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मनु नाम की महत्ता : पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय

वैदिक साहित्ष्किो के मार्ग मे इस प्रकार की सहस्त्रो अडचने है जिनका अधिक उल्लेख यहाॅ नही करना

मनु नाम की महता  चाहिए । परन्तु इसमे भी सन्देह नही कि कोई न कोई विद्वान मनु हो गये है जिनहोने आचार (Moral Laws) और व्यवहार (Juris-prudence) के सम्बन्ध मे नियम बनाये जिनका नाम मानव धर्म शास्त्र या मनुस्मृति पड गया । मनु नाम की महता अन्य देशो के प्राचिन इतिहास से भी विदित होती है । सर विलियम जोन्स (Sir W.Jones) लिखते है:-

“We cannot but admit that Minos Mnekes or Mneuis have only Greek terminations but that the crude noun is composed of the same radical letters both in greek and Sanskrit”

अर्थात यूनानी भाषा के माइनोस आदि शब्द संस्कृत के मनु शब्द के ही विकृत रूपा है।

Leaving others to determine whether our Menus ¼or Menu in the nominative½ the son of Brahma was the same personage with minos the son of jupitar and legislator of the Cretsans ¼who also is supposed to be the same with Mneuis spoken of as the first Law giver receiving his laws from thw Egyp-tian deity Hermes and Menes the first king of the Egyptians ½ remarks :-

“ Dara Shiloha was persuaded and not without sound reason that the first Manu of the Brahmanas could be no other person than the progenitor of makind to whom jews, Christians and mussulmans unite in giving the name of adam “ ¼Quoted by B.Guru Rajah Rao in his Ancient Hindu Judicature½

बी0 गुरू राजाराउ ने अपनी पुस्तक । Ancient Hindu Judicature मे लिखा है कि यदि हम यह अनुसधान दूसरो के लिए छोड दे कि ब्रहा का पुत्र मनु वही है जिसे कोटवालों का धर्म शास्त्र रचियता माइनौस ज्यूपीटर का पुत्र कहा जाता हे (ओर जिसके विषय मे कहा जाता है कि यह वहर म्नयूयस था जिसने मिश्र देश के देवता हमीज से धर्मशास्त्र सीखा और जो मिक्ष देश के देवता हर्मीज से धर्मशास्त्र सीखा और जो मिश्र देश का पहला राजा बना) तो भी जोन्स के इस उद्धरण पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि दाराशिकोह का यह विचार कुछ अनुचित न था कि ब्राह्मणो का आदि मनु वही है जो मनुष्य जाति का पूर्वज समझा जाता है और जिसको यहूदि ईसाई और मुसलमान आदम के नाम से पुकारते है।

इन उद्धरणो में कहाॅ मे कहाॅ तक सचाई है इसमे भिन्न भिन्न मत हो सकते है । परन्तु क्या यह आश्चर्य की बात नही है कि प्राचीन जितने कानून बनाने वाले हुए उनके सब युगो के नाम मनु शब्द से इतना सादृश्य रखते थे । इसके हमारी समक्ष मे दो कारण हो सकते । एक तो यह कि मनु के उपदेश ही दूसरे देशो में किसी न किसी साधन द्वारा और किसी न किसी रूप में गये हो और संस्कृत नाम मनु का ही उन भाषाओ मे विकृत रूपा हो गया हो । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मनु का नाम कानून बनाने के लिए इतना प्रसिद्ध हो गया हो कि वह भारतवर्ष मे व्यक्तिवाचक और अन्य देशो मे जातिवाचक बन गया हो अर्थात अन्य देशीय कानून बनाने वालो ने भी अपने को इसी प्रसिद्ध नाम से सम्बोधित करने मे गोरव समक्षा हो । जैसे शेक्सपियर कहलवाना गौरव समझे । दोनो दशाओं मे मनु की प्रसिद्धि स्वीकार करनी पडती है ।

डॉ अम्बेडकर के साहित्य में किस मनु का विरोध है?: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) प्राचीन मनुओं से भिन्न है डॉ. अम्बेडकर का मनु

    डॉ. अम्बेडकर के साहित्य का मनु का समर्थनात्मक एवं सकारात्मक पहलू गत पृष्ठों में दिखाया गया है किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि उन्होंने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर ‘मनु’ का नाम लेकर कटु आलोचनााी की है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यदि वे किसी मनु का समर्थन कर रहे हैं तो आलोचना किस ‘मनु’ की कर रहे हैं?

इसका उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायी और मनु-विरोधियों को उस पर गभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन्होंने मनुस्मृति-विषयक एक नयी मान्यता स्वीकृत की है। उस मान्यता को लेकर मतभेद हो सकता है, किन्तु उन्होंने इस स्वीकृति में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं किस व्यक्ति का विरोध कर रहा हूँ। उनकी मान्यता है कि वर्तमान में उपलध मनुस्मृति आदिकालीन मनु द्वारा रचित नहीं है, अपितु पुष्यमित्र शुङ्ग (ई0 पूर्व 185) के काल में ‘मनु सुमति भार्गव’ नाम के व्यक्ति ने इसको रचा है और उस पर अपना छद्म नाम ‘मनु’ लिख दिया है। वही सुमति भार्गव उनकी निन्दा और आलोचना का केन्द्र है। इस बात को उन्होंने दो स्थलों पर स्वयं स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-

