गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों? : डॉ धर्मवीर

गोमूत्र में सुवर्ण तो गोदुग्ध में विष क्यों?

29 जून 2016 को समाचार पत्रों में यह समाचार प्रमुख रूप से प्रकाशित हुआ है कि अनुसन्धान से सिद्ध हुआ है कि गोमूत्र में सुवर्ण के कण पाये गये हैं। समाचार की मुखय सूचना इस प्रकार है-

गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के बायो टेक्नोलोजी विभाग के प्रमुख उक्त अनुसंधान करने वाली टीम के अगुवा डॉ. बी.ए. गोलकिया ने बताया कि गुजरात के सौराष्ट्र इलाके के गिर में पाई जाने वाली गायों के मूत्र में प्रति लिटर तीन से दस मिलीग्राम तक सोना, 2 मिलीग्राम चाँदी, 025 मिलीग्राम जस्ता और 1.2 मिलीग्राम बोरॉन होने की पुष्टि हुई है। यही नहीं, इनके अतिरिक्त अन्य 5100 रसायनों की भी पहचान की गई, जिनमें एंटी कैंसर, एंटी कॉलेस्ट्रोल, एंटी डायबिटीज, एंटी एजिंग के गुण वाले रसायन शामिल हैं। ऐसा प्रयोग गायों की अन्य प्रजातियों पर नहीं हुआ है। यह सोना जैविक सोना है, जो चिकित्सकीय गुणों के मामले में लाजवाब तथा आम तौर पर चिकित्सा के लिये प्रयुक्त होने वाली स्वर्ण भस्म आदि से कहीं आगे है।

इस देश का यह दुर्भाग्य है कि अनुसन्धान में गोमूत्र में सुवर्ण की उपस्थिति प्रमाणित हो रही है, परन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति दूध के नाम पर जो पी रहा है, खा रहा है, वह केवल विष है। पहले समय में दूध जब अधिक था, अतिथि का सत्कार दूध से किया जाता था, पानी पिलाना समान के प्रतिकूल समझा जाता था। तब इस देश में गौओं की संखया मनुष्यों से अधिक थी। जैसे-जैसे हिंसा के कारण, अनुपात घटता गया, परिस्थितियाँ बदलती गईं। दूध माँगने पर भी दूध न मिले, ऐसी दशा में दूध में पानी मिलाकर दिया जाने लगा। दूध में पानी की मिलावट करना, उसे बेचना एक सर्वप्रचलित अपराध बन गया। घर में दूध की मात्रा कम होने पर पानी मिला कर उसकी पूर्ति करना एक सामान्य आचार बन गया। पशुओं की निरन्तर घटती संखया ने इस परिस्थिति को बदल दिया। अब दूध में पानी मिलाने के स्थान पर पूरा दूध ही नकली बनने लगा। दूध वाशिंग पावडर, तेल आदि डालकर बनाया जाने लगा। एक बार दिल्ली में श्री कृष्णसिंह जी के गाँव में कार्यक्रम में जाते हुए वहाँ के निवासी ने बताया- आचार्य जी, इस गाँव में पशु नहीं हैं, परन्तु हजारों लीटर दूध प्रतिदिन डेयरी को भेजा जाता है। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ऐसा दूध डेयरी में एक गाँव से लिया जा रहा है, तो क्या शेष लोग मूर्ख हैं जो शुद्ध दूध डेयरी को देंगे? एक बार उत्तर प्रदेश में दिल्ली की ओर आने वाले दूध की जाँच की जाने लगी तो सारे के सारे दूध बेचने वालों ने अपना दूध सड़कों पर फेंक दिया और किसी भी प्रकार के परीक्षण के लिये तैयार नहीं हुए। उस समय समाजवादी नेता और मुखयमन्त्री मुलायमसिंह की टिप्पणी थी- दूध बेचने वालों को भी तो अपने बच्चे पालने हैं, वे मिलावट नहीं करेंगे तो उनके परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा? इस प्रकार दूध में मिलावट ही नहीं, नकली दूध को भी हमने मान्यता दे दी, चाहे ऐसा करने से किसी की भी मृत्यु हो तो हो!

