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परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

स्वामी जी को विष दिये जाने के पश्चात् जोधपुर में मृत्यु से जूझ रहे स्वामी दयानन्द की इस स्थिति की जानकारी उस राज्य से बाहर नहीं आई थी। आर्य समाज अजमेर के सदस्य और महर्षि दयानन्द के अनन्याक्त श्री ज्येष्ठमल सोढ़ा पहले व्यक्ति थे, जो जोधपुर में रुग्ण हो गये स्वामी जी महाराज से मिले थे और उनकी भयंकर अस्वस्थता की सूचना आर्य जनता को दी थी। प्रस्तुत काव्यमय बधाई उन्हीं की रचना है।                          – सपादक

अहो आज आनन्द बधाई।

विद्वज्जन एकत्र होइ कर, परोपकारिणी सभा बनाई।।1।।

श्रीमत् परमहंस परिव्राजक, स्वामी दयानन्द कृत हित आई।।2।।

कोउ स्वयं धरि परिश्रम आपए कोउ देते प्रतिनिधि पहुँचाई।।3।।

तन मन धन अपनो सरवस तेहि, स्वामि दियो तिनको संभलाई।।4।।

वे हि प्रण नियम निवाहन के हित, निज-निज समति देत जनाई।।5।।

समझि महान् लाा या जग में, विद्या वृद्धि करें एकताई।। 6।।

श्रीमद्दयानन्द आश्रम कहि, पढ़न काज चटशाल खुलाई।।7।।

बालक पढ़ें चतुर वर्णों के, प्रबन्धयुत प्रारभ पढ़ाई।।8।।

आर्यसमाजें और भद्रजन, परोपकारिणी करत सहाई।।10।।

सुनहु मित्र अजमेर नगर के, डगर द्वार लिख-लिख चिपकाई।।11।।

श्रोताओं को देत निमंत्रण, आर्य्यसमाज हृदय हुलसाई।।12।।

विज्ञापन छपवाइ मनोहर, देइं भद्र प्रतिदिवस बँटाई।।13।।

सत उपदेशन के जो ग्राहक, सुनउ आइ इत नित चितलाई।।14।।

कोऊ तो भाषत देशोन्नति को, कोउ कह आप्त धर्म दरसाई।।15।।

काहू के मन देश का दुखड़ा, कह पुकार दोउ भुजा उठाई।।16।।

कोउ विद्या इतिहास बड़न के, पुरुषारथ को दे जताई।।17।।

कोउ योग, कोउ तत्त्व व्याकरण, ब्रह्मदेश की करत बड़ाई।।18।।

क ोउ ज्योतिष, कोउ शिल्पकृषि, कोउ गोरक्षा हित देत दुहाई।।19।।

अहो भ्रातृगण सुनउ श्रवण कर, बार-बार मनु-तन नहीं पाई।।20।।

विद्यारसिको ओ धनाढयो, अजहू किमि सोवत अलसाई।।21।।

बनो सहाई दीर्घ दृष्टि दे, तुमरि सन्तति हेतु भलाई।।22।।

यामें जो कुछ संशय होवे, शंका किमि नहीं लेउ मिटाई।।23।।

तुम हित वेद भाष्य किय स्वामी, धन-धन दयानन्द ऋषिराई।।24।।

सार गहो जे आर्य्य ग्रन्थ हैं, तजहू परस्पर कलह लड़ाई।।25।।

सुफल जन्म कसि करहू न अपनो धृक वे जन नहीं तजत ढिठाई।।26।।

उत्तम पुरुष वही जग मांही, परमारथ हित सुमति उपाई।।27।।

कहत जेठमल दास सबन को, बना भजन यह दियो सुनाई।।28।।

तृतीय परोपकारिणी सभा

लखि कर करुणा भारत भू की, मिलि सज्जन सुमति प्रचार करें।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी, धन विद्या हेतु हुलास करें।।

 

कोउ आवत पूरब परिचम से, उत्तर दक्षिण से विद्वज्जन।

प्रतिनिधि बन पर उपकारिणी के, जु सभा जुर सय करें स्थापन।

सतधर्म सनातन परिपाटी, जो सब मनुजन की सुधवर्धन।

पुनि पाठन पठन प्रचारे षोडश, संस्कार को संशोधन।।

जगदीश्वर अब सबके मन की, बेगहि पूरण अभिलाष करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 1।।

 

श्री स्वामी दयानन्द स्वर्ग गए, जिनको है व्यतीत चतुर्थ बरस।

स्वीकार कियो निज तन मन धन, महद्राजसभा सन्मुख सरवस।।

मुद्रांकित कर गए इह विधि हो, पर स्वारथ हित व्यय रात दिवस।

विद्यालय हो दीनालय हो, वेदादि पढ़ायं प्रचार सुयश।।

तईस पुरुष दस द्वै मासों, में नियम प्रत्येक विकाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन घड़ी धन विद्या.।। 2।।

उत्साह बढ़ाय सदा आवत, श्रद्धायुत द्रव्य प्रदान करें।

कोउ भूमि देई अति हर्ष-हर्ष, उत्तेजित कार्य्य महान् करें।।

जित देखो उत वेदध्वनि है, नव-नव व्यायान बखान करें।

प्रफुलित सब आरज पुरुष हिये, देशोन्नति के गुनगान करें।।

आनन्द दयानन्द आश्रम की, यह नीव थपी कैलाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी विद्या.।। 3।।

सिरमौर उदयपुर महाराणा भेजे कवि श्यामल, मोहन को।

यह भार लियो मुसदाधिपति अपने पर कार्य्य विलोकन को।।

शाहपुरेश बाग किये अर्पन धन-धन उनके उत्साहन को।

मोहन निज हाथन अस्थि धरी, स्वामी के कौल निबाहन को।।

उनतीस दिसबर (1887) चढ़तो दिन उपमा ये जेठू दास करे।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 4।।

 

दयानन्द-आश्रम

अब तो कछु या भारत कीदशा जगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।।

इक भये महात्मा सरस्वती प्रणधारी।

सारी आयू-पर्य्यन्त रहे ब्रह्मचारी।।

पढ़ वेद चर्तुदिशि विद्या-बेल पसारी।

लह धर्म सनातन देशाटन अनुहारी।।

लखि भारत को अति हीन मलीन भिखारी।

उपदेश यथावत दियो बेग विस्तारी।।

सुन लाखन जन तन मन धन बुद्धि संवारी।

दौड़ महाराज, आर्य्यकुल-कमल-दिवाकर,

मेदपाट, सिरमौर सज्जनसिंह, महाराणा निज निकट बुलाय।

मनुस्मृति, पढ़ी सब बिदुर प्रजागर ध्यान लगाय।।

वायोगी को कछु दरस्यो योग मंझारी।

महाराज, कह्यो मम जीतेजी जिमि संरक्षण हो,

मृत्यु व्यतीते है सर्वस तुमको अधिकार।

यही दक्षिणा, वेद विद्या का जहं तहं होय प्रचार।।

दोहा त्रयोविंशति भद्रजन हैं मुझको स्वीकार।

संस्कार मम देह को कीजो विधि अनुसार।।

चौपाईअगर तगर कर्पूर मंगइयो, वेदी रच कर यज्ञ करैयो।

गाड़ियो न जल मांहि बहइयो, ना कहुं कानन में फिकवैयो।।

छंदचार मन घृत मँगाकर पुनि तपा स्वच्छ छनाइयो,

चिता चन्दन पूरियो दो मन अवश्य हि लाइयो।

काष्ठ दश मन चुन जुगत से दग्ध तन करवाइयो,

वेदमन्त्रों की ऋचा उच्चारते मुख जाइयो।।

वा कर्म-क्रिया को सबकी रूचि उमगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 1।।

 

सुनियो अब भारतवर्ष दयानन्द को है,

जो परोपकारिणी सभा रची वह यह है।

महिमहेन्द्र फतेहसिंह उदय-सूर्य चमको है,

संरक्षण पद निज धीर वीर धारो है।।

उपसभापति पद मूलराज थरप्यो है,

कविराज मंत्री श्यामलदास बन्यो है।

इक द्वितीय मन्त्री को पद शेष रह्यो है,

दौड़- महाराज, पंडिया मोहनलालजी, विष्णुलालजी, मथुरावासी,

उपमन्त्री पद हृदय लगाय।

धारण कीन्हों, कार्य्यवाही करते नित प्रेम बढ़ाय।

अष्टादश मुय सभासद सुन्दर सोहें,

महाराजाधिराजा नाहरसिंह शाहपुराधीश,

अजमेर बगीचो, दियो आश्रम हेत चढ़ाय।

ताम्रपत्रिका सुघड़ बनवाय, करी अर्पण लिखवाय।।

दोहाअजयमेरु उत्तर दिशा अन्नासागर पाल।

या सम बड़ी न भूमिका घाट-भूमि को थाल।।

चौपाई–  धन्य धरनि सरबर बड़भागी,

धन्य क्षेत्र पुष्कर अनुरागी।।

काय दयानन्द स्वामी त्यागी,

पुनः नींव आश्रम की लागी।।

छंद मध्य भू खुदवा गढ़ा अनुमान ले इक ताल को,

कर दियो प्रारभ कछु दरसा पुरातन चाल को।

अस्थि लेकर मसूदापति सौंप मोहनलाल को,

इक रुदन दूजो हर्ष है वरनूं कहा या हाल को।।

उस महर्षि की मानसी अग्नि सुलगी है,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 2।।

प्रतिवर्ष सभा जुड़ आ इत सुमति उपावे,

कोइ प्रतिनिधि युत अपनो सन्देश भिजावे।

रावत अंसीद अर्जुनसिंह वर्मा आव,

वेदला ततसिंह राव राय पहुँचावे।।

महाराजा श्री गजसिंह विचार प्रगटावे,

श्रीमान् राव श्री बहादुरसिंह हरखावे।

स्वामी हित पूर्ण प्रेम प्रीति दरसावे,

दौड़ महाराज नृपति महाराणाजी श्री फतेहसिंह जी देलवाड़ा,

लिखो नाम मैं देऊं गिनाय,

सुपरिन्टेन्डेट, सु पंडित सुन्दरलाल विचार जनाय।

जयकृष्णदास जी.सी.एस.आई. बतलावे,

महाराज, कलेक्टर डिप्टी जो बिजनौर,

और लाहौर के सांईदास कहाय।

जगन्नाथजी फर्रुखाबादी दुर्गासहाय आय।।

दोहाकमसरियेट गुमाश्ता छेदीलाल मुरार,

सेठ जु निर्भयरामजी कालीचरण उचार।

चौपाई राव गुपाल देशमुख मेबर,

महादेव गोविन्द जज्जवर।

दाना माधवदास अकलवर,

पण्डित श्यामकृष्ण प्रोफेसर।।

छंद सभासद ऊपर कहे है, सभा  परउपकारिणी।

वैदिक सुशिक्षा दे बनी है, अवश्य देश सुधारणी,

आर्यवर्त अनाथ दीनों के जो कष्ट निवारिणी।।

दयानन्द की भक्त बन स्वीकार प्रति विस्तारिणी,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 3।।

स्वीकार पत्र के वचन सभा बरतावे

यदि उचित होय तो नियम घटाय बढ़ावे।।

समतिसब आर्य्यसमाजों से मँगवावे

सभव हो सो कर पृथक् और ठहरावे।।

वैदिक-यंत्रालय को हिसाब अजमावे

श्रद्धायुत चन्दा निज-निज करन चढ़ावे।।

त्रय सभासदों से अधिक न घटने पावे।

दौड़ महाराज जहाँ लगि उनके पद पर सय भद्रजन,

धर्मध्वजी वा आर्यपुरुष कोई नियत न थाय।

पक्षपात तज अधिक पक्षानुसार बहु रचें उपाय।।

श्री सभापति की समति द्विगुण मिलावे।

महाराज त्याग सब विरोध जो कुछ झगड़ा,

टंटा उपजे बाको आपस में लेवें निबटाय।

न्यायालय की हो सके तहाँ तलक नहीं गहें सहाय।।

दोहा स्वामी दयानन्द लिख गये अन्त समय यह पत्र।

तेहि प्रण पूरण करन हित सभा होइ एकत्र।।

चौपाईधन्य दयानन्द श्रुति पथ चीन्हो,

भारत हित तन मन धन दीन्हो।

धन दृष्टान्त कह्यो सो कीनो,

मन वच काय सुयश जग लीन्हो।।

छन्दअजमेर केसरगंज में चटसाल यह बनवायगी,

राज-भाषा संस्कृत जिसमें पढ़ाई जायगी।

करहु चंदा सकल जन मिलि लाभ यह पहुँचायेगी,

विदेशन विद्या गई जो बहुरि घर क ो आयगी।।

इक धर्म वृद्धि कहे जेठू सदा सगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 4।।

चेतावनी

बिन कारण वैर अरु निंदा को, मत कीजिये सज्जन आपस में,

अभिमान तजो सन्मान लहो, कछु ज्ञान विचारो अंतस में,

जंह-तंह रहो प्रीति बढ़ा करके, मन धरिये धीरज अरु जस में,

यह अर्ज करे सोढा जेठू, मद लोभ, क्रोध रखिये बस में।।

सद्गुरु की महिमा

सद्गुरु की वाणी, अमृत रस का प्याला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।

पहचान उसे जो तुझ को चेताता है।

जैसा जो कुछ तूं करे वो भुगताता है।।

लखि रचना क्यों कर्ता को विसराता है।

अज्ञान नास्तिक कैसे कहलाता है।।

वह अन्तर्यामी घट-घट का रखवाला। पी प्रेम.।।1।।

गुरु ऐसा कर जो सदा रहे ब्रह्मचारी।

उपदेश करे जैसा वो बर्त्ते सारी।।

विद्या वृद्धि हित करे तपस्या भारी।

दे सत्या-सत्य जताय भक्त हितकारी।।

कण्ठित हो चतुरवेद मन्त्रों की माला। पी प्रेम.।।2।।

गुरु प्रथम निरंजन, प्रणाम बारबारा।

प्रणवूं पुनि ब्रह्म ऋषिन वच सुपथ संवारा।।

वेदानुकूल आचरण सभी को प्यारा।

जो यथायुक्त धारे वह गुरु हमारा।।

दे खोल हृदय के अन्धकार का ताला। पी प्रेम.।।3।।

गुरु मात पिता, आचार्य्य अतिथि कहलावे।

गुरु परोपकार हित अपनी देह तपावे।।

गुरु दयानन्द सा बीड़ा कौन उठावे।

को वेद भाष्य की घर-घर कथा सुनावे।।

यों कहें नमस्ते जेठू भोला भाला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।4।।

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों? : डॉ धर्मवीर

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों?

29 जून 2016 को समाचार पत्रों में यह समाचार प्रमुख रूप से प्रकाशित हुआ है कि अनुसन्धान से सिद्ध हुआ है कि गोमूत्र में सुवर्ण के कण पाये गये हैं। समाचार की मुखय सूचना इस प्रकार है-

गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के बायो टेक्नोलोजी विभाग के प्रमुख उक्त अनुसंधान करने वाली टीम के अगुवा डॉ. बी.ए. गोलकिया ने बताया कि गुजरात के सौराष्ट्र इलाके के गिर में पाई जाने वाली गायों के मूत्र में प्रति लिटर तीन से दस मिलीग्राम तक सोना, 2 मिलीग्राम चाँदी, 025 मिलीग्राम जस्ता और 1.2 मिलीग्राम बोरॉन होने की पुष्टि हुई है। यही नहीं, इनके अतिरिक्त अन्य 5100 रसायनों की भी पहचान की गई, जिनमें एंटी कैंसर, एंटी कॉलेस्ट्रोल, एंटी डायबिटीज, एंटी एजिंग के गुण वाले रसायन शामिल हैं। ऐसा प्रयोग गायों की अन्य प्रजातियों पर नहीं हुआ है। यह सोना जैविक सोना है, जो चिकित्सकीय गुणों के मामले में लाजवाब तथा आम तौर पर चिकित्सा के लिये प्रयुक्त होने वाली स्वर्ण भस्म आदि से कहीं आगे है।

इस देश का यह दुर्भाग्य है कि अनुसन्धान में गोमूत्र में सुवर्ण की उपस्थिति प्रमाणित हो रही है, परन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति दूध के नाम पर जो पी रहा है, खा रहा है, वह केवल विष है। पहले समय में दूध जब अधिक था, अतिथि का सत्कार दूध से किया जाता था, पानी पिलाना समान के प्रतिकूल समझा जाता था। तब इस देश में गौओं की संखया मनुष्यों से अधिक थी। जैसे-जैसे हिंसा के कारण, अनुपात घटता गया, परिस्थितियाँ बदलती गईं। दूध माँगने पर भी दूध न मिले, ऐसी दशा में दूध में पानी मिलाकर दिया जाने लगा। दूध में पानी की मिलावट करना, उसे बेचना एक सर्वप्रचलित अपराध बन गया। घर में दूध की मात्रा कम होने पर पानी मिला कर उसकी पूर्ति करना एक सामान्य आचार बन गया। पशुओं की निरन्तर घटती संखया ने इस परिस्थिति को बदल दिया। अब दूध में पानी मिलाने के स्थान पर पूरा दूध ही नकली बनने लगा। दूध वाशिंग पावडर, तेल आदि डालकर बनाया जाने लगा। एक बार दिल्ली में श्री कृष्णसिंह जी के गाँव में कार्यक्रम में जाते हुए वहाँ के निवासी ने बताया- आचार्य जी, इस गाँव में पशु नहीं हैं, परन्तु हजारों लीटर दूध प्रतिदिन डेयरी को भेजा जाता है। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ऐसा दूध डेयरी में एक गाँव से लिया जा रहा है, तो क्या शेष लोग मूर्ख हैं जो शुद्ध दूध डेयरी को देंगे? एक बार उत्तर प्रदेश में दिल्ली की ओर आने वाले दूध की जाँच की जाने लगी तो सारे के सारे दूध बेचने वालों ने अपना दूध सड़कों पर फेंक दिया और किसी भी प्रकार के परीक्षण के लिये तैयार नहीं हुए। उस समय समाजवादी नेता और मुखयमन्त्री मुलायमसिंह की टिप्पणी थी- दूध बेचने वालों को भी तो अपने बच्चे पालने हैं, वे मिलावट नहीं करेंगे तो उनके परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा? इस प्रकार दूध में मिलावट ही नहीं, नकली दूध को भी हमने मान्यता दे दी, चाहे ऐसा करने से किसी की भी मृत्यु हो तो हो!