(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में ‘मनु’ आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता (मनुस्मृति)को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं है कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।……..इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शतादी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार ‘सुमति भार्गव’ नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु-संहिता की रचना की।……इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव’ का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे’’ (अंबेडकर वाङ्मय, भाग 7, पृ. 151)।

एक अन्य पुस्तक में वे लिखते हैं-‘‘मनु के काल-निर्धारण के प्रसंग में मैंने संदर्भ देते हुए बताया था कि मनुस्मृति का लेखन ईसवी पूर्व 185, अर्थात् पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद सुमति भार्गव के हाथों हुआ था।’’ (वही, भाग 7, पृ. 116)

(ग) ‘‘पाणिनि ईसा से 300 वर्ष पहले हुआ। मनु ईसा के 200 वर्ष पूर्व हुआ।’’ (वही, खंड 6, पृ0 59)

(घ) ‘‘मनु एक कर्मचारी था जिसे ऐसे दर्शन की स्थापना के लिए रखा गया था जो ऐसे वर्ग के हितों का पोषण करे जिस समूह में वह पैदा हुआ था और जिसका महामानव (ब्राह्मण) होने का हक उसके गुणहीन होने के बावजूदाी न छीना जाए।’’ (वही, खंड म्, पृ0 155)

उक्त उद्धरणों की समीक्षा से ये निष्कर्ष सामने आता है कि सृष्टि का आदिकालीन मनु स्वायंभुव या मनु वैवस्वत किसी के कर्मचारी नहीं थे, वे स्वयं चक्रवर्ती राजा (राजर्षि) थे। डॉ. अम्बेडकर का यह कथन उन पर लागू नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि यह कथन मनु नामधारी सुमति भार्गव के लिए है जो ई0 पूर्व 185 में राजा पुष्यमित्र शुङ्ग का कर्मचारी था। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर प्राचीन मनुओं का विरोध नहीं करते अपितु वे वस्तुतः पुष्यमित्र-कालीन मनु छद्म नामधारी सुमति भार्गव का विरोध करते हैं।

(ङ) ‘‘बौद्ध धर्म के पतन के कारणों से सबन्धित तथ्यों को उस ब्राह्मण साहित्य से छान-बीन कर एकत्र किया जाना चाहिए, जो पुष्यमित्र की राजनीतिक विजय के बाद लिखा गया था। इस साहित्य को छह भागों में बांटा जा सकता है-(1) मनुस्मृति, (2) गीता, (3) शंकराचार्य का वेदान्त, (4) महाभारत, (5) रामायण और (6) पुराण।’’ (वही, खंड 7, ब्राह्मण साहित्य, पृ0 115)

डॉ0 अम्बेडकर यदि उपलध मनुस्मृति को ईसा पूर्व 185 की रचना मानते हैं और उसे ‘मनु’ छद्म नामधारी सुमति भार्गव रचित मानते है तो प्राचीन मनुओं ने कौन सा धर्मशास्त्र रचा? यह प्रश्न शेष रहता है। उसका उत्तराी उन्होंने स्वयं दिया है। उनका कहना है-

(च) ‘‘वर्तमान मनुस्मृति से पूर्व दो अन्य ग्रन्थ विद्यमान थे। इनमें से एक ‘मानव अर्थशास्त्र’ अथवा ‘मानवराजशास्त्र’ अथवा ‘मानव राजधर्मशास्त्र’ के नाम से एक पुस्तक बतायी जाती थी। एक अन्य पुस्तक ‘मानव गृह्यसूत्र’ के नाम से जानी जाती थी।’’ (वही, भाग 7, पृ. 152)

इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि डॉ. अम्बेडकर ने अपने आदिपुरुषों और आदि विधिप्रणेताओं प्राचीन-मनुओं और उन द्वारा रचित साहित्य की आलोचना नहीं की है उन्होंने 185 ईस्वी पूर्व पुष्यमित्र शुङ्ग के काल में ‘मनु’ छद्म नामधारी सुमति भार्गव और उनके द्वारा रचित जाति-पांति विधायक स्मृति की आलोचना की है।

(आ) शोध निष्कर्ष

    पाश्चात्य लेखकों की समीक्षा से प्रभावित होकर डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का काल 185 ई0पृ0 माना और इसका आद्य रचयिता ‘सुमति भार्गव मनु’ को माना। प्राचीन वैदिक ग्रन्थों की परपरा का ज्ञान तथा उनका गभीर अध्ययन न होने के कारण डॉ0 अम्बेडकर इस विषय का तथ्यात्मक चिन्तन नहीं कर सके । उनसे यह भूल हुई है। गत पुष्ट प्रमाणों के आधार पर वास्तविकता यह है कि मनुस्मृति मूलतः स्वायभुव मनु की रचना है। यह आदिकालीन है। जैसा कि एक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकर ने स्वयं लिखा है-

    ‘‘इससे प्रकट होता है केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायभुव मनु था।’’(अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 283)

इस मनु तथा इसके धर्मशास्त्र का उल्लेख प्राचीनतम संहिताग्रन्थों, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता, बौद्धसाहित्य, जैनसाहित्य, पुराणों और प्राचीन शिलालेखों में आता है जो ईसापूर्व की कृतियां हैं। अतः मनुस्मृति को मूलतः और पूर्णतः सुमति भार्गव की आद्य रचना मानना एक ऐतिहासिक भूल है तथा साहित्यिक परपरा के विपरीत है। वंश-परपरा और काल-परपरा की कसौटी पर भी यह स्थापना गलत सिद्ध होती है।

