहरावे।।

वैदिक-यंत्रालय को हिसाब अजमावे

श्रद्धायुत चन्दा निज-निज करन चढ़ावे।।

त्रय सभासदों से अधिक न घटने पावे।

दौड़ महाराज जहाँ लगि उनके पद पर सय भद्रजन,

धर्मध्वजी वा आर्यपुरुष कोई नियत न थाय।

पक्षपात तज अधिक पक्षानुसार बहु रचें उपाय।।

श्री सभापति की समति द्विगुण मिलावे।

महाराज त्याग सब विरोध जो कुछ झगड़ा,

टंटा उपजे बाको आपस में लेवें निबटाय।

न्यायालय की हो सके तहाँ तलक नहीं गहें सहाय।।

दोहा स्वामी दयानन्द लिख गये अन्त समय यह पत्र।

तेहि प्रण पूरण करन हित सभा होइ एकत्र।।

चौपाईधन्य दयानन्द श्रुति पथ चीन्हो,

भारत हित तन मन धन दीन्हो।

धन दृष्टान्त कह्यो सो कीनो,

मन वच काय सुयश जग लीन्हो।।

छन्दअजमेर केसरगंज में चटसाल यह बनवायगी,

राज-भाषा संस्कृत जिसमें पढ़ाई जायगी।

करहु चंदा सकल जन मिलि लाभ यह पहुँचायेगी,

विदेशन विद्या गई जो बहुरि घर क ो आयगी।।

इक धर्म वृद्धि कहे जेठू सदा सगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 4।।

चेतावनी

बिन कारण वैर अरु निंदा को, मत कीजिये सज्जन आपस में,

अभिमान तजो सन्मान लहो, कछु ज्ञान विचारो अंतस में,

जंह-तंह रहो प्रीति बढ़ा करके, मन धरिये धीरज अरु जस में,

यह अर्ज करे सोढा जेठू, मद लोभ, क्रोध रखिये बस में।।

सद्गुरु की महिमा

सद्गुरु की वाणी, अमृत रस का प्याला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।

पहचान उसे जो तुझ को चेताता है।

जैसा जो कुछ तूं करे वो भुगताता है।।

लखि रचना क्यों कर्ता को विसराता है।

अज्ञान नास्तिक कैसे कहलाता है।।

वह अन्तर्यामी घट-घट का रखवाला। पी प्रेम.।।1।।

गुरु ऐसा कर जो सदा रहे ब्रह्मचारी।

उपदेश करे जैसा वो बर्त्ते सारी।।

विद्या वृद्धि हित करे तपस्या भारी।

दे सत्या-सत्य जताय भक्त हितकारी।।

कण्ठित हो चतुरवेद मन्त्रों की माला। पी प्रेम.।।2।।

गुरु प्रथम निरंजन, प्रणाम बारबारा।

प्रणवूं पुनि ब्रह्म ऋषिन वच सुपथ संवारा।।

वेदानुकूल आचरण सभी को प्यारा।

जो यथायुक्त धारे वह गुरु हमारा।।

दे खोल हृदय के अन्धकार का ताला। पी प्रेम.।।3।।

गुरु मात पिता, आचार्य्य अतिथि कहलावे।

गुरु परोपकार हित अपनी देह तपावे।।

गुरु दयानन्द सा बीड़ा कौन उठावे।

को वेद भाष्य की घर-घर कथा सुनावे।।

यों कहें नमस्ते जेठू भोला भाला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।4।।

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों? : डॉ धर्मवीर

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों?

29 जून 2016 को समाचार पत्रों में यह समाचार प्रमुख रूप से प्रकाशित हुआ है कि अनुसन्धान से सिद्ध हुआ है कि गोमूत्र में सुवर्ण के कण पाये गये हैं। समाचार की मुखय सूचना इस प्रकार है-

गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के बायो टेक्नोलोजी विभाग के प्रमुख उक्त अनुसंधान करने वाली टीम के अगुवा डॉ. बी.ए. गोलकिया ने बताया कि गुजरात के सौराष्ट्र इलाके के गिर में पाई जाने वाली गायों के मूत्र में प्रति लिटर तीन से दस मिलीग्राम तक सोना, 2 मिलीग्राम चाँदी, 025 मिलीग्राम जस्ता और 1.2 मिलीग्राम बोरॉन होने की पुष्टि हुई है। यही नहीं, इनके अतिरिक्त अन्य 5100 रसायनों की भी पहचान की गई, जिनमें एंटी कैंसर, एंटी कॉलेस्ट्रोल, एंटी डायबिटीज, एंटी एजिंग के गुण वाले रसायन शामिल हैं। ऐसा प्रयोग गायों की अन्य प्रजातियों पर नहीं हुआ है। यह सोना जैविक सोना है, जो चिकित्सकीय गुणों के मामले में लाजवाब तथा आम तौर पर चिकित्सा के लिये प्रयुक्त होने वाली स्वर्ण भस्म आदि से कहीं आगे है।

