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हमारे बिछुड़े भाई

हमारे बिछुड़े भाई

– गंगाप्रसाद उपाध्याय

यह भली-भाँति सिद्ध हो चुका है कि पुराने जमाने में दुनियाँ भर में हिन्दू (आर्य्य) जाति रहती थी और वेद को मानती थी, परन्तु आज हिन्दुस्तान में भी एक तिहाई से अधिक लोग वैदिक-धर्म त्याग बैठै हैं, और चोटी जनेऊ रखने वाले तथा गौ की रक्षा करने वालों की संखया दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। इसके मुखय कारण दो हैंः- पहला तो यह है कि हिन्दुओं ने अपने वैदिक धर्म का उपदेश दूसरों को करना छोड़ दिया। दूसरा जब कभी कोई जबरदस्ती मुसलमान या ईसाई बना लिया गया और उसने अपने धर्म में आने के लिये इच्छा प्रकट की तो उसी के भाइयों ने उसे यह कह कर दुत्कार दिया कि अब तुम सदा के लिये गिर गये, हिन्दू धर्म में वापिस नहीं आ सकते। जब दूसरे धर्म वालों को यह पता लगा कि हिन्दू धर्म ऐसा कच्चा धागा है कि फूंक मारते ही टूट जाता है तो उन्हें हिन्दुओं को अपने धर्म में मिलाने में बड़ी आसानी हो गई। अगर किसी भूले भटके को जबरदस्ती खाना खिला दिया या मुँह में थूक दिया तो उस बेचारे को मुसलमान बनना ही पड़ा। हिन्दुओं ने तो उसे अपने में से निकाल कर फेंक दिया। यदि किसी स्त्री का किसी ने सतीत्व भंग कर दिया तो उसके घर वालों ने उनको उनके बिगाड़ने वालों के  सुपुर्द कर दिया। अब तो दूसरे धर्म वालों की चढ़ बनी। बिना परिश्रम के ही उनके धर्म वालों की संखया बढ़ने और हिन्दुओं की संखया घटने लगी। मुसलमानी राज्य के समय लाखों ऐसे हिन्दू थे जो बलात् मुसलमान बना लिए गये। इनको मुसलमानी धर्म तो पसन्द न था, परन्तु हिन्दू उनको अपने में रहने नहीं देते थे। इसलिये उन बेचारों में से बहुत से तो मुसलमान हो ही गये। परन्तु लाखों ऐसे राजपूत भी थे जिनको हिन्दुओं में वापिस आने की बड़ी लालसा थी। मुसलमानी धर्म तथा संस्कारों को ग्रहण करने में उनको ग्लानि होती थी। उनके बाप दादों ने गौ को माता कहकर पुकारा था। मुसलमानी धर्म में रहकर वह गाय की कुर्बानी नहीं कर सके। उनके बाप दादों ने चोटी रखी। इसलिये चोटी कटाने में उनका जी दुखता था। मुसलमानी धर्म में चचेरे भाई बहिन का विवाह धर्मानुसार समझा जाता था। हिन्दुओं में एक गोत्र में विवाह महापाप समझते थे। मुसलमानों में जिस लोटे में पाखाना जाते थे उसे बिना मिट्टी से साफ किये पानी पी सकते थे। हिन्दुओं को इन बातों से सैकड़ों पीढ़ियों से घृणा थी। ऐसी दशा में इन लोगों की बड़ी मुश्किल थी। एक ओर उनकी रुचि मुसलमानी धर्म में न थी। दूसरी ओर उनके हिन्दू रिश्तेदार उनको अपने में मिलाने के लिये राजी न थे। अब उन्होंने एक उपाय सोचा। वे मुसलमान तो न हुये परन्तु उन्होंने अपने को ‘नौ मुस्लिम’ (नये मुसलमान) या अधवरिया कहना शुरु किया। उन्होंने अपने रस्म रिवाज हिन्दुओं के से ही रखे। वे राम राम कहते, हिन्दुओं की तरह चौका लगाकर खाना खाते, विवाह शादी हिन्दुओं की भाँति करते, अपने नाम हिन्दुओं की तरह ‘‘सिंह’’ पर रखते, परन्तु विवाह में कभी-कभी मुसलमान मौलवी को भी बुला लेते थे। मौलवी को कभी-कभी बुला लेने से उस समय के राज कर्मचारी उनको मुसलमान समझकर अत्याचार न करते थे। दूसरी बात यह थी कि मुसलमान समझते थे कि अब ये हिन्दू धर्म में जा ही नहीं सकते। समय पाकर इनको मुसलमान ही होना पड़ेगा। इस प्रकार लाखों राजपूतों ने जिनको मलकाना कहा जाता है अपनी एक अलग जाति बनाकर कई सौ वर्ष इस मुश्किल के साथ गुजार दिये जैसे दाँतों के बीच में जीभ होती है। इधर इनको मुसलमानी धर्म से ग्लानि, उधर हिन्दुओं को उनसे घृणा। करते तो क्या करते। ऐसे नौ मुस्लिम आगरा, एटा, इटावा, मथुरा, फर्रुखाबाद गिरगाँव, दिल्ली, भरतपुर आदि प्रान्तों में लाखों हैं। कई हिसाब लगाने वालों ने तो इनकी संखया 27 लाख तक लिखी है। आगरा जिले के सरकारी गजेटियर में लिखा है ‘‘धर्म परिवर्तन किये हुये हिन्दुओं के अनेकों वंशज इस जिले में सर्वत्र पाये जाते हैं पर कारोली तालुके के छः गाँवों में इनकी विशेष बस्ती हैं। इसके बाद मथुरा, एटा और मैनपुरी जिलों में भी इनकी खासी बस्ती हैं। ये मलकाना कहे जाते हैं। ये धर्म परिवर्तन किये हुये राजपूतों की श्रेणी में रखे जाते हैं? भिन्न-भिन्न स्थानों में वे अपनी भिन्न-भिन्न उत्पत्ति बतलाते हैं, पर इसमें सन्देह नहीं कि उनके पूर्व पुरुष उच्चवंश सभूत राजपूत जमींदार थे। यद्यपि दुख के साथ वे अपने को मुसलमान कहते हैं, पर पूछने पर अपनी पहली जाति ही बतलाते हैं और मलकाना के नाम से पुकारा जाना नहीं चाहते। उनके नाम हिन्दुओं के से होते हैं। वे हिन्दू मन्दिरों में पूजा करते हैं और उनके  आपस के शिष्टाचार का शबद ‘‘राम-राम’’ है। वे शिखा रखते हैं और अपनी ही जाति में याह करते हैं और मियाँ ठाकुर कहलाना चाहते हैं।’’ इससे सिद्ध है कि मलकाने राजपूत हिन्दू ही हैं। बहुत से मुसलमान लोग इनको पक्का मुसलमान बनाने के लिये इनमें पहुँचे और तहकीकात करके जो रिपोर्ट मुसलमानी अखबारों में दी उनसे भी यही सिद्ध होता है।