डॉ0 अम्बेडकर ने जिस सुमति भार्गव का उल्लेख किया है,उन्होंने लिखा है कि उसकी चर्चा नारद-स्मृति में आती है। यह अनुमान विश्वास किये जाने योग्य है कि बौद्ध धर्म के हृास के बाद, ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0) के द्वारा अपने राजा की हत्या करके स्वयं को राजा घोषित करने के उपरान्त, उसके द्वारा जब ब्राह्मणवाद की पुनः स्थापना हुई, तब सुमति भार्गव ने मनुस्मृति में पर्याप्त परिवर्तन-परिवर्धन किये हों और उसका एक नया संस्करण तैयार किया हो जिसमें वर्णव्यवस्था पर जन्मना जातिवाद की स्थापना करने की कोशिश की गयी है। यही कारण है कि मनुस्मृति में दोनों सिद्धान्तों का विधान करने वाले परस्पर-विरोधी श्लोक साथ-साथ पाये जाते हैं।

डॉ0 अम्बेडकर यदि इस पक्ष का विशेष विचार कर लेते कि मनुस्मृति में एक ओर गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित व्यवस्था वाले, शूद्र और नारियों के पक्षधर, न्यायपूर्ण श्लोक हैं, जिनका कि स्वयं उन्होंनेाी समर्थन किया है तथा दूसरी ओर जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत वर्णक एवं पक्षपातपूर्ण श्लोक हैं; किसी विद्वान् की रचना में यह दोष संभव नहीं है, फिर मनुस्मृति में क्यों हैं? तब उन्हें स्वतः उत्तर मिल जाता कि इसमें बाद के लोगों ने प्रक्षेप किये हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों में पुरुष-सूक्त को प्रक्षिप्त माना, रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों में प्रक्षेप होना स्वीकार किया, किन्तु मनुस्मृति में प्रक्षेपों का होना नहीं माना। यह न केवल आश्चर्यपूर्ण है, अपितु रहस्यमय भी है!! उन्होंने ऐसा क्यों नहीं स्वीकार किया, यह विचारणीय है ! उन्होंने इस विसंगति का उत्तर भी नहीं दिया कि मनुस्मृति में प्रकरणविरोधी और परस्परविरोधी श्लोक क्यों हैं? यदि वे इस बात का उत्तर देने को उद्यत होते तो उन्हें प्रक्षेपों की सच्चाई को स्वीकार करना ही पड़ता। फिर उन्हें मनु का ‘विरोध के लिए विरोध’ करने का विचार त्यागना पड़ता। यदि ऐसा होता तो क्या ही अच्छा होता!

(इ) संदेश-सार

अस्तु, इस विषय को और अधिक लंबा न करके डॉ0 अम्बेडकर की पूर्वोक्त मान्यताओं पर आते हैं जिनसे हमें ये संदेश मिलते हैं-

  1. डॉ0 अम्बेडकर का नाम लेकर बात-बात पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करने और मनुवाद का नारा देने वाले उनके अनुयायियों का कर्त्तव्य बनता है कि उनकी इस विषयक स्पष्ट मान्यता आने के बाद अब उसे ईमानदारी से स्वीकार करें और आचरण में लायें। उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वे आदिपुरुष मनु का नहीं, अपितु छद्म नामधारी सुमति भार्गव का विरोध कर रहे हैं।

अब उन्हें ‘मनु’ और ‘मनुवाद’ शदों का प्रयोग छोड़कर ‘सुमति भार्गव’ और ‘सुमति भार्गववाद’ शदों का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि ‘मनु’ प्रयोग से भ्रान्ति फैलती है और निर्दोष आदि-पुरुषों का देश-विदेश में अपमान होता है। ऐसा करना अपने आदिपुरुषों के साथ अन्याय है। इस बात को यदि हम इस प्रकार समझें तो बात आसानी से समझ में आ जायेगी। जैसे, आज कोई व्यक्ति ‘अम्बेडकर ’ छद्म नाम रखकर जाति-पांति, ऊंच-नीच आदि कुप्रथाओं का समर्थक ग्रन्थ लिख दे, तो उसे संविधान प्रस्तोता अम्बेडकर का ग्रन्थ कहना और उस विचारधारा को ‘अम्बेडकर वाद’ कहना अनुचित होगा, उसी प्रकार जाति-पांति विषयक श्लोकों को ‘मनुरचित’ कहना या ‘मनुवाद’ कहना अनुचित है। क्योंकि आदिकालीन मनुओं के समय जाति-पांति नहीं थी, और जाति-पांति जब चली तब उन मनुओं का अस्तित्व नहीं था।

