वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

सम्पादकीय

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

ईश्वर के समबन्ध में विचार करते हुए इस विषयक सभी संभावनाओं पर विचार करना आवश्यक है। प्रथम समभावना है- ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः ईश्वर की सत्ता भी नहीं है। द्वितीय समभावना है- किसी भी वस्तु को ईश्वर मान लिया जा सकता है। तृतीय समभावना है- यदि वस्तु को ईश्वर मानने में असुविधा है तो चेतन मनुष्य को ईश्वर माना जा सकता है। ये प्रश्न सदा से मनुष्य के लिए विचारणीय रहे हैं और आज भी विचारणीय हैं। इन प्रश्नों के उत्तर भी हमें विभन्न विचारकों के साहित्य में मिलते हैं। इन विचारकों के तर्कों, युक्तियों और प्रमाणों पर विचार करके ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।

प्रथम समभावनाजब-जब हमारे सामने कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं, तब-तब ईश्वर के मानने की आवश्यकता पड़ती है। यह संसार कैसे बना, इसकी बनाने की सामग्री क्या है, इसका बनाने वाला कौन है, संसार में जितने भी चेतन प्राणी दृष्टिगत हो रहे हैं वे कहाँ से प्रकट हो रहे हैं, संसार में उनकी सत्ता का आधार व औचित्य क्या है, जो आये हैं बने हैं वे कहाँ जा रहे हैं, उनका जाना उनकी अपनी इच्छा से है या वे इन सब परिस्थितियों के लिए किसी और के आधीन हैं, इन प्राणियों के जीवन में होनेवाले सुख-दुःख प्राणियों की अपनी इच्छा का परिणाम है या ये भी किसी से नियन्त्रित हैं?1

द्वितीय समभावनाइसके विकल्प में जितने समाधान हो सकते हैं, उनमें प्रथम है- संसार की दृश्यमान वस्तुएँ इस संसार का कारण हो सकती हैं। इसमें दो विकल्प हैं- वस्तु पृथक्-पृथक् रुप में कारण है या इन सबका मेल कारण है?

तृतीय समभावनायदि ये अपने-आप संसार को नहीं बना सकते तो संसार का चेतन दीखने वाला मनुष्य इस संसार का रचयिता हो सकता है। यदि वह समर्थ है तो उसके सुख-दुःख का वह स्वयं नियन्त्रक क्यों नहीं है? इस प्रकार का चिन्तन पुरातन काल से चला आ रहा है और आज भी ये प्रश्न वैसे ही हमारे सामने खड़े हैं।3

ईश्वर नहीं होने का पहला तर्क है- ईश्वर होता तो एक पदार्थ होता और पदार्थों को जाना जाता है, अतः ईश्वर को भी जान लिया जाता। मनुष्य के पास जानने के साधनों के रूप में उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जिनसे संसार के सभी पदार्थ जाने जाते हैं।4 जानने के इन साधनों में से किसी भी साधन से ईश्वर की प्रतीति नहीं होती, अतः ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।

जानने के साधनों में सबसे प्रमुख नेत्र हैं, अतः अधिकांश लोग ईश्वर को आँखों से देखना चाहते हैं। आँखों से देखने का अर्थ वस्तु के रूपवान् होने से लेते हैं। कोई वस्तु रूपवाली होने पर ही दिखाई दे सकती है, परन्तु संसार में केवल आँख से दिखाई देना मात्र किसी वस्तु के होने का आधार नहीं बनता। नेत्र से अतिरिक्त ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे सभी रूप से रहित हैं। जैसे गन्ध, शबद आदि, इनका आँख से कोई समबन्ध नहीं है, परन्तु इन वस्तुओंका अस्तित्व हम सभी अनुभव करते हैं, अतः इनसे जानी जाने वाली वस्तुओं के लिए भी देखना शबद का प्रयोग करते हैं। देखो, शबद कितना मीठा है, गन्ध कितनी अच्छी है! देखो, स्पर्श कितना कोमल है, स्वाद कैसा मधुर है! इस प्रकार देखना शबद का अभिप्राय जानना होता है।

संसार की वस्तुओं को देखने से भी इन बातों की पुष्टि होती है। जो वस्तु साकार है, वह अनेक है। जो साकार है, वह एकदेशीय है। जो साकार है, वह निर्मित है, उसे किसी ने बनाया है, उसका कोई बनाने वाला है। जो बनी है, वह नाशवान् है। जो वस्तु बनी है, साकार है, वह जड़ भी है। इस प्रकार ईश्वर को साकार मानने में बहुत सारी बाधाएँ आती हैं, अतः ईश्वर एक और निराकार है।