कु. मुहमद अशरफ साहब, बी.ए. (अलीगढ़) सहयोगी जमींदार लिखते हैं ‘‘मुस्लिम राजपूतों की बसावट जिला आगरा और मथुरा के निकट पाँच छः लाख के लगभग है…..साधारणतया नाम ‘सिंह’ और ‘नारायण’ पर होते हैं। रीति रिवाज में सब हिन्दू हैं इनमें कोई मुसलमानीपन नहीं। गौरी, खिलजी या औरङ्गजेब के समय में इनके पूर्वज मुसलमान हुए थे……ये ग्राम 25 के लगभग हैं।’’

मुस्तफा रजा कादर सदर बफर इस्लाम बरेली आगरा से ‘वकील’ ‘अखबार’ अमृतसर को लिखते हैं-उनके नाम हिन्दुओं के से हैं, सिर पर चोटी रखते हैं। न अपना बर्तन किसी को देते हैं, न दूसरों का स्वयम् व्यवहार करते हैं।

ऐसे लोगों की उनके हिन्दू भाइयों ने बहुत दिनों तक परवाह न की और हिन्दुओं की दिन-प्रतिदिन कमी ही होती रही। परन्तु जब आर्यसमाज ने और विशेषकर आर्यसमाज के उपदेशक शिरोमणि श्री धर्मवीर, पं. लेखराम ने अन्य धर्मावलबियों की शुद्धि करके वैदिक-धर्म में मिलाना आरमभ किया और सैकडों चोटी-विहीन शिरों पर चोटी रखाकर वैदिक-धर्म का अमृतपान उनको कराया, उस समय से मलकाना राजपूत भी फिर अपनी पुरानी बिरादरी में लौटने के स्वप्न देखने लगे और उनकी लालसा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही गई। वह केवल यह चाहते थे कि उनके पुराने रिश्तेदार राजपूत उनको अपने में मिला लें। यह मामला बहुत दिनों तक क्षत्रियों के समुख उपस्थित रहा, परन्तु 30 अगस्त 1922 ई. की क्षत्रिय उपकारिणी महासभा की प्रतिनिधि सभा की बैठक बनारस में हुई। अध्यक्ष का आसन माननीय राजा सर रामपाल सिंह साहब के.सी.आई., मेबर स्टेट कौंसिल ताल्लुकेदारान सभा अवध ने ग्रहण किया। उसमें इस आशय का प्रस्ताव किया गया कि जो राजपूत शाही समय में बलात् मुसलमान बनाये गये थे, परन्तु उनके वंशज अब फिर अपने धर्म और बिरादरी में वापिस आना चाहते हैं, उनको शुद्ध करके बिरादरी में मिला लिया जाये। फिर 29 दिसबर 1922 को क्षत्रिय प्रतिनिधि सभा की बैठक आगरा में लेफटिनेण्ट राजा दुर्गानारायणसिंह जी तिरवा (फर्रुखाबाद) नरेश के सभापतित्व में हुई और उस समय क्षत्रिय जनता की समति जानकर मलकाने राजपूतों को बिरादरी में मिला लेने का प्रस्ताव सर्वसमति से स्वीकार किया गया। इसके बाद क्षत्रिय महासभा का 26 वाँ वार्षिकोत्सव 31 दिसमबर को आगरा में श्रीमन् राजाधिराज सर नाहर सिंह जी के.सी.आई.ई. शाहपुराधीश की अध्यक्षता में हुआ। उसमें उपर्युक्त प्रस्ताव होने पर सर्व समति से स्वीकृत किया गया। इसे स्वीकृति की ही देर थी। स्वीकृति पाते ही मलकान राजपूतों को शुद्ध करना प्रामरभ हो गया।

इच्छा तो दोनों ओर थी ही, केवल संस्कार की कसर थी। सो शुद्धि-सभा ने पूरी कर दी। श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली, महात्मा हंसराज जी लाहौर से तथा कई सनातनधर्मी जैनी तथा अन्य महाशयों ने मिलकर कार्य करना आरमभ किया। हवन किये गये, जनेऊ दिये गये, और मलकाना राजपूतों को फिर अपनी बिरादरी में मिला लिया गया। समस्त हिन्दू जाति में इस शुद्धि से कितनी जागृति हुई है, उसके समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं। हम यहाँ केवल ‘‘अभयुदय’’ से कुछ उद्धृत करते हैंः-

‘‘अब आशा प्रबल होती है कि हिन्दू जाति फिर एक बार शक्तिशाली होगी। हिन्दू भाइयों ने हिन्दू-धर्म और हिन्दू-जाति की लाज रख ली। जो साढ़े चार लाख राजपूत किसी समय में दबाव से या अपनी कमजोरी से मुलसमान हो गये थे, उनको शुद्ध कर गर्भ में ले लेने का हिन्दू जाति जोरों से प्रयत्न कर रही है। वास्तव में जीती जागती जाति का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है कि यह गैरों को अपना ले और अपना-सा बना ले। हिन्दू जाति का इतिहास यदि देखा जाये तो यह छिपा नहीं है कि कितने अवसरों पर इसने दूसरों को अपने गर्भ में ले लिया था। इसके विपरीत इतिहास की यह भी घोषणा है कि जिस दिन से हिन्दू जाति ने अपनी संखया में इस तरह की वृद्धि का खयाल छोड़ा, उसी दिन से उन्नति के मार्ग की ओर उसकी पीठ हो गई। आज हिन्दू जाति को फिर अभिमान करने का अवसर प्राप्त है, क्योंकि हमारा दृढ़ विश्वास है कि इन साढ़े चार लाख बिछुड़े हुये भाइयों के मिलने के साथ ही ऐसे ही अन्य भाइयों के भी मिलने से हमारा सौभाग्य-सूर्य शीघ्र ही गगन मंडल में चमकता हुआ दिखाई देगा। हम हिन्दू जाति को इस अवसर पर बधाई देते हैं।’’

बहुत से लोग समझते हैं कि इसमें केवल आर्यसमाजी काम करता है, परन्तु यह कहना भूल और भ्रम है। शुद्धि की स्वीकृति सभी सभाओं में दी हुई है। कुछ सभाओं के नाम यहाँ दिये जाते हैं-सनातनधर्मी सर्वप्रधान संस्था भारत-धर्म महामण्डल ने मलकाना राजपूतों की शुद्धि को पास कर दिया है। जिस अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास हुआ, उसके सभापति श्री दरभंगा नरेश स्वयं थे। कबीरमठ और शारदा पीठ के जगद्गुरु शङ्कराचार्य जी पहले ही शुद्धि की व्यवस्था दे चुके हैं। महाराष्ट्र परिषद्, साधुमहासभा, गुर्जर महासभा, जाट महासभा, राजपूत क्षत्रिय महासभा ने भी हर्षपूर्वक शुद्धि को अपनाने का निश्चय किया है। अमृतसर, लाहौर, लायलपुर आदि शहरों से सनातनी पण्डित लिखित व्यवस्था दे चुके हैं। सनातन धर्म की प्रसिद्ध वक्ता श्री पण्डित दीनदयालु शर्मा आगरा में पधारे और शुद्धि के कार्य को न केवल पसन्द किया, किन्तु उसमें भाग लेने का विचार-निश्चय किया था।