  1. उन्हें यह स्पष्ट बताना चाहिए कि हम उस ‘मनु’ छद्मनामधारी सुमति भार्गव रचित स्मृति के उन अंशों का विरोध कर रहे हैं जिसमें जातिवाद का वर्णन है और जो 185 ईसवी पूर्व लिखे गये थे। डॉ0 अम्बेडकर ने इसी सुमति भार्गव का विरोध किया है। साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उन द्वारा प्रयुक्त ‘मनु’ नाम इसी व्यक्ति का छद्म नाम है।
  2. डॉ0 अम्बेडकर ने शूद्रों के भी ‘‘आदरणीय’’ ‘‘आदिपुरुष’’ मनु या मनुओं का कहीं भी विरोध कर उन्हें अपमानित नहीं किया, अपितु तत्कालीन व्यवस्था की प्रशंसा ही की है। डॉ0 अम्बेडकर का लक्ष्य यह नहीं था। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायियों को भी अपने ‘आदिपुरुष’ मनुओं का विरोध त्याग देना चाहिए।
  3. डॉ0 अम्बेडकर ने जिस छद्म नामधारी ‘मनु’ का विरोध किया है उस पर आरोप है कि उसने शूद्रों के लिए अत्याचार और अन्यायपूर्ण तथा अमानवीय व्यवस्थाएं निर्मित कीं, जिनके कारण शूद्र पिछड़ते चले गये और दलित हो गये। कोई कितनी भी निन्दा करे किन्तु जब भी दो विचारधाराओं में टकराव होता है तब विजेता विजित पर बदले की भावना से या आक्रोश में अमानवीय व्यवहार करता है और विपक्षी का भरसक दमन करता है। गत कुछ सहस्रादियों में ऐसा यदि ब्राह्मणों ने शूद्रों के साथ किया तो शूद्रों ने ब्राह्मणों के भी साथ किया। डॉ0 अम्बेडकर ने माना है कि‘‘इसके पश्चात् मौर्य हुए जिन्होंने ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 183 शतादी तक शासन किया, वे भी शूद्र थे।’’ ‘‘इस प्रकार लगभग 140 वर्षों तक मौर्य साम्राज्य रहा, ब्राह्मण दलित और दलितवर्गों की तरह रहे। बेचारे ब्राह्मणों के पास बौद्ध साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। यही विशेष कारण था, जिससे पुष्यमित्र ने मौर्यसम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। (वही, भाग 7, ‘शूद्र और प्रतिक्रान्ति’, पृ0 323, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0 149)

(5) जोकुछ हुआ, वह वैचारिक वर्गसंघर्ष का परिणाम था। अपने-अपने समय में दोनों ने एक-दूसरे को ‘दलित’ बनाने में कोई कसर नहीं रखी। लेकिन दोनों को आज उस अतीत को भुलाकर लोकतान्त्रिक ढंग से रहना होगा। आज भारत में लोकतन्त्र-प्रणाली है और शासन-प्रशासन एक नये संविधान के अनुसार चलता है। इस प्रणाली में सभी समुदायों और महापुरुषों के लिए समान स्थान है। बात-बात पर किसी समुदाय या महापुरुष का विरोध करना और असहनशीलता का प्रदर्शन करना, कदापि उचित नहीं माना जा सकता। इससे एक नये वर्गसंघर्ष की आशंका बढ़ती जायेगी जो समरसता, सुधारीकरण की प्रक्रिया और लोकतन्त्र-प्रणाली के लिए अशुभ सिद्ध होगी।

  1. जो लोग अपने को ‘शूद्र’ समझते हैं और आी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु मानने वाला और मनु के सिद्धान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलने वाला महर्षि दयानन्द द्वारा प्रवर्तित ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आह्वान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता है। जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शूद्रों को न पढ़ाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सतीप्रथा, शोषण आदि को समाजिक बुराइयां घोषित करके उनके विरुद्ध संघर्ष का आह्वान किया था। नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले। अपनी शिक्षा संस्थाओं में कथित शूद्रों को प्रवेश दिया। परिणामस्वरूप वहां से शिक्षित सैकड़ों दलित युवक-युवतियां संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं।

दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी अस्पृश्यता को मिटाने के लिए मनु के अनुगामी ऋषि दयानन्द के शिष्य कितने ही आर्यसमाजी स्वयं ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष को नहीं छोड़ा। आज आर्यसमाज का वह संघर्ष स्वतन्त्रभारत का आन्दोलन बन चुका है। आज भी आर्यसमाज का प्रमुख लक्ष्य जातिभेद-उन्मूलन और सबको शिक्षा का समान अधिकार दिलाना है। दलित जन आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश लेकर भेदभाव रहित परिवेश में वेदादिशास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं। आर्यसमाज सिद्धान्त और मानवीय, दोनों आधारों पर दलित एवं पिछड़े वर्गों का स्वाभाविक हितैषी है। जो दलित या अन्य लेखक दलितोत्थान में आर्यसमाज के योगदान से अनभिज्ञ रहकर आर्यसमाज पर भी संदेहात्मक प्रतिक्रिया करते हैं, यह उनकी अकृतज्ञता ही कही जायेगी।

बुद्धिमानी इसी में है कि दोनों को मिलकर अमानवीय व्यवस्थाओं, सामाजिक कुप्रथाओं, रूढ़- परपराओं तथा कुरीतियों के विरुद्ध प्रयत्न जारी रखने चाहियें। बहुत-सी कुप्रथाएं नष्ट-ा्रष्ट हो चुकी हैं, शेष भी हो जायेंगी। परस्पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझने तथा प्रतिशोधात्मक मानसिकता अपनाने के बजाय, आइए, उस रूढ़-विचारधारा के विरुद्ध मिलकर संघर्ष करें। जिस विचारधारा ने संस्कृति और मानवता को कलंकित किया है, समाज को विघटित किया है, राष्ट्र को खण्डित किया है और जिसने असंय लोगों के जीवन को असमानता के नरक में धकेल कर नारकीय जीवन जीने को विवश किया है। आइए, उस नरक को स्वर्ग में बदलने का संकल्प लें।

 

नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु

वैदिक परपरा में ‘माता’ को प्रथम गुरु मानकर सम्मान दिया जाता था। मनु उसी परपरा के हैं। महर्षि मनु विश्व के वे प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और समान को सर्वोच्चता प्रदान करता है। संसार के किसी पुरुष ने नारी को इतना गौरव और समान नहीं दिया। मनु का वियात श्लोक है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।      

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफला क्रियाः॥   (3.56)

अर्थ-इसका सही अर्थ है- ‘जिस समाज या परिवार में नारियों का आदर-समान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्य गुण, दिव्य सन्तान, दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-समान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों की सब गृह-सबन्धी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।’

नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध कराने वाले, स्त्रियों के लिए प्रयुक्त समानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढ़कर और कोई प्रमाण नहीं हो सकते। वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करने वाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग और संसारयात्रा की आधार होती हैं-

    प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः   गृहदीप्तयः।

    यिःश्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥ (मनु0 9.26)

    अर्थात्- ‘सन्तान उत्पत्ति करके घर का भाग्योदय करने वाली, आदर-समान के योग्य, गृहज्योति होती हैं यिां। शोभा, लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं।’

(आ) स्त्रियों को सम्मान में प्राथमिकता

‘लेडीज फस्ट’ की सयता के प्रशंसकों को यह पढ़कर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि महर्षि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘यिों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें। और नवविवाहिताओं, कुमारियों, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि यिों को पहले भोजन कराने के बाद फिर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए।’ मनु के ये सब विधान यिों के प्रति समान और स्नेह के द्योतक हैं।’ कुछ श्लोक देखिए –

चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः।  

स्नातकस्य च राज्ञश्च पंथा देयो वरस्य च॥ (2.138)

सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणी गर्भिणी स्त्रियः।  

अतिथियोऽग्र एवैतान् भोजयेदविचारयन्॥ (3.114)

    अर्थ-‘स्त्रियों, रोगियों, भारवाहकों, नबे वर्ष से अधिक आयु वालों, गाड़ी वालों, स्नातकों, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए।’

‘नवविवाहिताओं, अल्पवय कन्याओं, रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को, आये हुए अतिथियों से भी पहले भोजन करायें। फिर अतिथियों और भृत्यों को भोजन कराके द्विज-दपती स्वयं भोजन करें।’

समान और शिष्टाचार का परिचय ऐसे ही अवसरों पर मिलता है। मनु ने नारी के प्रति शिष्टाचार को बनाये रखा है।

मनु की वर्णव्यवस्था में सबको वर्णपरिवर्तन का अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) शूद्रों को उच्चवर्ण की प्राप्ति के अवसर

मनु की कर्म पर आधारित वैदिक वर्णव्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रत्येक वर्ण को जीवन भर वर्ण-परिवर्तन का अवसर देते हैं। जन्मना जातिवाद के समान जीवन भर एक ही जाति नहीं रहती। शूद्र कभी भी उच्चवर्ण की योग्यता प्राप्त कर उच्चवर्ण में स्थान पा सकता है। देखिये, मनु का कितना स्पष्ट मत है जिसको पढ़कर तनिक भी संदेह नहीं रहता-

(क) शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

       क्षतियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव च॥ (10.65)

    अर्थ-‘शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को अर्जित कर ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण, गुण, कर्म, योग्यता से हीन होने पर शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में उत्पन्न सन्तानों का भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।’

(ख) शूद्र द्वारा उत्तम वर्ण की प्राप्ति का निर्देश तथा उत्तम वर्णों की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मनु ने इस श्लोक में भी किया है-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः     मदुवागनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘सदा शुद्ध-पवित्र रहने वाला, अपने से उत्तम जनों या वर्णों की संगति में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों के सेवा कार्य में संलग्न रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ अर्थात् वह वर्णपरिवर्तन की योग्यता अर्जित करके उत्तम वर्ण को प्राप्त करके द्विजाति वर्ण का हो जाता है।

(शूद्रों द्वारा वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में पृ0 104-108 पर द्रष्टव्य हैं)

डॉ अम्बेडकर का मनु-समर्थक मत-डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)

इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?

    प्रश्न-मनु की न्याय और दण्डव्यवस्था से क्या आज की न्यायपद्धति और दण्डव्यवस्था अच्छी नहीं है? आज कानून की दृष्टि में सब बराबर हैं, यह कितना न्यायपूर्ण विधान है। मनु ने सबके लिए समान दण्ड क्यों नहीं रखा?

