Tag Archives: maharshi dayanand ji aur raadhaaswami sampraday

महर्षि दयानन्द जी और राधास्वामी समप्रदाय

महर्षि दयानन्द जी और राधास्वामी समप्रदाय

– धर्मेन्द्र जिज्ञासु

राधास्वामी समप्रदाय के कुछ बन्धुओं ने यह राग छेड़ा कि ऋषि दयानन्द जी ने हमारे मत के संस्थापक से आगरा में भेंट करके राधास्वामी मत का मन्त्र लिया या दीक्षा ली। इसका प्रमाण यह है कि महर्षि ने अपने ग्रन्थ में राधास्वामी मत का खण्डन नहीं किया।

आर्यसमाज के ‘भीष्म पितामह’ श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ‘परोपकारी’ पत्रिका में राधास्वामियों के इस राग की खटिया खड़ी कर दी। अभी प्रकाशित अपने संस्मरणों के तीसरे भाग ‘साहित्यिक जीवन की यात्रा’ के पृष्ठ 171 व 172 पर इसके खंडन में ये प्रमाण दिए गए हैं-

  1. तब यह मत नया था, अतः ऋषि ने समीक्षा करना आवश्यक न समझा।
  2. जालन्धर में मौलवी अहमद हसन से चमत्कार विषय पर शास्त्रार्थ करते हुए श्री शिवदयाल का नामोल्लेख चमत्कार-खंडन में किया गया है।

(‘महर्षि दयानन्द सरस्वती-सपूर्ण जीवन-चरित्र’ पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक (राजेन्द्र जिज्ञासु)-पृष्ठ 80 पर)

  1. राधास्वामी मत के गुरु हुजूर जी महाराज, गुरु साहिब जी महाराज तथा बाबा सावनसिंह जी की पुस्तक में ऋषि की चर्चा है, पर गुरु-मन्त्र लेने या दीक्षा का वर्णन कहीं भी नहीं है।

इस सफेद झूठ का मुँह काला करने हेतु कुछ और तथ्य इस लेख में प्रस्तुत हैं।

राधास्वामी सत्संग व्यास से सन् 1997 में प्रकाशित ‘सार वचन राधास्वामी (छन्द-बन्द)’ के अनुसार-

संत हुजूर स्वामीजी महाराज सेठ शिवदयालसिंह जी का जन्म अगस्त सन् 1818 ई. को आगरा में हुआ। आपके खानदान में सभी गुरु नानक साहिब की वाणी का पाठ किया करते थे। हुजूर स्वामी जी महाराज ने जितना अरसा सत्संग किया, गुरु ग्रन्थ साहिब और तुलसी साहिब की वाणी का पाठ करते रहे। (पृ. क)

जनवरी सन् 1861 ई. को स्वामी जी महाराज ने अपने मकान पर सन्त मत का उपदेश शुरू किया, जो सत्रह वर्ष तक जारी रहा। जून सन् 1878 ई. को इन्होंने अपना चोला छोड़ा।

राधास्वामी मत का दूसरा नाम ‘संत-मत’ है। राधा यानि आदि सुरत या आत्मा और स्वामी आदि शबद, कुल का कर्त्ता है। (पृ. ङ)

परन्तु सिक्ख मिशनरी कॉलेज लुधियाना से प्रकाशित पुस्तक- ‘देहधारी गुरुडम की शंकाओं के उत्तर’ में इस दर्शन का खंडन करते हुए लिखा हैः-

‘‘राधास्वामी नाम कोई ईश्वरवादी नाम नहीं। न ही इसके अर्थ-सुरत-शबद के हैं। यह शिवदयाल स्वामी की पत्नी ‘राधा’ के नाम से चला मत है, जिसके अर्थ और रूप को बाद में बदलने का व्यर्थ यत्न किया गया है।’’ (राधास्वामी सत्संग व्यास से प्रकाशित पुस्तक- ‘जिज्ञासुओं के लिए’ पृ. 28)

यह बात ‘सार-वचन राधास्वामी’ पुस्तक के वर्णन के आधार पर सोलह आने सच साबित होती है। देखिए वचन 5:-

‘‘फिर स्वामी जी महाराज ने राय साहिब सालगराम की तरफ फरमायाः- कि जैसा मुझको समझते हो वैसा ही अब राधा जी को समझना और राधा जी और छोटी माता जी को बराबर जानना। (पृष्ठ ट) (इस पृष्ठ पर पाद टिप्पणी में लिखा है कि माता जी का असली नाम नारायण देवी था। महाराज जी के मँझले भाई की सुपत्नी को छोटी माता कहा है।)’’

वचन 6:- फिर राधा जी ने महाराज को हुकम दिया कि सिबो और बुक्की और बिशनों को पीठ न देना। (पाद टिप्पणी- ये तीनों हुजूर स्वामी जी महाराज की खास सेविकायें थीं।)

वचन 10:- गृहस्थी औरतें बाग में जाकर किसी साधु की पूजा और सेवा न करें। राधा जी के दर्शन और पूजा करें। (पृष्ठ ठ)