शुद्धि के कार्य में वह कौन-सा गुण है, जिसने आज भारतवर्ष की हिन्दू जाति को आकर्षित कर रखा है? वस्तुतः अपने सजातीय लोगों को अपने में मिलाने से सभी जीती जागती जातियाँ खुश होती हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने दूसरे भाई से मिलकर खुश हो। केवल कुत्ता ही ऐसा प्राणी है, जो दूसरे कुत्ते को देखकर भौंकता है। इसलिये यदि हिन्दू लोग अपने बिछुडे भाइयों को मिलाने से प्रसन्न होते हैं, तो उसमें आश्चर्य ही क्या? आश्चर्य इस बात का है कि हिन्दू जाति इतने दिनों तक क्यों सोती रही और अपने भाइयों के मिलाने में क्यों तत्पर न हुई, परन्तु आज हिन्दू जाति के बच्चे-बच्चे को शुद्धि के गुण मालूम हो गये हैं। सब को भली प्रकार यह मालूम हो गया है कि यदि हम शुद्धि में भाग न लेंगे तो एक दिन रही सही हिन्दू जाति सृष्टि से उड़ जायेगी। राम और कृष्ण के नाम भूमण्डल पर न रहेंगे। जनेऊ और चोटी का चिह्न संसार से मिट जायेगा। आर्य-सभयता का वृक्ष जड़ से काटकर फेंक दिया जायेगा। अब हिन्दू लोग सोते से जाग बैठे हैं। उनके हृदय में जाति उन्नति की लगन काम करने लगी है। शुद्धि का प्रश्न उनके जीने मरने का प्रश्न है। शुद्धि का काम छोड़ा और हिन्दू जाति की मृत्यु आई।

पर हमारे मुसलमान भाई रुष्ट हैं। तरह-तरह के इल्ज़ाम लगा रहे हैं और हमारे अदूरदर्शी हिन्दू भाई भी यह कहने लगे हैं कि शुद्धि बन्द हो, क्योंकि मुसलमान नाराज होंगे, परन्तु यह कितनी भूल है। मुलसमान सैकड़ों हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाते हैं, उस समय तो हिन्दू कुछ नहीं करते। यदि हिन्दू अपने बिछुड़े भाइयों को गले लगायें तो न्यायशील मुसलमानों को रुष्ट नहीं होना चाहिये। अपना धर्म पसन्द करने के लिए हर एक को स्वतन्त्रता है। और इस स्वतन्त्रता को छीनना पाप है। हम किसी की गर्दन पर तलवार रखकर यह नहीं कहते कि ‘शुद्ध हो जाओ’, परन्तु जो स्वयं शुद्ध होना चाहते हैं, उनको तो रोकना ही महापाप है। कुछ लोग कहते हैं कि मुसलमान लोग शुद्धि से चिढ़कर अधिक गो-हत्या करेंगे। मुसलमानों ने भी यही धमकी दी है, परन्तु हिन्दुओं को 6 मास की राह चलकर साल भर की राह न चलनी चाहिये। प्राचीन काल में जब मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किया तो अपनी सेना के आगे गायें खड़ी कर देते थे। वह समझते थे कि हिन्दू तो गायों को बचाने के लिये हम पर हथियार न चलायेंगे और हम हिन्दुओं को मार लेंगे। यही हुआ और हिन्दू जब हार गये तो अन्य गायों को भी न बचा सके। यही चाल मुसलमान लोग अब चल रहे हैं। यह हमारे अनजाना भाई इस धमकी में आ जाते हैं। वह यह नहीं सोचते कि ऐसी धमकियों में आकर कब तक दबते जायेंगे। हर बात पर मुसलमान ऐसी धमकी दिया करेंगे। यह गोरक्षा कितने दिन चलेगी। सबसे अच्छा उपाय गौरक्षा का यही है कि शुद्ध होने वालों को शुद्ध करके भविष्य में गौहत्या का बीज ही मिटा दो।

बहुत से कहते हैं कि शुद्धि नई बात है, परन्तु इतिहास देखने से पता चलता है कि जब हिन्दू प्रबल थे तो दूसरे देशवासियों को धर्म में मिला लेते थे। सिकन्दर के साथ बहुत से यूनानी भारतवर्ष में आये। हूण लोग भी बहुत से आये, परन्तु उनकी अलग जाति नहीं मिलती। वे सब हिन्दू ही हो गये। जब हिन्दू जाति गिरने लगी, उस समय इसने दूसरों को मिलाना छोड़ दिया। 1911 की ‘मर्दुमशुमारी’ की रिपोर्ट में लिखा है कि सौ वर्ष से कम दिन हुए कि बबई प्रान्त के उरप और वरप अग्री (urap and varap agris ) हिन्दू जो ईसाई हो गये थे, फिर हिन्दू हो गये और इसी जिले के कृपाल भन्डारी लोगों को पुर्तगालों ने बलात् ईसाई कर लिया था, परन्तु ये फिर हिन्दू हो गये। बड़ोदा के सुपरिंटेण्डेण्ट ने लिखा है कि तीन सौ वर्ष हुये कुछ लोग मुसलमान हो गये थे, परन्तु वे धीरे-धीरे रामानन्दी और स्वामीनारायण के मत में हो गये। इस प्रकार हिन्दुओं में प्रायश्चित् कराके शुद्ध करने का रिवाज नया नहीं है और इस समय तो हिन्दू जाति को बचाने का एक ही मात्र उपाय है-तन-मन-धन से शुद्धि के काम में भाग लिया जाये। प्रत्येक गौ-भक्त और शिखा-सूत्र धारी हिन्दू का कर्त्तव्य है कि जो जब कभी शुद्ध होना चाहे तो झट ही किसी शुद्धि सभा द्वारा उसको शुद्ध कर लेना चाहिये और जो कुछ धन या शक्ति उसके पास हो, उससे यथासमय शुद्धि की सहायता करनी चाहिये। यदि आपने अभी तक शुद्धि सभा की सहायता नहीं की, तो देर न लगाइये और तुरन्त ही अपना कर्त्तव्य पालन कीजिये। जो पैसा आप शुद्धि-सभा को देते हैं, उससे जन्म जन्मान्तर की गौ-सन्तान की रक्षा होती है। वे देश का उद्धार होता है और हिन्दू जाति की उन्नति होती है। सोचो और देर न करो। यह समय है, समय पर चूके और गये।

