क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?

बुधवार 11 मई को आदि शंकराचार्य की जयन्ती मनाई गई। इस अवसर पर संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं विचारक पी. परमेश्वरन द्वारा स्थापित स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ.) नवोदयम् तथा फेथ फाउण्डेशन ने सरकार से माँग की है कि आदि शंकराचार्य के जन्मदिन को राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस के रूप में मनाया जाय। इस अवसर पर केन्द्रीय संस्कृति राज्य मन्त्री महेश शर्मा ने बताया कि सरकार इस प्रकार के प्रस्ताव पर विचार कर रही है।

इस समारोह में बताया गया कि संघ के संयुक्त महासचिव को भाजपा से वार्ता करने के लिये अधिकृत किया गया है। समारोह में अखिल भारतीय सह प्रचारक जे. नन्दकुमार एवं अनेक प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। अनेक वक्ताओं ने शंकराचार्य के दर्शन को शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में समिलित करने की माँग की। संघ के विचारक पी. परमेश्वरन का नाम पढ़कर मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आया। कुछ वर्ष पूर्व मुझे केरल यात्रा के प्रसंग में उनसे भेंट करने का और वार्तालाप करने का अवसर मिला था। उन्होंने उदारतापूर्वक दो घण्टे तक वार्ता की। मुझे आश्चर्य हुआ, जब मुझे उनके विचार सुनने को मिले। उस समय तक वे आर्य द्रविड़ सिद्धान्त को उचित मानते थे, आज इस विषय में उनके विचारों में परिवर्तन आ गया हो तो प्रसन्नता की बात है। दूसरी बात, ईश्वर को एक और निराकार मानना कैसे सम्मभव है? उनके विचार से भारत में जितने मत-सप्रदाय और विचार हैं, उनमें सबके अपने ईश्वर हैं और सभी ठीक हैं। यह हिन्दू समप्रदाय की विशेषता है। परमेश्वरन इसको ठीक मानते हैं, परन्तु सिद्धान्त इसे मिथ्या कहता है। परमेश्वरन से जुड़ा एक प्रसंग और है। उन्होंने पणजी में एक शोध-संस्थान बनाया। इसे केरल की कमयुनिस्ट सरकार ने मान्यता देने से मना कर दिया, तो राजस्थान की भाजपा सरकार ने उस संस्थान को महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, अजमेर से मान्यता दिला दी।

जब तक कांग्रेस की सरकार थी, ईसाई-मुसलमानों की मौज थी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने अल्पसंखयक सुरक्षा विधेयक के माध्यम से अपना उद्देश्य और विचार प्रकाशित कर दिया था। यदि बिल संसद में पारित हो जाता तो यह भारत हिन्दुओं का न होकर, आधा इस्लाम और आधा ईसाइयों का हो जाता। समभवतः परमेश्वर को ऐसा स्वीकार नहीं था, अतः भारतीयता की प्राप्त आसन्न मृत्यु होते-होते बच गई। आज से पहले हिन्दुत्व के नाम पर किसी बात की माँग करना तुच्छ और आधुनिक युग में निन्दनीय माना जाता था, इस चुनाव ने नरेन्द्र मोदी को विजयी बनाकर हिन्दुत्व को समाप्त होने से बचा लिया। यह तो इतिहास की गौरवपूर्ण घटना रही।

अब हिन्दुत्व को स्वाभाविक रूप से अपने स्वरूप को प्रकाशित करने का अवसर है। यदि हिन्दुत्व में प्रचलित धारणाएँ सत्य और हितकर होतीं, तो उनकी पुनः स्थापना करने में कोई बुराई नहीं थी। हिन्दुत्व इस देश का दुर्भाग्य रहा है। हिन्दुत्व के नाम पर जो पाखण्ड, अज्ञान, शोषण और कायरता इस देश में फैली है, वही इस देश में दासता का कारण है। क्या हिन्दुत्व के नाम पर उन्हीं सब बातों को महिमा-मण्डित करना उचित होगा? हमारा विचार है कि पाखण्ड, अज्ञान, अन्याय एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार को हिन्दुत्व के नाम पर न कभी स्वीकार किया जा सकता है, न ऐसे विचार का समर्थन किया जा सकता है, फिर वह विचार चाहे सरकार का हो या किसी नेता, मन्त्री का।