    उत्तर-महर्षि मनु की न्याय और दण्ड-व्यवस्था आज की दण्ड और न्याय-व्यवस्था से उत्तम, यथायोग्य, और मनोवैज्ञानिक है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है, इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा। आज की दण्डव्यवस्था का सिद्धान्त है-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं।’ पहला परस्परविरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सुविधा एवं समान-व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा। इसे न्याय नहीं कहा जा सकता। उच्च पद और उच्च स्तर पर बैठा व्यक्ति अधिक बौद्धिक विवेक रखता है अधिक सामाजिक सुविधाओं और समान का उपभोग करता है। उसके द्वारा किये गये अपराध का दुष्प्रभाव भी उतना ही तीव्र एवं व्यापक होता है। इस आधार पर यथायोग्य दण्डव्यवस्था यह कहती है कि उसे दण्ड भी अधिक मिलना चाहिए। अधिक सुविधा और समान है तो दण्ड कम क्यों? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और एक प्रथम श्रेणी अधिकारी या शासक समानप्राप्ति में बराबर नहीं तो दण्डप्राप्ति में बराबर कैसे माने जा सकते हैं?

दूसरा परस्परविरोध यह है कि ‘समान दण्ड का सिद्धान्त’ क्षमता (धन, बल, पद, प्रभाव) की दृष्टि से यथायोग्य दण्ड नहीं है। इसे भी न्याय नहीं माना जा सकता। इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी और शेर को भी। इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी और शेर उलटा मारने दौडेंगे। क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? नहीं!! समान दण्ड तो वह है, जो लोकव्यवहार में प्रचलित है। मेमने को डंडे से, भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता है। दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यवर्गीय थोड़ा कष्ट अनुभव करके चुकायेगा और समृद्ध-सपन्न जूती की नोंक पर रख देगा। यह समान दण्ड नहीं है। इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंसे रहते हैं, किन्तु धन-पद-सत्ता-सपन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तोड़ कर निकल भागते हैं। आंकड़े इकट्ठे करके देख लीजिए, स्वतंत्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सपन्न लोगों को! आर्थिक अपराधों में समृद्ध लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं और अपराध करते रहते हैं। मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन और दोष नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति, अपराधी का पद और अपराध के प्रभाव पर निर्भर है। वे गभीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही करते हैं और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शूद्रों के लिए जो पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह केवल प्रक्षिप्त श्लोकों में है। वे श्लोक मनुरचित नहीं है, बाद के लोगों द्वारा मिलाये गये हैं।

शूद्र के प्रति मनु का मानवीय दृष्टिकोण-डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) महर्षि मनु परम दयालु एवं मानवीय दृष्टिकोण के थे। उन्होंने शूद्रों के प्रति मानवीय सद्भावना व्यक्त की है और उन्हें यथोचित समान दिया है। निनांकित श्लोक में मनु का आदेश है कि द्विजवर्णस्थ व्यक्तियों के घरों में यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति आ जाये तो उसका अतिथिवत् भोजन-साान करें-

वैश्य शूद्रावपि प्राप्तौ कुटुबेऽतिथिधर्मिणौ।      

भोजयेत् सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन्॥ (3.112)

    (ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन-डॉ0 अम्बेडकर र ने इस श्लोक के अर्थ को प्रमाण-रूप में उद्धृत किया है, जो यह संकेत देता है कि वे मनु के इस कथन को स्वीकार करते हैं और यह भी भाव इससे स्पष्ट होता है कि आर्य द्विजों के घर में अतिथि के रूप में सत्कार पाने वाले शूद्र, मनुमतानुसार अस्पृश्य, नीच, निन्दित या घृणित नहीं होते-

‘‘यदि कोई वैश्य और शूद्र भी उसके (ब्राह्मण के) घर अतिथि के रूप में आए तब वह उसके प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते हुए अपने सेवकों के साथ भोजन कराए (मनुस्मृति 3.112)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 112)

इतनी सहृदयता और सद्भाव का आदेश देने वाला महर्षि मनु, जिसका प्रमाण डॉ0 अम्बेडकर र को भी स्वीकार है, वह विरोध का पात्र नहीं है, अपितु प्रशंसा का पात्र है। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

(इ) द्विज और शूद्र वर्ण एक परमात्मपुरुष की सन्तान हैं-

(क) वैदिक या मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था में सभी वर्णों का उद्भव एक ही परमात्मपुरुष अथवा ब्रह्मा के अंगों से माना है। ध्यान दें, यह आलंकारिक उत्पत्ति वर्णस्थ व्यक्तियों की नहीं है अपितु चार वर्णों की है।

मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु ने शूद्रों को निन या अछूत नहीं माना है। उनका शूद्रों के प्रति महान् मानवीय दृष्टिकोण है। ये आरोप वे लोग लगाते हैं जिन्होंने मनुस्मृति को ध्यान से नहीं पढ़ा, या जो केवल ‘विरोध के लिए विरोध करना’ चाहते हैं। कुछ प्रमाण देखें-

(अ) मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं

मनुस्मृति में शूद्रों को कहीं अछूत नहीं कहा है। मनु की शूद्रों के प्रति समान व्यवहार और न्याय की भावना है। मनुस्मृति में वर्णित व्यवस्थाओं से मनु का यह दृष्टिकोण स्पष्ट और पुष्ट होता है कि शूद्र आर्य परिवारों में रहते थे और उनके घरेलू कार्यों को करते थे-