कुछ लोगों ने आजकल यह कहना आरमभ किया है कि हम जानते हैं कि शुद्धि अच्छी चीज है। हम यह भी जानते हैं कि हिन्दुओं का अधिकार है कि उनके धर्म में मिलने वालों को मिला लिया जाये, परन्तु इस समय जब कि हिन्दू और मुसलमानों में मेल है, इसलिये शुद्धि को बन्द कर देना चाहिये, नहीं तो हमारे मुसलमान भाई हमसे रूठ जायेंगे। हमको ऐसा कहने वालों की बुद्धि पर हँसी आती है। यदि यह मानते हो कि हिन्दुओं को अपने धर्म में मिला लेने का उसी प्रकार अधिकार है जैसे मुसलमानों को, तो मेल के समय इस अधिकार को काम में लाने में क्या हानि! हमने मेल तो इसीलिये किया है कि हमारे अधिकार सुरक्षित रहें। यदि मेल के समय भी अधिकार पद-दलित किये गये तो ऐसे मेल से लड़ाई भली। मेल इसीलिये किया जाता है कि परस्पर एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा हो। यदि हमने इस समय शुद्धि का काम छोड़ दिया तो कब करेंगे। क्या हिन्दुओं को शुद्धि का काम शुरु करने के लिये उस समय का इन्तजार करना चाहिये, जब हिन्दू मुसलमानों में लड़ाई का समय आ जाये। यदि हमारे मुसलमान भाइयों में न्याय है तो उनको बुरा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि जिनकी शुद्धि की जा रही है वह हिन्दू ही हैं और अपने भाइयों में मिलना चाहते हैं।

कुछ मुसलमान भाई कहते हैं कि यदि किसी एक परिवार के चार आदमी शुद्धि के लिए तैयार हुए और एक न हुआ तो बेचारे पर बड़ा अन्याय होगा, परन्तु वह यह नहीं जानते कि आज तक लाखों और करोडों हिन्दुओं को मुसलमान कर लिया गया, उस समय यह दलील कहाँ गई थी। आज सैकड़ों लोग अपने माँ-बाप को छोड़कर ईसाई मुसलमान हो जाते हैं, फिर लोग इनको क्यों दोष नहीं देते। मुसलमान प्रचारकों को क्यों नहीं बन्द कर दिया जाता।

बात यह है कि इस समय हिन्दू जाति में जीवन के चिह्न पैदा हुये हैं। लोहा ठण्डा हो गया तो उसको पीटने से क्या बनेगा। अभी समय है। शीघ्रता कीजिये और शुद्धि-सभा में भाग लिजिये।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मुसलमान हमारे हिन्दू भाइयों को मुसलमान बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। इसन निजामी ने लिखा है कि जो मुसलमान दस हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बनाता, वह सच्चा मुसलमान नहीं है। हमारे हिन्दू भाइयों को भी इससे उचित शिक्षा लेनी चाहिये और जहाँ कहीं कोई मुसलमान शुद्ध होना चाहे, उसको फौरन शुद्ध कर लेना चाहिये। साथ ही यह भी प्रयत्न करना चाहिये कि हमारे भाई मुसलमानों के फंदे में न पड़ जायें। जो हिन्दू मुसलमान हो रहा हो, उसे समझाना चाहिये।

नगर-नगर में हिन्दू सभाओं का खुल जाना आवश्यक है। बिना संगठन किये हममें शक्ति नहीं आ सकती। हिन्दुओं को चाहिये कि आपस में प्रीतिपूर्वक व्यवहार करें और अपने धर्म की रक्षा करें।

 

वेदों में शूद्रों एवं स्त्रियों को धार्मिक अधिकार: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु ने अपनी स्मृति में यह प्रतिज्ञापूर्वक घोषणा की है कि धर्म का मूलस्रोत वेद हैं और मेरी स्मृति वेदों पर आधारित है। देखिए, कुछ प्रमाण-

(क) ‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’’ (2.6)

    अर्थात्-सपूर्ण वेद धर्म के मूलस्रोत हैं।

(ख) ‘‘प्रमाणं परमं श्रुतिः’’ (2.13)

    अर्थात्-धर्म निश्चय में सर्वोच्च प्रमाण वेद हैं। इसलिए-

‘‘श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै।’’ (2.8)

    अर्थात्-विद्वान् वेद को प्रमाण मानकर अपने धर्म का पालन करे।

इन घोषणाओं से स्पष्ट है कि मनु के धर्मवर्णन का आधार वेद हैं और वेद ही परमप्रमाण हैं। वेदों में शूद्रों और स्त्रियों के लिए संध्या, यज्ञ, वेदाध्ययन, उपनयन आदि धार्मिक अनुष्ठानों का स्पष्ट विधान है। उसके विरुद्ध मनु कभी नहीं जा सकते। फिर भी जो शूद्रों और स्त्रियों के वेदाध्ययन, संध्या, यज्ञ आदि निषेधक श्लोक मनुस्मृति में मिलते हैं, वे स्पष्टतः किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बाद में मिलाये गये हैं। मनु का तो वही मन्तव्य है जो वेदों में है। वेद में शूद्रों और स्त्रियों के लिए स्पष्ट विधान इस प्रकार हैं-

(ञ)    यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।

       ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥

(यजुर्वेद 26.2)

    अर्थात्-परमात्मा कहता है कि मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश साी मनुष्यों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, स्वाश्रित ी-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है।

(घ) यज्ञियासः पञ्चजनाः मम होत्रं जुषध्वम्। (ऋग्0 10.53.4)

    ‘‘पञ्चजनाः=चत्वारो वर्णाः, निषादः पञ्चमः।’’ (निरुक्त 3.8)

    अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें।’ निरुक्त शास्त्र में कहा है कि चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पञ्चजन कहलाते हैं।

(ङ) मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः मनु की भी वेदोक्त मान्यताएं हैं। यही कारण है कि उपनयन-प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता अथवा उपनयन करने के बाद विधिवत् अध्ययन नहीं करता। वेद के बहुत स्पष्ट आदेश के बादाी जो लोग शूद्रों के लिए वेदाध्ययन और धर्मपालन का निषेध करते हैं, वे वैदिक नहीं हैं, वेद विरोधी हैं और मानवताविरोधी हैं। वर्तमान मनुस्मृति में इस मत के विरुद्ध यदि कोई विधान पाये जाते हैं तो वे परस्परविरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं।