दूध की कमी को पूरा करने के लिये बाजार में सोयाबीन और मूंगफली का दूध बनाकर बेचा जाने लगा। सोयाबीन और मूंगफली का घोल दूध जैसा दीखता है, तो कुछ गुण भी मिलते हैं, परन्तु वह घोल क्या दूध का स्थान ले सकता है? इधर हमारा अनुसन्धान विपरीत दिशा में बढ़ता ही जा रहा है। दूध का आधार पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु को समाप्त कर दूध के विकल्प खोज रहे हैं। पशु बढ़ाने के स्थान पर पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने की बात करते हैं। पशु से अधिक दूध प्राप्त करने के लिये पशुओं पर तरह-तरह के अत्याचार करते हैं। दूध के लिये पशुओं को इंजेक्शन लगाते हैं, यह बिना सोचे कि इसका पशु पर और दूध पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह एक कष्ट व पीड़ा देने वाला उपाय है। इस औषध का उपयोग प्रसव शीघ्र कराने के लिये किया जाता है। इसके लगाने से गर्भाशय में संकोच होकर शीघ्र प्रसव होता है। इस इंजेक्शन के लगाने से पशु में प्रसव पीड़ा होती है बिना सोचे दिन में दो बार पशुओं को यह इंजेक्शन लगाते हैं।

इस दवा का यदि पशु पर प्रभाव पड़ता है तो दूध पर भी पड़ता है, दूध में इसके प्रभाव से जो बच्चे ऐसा दूध पीते हैं, उनके अन्दर वयस्कता का भाव जल्दी प्रकट होने लगता है। जो बच्चे 15-16 वर्ष में बड़े लगते थे, उनमें यह परिस्थिति 10-12 वर्ष में ही दिखाई देने लगती है। ऐसा दूध, दूध के प्राकृतिक गुणों से रहित हो जाता है। हम दूध अधिक लेने के लिये गाय-भैंस के बच्चों को मार देते हैं तथा कई लोग उनके अन्दर भूसा भर देते हैं। जब दूध निकालना होता है, तब उसे पशु के सामने रख देते हैं, पशु उसे चाटता है और आप सरलता से दूध निकाल लेते हैं। यह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये किया जाने वाला पाप है।

हमारे समाज में दूध की आवश्यकता तो बढ़ रही है, परन्तु दूध का स्रोत घट रहा है, ऐसी परिस्थिति में अपराध ही शरण बन जाता है। चोरी और मिलावट तभी होती है, जब वस्तु दुर्लभ हो। आज कोई व्यक्ति कितने भी पैसे देकर शुद्ध घी-दूध प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उसके अपने पशु न हों। हमें दूध, दही, मक्खन, पनीर, मावा, मिठाई, घी-सब कुछ चाहिए, परन्तु गाय नहीं चाहिए, तब ऊपर बताये सब विकल्प ही काम आयेंगे। गत दिनों मध्य प्रदेश के एक गाँव में जाने का अवसर मिला, वहाँ एक व्यक्ति भट्टी जलाकर मावा बना रहा था। हमने सोचा-अच्छा मावा मिलेगा, ले चलते हैं। भट्टी के पास जाकर बैठे, तो एक व्यक्ति चमच से डालडा दूध में मिला रहा था। पूछने पर पता लगा कि पहले यह व्यक्ति गाँव से दूध लाता है, उसकी क्रीम निकाल कर घी बनाता है, फिर बचे हुए दूध में वनस्पति तेल डालकर मावा बनाता है। आज जितने भी उपाय जिसको आते हैं, उतने उपायों से दूध और खाद्य पदार्थ बनाये जा रहे हैं। इसमें भारत हो या विदेश, गरीब हो या अमीर, गाँव हो या शहर, किसी की कोई भी सीमा नहीं है। जितना अपराध नगर में होता है, उससे कम ग्राम में नहीं होता। जितना हमारे देश के अन्दर दूध में मिलावट का पाप हो रहा है, उससे अधिक यूरोप अमेरिका आदि के नगरों में किया जा रहा है। वहाँ अपराध करने का प्रकार वैज्ञानिक साधनों से साफ-सुथरा, आधुनिक है। हमारे देश में दूध में मिलावट करते हैं, उन्होंने गाय में ही मिलावट कर दी।

आज बड़ी-बड़ी विदेशी कमपनियों का दूध और दूध का चूर्ण विष के अतिरिक्त कुछ नहीं है। भारत की सभी डेयरियाँ दूध की मात्रा को पूर्ण करने के लिये इसी दुग्ध चूर्ण का उपयोग करती हैं। यूरोप के लोगों ने दूध के लिये नई गाय बना डाली, इन गायों को हम जर्सी, रेड डेन, हेलिस्टन आदि के नाम से जानते हैं। इनसे प्राप्त होने वाले दूध की मात्रा ने हमें पागल बना दिया है। हम अपनी गिर, राठी, साहीवाल, नागौरी, थारपारकर आदि सैंकड़ों देसी नस्ल को छोड़कर विदेशी गायों को ले आये। उनके बीज से अपनी गायों को संकर नस्ल का बना लिया। आज जब विदेशों में अनुसन्धान किया गया, तो पता चला कि हम ठगे गये। विदेशी गायों के दूध से मधुमेह, कैंसर घुटने का दर्द जैसी अनेक बीमारियाँ हमारे समाज में बढ़ रही हैं, परन्तु विदेशी कमपनियों का अरबों-खरबों का व्यापार दूध, दूध के पाउडर, घी तथा दुग्ध उत्पादों का है, वे इस पाप को न रोकना चाहते हैं, न प्रकाशित होने देना चाहते हैं। वास्तव में गाय जैसा दीखने वाला विदेशी पशु अमेरिका में पाये जाने वाले जंगली सूअर और युरास नामक पशु के प्रजनन से अधिक दूध और अधिक मांस प्राप्त करने के लिये वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई एक नई प्रजाति है। इसके कारण इस मांस और दूध का सेवन करने वाले चाहे अमेरिकी हों या भारतीय, सभी में घातक रोग बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं।

आजकल जहाँ यह पशु है, उन देशों ने भी इन पशुओं के दूध को पीना छोड़ दिया है और वहाँ के लोग इसे सफेद जहर मानने लगे हैं। वहाँ के लोग मांस के लिये भी भारतीय गाय को ही पसन्द करते हैं, इस कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा गो-मांस निर्यात करने वाला देश बन गया है। दूध के लिये जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों ने भारत की गिर गाय को बहुत वर्षों पहले से ले जाना प्रारमभ किया था। आज वहाँ बड़ी संखया में इनका पालन किया जाता है। आज वहाँ इन देसी गायों का मूल्य एक करोड़ रुपये प्रति गाय तक पहुँच गया है। हम अपने पशु और अपने मनुष्यों के स्वास्थ्य का मूल्य नहीं समझते हैं, अतः विदेशी गायों के प्रति मोह रखते हैं, उनके दूध से अपने अन्दर कैंसर, मधुमेह, घुटनों के दर्द जैसे रोगों को आमन्त्रण दे रहे हैं। हम मांस के लिये सोना देने वाली गाय को मार रहे हैं।

आज हमें विचार करने की आवश्यकता है कि केवल दूध की मात्रा का लोभ करने से समस्या का हल नहीं होगा। इसके मूल में जाकर इस समस्या का हल करना होगा, नहीं तो महर्षि दयानन्द का यह वाक्य सार्थक होगा- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों कीाी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु  सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना दूध, घी और बैल आदि पशु इस समय दस गुने मूल्य सेाी नहीं मिल सकते, क्योंकि सात सौ वर्षों में इस देश में गौ आदि पशु को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं। वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड़-मांस तक भी नहीं छोड़ते, नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्। जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे। हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं?

हम जहाँ पशुओं को मारकर दूध बढ़ाने के उपाय कर रहे हैं, उसी प्रकार उपजाऊ भूमि को घटाकर अन्न बढ़ाने का उपाय भी कर रहे हैं, यह गणित उल्टा पड़ेगा। अन्न भी नकली और बीमार मिलेगा, दूध भी नकली और रोगकारक ही प्राप्त होगा। इन दोनों समस्याओं का हल हमारी प्राचीन परमपरा में निहित है। उसका हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है। पुराने समय में जंगलों की सुरक्षा अनिवार्य थी। नगर-ग्राम के समीप जो जंगल होते थे, वह गोचर भूमि कहलाती थी। जंगल के अधिक होने से पशुओं की सुरक्षा और वृद्धि सहज समभव है, वहीं जंगल के कारण वनस्पतियों की प्राप्ति से दूध में औषधीय गुण प्राकृतिक रूप में सहज प्राप्त होते हैं। गाय आदि पालतू पशुओं के अतिरिक्त जंगली पशु-पक्षियों की भी सहज रक्षा हो जाती है। जंगल में घूमने वाली गायों के दूध से आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम आदि सद्गुण मनुष्यों में बढ़ते हैं। पशु-पक्षियों की अधिकता से जंगल में गोमूत्र-गोबर आदि से भूमि को पर्याप्त खाद मिलने से वृक्ष-वनस्पतियों की वृद्धि होती है। वृक्षों की अधिकता से वर्षा, जलवायु की शुद्धता तथा उष्णता की मात्रा भी कम हो कर वातावरण सौमय बनता है। इसका दूसरा लाभ भी होता है। दूध-घी की मात्रा अधिक होने से गरीब-से-गरीब आदमी को भी उचित पौष्टिक भोजन मिलता है तथा दूध-घी का उपयोग करने वाले व्यक्ति को अन्न खाने की कम ही आवश्यकता पड़ती है। इससे मलमूत्र, दुर्गन्ध भी न्यून होकर पर्यावरण की शुद्धि होती है। रोग कम होते हैं। दुर्गन्ध कम रहने से वायु व वृष्टि-जल की शुद्धि बनी रहती है।

आज हम दूध की कमी को अन्न से पूर्ण करना चाहते हैं। मांस को अन्न का विकल्प मान बैठे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि मांस खाने वाला व्यक्ति अन्न भी अधिक खाता है। अधिक अन्न से रोग बढ़ते है। मांस खाने वाले लोग पशुओं को समाप्त कर देंगे तो दूध तो समाप्त होगा ही, मनुष्य की प्रकृति मांसाहारी होकर मनुष्य का मांस खाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस सबका उपाय गो-संवर्धन है। जब तक मनुष्यों के पास अधिक गायें नहीं होगी, तब तक समस्या का हल नहीं होगा। पशु-पक्षी अधिक हों, इसलिये परमेश्वर ने जंगल अधिक बनाये हैं। ईश्वर की सृष्टि में मनुष्यों से अधिक पशु-पक्षी आदि अधिक रहने से ही मनुष्यों का कल्याण समभव है। इनके लिये भोजन की व्यवस्था परमेश्वर ने प्राकृतिक रूप से की है। घास, वृक्ष, फल-फूल, पशु-पक्षियों के लिये बनाये हैं। सारी वनस्पतियाँ स्वयं उत्पन्न होती हैं। परमेश्वर ने पशु-पक्षियों की मात्रा मनुष्य के भोजन से अधिक बनाई है। पशु-पक्षियों को भोजन के लिये खेत नहीं जोतना-बोना पड़ता, इसलिये प्रकृति में इनका अधिक होना मनुष्य के हित में है। परमेश्वर के नियम के विपरीत चलकर हम कभी सुखी नहीं रह सकते। अतः वेद ने कहा है-

यजमानस्य पशून् पाहि।।

– धर्मवीर

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