दूध की कमी को पूरा करने के लिये बाजार में सोयाबीन और मूंगफली का दूध बनाकर बेचा जाने लगा। सोयाबीन और मूंगफली का घोल दूध जैसा दीखता है, तो कुछ गुण भी मिलते हैं, परन्तु वह घोल क्या दूध का स्थान ले सकता है? इधर हमारा अनुसन्धान विपरीत दिशा में बढ़ता ही जा रहा है। दूध का आधार पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु को समाप्त कर दूध के विकल्प खोज रहे हैं। पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने की बात करते हैं। पशु से अधिक दूध प्राप्त करने के लिये पशुओं पर तरह-तरह के अत्याचार करते हैं। दूध के लिये पशुओं को इंजेक्शन लगाते हैं, यह बिना सोचे कि इसका पशु पर और दूध पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह एक कष्ट व पीड़ा देने वाला उपाय है। इस औषध का उपयोग प्रसव शीघ्र कराने के लिये किया जाता है। इसके लगाने से गर्भाशय में संकोच होकर शीघ्र प्रसव होता है। इस इंजेक्शन के लगाने से पशु में प्रसव पीड़ा होती है बिना सोचे दिन में दो बार पशुओं को यह इंजेक्शन लगाते हैं।

इस दवा का यदि पशु पर प्रभाव पड़ता है तो दूध पर भी पड़ता है, दूध में इसके प्रभाव से जो बच्चे ऐसा दूध पीते हैं, उनके अन्दर वयस्कता का भाव जल्दी प्रकट होने लगता है। जो बच्चे 15-16 वर्ष में बड़े लगते थे, उनमें यह परिस्थिति 10-12 वर्ष में ही दिखाई देने लगती है। ऐसा दूध, दूध के प्राकृतिक गुणों से रहित हो जाता है। हम दूध अधिक लेने के लिये गाय-भैंस के बच्चों को मार देते हैं तथा कई लोग उनके अन्दर भूसा भर देते हैं। जब दूध निकालना होता है, तब उसे पशु के सामने रख देते हैं, पशु उसे चाटता है और आप सरलता से दूध निकाल लेते हैं। यह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये किया जाने वाला पाप है।

हमारे समाज में दूध की आवश्यकता तो बढ़ रही है, परन्तु दूध का स्रोत घट रहा है, ऐसी परिस्थिति में अपराध ही शरण बन जाता है। चोरी और मिलावट तभी होती है, जब वस्तु दुर्लभ हो। आज कोई व्यक्ति कितने भी पैसे देकर शुद्ध घी-दूध प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उसके अपने पशु न हों। हमें दूध, दही, मक्खन, पनीर, मावा, मिठाई, घी-सब कुछ चाहिए, परन्तु गाय नहीं चाहिए, तब ऊपर बताये सब विकल्प ही काम आयेंगे। गत दिनों मध्य प्रदेश के एक गाँव में जाने का अवसर मिला, वहाँ एक व्यक्ति भट्टी जलाकर मावा बना रहा था। हमने सोचा-अच्छा मावा मिलेगा, ले चलते हैं। भट्टी के पास जाकर बैठे, तो एक व्यक्ति चमच से डालडा दूध में मिला रहा था। पूछने पर पता लगा कि पहले यह व्यक्ति गाँव से दूध लाता है, उसकी क्रीम निकाल कर घी बनाता है, फिर बचे हुए दूध में वनस्पति तेल डालकर मावा बनाता है। आज जितने भी उपाय जिसको आते हैं, उतने उपायों से दूध और खाद्य पदार्थ बनाये जा रहे हैं। इसमें भारत हो या विदेश, गरीब हो या अमीर, गाँव हो या शहर, किसी की कोई भी सीमा नहीं है। जितना अपराध नगर में होता है, उससे कम ग्राम में नहीं होता। जितना हमारे देश के अन्दर दूध में मिलावट का पाप हो रहा है, उससे अधिक यूरोप अमेरिका आदि के नगरों में किया जा रहा है। वहाँ अपराध करने का प्रकार वैज्ञानिक साधनों से साफ-सुथरा, आधुनिक है। हमारे देश में दूध में मिलावट करते हैं, उन्होंने गाय में ही मिलावट कर दी।

आज बड़ी-बड़ी विदेशी कमपनियों का दूध और दूध का चूर्ण विष के अतिरिक्त कुछ नहीं है। भारत की सभी डेयरियाँ दूध की मात्रा को पूर्ण करने के लिये इसी दुग्ध चूर्ण का उपयोग करती हैं। यूरोप के लोगों ने दूध के लिये नई गाय बना डाली, इन गायों को हम जर्सी, रेड डेन, हेलिस्टन आदि के नाम से जानते हैं। इनसे प्राप्त होने वाले दूध की मात्रा ने हमें पागल बना दिया है। हम अपनी गिर, राठी, साहीवाल, नागौरी, थारपारकर आदि सैंकड़ों देसी नस्ल को छोड़कर विदेशी गायों को ले आये। उनके बीज से अपनी गायों को संकर नस्ल का बना लिया। आज जब विदेशों में अनुसन्धान किया गया, तो पता चला कि हम ठगे गये। विदेशी गायों के दूध से मधुमेह, कैंसर घुटने का दर्द जैसी अनेक बीमारियाँ हमारे समाज में बढ़ रही हैं, परन्तु विदेशी कमपनियों का अरबों-खरबों का व्यापार दूध, दूध के पाउडर, घी तथा दुग्ध उत्पादों का है, वे इस पाप को न रोकना चाहते हैं, न प्रकाशित होने देना चाहते हैं। वास्तव में गाय जैसा दीखने वाला विदेशी पशु अमेरिका में पाये जाने वाले जंगली सूअर और युरास नामक पशु के प्रजनन से अधिक दूध और अधिक मांस प्राप्त करने के लिये वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई एक नई प्रजाति है। इसके कारण इस मांस और दूध का सेवन करने वाले चाहे अमेरिकी हों या भारतीय, सभी में घातक रोग बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं।

आजकल जहाँ यह पशु है, उन देशों ने भी इन पशुओं के दूध को पीना छोड़ दिया है और वहाँ के लोग इसे सफेद जहर मानने लगे हैं। वहाँ के लोग मांस के लिये भी भारतीय गाय को ही पसन्द करते हैं, इस कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा गो-मांस निर्यात करने वाला देश बन गया है। दूध के लिये जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों ने भारत की गिर गाय को बहुत वर्षों पहले से ले जाना प्रारमभ किया था। आज वहाँ बड़ी संखया में इनका पालन किया जाता है। आज वहाँ इन देसी गायों का मूल्य एक करोड़ रुपये प्रति गाय तक पहुँच गया है। हम अपने पशु और अपने मनुष्यों के स्वास्थ्य का मूल्य नहीं समझते हैं, अतः विदेशी गायों के प्रति मोह रखते हैं, उनके दूध से अपने अन्दर कैंसर, मधुमेह, घुटनों के दर्द जैसे रोगों को आमन्त्रण दे रहे हैं। हम मांस के लिये सोना देने वाली गाय को मार रहे हैं।

आज हमें विचार करने की आवश्यकता है कि केवल दूध की मात्रा का लोभ करने से समस्या का हल नहीं होगा। इसके मूल में जाकर इस समस्या का हल करना होगा, नहीं तो महर्षि दयानन्द का यह वाक्य सार्थक होगा- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों कीाी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु  सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना दूध, घी और बैल आदि पशु इस समय दस गुने मूल्य सेाी नहीं मिल सकते, क्योंकि सात सौ वर्षों में इस देश में गौ आदि पशु को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं। वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड़-मांस तक भी नहीं छोड़ते, नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्। जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे। हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं?

हम जहाँ पशुओं को मारकर दूध बढ़ाने के उपाय कर रहे हैं, उसी प्रकार उपजाऊ भूमि को घटाकर अन्न बढ़ाने का उपाय भी कर रहे हैं, यह गणित उल्टा पड़ेगा। अन्न भी नकली और बीमार मिलेगा, दूध भी नकली और रोगकारक ही प्राप्त होगा। इन दोनों समस्याओं का हल हमारी प्राचीन परमपरा में निहित है। उसका हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है। पुराने समय में जंगलों की सुरक्षा अनिवार्य थी। नगर-ग्राम के समीप जो जंगल होते थे, वह गोचर भूमि कहलाती थी। जंगल के अधिक होने से पशुओं की सुरक्षा और वृद्धि सहज समभव है, वहीं जंगल के कारण वनस्पतियों की प्राप्ति से दूध में औषधीय गुण प्राकृतिक रूप में सहज प्राप्त होते हैं। गाय आदि पालतू पशुओं के अतिरिक्त जंगली पशु-पक्षियों की भी सहज रक्षा हो जाती है। जंगल में घूमने वाली गायों के दूध से आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम आदि सद्गुण मनुष्यों में बढ़ते हैं। पशु-पक्षियों की अधिकता से जंगल में गोमूत्र-गोबर आदि से भूमि को पर्याप्त खाद मिलने से वृक्ष-वनस्पतियों की वृद्धि होती है। वृक्षों की अधिकता से वर्षा, जलवायु की शुद्धता तथा उष्णता की मात्रा भी कम हो कर वातावरण सौमय बनता है। इसका दूसरा लाभ भी होता है। दूध-घी की मात्रा अधिक होने से गरीब-से-गरीब आदमी को भी उचित पौष्टिक भोजन मिलता है तथा दूध-घी का उपयोग करने वाले व्यक्ति को अन्न खाने की कम ही आवश्यकता पड़ती है। इससे मलमूत्र, दुर्गन्ध भी न्यून होकर पर्यावरण की शुद्धि होती है। रोग कम होते हैं। दुर्गन्ध कम रहने से वायु व वृष्टि-जल की शुद्धि बनी रहती है।

आज हम दूध की कमी को अन्न से पूर्ण करना चाहते हैं। मांस को अन्न का विकल्प मान बैठे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि मांस खाने वाला व्यक्ति अन्न भी अधिक खाता है। अधिक अन्न से रोग बढ़ते है। मांस खाने वाले लोग पशुओं को समाप्त कर देंगे तो दूध तो समाप्त होगा ही, मनुष्य की प्रकृति मांसाहारी होकर मनुष्य का मांस खाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस सबका उपाय गो-संवर्धन है। जब तक मनुष्यों के पास अधिक गायें नहीं होगी, तब तक समस्या का हल नहीं होगा। पशु-पक्षी अधिक हों, इसलिये परमेश्वर ने जंगल अधिक बनाये हैं। ईश्वर की सृष्टि में मनुष्यों से अधिक पशु-पक्षी आदि अधिक रहने से ही मनुष्यों का कल्याण समभव है। इनके लिये भोजन की व्यवस्था परमेश्वर ने प्राकृतिक रूप से की है। घास, वृक्ष, फल-फूल, पशु-पक्षियों के लिये बनाये हैं। सारी वनस्पतियाँ स्वयं उत्पन्न होती हैं। परमेश्वर ने पशु-पक्षियों की मात्रा मनुष्य के भोजन से अधिक बनाई है। पशु-पक्षियों को भोजन के लिये खेत नहीं जोतना-बोना पड़ता, इसलिये प्रकृति में इनका अधिक होना मनुष्य के हित में है। परमेश्वर के नियम के विपरीत चलकर हम कभी सुखी नहीं रह सकते। अतः वेद ने कहा है-

यजमानस्य पशून् पाहि।।

– धर्मवीर

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

बुधवार 11 मई को आदि शंकराचार्य की जयन्ती मनाई गई। इस अवसर पर संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं विचारक पी. परमेश्वरन द्वारा स्थापित स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ.) नवोदयम् तथा फेथ फाउण्डेशन ने सरकार से माँग की है कि आदि शंकराचार्य के जन्मदिन को राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस के रूप में मनाया जाय। इस अवसर पर केन्द्रीय संस्कृति राज्य मन्त्री महेश शर्मा ने बताया कि सरकार इस प्रकार के प्रस्ताव पर विचार कर रही है।

इस समारोह में बताया गया कि संघ के संयुक्त महासचिव को भाजपा से वार्ता करने के लिये अधिकृत किया गया है। समारोह में अखिल भारतीय सह प्रचारक जे. नन्दकुमार एवं अनेक प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। अनेक वक्ताओं ने शंकराचार्य के दर्शन को शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में समिलित करने की माँग की। संघ के विचारक पी. परमेश्वरन का नाम पढ़कर मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आया। कुछ वर्ष पूर्व मुझे केरल यात्रा के प्रसंग में उनसे भेंट करने का और वार्तालाप करने का अवसर मिला था। उन्होंने उदारतापूर्वक दो घण्टे तक वार्ता की। मुझे आश्चर्य हुआ, जब मुझे उनके विचार सुनने को मिले। उस समय तक वे आर्य द्रविड़ सिद्धान्त को उचित मानते थे, आज इस विषय में उनके विचारों में परिवर्तन आ गया हो तो प्रसन्नता की बात है। दूसरी बात, ईश्वर को एक और निराकार मानना कैसे सम्मभव है? उनके विचार से भारत में जितने मत-सप्रदाय और विचार हैं, उनमें सबके अपने ईश्वर हैं और सभी ठीक हैं। यह हिन्दू समप्रदाय की विशेषता है। परमेश्वरन इसको ठीक मानते हैं, परन्तु सिद्धान्त इसे मिथ्या कहता है। परमेश्वरन से जुड़ा एक प्रसंग और है। उन्होंने पणजी में एक शोध-संस्थान बनाया। इसे केरल की कमयुनिस्ट सरकार ने मान्यता देने से मना कर दिया, तो राजस्थान की भाजपा सरकार ने उस संस्थान को महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, अजमेर से मान्यता दिला दी।

जब तक कांग्रेस की सरकार थी, ईसाई-मुसलमानों की मौज थी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने अल्पसंखयक सुरक्षा विधेयक के माध्यम से अपना उद्देश्य और विचार प्रकाशित कर दिया था। यदि बिल संसद में पारित हो जाता तो यह भारत हिन्दुओं का न होकर, आधा इस्लाम और आधा ईसाइयों का हो जाता। समभवतः परमेश्वर को ऐसा स्वीकार नहीं था, अतः भारतीयता की प्राप्त आसन्न मृत्यु होते-होते बच गई। आज से पहले हिन्दुत्व के नाम पर किसी बात की माँग करना तुच्छ और आधुनिक युग में निन्दनीय माना जाता था, इस चुनाव ने नरेन्द्र मोदी को विजयी बनाकर हिन्दुत्व को समाप्त होने से बचा लिया। यह तो इतिहास की गौरवपूर्ण घटना रही।

अब हिन्दुत्व को स्वाभाविक रूप से अपने स्वरूप को प्रकाशित करने का अवसर है। यदि हिन्दुत्व में प्रचलित धारणाएँ सत्य और हितकर होतीं, तो उनकी पुनः स्थापना करने में कोई बुराई नहीं थी। हिन्दुत्व इस देश का दुर्भाग्य रहा है। हिन्दुत्व के नाम पर जो पाखण्ड, अज्ञान, शोषण और कायरता इस देश में फैली है, वही इस देश में दासता का कारण है। क्या हिन्दुत्व के नाम पर उन्हीं सब बातों को महिमा-मण्डित करना उचित होगा? हमारा विचार है कि पाखण्ड, अज्ञान, अन्याय एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार को हिन्दुत्व के नाम पर न कभी स्वीकार किया जा सकता है, न ऐसे विचार का समर्थन किया जा सकता है, फिर वह विचार चाहे सरकार का हो या किसी नेता, मन्त्री का।