मनु आदियुग के सर्वजनशिक्षासमर्थक व प्रेरक राजर्षि: डॉ सुरेन्द्र कुमार

सृष्टि के आरभिक युग में विश्व के लिए विद्याओं की अनेक विधाओं के द्वार खोलने वाले, धर्मविशेषज्ञ, महर्षि और राजर्षि मनु पर कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि मनु ने शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करके उनको अज्ञानता के गर्त में डाल दिया। उनका कहना है कि मनु ने केवल ब्राह्मणों को शिक्षा का एकाधिकार प्रदान किया है।

मनु पर यह आरोप निराधार है, भले ही कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों के संदर्भ में सरसरी तौर पर यह ठीक लगता हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा कथन मनु की मूल भावना के ही विरुद्ध है। मनु तो आदियुग के सर्वशिक्षा समर्थक और सर्वप्रेरक शिक्षाप्रेमी राजर्षि थे। उनके द्वारा द्विजातियों को अधिक महत्त्व दिए जाने और एकजाति (अशिक्षित) को कम महत्त्व देने के मूल में वस्तुतः शिक्षा को ही समान और महत्त्व दिया गया है। आज भी तो यही है। सब जगह उच्चशिक्षितों और प्रशिक्षितों को ही महत्त्व और समान मिल रहा है। सरकार उन्हीं को ऊँची नौकरी देती है।

मनु आदियुग के सर्वजन शिक्षा-समर्थक एवं प्रेरक थे, इस तथ्य की पुष्टि मनुस्मृति के एक अन्तःप्रमाण से हो जाती है। इस प्रमाण के समक्ष कोई दूसरा महान् प्रमाण नहीं हो सकता और न कोई विरोधी प्रमाण सामने टिक सकता है। पाठक तटस्थ भाव से इस प्रमाण पर चिन्तन करें और फिर देखें कि मनु शिक्षा के कितने पक्षधर थे। मनु बिना किसी भेदभाव के पृथ्वी के (विश्व के) सभी मानवों का शिक्षा प्राप्ति के लिए आह्वान करते हुए कहते हैं-

एतद्देशप्रसूतस्य       सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थात्-‘पृथिवी पर निवास करने वाले सभी मनुष्यो! आओ, और इस देश में उत्पन्न विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मणों से अपने-अपने जीवनयोग्य कर्त्तव्यों एवं व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सुशिक्षित बनो, विद्वान् बनो।’

महर्षि मनु का यह आह्वान कितना महान् है!! इसमें न ब्राह्मण-शूद्र का प्रतिबन्ध है, न स्त्री-पुरुष का भेदभाव है, न आर्य-अनार्य का भेद है, न स्वदेशी-विदेशी का अन्तर है। वह सब मनुष्यों का समान भाव से आह्वान कर रहा है। क्योंकि वह शिक्षा के महत्त्व को समझता है कि शिक्षा के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं बन सकता, कोई उन्नति नहीं कर सकता, परिवार-समाज का कल्याण नहीं हो सकता, राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता, इसलिए मनु के मत में शिक्षा का सर्वोच्च महत्त्व था। उसकी ओर से किसी के लिए कोई बन्धन नहीं है। बस, शिक्षा प्राप्ति का इच्छुक होना चाहिए, चाहे वह पृथ्वी के किसी भाग का निवासी हो। शिक्षा के प्रति इतना उदार भाव रखने वाले राजर्षि से क्या यह आशा की जा सकती है कि वह किसी को शिक्षा से वंचित करेगा? कदापि नहीं। यदि शिक्षा से वंचित करने के या प्रतिबन्ध डालने के वचन वर्तमान मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे उक्त आह्वान करने वाले मनु स्वायंभुव के नहीं हो सकते। क्योंकि ऋषियों या विद्वानों के कथनों में परस्परविरोध नहीं होता। हाँ, वे किसी स्वार्थी और पक्षपाती के कथन हो सकते हैं, जो उसने स्वार्थपूर्ति के लिए अवसर पाकर प्रक्षिप्त कर दिये।

महर्षि मनु शिक्षा को सर्वोच्च महत्त्व देते थे और वर्णव्यवस्था में उसे आवश्यक मानते थे। इसका एक ठोस प्रमाण वह है। जहां शिक्षा प्राप्ति न करने वालों के लिए मनु ने कठोर विधान किया है। मनु कहते हैं कि अधिकतम निर्धारित आयुसीमा तक भी जो बालक या युवक शिक्षा प्राप्त्यर्थ उपनयन संस्कार नहीं करायेगा, वह आर्य वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत हो जायेगा और वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत सुलभ उसके वैधानिक अधिकार नहीं रहेंगे (मनु0 2.38-40)। यह सबके लिए अनिवार्य शिक्षा का संकेत है। ऐसा शिक्षाप्रेमी महर्षि किसी को शिक्षा से वंचित करने का विचाराी नहीं कर सकता।

सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता विषयक मनु के सिद्धान्त की पुष्टि कौषीतकि ब्राह्मण के उन निर्देशों से होती है जिनमें कहा गया है कि बालक-बालिका को आठ वर्ष की आयु तक पाठशाला में अवश्य भेज देना चाहिए, जो न भेजें वे माता-पिता, राजा द्वारा दण्डनीय होंगे (उपदेश मंजरीःस्वामी दयानन्द, उप0 10, पृ0 66)।

वस्तुतः, प्राचीन ऋषियों द्वारा रचित जो आर्षशास्त्र हैं, उनमें कहीं भी किसी मनुष्य को किसी भी प्रकार के धर्मपालन या शिक्षा आदि के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है। ये बातें उन नवीन ग्रन्थों में हैं जिनको जन्मना जाति-पांति के समर्थक रूढ़िवादी लोगों ने रचा है। उन्हें शास्त्र ही कहना अनुचित है।

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुमत का समर्थन: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर र वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को दास के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने प्रमाण के रूप में मनु के निनलिखित श्लोकार्थ उद्धृत किये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मनु के मतानुसार वेतन ओर जीविका पाने वाला नौकर या सेवक कभी दास नहीं होता। यदि इनके विरुद्ध वर्णन वाले श्लोक मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे परस्परविरोधी होने से प्रक्षिप्त हैं। डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा प्रस्तुत प्रमाण हैं-

(क) डॉ0 अम्बेडकर र मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्थाओं में आये श्लोकों में पठित ‘दास’ शद का अर्थ सेवक ही करते हैं, जो सर्वथा सही है। पूर्व पंक्तियों में उद्धृत नामकरण संस्कार-सबन्धी श्लोक पर –‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ (2.6-7[2.31-32]) में दास का अर्थ उन्होंने सेवक किया है-

‘‘नाम दो भागों का होना चाहिए….शूद्रों के लिए दास (सेवा)।’’ तथा ‘‘शूद्र का (नाम) ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 58; खंड 7, पृ0 201)

(ख) ‘‘ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपने परिवार (की संपत्ति) में से उसे (शूद्र को) उसकी योग्यता, उसके परिश्रम तथा उन व्यक्तियों की संया के अनुसार, जिनका उसे (शूद्र को) भरण-पोषण करना है, उचित जीविका निश्चित करें(मनुस्मृति 10.124)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 318)