(क) शूद्र को अस्पृश्य (=अछूत), निन्दित मानना मनु के सिद्धान्त के विरुद्ध है। महर्षि मनु ने शूद्र वर्ण के व्यक्तियों के लिए ‘‘शुचि’’ = पवित्र, ‘‘ब्राह्मणाद्याश्रयः’’ = ‘ब्राह्मण आदि के साथ रहने वाला’ जैसे विशेषणों का उल्लेख किया है। ऐसे विशेषणों वाला और द्विजों के मध्य रहने वाला व्यक्ति कभी अछूत, निन्दित या घृणित नहीं माना जा सकता। निनलिखित श्लोक देखिए-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः   मृदुवाक्-अनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘शुचिः= स्वच्छ-पवित्र और उत्तमजनों के संग में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों के आश्रय में रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम जाति=वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ तीनों वर्णों के सान्निध्य में रहने वाला और उनके घरों में सेवा=नौकरी करने वाला कभी अछूत, घृणित या निन्दित नहीं हो सकता।

    (ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन- इस श्लोक का अर्थ डॉ0 अम्बेडकर र ने भी उद्धृत किया है अर्थात् वे इसे प्रमाण मानते हैं-

‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है। (मनु0 9.335)’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 117)

मनु के वर्णनानुसार शूद्र शुद्ध-पवित्र थे, वे ब्राह्मणादि द्विजों के सेवक थे और उनके साथ रहते थे। इस प्रकार वे अस्पृश्य नहीं थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है शूद्र आर्य परिवारों के अंग थे क्योंकि वे आर्य वर्णों के समुदाय में थे। इस श्लोकार्थ के उद्धरण से यह संकेत मिलता है कि डॉ0 अम्बेडकर र यह स्वीकार करते हैं कि मनुमतानुसार शूद्र अस्पृश्य नहीं है। अस्पृश्य होते तो मनु उनको आर्य परिवारों का सेवक या साथ रहने वाला वर्णित नहीं करते।

(ग) शूद्रवर्णस्थ व्यक्ति अशिक्षित होने के कारण ब्राह्मणों सहित सभी द्विजवर्णों के घरों में सेवा या श्रम कार्य करते थे। घर में रहने वाला कभी अछूत नहीं होता। मनु ने कहा है-

    विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्

    शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥ (9.334)

    अर्थ-वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी कर्त्तव्य है।

मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म की उपेक्षा: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था सामाजिक और प्रशासनिक दोनों व्यवस्थाओं का मिला-जुला रूप थी, जो मृत्युपर्यन्त व्यवहृत होती थी, किन्तु यह निर्विवाद रूप से सुनिश्चित है कि वह जन्म के आधार पर निर्णीत नहीं होती थी। ‘जन्म’ उसका निर्णायक तत्त्व नहीं था। वर्णव्यवस्था में ‘जन्म’ गौण अथवा उपेक्षित तत्त्व था। उसकी जातिव्यवस्था से कुछ भी समानता नहीं थी। अतः उसकी जातिव्यवस्था से तुलना करना न्यायसंगत नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें वर्णव्यवस्था के वास्तविक या यथार्थ स्वरूप का सही ज्ञान नहीं है या वे सही स्थिति को स्वीकार करना नहीं चाहते।

सपूर्ण मनुस्मृति में महर्षि मनु ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि ब्राह्मण आदि जन्म से होते हैं अथवा ब्राह्मण आदि का पुत्र ब्राह्मण आदि ही हो सकता है। मनु ने निर्धारित कर्मों को करने वाले को ही उस-उस वर्ण का माना है। ब्राह्मण किस प्रकार बनता है? इसका स्पष्ट निर्देश मनु ने निनलिखित श्लोक में दिया है-

       स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

       महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥     (2.28)

अर्थ-‘विद्याओं के पढ़ने से; ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि व्रतों के पालन से, विहित अवसरों पर अग्निहोत्र करने से, वेदों के पढ़ने से, पक्षेष्टि आदि अनुष्ठान करने से, धर्मानुसार सुसन्तानोत्पत्ति से, पांच महायज्ञों के प्रतिदिन करने से, अग्निष्टोम आदि यज्ञ-विशेष करने से मनुष्य का शरीर ब्राह्मण का बनता है।’ इसका अभिप्राय यह है कि इसके बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं बनता।

इसी प्रकार सप्तम अध्याय में राजा के पुत्र को कहीं राजा नहीं कहा है, अपितु उपनयनकृत क्षत्रियवर्णस्थ को राजा होना कहा है (7.2)। ऐसे ही वैश्य भी कृतसंस्कार व्यक्ति होता है, उसके बिना नहीं [9.326 (10.1)]। यदि मनु को वंशानुगत रूप से या जन्म से वर्ण अभीष्ट होते तो वे ऐसा वर्णन नहीं करते, यही कह देते कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शूद्र का शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि मनु को जन्म से वर्ण अभिप्रेत नहीं थे।

    मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते थे, इसका ज्ञान उस श्लोक से होता है जहां भोजनार्थ अपने जन्म के कुल-गोत्र का कथन करने वाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खाने वाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है-

(क) न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्।

       भोजनार्थं हि ते शंसन् वान्ताशी उच्यते बुधै॥ (3.109)

    अर्थ – कोई द्विज भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल और गोत्र का परिचय न दे। भोजन या भिक्षा के लिए कुल और गोत्र का कथन करने वाला ‘‘वान्ताशी’’ अर्थात् ‘वमन किये हुए को खाने वाला’ माना जाता है।

(ख)    वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥   (2.136)

    अर्थ :-वित्त = धनी होना, बन्धु-बान्धव होना, आयु में अधिकता, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता, ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला अधिक-समान का पात्र है। अर्थात् सर्वाधिक समाननीय विद्वान् होता है, फिर क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में अधिक, बन्धु और धनवान् होते हैं। वैसे यह एक ही प्रमाण पर्याप्त है जो वर्णव्यवस्था में जन्म के महत्त्व को पूर्णतः नकार देता है। यदि जन्म का महत्त्व होता तो यह कहा जाता कि जन्मना ब्राह्मण प्रथम समाननीय है। किन्तु ऐसा नहीं है।

मनु की वर्णव्यवस्था में कर्म का ही महत्त्व है, जन्म का नहीं; इसको सिद्ध करने वाला उनका महत्त्वपूर्ण विधान यह भी है कि कोई बालक यदि निर्धारित आयु सीमा तक उपनयन संस्कार नहीं कराता है और किसी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त नहीं करता है तो वह आर्यों के वर्णों से बहिष्कृत हो जाता है। जैसे आज की व्यवस्था में निर्धारित आयु तक विद्यालयों में या अन्य शिक्षा संस्थानों में प्रवेश न लेने पर उन्हें प्रवेश नहीं मिलता। तब वह वैधानिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता। यदि मनु जन्म से वर्ण मानते तो इस प्रतिबन्धात्मक विधान का उल्लेख ही नहीं करते। जो जिस वर्ण में पैदा हो गया, आजीवन वही रहता। न तो उसका वर्णनिर्धारण होता, न वर्ण से पतन होता, न परिवर्तन होता। इससे सिद्ध है कि मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म का आधार मुय नहीं है। देखिए श्लोकोक्त विधान-

आषोडशात् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।

आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥ (2.38)

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥ (2.39)

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि   कर्हिचित्।

ब्राह्मान् यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥ (2.40)

    अर्थ-‘सोलह वर्ष का होने के बाद ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का, बाईस वर्ष के बाद क्षत्रिय बनने के इच्छुक का, चौबीस वर्ष के बाद वैश्य बनने के इच्छुक का, उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं रहता। उसके बाद ये सावित्री व्रत (उपनयन) से पतित होकर आर्यवर्णों से बहिष्कृत हो जाते हैं। व्रत का पालन न करने वाले इन पतितों से फिर कोई द्विज अध्ययन-अध्यापन तथा विवाह सबन्धी वैधानिक व्यवहार न करे।’

यहां इस बिन्दु पर ध्यान दीजिए कि मनु ने ‘व्रात्य’ लोगों से वैधानिक सबन्धों का निषेध किया है, सामान्य व्यवहारों का नहीं। इसे हम आज के संदर्भ में यों समझ सकते हैं कि जैसे वैधानिक शिक्षा से वंचित व्यक्ति कहीं औपचारिक प्रवेश नहीं ले सकता किन्तु स्वयं अध्ययन आदि कर सकता है। उसी प्रकार व्रत से पतितों को स्वयं अध्ययन, धर्माचरण आदि का निषेध नहीं था। दूसरी विशेष बात यह है कि उस स्थिति में भी मनु ने उनका सदा-सदा के लिए वर्णग्रहण का मार्ग अवरुद्ध नहीं किया है। यदि वे लोग फिर भी वर्णग्रहण करना चाहें तो उनके लिए यह अवसर था कि वे प्रायश्चित्त के रूप में तीन कृच्छ व्रत करके पुनः उपनयन करा सकते थे (मनु0 11.191-992-, 212-214)। प्रायश्चित्त इसलिए है कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को भंग किया है, शिक्षा के पवित्र उद्देश्य की उपेक्षा की है, समाज में अज्ञान को बढ़ाने का पाप किया है; अतः उनको पहले इस दोष के लिए खेद अनुभव करने हेतु तथााविष्य में विधानों की दृढ़पालना हेतु प्रायश्चित्त करना चाहिए। यह आत्मा-मन को प्रभावित करने वाली धार्मिक विधि थी। आजकल इस प्रकार के मामलों में कानूनी शपथपत्र लिया जाता है। आजकल यह कानूनी प्रक्रिया है, पहले सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया थी। सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया में अधिक दृढ़ता और ईमानदारी रहती है, कानूनी केवल कागज का टुकड़ा बनकर रह जाता है।

(ई) मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ

यदि मनु को जन्मना जातिव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इसमें मनुस्मृति की रचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि, मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक्-पृथक् कर्मों का विधान किया गया है। यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगेगा तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा। जैसा कि आजकल जन्मना जाति-व्यवस्था में है। कोई कुछ भी अच्छा-बुरा कर्म करे, वह वही कहलाता है, जो जन्म से है। उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक है। मनु ने जो पृथक्-पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिद्ध करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं।

जैसे आज भी पढ़ाना कार्य अध्यापक का है, जो पढ़ायेगा वह ‘अध्यापक’ कहलायेगा, सब कोई नहीं। इसी प्रकार चिकित्सा करने वाला ‘डॉक्टर’, वकालत करने वाला ‘वकील’ कहलाता है, अन्य नहीं। इसी तरह मनुस्मृति में निर्धारित कर्म करने वाला ही उस वर्ण का कहलायेगा। निर्धारित कर्म न करने वाला व्यक्ति केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण आदि नहीं कहा जायेगा।