आज ऐसे विचार और ऐसी माँगों की बाढ़ आ गई है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व के नाम पर प्रचलित प्रत्येक मूर्खता, सत्ता से मान्य कराने की स्पर्धा प्रारमभ हो गई है। गंगा या क्षिप्रा में स्नान करने के धार्मिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक लाभ हो सकते हैं, परन्तु यह कहना कि गंगा में स्नान करने से मुक्ति मिलती है, यह पहले भी पाखण्ड था और आज भी पाखण्ड है। इसको कौन कह रहा है- इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।

आज समाचार पत्रों में ‘शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक’ घोषित करने की सरकार की योजना है। ये विचार भी पाखण्ड पूर्ण हिन्दुत्व का ही परिणाम है। आचार्य शंकर अपने समय के अद्वितीय दार्शनिक ब्राह्मणधर्म के पुनरुद्धारक रहे हैं। जिस समय यह सारा देश जैन और बौद्ध मान्यताओं का शिकार हो गया था, वेद का पठन-पाठन समाप्त प्रायः था, वैदिक धर्म का लोप था, उस समय सारे मत-मतान्तरों के आचार्यों को शंकर ने शास्त्रार्थ में पराजित् करके सभी राजाओं, विद्वानों को वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया था। देश के चार कोनों में शंकराचार्य ने पीठों की स्थापना करके सारे देश को अपना अनुयायी बना लिया था।

आचार्य शंकर के महत्त्व को स्थापित करने वाली एक घटना आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। गुरुकुल ज्वालापुर के स्नातक और निरुक्त के हिन्दी भाष्यकार पं. भगीरथ शास्त्री गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के उपाध्याय थे। वे सेवानिवृत्त होकर अपने गाँव लौटने लगे, तब अपने पुराने शिष्य डॉ. रामवीर शास्त्री से मिलने श्रद्धानिकुञ्ज स्थित हमारी कुटिया में पधारे, उस समय हम कुटिया में तीन छात्र रहते थे- डॉ. रामवीर, डॉ. सुरेन्द्र- वर्तमान कुलपति गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय तथा इन पंक्तियों का लेखक। बहुत समय अपने मधुर उपदेशों का वे हमें पान कराते रहे। आशीर्वाद देकर जाने लगे। बीस कदम गये, लौटे तो हम लोगों ने सोचा कि गुरुजी कोई वस्तु भूल गये हैं, लेने आये हैं। वे आये तो कहने लगे- मैं एक बात तो कहना भूल ही गया। हमने उत्सुकता से पूछा- बताइये। वे बोले- देखो, यदि पाण्डित्य क्या होता है- यह जानना हो तो आचार्य शंकर को पढ़ना, भाषा क्या होती है, उस पर अधिकार कैसा होता है- यह जानना हो तो आचार्य पतञ्जलि का महाभाष्य पढ़ना और विषय की व्यापकता जाननी हो तो व्यास रचित महाभारत पढ़ना, बस यही कहने आया था। गुरुजी का विद्या-प्रेम देखकर हम गद्गद् हो गये।

इसी प्रकार एक बार आर्य जगत् के मूर्धन्य विद्वान्, उच्च वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश जी के साथ ऋषि उद्यान अजमेर में घूमते हुए आचार्य शंकर के पाण्डित्य पर चर्चा चल रही थी। स्वामी जी कहने लगे- आचार्य शंकर स्वयं इतने विद्वान् थे कि वे चाहते तो अपना नया दर्शन बना सकते थे। स्वामी जी से मैंने पूछा- फिर उन्होंने बनाया क्यों नहीं? तब स्वामी जी ने उत्तर दिया- यदि वे अपना दर्शन बनाते तो उसे पढ़ता कौन? किसी भी नई वस्तु को स्थापित होने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं। आचार्य शंकर ने सरल मार्ग अपनाया। जो दर्शन समाज में प्रचलित था, उसी का अर्थ अपने अनुसार करने का प्रयास किया और उन्होंने उसे शिष्यों में प्रचारित किया। भले ही वह सर्वमान्य नहीं हुआ, परन्तु आज सारे दर्शन की बात करने वाले शंकर का नाम लेकर ही वेदान्त की बात करते हैं। यह आचार्य शंकर का वेदान्त सूत्रों के साथ बलात्कार है। जो बात सूत्र में है ही नहीं, आचार्य शंकर उन सूत्रों की व्याखया में निकालते हैं। यह उनकी योग्यता या पाण्डित्य हो सकता है, औचित्य नहीं।

वर्तमान युग के दर्शनों के व्याखयाकार आचार्य उदयवीर जी ने वेदान्त दर्शन की व्याखया करते हुए आचार्य शंकर के अद्वैत पर टिप्पणी करते हुये लिखा है- आचार्य शंकर का अद्वैत, वेदान्त दर्शन से वही समबन्ध रखता है, जैसे दुकान और मकान में ‘कान’ के होने का कोई निषेध नहीं कर सकता, परन्तु ‘कान’  का दुकान, मकान से कोई सबन्ध नहीं है।

ऋषि दयानन्द यद्यपि आचार्य शंकर के सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं, परन्तु उनकी विद्वत्ता और कार्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- यदि आचार्य शंकर ने ये सिद्धान्त बौद्धों के खण्डन के लिये स्वीकार किये हैं, तो तात्कालिक उपयोग के लिये हो सकते हैं, परन्तु सत्य के विपरीत हैं।

आचार्य शंकर बड़े पण्डित और धर्म संस्थापक रहे हैं, परन्तु क्या उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित किया जाना उचित होगा? आचार्य शंकर की भाँति अनेक आचार्यों ने वेदान्त पर अपनी-अपनी  व्याखया लिखी, शंकर की व्याखया प्रचलित अधिक होगी, परन्तु सर्वमान्य नहीं रही है, अतः ऐसे में लोगों के बीच में उच्चता की स्थापना न्याय संगत नहीं है।

आचार्य शंकर मौलिक दर्शनकार की योग्यता रखते हैं, परन्तु मौलिक दर्शनकार नहीं है। उन्होंने वेदान्त सूत्रों पर अपना भाष्य किया नहीं, थोपा है। यह मूल शास्त्र और शास्त्रकार के साथ अन्याय है।

जब भी सूत्रों और उपनिषदों की प्रसंगों की व्याखया करनी होती है, आचार्य शंकर उन शबदों, वाक्यों का सहज संगत अर्थ छोड़कर- इसका अभिप्राय यह है- कहकर अपनी बात वहाँ स्थापित करते हैं। जैसे अर्थ तो निकल रहा है, यह जीवात्मा का स्वरूप है तो अर्थ कहते हुए बतायेंगे- अखण्ड अद्वैत ब्रह्म के अंश का कथन है। अर्थ तो निकला घोड़ा आ रहा है, आचार्य शंकर कहेंगे- इसका अभिप्राय ऊँट आ रहा है।

आचार्य शंकर ब्राह्मण धर्म के संस्थापक थे, परन्तु ब्राह्मण धर्म की कुरीतियों का उन्होंने खण्डन नहीं किया, अपितु स्पष्ट रूप से उनका समर्थन किया है। उनका सिद्धान्त उस काल की प्रचलित परमपरा होने पर भी स्वीकार्य नहीं हो सकता, आचार्य शंकर कहते हैं- द्वारं किमेकं नरकस्य नारी। नरक का एक मात्र द्वार नारी है। क्या इस कथन को आज स्वीकार किया जा सकता है? यदि पुरुष की दृष्टि में नारी नरक का द्वार है तो नारी की दृष्टि में पुरुष नरक का द्वार क्यों नहीं? राष्ट्रीय दार्शनिक की इस मान्यता को आज कोई स्वीकार कर सकता है?

इतना ही नहीं, आचार्य शंकर कितने भी महान् दार्शनिक हों, क्या सूत्रकार के स्थान पर भाष्यकार को श्रेष्ठता दी जा सकती है? राष्ट्रीय दार्शनिक ही बनाना है, तो सूत्रकारों की बड़ी लबी परपरा है। यह दुर्भाग्य ही होगा कि वेदान्त के सूत्रकार महर्षि व्यास के स्थान पर वेदान्त सूत्रों की व्याखया करने वाले को राष्ट्रीय दार्शनिक का स्थान दिया जा रहा है। इसे कौन न्याय संगत बतायेगा?

यह हमारे पौराणिक भाइयों का स्वभाव बन गया है- मूल शुद्ध स्वरूप को छोड़कर अशुद्ध स्वरूप को गौरवान्वित करने की उनकी परमपरा है। वेद दर्शन छोड़कर, वे पुराणों को वेद से ऊपर रखने का प्रयास करते हैं। इनके लिये सूत्रकार पाणिनि से महान् कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित है। वही स्थिति है वेदान्त के सूत्रकार से बड़ा इनकी दृष्टि में भाष्यकार है।

सारे अद्वैत के आधारभूत वाक्य हैं –

प्रज्ञानं ब्रह्म। – ऐतरेय उपनिषद्/3/5/3

अहं ब्रह्मास्मि। – बृहदारण्यक/1/4/10

तत्त्वमसि। – छान्दोग्य 6/8/7

अयमात्मा ब्रह्म। – माण्डूक्य 2

इन उपनिषद् वाक्यों को महावाक्य और वेद-वाक्य कहा जाता है।

इस सारे कथन में परस्पर विरोध है। प्रथम, उपनिषद् को एक ओर वेद कहा जा रहा है, दूसरी ओर वेद मन्त्रों को ब्राह्मणेतर से दूर रखने के लिये उनको उद्धृत करने से बचा जा रहा है

आचार्य शंकर ने अपने ग्रन्थों को ‘श्रुति’ कहकर केवल उपनिषद् वाक्यों को ही उद्धृत किया, कहीं भी वेद मन्त्र का उल्लेख प्रमाण के लिये नहीं किया।

इसलिये ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ये वेद वाक्य नहीं है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं और इनका नाम ‘महावाक्य’ कहीं सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा। इन वाक्यों की दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब चार वाक्य चार भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से प्रसंग से हटकर लिये गये हैं, तब एक ग्रन्थ का ब्रह्म पद दूसरे ग्रन्थ के तत् का अर्थ कैसे बन सकता है? यहाँ किसी भी तरह से ब्रह्म पद की अनुवृत्ति नहीं आ सकती। इस पर ऋषि दयानन्द ने लिखा है- तुमने इस छान्दोग्य उपनिषद् का दर्शनाी नहीं किया, जो वह देखी होती तो ऐसा झूठ क्यों कहते? वहाँ ब्रह्म शबद का पाठ नहीं है। – सत्यार्थ प्रकाश पृ. 224

आचार्य शंकर अद्वैत के बहाने शेष पाँचों दर्शनों का विरोध करते हैं, क्या यह मान्य किया जा सकता है?

शंकर परा पूजा में मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, दूसरी ओर ‘भज गोविन्दम्’ का पाठ करते हैं। कौन-सा सिद्धान्त मान्य होगा?

इससे भी आगे आचार्य शंकर उस क्रूर और पाखण्डपूर्ण हिन्दुत्व के समर्थक हैं, जिसके अनुसार स्त्री-शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में पहले अध्याय के तीसरे पाद में वेद पढ़ने के अधिकार के लिये इति ऐतिह्यं= ऐसा पारपरिक कथन है, कहकर पंक्तियाँ लिखी है- जिह्वाच्छेद।

यदि स्त्री और शूद्र वेद मन्त्र सुनें तो उनके कान में सीसा गर्म करके डाल देना चाहिए। यदि मन्त्र बोले तो जिह्वा छेदन कर देना चाहिए और वेद स्मरण करे तो शरीर भेद कर देना चाहिए। क्या पौराणिक लोग शंकर के इस कथन को राष्ट्रीय आदर्श घोषित कराना पसन्द करेंगे?

स्वामी ब्रह्ममुनि अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में प्रथम अध्याय के तृतीय पाद के 38वें सूत्र की व्याया में आचार्य शंकर के विषय में लिखते हैं-

यहाँ शाङ्करभाष्य में वेद का श्रवण करते हुए शूद्र के कानों को गर्म सीसे, धातु और लाख से भरना, वेद का उच्चारण करते हुए का जिह्वाछेदन करना, वेद का स्मरण कर लेने पर शिर काट देने का प्रतिपादन और उसका स्वीकार शङ्कराचार्य के द्वारा करना महान् आश्चर्य और अनर्थ की बात है। साथ ही इसको स्वीकार करने से भी बड़ी बात यह कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ = मैं ब्रह्म हूँ, जीव ब्रह्म की एकता के वाद का स्वीकार और प्रचार करने वाला व्यक्ति इस प्रकार के निर्दय कृत्य को उचित मानता है और सूत्रकार व्यास मुनि का सिद्धान्त है- ऐसा प्रतिपादन करके सूत्रकार को भी कलङ्कित करता है। यह ऐसा शिष्टाचार शिष्ट ऋषि-मुनियों का आचार नहीं जो कि यहाँ शङ्कराचार्य ने दिखलाया। यह तो शिष्टविरुद्ध और वेदविरुद्ध है।

हिन्दुत्व का अभिप्राय अन्याय, पाखण्ड और अन्ध-परमपरा नहीं है, आपने इसी अन्धी चाल के चलते श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रान्तिकारी की स्मृति में गुजरात में संग्रहालय तो बना दिया पर उसमें बड़े चित्र, काष्ठ मूर्तियाँ विवेकानन्द की लगा दीं, क्यों? कोई बता सकता है कि स्वामी विवेकानन्द और श्याम जी कृष्ण वर्मा के कार्य में कोई सामञ्जस्य है? स्वामी विवेकानन्द ने अपने पूरे जीवन में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये कोई कार्य किया है? जीवन में कभी अंग्रेज सरकार का विरोध किया है? किसी क्रान्तिकारी के लिये सहानुभूति या समर्थन में दो शबद कहे हैं, तो उन्हें अवश्य संग्रहालय दीर्घा में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए, अन्यथा तो राष्ट्रीय दार्शनिक उपाधि भी आचार्य शंकर के स्थान पर स्वामी विवेकानन्द को ही दे दें, तो अच्छा होगा, फिर बिरयानी और अद्वैत के मेल से अच्छा वेदान्त बनेगा। यदि किसी गौरव को स्थापित करना है तो वेद शास्त्र की और प्राचीन ऋषियों, आचार्यों की सुदीर्घ परमपरा है, उनको स्मरण करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से भारत का गौरव बढ़ेगा और नई युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी। आप सत्ता के सहारे मूर्खता को स्थापित करेंगे तो जो परिणाम पहले हुआ, वही फिर होगा। इसी अज्ञान से देश दासता को प्राप्त हुआ था, फिर भी वैसा ही होगा। यही कहना उचित होगा-

तातस्य कूपोऽमिति ब्रुवाणा

क्षारं जलं का पुरुषा पिबन्ति।।             – धर्मवीर

 

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

  1. पुराभवं पुरा भवा पुराभवश्च इति पुराणं पुराणी पुराणः।
  2. 2. वहाँ ब्राह्मण पुस्तक जो शतपथादिक हैं, उनका ही नाम पुराण है तथा शंकराचार्य जी ने भी शारीरक भाष्य में और उपनिषद् भाष्य में ब्राह्मण और ब्रह्म विद्या का ही पुराण शबद से अर्थ ग्रहण किया है।
  3. 3. तीसरा देवालय और चौथा देव पूजा शबद है। देवालय, देवायतन, देवागार तथा देव मन्दिर इत्यादिक सब नाम यज्ञशालाओं के ही हैं।
  4. 4. इससे परमेश्वर और वेदों के मन्त्र उनको ही देव और देवता मानना उचित है। अन्य कोई नहीं।

(-स्वामी दयानन्द, प्रतिमा पूजन विचार, पृ. 483-485, दयानन्द ग्रन्थमाला)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा की अवैदिकता और अनौचित्य पर वाद-संवाद, शास्त्रार्थ, भाषण, चर्चा, परिचर्चा तो बहुत मिलती है, परन्तु एक आश्चर्यजनक प्रसंग भी मिलता है। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों और मान्यताओं को लेकर कोलकाता की आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा का एक अधिवेशन 22 जनवरी रविवार सन् 1881 को कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में भारत के 300 विद्वानों की उपस्थिति में हुआ, जिसमें स्वामी दयानन्द के मन्तव्यों को सर्वसमति से अस्वीकार किया गया। इसमें आश्चर्य और महत्त्व की बात यह है कि इस सभा में पूर्व पक्षी के रूप में स्वयं स्वामी दयानन्द या उनका कोई प्रतिनिधि उपस्थित नहीं था, न ही निमन्त्रित किया गया था और न ही किये जाने वाले प्रश्नों के उनसे उत्तर माँगे गये थे। यह कार्य नितान्त एकपक्षी और सभा की ओर से ऋषि दयानन्द की मान्यता को अस्वीकार करते हुए पाँच उत्तर स्वीकृत हुए थे।