इसी प्रकार हम मानते हैं, परमेश्वर खाता है, पीता है, सोता है, अतः परमेश्वर के साथ सभी कार्य जोड़ लिए जाते हैं, जैसे लड़कियाँ छोटी अवस्था में गुड़ियों का खेल करते हुए उन्हें खिलाती, पिलाती, सुलाती हैं। गुड़िया वास्तव में खाती नहीं। बच्ची जानती नहीं, परन्तु इसके मन में सन्देह तो है। लोग पूरे जीवन मूर्ति को खिलाकर आते हैं और उनके मन में सन्देह भी उत्पन्न नहीं होता, यह विचित्रता है।

एक और प्रश्न ईश्वर के समबन्ध में विचारणीय है। कहते हैंअजी, मानो तो पत्थर भी भगवान् है, न मानो तो पत्थर है। यहाँ समझने की बात यह है कि हम ईश्वर है, इसलिए मानते हैं या ईश्वर को मानते हैं, इसलिए वह है। पत्थर को भगवान् मानने की बात से तो लगता है- ईश्वर है नहीं, केवल हम मानते हैं, इसलिए है। मानने और होने में बड़ा अन्तर है। मानने पर केवल मानने वाले के लिए ही वह होता है, जो नहीं मानते उनके लिए वह नहीं हो सकता। इसके विपरीत होने पर सबके लिए मानने की बाध्यता है। उदाहरण के लिए इस बात को इस तरह समझा जा सकता है। एक व्यक्ति का एक पुत्र है, इसको पिता भी मानता है, पुत्र भी मानता है, दूसरे लोग भी मानते हैं। दूसरे व्यक्ति का पुत्र नहीं है, उसने किसी बालक को गोद लिया है, परन्तु वह उसे पुत्र मानता है, पुत्र भी उसे पिता मानता है, अन्य लोग भी वैसा ही स्वीकार करते हैं। एक मनुष्य किसी जानवर को बेटा कहता है, कुत्ते को बेटा कहता है, गाय को माता कहता है। माननेवाला व्यक्ति कहता है, कहता रहे, वह कुछ भी मानता रहे, परन्तु न प्राणी उसे अपना पिता मानता है, न अन्य लोग। इसी भाँति पत्थर को न तो दूसरा कोई भगवान् मानता है, न पत्थर स्वयं को भगवान कहता है। भूमि को हिन्दू माता कहकर नमन करता है, मुसलमान ऐसा करने से इन्कार कर देता है। जब हम किसी वस्तु को भगवान् मानते हैं, तब वह वस्तु भगवान् होती नहीं, हम केवल उसे मानते हैं। इसी कारण जो जिसको चाहे भगवान् मान सकता है और वह वस्तु उसके लिए भगवान् होती है। यही भगवान् के अनेक होने का कारण है। कोई स्थान को भगवान् मानता है, कोई पिण्ड को, कोई पहाड़ को, कोई पशु को, कोई पृथ्वी को, कोई पानी को, कोई पुस्तक को, कोई व्यक्ति को । ईश्वर है हम इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए ईश्वर है।

वस्तु के ईश्वर मानने में एक बाधा और आती है, वह बाधा है-हम वस्तु को ईश्वर मानते हैं या उसमें विद्यमान रूप को? क्योंकि ईश्वर के दर्शनों की इच्छा से वस्तु में रूप को ही मुखय मानते हैं, अन्य गुणों का हमारे लिए बहुत महत्त्व नहीं होता। इस मान्यता में जो शंका है, वह यह कि यदि वस्तु को ईश्वर मानते हैं तो वस्तु मात्र ईश्वर होगी, तब यदि हमारा पत्थर भगवान् है तो ईसाई का, मुसलमान का या किसी और का पत्थर भी भगवान् ही होगा। यदि आकृति को भगवान् मानेंगे तो प्रश्न उठेगा- आकृति विशेष भगवान् है या आकृति सामान्य? आकृति सामान्य भगवान् मानने पर सभी आकृतियाँ भगवान् होंगी, हर आकृति भगवान् होंगी। यदि आकृति विशेष को भगवान् मानें तो व्यवहार में ऐसा नहीं पाया जाता, अनेक वस्तुएँ भगवान् के रूप में पूजी जाती हैं और अनेक आकृतियों के रूप में भगवान् देखा जाता है, अतः भगवान् है इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए है।

मूर्ति पूजा करते समय एक और प्रश्न उपस्थित होता हैहम मूर्ति को भगवान् मानते हैं, उसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि जिससे मिलने और जिसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं, हम उसके सामने आँखें बन्द करके क्यों बैठते या खड़े होते हैं? यदि हम किसी से मिलने किसी के घर पर जायें और उसके सामने बैठकर आँख बन्द करके ‘बन्धु, आपके दर्शनों के लिए आया हूँ’ ऐसा कहें तो गृहस्वामी उस व्यक्ति को अवश्य ही मूर्ख कहेगा, परन्तु मूर्ति के सामने सदा हम आँखें बन्द करके बैठना पसन्द करते हैं तो यह और भी अनुचित है। जो मिल गया, उसका ध्यान नहीं किया जाता, ध्यान तो अज्ञात का किया जाता है। प्राप्त से तो व्यवहार किया जाता है।

मनुष्य जब भी परमेश्वर का ध्यान या विचार करता है तो दो कार्य उससे स्वाभाविक रूप से होते हैं- एक आँखों का बन्द करना और हाथों का जुड़ना। हाथों का जुड़ना स्तुति का प्रतीक है, हाथों से स्तुति की जाती है। संस्कृत में हाथ को पाणि कहते हैं। पाणि कहने का कारण है- इससे स्तुति और व्यवहार किया जाता है। आँख बन्द करना किसका द्योतक है? इसको समझने के लिए हमें जीवन के प्रारमभ को देखना होगा। जब बालक छोटा होता है, हम उसे संसार की वस्तुओं से परिचित कराते हैं। बालक धीरे-धीरे वस्तुओं को पहचानने लगता है। हम बार-बार वस्तु को दिखाकर उसका नाम पुकारते हैं। इस आवृत्ति से बालक वस्तु और नाम से सबन्ध स्थापित कर लेता है। फिर उसे वस्तु के दिखने पर नाम और नाम के सुनने पर वस्तु का बोध होता है। वह जब-जब भी नाम सुनता है, वस्तु की समभावित उपस्थिति की दिशा में देखता है। चूँकि ईश्वर नाम की भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बालक का परिचय कराया गया होता है, अतः वह उन्हीं नाना पदार्थों को ईश्वर कहता, जानता और मानता है। ईश्वर के इस बाह्य परिचय के साथ प्रत्येक मनुष्य का ईश्वर के विषय में एक आन्तरिक परिचय होता है, जिसके कारण मनुष्य कहीं भी खड़ा हो चाहे मस्जिद में, मन्दिर में, चर्च में या गुरुद्वारे में, उसके मन में भगवान् के भाव आते ही उसके हाथ जुड़ जाते हैं  और उसकी आँखें बन्द हो जाती हैं, क्योंकि मनुष्य का आन्तरिक भाव कहता है कि ईश्वर का साक्षात्कार एक आन्तरिक प्रक्रिया है। उसे आन्तरिक दृष्टि से ही देखा जा सकता है, बाह्य चक्षुओं से नहीं। परमेश्वर का ध्यान आते ही हमारी दृष्टि अन्दर की ओर चली जाती है, अतः स्वाभाविक रूप से हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं।

आगे की बात है कि यदि मूर्ति पूजा व्यर्थ है, असत्य है तो प्रश्न उठता है- मूर्ति पूजा चल क्यों रही है? चल ही नहीं रही, अपितु दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लोग कहते हैं- इतनी बड़ी संखया में लोग मूर्ति पूजा कर रहे हैं वे सब गलत कैसे हो सकते हैं? प्रथम बात पर विचार करते हैं। दुनिया में कोई भी बात अथवा कोई क्रिया नितान्त मिथ्या शत-प्रतिशत हानि करनेवाली नहीं होती। पञ्चतन्त्र में कथा आती है अन्धे को मछली के स्थान पर उसे मारने के लिए साँप पकाकर देना चाहा। उस अन्धे को ही पक रहे साँप वाली कड़ाही चलाते रहने के लिए कह दिया, साँप के विषैले धुएँ से अन्धे को दिखने लग गया। उसने कुबड़े व्यक्ति को क्रोध में पीठ पर लात मारी तो वह व्यक्ति सीधा हो गया। यही हाल मूर्ति पूजा में भी है। दुःखी व्यक्ति को जो भी मिलता है, उसे बिना विचारे स्वीकार कर लेता है, उसी का सहारा ले लेता है, अतः जिसको मूर्ति का सहारा दे दिया जाता है, वह उसे पकड़े रहता है। व्यक्ति एक क्षण के लिए भी असहाय नहीं रहना चाहता, सत्य उसे मिलता नहीं, असत्य को भय के कारण छोड़ता नहीं । वैसे जो भी मूर्ति में सुख का अनुभव करता है, वह मूर्ति के उपासक की अपनी मनोदशा है, उसमें मूर्ति का कोई योगदान नहीं होता। मूर्ति जड़ है, अतः वह कोई सहायता नहीं कर सकती, परन्तु वहाँ का वातावरण और उपासक की मनःस्थिति उसे दुःखमय वातावरण से कुछ समय के लिए दूर ले जाती है। पुरानी परिस्थिति से निकलकर नई परिस्थिति में आने से मनुष्य का ध्यान बँटता है तथा कुछ समय के लिए वह तनाव से मुक्त हो जाता है।6

मनुष्य के साथ एक और बात भी उसे अपने पुरानेपन से दूर नहीं होने देती। मनुष्य को जीवन में जो विश्वास मान्यता, परमपरा, भोजन आदि पहले मिल जाता है, वह उसे सहज स्वीकार कर लेता है तथा उसे श्रेष्ठ मानता है, उसे बचाने का प्रयास भी करता है। कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई पौराणिक है उसे संस्कार, भोजन, मान्यता जैसी मिल जाती है, स्वाभाविक रूप से वह उन्हें स्वीकार कर लेता है। वह जल्दी से उसे नहीं छोड़ता। फिर प्रश्न उठता है- ऐसे व्यक्ति को बदलने का प्रयास क्यों करना चाहिए? मनुष्य बदल सकता है, यदि उसे प्राप्त से श्रेष्ठ विकल्प दिया जाए। मनुष्य स्वभाव से जहाँ है, यदि उसे उससे अच्छी वस्तु, उत्तम स्थिति, अधिक लाभ का अवसर मिले तो वह स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति को नये विचार अच्छे लगते हैं तो वह उन विचारों को स्वीकार कर लेता है। इसी कारण गुरुलोग, पैगमबर लोग अपने अनुयायी और भक्तजनों को किसी दूसरे की बात सुनने से रोकते हैं। मुस्लिम समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह किसी दूसरी बात को स्वीकार करना तो दूर, अपने पैगमबर से भिन्न बात को सुनना भी स्वीकार नहीं करता।

समाज में एक और तर्क है। संसार में अधिकांश लोग मूर्ति पूजा करते हैं और मूर्ति को ईश्वर मानते हैं। यह मान्यता नितान्त मिथ्या है कि संखया अधिक होने से कोई बात सत्य होती है। यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो अनपढ़ और मूर्खों की संखया इस संसार में अधिक है और अधिक ही रहेगी, क्योंकि अनपढ़ उत्पन्न होते हैं, शिक्षित बनाये जाते हैं। जो वस्तु बनाई जाती है, वह स्वयं बनने वाली वस्तु से मात्रा व संखया में सदा न्यून होगी, अतः यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि एक गाँव में एक हजार लोग रहते हैं, नौ सौ निन्यानवे अनपढ़ हैं और एक शिक्षित है तो समाज में किसको अच्छा समझा जाएगा? सत्य और संखया में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

शेष भाग अगले अंक में…..

2 thoughts on “वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप”

  1. *ईश्वर अंश जीव अविनाशि के आधार पर हम हमारे जीव स्वरुप पर ही ध्यान करें तो क्या हमारे अंश(अन्न सांससे उत्पन्न प्राणों पर टीका जीव) ईश्वर से अलग है क्या ?*
    और हमें अन्न क्यों खाना है ? बस जड शरीर को टीका कर रखने के लिए।
    हमे प्राणों की आवश्यकता भी इसी जड शरीर को चलाने भर के लिए है बस।
    पर सांस पकडकर रखें तो ईश्वर ही है जो संपूर्णत: जड शरीर में भर के मस्तिष्कमें एकाग्रचित्त द्वारा होती अनुभूति है।

    1. इश्वर का अंश नहीं होता है आत्मा | इश्वर प्रकृति और आत्मा अनादि अजन्मा और अन्नत है |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *