द्विज और शूद्र वर्ण एक परमात्मपुरुष की सन्तान हैं-डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) वैदिक या मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था में सभी वर्णों का उद्भव एक ही परमात्मपुरुष अथवा ब्रह्मा के अंगों से माना है। ध्यान दें, यह आलंकारिक उत्पत्ति वर्णस्थ व्यक्तियों की नहीं है अपितु चार वर्णों की है। इस वर्णन से उन-उन वर्णों के कर्मों पर प्रतीकात्मक प्रकाश डाला गया है-

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥ (1.31)

    अर्थ-समाज की समृद्धि एवं उन्नति के लिए मुख, बाहु, जंघा और पैर की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण का निर्माण किया। उसी तुलना से, मुख के समान पढ़ाना, प्रवचन करना, ब्राह्मणवर्ण का कर्म निर्धारित किया। बाहुओं के समान रक्षा करना क्षत्रियवर्ण का, जंघा के समान व्यापार से धनसपादन करना वैश्यवर्ण का, और पैर के समान श्रम कार्य करना शूद्रवर्ण का कर्म निर्धारित किया। इस श्लोक में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, व्यक्तियों का नहीं।

इस आलंकारिक वर्णन से तीन निष्कर्ष निकलते हैं। एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं। दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता। तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है। उक्त श्लोकों के मुनस्मृति में विद्यमान रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

(ख) परपरा-मनु तो वैदिक परपरा के व्यक्ति है। शूद्रों के साथ समान व्यवहार, स्पृश्यता और समान की परपरा तो हमें उनके बाद महाभारत तक मिलती है। रामायण में दशरथ के अश्वमेध यज्ञ में और युधिष्ठिर के राजसूय/अश्वमेघ यज्ञ में शूद्रों को ससमान बुलाया गया था और उन्होंने अन्य वर्णों के साथ बैठकर भोजन किया था।

वाल्मीकि रामायण में सुस्पष्ट शदों में आदेश है कि सभी वर्णों को ससमान बुलाया जाये और सब का श्रद्धापूर्वक संतोषजनक सत्कार किया जाये –

ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः।

समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान्॥

दातव्यमन्नं विधिवत् सत्कृत्य न तु लीलया।

सर्वे वर्णाः यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृताः॥

(बाल0 13.14,20,21)

    अर्थ-महर्षि वसिष्ठ आदेश देते है-‘हजारों की संया में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों को सभी प्रदेशों से सत्कारपूर्वक बुलाओ। उनको श्रद्धा-सत्कारपूर्वक भोजन कराओ, अश्रद्धापूर्वक नहीं। ऐसा व्यवहार करो कि सभी वर्णों के लोग सत्कार पाकर समान का अनुभव करें।’ कितना आदर्श और समानता का आदेश है!! प्राचीन काल में ऐसा ही सद्भावपूर्ण व्यवहार था।

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