आर्यसमाज के आरमभिक काल के एक और सुयोग्य लेखक बाबा छज्जूसिंह जी द्वारा लिखित व सन् 1903 ई. में प्रकाशित  Life and Teachings of Swami Dayananda पुस्तक की भी एतद्विषयक कुछ पंक्तियाँ यहाँ देना उपयोगी रहेगा। विद्वान् लेखक ने लिखा है-

“While Swami Dayananda was at Agra,  a Sabha called the Arya Sanmarg Sandarshini Sabha, was established at Calcutta, with the object of having it decided and settled, once for all, by the most distinguished representatives of orthodoxy in the land (that could be got hold of for the purpose of course) that Dayanand’s views on Shraddha, Tiraths, Idol-Worship, etc. were entirely unorhodox and unjustifiable. Sanskrit scholars rising to the number of three hundred responded to the call of the Sabha, and a grand meeting composed of the local men and of the outsiders, came off in the Senate Hall on 22nd January, 1881. It is significant that not  one of the numerous distinguished pandits present thought of suggesting or moving that the man upon whom the Sabha was going to sit in judgement, should be condemned or acquitted after he had been fully heard. It may be urged that the Sabha was not in humour to acquit Dayanand under any circumstances, but still he should have been permitted to have his say before he was condemned. Surely, one man could be dealt with very well by and assemblage so illustrious and so erudite. But the Pandits and their admirers were wise in their  generation. Dayanand, though ine, had proved too many for still a more learned and august gathering at Benares.”1

(1. Life and Teachings of Swami Dayananda, Page. 39, Part-II)

आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा कलकत्ता और स्वामी दयानन्द सरस्वती का सिद्धान्त- सबको ज्ञात हो कि 22 जनवरी सन् 1881 ई. को रविवार के दिन सायंकाल सीनेट हॉल कलकत्ता में वहाँ के श्रीमन्त  बड़े-बड़े लोगों और प्रसिद्ध पण्डितों ने एकत्र होकर यह सभा दयानन्द सरस्वती जी की कार्यवाहियों पर विचार करने के उद्देश्य से आयोजित की थी। इस सभा का विस्तृत वृत्तान्त हम ‘सार सुधा निधि’ पत्रिका से नीचे अंकित करते हैं। इस सभा के व्यवस्थापक पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी कॉलेज के प्रिंसिपल थे। इस सभा में पण्डित तारानाथ तर्कवाचस्पति, जीवानन्द विद्यासागर बी.ए. और नवदीप के पण्डित भुवनचन्द्र विद्यारत्न आदि बंगाल के लगभग तीन सौ पण्डित और कानपुर के पण्डित बाँके बिहारी वाजपेयी और यमुना नारायण तिवारी और वृन्दावन के सुदर्शनाचार्य जी और तञ्जौर (मद्रास प्रेसीडैन्सी) के पण्डित राम सुब्रह्मण्यम शास्त्री जिनको सूबा शास्त्री भी कहते हैं, पधारे थे। इनके अतिरिक्त श्रीमन्त लोगों में वहाँ के सुप्रसिद्ध भूपति ऑनरेबल राजा यतीन्द्र मोहन ठाकुर सी.एस.आई., महाराज कमल कृष्ण बहादुर, राजा सुरेन्द्र मोहन ठाकुर, सी.एस.आई., राजा राजेन्द्रलाल मलिक, बाबू जयकिशन मुखोपाध्याय, कुमार देवेन्द्र मलिक, बाबू रामचन्द्र मलिक, ऑनरेबल बाबू कृष्णदास पाल, लाला नारायणदास मथुरा निवासी, राय बद्रीदास लखीम बहादुर, सेठ जुगलकिशोर जी, सेठ नाहरमल, सेठ हंसराज इत्यादि कलकत्ता निवासी सेठ उपस्थित थे। यद्यपि पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर व बाबू राजेन्द्रलाल मित्र एल.एल.डी. ये दोनों महानुभाव पधार नहीं सके थे, तथापि इन महानुभावों ने सभा की कार्यवाही को जी-जान से स्वीकार किया। जिस समय ये सब सज्जन सीनेट हॉल में एकत्र हुए, तब पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने इस सभा के आयोजन करने का विशेष प्रयोजन बता करके निनलिखित प्रश्न प्रस्तुत किये-

प्रश्न 1- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने पहला प्रश्न यह किया कि वेद का संहिता भाग जैसा प्रामाणिक है ब्राह्मण भाग भी वैसा ही प्रामाणिक है अथवा नहीं? और मनुस्मृति धर्मशास्त्र के समान अन्य स्मृतियाँ मानने योग्य हैं अथवा नहीं। पृ. 639

उत्तर इस प्रकार बहुत-सी युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि संहिता के समान ब्राह्मण भाग तथा मनुस्मृति के समान विष्णु याज्ञवल्क्य आदि समस्त स्मृतियाँ मानने योग्य हैं तथा यही सब पण्डितों का सर्वसमत मत है। पृ. 641

प्रश्न 2- पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न ने दूसरा प्रश्न यह किया कि शिव, विष्णु, दुर्गा आदि देवताओं की मूर्तियों की पूजा और मरणोपरान्त पितरों का श्राद्ध आदि और गंगा, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों व क्षेत्रों में स्नान तथा वास, शास्त्र के अनुसार उचित है अथवा अनुचित? पृ. 641

उत्तर …..अतः देवताओं की मूर्ति और उनकी पूजा करना सब श्रुतियों और स्मृतियों के अनुसार उचित है। पृ. 645

….अतः यह बात सुस्पष्ट होकर निर्णीत हो गई कि मृतकों का श्राद्ध श्रुति व स्मृति दोनों के अनुसार विहित है। पृ. 646

…..अतः गंगा आदि का स्नान और कुरुक्षेत्र आदि का वास श्रुति और स्मृति दोनों से सिद्ध है। पृ. 646

प्रश्न 3- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न ने तीसरा प्रश्न यह किया कि अग्निमीळे. इत्यादि मन्त्र में अग्नि शबद से परमात्मा अाि्रिेत है अथवा आग? पृ. 647

उत्तर….अतः इस मन्त्र में अग्नि शबद का अर्थ जलाने वाली आग ही है। पृ. 647

प्रश्न 4- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने चौथा प्रश्न यह किया कि अग्निहोत्र इत्यादि यज्ञ करने का प्रयोजन (उद्देश्य) जल, वायु की शुद्धि है अथवा स्वर्ग की प्राप्ति? पृ. 647

उत्तरयजुर्वेद के मन्त्रों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ स्वर्ग साधक हैं। पृ. 647

प्रश्न 5- पं. महेशचन्द्र जी ने पाँचवाँ प्रश्न यह किया कि वेद के ब्राह्मण भाग का निरादर करने से पाप होता है अथवा नहीं? पृ. 647

उत्तरइसका उत्तर देते हुए पं. सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने कहा कि यह तो प्रथम प्रश्न के उत्तर में कह चुके हैं कि ब्राह्मण भाग भी वेद ही हैं, फिर ब्राह्मण भाग का अपमान करने से मानो वेद का ही अपमान हुआ।…. पृ. 647

उसके पश्चात् पण्डितों की समति लेनी आरमभ हुई। निनलिखित पण्डितों ने सर्वसमति से हस्ताक्षर कर दिये। पृ. 648

इन प्रश्नों में दूसरा प्रश्न मूर्तिपूजा से सबन्धित है। इसमें सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने मूर्ति पूजा के समर्थन में ऋग्वेद के मन्त्र का उल्लेख करके बताया- शिवलिङ्ग की पूर्ति की पूजा स्थापना आदि से पूजन का फल होता है, मन्त्र है-

तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम्।।

-ऋग्वेद 5/3/3

उसके अतिरिक्त रामतापनी, बृहज्जाबाल उपनिषद् में शिवलिंग की पूजा करना लिखा है। मनुस्मृति में लिखा है-

नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।

देवतायर्चनं चैव, समिदाधानमेव च।।

-मनु. 2/176

इसके अतिरिक्त देवल स्मृति, ऋग्वेद गृह्य परिशिष्ट बौधायन सूत्र आदि के प्रमाण दिये हैं।

इन प्रमाणों के उत्तर में लेखक ने स्वामी दयानन्द का जो पक्ष रखा है, उसका मुखय आधार है- वेद स्वतः प्रमाण हैं और शेष ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं, अतः उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध नहीं है। फिर भी जिन प्रमाणों को दिया गया है, वह प्रसंग मूर्ति पूजा पर घटित नहीं होता। स्वामी दयानन्द ने सामवेद के ब्राह्मण के पाँचवें अनुवाक के दसवें खण्ड में स्पष्ट लिखा है- सपरन्दिव0 आदि यहाँ देवताओं की मूर्ति का प्रसंग ब्रह्म लोक का है। पृ. 643

मूर्तिपूजा के पक्ष में प्रमाण देते हुए मनु को उद्धृत किया है और कहा गया है- दो ग्रामों के मध्य मन्दिरों का निर्माण करना चाहिए तथा उसमें प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए-

सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च।

8/248

संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतीमानां च भेदकः।

प्रतिकुर्याच्च तत् सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च।।

9/285

मूर्तिपूजा के समर्थन में दिये गये तर्कों पर लेखक ने स्वामी दयानन्द का पक्ष निमन प्रकार से उपस्थित किया है-

स्वामी दयानन्द जिन शास्त्रों का प्रमाण मूर्तिपूजा के खण्डन में देते हैं, मूर्तिपूजा का समर्थन करने वालों को उन्हीं शास्त्रों से मूर्तिपूजा के समर्थन के प्रमाण देने चाहिए जो नहीं दिये गये।

ऋग्वेद के जिस मन्त्र का अर्थ शिवलिंग की स्थापना किया है, वह मर्जयन्त शबद मृज धातु से बना है जिसका अर्थ शुद्ध करना, पवित्र करना, सजाना, शबद करना है, अतः इसका अर्थ पूजा करना कभी नहीं है, अपितु परमेश्वर की स्तुति करना है।

जो गाँव की सीमा में देवताओं के मन्दिर बनाने का विधान है, इसी प्रसंग में सीमा पर तालाब, कूप, बावड़ी आदि के वाचक शबदों का प्रयोग किया गया है, अतः मन्दिर की बात नहीं है। उत्तर काल में इन स्थानों पर मन्दिर बनने लगे, वह शास्त्र विरुद्ध परमपरा है।

अन्त में मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है, इसको बताने के लिए वेद मन्त्रों के प्रमाण दिये गये हैं।

मूर्तिपूजा के निषेध में प्रमाण अतः उपर्युक्त युक्तियों से यह तो भली-भाँति निश्चित हो गया कि मूर्ति-पूजा उचित नहीं और अब उसके खण्डन में वेदों तथा उपनिषदों के कुछ प्रमाण देकर इस विषय को समाप्त करते हैं-

‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।’’

अर्थउस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं, उसका नाम अत्यन्त तेजस्वी है।

स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।

अर्थवह परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्, शरीररहित, पूर्ण, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, शुद्ध है तथा पापों से पृथक् है।

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ सभूत्यां रताः।।

अर्थजो लोग प्रकृति आदि जड़-पदार्थों की पूजा करते हैं, वे नरक में जाते हैं तथा जो उत्पन्न की हुई वस्तुओं की पूजा करते हैं वे  इससे भी अधिक अन्धकारमय नरक में जाते हैं।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।

जो बुद्धिमान् उसे आत्मा में स्थित देाते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख प्राप्त होता है, औरों को नहीं।

ततो तदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्।

य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापि यान्ति।।

जो सृष्टि व सृष्टि के उपादान कारण से उत्कृष्ट है, वह निराकार व दोषरहित है। जो उसको जानते हैं, उनको अमर जीवन प्राप्त होता है और दूसरे लोग केवल दुःख में फँसे रहते हैं।

तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति,

नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।

अर्थउसी के ज्ञान से मृत्यु के पंजे से छुटकारा होता है और कोई मार्ग ध्येय धाम का नहीं है।

किसी देवता की उपासना भी उचित नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में जहाँ तैंतीस देवताओं की व्याखया की है (और उन्हीं तैंतीस के आज तैंतीस करोड़ बन गये हैं और उस सूची के पूरा होने के पश्चात् जो उसमें और गुगा पीर जैसे समय-समय पर सममिलित होते रहे हैं, वे इनसे अतिरिक्त हैं) वहाँ भी परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य की पूजा विहित नहीं रखी, प्रत्युत उसका खण्डन किया है।

आत्मेत्येवोपासीत। स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीश्वरो ह तथैव स्यात्।

योऽन्यां देवतामुपास्ते न स वेद।

तथा पशुरेव स देवानाम्।

परमेश्वर जो सबका आत्मा है, उसकी उपासना करनी चाहिये। जो परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को प्यारा अर्थात् उपास्य समझता है, उसे जो कहे कि तू प्रिय के विरह में दुःख में पड़ेगा, वह सत्य पर है। जो और देवता की उपासना करता है, वह वास्तविकता को नहीं जानता। वह निश्चित रूप से बुद्धिमानों में पशु सदृश है।

(दयानन्द ग्रन्थमाला, पृ. 665)

टिप्पणियाँ

  1. द्वा सुपर्णा., पृ. 277 मुण्डक उपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली, संस्करण-2006
  2. अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त सञ्ज्ञके।।

– गीता, अध्याय 8, श्लोक 18, गीता प्रेस

  1. पृ. 112, प्रश्नोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण-2000, प्रकाशक-विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
  2. न तस्य प्रतिमा अस्ति। -यजु. 32 मन्त्र-3, परोपकारिणी सभा, अजमेर, पृ.
  3. यज् वेदपूजा संगतिकरण दानेषु। -धातु पाठ, पाणिनी मुनि
  4. वातो देवता चन्द्रमा देवता।-प्रतिमा पूजन विचार, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1,परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  5. मातृदेवो भव, पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकदशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
  6. यजु. 40/9, सत्यार्थप्रकाश, पृ. 370, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  7. पृ. 813, उपदेश मञ्जरी, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 2, प्रकाशक- परोपकारिणी साा, अजमेर, संस्करण-2012
  8. पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  9. पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, दयानन्द ग्रन्थमाला, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा अजमेर, संस्करण-2012
  10. अन्धन्तमः प्रविशन्ति। -यजु. 40/9
  11. केन उपनिषद्। पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली

– डॉ. धर्मवीर

 

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द -2

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को आर्थिक हानि का कारण मानते हैं। इससे सामाजिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास मूर्तिपूजा से 15 हानियाँ) मूर्तिपूजा के लिये दिये जाने वाले तर्कों की समीक्षा भी उन्होंने की है। जो लोग मूर्तिपूजा को स्थूल लक्ष्य और ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ी बताते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द कहते हैं- मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं, खाई है। मूर्तिपूजा गुड़ियों के खेल के समान ब्रह्म तक जाने का साधन मानने वालों  को महर्षि दयानन्द अज्ञानी मानते हैं, अतः शास्त्रों का अध्ययन, विद्वानों की सेवा, सत्संग, सत्यभाषाणादि व्यवहार से ही ब्रह्म की प्राप्ति सभव है। परमेश्वर को मूर्ति में व्यापक होने से मूर्तिपूजा से परमेश्वर की पूजा हो जाती है- ऐसा मानने वालों के लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना- यह ऐसी बात है कि जैसे चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटी-सी झोंपड़ी का स्वामी मानना।’’ (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ) जो लोग मूर्ति में परमेश्वर की भावना करने की बात करते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘भाव सत्य है या झूठ? जो कहो सत्य है तो तुहारे भाव के अधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायेगा और तुम मृत्तिका में सुवर्ण-रजतादि, पाषाण में हीरा-पन्ना आदि, समुद्रफेन में मोती, जल में घृत, दुग्ध, दही आदि और धूलि में मैदा-शक्कर आदि की भावना करके उनको वैसा क्यों नहीं बनाते हो?’’

(सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ, पृ. 368)

मन्त्रों के आवाहन-विसर्जन से देवता के आ जाने और चले जाने की बात पर वे कहते हैं- ‘‘जो मन्त्र पढ़कर आवाहन करने से देवता आ जाता है तो मूर्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है? सुनो अन्धो! पूर्ण परमात्मा न आता और न जाता है। जो तुम मन्त्र बल से परमेश्वर को बुला लेते हो तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर में जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? सुनो भाई भोले लोगो! ये पोप जी तुम को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्तिपूजा और परमेश्वर का आवाहन, विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 369)

जहाँ तर्क युक्तियों से महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा का खण्डन किया, वहाँ मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध है, इसके लिए भी वेदादिशास्त्रों से प्रमाणों को प्रस्तुत किया। स्तुति प्रार्थना उपासना, ब्रह्म विद्या आदि प्रकरणों में वेद मन्त्रों की व्याखया करते हुए मूर्तिपूजा की व्यर्थता को सिद्ध किया है- ‘‘जो असमभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान पर उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं और समभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्य रूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे इस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख, चिरकाल घोर दुःख रूप नरक में गिर के महाक्लेश भोगते हैं।9

जो सब जगत् में व्यापक है, उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्ति नहीं है।।10

जो वाणी की इदन्ता अर्थात् यह जल है लीजिए, वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं। जो मन से ‘इयत्ता’ करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर। जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर। जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और उससे भिन्न शबदादि की उपासना उसके स्थान में मत कर। जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 371)11

महर्षि दयानन्द ने वेद में निराकार सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करने वाले अनेक मन्त्रों का उल्लेख अपने वेदभाष्य और अन्य ग्रन्थों में किया है, सपर्यगात्0, सहस्रशीर्षा0, विश्वतश्चक्षु0, आदि  मन्त्र तथा उपनिषद् वाक्यों के प्रमाण दिये हैं।

जहाँ महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया है, वहीं इस खण्डन से मूर्तिपूजा के अभाव में होने वाली रिक्तता को भी पूर्ण किया है। पञ्चमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में निराकार ब्रह्म की उपासना कैसे की जाती है- इसका भी उल्लेख किया है। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए देवपूजा का प्रकार बताते हुए वास्तविक देव और उनकी पूजा के प्रकार का भी उल्लेख किया है, यथा ‘‘प्रश्न- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा करनी नहीं और जो अपने आर्यवर्त्त में पञ्चदेवपूजा शबद प्राचीन परमपरा से चला आता है, उसकी यही पञ्चायतन पूजा जो कि शिव, विष्णु, अमबिका, गणेश और सूर्य की मूर्ति बनाकर पूजते हैं, यह पञ्चायतन पूजा है या नहीं?

उत्तर- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा न करना, किन्तु ‘मूर्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे, उनकी पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिए। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतन पूजा शबद बहुत अच्छा अर्थ वाला है, परन्तु विद्याविहीन मूढ़ों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ को पकड़ लिया। जो आजकल शिव आदि पाँचों की मूर्तियाँ बनाकर पूजते हैं, उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं, पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूल देवपूजा और मूर्ति पूजा है, सुनो- प्रथम माता- मूर्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को खुश रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता- सत्कर्त्तव्य देव, उसकी भी माता के समान सेवा करनी। तीसरा- आचार्य जो विद्या का देने वाला है, उसकी तन, मन, धन से सेवा करनी। चौथा अतिथि- जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ सत्य उपदेश से सबको सुखी करता है, उसकी सेवा करें। पाँचवाँ स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्व-पत्नी पूजनीय है।12

ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से, मनुष्य देह की उत्पत्ति पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं। इनकी सेवा न करके जो पाषणादि मूर्ति पूजते हैं, वे अतीव वेदविरोधी हैं। (पृ. 375-376)

ऋषि दयानन्द के जीवन में जो क्रान्ति मूर्ति की पूजा करने से उत्पन्न हुई थी, वह उनके पूरे जीवन में बनी रही। महर्षि दयानन्द ने अपने भाषण, लेखन, वार्तालाप द्वारा मूर्तिपूजा की निस्सारता को प्रतिपादित किया है। ऐसी पद्धति जो जीवन में लाभ के स्थान पर हानि करती है, जिससे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक लाभ की कोई समभावना नहीं, जिसके करने से मनुष्य का पतन अवश्यभावी है, वह कार्य इस समय में इतने बड़े रूप में कैसे चला? इसके चलने के पीछे क्या कारण है, इनका भी उन्होंने युक्ति प्रमाण पुरस्सर प्रदर्शन किया है। इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के दार्शनिक, सामाजिक, आर्थिक सभी पक्षों का गहराई से अध्ययन किया और साहसपूर्वक समाज के सामने रखा। समाज में जिनको मूर्तिपूजा से प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ मिलता है, वे कभी भी  इसका खण्डन देखना नहीं चाहेंगे, परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना इसका प्रबल खण्डन किया और एक निराकार सर्वव्यापक ईश्वर जिसका स्वरूप आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया गया है, उसी की पूजा करने का विधान किया।

स्वामी दयानन्द ने जब भली प्रकार समझ लिया कि मूर्ति पूजा असत्य के साथ पाखण्ड भी है, जिसके द्वारा जनता को भ्रमित करके उनका धन लूटा जा रहा है, उन्हें अकर्मण्य बना कर भीरु परमुखापेक्षी बनाने में समाज का श्रेष्ठ कहा जाने वाला वर्ग लगा है, इससे समाज को जो दिशा और मार्गदर्शन मिलना चाहिए, वह तो नहीं मिला उसके स्थान पर समाज के रक्षक ही समाज को लूटने वाले बन गये। इसके लिए महर्षि दयानन्द ने जो मार्ग अपनाया, उनमें प्रथम यह था कि समाज में जिन वेदों की प्रतिष्ठा थी, उन वेदों में तथा वेदानुकूल वैदिक साहित्य में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, यह घोषणा की। इसके साथ दूसरा- युक्ति और तर्क से भी मूर्ति पूजा को निरर्थक और पाखण्ड पूर्ण कृत्य है, यह सिद्ध किया।

महर्षि दयानन्द ने प्रचार क्षेत्र में उतरने के साथ ही मूर्तिपूजा पर प्रहार करना प्रारभ कर दिया। पण्डित लोग शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते थे, बुद्धिमान् श्रोता स्वामी जी की युक्ति व प्रमाणों से सहमत होकर मूर्तिपूजा छोड़ने के लिए तैयार हो जाते थे, परन्तु पण्डे, पूजारी, मन्दिर, मठ के संचालकों की आजीविका पर यह सीधी चोट थी, इसलिए पण्डित लोग भागकर काशी पहुँचते थे और काशी के पण्डितों से मूर्ति पूजा के पक्ष में व्यवस्था लिखवा लाते थे। इसी कारण मूर्तिपूजा के गढ़ काशी को ही जीतने के लिए स्वामी दयानन्द ने काशी के पण्डितों को चुनौती दे डाली और यह चुनौती भी काशी नरेश के माध्यम से दी।

काशी शास्त्रार्थ का निश्चय काशी नरेश की आज्ञा अनुसार हुआ। वे शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बने। मूर्तिपूजा के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ इस शास्त्रार्थ में मिलता है, वह विषय से समबद्ध तो न्यून ही है, शास्त्रार्थ की दिशा भटकाने वाला अधिक है। इसकी चर्चा काशी शास्त्रार्थ की छपी पुस्तक की भूमिका देखने से स्पष्ट हो जाता है-

  1. पाषाणादि मूर्ति पूजनादि में वैदिक प्रमाण होता तो क्यों न कहते?
  2. 2. स्व पक्ष को वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किये बिना मनुस्मृति आदि को वेदानुकूल हैं या नहीं, इस प्रकरणान्तर में क्यों जा गिरते?
  3. 3. पुराण आदि शबद ब्रह्म वैवर्त आदि ग्रन्थों से भी अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।
  4. 4. प्रतिमा शबद से मूर्तिपूजा को सिद्ध करना चाहा, वह भी उनसे नहीं हो सका।
  5. 5. पुराण शबद स्वामी जी विशेषण वाची मानते हैं, काशीस्थ पण्डित विशेष्य वाची, परन्तु पण्डित लोग अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।

(स्वामी दयानन्द, काशी शास्त्रार्थ, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग-3, पृ.-451-452)

स्वामी दयानन्द के मूर्ति  पूजा विषयक विचारों को जानने के क्रम में काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानन्द का एक और संस्कृत भाषा शास्त्रार्थ जो प्रतिमा पूजन विचार नाम से प्रथम बार समवत् 1930 में आर्य भाषा व बंगला भाषा में अनूदित होकर लाइट प्रेस बनारस से छपा था। यह कोलकाता के पास हुगली नामक स्थान में हुआ था। शास्त्रार्थ सवत् 1930 चैत्र शुक्ल एकादशी, मंगलवार तदनुसार 8 अप्रैल 1873 के दिन हुआ था।

इस शास्त्रार्थ में प्रतिमा शबद पर, पुराण शबद पर तथा देवालय, देवपूजा शबद पर विचार किया गया है। स्वामी दयानन्द कहते हैं- प्रतिमा प्रतिमानम्= जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाय, उसको कहते हैं जैसे पाव, आधा सेर आदि। इसके अतिरिक्त यज्ञ के चमसा आदि को भी प्रतिमा कहते हैं। इसके लिए स्वामी दयानन्द ने मनु का प्रमाण उद्धृत किया है-

तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम्।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।।              – मनु 8/403

स्वामी दयानन्द पुराणों को अमान्य करते हैं। पुराणों में मूर्ति पूजा का विस्तार से वर्णन है, जिन्हें आजकल की भाषा में शिव, ब्रह्म वैवर्त, भागवत आदि कहते हैं, परन्तु स्वामी दयानन्द पुराण को शदार्थ के रूप में पुराना अथवा पुस्तक के रूप में शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम पुराण स्वीकार करते हैं।

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

सम्पादकीय

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

– धर्मवीर

मूर्ति शब्द प्रतिमा या साकार वस्तु के अर्थ में प्रचलित है। संस्कृत में मूर्त शब्द व्यक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसका दूसरा अर्थ निराकार से साकार होना है। संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- एक चेतन और दूसरी अचेतन। ऋषि दयानन्द की मान्यता के अनुसार दो चेतन सत्तायें स्वरूप से अनादि और पृथक्-पृथक् हैं। एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि और एक है। दूसरी चेतन सत्ता के रूप में जीव और ईश्वर दोनों निराकार हैं और एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि होने के कारण कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त होती है। इसी को संसार के रचना काल में व्यक्त और प्रलय काल में अव्यक्त दशा में बताया है। इस प्रकार संसार ही कभी मूर्त व्यक्त और कभी अमूर्त अव्यक्त दशा में होता है। इसी अर्थ में उपनिषद् ग्रन्थों में मूर्तञ्च-अमूर्तञ्च इसका प्रयोग दिखाई देता है।३ संस्कृत साहित्य में मूर्त शब्द का अनेकार्थ प्रयोग पाया जाता है। अमरकोष तृतीय काण्ड नानार्थ वर्ग-३ श्लोक ६६ में मूर्ति शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गया है- मूर्तिः काठिन्यकाययोः। -अर्थात् मूर्ति शब्द का प्रयोग कठोरता और काया-शरीर के अर्थ में पाया जाता है। मूर्ति शब्द का अर्थ है- आकार वाली वस्तु। इस प्रकार सोना, चाँदी, पीतल, लोहा, मिट्टी आदि से बनी साकार वस्तु मूर्ति कहलाती है।

एक साकार वस्तु से दूसरी साकार वस्तु की तुलना प्रतिमा कही जाती है। संस्कृत में प्रतिमा शब्द का मूल अर्थ बाट है। जिससे वस्तु को तोला जाता है, उस साधन को प्रतिमा कहा जाता है। एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना अनेक प्रकार से होती है- रूप से, भार से, योग्यता से। बहुत प्रकार से किन्हीं दो वस्तुओं के बीच समानता देखी जा सकती है। यह तुलना जड़ पदार्थों में ही सम्भव है। साकार से साकार की प्रतिमा हो सकती है। निराकार से  साकार प्रतिमा की रचना सम्भव नहीं है, इसलिए साकार व्यक्ति, वस्तु आदि की प्रतिमा बन सकती है। एक समान आकृति को देखकर दूसरी समान आकृति का बोध होता है, जैसे चित्र को देखकर व्यक्ति का या व्यक्ति को देख कर चित्र और व्यक्ति की समानता का ज्ञान होता है। ईश्वर के समान कोई नहीं, इसलिए वेद कहता है-

न तस्य प्रतिमा अस्ति।     -यजु. ३२/३।।

आगे चलकर समानता के कारण मूर्ति के लिए भी प्रतिमा शब्द का प्रयोग होने लगा। आज प्रतिमा शब्द से मूर्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाता है।

संसार मूर्त है, इसलिए इसमें मूर्तियों का अभाव नहीं है। साकार पदार्थों से बहुत सारे दूसरे साकार पदार्थ बनाये जाते हैं, स्वतः भी बन सकते हैं, अतः मूर्ति कोई विवाद या विवेचना का विषय नहीं है। मूर्ति के साथ जब पूजा शब्द का उपयोग किया जाता है, तब अर्थ में सन्देह उत्पन्न होता है। पूजा शब्द सत्कार, सेवा, आदर, आज्ञा पालन, रक्षा आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पूजा शब्द का उपयोग जब-जब पदार्थों के प्रसंग में किया जाता है, तो सन्देह की स्थिति उत्पन्न होती है। यज्ञ शब्द का प्रयोग अग्निहोत्र के लिए किया जाता है, जिसका अर्थ देवपूजा भी है। वेद में जड़ पदार्थों को भी देवता कहा है। इसी क्रम में चेतन को भी देव कहा गया तथा परमेश्वर को महादेव कहा गया। इस प्रकार देव शब्द से साकार और निराकार तथा जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों का ग्रहण होने लगा। इनमें एक के मूर्त होने से दूसरे के मूर्त होने की सम्भावना  बन जाती है। मूर्त पदार्थों में जड़ और चेतन दोनों पदार्थ देवता की श्रेणी में आते हैं- पहले अग्नि, वायु, जल आदि, दूसरे माता-पिता, आचार्य, अतिथि आदि। इस प्रकार देव शब्द की समानता से पूजा की समानता जुड़ती दिखाई देती है। इस तरह साकार, निराकार, जड़, चेतन में देवत्व बन गया तो सब की पूजा में भी समानता मानी व की जाने लगी।

सामर्थ्य और उपयोगिता के कारण चेतन से जिस प्रकार प्रार्थना की जाती है, उसी प्रकार जड़ से उसके सामर्थ्य के सामने विवश होकर अग्नि, वायु, जल आदि से भी प्रार्थना की जाने लगी। चेतन को भोजन, आसन, माला, सेवा, सत्कार आदि से सन्तुष्ट किया जाता है, उसी प्रकार जड़ देवता को भी सन्तुष्ट करने की परम्परा चल पड़ी। सभी देव शब्दों का मानवीकरण कर दिया, चाहे वह जड़ हो या चेतन, साकार हो या निराकार। मनुष्यों ने इन सब की मूर्ति बना ली। उन वस्तुओं के गुण उन मूर्तियों में चिह्नित कर दिये गये। ऐसा करते हुए ईश्वर का भी मानवीकरण हो गया। मानवीकरण होने में रूप और नाम के बिना उसका उपयोग नहीं हो सकता, इसलिए महापुरुषों का रूप और नाम ईश्वर की श्रेणी में आ गया। पहले दौर में शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि रूप देवत्व की श्रेणी में आते दिखाई देते हैं। ईश्वर के स्थान पर समाज में इन देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ पूजी जाने लगीं और इनसे ही प्रार्थना भी होने लगी। इस प्रकार इन मूर्तियों से मनुष्य के दो अभिप्राय सिद्ध हो जाते हैं- प्रथम जो उपस्थित नहीं है, वह उपस्थित हो जाता है। जिसकी मृत्यु हो चुकी है जो इस संसार से जा चुका है, उसकी स्मृति को स्थायित्व मिल जाता है तथा दूसरा अप्रत्यक्ष परमेश्वर इस मूर्ति के माध्यम से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार निराकार ईश्वर को साकार बनाने का विचार मूर्ति-पूजा का आधार है।

जब ईश्वर को अपनी इच्छानुरूप रूप दिया जा सकता है तो बाद के लोगों ने राम-कृष्ण के स्थान पर उनके इष्ट प्रिय व्यक्तियों को ही ईश्वर के स्थान पर मन्दिर में रख दिया। इस क्रम में मत-मतान्तरों के संस्थापक मन्दिरों के पूज्य देव बन गये। कुछ महावीर, नानक आदि ईश्वर की श्रेणी में आ गये। इसके बाद के युग में मन्दिर के महन्त, महामण्डलेश्वर, गुरु आदि लोगों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं, उनकी भी ईश्वर के स्थान पर पूजा होने लगी। कुछ लोगों ने अपने माता-पिता, प्रियजनों को ही मन्दिर के देवताओं के स्थान पर अधिष्ठित कर दिया। उनकी पूजा को ही ईश्वर की पूजा समझने लगे। आज तो शंकराचार्य के स्थान पर आसाराम, रामरहीम, रामपाल दास जैसे कुछ पीर-फकीर भी मूर्ति के रूप में या समाधि के रूप में पूजे जाने लगे और कुछ लोग स्वयं ही अपने को पुजवाने लगे। इस तरह निराकार चेतन, सर्वव्यापक ईश्वर की यात्रा, साकार जड़ में बदल गई।

मूर्तिपूजा का समाज पर दो प्रकार से प्रभाव पड़ा। मूर्तिपूजा करने से मनुष्य कायर और भीरु बनता गया। देवता के रुष्ट होने का भय दिखाकर पुजारियों ने राजा से जनसामान्य तक को ठगा है, आज भी ठग रहे हैं। दूसरा प्रभाव समाज में मूर्तिपूजा का यह हुआ कि पुरुषार्थहीनता बढ़ी। मनुष्य के मन में इस प्रकार के विचार दृढ़ होते गये कि मनुष्य को बिना पुरुषार्थ के ही इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। देवता पूजा से प्रसन्न होकर मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं। इस विचार पर आर्य विचारक एवं दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘वह (मूर्तिपूजक) अन्धकार में है और उसी में रहना चाहता है। वह प्रकाश का इच्छुक नहीं है। यदि आप बातचीत करके इस सम्बन्ध में उसे बतलाना चाहें तो वह बात उसे रुचिकर न होगी और वह उससे घबरायेगा। उसे भय है कि इस प्रकार की बौद्धिक छानबीन उसे अविश्वासी न बना दे और इसीलिए वह उससे बच निकलने का प्रयत्न करता है। इसका कारण यह नहीं कि वह तर्क-वितर्क की योग्यता नहीं रखता। मूर्तिपूजकों में आपको सर्वोत्तम वकील, जो चकित करने वाली तीव्र तार्किक बुद्धि रखते हैं, तर्क शास्त्र के उपाध्याय, जो सूक्ष्म हेत्वाभास को ढूँढ़ निकालने की क्षमता रखते हैं तथा चतुर राजनीतिज्ञ, जो संसार के राजनैतिक क्षेत्र में गुह्य-से-गुह्य कार्य करने वाली शक्तियों का सहज साक्षात् कर लेते हैं, मिलेंगे। उनमें आपको वाणिज्य कुशल व्यापारी, जिनकी दृष्टि से संसार की किसी मण्डी का कोई कोना छिपा हुआ नहीं है, अर्थशास्त्री जो शोषक-वर्ग की चालों का सफलतापूर्वक प्रतिकार कर सकते हैं, ज्योतिष-विद्याविशारद, जिनको आकाशस्थ ग्रह-उपग्रहों का अपने ग्रह से भी कहीं अधिक परिज्ञान है तथा गणितज्ञ, जिन्हें गणित के सूक्ष्म तत्त्वों पर पूर्ण अधिकार है, भी मिल जायेंगे। ये सब बुद्धि विशेषज्ञ है, परन्तु आप इन्हें मन्दिरों में अनपढ़ लोगों के साथ वैसी ही भक्ति-भावना तथा अनिश्चित बुद्धि से मूर्तिपूजा करते देखेंगे।’’

(लेखक पं. राजेन्द्र, भारत में मूर्तिपूजा, पृ. १९९)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था का भाव उनके बाल्यकाल से देखने में आता है। जिस समय बालक मूलशंकर की आयु मात्र तेरह वर्ष की थी, उस समय जिस घटना ने उनके जीवन में झंझावात उत्पन्न किया, वह घटना मूर्तिपूजा से ही सम्बन्ध रखती है। महर्षि दयानन्द ने इस घटना का वर्णन अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है- ‘‘जब मैं मन्दिर में इस प्रकार अकेला जाग रहा था तो घटना उपस्थित हुई। कई चूहे बाहर निकलकर महादेव के पिण्ड के ऊपर दौड़ने लगे और बीच-बीच में महादेव पर जो चावल चढ़ाये गये थे, उन्हें भक्षण करने लगे। मैं जाग्रत रहकर चूहों के इस कार्य को देखने लगा। देखते-देखते मेरे मन में आया कि ये क्या है? जिस महादेव की शान्त पवित्र मूर्ति की कथा, जिस महादेव के प्रचण्ड पाशुपतास्त्र की कथा, जिस महादेव के विशाल वृषारोहण की कथा गत दिवस व्रत के वृत्तान्त में सुनी थी, क्या वह महादेव वास्तव में यही है? इस प्रकार मैं चिन्ता से विचलित चित्त हो उठा। मैंने सोचा भी यदि यथार्थ में ये वही प्रबल, प्रतापी, दुर्दान्तदैत्यदलनकारी महादेव हैं तो अपने शरीर पर से इन थोड़े-से चूहों को क्यों विताड़ित नहीं कर सकते? इस प्रकार बहुत देर तक चिन्ता स्रोत में पड़कर मेरा मस्तिष्क घूमने लगा। मैं आप ही अपने से पूछने लगा कि जो चलते-फिरते हैं, खाते-पीते हैं, हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, डमरु बजाते हैं और मनुष्यों को श्राप दे सकते हैं, क्या यह वही वृषारूढ़ देवता हैं जो मेरे सामने उपस्थित हैं?’’ इस घटना के बाद बालक मूलशंकर ने पिता को जगाकर अपनी शंकाओं का समाधान कराना चाहा, सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर घर आकर व्रत तोड़ दिया और भोजन करके सो गया। हम देखते हैं कि यह बालक जीवन भर मूर्तिपूजा के पाखण्ड को खण्डित करता रहा। इसकी निरर्थकता बताने में जिस योग्यता और साहस को हम देखते हैं, वह उल्लेखनीय है। महर्षि दयानन्द के सामने उदयपुर के भगवान् एकलिंग की गद्दी का प्रस्ताव था, शर्त केवल एक थी- मूर्तिपूजा खण्डन छोड़ना, परन्तु महर्षि दयानन्द का उत्तर था- ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ति करूँ अथवा ईश्वरीय आज्ञा का पालन करूँ?’’ (भारत में मूर्ति पूजा, पृ. १६२)

महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा के खण्डन में कभी कोई समझौता नहीं किया। इस पर पादरी के. जे. लूकस ने जो विचार दिये हैं, वे ध्यातव्य हैं। उक्त पादरी ने १८७७ में फर्रुखाबाद में मूर्ति पूजा के विषय में उनके व्याख्यान सुने थे, पादरी लूकस ने बतलाया- ‘‘वे मूर्तिपूजा के विरुद्ध इतने बल, इतने स्पष्ट और विश्वास के साथ बोलते थे कि मुझे फर्रुखाबाद की जनता की ओर से उनका हार्दिक स्वागत किये जाने पर आश्चर्य हुआ। मुझे उनका यह कथन स्मरण है कि जब मैंने उनसे कहा कि यदि आपको तोप के मुँह पर रखकर कहा जाए कि यदि तुम मूर्ति को मस्तक न झुकाओगे तो तुम को तोप से उड़ा दिया जायेगा, तो आप क्या कहेंगे? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ‘मैं कहूँगा कि उड़ा दो’ दयानन्द इतने निर्भीक थे।’’

(भारत में मूर्तिपूजा पृ. १६८)

महर्षि दयानन्द का मूर्तिपूजा खण्डन एक आग्रह मात्र नहीं था। उन्होंने मूर्तिपूजा की निरर्थकता सिद्ध करने में दार्शनिक, आर्थिक, सामाजिक-सभी पक्षों पर गहरा विचार किया है। जो लोग ईश्वर उपासना में मूर्तिपूजा को सहायक समझते हैं, उनके तर्कों का प्रबल तर्कों से खण्डन किया है।

‘‘प्रश्न- साकार में मन स्थिर होना और निराकार में स्थिर होना कठिन है, इसलिए मूर्तिपूजा करनी चाहिए।

उत्तर- साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है और निराकार परमात्मा के ग्रहण में मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता, किन्तु उसी के गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता, क्योंकि जगत् में मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फँसा रहता है, परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता, जब तक निराकार में न लगावें, क्योंकि निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है। इसलिए मूर्तिपूजा करना अधर्म है।’’

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप -2

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

पिछले अंक का शेष भाग….

लोग एक तर्क रखते हैं- अमुक व्यक्ति के अमुक स्थान पर जाने से, पूजा करने से, स्मरण से उसकी इच्छा पूरी हो गई। यह सुनते ही सभी इच्छा पूर्ति चाहने वाले लोगों की दौड़ उसी ओर प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ विचारणीय है कि यदि स्थान विशेष में, किसी की इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य है तो वहाँ जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा पूरी होनी चाहिए। इच्छापूर्ति के साथ कोई शर्त या योग्यता निश्चित हो तो उस योग्यता वाले लोगों की इच्छा तो अवश्य पूरी होनी चाहिए, परन्तु लाखों लोग जहाँ जाते हैं, वहाँ कठिनता से हजारों की इच्छा पूर्ण होती है। फिर शेष की इच्छा पूरी क्यों नहीं हुई? यहाँ पर एक प्रश्न पूछा जाता है यदि सबकी इच्छा पूरी नहीं होती तो हर वर्ष भक्तों की संख्या क्यों बढ़ जाती है? इसका उत्तर है कि जिनकी इच्छा पूरी होती है, उनका प्रचार होता है, वे अगली बार अधिक संख्या में एकत्रित होकर देवता के दर्शन करने जाते हैं। इसके विपरीत जिनकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती, वे शान्त होकर बैठ जाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि जिनकी इच्छा पूरी हुई, वह कैसे पूरी हो गई, यदि देवता कुछ करता नहीं है? इसका उत्तर है कि लोगों की इच्छाएँ सामान्य और सांसारिक होती हैं। जाने वाले लोगों में कुछ की पूरी हो जाती हैं, कुछ की नहीं। यह बात किसी देवता के पास न जाने पर भी पूर्ण होती है, परन्तु जिसकी इच्छा पूरी हो गई वह समझता है, देवता ने उसकी इच्छा पूरी की है। जिसकी इच्छा पूरी नहीं हुई, वह मानता है, देवता उससे रुष्ट है।

वस्तुतः देवता इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य रखते तो यह सामर्थ्य सबके पास है या एक के पास? यदि एक देवता के पास यह हो तो दूसरे के पास वह सामर्थ्य नहीं होना चाहिए। मन्दिर में हिन्दू की इच्छा पूरी होती है, पीर दरगाह में मुसलमान की, गुरुद्वारे में सिक्ख की। फिर तो सभी में इच्छापूर्ति का सामर्थ्य हो जाता, परन्तु ऐसा है नहीं। मनुष्य जिस वस्तु, व्यक्ति, स्थान में सामर्थ्य मान लेता है, वही देवता उस भक्त के लिए इच्छापूर्ति का काल्पनिक कारण बन जाता है।

मूर्ति पूजा चलने का एक और कारण है मूर्ति पूजा एक व्यापार है। इसमें हजारों-लाखों लोगों को व्यवसाय मिला है, अतः इसे कोई छोड़ना नहीं चाहता। दूसरे किसी व्यापार में पूँजी लगती है, श्रम लगता है, जिम्मेदारी होती है, परन्तु मूर्ति पूजा के व्यापार में मालिक को कुछ नहीं मिलता, सेवक सब कुछ का अधिकारी बन जाता है। एक मन्दिर को बनाने में कुछ भी नहीं लगता या कितना भी लग सकता है- यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर करता है। एक पत्थर रखकर भी कार्य चलाया जा सकता है, उसमें देवता को कुछ भी नहीं मिलता। मिली हुई सारी धन-सामग्री पुजारी व मन्दिर संचालकों की होती है। इच्छा पूर्ति की भावना से देवता पर प्रसाद चढ़ाने वाला इच्छापूर्ण न होने की दशा में पुजारी से कोई प्रश्न नहीं कर सकता। इसमें उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। मन्दिर का देवता वस्तु का उपयोग नहीं करता, इसलिए उसकी एक सामग्री एक दिन में सैकड़ों बार भेंट चढ़ती है। इससे अधिक लाभदायक व्यवसाय और कौन-सा हो सकता है? जो व्यक्ति इस व्यवसाय में लगा है, वह इस लाभ को क्यों छोड़ना चाहेगा?

मूर्तिपूजा दोनों के लिए लाभदायक है, करने वाले के लिए भी और कराने वाले के लिए भी। करने वाला मूर्ति की पूजा भय या प्रलोभन वशात् करता है, अतः मूर्ति उसको भय से मुक्त करती है और यही उसकी इच्छाओं को पूर्ण भी करती है। यह एक मानसिकता ही है या मनोवैज्ञानिक परिस्थिति है। दोनों स्थितियों में मन्दिर चलाने वाले को लाभ होता है।

ईश्वर को जानने के भी दो साधन हैं। विद्वान् लोग और शास्त्र ईश्वर के सिद्धान्त पक्ष को बताते हैं, फिर व्यवहार से उसका प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

जो लोग कहते हैं ईश्वर को देखना है, देखेंगे तो ही स्वीकार करेंगे, उनसे एक प्रश्न किया जा सकता है। क्या कोई केवल देखने पर ही उस वस्तु को मानता है? जो वस्तु दिखाई नहीं देती, क्या उसे स्वीकार नहीं करता? प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि भूख,प्यास, गर्मी, सर्दी, सुख-दुःख, पीड़ा, हर्ष कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे आँखों से देखा जा सके। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने इनको देखा हो, परन्तु सभी इनका अनुभव करते हैं, अतः यह कथन कि दिखने वाली वस्तु को ही स्वीकर करते हैं न दिखने वाली को नहीं- यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे भौतिक होती हैं। इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः अपने समान भूतों को वे पहचानती हैं। आँख अग्नि का स्वरूप है, आँख से रूप जाना जाता है। गन्ध पृथ्वी का गुण है, अतः नासिका से पृथ्वी तत्त्व का बोध होता है। रस जल का गुण है, अतः रसना से रस का ज्ञान होता है। स्पर्श वायु का गुण है, अतः त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। पाँचों वस्तुओं को जानने के लिए पाँच इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। पाँच इन्द्रियों से पाँच भूतों को जाना जा सकता है।

इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः भौतिक पदार्थों को जानने का इनमें सामर्थ्य है, परन्तु इनके जानने का सामर्थ्य उनका अपना है, यह गोलक का नहीं है। यदि इनमें जानने का सामर्थ्य होता तो मरने के पश्चात् भी आँख देखती, परन्तु ऐसा नहीं होता। इसके विपरीत आँख एक मरे हुए व्यक्ति के चेहरे से निकल कर जीवित व्यक्ति में लगा दी जाती है तो वही आँख देखने लगती है। इन भौतिक इन्द्रियों से भौतिक पदार्थ जाने जाते हैं, परन्तु दोनों भौतिक पदार्थ आँख और वस्तु विद्यमान होने पर भी ज्ञान का अभाव होना सर्वत्र परिलक्षित होता है, अतः ज्ञान भूतों का गुण नहीं है, अन्यथा भौतिक पदार्थों में अवश्य विद्यमान होता। इसी प्रकार चेतन की इच्छापूर्वक क्रिया भौतिक पदार्थों में दिखाई देती है, पर वह क्रिया भौतिक वस्तुओं का धर्म नहीं है, अन्यथा मृतक के शरीर में जीवित अवस्था में होने वाली क्रियाएँ पाई जातीं, जबकि इसके विपरीत जड़ पदार्थ में होने वाली क्रियाएँ सड़ना, गलना, सूखना आदि प्रारम्भ हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त कोई मानता है कि चेतन प्राणी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि जो दिखाई देते हैं, इन सबका केवल शरीर दिखाई देता है, इनके अन्दर विद्यमान जीवात्मा नहीं, अतः आत्मा नहीं होती। इसका उत्तर है- कोई भी अपनी या किसी की भी आत्मा को अपनी स्थूल आँखों से नहीं देख सकता, वह केवल अनुमान कर सकता है। मनुष्य जब शरीर में विद्यमान आत्मा को शरीर में अनुभव करता है, उस समय मनुष्य से पूछें- क्यों भाई, अपने माता-पिता आदि को देखा है? तो सामान्य रूप से शरीर को देखकर वह कहता है, हाँ देखा है। परन्तु वही व्यक्ति उस मनुष्य के मर जाने पर कहता है- मेरे माता-पिता मर गये। उससे पूछो- फिर यह शरीर कौन है? तो वह कहता है- वह चेतन इस शरीर में रहता था, तभी तक यह मेरा पिता था, उसके चले जाने पर इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। इससे निराकार जीवात्मा का बोध होता है। शरीर में प्रारम्भ से शरीर से भिन्न एक चेतन रहता है, इसका हमें कैसे बोध होता है? शरीर में उसके होने का बोध शरीर के प्रत्यक्ष होने से नहीं हो सकता। शरीर और चेतना साथ-साथ हैं, परन्तु शरीर चेतना के बिना न क्रिया कर सकता है, न स्थिर रह सकता है। शरीर से चेतना के पृथक् होते ही शरीर नष्ट होने लगता है। इस प्रकार किसी के होने पर किसी बात का होना और किसी के न होने पर किसी बात का न होना ही उस पदार्थ के अस्तित्व का प्रमाण है। जीवन के होने पर शरीर में क्रिया का होना और जीवन के समाप्त हो जाने पर उस प्रकार की क्रियाओं का समाप्त हो जाना, जीवन का शरीर से भिन्न होना सिद्ध करता है। इस प्रमाण से शरीर में जीव के होने पर घटित होने वाली क्रियाएँ उसके द्वारा हो रही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वह जीवात्मा ही उन क्रियाओं का कर्त्ता है।