(ग) ‘‘(संन्यासी) मरने या जीने की चाह न करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करता रहे (मनुस्मृति 6.45)।’’ (वही, खंड 8, पृ0 214)

(घ) ‘‘यह सत्य है कि ऋग्वेद में शूद्र का दस्यु या सेवक के अर्थ में उल्लेख हुआ है।……जब तक यह सिद्ध नहीं होता कि ये दोनों (शूद्र, दास) एक ही थे, तब तक ऐसा निर्णय करना कि शूद्र दास बनाए गए, मूर्खता होगी। यह ज्ञात तथ्यों के विरुद्ध भी होगा।’’ (वही, खंड 13, पृ0 86)

जब मनुस्मृति में इतने स्पष्ट वचन हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शूद्र ‘दास’ नहीं थे, फिर केवल प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर मनु का विरोध क्यों? डॉ0 अम्बेडकर र जब उक्त श्लोकार्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत कर रहे हैं तो उसका अभिप्राय है कि उनको वे प्रमाण मान्य हैं जिनमें शूद्रों के दास=गुलाम न होने का कथन है। एकमत होने पर भी मनु का विरोध क्यों? इसका उत्तर अपेक्षित है।

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शूद्रों के लिए दासता का विधान मनुकृत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु शूद्रों की दासता के पक्षधर या पोषक नहीं हैं। उन्होंने शुद्रों, सेवकों, स्त्री-कर्मचारियों आदि का वेतन, पद और स्थान के अनुरूप देने का आदेश दिया है-

(क) राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।

       प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानकर्मानुरूपतः॥      (7.125)

    अर्थात्-‘राजा काम पर लगाये जाने वाले श्रमिकों, सेवकों, स्त्रियों का प्रतिदिन का वेतन, काम, पद और स्थान के अनुरूप निर्धारित कर दे।’ इसका स्पष्ट भाव यह है कि मनु के मतानुसार शूद्रों और स्त्रियों से दासता कराना वर्जित है।

(ख) निन श्लोक में विधान है कि रोग आदि होने पर यदि भृत्य दीर्घ अवकाश लेता है तो उसे वेतन मिलना चाहिए। इस विधान का आधार मानवीय है। दास के लिए कभी ऐसा विधान नहीं होता-

       ‘‘स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम्।’’ (8.216)

    अर्थ-यदि अवकाश से लौटने के बाद भृत्य अपने पूर्वनिर्धारित कार्य को पूर्ण कर देता है तो वह लबे अवकाश का वेतन पाने का अधिकारी है अर्थात् भृत्य का दीर्घ अवकाश होने पर भी वेतन दिया जाना चाहिए।

(ग) मनु ने 1.91 श्लोक में शूद्र के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है कि तीन द्विज वर्णों अथवा चारों वर्णों की सेवा करना (नौकरी करना) ही शूद्र का कर्त्तव्य है। यहां शूद्र को स्वतन्त्रता दी है कि वह किसी वर्ण के किसी भी व्यक्ति के पास नौकरी करे। यह शूद्र की इच्छा पर निर्भर है। स्वतन्त्रतापूर्वक सेवाकार्य करना दासता का लक्षण नहीं है। मनु की यह मौलिक व्यवस्था सिद्ध करती है कि मनु के मतानुसार शूद्र दास नहीं हो सकता।

(घ) मनुस्मृति 2.6,7 [2.31, 32] में चारों वर्णों के नामकरण का विधान है। वहां शूद्र का नाम ‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ कहकर ऐसा रखने का विधान किया है जो सेवाभाव का द्योतक हो। व्यायाकारों ने इसके उदाहरण दिये हैं-देवदास, धर्मदास, सुदास आदि। इससे कितनी सरलता से यह स्पष्ट हो रहा है कि वर्णव्यवस्था की विधि के अन्तर्गत ‘दास’ का अर्थ ‘सेवक’ है, गुलाम नहीं।

(ङ) मनु की वर्णव्यवस्था आर्यों की सामाजिक व्यवस्था थी। मुयतः आर्य परिवारों से ही बालक या व्यक्ति गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते थे। यह अस्वाभाविक है और सामान्यतः संभव नहीं है कि अपने ही परिवारों के बालकों या व्यक्तियों को कोई दास बनाये और उनके परिवार और उनका समाज उनको स्वीकार कर ले। इससे ज्ञात होता है कि शूद्र दास अर्थात् गुलाम नहीं होते थे, केवल सेवक (नौकर या श्रमिक) होते थे, जिन्हें उस कार्य का उचित वेतन या भरण-पोषण मिलता था।

महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनुस्मृति का गंभीर अध्ययन किये बिना अथवा एकांगी अध्ययन के आधार पर जब मनु पर आरोपों का सिलसिला बना तो कुछ लोग जो मन में आया, वही आरोप लगाने लगे। यह भी कहा गया कि मनु ने शूद्रों को दास घोषित किया है। मनु बड़ा क्रूर था, उसने शूद्रों के लिए बर्बरतापूर्ण विधान किये, आदि-आदि।

महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण

इस प्रकार के आरोप महर्षि मनु पर सही सिद्ध नहीं होते। क्योंकि मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों के आधार पर जब हम मनु का चरित्र-चित्रण करते हैं, अथवा मनौवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं तो हमें मनु दयालु मानसिकता के व्यक्ति ज्ञात होते हैं। बाह्यग्रन्थों के मनु-विषयक प्रमाण भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

सपूर्ण मनुस्मृति में हमें ‘अहिंसा’ का सिद्धान्त सभी विधानों में ओतप्रोत मिलता है। यह कहना चाहिए कि मनुस्मृति ‘अहिंसा’ पर टिकी हुई है। मनु मानवों को तो क्या, कीट-पतंग से लेकर पशुओं तक को पीड़ा देना पाप समझते हैं। पशुहत्या को वे महापाप मानते हैं। (5.51)। उन्होंने ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी चारों आश्रमियों को किसी भी प्रकार की हिंसा न करने और अहिंसा-धर्म का पालन करने का आदेश दिया है। अनजाने में गृहस्थों द्वारा होने वाली कीट-पतंगों की हत्या के प्रायश्चित्त-स्वरूप मनु ने उनको प्रतिदिन पांच यज्ञों को करने का आदेश दिया है (3.67-74)। इसी प्रकार अन्य स्थलों पर किसी भी प्रकार की जीवहत्या होने पर प्रायश्चित्त का निर्देश है। (अध्याय 11.131-144)। मनु हल में जुते बैलों के लिए भी यह निर्देश देता है कि उनको पीड़ा न देते हुए हल जोतना चाहिए (4.67-68)। मनु इस बात का भी आदेश देता है कि मनुष्य ऐसी कोई जीविका न अपनायें जिससे दूसरे मनुष्यों को पीड़ा, हानि या कष्ट हो (4.2, 11, 12)। इतना ही नहीं, वह गुरु-शिष्य को और पति-पत्नी को परस्पर पीड़ा न पहुँचाते हुए प्रसन्न रखने का उपदेश देता है (3.55-62;4.166;2.159)। परिवार के सदस्यों को परस्पर कलह के द्वारा एक दूसरे को कष्ट न देने का विधान करता है (4.179-180)। विकलांगों और निनवर्णस्थों पर आक्षेप न करने का आदेश देता है(4.141)। जो सभी मनुष्यों-प्राणियों से अहिंसा का व्यवहार करने का नियम बना रहा है (‘‘अहिंसयैव भूतानां कार्यं अनुशासनम्’’ 2.159), इन सबसे बढ़कर जो अहिंसा को स्वर्गप्राप्ति का साधन घोषित करता है (‘‘अहिंस्रः जयेत् स्वर्गम्’’ 4.246), वह व्यक्ति कभी किसी मानव के प्रति निर्दयी या क्रूर नहीं हो सकता। वह किसी भी मानव के लिए अत्याचार या अन्यायपूर्ण विधान नहीं कर सकता। वह मानवता के स्तर से कभी नहीं गिर सकता। इसलिए कोई भी अन्याय, अत्याचार का विधान मनु का नहीं हो सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शूद्र सबन्धी अनुचित विधान भी मनुप्रोक्त नहीं हैं।

मनुस्मृति के अध्ययन से हमें जानकारी मिलती है कि मनु एक न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ और आध्यात्मिक राजर्षि थे। वे अन्याय और अधर्म के घोर निन्दक थे। यहां तक कि अन्याय करने वाले राजा की वह निन्दा करते हैं (8.14,15,18,128, आदि)। ऐसा न्यायप्रिय व्यक्ति स्वयं किसी के साथ भी अन्याय और अधर्म का व्यवहार नहीं कर सकता। मनु इतना आध्यात्मिक धर्मशास्त्रकार है कि वह मन से दूसरे के अनिष्टचिन्तन को भी मानसिक पाप मानता है और कहता है कि ऐसा करने वाले को मानसिक क्लेश के रूप में उसका फल भुगतना पड़ेगा (12.5,8)। इन सब उल्लेखोां से मनु का व्यक्तित्व दयालु, धार्मिक, न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ एवं आध्यात्मिक सिद्ध होता है। महाभारत-पुराणों में भी ‘प्राणिमात्र के प्रति हितैषिता’ मनु की विशेषता बतलायी है-

‘‘मनुः वियातमंगलः…….सर्वभूतहितः सदा’’

(भागवत0 3.22,39)

    अर्थात्-‘मनु वियात कल्याणकारी थे और सब प्राणियों के सदा हितैषी थे।’ ऐसा महर्षि दासता की क्रूर प्रथा का समर्थक नहीं हो सकता।

निष्कर्ष यह है कि शूद्रों के नाम पर मनुस्मृति में पाये जाने वाले पक्षपातपूर्ण, अन्याय-अत्याचारयुक्त विधान मनु के मौलिक न होकर बाद के पक्षपाती व्यक्तियों द्वारा किये गये प्रक्षेप हैं।

वेदों में शूद्रों के प्रति सद्भाव : मनु का आदर्श: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वेदों को परमप्रमाण और अपनी स्मृति का स्रोत मानने वाले मनु वेदोक्त आदेशों-निर्देशों के विरुद्ध न तो जा सकते हैं और न उनके विरुद्ध विधान कर सकते हैं। इसलिए हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि उन्होंने अपनी स्मृति में मौलिक रूप से शूद्रों के प्रति कोई असद्भाव प्रदर्शित किया होगा। उन्हें वेदों का गभीर ज्ञान था, उस परपरा के वे संवाहक थे, अतः उनके विधान सद्भावपूर्ण थे। उनमें से कुछ पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वेदों में शूद्रों के प्रति सद्भाव का वर्णन वाले कुछ मन्त्र उद्धृत किये जाते हैं-

(क) रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।

       रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि देहि रुचा रुचम्॥

(यजुर्वेद 18.48)

    अर्थ-सबसे प्रीति की कामना करता हुआ व्यक्ति कहता है-हे परमेश्वर या राजन्! ब्राह्मणों में हमारी प्रीति हो, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में हमारी प्रीति हो। आप मुझमें सबसे प्रीति करने वाले संस्कार धारण कराइये।

(ख)    प्रियं मा दर्भ कृणु ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च॥

(अथर्ववेद 19.32.8)

    अर्थ-मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य, सबका प्रिय बनाइये। मैं सबसे प्रेम करने वाला और सबका प्रेम पाने वाला बनूं।

(ग)    प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।

       प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्रे उतार्ये॥

(अथर्ववेद 19.62.1)

    अर्थ-मुझे विद्वान् ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझ पर दृष्टिपात करे, उसका प्रियपात्र बनाओ।

वेदों के ये मन्त्र कितने सद्भावपूर्ण आदर्श वचन हैं। यह वैदिक संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था का एक नमूना प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि वैदिक काल का समाज कैसा था। यही वेद, मनु स्वायंभुव के आदर्श हैं, अतः उनके वचन भी इसी प्रकार परम सद्भाव से परिपूर्ण हैं। शूद्रों के प्रति असद्भावपूर्ण वचन वेदभक्त मनु के नहीं हो सकते।

द्विज और शूद्र वर्ण एक परमात्मपुरुष की सन्तान हैं-डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) वैदिक या मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था में सभी वर्णों का उद्भव एक ही परमात्मपुरुष अथवा ब्रह्मा के अंगों से माना है। ध्यान दें, यह आलंकारिक उत्पत्ति वर्णस्थ व्यक्तियों की नहीं है अपितु चार वर्णों की है। इस वर्णन से उन-उन वर्णों के कर्मों पर प्रतीकात्मक प्रकाश डाला गया है-

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥ (1.31)

    अर्थ-समाज की समृद्धि एवं उन्नति के लिए मुख, बाहु, जंघा और पैर की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण का निर्माण किया। उसी तुलना से, मुख के समान पढ़ाना, प्रवचन करना, ब्राह्मणवर्ण का कर्म निर्धारित किया। बाहुओं के समान रक्षा करना क्षत्रियवर्ण का, जंघा के समान व्यापार से धनसपादन करना वैश्यवर्ण का, और पैर के समान श्रम कार्य करना शूद्रवर्ण का कर्म निर्धारित किया। इस श्लोक में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, व्यक्तियों का नहीं।

इस आलंकारिक वर्णन से तीन निष्कर्ष निकलते हैं। एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं। दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता। तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है। उक्त श्लोकों के मुनस्मृति में विद्यमान रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

