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डॉ0 अम्बेडकर द्वारा शूद्रों के आर्यत्व का समर्थन-डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर र मनु की मान्यता को उद्धृत करते हुए दृढ़ता से शूद्रों को आर्य तथा सवर्ण मानते हैं। उन्होंने उन लेखकों का जोरदार खण्डन किया है जो शूद्रों को अनार्य औेर ‘बाहर से आया हुआ’ मानते हैं। यह मत उन्होंने दर्जनों स्थानों पर व्यक्त किया है। यहां कुछ प्रमुख मत उद्धृत किये जा रहे हैं-

(क) ‘‘दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गयी है कि शूद्र अनार्य थे। किन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में इस सबन्ध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 319)

(ख) ‘‘धर्मसूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धान्त मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 42)

(ग) ‘‘शूद्र आर्य ही थे अर्थात् वे जीवन की आर्य पद्धति में विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में उन्हें आर्य कहा गया है। शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न जन्मजात और समानित सदस्य थे।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 322)

(घ) ‘‘आर्य जातियों का अर्थ है चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। दूसरे शदों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते हैं।’’ (वही, खंड 8 पृ0 217)

(ङ) ‘‘मनुस्मृति 10.4 श्लोक (ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः …जो इसी अध्याय के आरभ में उद्धृत है) दो कारणों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसमें शूद्रों को दस्यु से भिन्न बताया गया है। दूसरे, इससे पता चलता है कि शूद्र आर्य हैं।’’ (वही, खंड 8, पृ0 217 पर टिप्पणी)

(च) ‘‘शूद्र सूर्यवंशी आर्यजातियों के एक कुल या वंश थे। भारतीय आर्य-समुदाय में शूद्र का स्तर क्षत्रिय वर्ण का था।’’

(वही, खंड 13, पृ0 165)

(छ) ‘‘सवर्ण का अर्थ है चारों वर्णों में से किसी एक वर्ण का होना। अवर्ण का अर्थ है चारों वर्णों से परे होना। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सवर्ण हैं।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 15)

(ज) ‘‘जो चातुर्वर्ण्य के अन्तर्गत होते थे, उच्च या निन, ब्राह्मण या शूद्र, उन्हें सवर्ण कहा जाता था अर्थात् वे लोग जिन पर वर्ण की छाप होती थी।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय खंड 6, पृ0 181)

महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र आर्य और सवर्ण थे, शूद्र सबन्धी इन सिद्धान्तों में डॉ अम्बेडकर र ने मनु का नाम लेकर उनके मत का समर्थन किया है, फिर भी मनु का विरोध क्यों? मनुस्मृति-विरोधियों से इस प्रश्न का उत्तर अपेक्षित है।

मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य और सवर्ण हैं:डॉ सुरेन्द्र कुमार

(अ) मनुस्मृति में वर्णित महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य हैं और सवर्ण हैं। मनु की व्यवस्था है कि आर्यों के समाज में चार वर्ण हैं (द्रष्टव्य 10.4 श्लोक)। उन चार वर्णों के अन्तर्गत होने से शूद्रवर्ण सवर्ण भी है और आर्यों के समाज का अंग भी है। मनु ने केवल उस व्यक्ति को अनार्य और असवर्ण माना है जो वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत नहीं है-

       ‘‘वर्णापेतम्…….आर्यरूपमिव-अनार्यम्’’     (10.57)

    अर्थ-‘जो चार वर्णों में दीक्षित न होने से चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था से बाहर है और जो अनार्य है किन्तु आर्यरूप धारण करके रहता है, वह दस्यु है।’

मनु की वर्ण-व्यवस्था में आर्य-अनार्य, सवर्ण-असवर्ण का भेद संभव ही नहीं है, क्योंकि मुयतः चार वर्णों के ही परिवारों से गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार चार वर्ण बनते हैं। चारों वर्णों के व्यक्ति आर्य भी हैं और सवर्ण भी। शूद्र को अनार्य और असवर्ण परवर्ती जातिव्यवस्था में माना गया है; अतः उसका दायित्व मनु का नहीं, जातिवादियों का है। जातिवादियों ने मनु की बहुत-सी व्यवस्थाओं को बदल डाला है, ऐसी ही शूद्र-सबन्धी व्यवस्थाएं हैं। अनभिज्ञ लेखक और पाठक उन्हें मनु की व्यवस्था कहते हैं, यथा-

(क) शिल्प, कारीगरी, कलाकारी आदि कार्य करने वाले जनों को मनु ने वैश्यवर्ण के अन्तर्गत माना है किन्तु जाति व्यवस्थापकों ने उनको शूद्र कोटि में परिगणित कर दिया (10.99, 100)।

(ख) मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कर्म माना है (1.90)। किन्तु सदियों से ब्राह्मण, क्षत्रिय भी यह कार्य कर रहे हैं, किन्तु उनको जाति व्यवस्थापकों ने वैश्य घोषित नहीं किया, अपितु उल्टे अन्य जातियों के किसानों को शूद्र घोषित कर दिया। इस पक्षपातपूर्णव्यवस्था को मनु की व्यवस्था नहीं माना जा सकता।

शूद्र वर्ण में शूद्र जातियों का उल्लेख नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनुस्मति में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में केवल चार वर्णों के निर्माण का कथन है और उनके कर्त्तव्यों का निर्धारण है। किसी भी वर्ण में किसी जाति का उल्लेख नहीं है (1.31.87-91)। यही तर्क यह संकेत देता है कि मनु ने किसी जातिविशेष को शूद्र नहीं कहा है और न किसी जातिविशेष को ब्राह्मण कहा है। आज के शूद्र जातीय लोगों ने मनूक्त ‘शूद्र’ नाम को बलात् अपने पर थोप लिया है। मनु ने उनकी जातियों को कहीं शूद्र नहीं कहा।

परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों और जातियों को शूद्रवर्ग में समिलित कर दिया। कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिमेदारी मनु पर थोप रहे हैं। विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका अपयश मनु को दिया जा रहा है। न्याय की मांग करने वाले दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है? जब मनु ने वर्णव्यवस्था के निर्धारण में उनकी जातियों का उल्लेख ही नहीं किया है तो वे निराधार क्यों कहते हैं कि मनु ने उनको ‘शूद्र’ कहा है?

वास्तविकता यह है कि मनु के समय जातियां थीं ही नहीं। मनु स्वायंभुव का काल मानवों की सृष्टि का लगभग आदिकाल है। तब केवल कर्म पर आधारित ‘वर्ण’ थे, जाति को कोई जानता ही नहीं था। यदि जातियां होतीं तो मनु यह अवश्य लिखते कि अमुक जातियां शूद्र हैं। किन्तु मनु ने किसी जाति का नाम लेकर नहीं कहा कि यह शूद्रवर्ण की है। दशम अध्याय में अप्रासंगिक रूप से कुछ जातियों की गणना स्पष्टतः बाद की मिलावट है।

डॉ0 अम्बेडकर र ने स्वयं स्वीकार किया है कि भारत में जातियों का उद्भव बौद्धकाल से कुछ पूर्व हुआ था और जन्मना जाति व्यवस्था में कठोरता व व्यापकता पुष्पमित्र शुङ्ग (लगभग 185 ईस्वी पूर्व) के काल में आयी थी। मूल मनुस्मृति की रचना आदिकाल में हो चुकी थी अतः उसमें जातियों का उल्लेख या गणना संभव ही नहीं थी। इस कारण मनुस्मृति जातिवादी शास्त्र नहीं है। जातिवादी शास्त्र न होने से उसमें शूद्रों के प्रति असमान और भेदभाव भी नहीं है।

शूद्रों के सभी विवादों का समाधान : वैदिक वर्णव्यवस्था में: डॉ सुरेन्द्र कुमार

जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था सारे विवादों की जड़ है। उसने समाज में विघटन पैदा करके समाज और राष्ट्र की असीम हानि की है। उसी ने वर्णव्यवस्था को विकृत किया, उसी ने वर्णों में ऊंच-नीच, सवर्ण-असवर्ण, छूत-अछूत आदि का व्यववहार उत्पन्न किया। वैदिक काल में कर्मणा वर्णव्यवस्था में इस प्रकार का भेदभाव नहीं था, मनुष्य-मनुष्य में अमानवीय अन्तर नहीं था। वैदिक साहित्य में हमें जो उल्लेख मिलते हैं उनमें स्पष्ट शदों में सभी मनुष्यों को एक ब्रह्म की सन्तान माना गया है और एक ‘ब्रह्म वर्ण’ से ही अन्य तीन वर्णों की उत्पत्ति मानी है। इस स्थिति में ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का अवसर ही नहीं था। स्पष्ट है कि भेदभाव का व्यवहार न केवल वर्णव्यवस्था की मूल भावना के विरुद्ध है अपितु भारतीय संस्कृति के भी विरुद्ध है। भेदभाव की संस्कृति एक विकृति है जो वैदिक संस्कृति से मेल नहीं खाती। देखिए, शास्त्र क्या कहते हैं-

(क) शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् की एक आयापिका में यह स्पष्ट किया है कि सभी वर्ण ब्राह्मणवर्ण से ही निष्पन्न हैं-

‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (शतपथ 14.4.2.23-25; बृह0 उप0 1.4. 11-13)

    अर्थात्-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’

तीनों वर्ण एक ही ब्राह्मण-वर्ण के विकसित रूप हैं, अतः वैदिक वर्णव्यवस्था में कभी किसी वर्ण के साथ जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं हुआ। यही वैदिक व्यवस्था मनु की वर्णव्यवस्था है।

(ख) इन्हीं भावों को व्यक्त करने वाला एक अन्य श्लोक है जो वाल्मीकि-रामायण में भी आता है और पाठ भेद से महाभारत में भी। रामायण में कहा है-

एकवर्णाः समभाषा एकरूपाश्च सर्वशः।

तासां नास्ति विशेषो हि दर्शने लक्षणेऽपि वा॥

(उत्तरकाण्ड 30.19.20)

    अर्थात्-आदि समय में सभी लोग एक ब्राह्मण-वर्णधारी ही थे, एक समान भाषा बोलने वाले थे, सभी व्यवहारों में एक सदृश थे। उनके वेश और लक्षणों में किसी प्रकार की भिन्नताएं नहीं थीं।

(ग) महाभारत में भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा है-

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।

ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥

(शान्तिपर्व 188.11)

    अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों के भेद से इनमें कोई भेद नहीं है। बस, इतना ही अन्तर है कि आदिसृष्टि में ब्रह्मा द्वारा वर्णव्यवस्था निर्मित करने के बाद लोग कर्मों के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्ण के नाम से पुकारे जाने लगे।

यह है असली वैदिक वर्णव्यवस्था! इसमें न व्यक्ति में भेदभाव है, न वर्णों में। ब्रह्मा द्वारा निर्धारित यही वर्णव्यवस्था आरभ में प्रचलित थी। ब्रह्मा के पुत्र मनु ने भी इसी को अपने शासन में प्रचलित किया था। मौलिक मनुस्मृति में यही भावना निहित थी। अब प्राप्त मौलिक श्लोकों में भी यही समानता की भावना है। परवर्ती लोगों ने स्वार्थवश प्रक्षेप करके उस भावना को कहीं-कहीं क्षत-विक्षत कर दिया। उस क्षत-विक्षत व्यवस्था को मनुकालीन व्यवस्था नहीं कहना चाहिए। मनु की व्यवस्था तो उपर्युक्त ही है। वही शूद्रों के वर्तमान विवादों को निपटाने की एकमात्र औषध है। उसका संदेश है-सभी एक ईश्वर की सन्तान हैं, सभी एक वर्ण का विकास हैं, सभी महत्त्वपूर्ण हैं, एक पिता की सन्तानों में कोई भेदभाव नहीं है।

कुरान समीक्षा : दोजख में आंतें गल जावेंगी

दोजख में आंतें गल जावेंगी

पेट के अन्दर के सभी हिस्से गल जाने पर भी इन्सान जिन्दा बना रहेगा यह साबित करके दिखावें वरना इसे गप्प क्यों न मानी जावे?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

हाजानि खस्-मानिख्-त- समू………।।

(कुरान मजीद पारा १७ सूरा हज्ज रूकू २ आयत १९)

जो लोग खुदा को नही मानते उनके लिये आग के कपड़े हैं। उनके सिरों पर खोलता हुआ पानी डाला जायेगा।

युस्हरू बिहीमा फी बुतूनिहिम्…………।।

(कुरान मजीद पारा १७ सूरा हज्ज रूकू २ आयत २०)

जिससे जो कुछ उनके पेट में हैऔर खाले गल जायेंगी।

म-सलुल्- जन्नतिल्लती बुअिदल्…………..।।

(कुरान मजीद पारा २६ सूरा मुहम्मद रूकू २ आयत १५)

और उनको मारने-ठोकने के लिए लोहे के हथोड़े (इस्तेमाल) होंगे। उनको खोलता हुआ पानी पिलाया जायेगा, और वह उनकी आंतों के टुकड़े-टुकड़े कर डालेगा।

(कुरान मजीद पारा २६ सूरा मोहम्मद रूकू २ आयत १५)

समीक्षा

जब आग शरीर की खाल जल जावेगी, मांस भुन जावेगा तथा पेट के अन्दर के सभी हिस्से जिगर-तिल्ली गुर्दे आंतें गल कर मिट जावेंगे तो फिर इन्सान जिन्दा कैसे रहेगा?

नोट- जब वह मर जायेंगे तो पानी किसे पिलाया जायेगा? किन्हें लोहे के हथोड़े से ठोका जायेगा? क्या कोई ठिकाना है इस तरह की बातों को पेश करने का? क्या ऐसी बातें कोई खुदा कह सकता है? हर्गिज, हर्गिज नहीं। इन बातों के कहने से खुदा का ऐसा कौन सा रूतबा बढ़ता है? कुछ भी तो नहीं, हमारे मुसलमान भाईयों को ऐसी बे सिर पैर की बातों पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये।

‘‘लाजपत राय अग्रवाल’’

महर्षि दयानन्द जी और राधास्वामी समप्रदाय

महर्षि दयानन्द जी और राधास्वामी समप्रदाय

– धर्मेन्द्र जिज्ञासु

राधास्वामी समप्रदाय के कुछ बन्धुओं ने यह राग छेड़ा कि ऋषि दयानन्द जी ने हमारे मत के संस्थापक से आगरा में भेंट करके राधास्वामी मत का मन्त्र लिया या दीक्षा ली। इसका प्रमाण यह है कि महर्षि ने अपने ग्रन्थ में राधास्वामी मत का खण्डन नहीं किया।

आर्यसमाज के ‘भीष्म पितामह’ श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ‘परोपकारी’ पत्रिका में राधास्वामियों के इस राग की खटिया खड़ी कर दी। अभी प्रकाशित अपने संस्मरणों के तीसरे भाग ‘साहित्यिक जीवन की यात्रा’ के पृष्ठ 171 व 172 पर इसके खंडन में ये प्रमाण दिए गए हैं-

  1. तब यह मत नया था, अतः ऋषि ने समीक्षा करना आवश्यक न समझा।
  2. जालन्धर में मौलवी अहमद हसन से चमत्कार विषय पर शास्त्रार्थ करते हुए श्री शिवदयाल का नामोल्लेख चमत्कार-खंडन में किया गया है।

(‘महर्षि दयानन्द सरस्वती-सपूर्ण जीवन-चरित्र’ पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक (राजेन्द्र जिज्ञासु)-पृष्ठ 80 पर)

  1. राधास्वामी मत के गुरु हुजूर जी महाराज, गुरु साहिब जी महाराज तथा बाबा सावनसिंह जी की पुस्तक में ऋषि की चर्चा है, पर गुरु-मन्त्र लेने या दीक्षा का वर्णन कहीं भी नहीं है।

इस सफेद झूठ का मुँह काला करने हेतु कुछ और तथ्य इस लेख में प्रस्तुत हैं।

राधास्वामी सत्संग व्यास से सन् 1997 में प्रकाशित ‘सार वचन राधास्वामी (छन्द-बन्द)’ के अनुसार-

संत हुजूर स्वामीजी महाराज सेठ शिवदयालसिंह जी का जन्म अगस्त सन् 1818 ई. को आगरा में हुआ। आपके खानदान में सभी गुरु नानक साहिब की वाणी का पाठ किया करते थे। हुजूर स्वामी जी महाराज ने जितना अरसा सत्संग किया, गुरु ग्रन्थ साहिब और तुलसी साहिब की वाणी का पाठ करते रहे। (पृ. क)

जनवरी सन् 1861 ई. को स्वामी जी महाराज ने अपने मकान पर सन्त मत का उपदेश शुरू किया, जो सत्रह वर्ष तक जारी रहा। जून सन् 1878 ई. को इन्होंने अपना चोला छोड़ा।

राधास्वामी मत का दूसरा नाम ‘संत-मत’ है। राधा यानि आदि सुरत या आत्मा और स्वामी आदि शबद, कुल का कर्त्ता है। (पृ. ङ)

परन्तु सिक्ख मिशनरी कॉलेज लुधियाना से प्रकाशित पुस्तक- ‘देहधारी गुरुडम की शंकाओं के उत्तर’ में इस दर्शन का खंडन करते हुए लिखा हैः-

‘‘राधास्वामी नाम कोई ईश्वरवादी नाम नहीं। न ही इसके अर्थ-सुरत-शबद के हैं। यह शिवदयाल स्वामी की पत्नी ‘राधा’ के नाम से चला मत है, जिसके अर्थ और रूप को बाद में बदलने का व्यर्थ यत्न किया गया है।’’ (राधास्वामी सत्संग व्यास से प्रकाशित पुस्तक- ‘जिज्ञासुओं के लिए’ पृ. 28)

यह बात ‘सार-वचन राधास्वामी’ पुस्तक के वर्णन के आधार पर सोलह आने सच साबित होती है। देखिए वचन 5:-

‘‘फिर स्वामी जी महाराज ने राय साहिब सालगराम की तरफ फरमायाः- कि जैसा मुझको समझते हो वैसा ही अब राधा जी को समझना और राधा जी और छोटी माता जी को बराबर जानना। (पृष्ठ ट) (इस पृष्ठ पर पाद टिप्पणी में लिखा है कि माता जी का असली नाम नारायण देवी था। महाराज जी के मँझले भाई की सुपत्नी को छोटी माता कहा है।)’’