शरीर ही जीवन और जड़ की भिन्नता को प्रमाणित करता है। शरीर का बनना, उसका जीवित रहना, शरीर का घटना-बढ़ना, शरीर के द्वारा क्रियाओं का होना शरीर से भिन्न जीवात्मा के होने का प्रमाण है। इसी प्रकार भौतिक पदार्थ जड़ हैं, परन्तु चेतन के संयोग से उनमें क्रिया दिखाई देती है। इन सब भौतिक पदार्थों में क्रिया का अभाव होने से ये स्वयं कुछ नहीं कर सकते। जब जड़ होने से ये भौतिक पदार्थ पृथक्-पृथक् कोई क्रिया करने में समर्थ नहीं हैं, अतः इन सब पदार्थो का संयोग भी किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकता और अपने से भिन्न चैतन्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य भी इनमें नहीं हो सकता।

शरीर का बने रहना, सक्रिय होना चेतना के होने का लक्षण है। अन्य कोई भी प्रकार चेतना के जानने-पहचानने का हो नहीं सकता। बहुत सारे शरीरों में यह प्रक्रिया घटते, बढ़ते, देखते हैं, अतः शरीर से भिन्न आत्मा की पहचान कर लेते हैं। यह पहचान ईश्वर के साथ नहीं कर पाते, इसके दो कारण हैं। प्रथम- वह एक है, अतः उस जैसा दिखाकर उसे नहीं बताया जा सकता। बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य से ईश्वर का स्वरूप पूछते हुए कहा है- तुम ईश्वर को जानते हो तो बताओ, वह कहाँ है? महर्षि ने बताया- संसार में जो कुछ हो रहा है, उससे ईश्वर के होने का पता चलता है। ऋषि कहते हैं- यह कोई उत्तर नहीं है जो दूध देती है वह गाय होती है, जो सवारी कराता है वह घोड़ा होता है- यह कथन किसी के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। हमें तो प्रत्यक्ष बताओ कि यह ईश्वर है तो याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं- उसे इदम् इत्थम् नहीं बताया जा सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है। दूसरा उसकी तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि कोई उस जैसा दूसरा नहीं है, अतः जो भी उससे भिन्न है, उसे इंगित करके यह बताया जा सकता है कि यह ईश्वर नहीं है। इसलिए उपनिषद्कार एक प्रसिद्ध शब्द का प्रयोग करते हैं- नेति, नेति, वह ऐसा नहीं है। ईश्वर  के स्वरूप को समझने के लिए यह नकारात्मक प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

लोग कहते हैं- ईश्वर को कैसे जानें? किसी भी वस्तु के जानने के क्या साधन हैं? यदि वस्तु उपलब्ध है तो हम उसे प्रत्यक्ष कर लेते हैं, यदि प्रत्यक्ष नहीं है तो उपायों से प्रत्यक्ष कर लेते हैं। प्रथम शब्दों से जानते हैं, फिर व्यवहार से। इसको समझने के लिए विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। प्रथम हम सिद्धान्त को कक्षा में समझते हैं, फिर प्रयोगशाला में उसका साक्षात् करते हैं।

आवश्यकता पर वस्तु की प्राप्ति न हो तो उसका होना व्यर्थ हो जायेगा। संसार में कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है, फिर ईश्वर कैसे व्यर्थ हो सकता है?

आवश्यक वस्तुओं में विकल्प नहीं होता। जैसे भूख है तो भोजन मिले या न मिले- यह विकल्प नहीं चलेगा। भूख है तो भोजन मिलना ही चाहिए। इसी प्रकार संसार में दुःख है तो दूर होना ही चाहिए। संसार की वस्तुओं से दुःख दूर नहीं होता, संसार की वस्तुएँ भौतिक हैं, वे शरीर के दुःखों को तो दूर कर सकती हैं, क्योंकि शरीर भी भौतिक है, परन्तु दुःख का अनुभव जीवात्मा करता है। उसका दुःख आत्मा के न्यून सामर्थ्य को दूर करने से मिटेगा। जैसे जड़ वस्तुएँ मिलकर जड़ के सामर्थ्य को बढ़ा देती हैं, वैसे चेतन का आश्रय चेतन के सामर्थ्य को बढ़ा देता है, अतः चेतन को चेतन की प्राप्ति करनी होगी। दुःख को दूर करने के लिए ईश्वर का मानना एक अनिवार्यता है। एक और प्रश्न हमारे मन में उत्पन्न हो सकता है, वह यह कि ईश्वर को एक मानें या अनेक मानें? अनेक मानने में हमें प्रतीत होता है, जैसे अनेक होना अधिकता का द्योतक है, जैसे एक से अधिक दो या तीन होते हैं, परन्तु एक से अधिक संख्या वास्तव में अपूर्णता की सूचक है। जो एक होगा, वही पूर्ण होगा। सम्पूर्णता ही एकत्व का आधार होता है। जब ईश्वर अनेक होंगे तो बड़े-छोटे होंगे, एक जगह होंगे तो दूसरी जगह पर नहीं होंगे, जो एक कर सकता होगा वह दूसरा नहीं कर सकता होगा। ईश्वरत्व की सम्भावना को दो में बाँट नहीं सकते, अतः ईश्वर पूर्ण व एक ही होगा।

जब ईश्वर एक है और पूर्ण है, तब वह एक स्थान पर हो दूसरे स्थान पर न हो, ऐसा कैसा सम्भव है? एक स्थान पर होकर अन्य स्थान पर न हो तो उसमें अपूर्णता होगी। इस तरह ईश्वर का एक होना पूर्ण होना, सर्वत्र होना, ईश्वर होने की शर्त है।

ईश्वर के ईश्वरत्व का जो अनिवार्य गुण है, वह ईश्वर का सर्वज्ञ होना है। ज्ञान का सम्बन्ध उपस्थिति के बिना अधूरा है, जो जहाँ होता है, वह ही वहाँ के विषय में जान सकता है। जो जहाँ पर नहीं रहता, वह वहाँ के विषय में नहीं जान सकता। जानने के लिए होना अनिवार्य होने से वह सर्वव्यापक होगा। जो सर्वव्यापक होगा, वह सर्वज्ञ होगा। जो सर्वज्ञ होगा, वही सर्वशक्तिमान् होगा। ईश्वर सब जानने वाला होने से सर्वव्यापक सर्वत्र रहने वाला है, अतः वही सर्वसामर्थ्य से सम्पन्न होने से सर्वशक्तिमान् होगा।

अब एक प्रश्न रहता है। ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है और सर्वज्ञ होने के कारण वह सर्वशक्तिमान् है। ऐसे ईश्वर को साकार होना योग्य है या निराकार होना योग्य है? साकार मानना सबसे सुविधाजनक है। प्रथम प्रश्न है- साकार होना एक परिस्थिति है। स्थूल भूत साकार हैं, परन्तु सूक्ष्म अवस्था में निराकार भी हैं। साकारता निराकारता पदार्थों में एक परिवर्तनशील अवस्था है। यह परिवर्तनशीलता, व्यवस्था की अपेक्षा से है। संसार का निर्माण करते हुए सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ा जाता है।

संसार अनित्य है, अतः उसमें परिवर्तन सम्भव है। परिवर्तन अनित्यता का ही दूसरा नाम है। एक जैसा रहना नित्यता है, बदलते रहना अनित्यता है। संसार बदलता रहता है, इसी कारण अनित्य है। जो नित्य है, वह अपरिवर्तनीय है। प्रकृति भी मूलरूप में नित्य है, अतः प्रवाह से अनित्य होने पर भी स्वरूप से वह नित्य है। इस प्रकार ईश्वर का साकार होना सम्भव नहीं, वह साकार होते ही अनित्य हो जायेगा, क्योंकि संसार में जितनी भी साकार वस्तुएँ हैं वे सब अनित्य हैं। ईश्वर पूर्ण, एक और नित्य होने से साकार नहीं हो सकता, अतः निराकार है।

एक और प्रश्न ईश्वर के सम्बन्ध में किया जाता है जीवात्मा को ही ईश्वर क्यों न मान लिया जाए? प्रथम तो जीवात्मा की अनेकता उसकी अपूर्णता की पहचान है। फिर संसार में कुछ कार्य मनुष्य के द्वारा किये जाते हैं, परन्तु उन्हीं कार्यों का बड़ा भाग मनुष्य के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है, तब हमारे करने से जितना हो रहा है, उसका शेष कौन कर रहा है? जो कर रहा है, वह हमारी तरह होने वाली वस्तु से पृथक् है, हमसे अधिक सामर्थ्यवान् है और हमारा सहायक है।

ईश्वर के अस्तित्व के लिए शास्त्र एक और तर्क देता है। संसार में कोई वस्तु है तो उसका उपयोग अवश्य होता है। संसार में किसी समस्या का अनुभव कोई व्यक्ति करता है तो उसका समाधान भी इसी संसार में होना चाहिए।१० भूख है तो समाधान के रूप में भोजन है। प्यास है तो उसका समाधान पानी है। ऐसे ही रोग-शोक, गर्मी-सर्दी यदि कष्ट हैं तो संसार में इन कष्टों का उपाय भी निश्चित होगा। इसी आधार पर ईश्वर है तो हमारी किसी समस्या का समाधान भी उससे होना चाहिए। इसका एक सरल उपाय है। जब कोई समस्या हमारे सामने आती है तो उसके समाधान का उपाय भी हमें स्मरण हो जाता है। जैसे भूख में भोजन का, फिर किस परिस्थिति में व्यक्ति ईश्वर का स्मरण करता है, वह उसका समाधान है। मनुष्य को दुःख में ईश्वर का स्मरण आता है, वही हमारे दुःखों के समाधान का साधन है।११

मनुष्य का अस्तित्व उसके शरीर से प्रतीत होता है। उसका सुख-दुःख, हानि-लाभ शरीर के बिना सम्भव नहीं, परन्तु यह शरीर मनुष्य ने अपनी इच्छा से प्राप्त नहीं किया है। यह एक व्यवस्था से प्राप्त है, कोई व्यवस्थापक है तथा उसकी व्यवस्था में प्राणियों का बड़ा स्थान है, उसे ही लोग ईश्वर कहते हैं। जैसे मनुष्य का जन्म उसके हाथ में नहीं, उसी प्रकार उसका जीवन भी अधिकांश में उसके वश में नहीं होता। मृत्यु तो उसके वश में है ही नहीं। यही परिस्थिति विशाल रूप में देखने पर संसार के निर्माण, संचालन और विनाश की भी है। जब इतना सब हो रहा है, मनुष्य की अपनी इच्छा से भी नहीं हो रहा है, जीवन के सुख-दुःख की व्यवस्था में जहाँ हमारी इच्छा काम नहीं आती, वहाँ जिसकी नियमावली व व्यवस्था काम करती है, उसे ही ईश्वर कहते हैं।

कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध विद्यमान ज्ञान से है, अतः ज्ञान चेतन का धर्म है और हमारे पास ज्ञान है, हमारी अल्पशक्ति के कारण वह पूर्ण ज्ञान हमारे पास नहीं है। अतिरिक्त ज्ञान जो भी इस संसार में मनुष्य के लिए आवश्यक है, वह उसी से प्राप्त हो सकता है। जो ज्ञान का स्रोत है, वही ईश्वर कहलाता है।

इसी भाँति ईश्वर के बोध कराने वाले दो शास्त्र हैं। ये वेद के व्याख्यान हैं- एक दर्शन और दूसरे उपनिषद्। एक ईश्वर की सत्ता को अनुभव कराते हैं, दूसरे में बुद्धि से ही उसका समाधान करते हैं। इसके लिए युक्ति, प्रमाण, उदाहरण, तर्क आदि का सहारा लेते हैं, परन्तु उपनिषद् की दृष्टि अनुभव को बाँटने की है। उसको युक्ति प्रमाणों से बहुत नहीं समझा जा सकता, उसे अनुभव करने वाला सहज स्वीकार कर सकता है, अतः ईश्वर अनुभव का विषय होने पर भी सिद्धान्त से निश्चय किये बिना उसका अनुभव करना सरल नहीं है। ईश्वर ज्ञान के भी दो पक्ष हैं- सैद्धान्तिक और प्रायोगिक। जिसे मनु के शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है-

स्वाध्याय के द्वारा योग को सिद्ध किया जाता है। योग के प्रयोग से स्वाध्याय की सहायता प्रमाणित होती है। स्वाध्याय और योग साधना से परमात्मा की प्राप्ति होती है, साधक के हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है-

स्वाध्यायद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्।

स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।।

टिप्पणी

१. कि कारणं ब्रह्म – श्वेताश्वतर

२. कालः स्वभावो – श्वेताश्वतर

३. ते ध्यान – श्वेताश्वतर

४. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारी

व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। – न्यायदर्शन

५. पणव्यवहारे स्तुतौ च। -धातुपाठ

६. एतदालम्बन श्रेष्ठं, एतदालम्बनं परम्।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते। – कठोपनिषद्

७. नेति नेति- बृहदारण्यक्

८. तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। -योगदर्शन

९. स पर्यगात् – यजुर्वेद ४०

१०. दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकन्तात्यन्ततोऽभावात्। – सांख्यकारिका

११. परिणामताप- योगदर्शन

– डॉ. धर्मवीर

 

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

सम्पादकीय

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

ईश्वर के समबन्ध में विचार करते हुए इस विषयक सभी संभावनाओं पर विचार करना आवश्यक है। प्रथम समभावना है- ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः ईश्वर की सत्ता भी नहीं है। द्वितीय समभावना है- किसी भी वस्तु को ईश्वर मान लिया जा सकता है। तृतीय समभावना है- यदि वस्तु को ईश्वर मानने में असुविधा है तो चेतन मनुष्य को ईश्वर माना जा सकता है। ये प्रश्न सदा से मनुष्य के लिए विचारणीय रहे हैं और आज भी विचारणीय हैं। इन प्रश्नों के उत्तर भी हमें विभन्न विचारकों के साहित्य में मिलते हैं। इन विचारकों के तर्कों, युक्तियों और प्रमाणों पर विचार करके ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।

प्रथम समभावनाजब-जब हमारे सामने कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं, तब-तब ईश्वर के मानने की आवश्यकता पड़ती है। यह संसार कैसे बना, इसकी बनाने की सामग्री क्या है, इसका बनाने वाला कौन है, संसार में जितने भी चेतन प्राणी दृष्टिगत हो रहे हैं वे कहाँ से प्रकट हो रहे हैं, संसार में उनकी सत्ता का आधार व औचित्य क्या है, जो आये हैं बने हैं वे कहाँ जा रहे हैं, उनका जाना उनकी अपनी इच्छा से है या वे इन सब परिस्थितियों के लिए किसी और के आधीन हैं, इन प्राणियों के जीवन में होनेवाले सुख-दुःख प्राणियों की अपनी इच्छा का परिणाम है या ये भी किसी से नियन्त्रित हैं?1

द्वितीय समभावनाइसके विकल्प में जितने समाधान हो सकते हैं, उनमें प्रथम है- संसार की दृश्यमान वस्तुएँ इस संसार का कारण हो सकती हैं। इसमें दो विकल्प हैं- वस्तु पृथक्-पृथक् रुप में कारण है या इन सबका मेल कारण है?

तृतीय समभावनायदि ये अपने-आप संसार को नहीं बना सकते तो संसार का चेतन दीखने वाला मनुष्य इस संसार का रचयिता हो सकता है। यदि वह समर्थ है तो उसके सुख-दुःख का वह स्वयं नियन्त्रक क्यों नहीं है? इस प्रकार का चिन्तन पुरातन काल से चला आ रहा है और आज भी ये प्रश्न वैसे ही हमारे सामने खड़े हैं।3

ईश्वर नहीं होने का पहला तर्क है- ईश्वर होता तो एक पदार्थ होता और पदार्थों को जाना जाता है, अतः ईश्वर को भी जान लिया जाता। मनुष्य के पास जानने के साधनों के रूप में उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जिनसे संसार के सभी पदार्थ जाने जाते हैं।4 जानने के इन साधनों में से किसी भी साधन से ईश्वर की प्रतीति नहीं होती, अतः ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।

जानने के साधनों में सबसे प्रमुख नेत्र हैं, अतः अधिकांश लोग ईश्वर को आँखों से देखना चाहते हैं। आँखों से देखने का अर्थ वस्तु के रूपवान् होने से लेते हैं। कोई वस्तु रूपवाली होने पर ही दिखाई दे सकती है, परन्तु संसार में केवल आँख से दिखाई देना मात्र किसी वस्तु के होने का आधार नहीं बनता। नेत्र से अतिरिक्त ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे सभी रूप से रहित हैं। जैसे गन्ध, शबद आदि, इनका आँख से कोई समबन्ध नहीं है, परन्तु इन वस्तुओंका अस्तित्व हम सभी अनुभव करते हैं, अतः इनसे जानी जाने वाली वस्तुओं के लिए भी देखना शबद का प्रयोग करते हैं। देखो, शबद कितना मीठा है, गन्ध कितनी अच्छी है! देखो, स्पर्श कितना कोमल है, स्वाद कैसा मधुर है! इस प्रकार देखना शबद का अभिप्राय जानना होता है।

संसार की वस्तुओं को देखने से भी इन बातों की पुष्टि होती है। जो वस्तु साकार है, वह अनेक है। जो साकार है, वह एकदेशीय है। जो साकार है, वह निर्मित है, उसे किसी ने बनाया है, उसका कोई बनाने वाला है। जो बनी है, वह नाशवान् है। जो वस्तु बनी है, साकार है, वह जड़ भी है। इस प्रकार ईश्वर को साकार मानने में बहुत सारी बाधाएँ आती हैं, अतः ईश्वर एक और निराकार है।

इसी प्रकार हम मानते हैं, परमेश्वर खाता है, पीता है, सोता है, अतः परमेश्वर के साथ सभी कार्य जोड़ लिए जाते हैं, जैसे लड़कियाँ छोटी अवस्था में गुड़ियों का खेल करते हुए उन्हें खिलाती, पिलाती, सुलाती हैं। गुड़िया वास्तव में खाती नहीं। बच्ची जानती नहीं, परन्तु इसके मन में सन्देह तो है। लोग पूरे जीवन मूर्ति को खिलाकर आते हैं और उनके मन में सन्देह भी उत्पन्न नहीं होता, यह विचित्रता है।

एक और प्रश्न ईश्वर के समबन्ध में विचारणीय है। कहते हैंअजी, मानो तो पत्थर भी भगवान् है, न मानो तो पत्थर है। यहाँ समझने की बात यह है कि हम ईश्वर है, इसलिए मानते हैं या ईश्वर को मानते हैं, इसलिए वह है। पत्थर को भगवान् मानने की बात से तो लगता है- ईश्वर है नहीं, केवल हम मानते हैं, इसलिए है। मानने और होने में बड़ा अन्तर है। मानने पर केवल मानने वाले के लिए ही वह होता है, जो नहीं मानते उनके लिए वह नहीं हो सकता। इसके विपरीत होने पर सबके लिए मानने की बाध्यता है। उदाहरण के लिए इस बात को इस तरह समझा जा सकता है। एक व्यक्ति का एक पुत्र है, इसको पिता भी मानता है, पुत्र भी मानता है, दूसरे लोग भी मानते हैं। दूसरे व्यक्ति का पुत्र नहीं है, उसने किसी बालक को गोद लिया है, परन्तु वह उसे पुत्र मानता है, पुत्र भी उसे पिता मानता है, अन्य लोग भी वैसा ही स्वीकार करते हैं। एक मनुष्य किसी जानवर को बेटा कहता है, कुत्ते को बेटा कहता है, गाय को माता कहता है। माननेवाला व्यक्ति कहता है, कहता रहे, वह कुछ भी मानता रहे, परन्तु न प्राणी उसे अपना पिता मानता है, न अन्य लोग। इसी भाँति पत्थर को न तो दूसरा कोई भगवान् मानता है, न पत्थर स्वयं को भगवान कहता है। भूमि को हिन्दू माता कहकर नमन करता है, मुसलमान ऐसा करने से इन्कार कर देता है। जब हम किसी वस्तु को भगवान् मानते हैं, तब वह वस्तु भगवान् होती नहीं, हम केवल उसे मानते हैं। इसी कारण जो जिसको चाहे भगवान् मान सकता है और वह वस्तु उसके लिए भगवान् होती है। यही भगवान् के अनेक होने का कारण है। कोई स्थान को भगवान् मानता है, कोई पिण्ड को, कोई पहाड़ को, कोई पशु को, कोई पृथ्वी को, कोई पानी को, कोई पुस्तक को, कोई व्यक्ति को । ईश्वर है हम इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए ईश्वर है।

वस्तु के ईश्वर मानने में एक बाधा और आती है, वह बाधा है-हम वस्तु को ईश्वर मानते हैं या उसमें विद्यमान रूप को? क्योंकि ईश्वर के दर्शनों की इच्छा से वस्तु में रूप को ही मुखय मानते हैं, अन्य गुणों का हमारे लिए बहुत महत्त्व नहीं होता। इस मान्यता में जो शंका है, वह यह कि यदि वस्तु को ईश्वर मानते हैं तो वस्तु मात्र ईश्वर होगी, तब यदि हमारा पत्थर भगवान् है तो ईसाई का, मुसलमान का या किसी और का पत्थर भी भगवान् ही होगा। यदि आकृति को भगवान् मानेंगे तो प्रश्न उठेगा- आकृति विशेष भगवान् है या आकृति सामान्य? आकृति सामान्य भगवान् मानने पर सभी आकृतियाँ भगवान् होंगी, हर आकृति भगवान् होंगी। यदि आकृति विशेष को भगवान् मानें तो व्यवहार में ऐसा नहीं पाया जाता, अनेक वस्तुएँ भगवान् के रूप में पूजी जाती हैं और अनेक आकृतियों के रूप में भगवान् देखा जाता है, अतः भगवान् है इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए है।

मूर्ति पूजा करते समय एक और प्रश्न उपस्थित होता हैहम मूर्ति को भगवान् मानते हैं, उसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि जिससे मिलने और जिसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं, हम उसके सामने आँखें बन्द करके क्यों बैठते या खड़े होते हैं? यदि हम किसी से मिलने किसी के घर पर जायें और उसके सामने बैठकर आँख बन्द करके ‘बन्धु, आपके दर्शनों के लिए आया हूँ’ ऐसा कहें तो गृहस्वामी उस व्यक्ति को अवश्य ही मूर्ख कहेगा, परन्तु मूर्ति के सामने सदा हम आँखें बन्द करके बैठना पसन्द करते हैं तो यह और भी अनुचित है। जो मिल गया, उसका ध्यान नहीं किया जाता, ध्यान तो अज्ञात का किया जाता है। प्राप्त से तो व्यवहार किया जाता है।

मनुष्य जब भी परमेश्वर का ध्यान या विचार करता है तो दो कार्य उससे स्वाभाविक रूप से होते हैं- एक आँखों का बन्द करना और हाथों का जुड़ना। हाथों का जुड़ना स्तुति का प्रतीक है, हाथों से स्तुति की जाती है। संस्कृत में हाथ को पाणि कहते हैं। पाणि कहने का कारण है- इससे स्तुति और व्यवहार किया जाता है। आँख बन्द करना किसका द्योतक है? इसको समझने के लिए हमें जीवन के प्रारमभ को देखना होगा। जब बालक छोटा होता है, हम उसे संसार की वस्तुओं से परिचित कराते हैं। बालक धीरे-धीरे वस्तुओं को पहचानने लगता है। हम बार-बार वस्तु को दिखाकर उसका नाम पुकारते हैं। इस आवृत्ति से बालक वस्तु और नाम से सबन्ध स्थापित कर लेता है। फिर उसे वस्तु के दिखने पर नाम और नाम के सुनने पर वस्तु का बोध होता है। वह जब-जब भी नाम सुनता है, वस्तु की समभावित उपस्थिति की दिशा में देखता है। चूँकि ईश्वर नाम की भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बालक का परिचय कराया गया होता है, अतः वह उन्हीं नाना पदार्थों को ईश्वर कहता, जानता और मानता है। ईश्वर के इस बाह्य परिचय के साथ प्रत्येक मनुष्य का ईश्वर के विषय में एक आन्तरिक परिचय होता है, जिसके कारण मनुष्य कहीं भी खड़ा हो चाहे मस्जिद में, मन्दिर में, चर्च में या गुरुद्वारे में, उसके मन में भगवान् के भाव आते ही उसके हाथ जुड़ जाते हैं  और उसकी आँखें बन्द हो जाती हैं, क्योंकि मनुष्य का आन्तरिक भाव कहता है कि ईश्वर का साक्षात्कार एक आन्तरिक प्रक्रिया है। उसे आन्तरिक दृष्टि से ही देखा जा सकता है, बाह्य चक्षुओं से नहीं। परमेश्वर का ध्यान आते ही हमारी दृष्टि अन्दर की ओर चली जाती है, अतः स्वाभाविक रूप से हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं।

आगे की बात है कि यदि मूर्ति पूजा व्यर्थ है, असत्य है तो प्रश्न उठता है- मूर्ति पूजा चल क्यों रही है? चल ही नहीं रही, अपितु दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लोग कहते हैं- इतनी बड़ी संखया में लोग मूर्ति पूजा कर रहे हैं वे सब गलत कैसे हो सकते हैं? प्रथम बात पर विचार करते हैं। दुनिया में कोई भी बात अथवा कोई क्रिया नितान्त मिथ्या शत-प्रतिशत हानि करनेवाली नहीं होती। पञ्चतन्त्र में कथा आती है अन्धे को मछली के स्थान पर उसे मारने के लिए साँप पकाकर देना चाहा। उस अन्धे को ही पक रहे साँप वाली कड़ाही चलाते रहने के लिए कह दिया, साँप के विषैले धुएँ से अन्धे को दिखने लग गया। उसने कुबड़े व्यक्ति को क्रोध में पीठ पर लात मारी तो वह व्यक्ति सीधा हो गया। यही हाल मूर्ति पूजा में भी है। दुःखी व्यक्ति को जो भी मिलता है, उसे बिना विचारे स्वीकार कर लेता है, उसी का सहारा ले लेता है, अतः जिसको मूर्ति का सहारा दे दिया जाता है, वह उसे पकड़े रहता है। व्यक्ति एक क्षण के लिए भी असहाय नहीं रहना चाहता, सत्य उसे मिलता नहीं, असत्य को भय के कारण छोड़ता नहीं । वैसे जो भी मूर्ति में सुख का अनुभव करता है, वह मूर्ति के उपासक की अपनी मनोदशा है, उसमें मूर्ति का कोई योगदान नहीं होता। मूर्ति जड़ है, अतः वह कोई सहायता नहीं कर सकती, परन्तु वहाँ का वातावरण और उपासक की मनःस्थिति उसे दुःखमय वातावरण से कुछ समय के लिए दूर ले जाती है। पुरानी परिस्थिति से निकलकर नई परिस्थिति में आने से मनुष्य का ध्यान बँटता है तथा कुछ समय के लिए वह तनाव से मुक्त हो जाता है।6

मनुष्य के साथ एक और बात भी उसे अपने पुरानेपन से दूर नहीं होने देती। मनुष्य को जीवन में जो विश्वास मान्यता, परमपरा, भोजन आदि पहले मिल जाता है, वह उसे सहज स्वीकार कर लेता है तथा उसे श्रेष्ठ मानता है, उसे बचाने का प्रयास भी करता है। कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई पौराणिक है उसे संस्कार, भोजन, मान्यता जैसी मिल जाती है, स्वाभाविक रूप से वह उन्हें स्वीकार कर लेता है। वह जल्दी से उसे नहीं छोड़ता। फिर प्रश्न उठता है- ऐसे व्यक्ति को बदलने का प्रयास क्यों करना चाहिए? मनुष्य बदल सकता है, यदि उसे प्राप्त से श्रेष्ठ विकल्प दिया जाए। मनुष्य स्वभाव से जहाँ है, यदि उसे उससे अच्छी वस्तु, उत्तम स्थिति, अधिक लाभ का अवसर मिले तो वह स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति को नये विचार अच्छे लगते हैं तो वह उन विचारों को स्वीकार कर लेता है। इसी कारण गुरुलोग, पैगमबर लोग अपने अनुयायी और भक्तजनों को किसी दूसरे की बात सुनने से रोकते हैं। मुस्लिम समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह किसी दूसरी बात को स्वीकार करना तो दूर, अपने पैगमबर से भिन्न बात को सुनना भी स्वीकार नहीं करता।

समाज में एक और तर्क है। संसार में अधिकांश लोग मूर्ति पूजा करते हैं और मूर्ति को ईश्वर मानते हैं। यह मान्यता नितान्त मिथ्या है कि संखया अधिक होने से कोई बात सत्य होती है। यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो अनपढ़ और मूर्खों की संखया इस संसार में अधिक है और अधिक ही रहेगी, क्योंकि अनपढ़ उत्पन्न होते हैं, शिक्षित बनाये जाते हैं। जो वस्तु बनाई जाती है, वह स्वयं बनने वाली वस्तु से मात्रा व संखया में सदा न्यून होगी, अतः यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि एक गाँव में एक हजार लोग रहते हैं, नौ सौ निन्यानवे अनपढ़ हैं और एक शिक्षित है तो समाज में किसको अच्छा समझा जाएगा? सत्य और संखया में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

शेष भाग अगले अंक में…..

विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन

विश्व में प्रथम बार
वेद ऑन लाईन
आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने प्रगति भी बहुत की हैं, इस प्रगति में तन्त्रजाल (इन्टरनेट) ने लोगों की जीवन शैली को बदल-सा दिया है। विश्व के किसी देश, किसी भाषा, किसी वस्तु, किसी जीव आदि की किसी भी जानकारी को प्राप्त करना, इस तन्त्रजाल ने बहुत ही सरल कर दिया है। विश्व के बड़े-बड़े पुस्तकालय नेट पर प्राप्त हो जाते हैं। अनुपलबध-सी लगने वाली पुस्तकें नेट पर खोजने से मिल जाती हैं।
आर्य जगत् ने भी इस तन्त्रजाल का लाभ उठाया है, आर्य समाज की आज अनेक वेबसाइटें हैं। इसी शृंखला में ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद के लिए एक बहुत बड़ा काम किया है। ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद को सर्वसुलभ करने के लिए onlineved.com नाम से वेबसाइट बनाई है। इसकी निमनलिखित विशेषताएँ हैं-
1. विश्व में प्रथम बार वेदों को ऑनलाईन किया गया है, जिसको कोई भी इन्टरनेट चलाने वाला पढ़ सकता है। पढ़ने के लिए पी.डी.एफ. किसी भी फाईल को डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।
2. इस साईट पर चारों वेद मूल मन्त्रों के साथ-साथ महर्षि दयानन्द सरस्वती, आचार्य वैद्यनाथ, पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार व देवचन्द जी आदि के भाष्य सहित उपलबध हैं।
3. इस साईट पर हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं के भाष्य उपलबध हैं। अन्य भाषाओं में भाष्य उपलबध कराने के लिए काम चल रहा है, अर्थात् अन्य भाषाओं में भी वेद भाष्य शीघ्र देखने को मिलेंगे।
4. यह विश्व का प्रथम सर्च इंजन है, जहाँ पर वेदों के किसी भी मन्त्र अथवा भाष्य का कोई एक शबद भी सर्च कर सकते हैं। सर्च करते ही वह शबद वेदों में कितनी बार आया है, उसका आपके सामने स्पष्ट विवेचन उपस्थित हो जायेगा।
5. इस साईट का सर्वाधिक उपयोग उन शोधार्थियों के लिए हो सकता है, जो वेद व वैदिक वाङ्मय में शोधकार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी शोधार्थी का शोध विषय है ‘वेद में जीव’, तब वह शोधार्थी इस साईट पर जाकर ‘जीव’ लिखकर सर्च करते ही जहाँ-जहाँ जीव शबद आता है, वह-वह सामने आ जायेगा। इस प्रकार अधिक परिश्रम न करके शीघ्र ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।
6. इस साईट का उपयोग विधर्मियों के उत्तर देने में भी किया जा सकता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले एक विवाद चला था कि ‘वेदों में गोमांस का विधान है’ ऐसे में कोई भी जनसामान्य व्यक्ति इस साईट पर जाकर ‘गो’ अथवा ‘गाय’ शबद लिखकर सर्च करें तो जहाँ-जहाँ वेद में गाय के विषय में कहा गया है, वह-वह शीघ्र ही सामने आ जायेगा और ज्ञात हो जायेगा कि वेद गो मांस अथवा किसी भी मांस को खाने का विधान नहीं करता।
7. विधर्मी कई बार विभिन्न वेद मन्त्रों के प्रमाण देकर कहते हैं कि अमुक मन्त्र में ये कहा है, वह कहा है या नहीं कहा। इसकी पुष्टि भी इस साईट के द्वारा हो सकती है, आप जिस वेद का जो मन्त्र देखना चाहते हैं, वह मन्त्र इस साईट के माध्यम से देख सकते हैं।
इस प्रकार अनेक विशेषताओं से युक्त यह साईट है। इस साईट को बनाने वाला ‘आर्य मन्तव्य’ समूह धन्यवाद का पात्र है। वेद प्रेमी इस साईट का उचित लाभ उठाएँगे, इस आशा के साथ।
– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर