महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है- त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं। इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी! सादर नमस्ते!

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं।

इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– जगदीश प्रसाद हरित, गिरदौड़ा, नीमच, म.प्र.

समाधान– आर्यो के आलस्य प्रमाद के कारण वेद मत न्यून होता चला गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आर्यावर्त्त देश में अनेक-अनेक वेद विरुद्ध मत चल पड़े, जिनमें से चारवाक का वाममार्ग भी एक मत है। चारवाक एक वेद विरोधी नास्तिक व्यक्ति हुआ है। वह ईश्वर, जीव आदि को नहीं मानता था, पूर्वजन्म को नहीं मानता, इसी कारण उसने ऐसी बातें कहीं-

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।    (१)

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः।।         (२)

अर्थात् न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है, न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है, इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे । जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋण देना नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस शरीर से खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन किसको देगा? इस प्रकार की बातें चारवाक ने समाज में फैलाई, जिससे वेदमत की हानि हुई। चारवाक के वेद की निंदा से जुड़े जिस श्लोक को आपने जिज्ञासा समाधानार्थ दिया है वह है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्र्थात् नास्तिक चारवाक कहता है-‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।’’

इस पर महर्षि दयानन्द समीक्षा देते हुए ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ युक्त मन्त्र का अर्थ व भावार्थ और इन शब्दों की निष्पत्ति लिखते हैं।

महर्षि की समीक्षा-‘‘अब देखिए चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि ‘‘वेद भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष ने बनाए हैं।’’ ऐसा वचन कभी न निकालते। हाँ भाँड, धूर्त्त, निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं, परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना, न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा, इसलिए नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटाँग वेदों की निन्दा करने लगे। दुष्ट वाममार्गियों की प्रमाण शून्य कपोल कल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदों से विरोधी होकर अविद्या रूपी अगाध समुद्र में जा गिरे।’’

महर्षि ने यहाँ वेदों के टीकाकार महीधर जैसे को दोषी बताया है, जो कि पवित्र वेद ज्ञान का अर्थ अत्यन्त घृणित करके चला गया । महर्षि की यहाँ यह मान्यता  भी रही है कि यदि चारवाक आदि पक्षपात रहित हो वेदों की मूल संहिताओं को देखते पढ़ते तो कदापि वेदों के विषय में विपरीत बात न कहते।

अब ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ के विषय में लिखते हैं- इन शब्दों से युक्त मन्त्र इस प्रकार है-

सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।

उदन्यजेव जेमना मदेरुता मे जरारवजरं मरायु।।

– ऋ. १०.१०६.६

इस मन्त्र का अर्थ और इसके विषय में निरुक्त भाष्यकार श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने जो लिखा है वह यहाँ लिखते हैं-

(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर! तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है, (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फरीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करनेवाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चन्द्रमस अथवा समुद्र रत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचनेवाला तथा प्रसन्नताप्रद है। (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।

वेद का एक भी शब्द निरर्थक नहीं। जिनको वेद के शब्द निरर्थक व्यर्थ दिखते हैं, वे बाल बुद्धि हैं, जैसे चारवाक आदि नास्तिक लोग। इस मन्त्र में आये ‘जर्भरी’, ‘तुर्फरीतू’ आदि शब्दों के  विषय में आपने पूछा है, उनका अर्थ ऊपर मन्त्रार्थ में दे दिया है। जर्भरी का अर्थ है ‘भर्त्ता’ अर्थात् भरण-पोषण करने वाला। यह शब्द यङ्लुगन्त में ‘भृञ्’ धातु से ‘इ’ प्रत्यय करने से बनता है। और तुर्फरीतू का अर्थ है हन्ता, अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला। यह शब्द ‘तृफ’ हिंसायाम् धातु से ‘अरीतु’ प्रत्यय करने पर बनता है। इस प्रकार ये दोनों शब्द परमेश्वर के अर्थ वाचक हैं।

मन्त्र में ‘सृण्या इव’ कहा है, अर्थात् दात्री के तुल्य भरण-पोषण और हनन करने वाला है। दात्री दो तरह की होती है- भर्ती और हन्त्री अर्थात् वह दो काम करती है। चने आदि की खेती में पूर्वावस्था में शाक काटने से कृषि की वृद्धि होती है, परन्तु फसल पकने पर काटने से नष्ट हो जाती है। वह भरण तथा हनन दोनों काम करती है। इसी प्रकार परमेश्वर दोनों काम करता है-सज्जनों की रक्षा तथा दुर्जनों का नाश।

इस मन्त्र का अर्थ वेद भाष्यकार श्रीमान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी इस प्रकार करते हैं- सृण्या इव= (द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। नि. १३.५) अंकुश दो कार्य करता है, एक मत्तगज को अवस्थापित करने का और दूसरा अनिष्ट गातियों को रोकने का। इसी प्रकार ये पति-पत्नी जर्भरी= भरण करने वाले होते हैं और तुर्फरीतू= शत्रुओं के हन्ता होते हैं, वाञ्छनीय तत्त्वों का पोषण करने वाले और अवाञ्छनीयों को विनष्ट करने वाले हैं। नैतोषा इव= (नितोषयन्ति हन्ति) काम -क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करने वालों के समान तुर्फरी =(क्षिप्रहन्तारौ) शीघ्रता से शत्रुओं को विनष्ट करने वाले तथा पर्फरीका= (शत्रुणां विदारथितारौ) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले हैं, अथवा पात्र व्यक्तियों को धन से पूर्ण करने वाले हैं। (धनेन पूरथितारौ) उदन्यजा इव= (उदकजे इव रत्ने समुद्र्रे, नि. १३.५) समुद्रोत्पन्न कान्तियुक्त निर्मल रत्नों के समान जेमना= जयशील व मदेरु= सदा हर्षयुक्त। ऐसे पति-पत्नी जब माता-पिता बनते हैं तो ता= वे मे= मेरे जरायु= उस जरासे जीर्ण होनेवाले मरायु= मरणशील शरीर को अजरम्= अजीर्ण बनाते हैं, अर्थात् माता-पिता पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीरवाले होते हैं तो सन्तान का भी शरीर शीघ्र जीर्ण व मृत हो जाने वाला नहीं होता।

इस प्रकार इस मन्त्र का विशेष अर्थ चारवाक आदि नास्तिक लोग न देखकर वेदों की निंदा में अपना जीवन नष्ट कर गये, और जो भी वेद को विपरीत भाव से देखेगा, उसका भी जीवन व्यर्थ ही जायेगा।

आपने ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरीतू’ के विषय में पूछा कि ये क्या बला है, तो आपने इनके विशेष अर्थ देख लिए हैं कि ये बला नहीं, अपितु अपने अन्दर महान् अर्थ को लिए हुए हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

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