वचन 6:- फिर राधा जी ने महाराज को हुकम दिया कि सिबो और बुक्की और बिशनों को पीठ न देना। (पाद टिप्पणी- ये तीनों हुजूर स्वामी जी महाराज की खास सेविकायें थीं।)

वचन 10:- गृहस्थी औरतें बाग में जाकर किसी साधु की पूजा और सेवा न करें। राधा जी के दर्शन और पूजा करें। (पृष्ठ ठ)

वचन 14:- फिर सेठ प्रतापसिंह को फरमाया- मेरा मन तो सतनाम और अनामी का था और राधास्वामी मत सालगराम का चलाया हुआ है। इसको भी चलने देना। (पृष्ठ ड)

वचन 18:- फिर राधा जी की तरफ फरमाया- मैंने स्वार्थ और परमार्थ दोनों में कदम रखा है, यानि दोनों बरते हैं, सो संसारी चाल भी सब करना और साधुओं को भी अपनी रीति करने देना। (पृष्ठ ढ)

ये सभी वचन दिनांक 15 जून सन् 1878 अर्थात् शरीर छोड़ने वाले दिन के हैं।

यह उल्लेखनीय तथ्य है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी राधास्वामी महाराजों के श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के अर्थ को सही नहीं मानती। इस कारण इनमें टकराव भी होता रहता है। हुजूर महाराज चरनसिंह जी के सन् 1964 ई. में अमरीका यात्रा के समय के प्रश्नोत्तरों को ‘सन्त-संवाद भाग-1’ में संकलित किया गया है। पृष्ठ 24 पर हुजूर महाराज फरमाते हैंः-

‘‘गुरुमत सिद्धान्त’’ यह पुस्तक हुजूर महाराज सावनसिंह जी ने श्री आदि ग्रन्थ के आधार पर विशेष रूप से सिक्खों के लिए लिखी थी। जब पंजाब में राधास्वामी मत के उपदेश को समझाना शुरू किया गया, तब सिक्खों में खलबली मच गई। लोग समझने लगे कि महाराज जी श्री आदि ग्रन्थ का अर्थ सही नहीं बता रहे हैं।

सन् 2012 ई. में अमृतसर के गाँव वरायच में गुरुद्वारे को नुकसान पहुँचाया गया, जिसकी वजह से राधास्वामियों और सिक्खों में काफी तनातनी रही। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि राधास्वामी सत्संग व्यास के सचिव जे.सी. सेठी ने स्पष्टीकरण दिया-

“ we would like to make it clear that radha swami satsang beas holds the revered 10 sikhs gurus and the holy shri guru granth sahib ji in the highest esteem “

‘अर्थात् हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि राधास्वामी सत्संग यास पूजनीय 10 सिक्ख गुरुओं तथा पवित्र श्री गुरु ग्र्रन्थ साहिब जी का सर्वोच्च समान करता है।’

(हिन्दुस्तान टाइस (अंग्रेजी), जालन्धर, शुक्रवार, 20 जुलाई 2012 ई. पृष्ठ 3)

सत्यार्थ प्रकाश में राधास्वामी मत का खण्डन क्यों नहीं किया गया?

  1. सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण (आदिम संस्करण) सन् 1875 ई. में प्रकाशित हुआ। राधास्वामी मत का प्रचार सन् 1861 ई. में आगरे में श्री शिवदयाल जी ने शुरू किया तथा सन् 1878 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। सत्यार्थ प्रकाश छपने तक राधास्वामी मत को चले मात्र 13-14 वर्ष हुए थे, अतः इसका प्रभाव इतना नहीं था कि इसके बारे में अलग से कुछ लिखा जाता।
  2. जैसा कि विगत पृष्ठों में राधास्वामी मत की पुस्तक ‘सार-वचन’ में वर्णन है कि श्री शिवदयाल जी के परिवार में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी व तुलसी साहिब का ही पाठ होता था। वो खुद भी इनका ही पाठ करते थे। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में श्री गुरु नानक देव जी आदि 6 गुरुओं तथा 30 अन्य साधुओं जैसे कबीर, दादू, तुलसी, मीरा आदि की वाणियाँ/शबद हैं।

सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में कबीर-पन्थ समीक्षा, नानक-पन्थ समीक्षा, दादू-पन्थ समीक्षा के माध्यम से अपरोक्ष रूप से इस मत के सिद्धान्तों की भी समीक्षा समझी जा सकती है।

  1. राधास्वामी मत में गुरु-मन्त्र लेने व गुरु-धारण करने का अत्यधिक महत्त्व है। सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास में गुरु-मन्त्र व्याया तथा एकादश समुल्लास में गुरु-माहात्य समीक्षा से इस मत के 2 मुखय स्तमभ भरभरा कर गिर जाते हैं।

ऋषि दयानन्द जी के जीवन में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जो राधास्वामी मत के मुय आधारों- नाम-दान, गुरु-धारण, गुरु-मन्त्र इत्यादि का खण्डन ही करते हैं, जैसे-

  1. ऋषि दयानन्द जी दण्डी विरजानन्द जी प्रज्ञाचक्षु को ‘गुरु दक्षिणा’ में अपना समस्त जीवन भारतवर्ष में आर्ष ग्रन्थों की महिमा व वैदिक-धर्म की स्थापना करने हेतु दान कर चुके थे। इसके बाद ही वे आगरा गए थे। किसी भी जीवन-चरित्र में उनका श्री शिवदयाल जी से मिलना नहीं लिखा। हाँ, पुष्कर निवास के समय एक शिवदयालु का नाम आता है, परन्तु वह ब्रह्मा-मन्दिर के पुजारी थे।
  2. 2. सन् 1872 ई. में आरा में ऋषि दयानन्द जी ने एक व्याखयान में कहा- ‘‘दीक्षा ग्रहण करने की रीति आधुनिक है, मन्त्र देने का अर्थ कान में फूँक मारने का नहीं।’’ (महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र, देवेन्द्रनाथ मु. पृ. 211)
  3. मुझे गुरु मत मानो- प्रयाग में सन् 1874 ई. में कहा- ‘‘ऋषि-प्रणाली का अनुसरण करो, मुझे गुरु मानने से तुमहारा क्या प्रयोजन है?’’ (त्रयोदश अध्याय पृ. 265)
  4. 4. ठाकुर उमराव सिंह ने स्वामी जी से कहा कि मुझे शिष्य बना लीजिए तथा मन्त्र दे दीजिए। स्वामी जी ने कहा कि हम किसी को शिष्य नहीं बनाते और सारे मन्त्र तो वेद में हैं, हम क्या मन्त्र देंगे? (भरुच-सन् 1874 ई., पञ्चदश अ., पृ. 290)
  5. चाँदपुर में स्वामी दयानन्द जी का उपदेश-

‘‘संसार में अन्धकार फैल रहा है, अनेक प्रकार से जनता को धोखा दिया जा रहा है, लोग महन्त बनकर मनुष्यों को ठगते और उनका धन हरण करते हैं, कोई कहता है- कान बन्द करके अनहद शद सुनो, उसमें सब प्रकार के बाजों के शबद सुनाई देते हैं। कोई कहता है कि ‘सोऽहम’ आदि स्वर से जपो, फिर जब जीव मरेगा, उसी शबद में समा जाएगा और उसका आवागमन न होगा।’’

(मार्च 1877 ई. सप्तदश अध्याय)

  1. अमृतसर में मनसुखराम ने गुरुमन्त्र देने की प्रार्थना की तो स्वामी जी बोले कि गायत्री-मन्त्र ही गुरु-मन्त्र है। (सन् 1877 ई., एकोनविंश अ., पृ. 384)

और अब चोट लुहार की

अब राधास्वामी बन्धुओं की सेवा में दो सीधी-सादी घटनायें प्रस्तुत हैंः-

  1. 1. महर्षि दयानन्द जी सन् 1878 ई. में मुलतान में थे। वहाँ एक व्याखयान में आपने सन्त-मत की और दूसरे में सिक्ख-मत की आलोचना की थी।

(विंश अध्याय, पृ. 414)

सन्त-मत राधास्वामी मत का ही दूसरा नाम है, यह सप्रमाण पीछे बताया जा चुका है।

  1. 2. 26 दिसबर सन् 1880 ई. को आगरा नगर में आर्यसमाज स्थापित हो गया।

आगरा में राधास्वामी साधुओं का भ्रम भंजन

राधास्वामी साधु, गुरु की सहायता और उपदेश के बिना कोई मनुष्य संसार-सागर से पार नहीं हो सकता।

स्वामी दयानन्द जी- गुरु की शिक्षा तो आवश्यक है, परन्तु जब तक शिष्य अपना आचरण ठीक न करे तब तक कुछ नहीं हो सकता।

राधा0- ईश्वर के दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं?

स्वामी जी- इस प्रकार नहीं हो सकते जिस प्रकार तुम लोग अपनी मूर्खता से करना चाहते हो।

राधा0- ईश्वर तो भक्त के अधीन है।

स्वामी जी- ईश्वर किसी के अधीन नहीं। उसकी भक्ति तो अवश्य करनी चाहिए, परन्तु पहले यह तो समझ लो कि भक्ति है क्या वस्तु? जिस प्रकार से तुम लोग भक्ति करना चाहते हो, वह तो सामप्रदायिक है, ऐसे-ऐसे तो बहुत से समप्रदाय लोगों को बिगाड़ने वाले हुए हैं, इनसे इस लोक वा परलोक का कोई लाभ नहीं है। बिना पुरुषार्थ किए कोई वस्तु अपने आप प्राप्त नहीं हो सकती।

राधा0- हम और हिन्दुओं से तो अच्छे हैं (मूर्त्ति-पूजा नहीं करते)

स्वामी जी- नहीं, हिन्दू तो राम-कृष्ण को ही ईश्वर का अवतार मानते हैं, तुम तो गुरु को परमेश्वर से भी बड़ा मानते हो।

राधा0- वेद के पढ़ने में बहुत समय नष्ट होता है, परन्तु उससे भक्ति की उपलबधि नहीं होती।

स्वामी जी- जो कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करते और भिक्षा माँगकर  पेट पालना चाहते हैं, उसके लिए वेद पढ़ना कठिन है, फिर उसे भक्ति प्राप्त ही कैसे हो सकती है?

(आगरा सन् 1880 ई., षड्विंश अध्याय, पृ. 542 से 543) उपरोक्त घटनाओं के सन्दर्भ में राधास्वामी मत के खंडन करने की बात अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखती।

छात्र ने कहा – बाइबिल नहीं वन्देमातरम गाऊँगा .. बस , उसकी जिंदगी और कैरियर दोनों हो गए तबाह

छात्र ने कहा – बाइबिल नहीं वन्देमातरम गाऊँगा .. बस , उसकी जिंदगी और कैरियर दोनों हो गए तबाह

ये कृत्य बहुत पहले से चल रहा था . उसे सब जानते थे . क़ानून मंत्रालय भी , शिक्षा मंत्रालय भी .. पर सब आँख मूँद कर देख रहे थे .. और इसका विरोध करने की हिम्मत जब एक ने की तो उसकी जिंदगी और कैरियर कर डाला बर्बाद .  मामला इलाहाबद के नैनी क्षेत्र स्थित शियाट्स कालेज का है . वहां बहुत पुराना नियम है कि वहां प्रार्थना हमेशा बाइबिल की करवाई जाती है. काफी लम्बे समय से ये सब वहां चलता रहा , कभी किसी ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई और सब भले ही वो किसी धर्म , पंथ या मज़हब से रहे हो , वो चुपचाप बाइबिल गाते रहे .  अचानक कुछ लोगों को बदले परिवेश और माहौल में ये कार्य थोड़ा उचित नहीं लगा . उन्होंने सोचा कि एक वर्ग भर को सम्बोधित करने वाली बाइबिल के बजाय यहाँ सम्पूर्ण भारत को सम्बोधित करता हुआ वन्देमातरम का गान होना चाहिए और इसी आशा और उम्मीद के साथ एक PHD छात्र अभय ने कालेज प्रबंधन को प्रार्थना पत्र दे दिया . उसमे निवेदन था कि कृपया भारत की सीमा के अंदर आने वाले इस विश्व विद्द्यालय में बाइबिल के बजाय वन्देमातरम करवाई जाय . कालेज प्रबंधन उस प्रार्थना पत्र को पाते ही आग बबूला हो गया और सीधे उस छात्र को बुलाते हुए कहा कि ये सब यहाँ नहीं चल सकता और अगर तुम्हारे ऊपर ज्यादा ही देश्बक्ति सवार है तो उसका इलाज हम कर देते हैं . अगले दिन उस छात्र के हाथ में निलंबन का लेटर पकड़ा कर कहा गया कि आगे की पढ़ाई वहां से जाओ करो जहाँ तुम्हारा वन्देमातरम चलता हो .. अभय अपना कैरियर और जीवन तबाह होता देख कर एक बार तो चकरा गया पर उसकी एक भी दलील सुनने को शियाट्स कालेज प्रबंधन तैयार नहीं था .  हार कर ये बात उसने अपने अन्य साथियों को बताई तो काफी दिन से दबा कुचला छात्र वर्ग आंदोलित हो उठा और अपने मित्र अभय की बहाली की मांग करने लगा . पर कालेज प्रशाशन जरा सा भी झुकने को तैयार नहीं हुआ . अंत में वो छात्र अपने मित्र छात्रों के साथ इलाहाबाद के जिलाधिकारी से मिला और अपने लिए न्याय माँगा .. छात्र अभय का कहना है कि अभी तक कालेज या इलाहाबाद प्रशासन ये नहीं बता पाया कि उसे किस बात की सज़ा मिली है . ये घटना राष्ट्र के अंदर चल रही एक बहुत बड़ी आतंरिक षड्यंत्र को चिन्हित करती है जिसका सीधा सम्बन्ध उन छात्रों से है जिन्हे डाक्टर , इंजीनियर या कुछ और बनने से पहले अपने धर्म या मजहब के लिए समर्पण करवाया जा रहा है वो भी जबरदस्ती …

source: http://www.sudarshannews.com/category/national/student-dismiss-due-to-demand-of-vandematarm-1057

कुरान समीक्षा : कुरान फरिश्ते का पैगाम है

कुरान फरिश्ते का पैगाम है

कुरान जब यह खुली घोषणा कसम खा-खाकर करता है कि यह एक फरिश्ते का पैगाम है तो वह खुदाई पैगाम नहीं रहा। क्या खुदा भी कोई फरिश्ता था? कुरान को खुदाई साबित करों।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

वल्लैलि इजा अस्-अस…………।।

(कुरान मजीद पारा २२ सूरा तक्वीर रूकू १ आयत १७)

और रात की कसम जब उसका उठान हो।

वस्सुब्हि इजा त-नफ्फस………….।।

(कुरान मजीद पारा २२ सूरा तक्वीर रूकू १ आयत १८)

और सुबह की (कसम) जिस वक्त उसकी पौ फटती है।

इन्नहू लकौलु रसूलिन् करीमिन्……….।।

(कुरान मजीद पारा २२ सूरा तक्वीर स्कू १ आयत १९ )

बेशक ! यह (कुरान) एक प्रतिष्ठत फरिश्ते का पैगाम है।

वह मा हु-व बिकौलि शैतानिर्…………।।

(कुरान मजीद पारा २२ सूरा तक्वीर रूकू १ आयत २५)

यह शैतान ‘‘मर्दूद’’ का कहा हुआ नहीं है।

समीक्षा

यह तो कोई नहीं कहता कि कुरान शैतान का कहा हुआ है, मगर इसमें यह भी साफ शब्दों में घोषणा कर दी गई है कि कुरान प्रतिष्ठित फरिश्ते का पैगाम है।

अर्थात् यह खुदा के द्वारा कहा गया या उसका बनाया हुआ या उसका भेजा हुआ पैगाम अर्थात् खुदायी किताब हरगिज नहीं है।

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

हर आर्यसमाजी को एक चिन्ता सताती है कि आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार कैसे हो। अलग-अलग लोग अपनी-अपनी सममति देते हैं। सबसे पहले वे लोग हैं जो लोगों को आकर्षित करने के लिये लोकरञ्जक उपायों को अपनाने का सुझाव देते हैं। कोई सत्संग में भोजन का सुझाव देता है, तो कोई बच्चों में मिठाई बाँटने की बात करता है। खेल-मेले, आयोजन की बात करता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी कहा करते थे कि आज आर्यसमाज का सारा कार्यक्रम तीन बातों तक सिमट गया है- जलसा, जूलूस और लंगर। भीड़ जुटाने के लिये हमारे पास विद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। बच्चों और विद्यालय के अध्यापकों की संखया जोड़कर आर्यसमाज के कार्यक्रम सफल किये जाते हैं।

नगर के स्तर पर यदि दो-चार समाजें हैं तो उत्सव के समय आर्यसमाजों के लोग मिलकर एक-दूसरे के कार्यक्रम में समिलित हो जाते हैं, तो संखया सौ-पचास हो जाती है और हम उत्सव सफल मान लेते हैं, प्रान्तीय स्तर हो या राष्ट्रीय स्तर, सभी स्थानों पर वही मूर्तियाँ आपको दिखाई देती हैं। यदि इस संखया को बढ़ाना हो तो हम अपने कार्यक्रम में किसी राजनेता को बुला लेते हैं।

ऐसे व्यक्ति के आने से उनके साथ आने वालों की संखया से समारोह की भीड़ बढ़ जाती है। समाज का भी कोई कार्य हो जाता है तथा राजनेताओं को जन-समपर्क करने का अवसर मिल जाता है। हमारी इच्छा रहती है कि हम कोई ऐसा कार्य करें, जिससे हमारे कार्यक्रमों में लोगों की भागीदारी बढ़े। हम अपने कार्यक्रमों की तुलना समाज के पन्थों, महन्तों के कथा आयोजनों से करते हैं। आजकल ये कथाएँ भागवत, सत्यनारायण, सुन्दरकाण्ड, और भी बहुत सी पौराणिक कथायें चलती हैं, इनसे लोगों का मनोरञ्जन हो जाता है, कथावाचक को अच्छी दक्षिणा की प्राप्ति हो जाती है और आयोजक भी  सोचता है कि वह पुण्य का भागी है। आर्यसमाज के पास ऐसी लोक लुभावन कथा तो है नहीं। आर्यसमाज वेद-कथा करता है, इस कथा को करने वाले ही नहीं मिलते तो सुनने वाले कहाँ से मिलेंगे।

हमें समझना चाहिए कि हमारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे भीड़ को आकर्षित किया जा सके। भीड़ आकर्षित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है- चमत्कार दिखाकर जनसामान्य को मूर्ख बनाना। साईं बाबा, सत्य सांई, आसाराम, निर्मल दरबार, सच्चा सौदा व सैंकड़ों मत-मतान्तर हैं, जो चमत्कारों से जनता पर कृपा की वर्षा करते हैं, ऋषि दयानन्द ने किसी को कोई चमत्कार नहीं दिखाया।

न कोई झूंठा आश्वासन दिया। आज व्यक्ति ही नहीं बल्कि मत-समप्रदाय भी लोगों को चमत्कारों से ही मूर्ख बनाते हैं। ईसाई लोग चंगाई का पाखण्ड करते हैं, दूसरों के पाप ईसा के लिये दण्ड का कारण बताते हैं। ईसा पर विश्वास लाने पर सारे पाप क्षमा होने की बात करते हैं। मुसलमान खुदा और पैगमबर पर ईमान लाने की बात करते हैं। खुदा पर ईमान लाने मात्र से ईमान लाने वाले को जन्नत मिल जाती है। जिहाद करने, काफ़िर को मारने से और कुछ भी बिना किये खुदा जन्नत बखश देता है। पौराणिक गंगा-स्नान कराके ही मुक्त कर देता है। व्रत-उपवास, कथाओं से ही दुःख ढ़ल जाते हैं, स्वर्ग मिल जाता है। मन्दिर में देव-दर्शन से पाप कट जाते हैं। सारे ही लोग जनता को मूर्ख बनाते हैं और भीड़ चमत्कारों के वशीभूत होकर ऐसे गुरु, महन्त, मठ, मन्दिरों पर धन की वर्षा करती है। क्या ऋषि दयानन्द ने कोई चमत्कार किया अथवा क्या आर्यसमाज के पास कोई चमत्कार है, जिसके भरोसे भीड़ को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है?

इसके अतिरिक्त लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का उपाय है-प्रलोभन। कोई व्यक्ति किसी के पास किसी के लाभ विचार से जाता है। कुछ लोग भोजन, वस्त्र, धन का प्रलोभन देते हैं। ईसाई लोग गरीबों में भोजन, वस्त्र बाँटकर लोगों को अपने पीछे जोड़ते हैं। कुछ लोग प्रतिष्ठा के लिये किसी गुरु, महन्त के चेले बन जाते हैं। किसी मठ-मन्दिर में नौकरी, समपत्ति का लोभ मनुष्य  को उनके साथ जोड़ता है। मुसलमान और ईसाई लोगों को नौकरी और विवाह का प्रलोभन देते हैं। आर्यसमाज में प्रलोभन के अवसर बहुत थोड़े हैं, परन्तु उनका उपयोग नये लोगों को अपने साथ जोड़ने या पुराने लोगों से काम लेने के लिये नहीं किया जाता, आर्यसमाज की समपत्ति या उसकी संस्थाओं का उपयोग अधिकारी प्रबन्धक लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये करते हैं। इसी कारण इन संस्थाओं में कार्य करने वाला व्यक्ति आर्य-सिद्धान्तों से जुड़ना तो दूर जानने की इच्छा भी नहीं करता।

आर्यसमाज में आने का एक लोभ रहता है- सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना। समाज की प्रजातान्त्रिक चुनाव-पद्धति के कारण किसी का भी इस संस्था में प्रवेश सरल है, दूसरे लोग संस्थाओं में घुसकर सपत्ति व पदों पर अधिकार कर लेते हैं, इनका विचार या सिद्धान्त से विशेष समबन्ध नहीं होता। संगठन के पास ऐसे अवसर इतने अधिक भी नहीं हैं कि इनसे अन्य मत-मतान्तर के लोगों में इसके प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न हो सके। ऋषि दयानन्द के पीछे आने वाले लोगों में पहले भी कोई प्रलोभन नहीं था। आज तो संस्था के पास समपत्ति, भूमि, भवन, विद्यालय, दुकानें आदि बहुत कुछ हैं, परन्तु आर्यसमाज के प्रारमभिक दिनों में आर्यसमाज में आने वालों ने अपना समय, धन, प्रतिष्ठा, प्राण सभी कुछ समाज और ऋषि की भावना के लिये अर्पित किया। फिर कौन सा कारण है, जिससे हमें लगता है कि लोग ऋषि के पीछे आते थे और आज हमारे पीछे क्यों नहीं आते?

लोग चमत्कारों के पीछे जाते हैं। हमारे पास चमत्कार नहीं है, ऋषि के पास भी नहीं थे। हमारे पास भी किसी को लाभ पहुँचाने के लिये कोई साधन नहीं है। फिर कौन सी बात है, जिसके कारण लोग ऋषि के अनुयायी बने, उनके पीछे चले और फिर आज हमारे में कौन सी कमी आ गई है, जिसके कारण लोग हमारी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं? वह इन सब बातों का एक उत्तर है- ऋषि दयानन्द ने जो कुछ कहा था, वह बुद्धि को स्वीकार करने योग्य और तर्क-संगत था। जो कहा, यथार्थ था, सत्य था, तर्क और प्रमाण से युक्त था। लोगों को स्वीकार करने में संकोच नहीं होता था। जो भी उनकी बात सुनता था, उसकी समझ में आ जाती थी और वह उनका अनुयायी हो जाता था।

ऋषि दयानन्द ने दुकानदारी का सबसे बड़ा आधार कि भगवान् पाप क्षमा करता है, इसे ही समाप्त कर दिया। ईश्वर ने संसार बनाया और जीवों के उपकार के लिये बनाया। प्रत्येक प्राणी के जीवन के लिये जो जितना आवश्यक है, उसे देता है, परन्तु जिसका जितना व जैसा कर्म है, उसको उतना और वैसा ही फल देता है। वह अपनी इच्छा से कम या अधिक नहीं कर सकता। इसका कारण बताया कि वह न्यायकारी है। यदि किसी को कुछ भी दे सकता तो सबको सब कुछ बिना किये ही दे देता। सबको सब कुछ बिना किये ही मिलता तो किसी को कुछ भी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। कर्म करने की आवश्यकता नहीं रही, तो संसार के बनाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।

ऋषि कहते हैं- ईश्वर से जीव भिन्न है, न वह उससे बना है और न कभी उसका उसमें लय होता है। न जीव कभी ईश्वर बनता है और न ईश्वर कभी जीव बनता है। अवतारवाद पाखण्ड है। गंगा आदि में स्नान करने से मुक्ति मानना पाखण्ड है। देवता जड़ भी होते हैं, चेतन भी। परमेश्वर निराकार चेतन देवता है, शरीरधारी साकार चेतन तथा शेष जड़ देवता हैं। मूर्ति न परमेश्वर है, न मूर्ति-पूजा परमेश्वर की रजा है, यह तो व्यापार है, ठगी है। तीर्थ यात्रा से भ्रमण होता है, कोई पुण्य या स्वर्ग नहीं मिलता। जन्म से ऊँच-नीच, जाति-व्यवस्था मानना मनुष्य समाज का दोष है, इससे दुर्बलों को उनके अधिकार से वञ्चित किया जाता। विद्या-ज्ञान का अधिकार सब मनुष्यों को समान रूप से प्राप्त है। इस प्रकार सैकड़ों पाखण्ड इस समाज में व्याप्त थे, उन सबका ऋषि दयानन्द ने प्रबल खण्डन किया। यह अनुचित है तो फिर ईसाई हो या मुसलमान, जैन हो या बौद्ध, हिन्दू हो या पारसी, आस्तिक हो या नास्तिक, कुरान में हो या पुराण में, देशी हो या विदेशी, जहाँ पर जो भी गलत लगा, ऋषि ने उसका खण्डन किया। इस प्रकार उनके भाषण, उनकी पुस्तकें, जिसके पास भी पहुँची, उसे बुद्धिगय होने से स्वीकार्य लगीं। यही ऋषि दयानन्द के विचारों का तीव्रता से फैलने का कारण था।

आज हमारी समस्या यह है कि हम दूसरे के पाखण्ड का खण्डन करने में असमर्थ हैं और स्वयं पाखण्ड से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कारण इस कार्य में सफलता कैसे मिल सकती है। सफलता के लिये बुद्धिमान लोगों तक ऋषि के विचारों का पहुँचना आवश्यक है, जिसमें हम असफल रहे हैं। आज समाज में युवा-वर्ग अपनी भाषा से दूर हो गया है, उस तक उसकी भाषा में पहुँचना आवश्यक है। इसके लिये सभी भाषाओं में साहित्य और प्रचारक दोनों ही सुलभ नहीं हैं, परिणामस्वरूप नई पीढ़ी से हमारा समपर्क समाप्त प्राय है। समाज को यदि बढ़ना है तो बुद्धिजीवी व्यक्ति तक वैदिक विचारों को पहुँचाने की आवश्यकता है, इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

नान्यः पन्था विद्यतेऽभनाय।

– धर्मवीर

 

नाहिदा चली थी 3 तलाक को टक्कर देने. बेचारी सदा के लिए कर दी गयी खामोश

नाहिदा चली थी 3 तलाक को टक्कर देने. बेचारी सदा के लिए कर दी गयी खामोश

तलाक का विरोध करने वाली महिलाओं को अब तक विभिन्न कट्टरपंथी मौलाना केवल टी वी डिबेट पर ही डांटते और फटकारते दिखते थे पर अब तीन तलाक के हिमायतियों ने शुरू कर दिया अपना खूनी खेल . इस खूनी खेल का आगाज़ हुआ है उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से जहाँ इसकी पहली शिकार बनी एक मासूम नाहिदा. परसेंडी गाँव की नाहिदा का निकाह फरखपुर निवासी शफीक अहमद के साथ हुआ था . नाहिदा बेहद खुश थी क्योंकि वो शादी को ले कर ढेर सारे सपने देख चुकी थी . उसने शफीक अहमद में अपना सबसे बड़ा हीरो देखा और तमाम सपने लिए वो शफीक के घर आ गयी .  शफ़ीक़ आखिर में वो नहीं निकला जो नाहिदा ने सोचा था . बात बात पर मारना पीटना , ताने देना और खरी खोटी सुनाना शफीक की दिनचर्या में शामिल हो गया . शफ़ीक़ ने हद तब पार की जब वो नाहिदा को प्रताड़ित करने के लिए अपने घर वालों को भी उकसाने लगा . हर बार नाहिदा को अपने मायके से ज्यादा पैसा लाने का दबाव बनाया जाने लगा और पैसा ना लाने पर 3 तलाक की धमकी भी दी जाने लगी . नाहिदा शुरू से ही स्वाभिमानी थी . वो बार बार बोलती थी की उसके घर वालों को जो और जितना देना था वो दे चुके . अब खुद कमाओ और खाओ . यही बात शफीक के घर वालों को पसंद नहीं आती थी और वो फिर उसे मारना पीटना शुरू कर देते थे . जब शफीक और उसके घरवालों ने देखा की ये बिलकुल भी नहीं डर रही तो शादी के सिर्फ 4 माह बाद ही नाहिदा को 3 तलाक बोल दिया और घर से तुरंत निकल जाने को बोलै . स्वाभिमानी नाहिदा ने घर छोड़ने से इंकार कर दिया और अपने अधिकार को मान कर उसी घर में रहने लगी . ये बात शफ़ीक़ और उसके घर वालों को एक चुनौती जैसी लगी और उन्होंने नाहिदा को रास्ते से हटाने का इरादा बना लिया . नाहिदा के परिजन रोते बिलखते हुए बताते हैं कि शफीक के घर वालों ने मिल कर पहले नाहिदा को बुरी तरह मारा पीटा और जब अधमरी हो चुकी नाहिदा निढाल हो कर गिर पड़ी तब उकसा गला दबा कर उसकी जान ले ली . नाहिदा के परिजन कहते हैं कि अपने पापों को छुपाने के लिए शफीक के घर वालों ने उनकी बेटी नाहिदा को फांसी के फंदे पर लटका दिया. पुलिस ने मुकदमा पंजीकृत करते हुए शफीक और उसके परिवार से 5 लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया जिसमे शफीक के पिता भी शामिल हैं . नाहिदा की हत्या कर के शफीक का परिवार फरार है . पुलिस का कहना है कि नाहिदा के सारे हत्यारे जल्द ही क़ानून की गिरफ्त में होंगे .

source:  http://www.sudarshannews.com/category/national/women-kill-when-she-refuse-to-accept-triple-talaq-1060