(ख) परपरा-मनु तो वैदिक परपरा के व्यक्ति है। शूद्रों के साथ समान व्यवहार, स्पृश्यता और समान की परपरा तो हमें उनके बाद महाभारत तक मिलती है। रामायण में दशरथ के अश्वमेध यज्ञ में और युधिष्ठिर के राजसूय/अश्वमेघ यज्ञ में शूद्रों को ससमान बुलाया गया था और उन्होंने अन्य वर्णों के साथ बैठकर भोजन किया था।

वाल्मीकि रामायण में सुस्पष्ट शदों में आदेश है कि सभी वर्णों को ससमान बुलाया जाये और सब का श्रद्धापूर्वक संतोषजनक सत्कार किया जाये –

ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः।

समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान्॥

दातव्यमन्नं विधिवत् सत्कृत्य न तु लीलया।

सर्वे वर्णाः यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृताः॥

(बाल0 13.14,20,21)

    अर्थ-महर्षि वसिष्ठ आदेश देते है-‘हजारों की संया में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों को सभी प्रदेशों से सत्कारपूर्वक बुलाओ। उनको श्रद्धा-सत्कारपूर्वक भोजन कराओ, अश्रद्धापूर्वक नहीं। ऐसा व्यवहार करो कि सभी वर्णों के लोग सत्कार पाकर समान का अनुभव करें।’ कितना आदर्श और समानता का आदेश है!! प्राचीन काल में ऐसा ही सद्भावपूर्ण व्यवहार था।

शूद्र के प्रति मनु का मानवीय दृष्टिकोण-डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) महर्षि मनु परम दयालु एवं मानवीय दृष्टिकोण के थे। उन्होंने शूद्रों के प्रति मानवीय सद्भावना व्यक्त की है और उन्हें यथोचित समान दिया है। निनांकित श्लोक में मनु का आदेश है कि द्विजवर्णस्थ व्यक्तियों के घरों में यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति आ जाये तो उसका अतिथिवत् भोजन-साान करें-

वैश्य शूद्रावपि प्राप्तौ कुटुबेऽतिथिधर्मिणौ।      

भोजयेत् सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन्॥ (3.112)

    (ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन-डॉ0 अम्बेडकर र ने इस श्लोक के अर्थ को प्रमाण-रूप में उद्धृत किया है, जो यह संकेत देता है कि वे मनु के इस कथन को स्वीकार करते हैं और यह भी भाव इससे स्पष्ट होता है कि आर्य द्विजों के घर में अतिथि के रूप में सत्कार पाने वाले शूद्र, मनुमतानुसार अस्पृश्य, नीच, निन्दित या घृणित नहीं होते-

‘‘यदि कोई वैश्य और शूद्र भी उसके (ब्राह्मण के) घर अतिथि के रूप में आए तब वह उसके प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते हुए अपने सेवकों के साथ भोजन कराए (मनुस्मृति 3.112)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 112)

इतनी सहृदयता और सद्भाव का आदेश देने वाला महर्षि मनु, जिसका प्रमाण डॉ0 अम्बेडकर र को भी स्वीकार है, वह विरोध का पात्र नहीं है, अपितु प्रशंसा का पात्र है। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

(इ) द्विज और शूद्र वर्ण एक परमात्मपुरुष की सन्तान हैं-

(क) वैदिक या मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था में सभी वर्णों का उद्भव एक ही परमात्मपुरुष अथवा ब्रह्मा के अंगों से माना है। ध्यान दें, यह आलंकारिक उत्पत्ति वर्णस्थ व्यक्तियों की नहीं है अपितु चार वर्णों की है।

मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु ने शूद्रों को निन या अछूत नहीं माना है। उनका शूद्रों के प्रति महान् मानवीय दृष्टिकोण है। ये आरोप वे लोग लगाते हैं जिन्होंने मनुस्मृति को ध्यान से नहीं पढ़ा, या जो केवल ‘विरोध के लिए विरोध करना’ चाहते हैं। कुछ प्रमाण देखें-

(अ) मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं

मनुस्मृति में शूद्रों को कहीं अछूत नहीं कहा है। मनु की शूद्रों के प्रति समान व्यवहार और न्याय की भावना है। मनुस्मृति में वर्णित व्यवस्थाओं से मनु का यह दृष्टिकोण स्पष्ट और पुष्ट होता है कि शूद्र आर्य परिवारों में रहते थे और उनके घरेलू कार्यों को करते थे-

(क) शूद्र को अस्पृश्य (=अछूत), निन्दित मानना मनु के सिद्धान्त के विरुद्ध है। महर्षि मनु ने शूद्र वर्ण के व्यक्तियों के लिए ‘‘शुचि’’ = पवित्र, ‘‘ब्राह्मणाद्याश्रयः’’ = ‘ब्राह्मण आदि के साथ रहने वाला’ जैसे विशेषणों का उल्लेख किया है। ऐसे विशेषणों वाला और द्विजों के मध्य रहने वाला व्यक्ति कभी अछूत, निन्दित या घृणित नहीं माना जा सकता। निनलिखित श्लोक देखिए-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः   मृदुवाक्-अनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘शुचिः= स्वच्छ-पवित्र और उत्तमजनों के संग में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों के आश्रय में रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम जाति=वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ तीनों वर्णों के सान्निध्य में रहने वाला और उनके घरों में सेवा=नौकरी करने वाला कभी अछूत, घृणित या निन्दित नहीं हो सकता।

    (ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन- इस श्लोक का अर्थ डॉ0 अम्बेडकर र ने भी उद्धृत किया है अर्थात् वे इसे प्रमाण मानते हैं-

‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है। (मनु0 9.335)’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 117)

मनु के वर्णनानुसार शूद्र शुद्ध-पवित्र थे, वे ब्राह्मणादि द्विजों के सेवक थे और उनके साथ रहते थे। इस प्रकार वे अस्पृश्य नहीं थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है शूद्र आर्य परिवारों के अंग थे क्योंकि वे आर्य वर्णों के समुदाय में थे। इस श्लोकार्थ के उद्धरण से यह संकेत मिलता है कि डॉ0 अम्बेडकर र यह स्वीकार करते हैं कि मनुमतानुसार शूद्र अस्पृश्य नहीं है। अस्पृश्य होते तो मनु उनको आर्य परिवारों का सेवक या साथ रहने वाला वर्णित नहीं करते।

(ग) शूद्रवर्णस्थ व्यक्ति अशिक्षित होने के कारण ब्राह्मणों सहित सभी द्विजवर्णों के घरों में सेवा या श्रम कार्य करते थे। घर में रहने वाला कभी अछूत नहीं होता। मनु ने कहा है-

    विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्

    शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥ (9.334)

    अर्थ-वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी कर्त्तव्य है।