मनु आदियुग के सर्वजनशिक्षासमर्थक व प्रेरक राजर्षि: डॉ सुरेन्द्र कुमार

सृष्टि के आरभिक युग में विश्व के लिए विद्याओं की अनेक विधाओं के द्वार खोलने वाले, धर्मविशेषज्ञ, महर्षि और राजर्षि मनु पर कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि मनु ने शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करके उनको अज्ञानता के गर्त में डाल दिया। उनका कहना है कि मनु ने केवल ब्राह्मणों को शिक्षा का एकाधिकार प्रदान किया है।

मनु पर यह आरोप निराधार है, भले ही कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों के संदर्भ में सरसरी तौर पर यह ठीक लगता हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा कथन मनु की मूल भावना के ही विरुद्ध है। मनु तो आदियुग के सर्वशिक्षा समर्थक और सर्वप्रेरक शिक्षाप्रेमी राजर्षि थे। उनके द्वारा द्विजातियों को अधिक महत्त्व दिए जाने और एकजाति (अशिक्षित) को कम महत्त्व देने के मूल में वस्तुतः शिक्षा को ही समान और महत्त्व दिया गया है। आज भी तो यही है। सब जगह उच्चशिक्षितों और प्रशिक्षितों को ही महत्त्व और समान मिल रहा है। सरकार उन्हीं को ऊँची नौकरी देती है।

मनु आदियुग के सर्वजन शिक्षा-समर्थक एवं प्रेरक थे, इस तथ्य की पुष्टि मनुस्मृति के एक अन्तःप्रमाण से हो जाती है। इस प्रमाण के समक्ष कोई दूसरा महान् प्रमाण नहीं हो सकता और न कोई विरोधी प्रमाण सामने टिक सकता है। पाठक तटस्थ भाव से इस प्रमाण पर चिन्तन करें और फिर देखें कि मनु शिक्षा के कितने पक्षधर थे। मनु बिना किसी भेदभाव के पृथ्वी के (विश्व के) सभी मानवों का शिक्षा प्राप्ति के लिए आह्वान करते हुए कहते हैं-

एतद्देशप्रसूतस्य       सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थात्-‘पृथिवी पर निवास करने वाले सभी मनुष्यो! आओ, और इस देश में उत्पन्न विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मणों से अपने-अपने जीवनयोग्य कर्त्तव्यों एवं व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सुशिक्षित बनो, विद्वान् बनो।’

महर्षि मनु का यह आह्वान कितना महान् है!! इसमें न ब्राह्मण-शूद्र का प्रतिबन्ध है, न स्त्री-पुरुष का भेदभाव है, न आर्य-अनार्य का भेद है, न स्वदेशी-विदेशी का अन्तर है। वह सब मनुष्यों का समान भाव से आह्वान कर रहा है। क्योंकि वह शिक्षा के महत्त्व को समझता है कि शिक्षा के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं बन सकता, कोई उन्नति नहीं कर सकता, परिवार-समाज का कल्याण नहीं हो सकता, राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता, इसलिए मनु के मत में शिक्षा का सर्वोच्च महत्त्व था। उसकी ओर से किसी के लिए कोई बन्धन नहीं है। बस, शिक्षा प्राप्ति का इच्छुक होना चाहिए, चाहे वह पृथ्वी के किसी भाग का निवासी हो। शिक्षा के प्रति इतना उदार भाव रखने वाले राजर्षि से क्या यह आशा की जा सकती है कि वह किसी को शिक्षा से वंचित करेगा? कदापि नहीं। यदि शिक्षा से वंचित करने के या प्रतिबन्ध डालने के वचन वर्तमान मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे उक्त आह्वान करने वाले मनु स्वायंभुव के नहीं हो सकते। क्योंकि ऋषियों या विद्वानों के कथनों में परस्परविरोध नहीं होता। हाँ, वे किसी स्वार्थी और पक्षपाती के कथन हो सकते हैं, जो उसने स्वार्थपूर्ति के लिए अवसर पाकर प्रक्षिप्त कर दिये।

महर्षि मनु शिक्षा को सर्वोच्च महत्त्व देते थे और वर्णव्यवस्था में उसे आवश्यक मानते थे। इसका एक ठोस प्रमाण वह है। जहां शिक्षा प्राप्ति न करने वालों के लिए मनु ने कठोर विधान किया है। मनु कहते हैं कि अधिकतम निर्धारित आयुसीमा तक भी जो बालक या युवक शिक्षा प्राप्त्यर्थ उपनयन संस्कार नहीं करायेगा, वह आर्य वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत हो जायेगा और वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत सुलभ उसके वैधानिक अधिकार नहीं रहेंगे (मनु0 2.38-40)। यह सबके लिए अनिवार्य शिक्षा का संकेत है। ऐसा शिक्षाप्रेमी महर्षि किसी को शिक्षा से वंचित करने का विचाराी नहीं कर सकता।

सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता विषयक मनु के सिद्धान्त की पुष्टि कौषीतकि ब्राह्मण के उन निर्देशों से होती है जिनमें कहा गया है कि बालक-बालिका को आठ वर्ष की आयु तक पाठशाला में अवश्य भेज देना चाहिए, जो न भेजें वे माता-पिता, राजा द्वारा दण्डनीय होंगे (उपदेश मंजरीःस्वामी दयानन्द, उप0 10, पृ0 66)।

वस्तुतः, प्राचीन ऋषियों द्वारा रचित जो आर्षशास्त्र हैं, उनमें कहीं भी किसी मनुष्य को किसी भी प्रकार के धर्मपालन या शिक्षा आदि के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है। ये बातें उन नवीन ग्रन्थों में हैं जिनको जन्मना जाति-पांति के समर्थक रूढ़िवादी लोगों ने रचा है। उन्हें शास्त्र ही कहना अनुचित है।

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