इस देश का यह दुर्भाग्य है कि अनुसन्धान में गोमूत्र में सुवर्ण की उपस्थिति प्रमाणित हो रही है, परन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति दूध के नाम पर जो पी रहा है, खा रहा है, वह केवल विष है। पहले समय में दूध जब अधिक था, अतिथि का सत्कार दूध से किया जाता था, पानी पिलाना समान के प्रतिकूल समझा जाता था। तब इस देश में गौओं की संखया मनुष्यों से अधिक थी। जैसे-जैसे हिंसा के कारण, अनुपात घटता गया, परिस्थितियाँ बदलती गईं। दूध माँगने पर भी दूध न मिले, ऐसी दशा में दूध में पानी मिलाकर दिया जाने लगा। दूध में पानी की मिलावट करना, उसे बेचना एक सर्वप्रचलित अपराध बन गया। घर में दूध की मात्रा कम होने पर पानी मिला कर उसकी पूर्ति करना एक सामान्य आचार बन गया। पशुओं की निरन्तर घटती संखया ने इस परिस्थिति को बदल दिया। अब दूध में पानी मिलाने के स्थान पर पूरा दूध ही नकली बनने लगा। दूध वाशिंग पावडर, तेल आदि डालकर बनाया जाने लगा। एक बार दिल्ली में श्री कृष्णसिंह जी के गाँव में कार्यक्रम में जाते हुए वहाँ के निवासी ने बताया- आचार्य जी, इस गाँव में पशु नहीं हैं, परन्तु हजारों लीटर दूध प्रतिदिन डेयरी को भेजा जाता है। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ऐसा दूध डेयरी में एक गाँव से लिया जा रहा है, तो क्या शेष लोग मूर्ख हैं जो शुद्ध दूध डेयरी को देंगे? एक बार उत्तर प्रदेश में दिल्ली की ओर आने वाले दूध की जाँच की जाने लगी तो सारे के सारे दूध बेचने वालों ने अपना दूध सड़कों पर फेंक दिया और किसी भी प्रकार के परीक्षण के लिये तैयार नहीं हुए। उस समय समाजवादी नेता और मुखयमन्त्री मुलायमसिंह की टिप्पणी थी- दूध बेचने वालों को भी तो अपने बच्चे पालने हैं, वे मिलावट नहीं करेंगे तो उनके परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा? इस प्रकार दूध में मिलावट ही नहीं, नकली दूध को भी हमने मान्यता दे दी, चाहे ऐसा करने से किसी की भी मृत्यु हो तो हो!

दूध की कमी को पूरा करने के लिये बाजार में सोयाबीन और मूंगफली का दूध बनाकर बेचा जाने लगा। सोयाबीन और मूंगफली का घोल दूध जैसा दीखता है, तो कुछ गुण भी मिलते हैं, परन्तु वह घोल क्या दूध का स्थान ले सकता है? इधर हमारा अनुसन्धान विपरीत दिशा में बढ़ता ही जा रहा है। दूध का आधार पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु को समाप्त कर दूध के विकल्प खोज रहे हैं। पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने की बात करते हैं। पशु से अधिक दूध प्राप्त करने के लिये पशुओं पर तरह-तरह के अत्याचार करते हैं। दूध के लिये पशुओं को इंजेक्शन लगाते हैं, यह बिना सोचे कि इसका पशु पर और दूध पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह एक कष्ट व पीड़ा देने वाला उपाय है। इस औषध का उपयोग प्रसव शीघ्र कराने के लिये किया जाता है। इसके लगाने से गर्भाशय में संकोच होकर शीघ्र प्रसव होता है। इस इंजेक्शन के लगाने से पशु में प्रसव पीड़ा होती है बिना सोचे दिन में दो बार पशुओं को यह इंजेक्शन लगाते हैं।

इस दवा का यदि पशु पर प्रभाव पड़ता है तो दूध पर भी पड़ता है, दूध में इसके प्रभाव से जो बच्चे ऐसा दूध पीते हैं, उनके अन्दर वयस्कता का भाव जल्दी प्रकट होने लगता है। जो बच्चे 15-16 वर्ष में बड़े लगते थे, उनमें यह परिस्थिति 10-12 वर्ष में ही दिखाई देने लगती है। ऐसा दूध, दूध के प्राकृतिक गुणों से रहित हो जाता है। हम दूध अधिक लेने के लिये गाय-भैंस के बच्चों को मार देते हैं तथा कई लोग उनके अन्दर भूसा भर देते हैं। जब दूध निकालना होता है, तब उसे पशु के सामने रख देते हैं, पशु उसे चाटता है और आप सरलता से दूध निकाल लेते हैं। यह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये किया जाने वाला पाप है।

हमारे समाज में दूध की आवश्यकता तो बढ़ रही है, परन्तु दूध का स्रोत घट रहा है, ऐसी परिस्थिति में अपराध ही शरण बन जाता है। चोरी और मिलावट तभी होती है, जब वस्तु दुर्लभ हो। आज कोई व्यक्ति कितने भी पैसे देकर शुद्ध घी-दूध प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उसके अपने पशु न हों। हमें दूध, दही, मक्खन, पनीर, मावा, मिठाई, घी-सब कुछ चाहिए, परन्तु गाय नहीं चाहिए, तब ऊपर बताये सब विकल्प ही काम आयेंगे। गत दिनों मध्य प्रदेश के एक गाँव में जाने का अवसर मिला, वहाँ एक व्यक्ति भट्टी जलाकर मावा बना रहा था। हमने सोचा-अच्छा मावा मिलेगा, ले चलते हैं। भट्टी के पास जाकर बैठे, तो एक व्यक्ति चमच से डालडा दूध में मिला रहा था। पूछने पर पता लगा कि पहले यह व्यक्ति गाँव से दूध लाता है, उसकी क्रीम निकाल कर घी बनाता है, फिर बचे हुए दूध में वनस्पति तेल डालकर मावा बनाता है। आज जितने भी उपाय जिसको आते हैं, उतने उपायों से दूध और खाद्य पदार्थ बनाये जा रहे हैं। इसमें भारत हो या विदेश, गरीब हो या अमीर, गाँव हो या शहर, किसी की कोई भी सीमा नहीं है। जितना अपराध नगर में होता है, उससे कम ग्राम में नहीं होता। जितना हमारे देश के अन्दर दूध में मिलावट का पाप हो रहा है, उससे अधिक यूरोप अमेरिका आदि के नगरों में किया जा रहा है। वहाँ अपराध करने का प्रकार वैज्ञानिक साधनों से साफ-सुथरा, आधुनिक है। हमारे देश में दूध में मिलावट करते हैं, उन्होंने गाय में ही मिलावट कर दी।

आज बड़ी-बड़ी विदेशी कमपनियों का दूध और दूध का चूर्ण विष के अतिरिक्त कुछ नहीं है। भारत की सभी डेयरियाँ दूध की मात्रा को पूर्ण करने के लिये इसी दुग्ध चूर्ण का उपयोग करती हैं। यूरोप के लोगों ने दूध के लिये नई गाय बना डाली, इन गायों को हम जर्सी, रेड डेन, हेलिस्टन आदि के नाम से जानते हैं। इनसे प्राप्त होने वाले दूध की मात्रा ने हमें पागल बना दिया है। हम अपनी गिर, राठी, साहीवाल, नागौरी, थारपारकर आदि सैंकड़ों देसी नस्ल को छोड़कर विदेशी गायों को ले आये। उनके बीज से अपनी गायों को संकर नस्ल का बना लिया। आज जब विदेशों में अनुसन्धान किया गया, तो पता चला कि हम ठगे गये। विदेशी गायों के दूध से मधुमेह, कैंसर घुटने का दर्द जैसी अनेक बीमारियाँ हमारे समाज में बढ़ रही हैं, परन्तु विदेशी कमपनियों का अरबों-खरबों का व्यापार दूध, दूध के पाउडर, घी तथा दुग्ध उत्पादों का है, वे इस पाप को न रोकना चाहते हैं, न प्रकाशित होने देना चाहते हैं। वास्तव में गाय जैसा दीखने वाला विदेशी पशु अमेरिका में पाये जाने वाले जंगली सूअर और युरास नामक पशु के प्रजनन से अधिक दूध और अधिक मांस प्राप्त करने के लिये वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई एक नई प्रजाति है। इसके कारण इस मांस और दूध का सेवन करने वाले चाहे अमेरिकी हों या भारतीय, सभी में घातक रोग बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं।

आजकल जहाँ यह पशु है, उन देशों ने भी इन पशुओं के दूध को पीना छोड़ दिया है और वहाँ के लोग इसे सफेद जहर मानने लगे हैं। वहाँ के लोग मांस के लिये भी भारतीय गाय को ही पसन्द करते हैं, इस कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा गो-मांस निर्यात करने वाला देश बन गया है। दूध के लिये जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों ने भारत की गिर गाय को बहुत वर्षों पहले से ले जाना प्रारमभ किया था। आज वहाँ बड़ी संखया में इनका पालन किया जाता है। आज वहाँ इन देसी गायों का मूल्य एक करोड़ रुपये प्रति गाय तक पहुँच गया है। हम अपने पशु और अपने मनुष्यों के स्वास्थ्य का मूल्य नहीं समझते हैं, अतः विदेशी गायों के प्रति मोह रखते हैं, उनके दूध से अपने अन्दर कैंसर, मधुमेह, घुटनों के दर्द जैसे रोगों को आमन्त्रण दे रहे हैं। हम मांस के लिये सोना देने वाली गाय को मार रहे हैं।