वचन 14:- फिर सेठ प्रतापसिंह को फरमाया- मेरा मन तो सतनाम और अनामी का था और राधास्वामी मत सालगराम का चलाया हुआ है। इसको भी चलने देना। (पृष्ठ ड)

वचन 18:- फिर राधा जी की तरफ फरमाया- मैंने स्वार्थ और परमार्थ दोनों में कदम रखा है, यानि दोनों बरते हैं, सो संसारी चाल भी सब करना और साधुओं को भी अपनी रीति करने देना। (पृष्ठ ढ)

ये सभी वचन दिनांक 15 जून सन् 1878 अर्थात् शरीर छोड़ने वाले दिन के हैं।

यह उल्लेखनीय तथ्य है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी राधास्वामी महाराजों के श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के अर्थ को सही नहीं मानती। इस कारण इनमें टकराव भी होता रहता है। हुजूर महाराज चरनसिंह जी के सन् 1964 ई. में अमरीका यात्रा के समय के प्रश्नोत्तरों को ‘सन्त-संवाद भाग-1’ में संकलित किया गया है। पृष्ठ 24 पर हुजूर महाराज फरमाते हैंः-

‘‘गुरुमत सिद्धान्त’’ यह पुस्तक हुजूर महाराज सावनसिंह जी ने श्री आदि ग्रन्थ के आधार पर विशेष रूप से सिक्खों के लिए लिखी थी। जब पंजाब में राधास्वामी मत के उपदेश को समझाना शुरू किया गया, तब सिक्खों में खलबली मच गई। लोग समझने लगे कि महाराज जी श्री आदि ग्रन्थ का अर्थ सही नहीं बता रहे हैं।

सन् 2012 ई. में अमृतसर के गाँव वरायच में गुरुद्वारे को नुकसान पहुँचाया गया, जिसकी वजह से राधास्वामियों और सिक्खों में काफी तनातनी रही। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि राधास्वामी सत्संग व्यास के सचिव जे.सी. सेठी ने स्पष्टीकरण दिया-

“ we would like to make it clear that radha swami satsang beas holds the revered 10 sikhs gurus and the holy shri guru granth sahib ji in the highest esteem “

‘अर्थात् हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि राधास्वामी सत्संग यास पूजनीय 10 सिक्ख गुरुओं तथा पवित्र श्री गुरु ग्र्रन्थ साहिब जी का सर्वोच्च समान करता है।’

(हिन्दुस्तान टाइस (अंग्रेजी), जालन्धर, शुक्रवार, 20 जुलाई 2012 ई. पृष्ठ 3)

सत्यार्थ प्रकाश में राधास्वामी मत का खण्डन क्यों नहीं किया गया?

  1. सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण (आदिम संस्करण) सन् 1875 ई. में प्रकाशित हुआ। राधास्वामी मत का प्रचार सन् 1861 ई. में आगरे में श्री शिवदयाल जी ने शुरू किया तथा सन् 1878 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। सत्यार्थ प्रकाश छपने तक राधास्वामी मत को चले मात्र 13-14 वर्ष हुए थे, अतः इसका प्रभाव इतना नहीं था कि इसके बारे में अलग से कुछ लिखा जाता।
  2. जैसा कि विगत पृष्ठों में राधास्वामी मत की पुस्तक ‘सार-वचन’ में वर्णन है कि श्री शिवदयाल जी के परिवार में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी व तुलसी साहिब का ही पाठ होता था। वो खुद भी इनका ही पाठ करते थे। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में श्री गुरु नानक देव जी आदि 6 गुरुओं तथा 30 अन्य साधुओं जैसे कबीर, दादू, तुलसी, मीरा आदि की वाणियाँ/शबद हैं।

सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में कबीर-पन्थ समीक्षा, नानक-पन्थ समीक्षा, दादू-पन्थ समीक्षा के माध्यम से अपरोक्ष रूप से इस मत के सिद्धान्तों की भी समीक्षा समझी जा सकती है।

  1. राधास्वामी मत में गुरु-मन्त्र लेने व गुरु-धारण करने का अत्यधिक महत्त्व है। सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास में गुरु-मन्त्र व्याया तथा एकादश समुल्लास में गुरु-माहात्य समीक्षा से इस मत के 2 मुखय स्तमभ भरभरा कर गिर जाते हैं।

ऋषि दयानन्द जी के जीवन में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जो राधास्वामी मत के मुय आधारों- नाम-दान, गुरु-धारण, गुरु-मन्त्र इत्यादि का खण्डन ही करते हैं, जैसे-