आज ऐसे विचार और ऐसी माँगों की बाढ़ आ गई है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व के नाम पर प्रचलित प्रत्येक मूर्खता, सत्ता से मान्य कराने की स्पर्धा प्रारमभ हो गई है। गंगा या क्षिप्रा में स्नान करने के धार्मिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक लाभ हो सकते हैं, परन्तु यह कहना कि गंगा में स्नान करने से मुक्ति मिलती है, यह पहले भी पाखण्ड था और आज भी पाखण्ड है। इसको कौन कह रहा है- इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।

आज समाचार पत्रों में ‘शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक’ घोषित करने की सरकार की योजना है। ये विचार भी पाखण्ड पूर्ण हिन्दुत्व का ही परिणाम है। आचार्य शंकर अपने समय के अद्वितीय दार्शनिक ब्राह्मणधर्म के पुनरुद्धारक रहे हैं। जिस समय यह सारा देश जैन और बौद्ध मान्यताओं का शिकार हो गया था, वेद का पठन-पाठन समाप्त प्रायः था, वैदिक धर्म का लोप था, उस समय सारे मत-मतान्तरों के आचार्यों को शंकर ने शास्त्रार्थ में पराजित् करके सभी राजाओं, विद्वानों को वैदिक धर्म का अनुयायी बनाया था। देश के चार कोनों में शंकराचार्य ने पीठों की स्थापना करके सारे देश को अपना अनुयायी बना लिया था।

आचार्य शंकर के महत्त्व को स्थापित करने वाली एक घटना आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। गुरुकुल ज्वालापुर के स्नातक और निरुक्त के हिन्दी भाष्यकार पं. भगीरथ शास्त्री गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के उपाध्याय थे। वे सेवानिवृत्त होकर अपने गाँव लौटने लगे, तब अपने पुराने शिष्य डॉ. रामवीर शास्त्री से मिलने श्रद्धानिकुञ्ज स्थित हमारी कुटिया में पधारे, उस समय हम कुटिया में तीन छात्र रहते थे- डॉ. रामवीर, डॉ. सुरेन्द्र- वर्तमान कुलपति गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय तथा इन पंक्तियों का लेखक। बहुत समय अपने मधुर उपदेशों का वे हमें पान कराते रहे। आशीर्वाद देकर जाने लगे। बीस कदम गये, लौटे तो हम लोगों ने सोचा कि गुरुजी कोई वस्तु भूल गये हैं, लेने आये हैं। वे आये तो कहने लगे- मैं एक बात तो कहना भूल ही गया। हमने उत्सुकता से पूछा- बताइये। वे बोले- देखो, यदि पाण्डित्य क्या होता है- यह जानना हो तो आचार्य शंकर को पढ़ना, भाषा क्या होती है, उस पर अधिकार कैसा होता है- यह जानना हो तो आचार्य पतञ्जलि का महाभाष्य पढ़ना और विषय की व्यापकता जाननी हो तो व्यास रचित महाभारत पढ़ना, बस यही कहने आया था। गुरुजी का विद्या-प्रेम देखकर हम गद्गद् हो गये।

इसी प्रकार एक बार आर्य जगत् के मूर्धन्य विद्वान्, उच्च वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश जी के साथ ऋषि उद्यान अजमेर में घूमते हुए आचार्य शंकर के पाण्डित्य पर चर्चा चल रही थी। स्वामी जी कहने लगे- आचार्य शंकर स्वयं इतने विद्वान् थे कि वे चाहते तो अपना नया दर्शन बना सकते थे। स्वामी जी से मैंने पूछा- फिर उन्होंने बनाया क्यों नहीं? तब स्वामी जी ने उत्तर दिया- यदि वे अपना दर्शन बनाते तो उसे पढ़ता कौन? किसी भी नई वस्तु को स्थापित होने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं। आचार्य शंकर ने सरल मार्ग अपनाया। जो दर्शन समाज में प्रचलित था, उसी का अर्थ अपने अनुसार करने का प्रयास किया और उन्होंने उसे शिष्यों में प्रचारित किया। भले ही वह सर्वमान्य नहीं हुआ, परन्तु आज सारे दर्शन की बात करने वाले शंकर का नाम लेकर ही वेदान्त की बात करते हैं। यह आचार्य शंकर का वेदान्त सूत्रों के साथ बलात्कार है। जो बात सूत्र में है ही नहीं, आचार्य शंकर उन सूत्रों की व्याखया में निकालते हैं। यह उनकी योग्यता या पाण्डित्य हो सकता है, औचित्य नहीं।

वर्तमान युग के दर्शनों के व्याखयाकार आचार्य उदयवीर जी ने वेदान्त दर्शन की व्याखया करते हुए आचार्य शंकर के अद्वैत पर टिप्पणी करते हुये लिखा है- आचार्य शंकर का अद्वैत, वेदान्त दर्शन से वही समबन्ध रखता है, जैसे दुकान और मकान में ‘कान’ के होने का कोई निषेध नहीं कर सकता, परन्तु ‘कान’  का दुकान, मकान से कोई सबन्ध नहीं है।

ऋषि दयानन्द यद्यपि आचार्य शंकर के सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं, परन्तु उनकी विद्वत्ता और कार्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- यदि आचार्य शंकर ने ये सिद्धान्त बौद्धों के खण्डन के लिये स्वीकार किये हैं, तो तात्कालिक उपयोग के लिये हो सकते हैं, परन्तु सत्य के विपरीत हैं।

आचार्य शंकर बड़े पण्डित और धर्म संस्थापक रहे हैं, परन्तु क्या उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित किया जाना उचित होगा? आचार्य शंकर की भाँति अनेक आचार्यों ने वेदान्त पर अपनी-अपनी  व्याखया लिखी, शंकर की व्याखया प्रचलित अधिक होगी, परन्तु सर्वमान्य नहीं रही है, अतः ऐसे में लोगों के बीच में उच्चता की स्थापना न्याय संगत नहीं है।

आचार्य शंकर मौलिक दर्शनकार की योग्यता रखते हैं, परन्तु मौलिक दर्शनकार नहीं है। उन्होंने वेदान्त सूत्रों पर अपना भाष्य किया नहीं, थोपा है। यह मूल शास्त्र और शास्त्रकार के साथ अन्याय है।

जब भी सूत्रों और उपनिषदों की प्रसंगों की व्याखया करनी होती है, आचार्य शंकर उन शबदों, वाक्यों का सहज संगत अर्थ छोड़कर- इसका अभिप्राय यह है- कहकर अपनी बात वहाँ स्थापित करते हैं। जैसे अर्थ तो निकल रहा है, यह जीवात्मा का स्वरूप है तो अर्थ कहते हुए बतायेंगे- अखण्ड अद्वैत ब्रह्म के अंश का कथन है। अर्थ तो निकला घोड़ा आ रहा है, आचार्य शंकर कहेंगे- इसका अभिप्राय ऊँट आ रहा है।

आचार्य शंकर ब्राह्मण धर्म के संस्थापक थे, परन्तु ब्राह्मण धर्म की कुरीतियों का उन्होंने खण्डन नहीं किया, अपितु स्पष्ट रूप से उनका समर्थन किया है। उनका सिद्धान्त उस काल की प्रचलित परमपरा होने पर भी स्वीकार्य नहीं हो सकता, आचार्य शंकर कहते हैं- द्वारं किमेकं नरकस्य नारी। नरक का एक मात्र द्वार नारी है। क्या इस कथन को आज स्वीकार किया जा सकता है? यदि पुरुष की दृष्टि में नारी नरक का द्वार है तो नारी की दृष्टि में पुरुष नरक का द्वार क्यों नहीं? राष्ट्रीय दार्शनिक की इस मान्यता को आज कोई स्वीकार कर सकता है?

इतना ही नहीं, आचार्य शंकर कितने भी महान् दार्शनिक हों, क्या सूत्रकार के स्थान पर भाष्यकार को श्रेष्ठता दी जा सकती है? राष्ट्रीय दार्शनिक ही बनाना है, तो सूत्रकारों की बड़ी लबी परपरा है। यह दुर्भाग्य ही होगा कि वेदान्त के सूत्रकार महर्षि व्यास के स्थान पर वेदान्त सूत्रों की व्याखया करने वाले को राष्ट्रीय दार्शनिक का स्थान दिया जा रहा है। इसे कौन न्याय संगत बतायेगा?

यह हमारे पौराणिक भाइयों का स्वभाव बन गया है- मूल शुद्ध स्वरूप को छोड़कर अशुद्ध स्वरूप को गौरवान्वित करने की उनकी परमपरा है। वेद दर्शन छोड़कर, वे पुराणों को वेद से ऊपर रखने का प्रयास करते हैं। इनके लिये सूत्रकार पाणिनि से महान् कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित है। वही स्थिति है वेदान्त के सूत्रकार से बड़ा इनकी दृष्टि में भाष्यकार है।

सारे अद्वैत के आधारभूत वाक्य हैं –

प्रज्ञानं ब्रह्म। – ऐतरेय उपनिषद्/3/5/3

अहं ब्रह्मास्मि। – बृहदारण्यक/1/4/10

तत्त्वमसि। – छान्दोग्य 6/8/7

अयमात्मा ब्रह्म। – माण्डूक्य 2

इन उपनिषद् वाक्यों को महावाक्य और वेद-वाक्य कहा जाता है।

इस सारे कथन में परस्पर विरोध है। प्रथम, उपनिषद् को एक ओर वेद कहा जा रहा है, दूसरी ओर वेद मन्त्रों को ब्राह्मणेतर से दूर रखने के लिये उनको उद्धृत करने से बचा जा रहा है

आचार्य शंकर ने अपने ग्रन्थों को ‘श्रुति’ कहकर केवल उपनिषद् वाक्यों को ही उद्धृत किया, कहीं भी वेद मन्त्र का उल्लेख प्रमाण के लिये नहीं किया।

इसलिये ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ये वेद वाक्य नहीं है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं और इनका नाम ‘महावाक्य’ कहीं सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा। इन वाक्यों की दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब चार वाक्य चार भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से प्रसंग से हटकर लिये गये हैं, तब एक ग्रन्थ का ब्रह्म पद दूसरे ग्रन्थ के तत् का अर्थ कैसे बन सकता है? यहाँ किसी भी तरह से ब्रह्म पद की अनुवृत्ति नहीं आ सकती। इस पर ऋषि दयानन्द ने लिखा है- तुमने इस छान्दोग्य उपनिषद् का दर्शनाी नहीं किया, जो वह देखी होती तो ऐसा झूठ क्यों कहते? वहाँ ब्रह्म शबद का पाठ नहीं है। – सत्यार्थ प्रकाश पृ. 224

आचार्य शंकर अद्वैत के बहाने शेष पाँचों दर्शनों का विरोध करते हैं, क्या यह मान्य किया जा सकता है?

शंकर परा पूजा में मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, दूसरी ओर ‘भज गोविन्दम्’ का पाठ करते हैं। कौन-सा सिद्धान्त मान्य होगा?

इससे भी आगे आचार्य शंकर उस क्रूर और पाखण्डपूर्ण हिन्दुत्व के समर्थक हैं, जिसके अनुसार स्त्री-शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में पहले अध्याय के तीसरे पाद में वेद पढ़ने के अधिकार के लिये इति ऐतिह्यं= ऐसा पारपरिक कथन है, कहकर पंक्तियाँ लिखी है- जिह्वाच्छेद।

यदि स्त्री और शूद्र वेद मन्त्र सुनें तो उनके कान में सीसा गर्म करके डाल देना चाहिए। यदि मन्त्र बोले तो जिह्वा छेदन कर देना चाहिए और वेद स्मरण करे तो शरीर भेद कर देना चाहिए। क्या पौराणिक लोग शंकर के इस कथन को राष्ट्रीय आदर्श घोषित कराना पसन्द करेंगे?

स्वामी ब्रह्ममुनि अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में प्रथम अध्याय के तृतीय पाद के 38वें सूत्र की व्याया में आचार्य शंकर के विषय में लिखते हैं-

यहाँ शाङ्करभाष्य में वेद का श्रवण करते हुए शूद्र के कानों को गर्म सीसे, धातु और लाख से भरना, वेद का उच्चारण करते हुए का जिह्वाछेदन करना, वेद का स्मरण कर लेने पर शिर काट देने का प्रतिपादन और उसका स्वीकार शङ्कराचार्य के द्वारा करना महान् आश्चर्य और अनर्थ की बात है। साथ ही इसको स्वीकार करने से भी बड़ी बात यह कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ = मैं ब्रह्म हूँ, जीव ब्रह्म की एकता के वाद का स्वीकार और प्रचार करने वाला व्यक्ति इस प्रकार के निर्दय कृत्य को उचित मानता है और सूत्रकार व्यास मुनि का सिद्धान्त है- ऐसा प्रतिपादन करके सूत्रकार को भी कलङ्कित करता है। यह ऐसा शिष्टाचार शिष्ट ऋषि-मुनियों का आचार नहीं जो कि यहाँ शङ्कराचार्य ने दिखलाया। यह तो शिष्टविरुद्ध और वेदविरुद्ध है।

हिन्दुत्व का अभिप्राय अन्याय, पाखण्ड और अन्ध-परमपरा नहीं है, आपने इसी अन्धी चाल के चलते श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रान्तिकारी की स्मृति में गुजरात में संग्रहालय तो बना दिया पर उसमें बड़े चित्र, काष्ठ मूर्तियाँ विवेकानन्द की लगा दीं, क्यों? कोई बता सकता है कि स्वामी विवेकानन्द और श्याम जी कृष्ण वर्मा के कार्य में कोई सामञ्जस्य है? स्वामी विवेकानन्द ने अपने पूरे जीवन में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये कोई कार्य किया है? जीवन में कभी अंग्रेज सरकार का विरोध किया है? किसी क्रान्तिकारी के लिये सहानुभूति या समर्थन में दो शबद कहे हैं, तो उन्हें अवश्य संग्रहालय दीर्घा में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए, अन्यथा तो राष्ट्रीय दार्शनिक उपाधि भी आचार्य शंकर के स्थान पर स्वामी विवेकानन्द को ही दे दें, तो अच्छा होगा, फिर बिरयानी और अद्वैत के मेल से अच्छा वेदान्त बनेगा। यदि किसी गौरव को स्थापित करना है तो वेद शास्त्र की और प्राचीन ऋषियों, आचार्यों की सुदीर्घ परमपरा है, उनको स्मरण करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से भारत का गौरव बढ़ेगा और नई युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी। आप सत्ता के सहारे मूर्खता को स्थापित करेंगे तो जो परिणाम पहले हुआ, वही फिर होगा। इसी अज्ञान से देश दासता को प्राप्त हुआ था, फिर भी वैसा ही होगा। यही कहना उचित होगा-

तातस्य कूपोऽमिति ब्रुवाणा

क्षारं जलं का पुरुषा पिबन्ति।।             – धर्मवीर

 

6 thoughts on “क्या शंकराचार्य को राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करना उचित होगा?”

    1. kisee ki bhee ninda usake karm nirdharit karte hein
      bina tadupayukt karmon ke koi ninda ka patra naheen banata
      ek hath men biryani aur ek hath se vedand yahee vivekanand ki den hai
      aap unka sahiyta paden aur swayam nirnay len
      satya ko kahana ninda naheen hotee

    2. विवेकानंद ने मांस भक्षण और गौ हत्या को सनातन धर्म का अंग बताया था इसलिए ।

  1. Arya samaj ne swami vivekanand ki ninda karne me koi kasar nahin chodi hai aur uska adhar yah hai ki wah mans khate the
    Aj ke yug me vedic sanatan dharm 6 logon par nirbhar hai mahrishi dayanand saraswati swami vivekanand ved moorti shripad damodar satvalekar shriramanujachary shrimadhvacharya and adishankaracharya

    1. kisee ki bhee ninda usake karm nirdharit karte hein
      bina tadupayukt karmon ke koi ninda ka patra naheen banata
      ek hath men biryani aur ek hath se vedand yahee vivekanand ki den hai
      aap unka sahiyta paden aur swayam nirnay len
      satya ko kahana ninda naheen hotee

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