आज हमें विचार करने की आवश्यकता है कि केवल दूध की मात्रा का लोभ करने से समस्या का हल नहीं होगा। इसके मूल में जाकर इस समस्या का हल करना होगा, नहीं तो महर्षि दयानन्द का यह वाक्य सार्थक होगा- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों कीाी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु  सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना दूध, घी और बैल आदि पशु इस समय दस गुने मूल्य सेाी नहीं मिल सकते, क्योंकि सात सौ वर्षों में इस देश में गौ आदि पशु को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं। वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड़-मांस तक भी नहीं छोड़ते, नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्। जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे। हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं?

हम जहाँ पशुओं को मारकर दूध बढ़ाने के उपाय कर रहे हैं, उसी प्रकार उपजाऊ भूमि को घटाकर अन्न बढ़ाने का उपाय भी कर रहे हैं, यह गणित उल्टा पड़ेगा। अन्न भी नकली और बीमार मिलेगा, दूध भी नकली और रोगकारक ही प्राप्त होगा। इन दोनों समस्याओं का हल हमारी प्राचीन परमपरा में निहित है। उसका हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है। पुराने समय में जंगलों की सुरक्षा अनिवार्य थी। नगर-ग्राम के समीप जो जंगल होते थे, वह गोचर भूमि कहलाती थी। जंगल के अधिक होने से पशुओं की सुरक्षा और वृद्धि सहज समभव है, वहीं जंगल के कारण वनस्पतियों की प्राप्ति से दूध में औषधीय गुण प्राकृतिक रूप में सहज प्राप्त होते हैं। गाय आदि पालतू पशुओं के अतिरिक्त जंगली पशु-पक्षियों की भी सहज रक्षा हो जाती है। जंगल में घूमने वाली गायों के दूध से आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम आदि सद्गुण मनुष्यों में बढ़ते हैं। पशु-पक्षियों की अधिकता से जंगल में गोमूत्र-गोबर आदि से भूमि को पर्याप्त खाद मिलने से वृक्ष-वनस्पतियों की वृद्धि होती है। वृक्षों की अधिकता से वर्षा, जलवायु की शुद्धता तथा उष्णता की मात्रा भी कम हो कर वातावरण सौमय बनता है। इसका दूसरा लाभ भी होता है। दूध-घी की मात्रा अधिक होने से गरीब-से-गरीब आदमी को भी उचित पौष्टिक भोजन मिलता है तथा दूध-घी का उपयोग करने वाले व्यक्ति को अन्न खाने की कम ही आवश्यकता पड़ती है। इससे मलमूत्र, दुर्गन्ध भी न्यून होकर पर्यावरण की शुद्धि होती है। रोग कम होते हैं। दुर्गन्ध कम रहने से वायु व वृष्टि-जल की शुद्धि बनी रहती है।

आज हम दूध की कमी को अन्न से पूर्ण करना चाहते हैं। मांस को अन्न का विकल्प मान बैठे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि मांस खाने वाला व्यक्ति अन्न भी अधिक खाता है। अधिक अन्न से रोग बढ़ते है। मांस खाने वाले लोग पशुओं को समाप्त कर देंगे तो दूध तो समाप्त होगा ही, मनुष्य की प्रकृति मांसाहारी होकर मनुष्य का मांस खाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस सबका उपाय गो-संवर्धन है। जब तक मनुष्यों के पास अधिक गायें नहीं होगी, तब तक समस्या का हल नहीं होगा। पशु-पक्षी अधिक हों, इसलिये परमेश्वर ने जंगल अधिक बनाये हैं। ईश्वर की सृष्टि में मनुष्यों से अधिक पशु-पक्षी आदि अधिक रहने से ही मनुष्यों का कल्याण समभव है। इनके लिये भोजन की व्यवस्था परमेश्वर ने प्राकृतिक रूप से की है। घास, वृक्ष, फल-फूल, पशु-पक्षियों के लिये बनाये हैं। सारी वनस्पतियाँ स्वयं उत्पन्न होती हैं। परमेश्वर ने पशु-पक्षियों की मात्रा मनुष्य के भोजन से अधिक बनाई है। पशु-पक्षियों को भोजन के लिये खेत नहीं जोतना-बोना पड़ता, इसलिये प्रकृति में इनका अधिक होना मनुष्य के हित में है। परमेश्वर के नियम के विपरीत चलकर हम कभी सुखी नहीं रह सकते। अतः वेद ने कहा है-

यजमानस्य पशून् पाहि।।

– धर्मवीर

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

बुधवार 11 मई को आदि शंकराचार्य की जयन्ती मनाई गई। इस अवसर पर संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं विचारक पी. परमेश्वरन द्वारा स्थापित स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ.) नवोदयम् तथा फेथ फाउण्डेशन ने सरकार से माँग की है कि आदि शंकराचार्य के जन्मदिन को राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस के रूप में मनाया जाय। इस अवसर पर केन्द्रीय संस्कृति राज्य मन्त्री महेश शर्मा ने बताया कि सरकार इस प्रकार के प्रस्ताव पर विचार कर रही है।

इस समारोह में बताया गया कि संघ के संयुक्त महासचिव को भाजपा से वार्ता करने के लिये अधिकृत किया गया है। समारोह में अखिल भारतीय सह प्रचारक जे. नन्दकुमार एवं अनेक प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। अनेक वक्ताओं ने शंकराचार्य के दर्शन को शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में समिलित करने की माँग की। संघ के विचारक पी. परमेश्वरन का नाम पढ़कर मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आया। कुछ वर्ष पूर्व मुझे केरल यात्रा के प्रसंग में उनसे भेंट करने का और वार्तालाप करने का अवसर मिला था। उन्होंने उदारतापूर्वक दो घण्टे तक वार्ता की। मुझे आश्चर्य हुआ, जब मुझे उनके विचार सुनने को मिले। उस समय तक वे आर्य द्रविड़ सिद्धान्त को उचित मानते थे, आज इस विषय में उनके विचारों में परिवर्तन आ गया हो तो प्रसन्नता की बात है। दूसरी बात, ईश्वर को एक और निराकार मानना कैसे सम्मभव है? उनके विचार से भारत में जितने मत-सप्रदाय और विचार हैं, उनमें सबके अपने ईश्वर हैं और सभी ठीक हैं। यह हिन्दू समप्रदाय की विशेषता है। परमेश्वरन इसको ठीक मानते हैं, परन्तु सिद्धान्त इसे मिथ्या कहता है। परमेश्वरन से जुड़ा एक प्रसंग और है। उन्होंने पणजी में एक शोध-संस्थान बनाया। इसे केरल की कमयुनिस्ट सरकार ने मान्यता देने से मना कर दिया, तो राजस्थान की भाजपा सरकार ने उस संस्थान को महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, अजमेर से मान्यता दिला दी।

जब तक कांग्रेस की सरकार थी, ईसाई-मुसलमानों की मौज थी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने अल्पसंखयक सुरक्षा विधेयक के माध्यम से अपना उद्देश्य और विचार प्रकाशित कर दिया था। यदि बिल संसद में पारित हो जाता तो यह भारत हिन्दुओं का न होकर, आधा इस्लाम और आधा ईसाइयों का हो जाता। समभवतः परमेश्वर को ऐसा स्वीकार नहीं था, अतः भारतीयता की प्राप्त आसन्न मृत्यु होते-होते बच गई। आज से पहले हिन्दुत्व के नाम पर किसी बात की माँग करना तुच्छ और आधुनिक युग में निन्दनीय माना जाता था, इस चुनाव ने नरेन्द्र मोदी को विजयी बनाकर हिन्दुत्व को समाप्त होने से बचा लिया। यह तो इतिहास की गौरवपूर्ण घटना रही।

अब हिन्दुत्व को स्वाभाविक रूप से अपने स्वरूप को प्रकाशित करने का अवसर है। यदि हिन्दुत्व में प्रचलित धारणाएँ सत्य और हितकर होतीं, तो उनकी पुनः स्थापना करने में कोई बुराई नहीं थी। हिन्दुत्व इस देश का दुर्भाग्य रहा है। हिन्दुत्व के नाम पर जो पाखण्ड, अज्ञान, शोषण और कायरता इस देश में फैली है, वही इस देश में दासता का कारण है। क्या हिन्दुत्व के नाम पर उन्हीं सब बातों को महिमा-मण्डित करना उचित होगा? हमारा विचार है कि पाखण्ड, अज्ञान, अन्याय एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार को हिन्दुत्व के नाम पर न कभी स्वीकार किया जा सकता है, न ऐसे विचार का समर्थन किया जा सकता है, फिर वह विचार चाहे सरकार का हो या किसी नेता, मन्त्री का।

आज ऐसे विचार और ऐसी माँगों की बाढ़ आ गई है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व के नाम पर प्रचलित प्रत्येक मूर्खता, सत्ता से मान्य कराने की स्पर्धा प्रारमभ हो गई है। गंगा या क्षिप्रा में स्नान करने के धार्मिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक लाभ हो सकते हैं, परन्तु यह कहना कि गंगा में स्नान करने से मुक्ति मिलती है, यह पहले भी पाखण्ड था और आज भी पाखण्ड है। इसको कौन कह रहा है- इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।

आज समाचार पत्रों में ‘शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक’ घोषित करने की सरकार की योजना है। ये विचार भी पाखण्ड पूर्ण हिन्दुत्व का ही परिणाम है। आचार्य शंकर अपने समय के अद्वितीय दार्शनिक ब्राह्मणधर्म के पुनरुद्धारक रहे हैं। जिस समय यह सारा देश जैन और बौद्ध मान्यताओं का शिकार हो गया था, वेद का पठन-पाठन समाप्त प्रायः था, वैदिक धर्म का लोप था, उस समय सारे मत-मतान्तरों के आचार्यों को शंकर ने शास्त्रार्थ में पराजित् करके सभी राजाओं, विद्वानों को वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया था। देश के चार कोनों में शंकराचार्य ने पीठों की स्थापना करके सारे देश को अपना अनुयायी बना लिया था।

आचार्य शंकर के महत्त्व को स्थापित करने वाली एक घटना आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। गुरुकुल ज्वालापुर के स्नातक और निरुक्त के हिन्दी भाष्यकार पं. भगीरथ शास्त्री गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के उपाध्याय थे। वे सेवानिवृत्त होकर अपने गाँव लौटने लगे, तब अपने पुराने शिष्य डॉ. रामवीर शास्त्री से मिलने श्रद्धानिकुञ्ज स्थित हमारी कुटिया में पधारे, उस समय हम कुटिया में तीन छात्र रहते थे- डॉ. रामवीर, डॉ. सुरेन्द्र- वर्तमान कुलपति गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय तथा इन पंक्तियों का लेखक। बहुत समय अपने मधुर उपदेशों का वे हमें पान कराते रहे। आशीर्वाद देकर जाने लगे। बीस कदम गये, लौटे तो हम लोगों ने सोचा कि गुरुजी कोई वस्तु भूल गये हैं, लेने आये हैं। वे आये तो कहने लगे- मैं एक बात तो कहना भूल ही गया। हमने उत्सुकता से पूछा- बताइये। वे बोले- देखो, यदि पाण्डित्य क्या होता है- यह जानना हो तो आचार्य शंकर को पढ़ना, भाषा क्या होती है, उस पर अधिकार कैसा होता है- यह जानना हो तो आचार्य पतञ्जलि का महाभाष्य पढ़ना और विषय की व्यापकता जाननी हो तो व्यास रचित महाभारत पढ़ना, बस यही कहने आया था। गुरुजी का विद्या-प्रेम देखकर हम गद्गद् हो गये।

इसी प्रकार एक बार आर्य जगत् के मूर्धन्य विद्वान्, उच्च वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश जी के साथ ऋषि उद्यान अजमेर में घूमते हुए आचार्य शंकर के पाण्डित्य पर चर्चा चल रही थी। स्वामी जी कहने लगे- आचार्य शंकर स्वयं इतने विद्वान् थे कि वे चाहते तो अपना नया दर्शन बना सकते थे। स्वामी जी से मैंने पूछा- फिर उन्होंने बनाया क्यों नहीं? तब स्वामी जी ने उत्तर दिया- यदि वे अपना दर्शन बनाते तो उसे पढ़ता कौन? किसी भी नई वस्तु को स्थापित होने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं। आचार्य शंकर ने सरल मार्ग अपनाया। जो दर्शन समाज में प्रचलित था, उसी का अर्थ अपने अनुसार करने का प्रयास किया और उन्होंने उसे शिष्यों में प्रचारित किया। भले ही वह सर्वमान्य नहीं हुआ, परन्तु आज सारे दर्शन की बात करने वाले शंकर का नाम लेकर ही वेदान्त की बात करते हैं। यह आचार्य शंकर का वेदान्त सूत्रों के साथ बलात्कार है। जो बात सूत्र में है ही नहीं, आचार्य शंकर उन सूत्रों की व्याखया में निकालते हैं। यह उनकी योग्यता या पाण्डित्य हो सकता है, औचित्य नहीं।

वर्तमान युग के दर्शनों के व्याखयाकार आचार्य उदयवीर जी ने वेदान्त दर्शन की व्याखया करते हुए आचार्य शंकर के अद्वैत पर टिप्पणी करते हुये लिखा है- आचार्य शंकर का अद्वैत, वेदान्त दर्शन से वही समबन्ध रखता है, जैसे दुकान और मकान में ‘कान’ के होने का कोई निषेध नहीं कर सकता, परन्तु ‘कान’  का दुकान, मकान से कोई सबन्ध नहीं है।

ऋषि दयानन्द यद्यपि आचार्य शंकर के सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं, परन्तु उनकी विद्वत्ता और कार्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- यदि आचार्य शंकर ने ये सिद्धान्त बौद्धों के खण्डन के लिये स्वीकार किये हैं, तो तात्कालिक उपयोग के लिये हो सकते हैं, परन्तु सत्य के विपरीत हैं।

आचार्य शंकर बड़े पण्डित और धर्म संस्थापक रहे हैं, परन्तु क्या उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित किया जाना उचित होगा? आचार्य शंकर की भाँति अनेक आचार्यों ने वेदान्त पर अपनी-अपनी  व्याखया लिखी, शंकर की व्याखया प्रचलित अधिक होगी, परन्तु सर्वमान्य नहीं रही है, अतः ऐसे में लोगों के बीच में उच्चता की स्थापना न्याय संगत नहीं है।

आचार्य शंकर मौलिक दर्शनकार की योग्यता रखते हैं, परन्तु मौलिक दर्शनकार नहीं है। उन्होंने वेदान्त सूत्रों पर अपना भाष्य किया नहीं, थोपा है। यह मूल शास्त्र और शास्त्रकार के साथ अन्याय है।

जब भी सूत्रों और उपनिषदों की प्रसंगों की व्याखया करनी होती है, आचार्य शंकर उन शबदों, वाक्यों का सहज संगत अर्थ छोड़कर- इसका अभिप्राय यह है- कहकर अपनी बात वहाँ स्थापित करते हैं। जैसे अर्थ तो निकल रहा है, यह जीवात्मा का स्वरूप है तो अर्थ कहते हुए बतायेंगे- अखण्ड अद्वैत ब्रह्म के अंश का कथन है। अर्थ तो निकला घोड़ा आ रहा है, आचार्य शंकर कहेंगे- इसका अभिप्राय ऊँट आ रहा है।

आचार्य शंकर ब्राह्मण धर्म के संस्थापक थे, परन्तु ब्राह्मण धर्म की कुरीतियों का उन्होंने खण्डन नहीं किया, अपितु स्पष्ट रूप से उनका समर्थन किया है। उनका सिद्धान्त उस काल की प्रचलित परमपरा होने पर भी स्वीकार्य नहीं हो सकता, आचार्य शंकर कहते हैं- द्वारं किमेकं नरकस्य नारी। नरक का एक मात्र द्वार नारी है। क्या इस कथन को आज स्वीकार किया जा सकता है? यदि पुरुष की दृष्टि में नारी नरक का द्वार है तो नारी की दृष्टि में पुरुष नरक का द्वार क्यों नहीं? राष्ट्रीय दार्शनिक की इस मान्यता को आज कोई स्वीकार कर सकता है?

इतना ही नहीं, आचार्य शंकर कितने भी महान् दार्शनिक हों, क्या सूत्रकार के स्थान पर भाष्यकार को श्रेष्ठता दी जा सकती है? राष्ट्रीय दार्शनिक ही बनाना है, तो सूत्रकारों की बड़ी लबी परपरा है। यह दुर्भाग्य ही होगा कि वेदान्त के सूत्रकार महर्षि व्यास के स्थान पर वेदान्त सूत्रों की व्याखया करने वाले को राष्ट्रीय दार्शनिक का स्थान दिया जा रहा है। इसे कौन न्याय संगत बतायेगा?

यह हमारे पौराणिक भाइयों का स्वभाव बन गया है- मूल शुद्ध स्वरूप को छोड़कर अशुद्ध स्वरूप को गौरवान्वित करने की उनकी परमपरा है। वेद दर्शन छोड़कर, वे पुराणों को वेद से ऊपर रखने का प्रयास करते हैं। इनके लिये सूत्रकार पाणिनि से महान् कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित है। वही स्थिति है वेदान्त के सूत्रकार से बड़ा इनकी दृष्टि में भाष्यकार है।

सारे अद्वैत के आधारभूत वाक्य हैं –

प्रज्ञानं ब्रह्म। – ऐतरेय उपनिषद्/3/5/3

अहं ब्रह्मास्मि। – बृहदारण्यक/1/4/10

तत्त्वमसि। – छान्दोग्य 6/8/7

अयमात्मा ब्रह्म। – माण्डूक्य 2

इन उपनिषद् वाक्यों को महावाक्य और वेद-वाक्य कहा जाता है।

इस सारे कथन में परस्पर विरोध है। प्रथम, उपनिषद् को एक ओर वेद कहा जा रहा है, दूसरी ओर वेद मन्त्रों को ब्राह्मणेतर से दूर रखने के लिये उनको उद्धृत करने से बचा जा रहा है

आचार्य शंकर ने अपने ग्रन्थों को ‘श्रुति’ कहकर केवल उपनिषद् वाक्यों को ही उद्धृत किया, कहीं भी वेद मन्त्र का उल्लेख प्रमाण के लिये नहीं किया।

इसलिये ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ये वेद वाक्य नहीं है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं और इनका नाम ‘महावाक्य’ कहीं सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा। इन वाक्यों की दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब चार वाक्य चार भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से प्रसंग से हटकर लिये गये हैं, तब एक ग्रन्थ का ब्रह्म पद दूसरे ग्रन्थ के तत् का अर्थ कैसे बन सकता है? यहाँ किसी भी तरह से ब्रह्म पद की अनुवृत्ति नहीं आ सकती। इस पर ऋषि दयानन्द ने लिखा है- तुमने इस छान्दोग्य उपनिषद् का दर्शनाी नहीं किया, जो वह देखी होती तो ऐसा झूठ क्यों कहते? वहाँ ब्रह्म शबद का पाठ नहीं है। – सत्यार्थ प्रकाश पृ. 224

आचार्य शंकर अद्वैत के बहाने शेष पाँचों दर्शनों का विरोध करते हैं, क्या यह मान्य किया जा सकता है?

शंकर परा पूजा में मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, दूसरी ओर ‘भज गोविन्दम्’ का पाठ करते हैं। कौन-सा सिद्धान्त मान्य होगा?

इससे भी आगे आचार्य शंकर उस क्रूर और पाखण्डपूर्ण हिन्दुत्व के समर्थक हैं, जिसके अनुसार स्त्री-शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में पहले अध्याय के तीसरे पाद में वेद पढ़ने के अधिकार के लिये इति ऐतिह्यं= ऐसा पारपरिक कथन है, कहकर पंक्तियाँ लिखी है- जिह्वाच्छेद।

यदि स्त्री और शूद्र वेद मन्त्र सुनें तो उनके कान में सीसा गर्म करके डाल देना चाहिए। यदि मन्त्र बोले तो जिह्वा छेदन कर देना चाहिए और वेद स्मरण करे तो शरीर भेद कर देना चाहिए। क्या पौराणिक लोग शंकर के इस कथन को राष्ट्रीय आदर्श घोषित कराना पसन्द करेंगे?

स्वामी ब्रह्ममुनि अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में प्रथम अध्याय के तृतीय पाद के 38वें सूत्र की व्याया में आचार्य शंकर के विषय में लिखते हैं-

यहाँ शाङ्करभाष्य में वेद का श्रवण करते हुए शूद्र के कानों को गर्म सीसे, धातु और लाख से भरना, वेद का उच्चारण करते हुए का जिह्वाछेदन करना, वेद का स्मरण कर लेने पर शिर काट देने का प्रतिपादन और उसका स्वीकार शङ्कराचार्य के द्वारा करना महान् आश्चर्य और अनर्थ की बात है। साथ ही इसको स्वीकार करने से भी बड़ी बात यह कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ = मैं ब्रह्म हूँ, जीव ब्रह्म की एकता के वाद का स्वीकार और प्रचार करने वाला व्यक्ति इस प्रकार के निर्दय कृत्य को उचित मानता है और सूत्रकार व्यास मुनि का सिद्धान्त है- ऐसा प्रतिपादन करके सूत्रकार को भी कलङ्कित करता है। यह ऐसा शिष्टाचार शिष्ट ऋषि-मुनियों का आचार नहीं जो कि यहाँ शङ्कराचार्य ने दिखलाया। यह तो शिष्टविरुद्ध और वेदविरुद्ध है।

हिन्दुत्व का अभिप्राय अन्याय, पाखण्ड और अन्ध-परमपरा नहीं है, आपने इसी अन्धी चाल के चलते श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रान्तिकारी की स्मृति में गुजरात में संग्रहालय तो बना दिया पर उसमें बड़े चित्र, काष्ठ मूर्तियाँ विवेकानन्द की लगा दीं, क्यों? कोई बता सकता है कि स्वामी विवेकानन्द और श्याम जी कृष्ण वर्मा के कार्य में कोई सामञ्जस्य है? स्वामी विवेकानन्द ने अपने पूरे जीवन में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये कोई कार्य किया है? जीवन में कभी अंग्रेज सरकार का विरोध किया है? किसी क्रान्तिकारी के लिये सहानुभूति या समर्थन में दो शबद कहे हैं, तो उन्हें अवश्य संग्रहालय दीर्घा में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए, अन्यथा तो राष्ट्रीय दार्शनिक उपाधि भी आचार्य शंकर के स्थान पर स्वामी विवेकानन्द को ही दे दें, तो अच्छा होगा, फिर बिरयानी और अद्वैत के मेल से अच्छा वेदान्त बनेगा। यदि किसी गौरव को स्थापित करना है तो वेद शास्त्र की और प्राचीन ऋषियों, आचार्यों की सुदीर्घ परमपरा है, उनको स्मरण करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से भारत का गौरव बढ़ेगा और नई युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी। आप सत्ता के सहारे मूर्खता को स्थापित करेंगे तो जो परिणाम पहले हुआ, वही फिर होगा। इसी अज्ञान से देश दासता को प्राप्त हुआ था, फिर भी वैसा ही होगा। यही कहना उचित होगा-

तातस्य कूपोऽमिति ब्रुवाणा

क्षारं जलं का पुरुषा पिबन्ति।।             – धर्मवीर