  1. ऋषि दयानन्द जी दण्डी विरजानन्द जी प्रज्ञाचक्षु को ‘गुरु दक्षिणा’ में अपना समस्त जीवन भारतवर्ष में आर्ष ग्रन्थों की महिमा व वैदिक-धर्म की स्थापना करने हेतु दान कर चुके थे। इसके बाद ही वे आगरा गए थे। किसी भी जीवन-चरित्र में उनका श्री शिवदयाल जी से मिलना नहीं लिखा। हाँ, पुष्कर निवास के समय एक शिवदयालु का नाम आता है, परन्तु वह ब्रह्मा-मन्दिर के पुजारी थे।
  2. 2. सन् 1872 ई. में आरा में ऋषि दयानन्द जी ने एक व्याखयान में कहा- ‘‘दीक्षा ग्रहण करने की रीति आधुनिक है, मन्त्र देने का अर्थ कान में फूँक मारने का नहीं।’’ (महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र, देवेन्द्रनाथ मु. पृ. 211)
  3. मुझे गुरु मत मानो- प्रयाग में सन् 1874 ई. में कहा- ‘‘ऋषि-प्रणाली का अनुसरण करो, मुझे गुरु मानने से तुमहारा क्या प्रयोजन है?’’ (त्रयोदश अध्याय पृ. 265)
  4. 4. ठाकुर उमराव सिंह ने स्वामी जी से कहा कि मुझे शिष्य बना लीजिए तथा मन्त्र दे दीजिए। स्वामी जी ने कहा कि हम किसी को शिष्य नहीं बनाते और सारे मन्त्र तो वेद में हैं, हम क्या मन्त्र देंगे? (भरुच-सन् 1874 ई., पञ्चदश अ., पृ. 290)
  5. चाँदपुर में स्वामी दयानन्द जी का उपदेश-

‘‘संसार में अन्धकार फैल रहा है, अनेक प्रकार से जनता को धोखा दिया जा रहा है, लोग महन्त बनकर मनुष्यों को ठगते और उनका धन हरण करते हैं, कोई कहता है- कान बन्द करके अनहद शद सुनो, उसमें सब प्रकार के बाजों के शबद सुनाई देते हैं। कोई कहता है कि ‘सोऽहम’ आदि स्वर से जपो, फिर जब जीव मरेगा, उसी शबद में समा जाएगा और उसका आवागमन न होगा।’’

(मार्च 1877 ई. सप्तदश अध्याय)

  1. अमृतसर में मनसुखराम ने गुरुमन्त्र देने की प्रार्थना की तो स्वामी जी बोले कि गायत्री-मन्त्र ही गुरु-मन्त्र है। (सन् 1877 ई., एकोनविंश अ., पृ. 384)

और अब चोट लुहार की

अब राधास्वामी बन्धुओं की सेवा में दो सीधी-सादी घटनायें प्रस्तुत हैंः-

  1. 1. महर्षि दयानन्द जी सन् 1878 ई. में मुलतान में थे। वहाँ एक व्याखयान में आपने सन्त-मत की और दूसरे में सिक्ख-मत की आलोचना की थी।

(विंश अध्याय, पृ. 414)

सन्त-मत राधास्वामी मत का ही दूसरा नाम है, यह सप्रमाण पीछे बताया जा चुका है।

  1. 2. 26 दिसबर सन् 1880 ई. को आगरा नगर में आर्यसमाज स्थापित हो गया।

आगरा में राधास्वामी साधुओं का भ्रम भंजन

राधास्वामी साधु, गुरु की सहायता और उपदेश के बिना कोई मनुष्य संसार-सागर से पार नहीं हो सकता।

स्वामी दयानन्द जी- गुरु की शिक्षा तो आवश्यक है, परन्तु जब तक शिष्य अपना आचरण ठीक न करे तब तक कुछ नहीं हो सकता।

राधा0- ईश्वर के दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं?

स्वामी जी- इस प्रकार नहीं हो सकते जिस प्रकार तुम लोग अपनी मूर्खता से करना चाहते हो।

राधा0- ईश्वर तो भक्त के अधीन है।

स्वामी जी- ईश्वर किसी के अधीन नहीं। उसकी भक्ति तो अवश्य करनी चाहिए, परन्तु पहले यह तो समझ लो कि भक्ति है क्या वस्तु? जिस प्रकार से तुम लोग भक्ति करना चाहते हो, वह तो सामप्रदायिक है, ऐसे-ऐसे तो बहुत से समप्रदाय लोगों को बिगाड़ने वाले हुए हैं, इनसे इस लोक वा परलोक का कोई लाभ नहीं है। बिना पुरुषार्थ किए कोई वस्तु अपने आप प्राप्त नहीं हो सकती।

राधा0- हम और हिन्दुओं से तो अच्छे हैं (मूर्त्ति-पूजा नहीं करते)

स्वामी जी- नहीं, हिन्दू तो राम-कृष्ण को ही ईश्वर का अवतार मानते हैं, तुम तो गुरु को परमेश्वर से भी बड़ा मानते हो।

राधा0- वेद के पढ़ने में बहुत समय नष्ट होता है, परन्तु उससे भक्ति की उपलबधि नहीं होती।

स्वामी जी- जो कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करते और भिक्षा माँगकर  पेट पालना चाहते हैं, उसके लिए वेद पढ़ना कठिन है, फिर उसे भक्ति प्राप्त ही कैसे हो सकती है?

(आगरा सन् 1880 ई., षड्विंश अध्याय, पृ. 542 से 543) उपरोक्त घटनाओं के सन्दर्भ में राधास्वामी मत के खंडन करने की बात अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखती।